दोस्तों, मैं बहुत नाराज़ हूं अपने आप से। सब कुछ सीखा हमने न सीखी होशियारी की तर्ज़ पर, हमने थूक कर चाटने की कला नहीं सीखी। औक़ात ही नहीं थी, विंसेंट बान गाग (चित्रकार) की तरह ऐसी औपचारिक शिक्षा के लायक ही नहीं मैं। वैसे, पब्लिक मैनेजमेंट की यह कला, मेरी हार्दिक इच्छा है कि सीख लूं, ( देखिए इसे चमचागीरी कहने की हिमाकत न कीजिएगा।) लोगबाग मैनेजमेंट की िस कला के ज़रिए सीढियां चढ़ रहे हैं, बखूबी चढ़ रहे हैं। हम हैं कि उन्हें चढ़ते हुए देख रहे हैं। इसके सिवा कुछ नहीं कर सकते.. कि साथी( पढ़ें प्रतिद्वंद्वी) आगे बढ़ रहा है, तो सहृदयता से ताली बजाया करें। मानसपटल पर भारतीय दर्शक की मनोदशा होती है। पोंटिंग हमारे गेंदबाज़ों को धो रहा है, हम उनके शतक पर दिल खोल कर ताली बजा रहे हैं। अस्तु...
मैं बात कर रहा था, थूक कर चाटने की। इस कला का मेरी ऊपर की बातों से कोई लेना-देना नहीं। मैं तो यूं ही -वो- हो जाता हूं, जिसे साहित्यकार वगैरह जज़्बाती होना कहते हैं। बहरहाल, थूककर चाटने की उचित परिभाषा तलाश करनी हो, तो हमारे दो सबसे बड़े राजनीतिक दल इस कला में सिरमौर होंगे। आप अगर अब भी नहीं बूझ पाए हैं, तो साफ़-साफ़ सुन लें। वर्णक्रम में बता रहा हूं ( अर्थात् अल्फाबेटिकली) पहली पार्टी है अलग तरह की अपनी पार्टी बीजेपी। जिस-जिस को थूका, उसे फिर से चाटा। इस चीज़ को हम पॉलिटिकल इंजीनियरिंग नाम देते हैं। कल्याण को थूका, फिर उसे चाट लिया। आडवाणी को जिन्ना मसले पर संघ ने थूका ही नहीं उनकी उल्टी-कै कर दी लेकिन फिर चाट रहे हैं। क्या बात है.. क्या मानें इसे...। अजी, राजनाथ लाख कहते रहें... दिल्ली जाने वाली बारात के दूल्हे वो ही हैं, लेकिन सेहरा उनके सर से छीन कर चचा आडवाणी के माथे सजाने की हरचंद कोशिशें कर रहे हैं भाई लोग। हां, थूका तो राजनाथ ने भी.. अपनी गठबंधन सरकारों के मुद्दे पर। मायावान् बसपा की कई बेवफाईयों और हाल ही में कर्नाटक में नाटक झेलकर फिर से सरकार बनाने के लिए राज्यपाल के सामने विधायकों की परेड करवाना थूक कर चाटना ही नहीं हैं क्या?
