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Thursday, April 10, 2025

वेबसीरीज दुपहियाः जनहित में जारी सरकारी विज्ञापन जैसी जमीन से कटी सीरीज

मंजीत ठाकुर

हाल ही में अमेजन प्राइम वीडियो ओटीटी प्लेटफॉर्म पर वेबसीरीज दुपहिया आई है. दुपहिया मोटे तौर पर पंचायत की लाईन पर बनी है, या ऐसा कहना चाहिए कि पंचायत की प्रेरणा से बनी सीरीज है. बेशक यह सीरीज अपने केंद्रीय विषय दहेज प्रथा को लेकर चलती है. लेकिन साथ में हिंदुस्तानी गांवो (और शहरों में भी) व्याप्त गोरेपन को लेकर जो पूर्वाग्रह और दुराग्रह है उसे लेकर कड़ी टिप्पणी करती है.

बिलाशक इस बेवसीरीज ने दो बेहद बढ़िया और जरूरी विषय उठाए हैं. लेकिन, विषय उठाने तक ही मामला अच्छेपन पर खत्म हो जाता है. एक अच्छे विषय का ट्रीटमेंट इतना सतही है कि लोगों का ध्यान दहेज की बुराई की तरह कम ही जाता है. हां, प्रतिभावान लेकिन रंग से काली लड़की के अहसासे-कमतरी का चित्रण बहुत अच्छे से हुआ है.

इस बेवसीरीज के साथ बहुत सारे किंतु-परंतु हैं और इस सीरीज का लेखन बेहद कम रिसर्च के साथ हुआ है. लेखक और क्रिएटिव टीम के लोग ऐसा प्रतीत होता है कि कभी बिहार गए नहीं हैं. पहली बात, बनवारी झा (गजराज राव) की बेटी रोशनी झा (शिवांगी रघुवंशी) की शादी कुबेर प्रसाद से हो रही है. चौबीस साल से अपराधमुक्त गांव इतना पिछड़ा है कि मोटरसाइकिल को दुपहिया कहता है. चलिए, मान लेते हैं. लेकिन अगर इतना पिछड़ा है तो लेखक को यह पता होना चाहिए कि दहेज प्रथा को जी-जान से अपनाने वाले गांव में किसी ‘प्रसाद’ लड़के की शादी किसी ‘झा’ लड़की से नहीं हो सकती. हालांकि, विकिपेडिया में दी गई जानकारी के मुताबिक, इस सीरीज में दूल्हे का नाम कुबेर त्रिपाठी है. तो भी, लेखकों को बिहार की जाति-व्यवस्था का रंच मात्र भी ज्ञान नहीं है और त्रिपाठी ब्राह्मणों की शादी बगैरे किसी झमेले के मिथिला के ब्राह्मण की बेटी से की जा रही है. लेखकों को पता होना चाहिए कि बिहार में जाति एक सच है और वहां गोरे काले के भेद से ज्यादा गहरा भेद जाति का होता है.

असल में, सिनेमा या वेबसीरीज में देखकर बिहार के गांवों के पहचानने और जानने की कोशिश का यह कुफल है.

गांव को ठीक से नहीं समझ पाने का एक उदाहरण यह भी है कि धड़कपुर गांव में काले लोगों को गोरा बनाने का दावा करने वाली क्लीनिक मौजूद है, लोग स्मार्ट फोन पर रील देखते हैं और बनाते हैं पर बाकी दुनिया का पिछड़ापन मौजूद है.

तीसरी बड़ी खामी बिहार की पंचायती राज व्यवस्था को लेकर लेखकों का अज्ञान है. बिहार में पंचायती राज में मुखिया होते हैं, सीरीज में मुखिया का जिक्र ही नहीं है. बिहार के पंचायतों में 33 फीसद महिला आरक्षण है, यहां धड़कपुर में सिर्फ एक ही महिला पंच है. और तो और पार्टी की तरफ से सरपंच के लिए टिकट भी बांटते दिखाया गया है.

सिनेमा की दुनिया में बिहार के साथ दिक्कत यह हो रही है कि हर कोई इसे अपनी सीरीज की प्रयोगशाला बनाए हुए है. संवादों की भाषा यह है हर संयुक्त अक्षर को लोग तोड़कर बोल रहे हैं. महिला पंच बनी पुष्पलता यादव (रेणुका शहाणे) की स्क्रीन पर इतनी बुरी स्थिति मैंने आज तक नहीं देखी थी. वह अपनी गरिमा के साथ मौजूद तो हैं किरदार में ढल भी गई हैं लेकिन उनके संवाद लेखकों ने उन्हें अच्छे संवाद नहीं दिया है. मसला संवादों के लहजे का है.

दुपहिया सीरीज की बिरयानी बनाने के लिए निर्देशक ने सारे मसाले झोंक दिए हैं और इससे यह व्यंजन बेजायका हो गया है. और कुछ न हुआ तो रोशनी झा के भाई बने भूगोल झा (स्पर्श श्रीवास्तव) जिन्होंने लापता लेडीज में बड़ा मुतमईन करने वाला परफॉर्मेंस दिया था और रोशनी के पूर्व प्रेमी अमावस (भुवन अरोड़ा) को लौंडा डांस में उतार दिया. उससे भी मन नहीं भरा तो दोनों के बीच फाइटिंग सीन डाल दिया.

पहले कुछ एपिसोड में तो स्पर्श श्रीवास्तव ओवर एक्टिंग करते दिखे लेकिन बाद में जाकर वह सहज लगने लगे. संवादों को मजेदार बनाने की खातिर कई बार ऐसी बातें की गई हैं जिससे हंसी नहीं आती, बल्कि वह हास्यास्पद लगती है.

रोशनी के पिता के रूप में गजराज राव ने भावप्रवण अभिनय किया है. बृजेंद्र काला एक स्थानीय अखबार के मालिक-संपादक के रूप में मजेदार हैं. हालांकि, वह कैमियो रोल में ही हैं. पत्रकार के रूप में चंदन कुमार ठीक लगे हैं. एएसआई बने मिथिलेश कुशवाहा (यशपाल शर्मा) राहत के झोंके की तरह बीच-बीच में आते हैं. वह किसी भी किरदार में फिट बैठते हैं.

बिहार के देहातों पर बनी किसी भी सीरीज की तुलना हमेशा पंचायत से बनेगी. पंचायत की तरह सूदिंग बनाने के चक्कर में इस सीरीज में हर किसी को अच्छा बनाने की कोशिश की गई है. साथ ही, अमावस और रोशनी के बीच प्रेम को खुलेआम दिखाया गया है और इस बात का पता न सिर्फ रोशनी के परिवार को होता है बल्कि दोनों बेरोकटोक मिलते हैं. बिहार के गांव इतने आसान नहीं हैं.

पंचायत की तुलना में दुपहिया का संगीत कमजोर है.

झा परिवार की शादी में मिथिला की संस्कृति की कोई झलक नहीं दिखती है. शादी के घर में न गाना न बजाना. बिहार के गांव के सेट अप में यह सीरीज ऑर्गेनिक नहीं लगती.

आखिरी एपिसोड तो खैर, जनहित में जारी सरकारी विज्ञापन सरीखा हो जाता है. दहेज प्रथा पर भाषण, गोरे-काले के भेद पर भाषण और हां, क्लिप्टोमेनिया यानी छोटी चीजें चुराने की आदत पर भी एक ज्ञान.

