Monday, November 19, 2007

मैं अतीतजीवी हो रहा हूं..

लोग गरियाएंगे.. दूसरों की तरह गुस्ताख़ भी नॉस्टलेजिक होने लग गया है। लेकिन इंसाफ कीजिए गुरुजनों.. पुरानी बातें याद करने पर, उन्हें अश्लीलता के साथ दुहराने पर भारतीय दंड संहिता की किसी धारा के तहत आरोप नहीं तय होते। होने चाहिएं ये हम भी मानते हैं।अस्तु, बात ये है अपनी एक पुरानी सी छेड़छाड़ात्मक कविता कल रात पढ़ रही था। तो याद आ गया पिछला जमाना।

उन दिनों.. जब आत्महत्या न करने की कसमें खाने के दिन थे....दोस्तों के मुंह से भारतीय जनसंचार संस्थान का नाम खूब सुना था। लोगों ने कहा बौद्धिक बनने के लिए( अर्थात् पत्रकारोचित कमीनेपन में संपूर्णता से दीक्षित होने के लिए) आईआईएमसी में दाखिला लेना अनिवार्य है। डरते कदमों से हम जेएनयू का चक्कर काट कर संस्थान के लाल ईँटों वाली इमारत में दाखिल हुए थे। हम.. यानी मैं और मेरा एक और दोस्त.. मेरा दोस्त गया था जेएनयू में संस्कृत में पोस्ट ग्रेजुएशन का फॉर्म लेने। मैंने पूछा था एमबीए के ज़माने में संस्कृत पढ़कर क्या उखाड़ लोगे.. उसने तपाक से जवाब दिया था- प्रोफेसरी। जितने पढ़ने वाले कम होते जाएंगे.. प्रोफेसरी का चांस उसी हिसाब से बढ़ता जाएगा।

खैर...मई के तीसरे हफ्ते में हमारी प्रवेश परीक्षा थी। (पढ़े- इंट्रेस टेस्ट) अस्तु..कई बच्चे (?) जमा थे। सेंटर था, केंद्रीय विद्यालय..जेएनयू के पास वाला। कार में, बड़ी और लंबी कारों में परीक्षार्थी आए थे। हमारा कॉन्फिडेंस खलास हो गया। सुंदर लड़कियों को देखते ही हम वैसे भी हैंग कर जाते हैं। लगा, जितना पढ़ा है आज तक सब बेकार होने जा रहा है। अपने मां-बाप पर ग़ुस्सा आ गया। क्यों गरीब हुए, अमीर नहीं हो सकते थे? परीक्षा दी। पास भी हो गया , पता नहीं कैसे? जिस दिन लिखित रिजल्ट निकला.. खुद गया देखने। संस्थान के परिसर में। कुछ दिन बाद, इंटरव्यू था। और कई बड़े नाम और राघवाचारी...। विकास पत्रकारिता पर सवाल। पर पता लगा बाद में कि इसमें से कुछ भी काम नहीं आने वाला। सारे सिद्धांत घुसड़ जाने वाले हैं। बाद में, इधर एक सोचने-विचारने वाले पत्रकार से एक निजी टेलिविज़न चैनल में इंटरव्यू के दौरान भालू के कुएं में गिरने की ख़बर को लीड बनाने लायक मसाला तैयार करने को कहा गया। श्रीमान तो बिफर गए। लेकिन चिरंतर और शाश्वत सत्य तो यही है न। सर्वे गुणाः काञ्चनमाश्रियान्ति की तर्ज पर सर्वे गुणाः टीआरपीमाश्रियांति....बहरहाल, संस्थान में अंग्रेजीदां लोगों लड़के और लड़कियों का जमावड़ा था। हम भदेस.... जल्दी ही हिंदी पखवाड़ा आया। एक कविता भी लिखी थी। फ्लर्टात्मक। एडवरटाइजिंग की लड़कियों की सुंदरता का बखान करता। कई के नाम भी थे। कभी याद रहा तो छाप भी दूंगा।
जारी...

1 comment:

Neelima said...

आपकी आत्मस्वीकारोक्तियां पसंद आयीं ! खासकर फ्लर्टात्मक और छेडछाडात्मक कविता और सुंदर लडकियों को देखकर हैंग हो जाने वाली !