कॉन फिल्मोत्सव शुरु हुआ और फिल्मी दुनिया की आला हस्तियों से अंटा भी। वहां अगले कई दिनों तक आला निर्देशकों, अभिनेताओ और फैशन के साथ ग्लैमर का मेला लगा रहेगा। दुनिया भर की बेहतरीन फिल्में यहां दिखाई जाएंगी लेकिन इस मेले में भारत की नुमाइंदगी नदारद है।
भारत की कोई भी फिल्म इस उत्सव के प्रतियोगिता खंड में नहीं है। इस बार क्यों ये तो अमूमन हर बार की कहानी है। ऐसे में भारत की उपस्थिति दर्ज कराएगी एक ऐसी क्लासिक फिल्म जो 42 साल पहले बनी थी। जी हां,. देव आनंद की गाईड को इस बार कॉन के क्लासिक फिल्म सेक्शन में चुना गया है।
पिछली बार यहां चीनी कम और जोधा अकबर जैसी फिल्मों का प्रीमियर हुआ था। इस बार भी कुछ कलाकार अपनी फिल्मों के प्रमोशन के लिए कॉन जा रहे हैं। लेकिन लाख टके का सवाल ये है कि अगर हम बॉलिवुड का परचम दुनिया भर में फैलाने का खम ठोंकते हैं तो हमारी फिल्मो को संजीदगी के साथ क्यों नहीं लिया जाता। आखिर बर्लिन या कॉन जैसे प्रतिष्ठित फिल्म समारोहों में हमारी नुमाइंदगी इतनी कमज़ोर क्यों होती है। जबकि हम दुनिया के सबसे बड़े (?) फिल्म बनाने वाले देश में शुमार होते हैं।
यह सवाल तब और मौजूं हो जाता है जब इस तथ्य पर नजर जाती है कि इस बार कॉन में भारतीय सिनेमा पर भी चर्चा होगी जिसमें केतन मेहता और सुधीर मिश्रा समेत नामचीन फिल्मकार शामिल होंगे। इस परिचर्चा में इंडियन सिनेमा गोज़ ग्लोबल और डूइँग बिज़नेस विद इंडियन फिल्म मेकर्स जैसे विषयों पर बातचीत होगी।
लेकिन इसी परिचर्चा मे जरा इस बात पर भी ध्यान दिया जाए कि आखिर भारतीय निर्देशकों का नज़रिया इतना संकुचित क्यों है कि उनकी फिल्में फिल्म समारोहों में शामिल क्यों नहीं की जाती, तो मिमकिन है कि भारतीय फिल्मों का स्तर भी सुधरे। सिर्फ कमाई के लिहाज से ग्लोबल होने की बजाय अगर हम कला और क्राफ्ट के लिहाज से भी ग्लोबल बनें तो यह बारतीय सिनेमा के लिए फायदे की ही बात होगी।
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