Monday, October 15, 2007

बुद्धिजीवी होने के पेंच

आपने मेरी तस्वीर, जिसे मैं प्यार से फोटू कहता हूं, देख ही ली होगी। इस तस्वीर को खिंचवाने में बहुत मेहनत करनी पड़ी मुझे। मुझे लगा कि ऐसी तस्वीर के ज़रिए लोग मुझे भी बुद्धिजीवी समझने लगेंगे। मैं सीधे तोप हो जाऊंगा। टाइमबम। किसी ने छेड़ा नहीं कि सीधे फट पड़ने वाला...। तो श्रीमानों, महानुभावों, श्रीमंतों, कृपानिधानों नौजवानों ऐसा अभी तक तो हुआ नहीं है अभी तक।

दरअसल, तस्वीर खिंचवाने और मन की स्थिति को बुद्धिजीवियों के स्तर तक लाने में बहुत झख मारनी पड़ती है। लेकिन मन में बैठी उस बात का क्या किया जाए। बचपन से देखता आया हूं कि जिस किसी को भी मन ही मन यह यक़ीन हो कि उसमें भी इंटेलेक्चुअलत्व है ज़रा भी। वह अपनी खुद की प्रायोजित किताब में ऐसी ही तस्वीरें चस्पां करवाते हैं। जितने विचारक जाति के लोग हैं, साहित्यकारनुमा लोग, प्रोफेसर इत्यादि हैं, वह ऐसी ही तस्वीर खिंचवाते हैं। हाथ गाल पर.. ठुड्डी पर। आंखें उधर .. जिधर फोटोग्राफर के स्टूडियों में कंघी-शीशा टांगने की जगह होती है।

पहले तो मैंने भी वैसा ही करने का पूरा प्रयास किया था। हाथ को ठुड्डी पर टिकाया, लेकिन ससुरा टिका ही नहीं। हाथ और ठुड्डी में यदुरप्पा और देवेगौड़ा जैसा रिश्ता...। मेरे चेहरे पर दाढ़ी भी वैसे ही उगती है, जैसे चुनाव के ऐन पहले क्षेत्रीय पार्टियां उग आती हैं। ये पार्टियां जैसे जीतनेवाले मजबूत उम्मीदवारों की आंखों में गड़ती हैं ना, वैसे ही दाढीं के कड़े बाल मेरे हथेलियों में गड़ने लगे। बुद्धिजीवी की तरह त्स्वीर खिंचवाने के मेरे प्रण का कौमार्य भंग होने लगा।

मुट्ठी खोलने की कोशिश की तो हथेलियों से चेहरा छिपने लगा, कैमरावाला मोबाईल फोन हाथ में लिए दोस्त फिकरा कसने लगा, यार मनोज कुमार की तरह लग रहे हो। अब ये मत बोलना कि हमारे देश की हर लड़की मां है, बहन है, बेटी है...। मै पस्त हो गया। लेकिन मैं भी बुद्धिजीवी बनने के लिए उतारू था।

हाथ में कलम लेकर उपर की तरफ ताकना..शून्य में निहारना..मानों दुनिया में सुकरात के अब्बा और अफलातून के दादा मेरे कंधो पर सारी दुनिया की समस्याओं का बोझ डालकर निंश्चिंत हो गए हों, निश्चिंत होकर ज़न्नत की अप्सराओं के साथ चांदनी रात में नौका विहार कर रहे हों..। मेरा स्वबाव भी कुछ ऐसा ही ऐं-वईं हंसी आने लगती है। सोनिया माताश्री, आडवाणी (सावधान, पिताश्री नहीं बोल रहा हूं उन्हें.. अपनी तरफ से कुछ भी बाईट मत सोच लिजिए.. कलाकार हैं आपलोग कुछ भी कर सकते हैं। वरना झज्जर की सभा में माताश्री के बयानों को तोड़-मोड़ कर ऐसे पेश नहीं करते कि यूपीए और वाम दलों में कबड्डी मैच आयोजित करवाने की ज़रूरत पड़ने लगती।) , प्रकाश करात जैसे बिना ज़िम्मेदारी के सत्तासुख का पान करने वाले महादेशभक्त और मधुकोड़ा जैसे छींका टूटने से सत्ता पाने वाले से लेकर हरकिशन सिंह सुरजीत पर ऐसे ही हंसी आने लगती हैं।

