Saturday, April 19, 2008

रेगिस्तान में फंसने का सुख

अगर आप रेगिस्तान गए। उसमें फंसे नहीं। रेगिस्तानी रेत के असीम चादर पर फैली चांदनी का सागर नहीं निहारा तो क्या रेगिस्तान गए गुरु। मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ। बीकानेर से ४५ किलोमीटर पश्चिम की तरफ है गांव लाडेरा। हम जब लाडेरा के लिए निकले, तो राह में मिले मोरों के कुनबे। उन्हे कैमरे में क़ैद करने का लालच मैं रोक न पाया। जाड़ो में धूप तापते मोरों के झुंड बेहतरीन लग रहे थे।

बहरहाल, खानाबदोश परिवारो और दूर दूर बसे गांवो के बीच में से हम लाडेरा पहुंचे। वहां उंट महोत्सव का आयोजन किया जा रहा था। कार्यक्रम खत्म होते न होते, रात के साढे ग्यारह बज गए। साढे ग्यारह बजना दिल्ली के लिए कुछ न हो लेकिन गांव में यह बेहद रात होती है। बहरहाल, रेत के टीलों से घिरे उस रेगिस्तान में गाडि़यों का काफिला आहिस्ता-आहिस्ता रेग-रेगं कर निकलने लगा। हमारा ड्राइवर बेहद चालाक था, उसने कहा कि हम बाद में निकलेंगे। सरकारी गाडि़यां निकल लीं। लोग बाग भी कल्टी हो लिए। बच गए हम लोग, यानी हमारी पूरी टीम। बाद में जब गाड़ी निकालने की बारी आई, तो काफिले के निकलने की बजह से पैदा हुई रेतीली धंसान मे ंहमारी गाड़ी फस गई। चालाक ड्राईवर होने का खामियाजा कभी-कभी भुगतना पड़ता है। उसने गाड़ी निकालने की जो तरकीब लगाई, उससे गाड़ी के चारो पहिए रेत के अंदर चले गए।

वह िलाका सुनसान हो चुका था। विदेशी मेहमान चले गए थे। रात सवा बारह बजे वहां किसी का रुकना ठीक भी न था। चांदनी रात, चांद सिर पर। मुझे लगा कि जनवरी की इस कड़ाके की सरदी वाली रात, हम रेगिस्तान मे ठिठुरेंगे। अगर बच गए, तो कल की शूटिंग भी कर पाएंगे।

सारा रस निकल गया। थोड़ी देर पहले सवर्ग नज़र आ रहा रेगिस्तान का वह हिस्सा नरक लगने लगा। ऐसे मौके पर भूख भी लग आती है, प्यास की तो पूछिए ही मत। और भी कई तरह की शंकाएँ सर उठाने लगती हैँ। जूते के अंदर गया रेत पसीने से भींग कर ठिठुरन पैदा करने लगा, एक अजीब सी दशा। एक रिपोर्टर को इन सबका सामना करने की कूव्वत रखनी चाहिए, उपर से मैं सामान्य दिखने की कोशिश कर रहा था। ताकि मेरे बाकी के साथी भी हल्ला न करें। अपने तईं हमने गाडी़ को रेत से बाहर निकालने की कोशिश भी की। लेकिन अपने स्वास्थय को लेकर हमें कभी कोई मुगालता नहीं रहा है। ऐसे में गाड़ी रेत से नहीं निकलनी थी, नहीं निकली।

पर ईश्वर पर अनास्था रखने के बावजूद वह मुझ पर ऐसे मौको पर कृपालु रहा है। एक ट्कैर्टर आता दिखा। उस पर सवार कम-अज-कम पचीस लड़के। ट्रैक्टर को गाड़ी से बांधा गया। लड़कों ने ज़ोर लगाया। गाड़ी निकल आई। एवज में मालासर तक जाने वाले उन लड़कों को हमने वहां तक लिफ्ट दी। गाड़ी के अंदर तो जगह थी नहीं, छत पर। रात ढाई बजे वापस हम बीकानेर पहुंचे। अगले दो दिन तक घूम-घूमकर शूट करत रहे। अच्छा लगा। खूब बीकानेरी रसगुल्ले चाभे। मज़ा आया।

वापसी में जयपुर की राह में राजलदेसर नाम की जगह पर चाय के लिए रुके। गांव के चौधरी ने मीडिया के लोग कह कर अपने घर आने की दावत दी। चौधरी के घर पर चाय और पापड़ का नाश्ता हुआ। चौधरी ने महमें खाने का ऑफर दिया । हम भोजनभट्ट हैं और इससे इनकार नहीं कर पाए। खाने में आया, बाजरे की रोटी, सेव की सब्जी, राबरी गुड़ और छाछ। भाईसाहब मज़ा आ गया। यह भोजन मेरा अब तक का खाया सबसे शानदार खाना है। बाजरे की रोटी इतनी स्वादिष्ट भी हो सकती है, मैंने इसका अनुमान तक नहीं लगाया था कभी।

बहरहाल, तीन बजे दोपहर बाद हम जयपुर लौटे और शताब्दी से दिल्ली वापसी आ गया। अपने कार्यक्रम की पटकथा सोचता हुआ।

1 comment:

यती said...

aise ghatnaye aap hi k sath q ghatati hai apna naam ghustak badal kar tragedy king rakhiye चालाक ड्राईवर होने का खामियाजा कभी-कभी भुगतना पड़ता है। उसने गाड़ी निकालने की जो तरकीब लगाई, उससे गाड़ी के चारो पहिए रेत के अंदर चले गए। yeh jab padha to apne aapko hasne se rok nahi payee kuch b kahiye aapka kathit dirver item tha