Saturday, May 12, 2012

सुनो! मृगांका-भाग तीन

आने वाला पल जाने वाला है...

खट्...खट्...खट्। कुल्हाड़ियां चल रही थीं। हरे बांस पर।

पिता का शव आंगन में तुलसी चौरे के पास रखा था। मां दहाड़ें मारकर रो रही थी। अभिजीत महज चार साल का था। कुल्हाड़ियां बस बांस पर नहीं चल रही थीं। अभिजीत के वर्तमान और भविष्य दोनों पर कुल्हाड़ी चल गई थी।

उसके पिता एक सरल इंसान थे। सीधे-सादे स्कूल मास्टर। टीचरों की औकात तब भी कुछ नहीं थी। आज भी नहीं। बजाय इसके कि समाज ने उन के कंधों पर देश की भावी पीढ़ी तैयार करने की महान् जिम्मेदारी दी है और उसके एवज़ में स्कूल मास्टरों से नैतिक होने की उम्मीद की जाती है।

अभिजीत के पिता बहुत नैतिक थे। कभी ट्यूशन नहीं पढ़ाई। सरस्वती की साधना करते रहे। इसलिए लक्ष्मी कभी उनके द्वार पर फटकी तक नहीं।

कुछ ही दिनों में नौबत फ़ाकाकशी की आ गई। मास्टर की जमापूंजी की औकात ही क्या। रिटायरमेंट के बाद मिलने वाला पैसा श्राद्ध में खर्च करना पड़ गया। सबसे बड़े भाई साब भी दसवीं पास नहीं थे। भाई साब ने उसके बाद जिंदगी को बहुत करीब से देखा। धीरे-धीरे पैसे के महत्व को समझते चले गए। कहते, पैसा है तो सब हैं। पैसा नहीं तो कोई नहीं।

पैसा नहीं तो कोई नहीं पास रहता। कभी मृगांका ने पूछा था उससे, 'तुम पत्रकार ही क्यों बने?' उसने बताया था कि वह पत्रकार अपनी मर्जी से बना था, कि वह इंजीनियर है, कि इंजीनियरिंग उसके मिजाज़ से मेल नहीं खाता, कि इंजीनियरिंग की पढ़ाई उसने उस वक़्त की थी, जब उसकी जिंदगी के सारे फ़ैसले कोई और ले रहा था।

जिस दिन इंजीनियरिंग की पढ़ाई खत्म करने के बाद उसने दिल्ली जाने का फ़ैसला किया था...नौकरी करने के लिए नहीं, शायद पत्रकार बनने के लिए। भाई ने उसके आगे हाथ जोड़ लिए थे।

बड़े भाई ने साफ कह दिया था। उस साफ़गोई में थोड़ी मुलायमियत भी थी, थोड़ी मासूमियत भी, थोड़ी चालाकी भी और थोडी बेचारगी भी। भाई साहब ने टुकड़े-टुकड़ों में जो कहा था, उसका लब्बोलुआब था कि चूंकि उनका खुद का भी परिवार है और उनकी आमदनी बहुत कम है, ऐसे में दिल्ली जाने पर वह घर से किसी किस्म की मदद-खासकर आर्थिक मदद- की उम्मीद न रखे।

उसके बाद से अभिजीत ने किसी से कोई उम्मीद नहीं रखी। लेकिन मृगांका ने आकर पता नहीं क्यों उम्मीदें जगानी शुरु कर दी थीं। मृगांका की होठ दबाकर मुस्कुराने की अदा पर वह कसमें खा-खाकर निहाल होता रहता।

न्यूज़ रूम में भी मृगांका को देखना धीरे-धीरे उसकी आदत बनती चली गई थी। मृगांका भी नजर बचाकर देख ही लेती, यह बात दोनों पर ज़ाहिर थी कि दोनों चोरी-चोरी एक दूसरे को देख रहे हैं कुछ फिराक़ के शब्दों में ऐसे कि--

री महफ़ि‍ल में हर इक से बचा कर
तेरी आँखों ने मुझसे बात कर ली
...सारा ध्यान मृगांका की ओर रखते हुए भी वह सावधान रहता कि कोई उसे इस तरह नरम पड़ते न देख ले। आखिर बदतमीजों का भी अपना ईमान होता है, एक छवि होती है। अपनी छवि से बाहर आए नही कि बस लोग ताड़ लेंगे और आपसे डरना बंद कर देंगे।

लेकिन अभिजीत किसी से नही डरता था...मौत से भी नही। लेकिन यह कहने की बातें थीं...अब जब मौत दरवाजे पर खड़ी-सी है, उसे डर-सा लगने लगा है।

कई सारे बचे हुए काम याद आने लगे हैं...।

अपने तमाम करिअर मे, और कॉलेज के दिनों में- जब से प्रशांत उसे जानता है- अभिजीत हमेशा हंसने-हंसाने छींटाकशी करने, मजाक उड़ाने की विचारधारा का प्रतिबद्ध सिपाही रहा है...लेकिन पिछले कुछ दिन अभिजीत को बदल रहे हैं।

