खयालों की दुनिया और ख्वाबों के शहर में लॉजिक खोजना बेमानी है। हिंदी फिल्मों में तर्क नहीं चलते। लेकिन बात तो ज़रूर करनी होगी, उस बड़े तर्क की .. कि बॉक्स ऑफिस पर भिड़ंत फराह खान की ओम शांति ओम से है। दर्शक यह जानता है कि किसने बनाया है से ज़्यादा अहम होता है कि क्या बनाई गई है। अफसोस ये है कि भव्यता ओर क्लपना ने संजय की कहानी की लील लिया है। इस सपनीली दुनिया का परिवेश भव्य और काल्पनिक है और साथ ही अवास्तविक भी। नहर है, नदी है, पुल है, अंग्रेजों के जमाने के बार हैं और आज की अंग्रेजी मिश्रित भाषा है। सांवरिया का रंग और रोमांस वास्तविक नहीं है और यही इस फिल्म की खासियत भी है और कमज़ोरी भी।
संजय लीला भंसाली के काल्पनिक शहर में राज (रणबीर कपूर) गायक है। हिंदी फिल्मों के नायक को गायक भी होना होता है। यह बॉलिवुड की वास्तविकता है। बहरहाल, उसे एक बार में गुलाब ( रानी मुखर्जी) मिलती हैं। दोनों के बीच दोस्ती होती है। दोस्तोवस्की की कहानी ह्वाइट नाइट्स पर आधारित इस फिल्म में दो प्रेमियों की दास्तान है। सिर्फ चार रातों की इस कहानी में संजय लीला भंसाली ने ऐसा समां बांधा है कि हम कभी राज के जोश तो कभी सकीना (सोनम कपूर) की शर्म के साथ हो लेते हैं। संजय लीला भंसाली ने एक स्वप्न संसार का सृजन किया है, जिसमें दुनियावी रंग नहीं के बराबर हैं। तो अगर आप शाहरुख के दुनियावी अंदाज़ को पसंद करते हैं और फराह खान के ठुमके तो सांवरिया आपके लिए तो नहीं ही है। अस्तु..
रणबीर और सोनम को प्रोजेक्ट करने के लिए बनी इस फिल्म में भंसाली ने खयाल रखा है कि हिंदी फिल्मों में नायक-नायिका के लिए जरूरी और प्रचलित सभी भावों का प्रदर्शन किया जा सके। साफ पता चलता है कि कॉमेडी, इमोशन, एक्शन, ड्रामा, सैड सिचुएशन, रोमांस, नाच-गाना और आक्रामक प्रेम के दृश्य टेलरमेड हैं। सहज नहीं। फिल्म बड़ी बारीकी से राज कपूर और नरगिस की फिल्मों की याद दिलाती है। खासकर आक्रामक प्रेम,बारिश और छतरी से तो मुझे भी ऐसा ही लगा। रणवीर कपूर को विरासत में अभिनय मिला है लेकिन उन्हें काफी कुछ सीखना होगा अभी। कभी कभी तो उनसे मुझे हृतिक रोशन की झलक भी मिली। बहरहाल, उनसे भविष्य की उम्मीद की जा सकती है। इसी प्रकार सोनम कपूर में भी अभिनय की गाड़ी आगे खींच पाने का माद्दा है, ज़ाहिर है उनके पिता अनिल कपूर की खासी मदद रहेगी उसमें।
सोनम में संभावनाएं हैं और उनके चेहरे में विभिन्न किरदारों को निभा सकने की खूबी है। सांवरिया में रानी मुखर्जी को कुछ नाटकीय और भावपूर्ण दृश्य मिले हैं। सलमान खान तो अपने खास रंग-ढंग में हैं ही। संजय लीला भंसाली की सपनीली दुनिया यथार्थ से कोसों दूर है। फिल्म बॉक्स ऑफिस पर बेहतर कर पाएगी , इसमें मुझे संदेह है। आखिर मिड्ल सिनेमा ने दर्शकों का जायका बदला है। और दर्शकों की परिष्कृत रूचि में सांवरिया फिट नहीं बैठेगी।
मंजीत ठाकुर
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