सीरीज एक बार मनोरंजन के लिए देखी जा सकती है, पर कभी भी याद नहीं रखी जाएगी. पंचायत सीरीज जिस तरह लोगों की जबान को परिष्कृत कर चुकी है और दामाद जी तथा बनराकस मीम मटेरियल बनने में कामयाब रहे, और बाकी किरदारों को भी प्रेम मिला, वैसी लोकप्रियता दुपहिया हासिल नहीं कर पाएगी.







Wednesday, November 20, 2024

फूहड़ हिंदी फिल्मों के दौर में सोंधी हवा का झोंकाः मेझियागन

मेइयाझागन में निर्देशक ने कई ऐसे सवाल उठाए हैं जिनके जवाब आपको लगता है कि सदियों पहले मिल चुके हैं. मसलन, क्या आपने कभी सोचा है कि आपके जन्मस्थान को आपका गृहनगर क्यों कहा जाता है?

ब्रोमांसः फिल्म मेझियागन के एक दृश्य में कार्ति और अरविंद स्वामी


सिंघम अगेन और भूलभुलैया-3 जैसी हिंदी फिल्में ऊब पैदा करती हैं. हाल में रिलीज कथित बड़ी हिंदी फिल्मों में नौ लेखक, कई सितारे और धूम-धड़ाका तो था, पर कहानी नहीं थी. ऐसी स्थिति में, कई दक्षिण भारतीय फिल्में हैं जो आपको पुरसुकून अंदाज में पूरे सिनेमाई व्याकरण के साथ किस्सागोई का मजा देती हैं.

कुछ वक्त पहले मैंने तमिल फिल्म कदैसी विवासायी के बारे में लिखा था (इस फिल्म ने झकझोर दिया था) और मलयालम फिल्म भ्रमयुगम ने अपने बेहतरीन ट्रीटमेंट से दिल छू लिया था. इसमें मम्मूटी अपने सधे अभिनय से दिल जीत ले गए. वैसे भी मलयालम में अडूर गोपालकृष्णन की फिल्मों ने मेरे मन में अलग ही छाप छोड़ रखी है.
बहरहाल, कुछ वक्त हुआ जब मैंने एक और तमिल फिल्म देखी. नाम है मेयाझागन (या मेझियागन?).

सिनेमा के मामले में अधिकांश फिल्मकार बड़े परदे के अनुभव की कहावत को सिद्ध करने के वास्ते कहानी के बड़े पहलुओं पर ध्यान केंद्रित करते हैं. लेकिन मेझियागन फिल्म के निर्देशक सी प्रेम कुमार ने बारीक बातों और सूक्ष्म पलों को पकड़ा है. इस फिल्म ने जीवन के अंतरंग (ऊंह, वो वाला ‘अंतरंग’ नहीं) पल परदे पर उकेर दिए हैं. प्रेम कुमार पहले सिनेमैटोग्राफर थे और शायद इसी वजह से उनकी फिल्म के दृश्य एनिमेटेड स्टिल फोटोग्राफ्स की तरह दिखते हैं.

मेइयाझागन में निर्देशक ने कई ऐसे सवाल उठाए हैं जिनके जवाब आपको लगता है कि सदियों पहले मिल चुके हैं. मसलन, क्या आपने कभी सोचा है कि आपके जन्मस्थान को आपका गृहनगर क्यों कहा जाता है? मेइयाझागन की शुरुआत 1996 से होती है (ध्यान रहे, निर्देशक प्रेम कुमार की पहली फिल्म का नाम 96 था) जब एक युवा अरुणमोझी वर्मन उर्फ अरुल को एक ऐसे दर्द से गुजरना पड़ता है जिसे शायद ही कभी सेल्युलाइड पर कैद किया है. हिंदी तो छोड़ दीजिए, अन्य भारतीय भाषाओं की फिल्मों में भी यह दर्द नहीं दिखेगा.

फिल्म के नायक अरुल की पैतृक संपत्ति पर धोखे से किया उनके कुछ रिश्तेदारों के कब्जे की बैक स्टोरी है जिसकी वजह से अरुल का परिवार शहर में रहने लगा है और वह भूले से भी अपने गांव का रुख नहीं करते. 1996 में उनके साथ यह घटना होती है और 2018 में जाकर अरुल को अपनी ममेरी बहन की शादी में गांव जाना होता है. वह इस यात्रा को संक्षिप्त रखना चाहते हैं विवाह में बहन को आशीर्वाद देकर रात को लौट आना चाहते हैं. लेकिन, शादी की रात को उनका परिचय एक युवा रिश्तेदार से होता है, जो अपना नाम नहीं बताता और अरुल उसका नाम याद नहीं कर पाते. बहरहाल, एक शहरी आदमी गांव जाकर अपनी जड़ो की तलाश करे यह प्लॉट निर्देशक के लिए लुभावना हो सकता था, इसकी बजाए अरुल वहां दिलचस्पी नहीं दिखाता.

कहानी की शुरुआत में, कुछ ऐसे सूत्र छोड़े गए हैं जो बाद में आकर अपनी अहमियत साबित करते हैं. मसलन, अरुल गांव छोड़ते वक्त एक साइकिल छोड़ आते हैं, और कहते हैं कि कोई इसका इस्तेमाल कर लेगा. वह साइकिल वाकई एक जिंदगी को सिरे से बदल देता है.

निर्देशक ने फिल्म के सेकेंड लीड को कई दफा फ्रेम पर कब्जा करने की छूट दी है. फिल्म में अरुल बने अरविंद स्वानी और कार्ति के अलावा अन्य किरदार गौण ही हैं. लेकिन लेखक ने बाकी किरदार भी ऐसे रचे हैं कि उन पर लंबी चर्चा हो सकती है. इन किरदारों के संपाद ऐसे हैं कि सहज लगते हैं. चाहे वह शादी के दौरान मिली एक महिला, जो कहती है कि अगर उसकी अरुल के शादी होती तो उसकी जिंदगी अलग होती. ऐसे बहुत सारे किरदार हैं, जो अपनी अलग छाप लेकर चलते हैं. छोटे दृश्य हैं जो किरदारों को उभारते हैं.

मेझियागन में कई दफा बैल और सांप के सहज इस्तेमाल से लगता है कि कहीं निर्देशक शिव की तरफ तो इशारा नहीं कर रहे!

पर असल चीज है कि फिल्म में मानवीय संबंध उकेरे गए हैं. हर फिल्म में रोमांस ही हो यह जरूरी तो नहीं. इस फिल्म में दो दूर के रिश्ते के भाइयों के बीच के प्रेम को सहजता से उकेरा गया है.

अरविंद स्वामी और कार्ति के किरदारों के बीच के रिश्ते को खूबसूरत बनते देखना वाकई एक बेहतरीन अनुभव है. यह फिल्म यकीनन अरविंद स्वामी के करियर में सबसे उम्दा अभिनय के लिए जानी जाएगी.

कार्ति का किरदार—जिसका कोई नाम नहीं—उसके मासूम, शरारती व्यवहार में एक निरंतरता है, जबकि अरुल के किरदार में अपने रिश्तेदार को ख़तरा मानने से लेकर धीरे-धीरे उसके स्नेही स्वभाव को अपनाने तक का इमोशनल आर्क है.

तो अगर आप हिंदी फिल्मों में दोहराव भरे कथानकों (कथा तो खैर होती ही नहीं) से ऊब गए हैं, तो साउथ का रुख करिए. आप निराश नहीं होंगे.