अप्रैल के आखिरी दिनों में- जब तेज धूप होनी चाहिए थी, दिल्ली में काले बादल छाए हैं। हुमक-हुमक कर बारिश हो रही है।

कॉमिडी शोज़, हिलेरी क्लिंटन की भारत यात्रा 
और ऐसी ही तमाम खबरों के बीच कोई शाकालनुमा बाबा टीवी पर नमूदार हो जाते हैं..। अभिजीत संजीदगी की सीमाओं को पार कर जा रहा है।

आज पता नहीं क्यों अतीत घूम-घूमकर अभिजीत के सामने आ जा रहा है। अतीत जिसने उसे यहां ला पटका है।

जस्ट फॉरगेट द पास्ट...।

अभिजीत ने सामने बालकनी में रखी कुरसी पर जमते हुए अख़बार फैला दिए। तमाम तरह की आशंकाओं से भरा अखबार...किसी भी भाषा में पढ़ो, सबसे पहले आशंकाओं की खबरें।

कोई अच्छी खबरें क्यों नही छापता फ्रंट पेज पर..फ्लायर बना कर..एकदम आठ कॉलम में..??

कोई तो अच्छी खबर हो...कि मृगांका ने तमाम शिकवे-शिकायतें नजरअंदाज करते हुए वापस लौटने का फैसला कर दिया है...कि मृगांका ने काली-घनेरी जुल्फों से उसका सिर ढंक दिया है..कि डॉक्टर ने जो कुछ कहा है वो रिपोर्ट गलत है, कि एक बाप का साया सिर से उठ जाने की वजह से उसे जो जिंदगी में सारे समझौते किए हैं, उसके लिए एक अन-डू का बटन आ गया है...कि लोग अपने अतीत में टाइम मशीन के जरिए लौट सकते हैं, कि स्टीफन हॉपकिन्स ने अतीत में जाकर अपना अतीत सुधार सकने का समीकरण दुनिया के सामने रख दिया है।

लेकिन ऐसा समीकरण नहीं बना अब तक। जिंदगी की पटकथा में जो शूट हो चुका उसमें परिवर्तन मुमकिन नहीं।

अखबार के पन्ने उसके अतीत के साथ डिजॉल्व होते चले गए। अबिजीत का मन हो रहा था कि वह अपनी जिंदगी को दोबारा एडिट करे। उसकी कॉपी दोबारा लिखे। चाहता था कि सीन 12 को बदल दे। लेकिन जिंदगी  की कहानी ऐसी कसी होती है कि जैसे ही आप कम खुशगवार सीन 12 को बदलते हैं तो जिंदगी का सबसे खुशगवार सीन 32 में काट देना पड़ेगा। 12 हटाया तो 32 भी हटाना पड़ेगा। उफ़्।

इसी को तो कहते हैं डेस्टिनी।

बाप की मौत के बाद नास्तिकता की ओर बढ़ता लड़का सोचते-समझते हुए पक्का नास्तिक बन जाता है। घरवालों ने कम्युनिस्ट कह कर लगभग रिश्ते काट लिए। भाई बहन पैसे की जरूरत होती है तभी याद करते हैं। 

यही भाई बहन जिनके साथ बचपन के सबसे दुश्वार साथ गले से गले मिलकर रहे। अंधेरे से डरने वाली बहन जो महज ग्यारह साल की थी, मंझले भाई जो 9 साल के...अंधेरे से कभी नहीं डरा तो अभिजीत। अपने बड़े भाई बहनों को सहारा देने वाले अभिजीत के लिए अब इनके यहां कोई जगह नहीं। 

डेस्टिनी। 

जारी 

6 comments:

Unknown said...

zindagi ka falsafaa.....kitna bhi jee lo anchhua hi rahta hai...
nice story...i need to read previous part now!!! :)

Unknown said...

zindagi ka falsafaa.....kitna bhi jee lo anchhua hi rahta hai...
nice story...i need to read previous part now!!! :)

प्रवीण पाण्डेय said...

चाह कर भी पीछा नहीं छोड़ता है भूतकाल और स्मृतियाँ, कुछ घटनायें कठोर बनाती हैं हृदय को, सच को छूती कथा।

दीपक बाबा said...

@डेस्टिनी।

जारी ..



कुछ ऐसा भी तो :
डेस्टिनी जारी है ....

डा. गायत्री गुप्ता 'गुंजन' said...

टीचरों की औकात तब भी कुछ नहीं थी। आज भी नहीं। बजाय इसके कि समाज ने उन के कंधों पर देश की भावी पीढ़ी तैयार करने की महान् जिम्मेदारी दी है.....

Unknown said...

pita ka saya na rahe to zindagi wakayi mai bhikhar jaati hai....or jimmedaariya bhi ....is ankh nai mujhe mera ateet yaad dila diya...