Sunday, May 20, 2012

सुनो! मृगांकाः ख्वाहिशों का काफ़िला भी अजीब है...

तीत फेड इन होकर वर्तमान में फेड आउट हो गया। कुरसी पर टिके-टिके ही सोचने लगा आखिर रिश्ते होते क्या हैं..जो हमें जन्म से मिलते हैं या जो हम खुद कमाते हैं बनाते हैं और जमा करते हैं?

....हाथ की सिगरेट राख हो गई।  अभिजीत ने देखा सूरज बालकनी में झांकने लगा था। बस झांकने भर ही। बादलों के पीछे सूरज सहमा-सा खड़ा था। बाहर तो रौशनी है, लेकन मन का अंधेरा इतना घना क्यों हैं।

लाई हयात आये कज़ा ले चली चले...अपनी खुशी न आए न अपनी खुशी चले...पड़ोस के घर में बेग़म अख्तर की आवाज़ दिल के ग़म को गहराई देने लगे। अभिजीत उस पड़ोसी को कोसने लग गया, सुबह में ससुरा बेग़म अआख़्तर सुनता है...शाम को पंडित भीमसेन जोशी। यार कुछ तो खयाल रखा करो...एक तो मन का स्याह होता जाना, उस पर से बेग़म अख़्तर...।

हालांकि सुबह-सुबह पीना अच्छा नहीं माना जाता। लेकिन जब जिंदगी में कुछ भी अच्छा न हुआ हो, तो ये भी एक और खराब बात ही सही। अभिजीत अंदर जाकर एक पैग बना लाया।
जिंदगी में जो चाहा कभी पूरे ही नहीं हुए। ये ख्वाहिशें होती ही क्यों है ऐसी...

ख्वाहिशों का काफ़िला भी अजीब है...
कमबख़्त गुज़रता वहीं से हैं, जहां रास्ते नहीं होते।


अभिजीत फिर से फ्लैश बैक में जाने लगा था।

बाबूजी की मौत के बाद मां ने बहुत भाग-दौड़ की। उनके जीपीएफ के पैसों के लिए...हर जगह घूस मांगी जाती। गांव के कुछ खेत बेचने पड़े थे। चाचा लोग अड़ गए। दादी चाचाओं के पक्ष में खड़ी हो गई। गांव की ज़मीन पर दोनों चाचाओँ ने कब्जा कर लिया कुछ इस अंदाज में कि बड़ा भाई तो चला गया, अब तुम कौन। ये यही चाचा थे जिनको पढ़ाने का खर्च अभिजीत के पिताजी ने खुशी-खुशी उठाया था। अपने बच्चों का पेट काट कर भाईयों पर प्यार लुटाया था।

मां कई कई दिनों तक बड़े भाई को लेकर पटना के चक्कर काटती। घर में अकेले रह जाते अभिजीत, मंझले भाई और बहन। घर के सामने पोखरा, पोखरे और घर की चहारदीवारी के बीच इमली का घना-काला डरावना पेड़। आंगन में भी नीम का ऊंचा पेड़। नीम के उस पेड़ पर बगुले रहते और रात को डरावनी आवाज़ में शोर मचाते। मुहल्ले में भी घर बेहद कम।

सके शहर की डिजाइन कुछ कुछ अंग्रेजी शैली की थी। अंग्रेज जब इस देश के हुक्मरान थे तो उसके शहर में कोलकाता से हवा बदलने आते। कई कोठियां, खूब सारे बागान...।

इमली का वो पेड़ रात को डरावना लगता। बरसात के मौसम में किसी जलपक्षी का कोई अंडा खो जाता तो रात भर शोर करता। डर कई गुना बढ़ जाता।

बहन सांझ होते ही कोयले के चूल्हे सुलगाती। चूल्हे के कोयले से उठा धुआं अब भी अभिजीत की नाक में जिंदा है, बचपन की याद के तौर पर। खाना बारामदे में पकता। रात को खाना पकाने के बाद सारे बरतन-भांड़े अंदर ले जाए जाते। बहन और भाई को डर लगता था, अभिजीत को भूत से डर नहीं लगता...उसे अपने बाबूजी की याद आती थी।

अतीत की परतें पता नहीं क्यो इतनी खुलती जाती हैं कि आपको रुआंसा कर सकती हैं।

जस्ट फॉरगेट द पास्ट....