Tuesday, November 5, 2024

वेब सीरीज- वाइल्ड वेस्टर्न सिनेमा के जॉनर में 1883 कविता सरीखा है

मुझे अमेरिकन काऊ बॉयज, वाइल्ड वेस्टर्न फिल्में पसंद हैं. खासकर, ऐसी फिल्में जिनमें अमेरिकन रेल बिछाने का या उसकी यात्राओं के दृश्य हों. काऊ बॉयज फिल्मों में तो बहुत-सी फिल्में देख रखी हैं. बस बी ग्रेड वाली ही बची होंगी.

इसी तरह अमेरिकी गृहयुद्ध पर बनी, रेड इंडियन्स से झगड़ों पर बनी सीरीज और यहां तक कि वेस्ट वर्ल्ड नाम की साइ-फाइ वेब सीरीज भी देख डाली जो हॉटस्टार पर थी और अब वहां नहीं है.

1883 का एक दृश्य


कहने का गर्ज यह है कि मोटे तौर पर हॉलिवुड ने वेस्टर्न के नाम पर अच्छा और कूड़ा जो भी बनाया है, उससे मैं मोटे तौर पर परिचित हूं. चाहे वह 1930 के दशक में बनी स्टेजकोच हो या फिल्म संस्थानों में पाठ्यक्रम में शामिल ‘वन्स अपॉन ए टाइम इ द वेस्ट.’

ऐसी ही एक सीरीज है येलोस्टोन. और इसका प्रीक्वल है 1883.

और आज मैं इसी 1883 की बात करने वाला हूं, क्योंकि सिनेमा अपने-आप में एक पेंटिंग और कविता भी होती है. वाइल्ड वेस्ट की कहानियों में कविता! यह खोजना ही मूर्खता है. क्या आप मिथुन की उन फिल्मों में कविता या बढ़िया सिनेमा की उम्मीद कर सकते हैं जो उन्होंने 2 साल में 40 रिलीज के दौर में बनाए थे?

एल्सा के किरदार में इशाबेल मे 


80 फीसद वाइल्ड वेस्टर्न और काउ बॉयज फिल्में लाउड और मेलोड्रैमेटिक होती हैं. और जो काऊ बॉय नायकत्व, लार्जर दैन लाइफ छवि हॉलीवुड ने गढ़ी है 1883 के दस एपिसोड उसको किरिच-किरिच तोड़ डालते हैं.
असल में, अमेरिकन वेस्ट के इतिहास को इतना रोमांटिसाइज किया गया और उसके नायक इतना खब्ती और रफ दिखाया गया कि उसकी नकल हिंदुस्तान में भी की गई. फिरोज खान का अपीयरेंस देख लें या फिर सत्ते पर सत्ता का अमिताभ बच्चन का रेंच.

1883 के निर्देशक टेलर शेरिडन हैं. और 1883 में यूरोपीय अप्रवासियों की टेक्सास से ओरेगन की यात्रा की रुखड़े और क्रूर असलियत को सामने लाती है.

इसमें डटन परिवार के पूर्वजों की गाथा है (जिन्होंने यलोस्टोन सीरीज देखी है, वह जानते हैं कि वह डटन परिवार के रेंच की आधुनिक समय की कहानी है).

1883 के एक दृश्य में इसाबेल मे

 
बहरहाल, यलोस्टोन सीरीज के नायक के परदादा जेम्स डटन की यह कहानी है.

असल में, डटन परिवार एक सपना लेकर टेक्सास से ओरेगन जा रहा है. और साथ में जर्मन और स्लोवाक भाषा बोलने वाले दो दर्जन परिवार भी साथ में चल रहे हैं. डटन ने अपनी पत्नी को वादा किया है कि वह उसके लिए इतना ब ड़ा घर बनाएगा कि वह उस घर में खो जाएगी.

लेकिन वह घर कहां बनेगा यह बड़ा प्रश्न है. इसके लिए डटन को पश्चिम की ओर की यात्रा करनी है. असल में डटन, अमेरिकन सिविल वार में कॉनफेडरेट आर्मी में कैप्टन रहा है. और इसलिए वह टेक्सास के मार-दंगे और क्रूर समाज से दूर निकल जाना चाहता है.

और इस यात्रा में वह एक कारवां के साथ जुड़ जाता है. वह यूरोपीय अप्रवासियों की मदद करने वाले दो एंजेट्स कैप्टन और थॉमस की ग्रुप के साथ बढ़ता है.



यूरोपीय अप्रवासियों के पास अमेरिकी वेस्टर्न की दुनिय में उत्तरजीविता के बुनियादी कौशल नहीं हैं. न घुड़सवारी आती है, न बंदूक चलाना आता है. यहां तक कि शिकार को काटकर मांस पकाना भी नहीं. और फिर छुद्र निजी लालच भी हैं.

डटन परिवार की बेटी किशोरी है. पूरी कहानी कई दफा उसके वॉइस ओवर से आगे बढ़ती है और उसके वॉइस ओवर ने इस सीरीज को सिनेमाई कविता में ढाल दिया है. अपने एक वॉइस ओवर में एल्सा (इशाबेल मे) कहती है, “डेथ इज एवरीवेयर इन प्रेयरी. इन एवरी फॉर्म यू कैन इमैजिन ऐंड फ्रॉम ए फ्यू योर नाइटमेयर्स कुडनॉट मस्टर.”
उदासियों, दुख, विषाद और पीड़ा से भरी यात्रा के बीच एल्सा का अपीयरेंस बादलों में बिजली का तरह होता है. वह खूबसूरत हैं और कई दफा आलिया भट्ट सरीखी दिखती हैं. उनके गालों में भी भट्ट की ही तरह डिंपल पड़ते हैं.
इस कथा क्रम में पीड़ा और मृत्यु के साथ, प्रेम है. एल्सा को प्रेम होता है. वह मुस्कुराती है. वह प्रेम को स्वीकार करती है.

1883 में अपनी सेटिंग और इपने किरदारों के इमोशनल कर्व को कमाल तरीके से पेश करता है और इसमें पश्चिमी रुखाई के साथ साथ प्रेम के कोमल पल भी हैं.

मेरे जो मित्र अच्छा सिनेमा देखने के शौकीन हैं, और खासकर अगर अमेरिकन वेस्टर्न फिल्मे देखने में मजा आता है, उनके लिए 1883 सरप्राइज पैकेज की तरह है.

#cinema #wildwest #western #Webseries 

Wednesday, May 1, 2024

लापता लेडीज अच्छे विषय पर बनी अच्छी फिल्म, पर निर्देशकीय कपट साफ दिखता है

मंजीत ठाकुर
लापता लेडीज का एक दृश्य. साभारः गूगल



लापता लेडीज को जिसतरह हिंदी जगत के उदार बुद्धिजीवियों का समर्थन मिला है, वह दो वजहों से है- पहला, कुछ झोल के बावजूद कहानी सार्थक विषय पर बनी है. दूसरा, फिल्म की निर्देशक किरण राव हैं. 

एक बात कहूं? मुझे ये समझ में नहीं आया, फिल्म के पहले सीन में परदे पर 'निर्मल प्रदेश' लिखकर क्यों आता है? मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश लिखने में क्या परेशानी थी? क्योंकि छत्तीसगढ़ का जिक्र तो बार-बार आया है!

चूंकि, किरण राव पाए की निर्देशक हैं, इसलिए उन्होंने ऐसा अनजाने में किया होगा ऐसा लगता नहीं है.

एक और अहम बात, क्या फूल और पुष्पा (नाम की ओर ध्यान दीजिए, दोनों के नाम पर्यायवाची हैं, पटकथा में इतनी महीन बात का ध्यान रखा गया है) का नाम 'शबनम' और 'शगुफ्ता' हो सकता था! क्या फिल्म का एक किरदार 'घूंघट' के खिलाफ और दूसरा 'हिजाब' के खिलाफ लड़ सकता था!

