बीकानेर ही नही आसपास का पूरा इलाका भेड़ों के लिए बेहद मुफीद है। भेडो़ को पलने बढ़ने के लिए जैसा माहौल चाहिए, ठीक वैसा ही बीकानेर के आसपास है। ऐसे में बीकानेर में ऊन उद्योग का खूब विकास हुआ है। यह शहर दुनिया की सबसे बड़ी ऊन मंडी है। बीकानेर में कच्चे ऊन से यार्न यानी धागा बनाया जाता है। और इस यार्न से कालीन और कंबल बनाए जाते हैं। बीकानेर ऊन उत्पादक संघ के अध्यक्ष कन्हैया लाल बोथरा ने बताया कि बीकानेर का उन उद्योग भदोई के कालीन उद्योग के लिए कच्चा ऊन मुहैया कराता है। और इस इलाके के दस लाख लोगों को रोज़गार देकर उनके लिए रोजी-रोटी का बंदोबस्त करता है।
बीकानेरी ऊन के धागे क्वॉलिटी में बेहतर मानी जाती है, लेकिन इसके कुछ तकनीकी पेंच भी हैं। न्यूजीलैंड के ऊन तकनीकी तौर पर ज्यादा सफाई से चुने गए होते हैं। जाहिरे है, उनके बुनाई में ज्यादा आसानी होती है। लेकिन बीकानेरी ऊन के साथ तकनीकी दिक्कत है और इनमें वह पेशेवर सफाई नही आ पाई है। दूसरी तरफ पिछले कुछ सालों से ऊन उत्पादन में गिरावट भी दर्ज की जा रही है। १९९५ में जहां इस इलाके में १ करोड़ ७० लाख भेडें थीं वहीं २००८ तक पड़े बारंबार के अकाल की वजह से भेड़ों की गिनती में लगातार कमी आती जा रही है। २००७ में भेडो़ की गिनती घटकर महज ५० लाख रह गई है।
पहले इस इलाके से चलकर भेड़ों का रेवड़ पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक चरने के लिए चला जाता था। और किसान इन्हें अपने खेतों में बैठने की छूट देते थे ताकि खेतों का कुदरती खाद मिलता रहे। भेड़ों का रेवड़ अब भी जाता है, लेकिन खेतों में चरने के लिए नहीं, बल्कि मांस की खातिर कटने के लिए। ज़ाहिर है इस इलाके के ऊन उद्योग को बचाने के लिए कुछ मजबूत कदम उठाए जाने ज़रूरी हैं।
खुद बोथरा भी कुछ उपाय सुझाते हैं। मसलन, इंदिरा गांधी नहर के दोनों किनारों पर अगर अल्फा-अल्फा जैसी घास को योजनाबद्ध तरीके से उगाया जाए तो भेड़पालन को एक नया जीवन मिल सकता है। लेकिन फिलहाल तो भेड़पालक चरवाहे सरकार की तरफ से नजरअंदाज किए जाने का दंश झेल रहे हैं।
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