Thursday, May 8, 2008

गुस्ताख़ की कविता

अल्ल सुबह जब नींद से जागता हूं,
हाथों में लेकर अख़बार,
चाय की प्याली के साथ,
खड़ा होता हूं अपनी बालकनी में
देखता हूं कई हसीं नज़ारे मैं भी..।

मत सोचिए यह-
कि सुबह के बिंदास उजास
या, ओस की तरावट से ताज़े बेला के फूलों की कर रहा हूं बात
या भावुक कवियों की तरह-
सोने के रंग से होते जा रहे आसमां और बादलों पर कर रहा
कोई प्रगतिशील टिप्पणी
कि जैसे उलट दी है किसी ने स्याही सोख पर
लाल-नीली दवात।

ना ही मैं,
बताना चाहता ये
कि चिड़ियों के करलव से
खत्म हो गया है मेरी
रात्रि पाली की ड्यूटी का तनाव।

मैं तो बस यह बताना चाहता हूं
कि अल्ल सुबह जब नींद से जागता हूं,
हाथों में लेकर अख़बार,
चाय की प्याली के साथ,
खड़ा होता हूं अपनी बालकनी में
देखता हूं कई हसीं नज़ारे...
कि सामने बालकनियों में आती है झाडू देने
घर बुहारने पोंछा मारने
बिना दुपट्टे के लड़कियां-
होती जाती-
अखबारों में छपी
जे लो और जोली से एकाकार-
झुककर बुहारती, पोंछा मारती लड़कियां
मुझकों करती निहाल.

5 comments:

यती said...

funny

राजीव रंजन प्रसाद said...

:)

डॉ .अनुराग said...

kya kahun?aapki subah vakai alag hai.....

कुमार आलोक said...

रंगे शराब देखकर नियत बदल गइ
वाइज की बात रह गयी साकी की चल गइ।।
बहुत सेक्सी सुबह है आपकी ।

Anonymous said...

बक़वास की एक मिसाल है ... वैसे ठीक है होते रहना चाहिए