समकालीन जादुई यथार्थ जी रहा हूं...क्या यह लाईन ज़्यादा बौद्धिक लग रही है आपको? लेकिन सत्य यही है। मुझ जैसे नौसिखिए जर्नलिस्ट के लिए जादुई क्या हो सकता है? अपने से वरिष्ठ लोगों का साथ... जिनको पढ़कर, सुनकर या देखकर बड़ा हुआ। कहीं न कहीं, किसी की तरह बनने या लिखने का विचार मन को सपनों की सुनहरी दुनिया में ले जाता है। उन सबको अपने पास देखकर, या मोबाईल पर सुनकर, या उनका मेसेज पढ़कर, मेरे रिपोर्टस पर उनके विचार जान कर..गहरी अनुभूति होती है।
गोवा आया, तो यहां मिले..वरिष्ठ फिल्म समीक्षक अजय ब्रह्मात्मज, नवभारत टाइम्स के मुंबई संस्करण के सुरेश शर्मा , राजस्थान पत्रिका के राम कुमार और जनसत्ता-हंस के जाने माने अजित राय... से मिलकर समय गुजार कर इनसे जान-समझकर लगा कि उन लोगों के बीच हूं, जो सचमुच पड़ने-लिखने वाले हैं। वीकीपिडिया के फिल्मी पत्रकारों न दिल्ली में नाक में दम कर दिया। वहां किसी चैनल के मझ जैसे ही किसी टुटपूंजिया मुझसे पूछता है शुक्रवार को कौन सी रिलीज़ है...। गोवा में उससे इतर हम बातें करते हैं फिल्मों की क्वॉलिटी पर, उस की सिनेमाई भाषा पर, उसके कथानक के विस्तार और उसकी प्रासंगिकता पर। पता है कि वापस फिर उसी खोल में जाना है। लेकिन इस माहौल को जीना सच में जादुई है।
सुरेश शर्मा मंगल पांडे पर बनी फिल्म द राईजिंग की सच्चाई पर केतन से बहस करते हैं। अजय जी का शाहरुख से लव-हेट का रिश्ता चल रहा है। अमिताभ बच्चन इफी में क्यों नहीं हैं, इस पर चर्चा और चिंता होती है। एक नदीर गल्प और मीरा नायर की फिल्म पर बातें... किंगफिशर का लाउंज..दारू नदी की तरह बह रही है। एडलैब्स का अड्डा....सागर तट पर गीली हवा के झोंकों के बीच चिली-चिकन... पता चलता है..फिल्में देखना उतना आसान नहीं..जितना हम पूरे बचपन से दो साल पहले पत्रकार बनने तक मानते रहे। दिल्ली में रवीश कुमार और क़ुरबान अली मुझ पर सदय रहते हैं। उनसे मार्गदर्शन लेता रहता हूं।
किंगफिशऱ लाउंज में एक दूसरे की तस्वीरें उतारी जाती हैं। अगले दिन अजय जी को वापस मुंबई जाना है। सुरेश जी भी जाएंगे.. बचेंगे दो.. मैं और अजित जी..। इस बार बॉलिवुड की नामी हस्तियां नदारद हैं। कथित मुख्यधारा की फिल्में भी नहीं हैं। भारतीय पैनोरमा में धर्म और गफला ही हैं। सिनेमाई रूप से साधारण गफला में कम से कम तो कथ्य की मजबूती है, धर्म में भावन तलवार चीजों को अतिरंजित रूप में दिखाती हैं। देखना न देखना एक जैसा। किसी और दिन बताउंगा कि खोया-खोया चांद के निर्देशक सुधीर मिश्रा लोगों से क्यो कहते हैं कि ये फिल्म देखनी चाहिए और हज़ारों ख्वाहिशों .. के निर्देशक मानते हैं कि इस फिल्म की वजह से लोगों ने उन्हे गलत मान लिया है। वह सब बाद मे..
जारी..
मंजीत ठाकुर
1 comment:
आपके अनुभवों के बारे मे जानने की जिज्ञासा और प्रबल होती जारही है. इंतजार रहेगा.
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