Friday, November 16, 2007

छठ की याद


छठ एक राष्ट्रीय पर्व हो गया है। मूल रूप से छठ तो बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश का त्योहार है, लेकिन अगर यह नैशनल मीडिया में खासी जगह पा रहा है, तो इसके पीछे के तर्क खंगालने होंगे। बिहार ( पढ़ें हिंदी पट्टी) एक प्रदेश या सूबा नहीं है सिर्फ़। यह तो एक फिनोमिना है। यह चलताऊ हिंदी है। शुद्ध और सरकारी हिंदी में यह परिघटना है। मीडिया में छठ की खबरों ने मुझे नॉस्टेल्जिक कर दिया है।

छठ की तैयारी दीवाली के ठीक बाद से होने लग जाती थी। नदी के या तालाब के घाट पर जाकर उसे गोबर से लीपना.. वहां आम के पल्लव और केले के तने से सजाना कुल मिला कर घाट का बडा हिस्सा छाप लेना हम बच्चों का पहला काम था। फिर कदुआ-भात ... साफ-सुथरा खाना.. बिना प्याज-लहसुन के... एक शानदार पवित्रता का अहसास। एक जिम्मेदारी-सी रहती थी। ऐसे ज़िम्मेदारियां आम दिनों में मेरे जैसे नौजवानों के हिस्से रहती ही नहीं। या फिर रहती भी है तो बाज़ार जाकर सब्जी लाने तक ही महदूद रहती है।

फिर होता खरना.. गुड़ की खीर ( याद नहीं या फिर दूसरी आंचलिक भाषाओं में क्या कहते हों, लेकिन हमारे यहां मैथिली में उसे रसिया कहा जाता था।) पहले दादी मां और उनके गुजरने के बाद मां के हिस्से में छठ पूजा आ गया। पूजा के बाद घर आए लोगों में वह प्रसाद बांटा जाता। हम परेशान रहते, प्रसाद पा चुके लोगों को पानी देने में। फिर शाम का अर्घ्य होता...अगले दिन। ३ बजते न बजते.. जब सूरज ढलना भी शुरु नहीं होता.. हम लोग डाला या दौरा सिर पर उठाकर घाट की ओर चल देते कि कोई घाट पर कब्जा न कर ले.। कर भी ले तो झगड़ा नहीं किया जाता.. आखिर छठ पूजा का काम है। छठ महारानी की पूजा व्यक्तिगत होते हुए भी निजी नहीं होती। सबकी समान श्रद्धा...। हमारे यहां हर साल कच्ची सड़क बरसात के दिनों में बह जाती, नरक पालिका कितनी गंभीर होती है सफाई को लेकर कहने की ज़रूरत नहीं। नालियों का पानी सड़क पर बेरोकटोक बहता रहता। उस पर से छठ माता की पूजा के लिए डाले कैसे जाएंगे... तो सारे ळौंडे-लपाड़िए सुबह से ही सड़कों की सफाई करके पानी की छिडकाव कर देते। साल में पहली और आखिरी बार मुहल्ले के लोग किसी बात पर एकमत होते। अच्छा लगता। मुहल्ले के खूसट अकारण खिसिआए बुजुर्ग, अपनी बेटी पर लाईनबाजी से त्रस्त प्रौढ़ पिता, बहन का विकट भाई, किसी बात पर कोई गुस्सा नहीं होता। बुजुर्ग महोदय ने घर के पंप से पानी देना मंजूर कर लिया है। खुद पानी के छिड़काव में मदद दे रहे हैं। सदा सुहागिन आंटी चाय ले आ रही हैं। बीच-बीच में लौंडे उनकी पोती जो बिल्लो या टम्मो के नाम से मशहूर होती हैं, उनको भी टाप लेते हैं। ( टापना अर्थात् नज़र बचा कर जी भर देख लेना)

फिर साल में एक बार नहाने वाले लोग भी अल्लसुबह जगकर सुबह के अर्घ्य के लिए स्नान कर लेते हैं। डाला उठाना है। लड़के तालाब में नहाने के लिए गमछा साथ ले लेते हैं। तालाब में अपनी तैराकी की कला का मुजाहिरा करके प्रेयसी के सम्मुख सुर्खरू होंगे। इतनी डेडिकेशन के साथ किसी ओलंपिक में हिस्सा लेते तो ग्राहम थोर्प की जगह तैराकी किंग यहीं लोग कहलाते। अस्तु...