नहीं लड़ सकता था.

नहीं लड़ सकता था क्योंकि ऐसा करते ही किरण राव कट्टर उदारवादी ब्रिगेड की लाडली नहीं रह पातीं.

लापता लेडीज को सोशल मीडिया पर स्वयंभू आलोचकों की काफी तारीफ मिल ररही है. तारीफ के लिए पोस्टों की भरमार के बीच--हालांकि, मैंने इस फिल्म को पिछले दो दिनों में दो बार देखा, और मुझे बहुत पसंद आई. लेकिन, विषय और संदेश और फिल्म को बरतने को लेकर लेकिन मैं देश की 140 करोड़ जनता का ध्यान फिल्म की एक गलती की तरफ दिलाना चाहता हूं. 

आरक्षी अधीक्षक एसपी को कहते हैं, इंस्पेक्टर को नहीं


गांव के दारोगा के नाम के आगे लिखा है, 'श्री श्याम मनोहर, पुलिस अधीक्षक.' देहात के थाने में पुलिस अधीक्षक क्या कर रहा है? आप करोड़ों की लागत से फिल्म बना रहे हैं, आप हिंदी प्रदेश के हृदय स्थल से एक मार्मिक विषय उठा रहे हैं और आपको हिंदी शब्दावली में पुलिस अधीक्षक नहीं पता? एसपी समझते हैं? ऊंचे दरजे की निर्देशक और आला किस्म के पटकथा लेखक लोग भाषा के मामले में मार खा जाए. जा के जमाना. हिंदी की यही गति?

किरण राव के प्रशंसकों को बुरा लगेगा. बेशक फिल्म पर्दा प्रथा पर है. सशक्त और मजबूत है. कैमरा वर्क बढ़िया है. लेकिन... लेकिन मेरे दोस्तों और सखियो, कहानी में झोल ये है कि फूल कुमारी की देवरानी ने बारात में जाकर फूलकुमारी को देखा था. कैसे? 

कहानी जिस इलाके में बुनी गई है वहां बारात में औरते नहीं जाती हैं, क्योंकि समाज दकियानूसी है (और यही बात तो निर्देशक बता रही हैं, है न?) तो फिर फूलकुमारी की देवरानी ने उसका स्केच कैसे बना दिया? शब्दभेदी बाण की तर्ज पर शब्दभेदी स्केच? कुछ लोगों ने मुझसे कहा कि शादी से पहले देख आई होगी. इसका सीधा अर्थ है आपको सिनेमा का व्याकरण नहीं पता. सिनेमा में दर्शक को दिखाना पड़ता है, कोई किरदार ईमानदार है तो बताना नहीं, दिखाना होता है. एक्ट के जरिए.

साथ ही, प्रदीप (जो कि ब्राह्मण है), यानी जया का हसबैंड, उसकी मां भी बारात गई थी. इतने दकियानूसी समाज में मां बारात जाने लगी? कब से?  इसको कहते हैं कहानी में झोल. आप पहले से निष्कर्ष निकाल कर बैठेंगे तो ऐसे ही जबरिया मोड़ लाने होंगे कहानी में. 

बहरहाल, जिन दिनों फिल्म बन रही थी, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में भाजपा की सरकारें थीं और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की. उदार निर्देशक ने इसी वजह से छत्तीसगढ़ का तो नाम लिया लेकिन इन दोनों राज्यों का नहीं.

बहरहाल, फिल्मों के किरदार अधिकतर उच्चवर्गीय सवर्ण हैं, इसलिए इस कंप्लीट फिल्म के तौर पर यह फिल्म मुझे मुत्तास्सिर नहीं कर पाई है. हां, निर्देशकीय कपट के बावजूद बेशक देश के बहुसंख्यक हिंदू समाज में मौजूद पर्दाप्रथा पर यह एक नश्तर चुभोती है और उस लिहाज से उल्लेखनीय है.

आपको मेरी दृष्टि संकीर्ण लगेगी. हो सकता है कुछ लोग मुझे कुछ घोषित भी कर दें. पर जब आप कहानी को छीलते हैं तो ऐसे छीलन उतरती है. 

किसी एक ने मुझसे कहा भीः फिल्म मनोरंजन के लिए देखते हो या इन सब बातों पर गौर करने? दूसरे ने टिप्पणी कीः बड़े संदेश के पीछे छोटी बातों पर ध्यान मत दो.

हम देते हैं ध्यान. क्योंकि हमें एफटीआइआइ में यही सिखाया गया हैः हाउ टू रीड अ फिल्म.

Friday, April 26, 2024

पुणे में मैथिली फिल्मों की स्क्रीनिंग, मैथिली सिनेमा को नई पहचान दिलाने में साबित होगा मील का पत्थर





शनिवार, 27 अप्रैल को पुणे में मैथिली फिल्मों का प्रदर्शन किया जा रहा है. पुणे के डीवाई पाटिल अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय में यह आयोजन होना है. इस प्रदर्शन से मराठीभाषी पुणे में मैथिली सिनेमा में हो रहे काम और प्रयोगों पर लोगों की निगाहें जाएंगी.

इस प्रदर्शन की कर्ताधर्ता विभा झा कहती हैं, “मैथिली सिनेमा की पहली पारी भले ही फणी मजूमदार, सी. परमानंद और रवींद्रनाथ ठाकुर (गुरुदेव नहीं) जैसे दिग्गज फिल्मकारों और साहित्यकारों से संरक्षण में हुआ हो, फिर भी यह सिनेमा अपना बाज़ार खड़ा करने में असफल रहा. मैथिली के इतिहास में निर्देशक मुरलीधर के हाथों बनी ‘सस्ता जिनगी महग सिंदूर’ के अलावा कोई ऐसी फ़िल्म अभी तक बड़े परदे या बॉक्स ऑफ़िस पर ब्लॉक बस्टर हिट साबित नहीं हो पाई.”

बहरहाल, मैथिली सिनेमा में हो रहे कुछ नए कामों और नई फिल्मो को सिर्फ मैथिली भाषी लोगों ही नहीं, बल्कि दूसरे दर्शकों को उससे रू ब रू करवाने के मकसद से झा ने देश के अलग-अलग हिस्सों में इन फिल्मों का प्रदर्शन करना शुरू किया है.

पुणे में डीवाई पाटिल अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय में यह आयोजन वहां के कुलपति प्रभात रंजन एवं उनके मास मीडिया विभाग की सहायता किया जा रहा है.

बाईस्कोप वाली के नाम से मशहूर झा, फ़िल्म शोधार्थी हैं. इन्होंने पुणे यूनिवर्सिटी भारतीय फ़िल्म अध्ययन के तहत, मैथिली सिनेमा के सीमित सफलताओं के कारणों का अध्ययन पर शोध किया है.

वह कहती हैं, “लगभग 70 वर्षों पुराना इतिहास होने के बावजूद इसके बतौर उद्योग स्थापित न होने के कारण एवं इससे जुड़े कलाकारों, फिल्मकारों का साक्षात्कार करने के दौरान जो तथ्य मिले, उन्होंने इन्हें विवश किया की इसपर काम किया जाना चाहिए.”

झा बताती हैं कि अध्ययन के दौरान 21वीं सदी से जिन युवा फिल्मकारों का मैथिली सिनेमा क्षेत्र में आगमन हुआ और जो इस भाषा में सार्थक फिल्में बना रहे हैं, उनके काम को इसके दर्शकों तक पहुंचाना उन्हें अहम काम लगा. इसके तहत सबसे पहले उन्होंने अपना शोध पूर्ण करने के बाद 2021-22 से सोशल मीडिया पर मैथिली सिनेमा पर विमर्श शुरू किया.