भिजीत को याद आया इसी मृगांका ने कभी प्यार के क्षणों में बहुत पुलक कर कहा था, शायद इकरार के क्षणों की बात हो...'आप को कुछ समझ में तो आता नहीं।' अभिजीत को मृगांका की हर बात याद है...लफ़्ज़-दर-लफ़्ज़,

याद है अभिजीत को मृगांका से मुलाकात के बाद उसने फटीचर प्रेमी की तरह उसके प्रोफाइल की गलियों में भटककर कई फोटो डाउनलोड कर लिए...टाइट क्लोज अप और एक्स्ट्रीम क्लोज अप को और भी टाइट बनाने के वास्ते सिर्फ आंखों वाले हिस्से क्रॉप कर लिए...प्रशांत कहता कि वो दीवाना हो रहा है,  पगला रहा है..तमाम किस्म की बॉलिवुडीय भावुकता उसके सर चढ़कर बोल रही है। अभिजीत ने प्रशांत को कई बार मुस्कुरा कर देखा...उसेक भीतर प्यार इतना भर गया था कि सर  भन्नाता रहता था उसका।

अभिजीत ने घड़ी देखी, नौ बज रहे हैं। सूरज न निकले तो कभी सबेरा होता ही नही क्या? जब-जब वह सूरज को देखता है उसे हमेशा सूरजमुखी याद आती है। पीले कपड़े, लाल दुपट्टा...नहीं आखिरी बार देखा था तो लाल कपड़े थे दुपट्टा पीला था। दारू का नशा काम कर रहा है।  सर भन्नाना शुरु हो गया। मृगांका ने जाते वक़्त आखिरी बार मुड़के भी नहीं देखा था।

अभिजीत प्यार के अपने शुरुआती दिनों में ही दीवाना हो गया था। मृगांका कॉन्वेंट से पढी़ थी। उसकी आवाज़...अभिजीत ने कई बार उससे कहा था कि तुम टीवी में या तो एंकर बनो या रेडियो जॉकी बन जाओ। मृगांका को सोचते-सोचते अभिजीत भी हिंग्लिश में ही सोचने लगा था...कॉपी लिखते वक्त ऐसे लिखता कि एक दिन उसके कॉपी एडिटर ने ऐसे देखा जैसे वो इंडस्ट्री का सबसे चूतियाटिक रिपोर्टर बन गया हो।....स्साला...भैन....

न्यूज़ रूम में मृगांका तिरछी आंखों से उसकी तरफ देखती। कैमरा अभिजीत के ओवर द सोल्डर से ट्रैक होता हुआ मृगांका की आंखों पर रुकता है और एक्सट्रीम क्लोज अप तक ज़ूम होता है।

प्रशांत कहता है कि मृगांका बेवफ़ा थी। अभिजीत कहता है ऐसा हरगिज़ नहीं है। अभिजीत मृगांका से प्यार करता है। आप जिससे प्यार करते हैं उससे नफ़रत तो कभी कर ही नहीं सकते। प्रशांत हमेशा उसके धैर्य से दंग होता रहा है। उसके प्यार से भी...। प्रशांत कहता है, मृगांका ने उसे नहीं छोड़ा, उसने मृगांका को नहीं छोड़ा। तो दोनों साथ क्यों नहीं है।

यहीं आकर मज़ाक पर उतर आता है अभिजीत। दोनों हाथ हवा में लहराते हुए कहता है, 'डेस्टिनी! बाबू मोशाय डेस्टिनी!'

चार पैग के बाद अभिजीत का गला सूखने  लगा। गला सूखने का यह क्रम एक महीने से जारी है। एक महीने पहले भी ऐसे ही चार पैग के बाद उसका गला सूखा था, आज भी पैगों की संख्या और गले सूखने की प्रक्रिया एक-सी है।

जीवन में प्रक्रियाएं एक सी क्यों नहीं होती। जिंदगी एक सीधी लकीर की तरह क्यों नहीं चलता। अबिजीत को पता है कि उसके जैसी न जाने कितनी प्रेम कहानियां होंगी,जो फिल्मों में, किताबों में होंगी। अगर किताबों में हैं तो उसके सवालों के जवाब भी होने चाहिए।

अगर उसके जैसा प्रेम दुनिया में पहले भी हो चुका है, तो उसका तजुर्बा अभिजीत के काम क्यों न आय़ा।

जिंदगी में जो होता है, कई बार किताबों में नहीं होता।

'डेस्टिनी! बाबू मोशाय डेस्टिनी!'

...जारी

3 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

दुर्दिन, भाग्य निपोरे खींसे..

Anonymous said...

This article provide many tips. Very useful to me. Thanks a lot ?
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दीपक बाबा said...

'डेस्टिनी! बाबू मोशाय डेस्टिनी!'