आम आदमी हूं..आम आदमी अपनी बुरी दशा में भी हंसता है, नेताओं की चूतियागिरी पर हंसता है। हंसता नहीं होता तो हम खुश रहने वालों के सूचकांक में इतने ऊपर होते क्या। हमें तो रोटी के साथ नमक मिल जाता है तो हम खुश हो जाते हैं। ध्यान दीजिए. प्याज और तेल नहीं जोड़ा है मैंने। सरकार की महती कृपा से मैं पूर्णतया शाकाहारी हो गया हूं। सब्जियां उबालकर खा रहा हूं, मां को शक हो गया है कि घर के सभी लोगों को पेट की कोई गंभीर बीमारी हो गई है, जभी मैंने सबके तेल और प्याज खाने पर रोक लगा दी है। कौन समझाएगा कि बीमारी किसको हुई है पेट की.. बीजेपी की तरह मुझे एक बीमारी ज़रूर हो गई है, मुद्दे से भटकने की। माफी चाहूंगा...बात मैं कर रहा था, तस्वीर खिंचवाने की।

तो जनाब, तस्वीर खिंचवाने के लिए गंभीर होना सबसे बड़ी समस्या थी। वैसे किसी दोस्त ने सलाह दी कि कुरता पहनो , बुद्धिजीवा लगोगे..बुद्धिजीवी होने के लिए कुरता पहनना बहुत ज़रूरी है। लेकिन हमारे शरीर की ढब कुछ ऐसी है कि कुरता पहनूं तो लगता है, खूंटी में टांग दी गई है। सो यह ख़्याल हमने तत्काल प्रभाव से खारिज कर दी, ठीक वैसे ही जैसे सरकार बचाने के लिए कॉंग्रेस एटमी करार को ठंडे बस्ते में डालने पर राजी हो गी है। वैसे जहां तक गंभीरता का सवाल है, वह तो हम आजतक हुए ही नहीं.. बहुत कोशिश की गौतम गंभीर ही हो जाएं, कभी तोला कभी माशा की तरह टीम में रहें, कम से कम मेरे नाना के घर पर भी आयकर महकमे का एक छापा तो पड़ ही जाए। लेकिन आसमान को यह मंजूर ही नहीं।

गोया गंभीर हम तब हो गए, जब किसी खराब स्टोरी की कवरेज के लिए दबाव आया कि यह पीआर स्टोरी है, करनी ही है। जी नहीं चाहता था कुछ भी करने का, पीआर का मतलब.. ज़रूरत से ज़्यादा ध्यान से दंडवत् करते हुए स्टोरी पेलना, और खराब स्टोरी इतने बड़े होने जा रहे यानी भावी बुद्धिजीवी से पीआर कवरेज करवाना न्याय है क्या? सुनकर हम गंभीर (संजीदा गुरु.. गोतम वाला नहीं) हो गए, दोस्त मेरा पियोर खांटी दोस्त है, इसी मौके की तलाश में था, चट् से फोटू टांक दी। तबसे हर जगह यही तस्वार टांकता चलता हूं, ताकि लोगों को लगता रहे कि यह जो चंट जैसा इंसान पिचके गालों को ढंकने के लिए चेहरे पर हाथ रखे हुए है, छंटा हुआ बुद्धिजीवी है।

4 comments:

Santosh said...

Bhai Saab wakai budhijivi ho chale ho. chere-mohre padhkar aapko ye upma (balki aapka wajib haq) dene ka jimma to ham bhi ladkiyon par hi chodte hain. lekin kam se kam lekhani se to aise hi jan padte hai.
Khair chhodia in wiwadit muddon ke pench me kyon pade...(ha...ha....ha....ha)
jaha tak aapki dadhi ugne ka sawal hai..mai to chahunga ki ye khsetriye partiyo(BSP,SP,RJD) ki tarah badhe..or kendiye rajniti (Abha mandal)me aham bhoomika nibhae.

अजय रोहिला said...

क्या बात है खुद को व्यक्त करने का इससे अच्छा माध्यम और क्या हो सकता है। ब्लाग्स की दुनिया। उभरते नौनिहाल लेखकों का मक्का। कुछ महीनों पहले ही इस नये संसार से परिचय हुआ। शुरुआत रवीश कुमार के ब्लाग से की। धीरे-धीरे अपने कुछेक चहेतों को यहां देखा तो मेरे अंदर का लेखक उफान मारने लगा, और शुरुआत की कोशिशे तेज कर दी है। आज ही लिखने का नया फंड़ा हाथ लगा है।समय मिलते ही जल्द शुरु करुगा।

Unknown said...

Now that's Gustakh in its true colours. Terrific diction, tremendous lucidity and thought process. It reminds me of a youth who I had met at IIMC in 2004 and who was full of wit and humour and at the same time knew how to provide a sarcastic and witty way to the common man to pour out his greviances against the system. Pardon me for not expressing my comments in hindi.

अजय रोहिला said...

मंजीत जी मैने अपने ब्लाग पर आपको आपके ब्लाग का लिंक दे दिया है बुरा मत मानिएगा। वैसे मान भी लेगें तो क्या उखाड़ लेगें।
धन्यवाद।