मैथिली सिनेमा में फिल्मों के विषयवस्तु का गैर-मैथिली भाषी दर्शकों पर क्या प्रभाव है, यह जानने के लिए मार्च, 2023 में मुंबई विश्वविद्यालय के मास मीडिया एवं सिनेमा के अध्येताओं पर वह एक अध्ययन भी कर चुकी हैं.

मैथिली सिनेमा, अभी भोजपुरी की तरह अधिक लोकप्रिय नहीं है. लेकिन कुछ लोग इस दिशा में काम कर रहे हैं. विभा झा जैसे लोग इस दिशा में काम कर रहे हैं. लेकिन इस सिनेमा को पूंजी-निवेश और ताजा-टटके विषयों के चयन की जरूरत है.


Monday, December 26, 2022

फिल्म समीक्षाः कांतारा लोककथा और वर्तमान की समस्या के कमाल का मिश्रण है

मंजीत ठाकुर

लोककथाओं को फिल्मी परदे पर उतारना बहुत मुश्किल नहीं है. लेकिन जब उसी लोककथा और आमजनों के विश्वास को आधुनिक समाज की समस्याओं के साथ मिलाकर समाधान के आयाम के तौर पर पेश किया जाए तो मुश्किलें आती हैं.

इस लिहाज से कांतारा देखना विस्मयकारी है. खासकर, इसके शुरुआती बीस मिनट और आखिरी के बीस मिनट तो आह्लादकारी सिनेमाई अनुभव है.

फिल्मों को कहानी के आधार पर खारिज किए जाने का आम चलन है हिंदुस्तान में. खासतौर पर कांतारा में फिल्म में नायिका के प्रति नायक का बरताव नारी विमर्श के झंडाबरदारों के लिए इस फिल्म को खारिज किए जाने का एक आधार बन रहा है. लेकिन, इस मानक पर नब्बे फीसद भारतीय सिनेमा स्त्री-विरोधी है. हां, वामपंथी फिल्मकारों की कथित प्रगतिशील फिल्में भी इसके आधार पर खारिज की जा सकती हैं. पर कांतारा में मुद्दा वह नहीं है.

किसी भी फिल्म के लेखन बारे में सबसे अच्छी बात यही होती है कि पहले आधे घंटे में आपयह अनुमान लगा ही न पाएं कि फिल्म का खलनायक कौन है. कांतारा इस मामले में सौ फीसद बेहतरीन पटकथा है कि आप यह तय ही न कर पाएं कि आखिर खलनायक कौन है और इसके काम का मंतव्य क्या है.

सबसे बेहतर बात यह भी है कि आपको क्लाइमेक्स में जाकर चीजों का पता लगना शुरू होता है.

कांतारा की एक बड़ी खासियत इसकी कमाल की सिनेमैटोग्राफी और इसका रंग संपादन है. कांतारा देखते हुए, मैं दोबारा कहता हूं कि आपको अद्भुत सिनेमाई अनुभव होगा.

इस फिल्म में लोककथा की भावभूमि को लेकर स्थानीय लोगों के अधिकारों की बात की गई है. आरआरआर की भावभूमि भी यही थी लेकिन वह इतिहास के कथ्य की ओर मुड़ गई, कांतारा लोककथा का सहारा लेती है.

आखिर, वनभूमि के अधिकार को लेकर आप बगैर वैचारिक टेक लिए कोई फिल्म बना सकते हैं क्या? साथ ही उसको हिट कराने का माद्दा भी है क्या? इस फिल्म में स्थानीय भूमि माफिया या जमींदारों, सरकार के वन विभाग के कामकाज और स्थानीय लोगों के वनोपज पर अधिकार का संघर्ष बुना गया है और क्या खूब बुना गया है.

एक मिसाल देखिएः फिल्म में एक स्थानीय व्यक्ति अपन झड़ते बालों के लिए किसी पौधे की जड़ लेकर आ रहा होता है और वन अधिकारी मुरलीधर उसको रोकता है और एक थप्पड़ मारते हुए कहता है, ‘तुम्हें क्या लगता है ये जंगल तुम्हारे बाप का है?’ आपको क्या लगता है? इसका उत्तर क्या होन चाहिए?

जिसतरह से हमारे आदिवासी हजारों सालों से जंगल के साथ रहते आए हैं, चाहे वह कूनो-पालपुर के सहरिया हों या नियामगिरि के डंगरिया-कोंध, उस लिहाज से तो इस सवाल का एक ही और संक्षिप्त सा उत्तर हैः हां. आखिर स्थानीय लोगों का जंगल की उपज पर अधिकार होना ही चाहिए, क्योंकि इन आदिवासियों की संस्कृति उस जंगल के नदी-पहाड़ और वनस्पतियों के साथ गुंथी हुई है.

ऐसे में वन अधिकारी और स्थानीय लोगों का संघर्ष शुरू होता है. वन अधिकारी के पास उस जंगल को रिजर्व फॉरेस्ट में तब्दील करने का सरकारी आदेश है और पर्यावरण की रक्षा के लिए यह जरूरी भी है. वन अधिकारी ईमानदार है, वह जंगल के जानवरों की रक्षा करना चाहता है और स्थानीय लोग शिकार. स्थानीय लोगों के मन में भी शिकार किसी द्वेषवश नहीं है, यह तो उनकी संस्कृति का हिस्सा है और आप संस्कृति को बदलने वाले और उसको रोकने वाले होते कौन हैं!

यहां आकर फिल्म आपको सोचने विचारने के लिए एक मुद्दा देती है. आप ऐसे मुद्दे फिल्म के बाद दिमाग में नहीं बिठा पाते तो फिर फिल्म देखने के तौर तरीके बदल लीजिए.

फिल्म के नायक शिवा, जिसकी भूमिका फिल्म के निर्देशक ऋषभ शेट्टी ने निभाई है, भूता कोला की खानदानी परंपरा के हैं. लेकिन शिवा इस अनुशासन में नहीं बंधते. बिहार जैसे राज्यों में भूता कोला की तरह ही कुछ सिद्ध लोगों पर देवी या देवता या स्थानीय देवताओं का आगमन होता है. भगता खेलना कहते हैं उसको.

उधर, वन अधिकारी शिकार खेलने पर बंदिश लगाता है तो उसके साथ ही गांववाले उसका मजाक उड़ाने के लिए शिकार करना बढ़ा देते हैं. क्या आपको ऐसी मिसालें भारत के हर हिस्से के जंगलों से नहीं मिलतीं?

निर्देशक ने कर्नाटत के तुलुनाडु इलाके की लोककथा को कमाल के रंगों के जरिए परदे पर पेश किया है. इस मामले में इसकी जोड़ की दूसरी फिल्म बस मराठी तुंबाड की है, जहां बारिश के मेटाफर का इस्तेमाल किया गया था.

फिल्म के हर फ्रेम में आप कर्नाटक की माटी की खुशबू को देख सकते हैं. जीवनशैली, खानपान और जंगल अपने अदम्य रूप में. खासकर, भूतआराधने से फिल्म में रहस्य का पुट बढ़ता है और हम कांतारा की स्टोरी में अंदर जाते हैं.

सिनेमैटोग्राफी में अरविंद एस. कश्यप ने कमाल किया है और कर्नाटक के उस इलाके के चप्पे-चप्पे को लेंस में कैज किया है. और संगीत भी शानदार है.

