Tuesday, September 30, 2008
मेरे ब्लॉग का एक साल
खुशी भी हो रही है और एक सिहरन भी। मेरे ब्लॉग का एक साल आज पूरा हो गया। पिछले साल २९ सितंबर को ही ब्लॉग बनाया था। इससे पहले मैंने अपने मित्र निखिल के साथ भगजोगनी शुरु की, लेकिन मित्र का दावा था कि लेखकीय सामग्री पर एडिटोरियल राइट्स उनके ही होंगे। अर्थात्, मेरे लिखे को एडिट किया जाता। चुनांचे, ये बात मुझे कुछ भायी नहीं और कुछ दिनों तक इंतजार करने के बाद मैंने अपना ब्लॉग शुरु कर दिया।
पहले एक बरस के अनुभव ने उत्साह दिया है। लोग मुझे पढ़ने लिखे। मेरा ऊल-जुलूल सब लोगों ने पढ़ा। समीर लाल उर्फ उड़न तश्तरी कनाडा से उड़-उड़कर ब्लॉग पर आते रहे। मजा़ आया। लेकिन एक साल के बाद अब लगता है कि खेल-खेल में शुरु किए इस काम को खिलवाड़ न मानते हुए कुछ संजीदा गुस्ताखी की जाए। अपनी पीठ खुद इसलिए थपथपा रहा हूं क्यों कि मेरा पूरा ब्लॉग लेखन साइबर कैफे के ज़रिए हुआ है और अभी तक मेरे पास कंप्यूटर नहीं हो पाया है।
अब ऐसा लग रहा है कि कुछ संजीदा लिखूं। कुछ बढिया लिखूं.. गौतम और महावीर की तरह मुझे एक बरस के बाद ही बुद्धत्व और कैवल्य मिल गया है। पाठको का प्यार मिला है, आगे मिलता रहे इसी आशीर्वाद की आकांक्षा है।
सप्रेम
गुस्ताख़ मंजीत
Thursday, September 25, 2008
मैथिली लोकगीत
सावन-भादों मे बलमुआ हो चुबैये बंगला
सावन-भादों मे...!
दसे रुपैया मोरा ससुर के कमाई
हो हो, गहना गढ़एब की छाबायेब बंगला
सावन-भादों मे...! ]
पांचे रुपैया मोरा भैन्सुर के कमाई
हो हो, चुनरी रंगायब की छाबायेब बंगला
सावन-भादों मे...!
दुइये रुपैया मोरा देवर के कमाई
हो हो, चोलिया सियायेब की छाबायेब बंगला
सावन-भादों मे...!
एके रुपैया मोरा ननादोई के कमाई
हो हो, टिकुली मंगायेब की छाबायेब बंगला
सावन-भादों मे...!
एके अठन्नी मोरा पिया के कमाई
हो हो, खिलिया मंगाएब की छाबायेब बंगला
सावन-भादों मे...!
Wednesday, September 24, 2008
ऑस्कर की आशा
तारे ज़मीन पर ऑस्कर में नॉमिनेट होने के लिए चुन ली गई है.. अभी ऩॉमिनेट हुई नहीं है... लेकिन भारत के लोगों में इस फिल्म को लेकर बहुत उत्साह है। हर साल हम विदेशी भाषा वर्ग में अपनी फिल्म भेजते रहे हैं, लेकिन 1956 में पहली बार प्रविष्टि के लिए गई मदर इंडिया के बाद अब तक गंगा में बहुत पानी बह चुका है.. और हम दुनिया में सबसे अधिक फिल्में बनाने वाले देश बन गए हैं। लेकिन अभी तक स्थिति ये है कि हम महज तीन बार ऑस्कर के लिए नॉमिनेट हो पाए हैं। पुरस्कार जीतना तो दूर की कौड़ी है।
नॉमिनेशन की बात की जाए तो 1956 में महबूब खान की मदर इंडिया और 1988 में मीरा नायर की सलाम बाम्बे के बाद 2001 में आशुतोष गोवारिकर की लगान इस वर्ग में पुरस्कार की दौड़ में शामिल हो सकीं।
