पिछले साल पुणे गया था। एफटीआईआई में। पढ़ने, फिल्म के बारे में सीखने।
दिल्ली से ट्रेन चली तो मन में एक उत्कंठा थी, नए शहर को जानने को लेकर। पुणे पहुंचते-पहुंचते रात हो गई। मैं ने भी सीधे एफटीआईआई का रुख करने की बजाय, डेक्कन ज़िमखाना के पास रुकना पता नहीं क्यों ज़्यादा मुनासिब समझा। वहीं नदी के किनारे पुल के पास मेला सा लगा था। लोगों की भीड़ रात के दस बजे जवान होनी शुरु हुई थी। मेले में ही डिनर से निवृत होकर जमकर सोया।
अगले दिन दस बजे हम जैसे फिल्मी कीड़ों को एफटीटीआई में रिपोर्ट देनी थी। मैंने सामान होटल में ही छोड़ा, और एफटीआईआई पहुंचा। मन में दिल्ली वाली मानसिकता थी कि पता नहीं एफटीआईआई के हॉस्टल की क्या व्यवस्था हो।
लॉ कॉलेज रोड में घुसते ही, एक परंपरा और आधुनिकता का मिलन दिल को छू गया. लगा पेशवाओं का ज़माना मेरी आँखों के सामने जिंदा हो उठा हो।
एफटीआईआई का गेट और पहाड़ी की तलहटी तक सीधी जाती सड़क एक प्रतीक है। एफटीआईआई के अहाते की हर शै में सिनेमा की मिलावट है। यह संस्थान सरकारी तौर पर अस्तित्व में आने से बहुत पहले एक शानदार इतिहास रखता रहा है।
एफटीआईआई की इमारत को पहले प्रभात स्टूडियो कहते थे। बहरहाल, हम बात कर रहे थे प्रतीक की। एफटीआईआई में घुसना बेहद मुश्किल है, लेकिन एक बार आप अंदर दाखिल हो गए, जाहिर है एक छात्र के तौर पर, तो फिर आपको यहां की आबो-हवा से मुहब्बत हो जाएगी। गेट से घुसते ही पहले तो सीधी चढाई है। जो पहा़डी़ की तलहटी तक चली जाती है। लेकिन पढाई पूरी कर और सैद्धांतिक दुनिया से बाहर क़दम रखते ही ढलान का सामना करना पड़ता है। दुनियावी मामले पढाई की बातों से कितने विलग होते है।
बहरहाल, मुझे एफटीआईआई में हॉस्टल में कमरा भी मिल गया और ११ बजे से शुरु होने वाले पहले ऑरियेंटेशन की क्लास के बाद मैं मय सामान एफटीटीआई आ गया।
जारी...
3 comments:
शुक्रिया FTII के महान कैम्पस की याद दिलाने का. मुझे अचानक विस्डम ट्री की याद आ गई. आगे की कड़ियों का इन्तज़ार रहेगा.
लिखते रहिये पुरानी यादे खुशबू की तरह होती है......
वाह। इस ftii के बारे मे सुना तो बहुत है अब आपके जरिये इसके बारे मे भी जानेंगे।
Post a Comment