उस दिन सुबह देर से होती...या फिर सूरज महोदय जानबूझ कर नेताओं की तरह अपनी अहमियत ज़ाहिर करने के वास्ते देर से निकलते... मां.. या दूसरी पवनैतिन ( पर्व करने वाली) पानी में खडी ठिठुर रही होती। कमर तक ठंडे पानी में.. लौंडों की निगाह किनारे खड़ी भीड़ पर..छोकरियों को एकटक निहारते... बीच-बीच में अगरबत्ती जलाने के या दीए में तेल डालने के बहाने खुद को व्यस्त दिखाने की कवायद...। कितना मज़ा आता था। फिर पूरब लाल हो जाता। इँतजार के बाद सूरज निकलने की तैयारी,,, लोग खुश.. पवनेतिनों की पूजा और ज़्यादा संजीदा..हो जाती... हे सूर्य देवता, धन दो. पोते दो, बेटे को इनक्रिमेंट दो, पेपर में हैं तो टीवी में लगवा दो, पेपर है तो पास करा दो. .. सूर्य देवता के पास आवेदनों की बौछार... लगता है दो-तीन पीए लेकर चलते होंगे, सुरुज देवता उस दिन। घाट के किनारे अर्घ्य देने के लिए दूध फ्री बांटने वाले। बहनें मना करतीं, पैसे देकर ही दूध लेना.. नहीं तो पुण्य बंट जाएगा। मेले का-सा माहौल..। कई लोगों ने बैंड वालों को भी बुला लिया है। रिक्शे पर लाउडस्पीकर बंधा है, शारदा सिन्हा पूरे सुर में, गा रही हैं। हे दीनानाथ ....या चुगले को गालियां देतीं, या फिर नारियक के पेड़ पर उगला सुरुज जी के छाहे गोटे...। फिल्मी गाने भी। छोकरे पटाखे छोड़ने में जुटे। व्यस्त माहौल। फिर अर्घ्य देने की मारामारी.. कौन कितने पवनैतिनों के सूप में दे सकता है अर्घ्य... नदी में दूध गिराते.. श्रद्धा का पारावार...। दिव्य। ये सब खत्म हो जाता, मश्किल से १० मिनट में , फिर प्रसाद पाने की चेष्टा। सब पवनेतिनों से प्रसाद ले लो। केले, सिंघाड़े, ठेकुए का प्रसाद.. साथ में चावल के लड्डू.. गन्ने, मूली का प्रसाद , नारियल... जितना पाओगे अगला साल उतना ही फलदायक होगा।.......यहां दिल्ली में हर चीज़ याद आती है, छठ पूजा की पवित्रता,,, खरना, सुबह शाम का अर्घ्य.. घर जाकर नारियल छीलने में लग जाना, गली मे खड़े होकर गन्ना चूसना, ये भी कि हमारी संस्कृति में सिर्फ उगते सूरज को ही नहीं डूबते सूरज को भी पूजा जाता है। और हरदम याद आती है मां.। जो आज शाम छठ का अर्घ्य देने के लिए उपवास पर होगी।.....

मंजीत ठाकुर

2 comments:

Unknown said...

वाकई हमारी संस्कृति में सिर्फ उगते सुरज को ही नहीं डुबते सुरज को भी पूजा जाता है। बहरहाल छठ पर आपके आलेख चुलबुला था। लेकिन एक बात हमें याद रखना होगा कि बांकि पर्वों की तरह इस पर अब तक पूंजी की ललमुनिया हावी नहीं हो पाई है। वजह साफ है अन्य पर्वों की तुलना में इसमें शुद्धता और पवित्रता पर खासा जोर रहता है। छोटी सी छोटी गलतियों से भी बचने की भरपुर कोशिश होती है। इसकी वजह ये हैं कि यही एक पर्व है जिसमें पूजे जाने वाले देवता को हम साक्षात देख पाते हैं। बहरहाल पवित्रता और शुद्धता के बावजूद समाज में किसी भी तरह की उंच नीच और छुआ छुत की भावना नहीं होती है। ये इस परव की सबसे बड़ी खासियत है। खासतौर पर बिहार में जहां व्यक्ति के नाम पूछने के पीछे की वजह उसके जात का पता लगाना होता हो... उसी सूबे में किसी त्यौहार पर जात पात लगभग मिट जाने की हद तक परव में खुशियां मनाना दिल को छुता है। बाजारवाद के हावी नहीं होने के पीछे की एक और बड़ी वजह ये हो सकती है कि परव में काम आने वाली तमाम चीजें अपने घर या समाज से ली जाती है... मसलन सूप, डाला, या प्रसाद का अन्य समान। सूप और डाला तो उस डोम के घर से बन कर आता है जहां सामान्य दिनों में कोई सवर्ण जाना अपनी हैसियत के खिलाफ मानता है। यही इस परव की सबसे बड़ी शक्ति है। अगर आज छठ परव बिहार और पूर्वांचल का परिचय बन गया है तो हम पूर्वांचलियों को इसके भीतर छिपे संकेतों को समझने की भी जरूरत है। बहरहाल आपको छठ परव की शुभकामनाएं ... ऐसे ही लिखते रहें
संदीप झा

यती said...

manjit ji hindi mai mess type karne ki koshish karti hu

bahut hi hatkey aur majakiya style mai north indian ke sanskruti ka darshan hua. as i stay in goa we goans dont know wat is chhat (excluding few most of us don know) of course we heard ab8 it n saw "chhat" on tv (every time rabdi ji with lota in her hand) but i was not aware for wat sack it was celeb n how it is celeb jaise sandip ji ne bola ki chulbula hmmmm ise style mai aur bhi north indian festival chulbule style mai hum GOANS tak pahuchana

i hope my hindi was good