लेकिन फिल्म की शुरुआत में जहां नैरेटिव सेट होता है, वहां के क्षण आपको दोबारा आह्लादकारी लगेंगे जब आप आखिरी बीस मिनट को भी गौर से देखेंगे.

आखिरी बीस मिनटों में भीषण संग्राम होता है और तभी कांतारा के वह स्थानीय देवता फिर से प्रकट होते हैं. उन पलो मे ऋषभ शेट्टी ने अतुलनीय अभिनय किया है. आप उसे महसूस कर पाएंगे अगर आप फिल्म में रंगों की अहमियत और कलरिस्ट की मेहनत, शेट्टी के प्रचंड अभिनय के पीछे उसको ऊपर ले जाने वाले संगीत और कैमरे की निगाह को बारीक तरीके से देख पाएंगे.

पटकथा में बेशक, बीच में कुछ हल्की सी ढील है. पर वह न हो तो फिल्म बेहद गंभीर हो जाती.

कुल मिलाकर कांतारा देखना एक आह्लादकारी सिनेमाई अनुभव है.

Sunday, June 19, 2022

रघुबीर यादव का मैसी साहब से लेकर पंचायत के प्रधानजी का सफर अद्भुत भी है और चक्रीय भी

मंजीत ठाकुर

रघुबीर यादव के साथ तस्वीर सोशल मीडिया पर डालने के साथ ही कई सौ टिप्पणियां सिर्फ इस बारे में आईं कि ‘प्रधानजी साथ में कौबला लौकी लाए थे या नहीं?’ आगे बढ़ने से पहले बता दूं कौबला मतलब खिच्चा, ताजा एकदम नाजुक लौकी.

15 मिनट की लोकप्रियता के इंटरनेटी दौर में भला कोई किरदार यूं लोगों के जेहन में समाए तो उस एक्टर के रेंज की तारीफ करनी हो होगी. और रघुवीर यादव कमाल के एक्टर हैं यह कहना भी बस, क्लीशे पंक्ति ही होगी. आखिर, पंचायत वेबसीरीज के दोनों सीजन में अपनी ट्रेडमार्क मुस्कुराहट के साथ प्रधानजी, ओह माफ कीजिएगा प्रधान-पति दूबे यानी रघुवीर यादव लोगों के जेहन में बस गए.

हल्की दाढ़ी और स्क्रीन पर दिखने वाले सामान्य हेयर कट की तुलना में कहीं अधिक लंबे बालों के साथ प्रधानजी का नाम का सुनते ही रघुवीर यादव की आंखों में चमक आ जाती है. वह कहते हैं, “हमलोग गंगा-जमुनी तहजीब की जो बात करते हैं, यही है. इसमें आप देख लीजिए, रिलेशंस हैं लोगों के. हर इंसान की खूबी सहजता और सरलता में ही है. जिस सहज तरीके से बढ़े हैं लोग... लेकिन जिंदगी में कहां से कहां पहुंच गए. हम उस विरासत को छोड़ते जा रहे हैं इसी वजह से हम बिखरते भी जा रहे हैं. हमारी इंसानियत खोती चली जा रही है.”

एक दर्शक के तौर पर आपको रघुवीर यादव की सबसे पुरानी याद क्या है? याद है जब ब्लैक ऐंड व्हाइट टीवी का जमाना था और जोहरा सहगल बच्चों को मुल्ला नसीरुद्दीन की कहानियां सुनाया करती थीं. जब एक हंसोड़ चरित्र परदे पर आता था और परदे पर उसके खींसे निपोरते ही क्रेडिट शुरू हो जाता थाः मुल्ला नसीरुद्दीन. वह रघुवीर यादव थे.

उन्हीं दिनों, एक और चरित्र लोगों के दिलो-दिमाग पर छा रहा था जो अपने रिटायर्ड पुलिसिया ससुर से परेशान था, जो सामान्य व्यक्ति था और जो नाकाम इसलिए था क्योंकि सीधा और सरल था, जिसकी परेशानियों का हल व्यावहारिक जिंदगी में नहीं बल्कि उसके सपनों में था. जहां उसके सारे दुश्मन मात खा जाते थे और उसकी हसीन इच्छाएं पूरी होती नजर आती थीं. नाम थाः मुंगेरी लाल के हसीन सपने.

प्रकाश झा का यह टीवी सीरियल इतना प्रसिद्ध हुआ कि यह हिंदी में एक कहावत ही बन गया और बाद में झा ने इसका एक सीक्वेल भी बनाया था, मुंगेरी के भाई नौरंगी लाल (इसमें राजपाल यादव मुख्य किरदार में थे)

बहरहाल, टीवी से शुरू हुआ अभिनय का चक्र फिर से टीवी (इस बार ओटीटी की शक्ल में) पर आ गया है. अच्छी कहानियों और स्क्रिप्ट की तलाश में रघुबीर पहले ही चुनिंदा फिल्में किया करते थे. पर इसकी तलाश उन्हें पंचायत तक ले आई. सहज-सरल किरदार, सहज सरल परिवेश, जिसमें सायास नहीं, एकाध गालियां आती भी हैं तो धारा में बहकर निकल जाती हैं. जहां गांव के समाज के छोटे-छोटे डिटेल्स हैं.

यादव कहते हैं, “पंचायत कहानी सुनकर तो किया ही था, लेकिन उसमें जो माहौल रचा जा रहा था, तो मैंने कहा इस सीरीज को तो किया ही जाना चाहिए. किसी ने कह दिया था कि बहुत कॉमिक है, तो मैंने कहा कि ये कॉमिक तो कत्तई नहीं है. इसमें तो ट्रेजिडी भरी हुई है. पहले से कॉमिडी सोचकर क्यों हाथ-पैर हिलाना, किरदार को बस निभाते रहो.”

लेकिन पंचायत के दोनों सीजन आम लोगों की पसंद है. खासकर, एक्शन और थ्रिलर वेबसीरीज के दौड़ में, जहां अंतरराष्ट्रीय स्तर पर गेम ऑफ थ्रोन्स से लेकर हाउस ऑफ कार्ड्स तक और वाइकिंग्स से लेकर फौदा जैसी कड़क सीरीज मौजूद हो और हिंदुस्तानी ऑडियंस को सेक्रेड गेम्स, पाताललोक, द फैमिली मैन और मिर्जापुर का जायका लग चुका हो, वैसे में सीधी-सादी कहानी पंचायत की लोकप्रियता का क्या राज है भला!

यादव कहते हैं, “सहजता, सरलता यही गुण है जो मुझे नजर आता है. असल में, सरलता बहुत मुश्किल से आती है. सरलता से काम करना बहुत मुश्किल काम है. जैसे ही बड़े प्रोडक्शन हाउस जुड़ते है तो एक्टिंग-विक्टिंग सब खत्म हो जाता है. फिर वो नोचने लगते हैं कि ऐसे करोगे तो ऐसे कमाई होगी. यह पंचायत में नहीं था.”

पंचायत के बारे में रघुवीर यादव कहते हैं कि अब तो शादी-ब्याह में बारातों में लोग पंचायत सीरीज देख रहे हैं, पूरा परिवार वेबसीरीज बैठकर देखने लग गया है. यादव कहते हैं, “पंचायत के विलेन से भी मुहब्बत होती है. विलेन भी कैसा जो सड़कों के बारे में बात कर रहा है, जो कहता है कि सड़कों पर गड्ढा है और इसको ठीक करवाइए. वो विलेन कैसे हो गया... वह तो कायदे की बात कर रहे हैं. लेकिन अब जो है विधायक, उसमें थोड़ा रंग है लेकिन कोई नफरत नहीं कर रहा है. चाहते सब हैं कि ऐसा कुछ हो कि उसको भी बिठाया जाए. अब लोग मेरे पीछे पड़े हैं कि क्या चुनाव लड़ोगे?”