लाख टके का सवाल ये है कि अगर हम बॉलिवुड का परचम दुनिया भर में फैलाने का खम ठोंकते हैं तो हमारी फिल्मो को संजीदगी के साथ क्यों नहीं लिया जाता। आखिर बर्लिन या कॉन जैसे प्रतिष्ठित फिल्म समारोहों और ऑस्कर पुरस्कार समारोहों में हमारी नुमाइंदगी इतनी कमज़ोर क्यों होती है।
ऑस्कर में लगान का प्रदर्शन उत्साह बढाने वाला था लेकिन हम पुरस्कार पाने से चूक गए थे। 2002 में संजय लीला भंसाली की देवदास अवॉर्ड के लिए भेजी गई। फिल्म रीमेक थी और ट्रीटमेंट को लेकर चूक गई।
2003 में कोई आधिकारिक प्रविष्टि नहीं भेजी गई। 2004 में संजय सावंत की मराठी फिल्म श्वास और अगले साल यानी 2005 अमोल पालेकर की पहेली को नॉमिनेशन के लिए भेजा गया। खांटी भारतीय विषय पर बनी फिल्म पहेली भी ऑस्कर में नाकाम रही। 2006 में आमिर खान की अदाकारी और राकेश ओम प्रकाश मेहरा के निर्देशन में बनी फिल्म रंग दे बसंती भारत की प्रविष्टि थी। भ्रष्टाचार के खिलाफ़ एक दस्तावेज की तरह बनी इस फिल्म ने युवाओं को काफी अपील किया, लेकिन वैश्विक दर्शकों को यह उतना अपील नहीं कर पाई, ऐसे में यह भी ऑस्कर में नॉमिनेट नही हो पाई।
2007 में विधु विनोद चोपड़ा की एकलव्य- द रॉयल गार्ड को भारत की ओर से नामित किया गया, लेकिन यह भी ऑस्कर के स्तर तक नहीं पहुंच पाई। वैसे, एकलव्य भारतीय दर्शकों को भी नहीं लुभा पाई थी, और कला के लिहाज से भी कमजोर फिल्म थी।
अब एक बार फिर अदाकार आमिर और निर्देशक आमिर दोनों को मौका मिला है, भारत के सिर ऑस्कर का सेहरा बांधने का। यूं भी तारे ज़मीन पर एक अलग किस्म की फिल्म है, जिसकी कहानी हटके है। फिल्म समीॿकों के साथ दर्शकों का भी भरपूर दुलार मिला है।
उम्मीद है कि लगान के ज़रिए ऑस्कर पाने में जरा से चूक गए आमिर इस बार ऑस्कर के तारे को भारत की ज़मीन पर ले ही आएंगे।
Tuesday, September 23, 2008
ऑस्कर की दौड़ में भारतीय फिल्मे
यानी अब तक तारे ज़मीर पर को छोड़ दें तो महज तीन फिल्में ही ऑस्कर की दौड़ में शामिल हो पाई है, मदर इंडिया, सलाम बॉम्बे और लगान।
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Wednesday, September 17, 2008
बेटो के लिए पर्व-जितिया
अभी कल भाभियां गप्प कर रही थीं, जितिया पर्व के बारे में॥। जितिया बिहार और यूपी में पुत्रवती महिलाओं के बीच लोकप्रिय त्योहार (उपवास) है। मान्यता है कि जिस भी औरत के बेटे हों, उसे यह त्योहार करना चाहिए और िस उपवास के करने से बेटों की उम्र लंबी होती है।
उपवास के बाद एक राजा जीमूतवाहन की कथा भी सुनी जाती है, और भारतीय श्रुति परंपरा के हिसाब से गलत भी नहीं है । हां, पितृसत्तात्मक समाज का एक उदाहरण ये त्योहार भी है। लेकिन मेरे खयाल से महिला विमर्श वालों ने और महिला के अधिकारों के अलंबरदारों ने बहुत कुछ लिखा होगा इस पर।
इस त्योहार पर मैं जो सोच रहा हूं और जो लिख रहा हूं और जो मुझे याद आ रहा है वह थोड़ा अलग है। सोच ये रहा हूं कि जितिया त्योहार के पीछे इतिहास क्या हो सकता है?