चलिए, इस कला के दूसरे महारथी भी कम नहीं हैं। मनमोहन के अमेरिकापरस्त करार पर रार करने वाले वाम दलों ने कहा कि इंसान के तौर पर उन्हें क्लीन चिट दे दी है। मनमोहन दुखी हैं करार नहीं हो पाया। रहा करें। वाम दलों ने तो कहा ऐसा बिना रीढ़ का पीएम कब मिलेगा फिर भला। अभी अच्छा है। जो कहो मान लेते हैं। अब तो घर में पानी की घूंट भरने से पहले भी हमारे सकुचाए हुए पीएम करात को फोन पर पूछते हैं- प्रकाश जी पानी पी लूं। करात जवाब देते हैं- स्वदेशी पानी ही पीना। मनमोहन हामी भरते हैं। स्वदेशी का ज़िम्मा बजरंगियों के हाथों से फिसल कर लेफ्ट के हत्थे चढ़ गया है।
सोच रहा हूं, थूक कर चाटने के इस अद्भुत प्रबंधन कला को आईआईएम में पढ़ाने की सिफारिस कर ही डालूं। फैसले करो, बयान दो, पलट जाओं। खंडन मत करो। मीडिया के पास फुटेज हैं, खींच देगा। बल्कि ढिठाई से कहो, कहा था पहले अब ऐसा नहीं है। तकरार खत्म हो गया है। अब पीएम अच्छे हैं। कहो, यदुरप्पा आधुनिक धृतराष्ट्र को मंजूर हो गए हैं। सत्ता की चुसनी ऐसी है कि उसे चुभलाने के लिए खंखारकर थूक दीजिए, उस बलगम को चाट लीजिए, तो भी कम। और सिद्धांत.. क्या कहा?...सिद्धांत ..ये क्या होता है भला? कम से कम राजनीति में तो नहीं ही होता है।
मैं बात कर रहा था, थूक कर चाटने की। इस कला का मेरी ऊपर की बातों से कोई लेना-देना नहीं। मैं तो यूं ही -वो- हो जाता हूं, जिसे साहित्यकार वगैरह जज़्बाती होना कहते हैं। बहरहाल, थूककर चाटने की उचित परिभाषा तलाश करनी हो, तो हमारे दो सबसे बड़े राजनीतिक दल इस कला में सिरमौर होंगे। आप अगर अब भी नहीं बूझ पाए हैं, तो साफ़-साफ़ सुन लें। वर्णक्रम में बता रहा हूं ( अर्थात् अल्फाबेटिकली) पहली पार्टी है अलग तरह की अपनी पार्टी बीजेपी। जिस-जिस को थूका, उसे फिर से चाटा। इस चीज़ को हम पॉलिटिकल इंजीनियरिंग नाम देते हैं। कल्याण को थूका, फिर उसे चाट लिया। आडवाणी को जिन्ना मसले पर संघ ने थूका ही नहीं उनकी उल्टी-कै कर दी लेकिन फिर चाट रहे हैं। क्या बात है.. क्या मानें इसे...। अजी, राजनाथ लाख कहते रहें... दिल्ली जाने वाली बारात के दूल्हे वो ही हैं, लेकिन सेहरा उनके सर से छीन कर चचा आडवाणी के माथे सजाने की हरचंद कोशिशें कर रहे हैं भाई लोग। हां, थूका तो राजनाथ ने भी.. अपनी गठबंधन सरकारों के मुद्दे पर। मायावान् बसपा की कई बेवफाईयों और हाल ही में कर्नाटक में नाटक झेलकर फिर से सरकार बनाने के लिए राज्यपाल के सामने विधायकों की परेड करवाना थूक कर चाटना ही नहीं हैं क्या?
चलिए, इस कला के दूसरे महारथी भी कम नहीं हैं। मनमोहन के अमेरिकापरस्त करार पर रार करने वाले वाम दलों ने कहा कि इंसान के तौर पर उन्हें क्लीन चिट दे दी है। मनमोहन दुखी हैं करार नहीं हो पाया। रहा करें। वाम दलों ने तो कहा ऐसा बिना रीढ़ का पीएम कब मिलेगा फिर भला। अभी अच्छा है। जो कहो मान लेते हैं। अब तो घर में पानी की घूंट भरने से पहले भी हमारे सकुचाए हुए पीएम करात को फोन पर पूछते हैं- प्रकाश जी पानी पी लूं। करात जवाब देते हैं- स्वदेशी पानी ही पीना। मनमोहन हामी भरते हैं। स्वदेशी का ज़िम्मा बजरंगियों के हाथों से फिसल कर लेफ्ट के हत्थे चढ़ गया है।
सोच रहा हूं, थूक कर चाटने के इस अद्भुत प्रबंधन कला को आईआईएम में पढ़ाने की सिफारिस कर ही डालूं। फैसले करो, बयान दो, पलट जाओं। खंडन मत करो। मीडिया के पास फुटेज हैं, खींच देगा। बल्कि ढिठाई से कहो, कहा था पहले अब ऐसा नहीं है। तकरार खत्म हो गया है। अब पीएम अच्छे हैं। कहो, यदुरप्पा आधुनिक धृतराष्ट्र को मंजूर हो गए हैं। सत्ता की चुसनी ऐसी है कि उसे चुभलाने के लिए खंखारकर थूक दीजिए, उस बलगम को चाट लीजिए, तो भी कम। और सिद्धांत.. क्या कहा?...सिद्धांत ..ये क्या होता है भला? कम से कम राजनीति में तो नहीं ही होता है।
1 comment:
Seems you have taken political philandering to heart. The language is terse. But somewhere deep down i could feel myself siding with it then too a bit of restraint is needed. But you seem a master at juggling with words and connecting ideas.
Post a Comment