Wednesday, October 3, 2007

कुछ और भी...इच्छाएँ जो छूट गईं..

सुशांत झा एक संवेदनशील पत्रकार हैं। मेरी गांधीगीरी.. पर उनने कुछ और जोड़ा है, हम सादर उनकी उन इच्छाओं को जो मेरी भी हैं, और कलमबद्ध होते-होते रह गई थीं- और जिसे उनने लिख भेजा है-छाप रहे हैं।


भाई कुछ और क़समें रह गई हैं..जैसे..मैं डीलमेकर बनूंगा. हाईवे से लेकर डिफेंस तक में कुलांचे भरूंगा. मैं हार्स ट्रेडिंग करूंगा। मैं मिशन (???) पत्रकारिता करूंगा। मैं क्रिश्चियन से लेकर .. संघ के कुनबे तक की सैर करूंगा...और कम से कम एक अदद एनजीओ तो होगा ही..जिसकी मेंबर सिर्फ मेरी पत्नी और मेरी मां होगी..

मैं किसी एजुकेशनल ट्रस्ट से लेकर कृषि विकास केंद्र तक का चेयरमैन हो सकता हूं...उम्र के अंतिम दशक में मैं किसी मास क़ॉम इंस्टिट्यूट में प्रोफेसर या किसी पॉलिटिकल पार्टी या नामी पॉलिटिशयन का स्पोकपर्सन भी हो सकता हूं। मैं शपथ खाता हूं कि मैं अपने हिंदी मीडियम में पढ़ने का कलंक धो दूंगा और मेरे बच्चे किसी स्कॉलरशिप पर विदेशी डिग्री ही हासिल करेंगे। मेरी एक मात्र अंतिम इच्छा राज्य सभा में मनोनीत सदस्य बनने की है। या नहीं तो प्रसार भारती के मेंबरशिप से भी मैं संतुष्ट हो सकता हूं।

मैं बहुत लालची नहीं हूं...मैं चाहूंगा कि लोग मुझे मरने के बाद एक प्रसिद्ध बुद्धिजीवी के रूप में याद करें जिसने समाज और पत्रकारिता को नई ऊंचाईयां दी...और कि मेरे मरने के बाद ये शून्य लोगों को बहुत खलेगा...आमीन।।

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