मुझे लगता है कि सौ-दो सौ बरस या उससे भी पहले मृत्युदर बेहद ज्यादा थी। अकाल, बाढ और महामारी जैसी बीमारियां बहुत थीं। लडाईयां भी होती रहती थीं, ऐसे में लोगों की औसत उम्र बहुत नहीं होती थी। ३५- या ज्यादा-ज्यादा ४०। ऐसे में पंडितो ने घबराई मांओं को यह त्योहार सुझाया होगा। बाप बेटे के लिए उपवास क्यो नहीं करता यह अलग और अहम सवाल है। शायद कमाऊ इंसान के लिए ज्यादा उपवास वगैरह करना ठीक न माना जाता हो।
दूसरे, जितिया त्योहार मेरे लिए एक अलग याद लेकर आता है। परिवार में छोटा होने का फायदा हमेशा मुझे मिलता रहा। बहनों ने भी कभी इस बात की शिकायत नहीं कि मां उनकी लंबी उम्र के लिए कोई व्रत या उपवास क्यो नही करती। जितिया उपवास शुरु होने से पहले मां हमें अल्लसुबह उठा देतीं। बहनें जबरन मुंह धुलवाकर थाली में चिउडा-दही परोस देतीं। मैथिली में इस प्रक्रिया को ओँठगन कहा जाता है।
लंबे उपवास से पहले महिलाओं को भारी बोजन करवा देने का रिवाज था। मुमकिन है कि मां अकेले खा लेना मुनासिब न समझती हों। लेकिन यह इस त्योहार का अभिन्न अंग हो जाता था, कि मां सुबह-सुबह लिंग विभेद किए बिना सभी बच्चों को उत्कृष्ट किस्म का खाना खिला देतीं।
तो जनाब हम भी सारा भोजन उदरस्थ करके बिना कुछ बोले पुनः लंबी तान देते। भरा पेट होने की वजह से ९ बजे या फिर दस बजे तक ही जगते। सुबह-सुबह तर माल उडाने का जो मज़ा था, वह आज भी याद आता है। फिर मां जिस दिन यानी तकरीबन डेढ दिन बाद जब व्रत तोड़तीं, एक बार हमारे लिए महाभोज होता।
मन कर रहा है कि जितिया से पहले मां के पास घर चला जाऊं, लेकिन बॉस ने छुट्टी देने से मना कर दिया है।
Tuesday, September 16, 2008
वस्त्र-पुरुष को धो डाला
अब १३ सितंबर के दिल्ली धमाकों के बाद मीडिया की नज़र कमजोर गृहमंत्री की रिपोर्ट कार्ड पर पड़ ही गई। आखिरकार कब तक मीडिया भी दुनिया के तबाह होने की और बाघों के प्रेम कथा को खींच पाता। कपड़े बदलने के लिए मशहूर नफासतपसंद होम मिनिस्टर पर भी उनकी नज़र पड़ ही गई। स्टार और आजतक ने गृह मंत्री की बखिया उधेड़कर रख दी। सिर्फ एनडीटीवी ही उनके बचाव के प्रोपैगेंडा के तहत यूपीए और एनडीए के गृहमंत्रियों की तुलना करता नजर आया।
धमाकों के ठीक बाद तीन बार कपड़े बदल-बदलकर कैमरे के सामने दिखने की इच्छा शिवराज पाटिल की उघड़ गई। मामला बेनकाब होने वाला हो गया। हर धमाके के बाद अपना घिसा-पिटा बयान वे देते नज़र आए। अरे , थोडा़ जानदार बयान दे देते। अब गृह मंत्रालय के लिए बड़े दिनो से मचान पर लटके शिकारी की तरह इंतजार में खड़े लालू ने तुरंत हमाला बोल दिया। लेकिन लालू जी, अब आखिर के ५-६ महीने में गृह मंत्रालय लेकर क्या ज़ायका बिगाडिएगा? जाइतो गंवइलऊं, स्वादों नईं पईलहुं वाला मामला न हो जाए।
हे जनता जनार्दन, आंखे खोलों ये शिवराज तो महज एक नेता है॥ सभी नेता ऐसे ही हैं..। कपड़े बदलने में माहिर। कोई बंद गले का कोट बदलता है कोई कलफ लगा हुआ कुरता। अपने वोट बैंक के लिए ये कुछ भी करते हैं..लेकिन आगे से ऐसे नेता चुनाव न जीत कर आएं, यह आपको सुनिश्चित करना होगा।
Saturday, September 6, 2008
टीवी की असलियत की तस्वीरें
Monday, September 1, 2008
बचपन में पढ़ी एक कविता
चींटे का चांटा खाते ही,
गिरा लुढ़ककर हाथी,
भाग चले सब भालू-सूअर,
भगे शेर ले साथी।
कान पकड़कर हाथी बोला
अब न करो बेपानी
पूंछ पकड़कर ज़रा उठा दो,
क्षमा करो शैतानी