पंचायत की खासियत है कि उसमें पंचायत सचिव और प्रधानजी की बिटिया का प्रेम भी बहुत महीन तरीके से चलता है. पंचायत की कामयाबी इसके संवादों की भाषा का बेहद ऑथेंटिक होना है. यादव कहते हैं, “पंचायत में पूर्वांचल-बिहार की भाषा को बहुत ऑथेंटिक रखा गया है. पूरे बिहार में ‘हम जाता हूं’ कही नहीं बोला जाता. कई लोगों ने फिल्मों में मुझसे ऐसी भाषा बोलने को कहा भी तो मैंने हमेशा मना किया. वो कहते रहे कि ये पंच है, पर भाषा का कैरिकेचर बनाना कहां तक उचित है?”

आने वाले 25 जून को रघुवीर यादव 65 साल के हो जाएंगे. इस उम्र में सामान्य लोग रिटायर हो जाते हैं, सरकारी हुए तो पेंशन खाने लगते हैं और गैर-सरकारी हुए तो जिंदगी में थोड़ा रुककर आने वाले बचे हुए सालों की जिंदगी की थाह लेने लग जाते हैं. बचत, परिवार, अब तक किया काम, छूटे हुए का दुख और आने वाली दुश्वारियों से बच निकलने की तरकीबें. पर, अभिनेता के लिए ऐसा करने की छूट नहीं होती. खासकर, तब जब आप मुख्यधारा के सोकॉल्ड स्टार न हों और व्यापक रेंज और गहराई वाले अभिनय के बावजूद फिल्मी पोस्टर पर आपका चेहरा नमूदार न होता हो. शो बिज सामान्य लोगों के लिए कुछ अधिक ही बेरहम होता है.

लेकिन जो लोग खुद अभिनय के स्कूल हैं, और सिनेमा में कोई पैंतीस-छत्तीस बरस बिता चुके हैं, उनके लिए मील का पत्थर वाला मुहावरा बेमानी है.

वह कहते हैं, “संघर्ष शब्द मैं कभी इस्तेमाल नहीं करता. ये जो तजुर्बे होते हैं ये मेरी पाठशाला थी. अगर मैं नहीं करता तो मुझे कुछ हासिल होता क्या. क्या लगता है कि गलीचे पर और गद्दे तकिए पर सोकर आप कुछ हासिल कर लोगे? आपको जमीन पर तो उतरना पड़ेगा कभी न कभी.”

जबलपुर के पास के रांझी गांव से कभी भागकर पारसी थिएटर कंपनी में शामिल हुए बेहद विनम्र और संकोची रघुबीर यादव में एक गंवई सादगी मौजूद है. खुद की खामियों पर हंसने के मामले में वे चार्ली चैप्लिन की एक झलक दे जाते हैं.

पारसी कंपनी में भर्ती के मौके पर उनके गंवई उच्चारण को लेकर जब मालिक ने 'तलफ्फुज़ (उच्चारण)" ठीक न होने की शिकायत की तो उन्होंने सफाई दी कि तबले पर गाऊंगा तो ठीक हो जाएगा. उन्हें लगा कि तलफ्फुज़ का ताल्लुक तबले से है. यह किस्सा वे मजे लेकर सुनाते हैं.

लेकिन, अपने उन दिनों की याद में खोते हुए यादव भावुक हो जाते हैं. वह कहते हैं, “पारसी थियेटर के दिनों में जब भूखे मरते थे हम तो ज्यादा मजा आता था मुझे. हमें रोज का डेढ़ रुपया मिलता था तो बारह आने का आटा ले आते थे और बारह आने का टमाटर. कहीं से तवा लेकर आए और कोने में बैठकर रोटी लगा देते थे, टमाटर की चटनी बना लेते थे. आधी खा लेते थे और आधी लपेटकर पेड़ पर रख देते थे कि शाम को खाएंगे.” ठहाका लगाते हुए रघुवीर कहते हैं, “वहां कुछ जुआरी रहते थे जो जुए में हार जाते थे और वे लोग हमारी रोटी खा जाते थे. और उस शाम हमें भूखा सोना पड़ता था.”

रघुवीर यादव पारसी थियेटर के जमाने का एक किस्सा भी बड़े मौज में आकर सुनाते हैं. मध्य प्रदेश के राघोगढ़ में रघुवीर अपने समूह के साथ मंचन के लिए गए थे और तब उनके निर्देशक थे मशहूर रंगकर्मी रंजीत कपूर.

टीम के खाने के लाले पड़े थे. अपनी खिलखिलाती हंसी के साथ यादव बताते हैं, “पूरी टीम के गाल पिचक गए थे. बस एक मैं था कि मेरे गाल और लाल हुए जा रहे थे.”

असल में, जहां यह टीम मैदान में रिहर्सल करती थी वहीं तालाब के पास एक मंदिर था और वहां साधुओं की एक टोली ठहरी थी. टोली के साधु दिनभर आसपास के गांवों से आटा वगैरह मांगकर लाते, उनमें से एक सारा आटा एकसाथ गूंथकर मोटी रोटी सेंकने के लिए रख देता. यादव गाने में उस्ताद थे और वह रोज शाम को मंदिर में साधुओं के साथ भजन गाते. यादव पुलकते हुए बताते हैं, “मैं रोज गाता था सांवरे आ जइयो, नदिया किनारे तेरा गांव... और भजन खत्म होते ही साधु मंडली मुझसे कहती कि चलो कुंवर जी भोजन कर लो और हर शाम मैं उनके साथ भरपेट खा लेता.”

वह कहते हैं, “एक दिन रंजीत कपूर ने छिपकर मेरी कारस्तानी देख रहे थे. साधुओं ने उनको छिपे हुए देख लिया और कहा कि आपके साथी उधर हैं उनको भी बुला लीजिए. मैंने रंजीत कपूर को आवाज दी, वो तो नहीं आए पर बाद में मुझे बहुत डांटा कि एक तो ये साधु भीख मांगकर लाते और तुम उसमें भी हिस्सा खा लेते हो. मैंने कहा, कि मैंने तो मेहनत की है. कपूर ने पूछ लिया कि क्या मेहनत की तुमने, तो मैंने कहा, मैंने भजन नहीं गाए डेढ़ घंटे! उसके बाद भी मैंने गाना और खाना नहीं छोड़ा.”

पारसी थियेटर के बाद यादव ने कठपुतलियों से नाता जोड़ा था. यादव उसका भी एक दिलचस्प किस्सा सुनाते हैं. बिहार के हाजीपुर में वह कठपुतलियों के एक शो के सिलसिले में हाजीपुर गए थे और महेश ऐंड पार्टी में वह गाने के लिए जाते थे. महेश खुद रेलवे में टिकट कलेक्टर था.

अपनी ही यादों में खोते हुए रघुवीर यादव बार-बार खिलखिलाते हैं. लल्लन, जगदीश जैसे दोस्त थे जो शो से जुड़े थे. यादव रेलवे क्वॉर्टर के बाहर खटिए पर सोते थे. रघुवीर कहते हैं, “महेश रात को पहलेजा घाट से महेंद्रू के बीच चलने वाले स्टीमरों के टिकट की पंच की गई तारीख के निशानों को बेलन से मिटा देते थे और उसी टिकट पर हम सबकी यात्रा करवाते थे.”

