समारोह में पाकिस्तान की पहली आधिकारिक प्रविष्टि फिल्म ख़ुदा के लिए (इन द नेम ऑफ गॉड) देखी। शोएब मंसूर की ३ घंटे की यह फिल्म निश्चित रूप से कायल कर जाती है। फिल्म की शुरुआत से ही कट्टरपंथ पर चोट निर्देशक अपेन खास अंदाज़ में करता चलता है। कहानी है एक ऐसे इंसान की जिसने खुद तो गोरी मेम से शादी की है (जिससे बाद में वह तलाक़ ले लेता है) लेकिन अपनी बेटी को वह किसी गोरे के साथ ब्याह करने की मंजूरी नहीं देता। खुद उसका भाई पाकिस्तान में रह रहा है, लेकिन वह उदारवादी है जसके दोनों बेटे संगीतकार हैं। लेकिन एक प्रभावशाली भाषण देने वाला, अपने तर्क से लाजवाब कर देने वाला धर्मांध जहीन इंसान सरमद (छोटे भाई) को इस्लाम की कट्टरवादी धारा की तरफ मोड़ने में कामयाब हो जाता है।
सरमद संगीत को इस्मामविरोधी मान कर तालिबानों में शामिल हो जाता है। बड़ा भाई उसे समझाने की कोशिश तो करता है, लेकिन बात बिगड़ती हुई देखता रह जाता है। बड़े भाई को संगीत की शिक्षा के लिए शिकागो जाना पड़ता है।उधर, मेरी का पिता उसे धोखे से लंदन से लाहौर ले आता है। फिर जबरन उसकी शादी सरमद के साथ वजीरिस्तान ले जाकर करा दी जाती है। इस बीच सीन-दर-सीन मौलवी साहब का धर्मोपदेश जारी रहता है। अमेरिका में इसी दौरान ११ सितंबर की घटना घट जाती है। सारे मुसलमानों पर मानो कहर टूट पड़ता है। मंसूर (बड़े भाई ) को गिरफ्तार कर लिया जाता है। फिर उस पर जुल्मोसितम की इंतिहा हो जाती है। हवालात में उससे बार-बार ओसामा बिन लादेन से उसेक संबंधों के बारे में पूछा जाता है। उसे पेशाब पीने के लिए बाध्य किया जाता है।
उधर मेरी वजीरिस्तान से भागने की नाकाम कोशिशें करती है। वह लंदन में रह रहे अपने प्रेमी को एक खत लिखती है। फिर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मेरी को छुड़ाने की कवायद शुरु होती है। मेरी को छुडा़ लिया जाता है। फिर लाहौर की अदालत में मुकदमा चतलता है। सरमद और मेरी की संतान का वारिस कौन होगा... या इस्लाम में जबरिया शादी की इजाज़त है या नहीं। एक लंबी जिरह होती है, जिसमें इस्लाम के कुछ हिस्सों की व्याख्या हमारे नसीर साहब करते हैं। फिल्म के अंत में मेरी लंदन जाने से इंकार कर देती है, और वजीरिस्तान वापस जाकर बच्चो को पढ़ाने का जिम्मा लेती है।
जारी
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