पिछले दिनों पटना में एक फिल्म समारोह का आयोजन किया गया। हमने सुना था कि पटना कभी सांसक्ृतिक रूप से बेहद समृद्ध हुा करता था। लेकिन फिल्म समारोह जैसा आयोजन महज तीसरी बार ही हो पाना .. थोड़ा निराशाजनक ही लगा। कई लोगों से बातचीत(बाईट) सुनने के बाद महसूस हुआ कि आखिर क्यों पटना जैसी पुरवैया जगह में ऐसे आयोजन नाकाम रहते हैं। एक मित्र यह शिकायत करते नजर आए कि उन्हें पास ही नहीं दिया गया। आखिर पास के लिए इतनी मारामारी क्यों? पटना का उदाहरण महज िसलिए दे रहा हूं कि यह वाकया मेरी नज़र के आगे से गुज़र गया. वरना पूरे देश में कमोबेश खासकर उत्तर बारत में फोकट में संस्कृतिकर्म करने का फैशन बड़े जोरो पर है।
लोगों की निगाह मुफ्त में शो देखने की ज्यादा होती है। कला-संस्कृति बीट पर रिपोर्टिंग करने की वजह से कई बार मुझे लोगों की मांग से दो-चार होना पड़ता है, मसलन कोई बड़ी शिद्दत से कहता है- यार मुझे हबीब के नाटक बड़े अच्छे लगते हैं। पास का जुगाड़ कर दो। अब ऐसे संस्कृति प्रेम पर तो दिल टूट जाता है। कल्चर की बखिया पहले ही उधेडी़ जा चुकी है। ऐसे प्यार से कल्चर का कुछ भला नहीं होगा।
1 comment:
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