(नीतू सिंह दहिया, एक विचारशील पत्रकार हैं। डीडी न्यूज़ पर एंकरिंग करती हैं और सीनियर कॉपी एडिटर हैं। हिंदी ब्लागिंग में स्तरहीनता को लेकर उन्होंने चिंताएं ज़ाहिर की हैँ। फिलहाल उनका कोई ब्लाग नहीं लेकिन वह ब्लाग की नियमित पाठक हैं और हाल के दिनों में ब्लाग की दुनिया में आए हलचल से चिंतित और दुखी हैं। उन्होंने हमारे पोस्ट के जबाव में पोस्ट पर कोई टिप्पणी किए बगैर ये दुखित कमेंट किया है हम उनकी मनस्थिति से सहमत होते हुए यह पत्र सादर छाप रहे हैं- गुस्ताख़)
इससे पहले कि आप लोग ये कमेंट पढ़े, उम्मीदों के बादल पर सवार हों, हक़ीकत के आइने से रुबरु कराना चाहूंगी। असल में मैं ये किसी ब्लाॅग के प्रत्युत्तर में नहीं लिख रही हूं, बल्कि कुछ ऐसा लिखने जा रही हूं जो पिछले कुछ दिनों में मैंने औऱ मुझ जैसे कुछ लोगों ने महसूस किया है। ऐसा है कि हमारे मुल्क़ को किसी ने बहुत ही बेहतर तरीके से परिभाषित किया है....भेड़ की चाल वाला मुल्क़। सुनने और उससे भी ज्यादा मानने में तक़लीफ तो होती है पर है ये सच।
कुछ वक्त पहले कुछ पत्रकारों ने अपने पत्रकारिता के खट्टे मीठे बल्कि कहा जाए बेहद कड़वे अनुभवों को ब्लाॅग के ज़रिए लिखने का आइडिया सोचा। वजह दो थी, पहली वजह ये बताना कि पत्रकार इतने बुरे और पत्थर दिल नहीं जितना लोग औऱ आम जनता उन्हें समझती है, औऱ दूसरी इस सोकाॅल्ड पत्रकारिता में बद से बदतर होते हालातों को जताकर अपने दिल के बोझ को ( जो अब तक व्यावसायिक प्रत्रकारिता के रंग में नहीं रंगे हैं।) उतारना चाहते हैं। खैर...मुद्दे की बात की जाए।
तो इन दो वजहों से ये नई पहल की गई थी, पर जैसा कि हमारे मुल्क़ में अक्सर होता है, अच्छे मक़सद से शुरु किया गया काम धीरे धीरे इतना भद्दा रुप ले लेता है कि उसकी खूबियां महज़ कुछ नादानियों की बलि चढ़ जाती है। माने... अपने अनुभवों और ब्लाॅग्स को ज्यादा से ज्यादा मशहूर बनाने की होड़ में एक सभ्य , संयमित भाषा से शुरु हुआ ये सिलसिला उस तरफ चल पड़ा है, जहां भाषा की अदायगी औऱ अंदाज़ मायने नहीं रखती , ज़रुरी है बस अपने ब्लाॅग्स तक को ( इसलिए कि अब तक न्यूज़ को ही चटाखेदार बनाने की कवायद चलती थी) और चटाखेदार औऱ क्रिस्पी बनाना , जिससे ज्यादा से ज्यादा विज़िटर्स अपनी वेबसाइट पर दिखा सके।
कई बार ब्लाग्स पढ़ती हूं तो कम्यूनिकेशन की दुनिया में ब्लागकर्ता का असल संदेश ही कहीं गुम सा होता दिखता है। भाषा में वो तंज और रोचकता नहीं रही। आप खुद ही दूसरे के ब्लाग को पढ़कर देखें, बमुश्किल हम किसी पूरे ब्लाग को पढ़ पाते हैं। तो एक ज़िम्मेदार पत्रकार होने के नाते सभी दोस्तों से मेरी गुज़ारिश है कि जिस मकसद से ये बेहतर विकल्प तलाशा गया है, उसकी गरिमा को बनाए रखें। बजाय एक शार्टकट के क्योंना ब्लागिंग को एक ऐसा ज़रिया बनाया जाए, जिससे हर किस्म के मुद्दों, मुश्किलों औऱ इस मीडिया जगत के दिग्गजों की सही राय मिल सके।
हांलाकि हममें से कुछ अभी भी उस हुनर को संजोए हुए हैं, पर मैं उम्मीद करुगी कि हम सब एक बार फिर अपने सालों के अनुभवों , अपनी लेखनी और प्रतिभा को कुछ इस तरह कम्प्यूटर पर बिखेरें, कि हर दूसरा शख्स रश्क़ करे इस काबिलियत से....और कहे...माना कि है वो दुश्मन मेरा, पर बोलता वो अच्छा है...इत्तिफाक़...नाइत्तिफाक रखने वाले कमेंट्स का वेल्कम......
8 comments:
101 % सहमत हूं...
४९.५% सहमत हूँ.
आप ख़ुद दोबारा अपना लिख हुआ ये पढे.
शायद मेरी बात समझ आ जाए.
काफी हद तक सहमत!
आपकी बात आंशिक रूप से ही सही है क्योंकि कोई ऐसा झेत्र आज नही है जो पूरी तरह से आदर्श और सही हो। हर जगह सही लोगो के साथ साथ कुछ अवांछित लोगो का भी प्रवेश हो जाता है और उस पर किसी का नियंत्रण नही है। टेलीविजन मे देखे आज क्या हाल है, निजी एफ एम मे भी देखे क्या गुल खिला रहे है तो बिचारा ब्लॉग इससे कैसे अछूता रहता, वो भी संक्रमित हो गया है और तो और आजकल फिल्मी सितारों के असंयमित और बेकार के ब्लॉग पर भी लोग अपना काम छोड़कर अपनी राय प्रकट करना अपना फ़र्ज़ समझ रहे है। सकारात्मक सोचे सब अच्छा होगा.
Dear Ms. Neetu& Mr.Gustaakh,
I do appreciate ur concern for deteriorating situation of Hindi blogs, but in my humble opinion it is just evolving and it will take time to mature . Moreover, i suggest u ppl. should visit sometimes Kabadkhaana of Ashok pande, Tooti-Bikhri of Irfan , Vimal's Thumri and the list is endless.... where u will get to listen some good and rare music, share some wonderful poetry and see exotic photoz. Gradually u people may become mature some day and i may invite u to my blog too, but who knows? So stop lamenting this fully faaltu and imaginary problem and take some Pranayama exercise to get rid of ur negativity . ok?
क्या किया जाए । भाई लोगे इसे खिलौना समझ बैठे है। असीम संभावनाएं है उनके भीतर जिसे वो इस माध्यम के जरिये उजागर कर सकते हैं मगर मज़े लेने लगते है सनसनी की गुठलिया चूसने में जैसा कि हकीकतन वो अपने पेशे के तहत भी कर ही रहे हैं।
कुछ संजीदगी , कुछ ईमानदारी
बस, फिर तो आगे ही जाना है....
आपका दर्द हम सबका दर्द अब यही है
समीर लाल की चार लाइनें बिलकुल सटीक बैठतीं है
आँधी तेज हवाओं वाली
आँधी धूल गुबारों वाली
आँधी नफरत की वो काली
आँधी हठ उन्मादों वाली.
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