वह कहते हैं, “हमलोगों को अंधेरे में जाना पड़ता था. हाजीपुर के चौहट्टा के पास रहते थे और रास्ते में खेत बहुत थे. यादव बताते हैं, एक रोज हमलोग ढाई बजे रात को गुजर रहे थे और घर में खाने को कुछ था नहीं तो महेश ने गोभी के खेत से कुछ गोभी उखाड़ लिए और आधी गोभी तो हम कच्चा खा गए और बाकी का सब्जी पकाया.

अगली सुबह खुद महेश खेत पर आए और लल्लन को बुलाया, ऐ लल्लन, हियां आ रे. और फिर गोभी चुराने वाले को खूब गालियां दीं. रघुवीर बताते हैं, मैंने पूछा खुद को क्यों गालियां दे रहे हो. तो बोले, गालियां खा ली पाप कट गए.”

उसके बाद यादव ने नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा का रुख किया. वह कहते हैं, “मेरा असल जीवन तो रंगमंच है, फिल्में तो मैं बस कर लेता हूं.”

वह बताते हैं, “सत्तर के दशक में बहुत गुलजार रहती थी दिल्ली. दिल्ली में सीखने को मिलता बहुत था. बिष्णु दिगंबर जयंती... बाल गंधर्व... बहुत सारे म्युजिक और थियेटर हुआ करते थे. बहुत खूबसूरत माहौल था. अस्सी के बाद वो धीरे-धीरे बिखरना शुरू हुआ. फिर मीडियोकर लोग घुस गए. मीडियोकर कौन होता है, लेजी लोग जो मेहनत नहीं करना चाहते. हमें अल्काजी चौबीस में बाइस घंटे काम करवाते थे. क्योंकि वह काम के प्रति दीवानगी पैदा करवा देते थे. जुनून पैदा कर देते थे.”

मैसी साब, सलाम बॉम्बे, लगान, पीपली लाइव, न्यूटन जैसे उम्दा सिनेमा करते आए यादव, दोस्तों के बीच रघु भाई के नाम मशहूर हैं और उनके रचना संसार मे अभिनय तो बस एक ही आयाम है. उनकी जीवन यात्रा में सुर भी हैं और ताल भी. अनुषा रिजवी की फिल्म ‘पीपली लाइव’ में व्यंग्य गहरे धंसता है और उसका एक गाना बेहद लोकप्रिय भी है. निर्देशक ने रघुवीर की आवाज में एक लोकगीत को फिल्म में इस्तेमाल किया था.

यादव कहते हैं, “लोकसंगीत की एक खासियत होती है कि इसके दायरे के अंदर आप इसको इंप्रोवाइज कर सकते हैं. इसको बदला जा सकता है. पीपली लाइव के इस गाने के साथ जब निर्देशक आईं तो उनके पास महज दो लाईनें थीं, सखी सैयां तो खूबै कमात हैं, महंगाई डायन खाए जात है...वो महंगाई पर जोर दे रहे थे...”

हमारी टीम में से किसी ने टोचन दिया आपने डायन पर जोर दिया... रघुवीर अपने अंदाज में ठठाकर हंसते हैं और कहते हैं, “नहीं, मैंने सैंया पर जोर दिया था. आखिर सारी तकलीफ तो सैंया से ही है न. तो उसका पूरा मूड ही बदल गया और जो हारमोनियम लेकर आए थे उसके बीच की कुंजियां ही सही थीं, बाकी काम की नहीं थी. तो मैंने बाकी के सुर बंद कर दिए और बीच के स्केल का मैंने सुर लगाया और गांव से सारे पतीले और कड़ाहियां मंगाईं... उसी के बीच से हमने सुर ढूंढे.”

रघुवीर ने गाने के मुखड़े को रखा और अंतरे में कुछ पंक्तिया जोड़ी. वह कहते हैं, “हर महीना उछले पेट्रोल...डीजल का भी बढ़ गया मोल...शक्कर बाई के क्या बोल... बाद में फिर मेरे जेहन में आया कि साल घसीटा लग गया जून...महंगाई मेरो पी गई खून...और हाफ पैंट हो गई पतलून...” और कहकर कहकहा लगाते हैं.

मुंबई के गोरेगांव वेस्ट में ओबेरॉय वूड्स कॉलोनी के एक टावर की बीसवीं मंजिल के उनके टू बेडरूम आशियाने की बैठक में दीवार पर रैक में विश्व सिनेमा की क्लासिक फिल्मों की डीवीडी हैं, पर अपनी फिल्मों की नहीं.

रघुवीर का इन दिनों का प्यार संगीत है और उनके घर में बनी, अधबनी बांसुरियों का ढेर है. बांस के 5-5 फुट तक के लट्ठे, पीवीसी पाइप की भी बांसुरियां, यहां तक कि कोल्ड ड्रिंक पीने के काम आने वाले स्ट्रॉ भी बांसुरियों में बदल दिए गए हैं,

बांसुरी बजाना उन्होंने खुद ही सीखा है और बनाना भी, उनके संग्रह में ईरानी बांसुरी 'नेय और मिस्र की बांसुरी कवाला भी है. 2013 में आई उनकी फिल्म क्लब 60 के निर्देशक ने उन्हें स्लोवाकिया की बांसुरी फुजरा बनाते हुए देखा तो उसे बाकायदा उस फिल्म का हिस्सा बना लिया.

इन दिनों रघुवीर यादव प्रधानजी की अपनी धज में खुश हैं, पटकथाएं लिख रहे हैं, बांसुरियां बजा रहे हैं और उतने ही सहज और सरल हैं, जितनी लौकी होती है. सामान्य और बगैर मसालों के मिलावट के.

Wednesday, June 15, 2022

असली कहानी पर आधारित रॉकेट बॉयज में विलेन काल्पनिक और मुस्लिम क्यों है

रॉकेट बॉयज सीरीज बहुत अच्छी है, पर इसमें एक विलेन की जरूरत पड़ी तो उसको मुस्लिम बनाया गया, जबकि असल जिंदगी में संभवतया वह मेघनाद साहा थे. रॉकेट बॉयज पर एक त्वरित टिप्पणी,

कहानी कितनी भी अच्छी क्यों न हो उसमें एक बुरे खलनायक की जरूरत होती है. अपनी तरह के एकदम अलहदा वेब सीरीज रॉकेट बॉयज को भी एक विलेन की जरूरत पड़ी, तो उसने एक मुस्लिम भौतिकीविद् डॉ. रज़ा मेहदी को गढ़ लिया.

गढ़ लिया इसलिए, क्योंकि रॉकेट बॉयज में हर किरदार वास्तविक है. सीवी रमन, पंडित नेहरू, एपीजे एब्दुल कलाम, होमी जहांगीर भाभा, विक्रम साराभाई, मृणालिनी रामनाथन (जो बाद में साराभाई हो जाती हैं).

पर, असली दुनिया में डॉ. रजा मेहदी नहीं हैं कहीं. वेब सीरीज में हमारे डॉ. रजा मेहदी भौतिकीविद (फिजिसिस्ट) हैं, जो साइक्लोट्रोन बनाते हैं. जिन्हें लगता है कि पंडित जवाहर लाल नेहरू होमी भाभा के प्रति अधिक अनुराग रखते हैं और इसलिए वह न सिर्फ नाराज होते हैं बल्कि एक किस्म की ईर्ष्यागत प्रतिशोध की भावना से भी ग्रस्त हो जाते हैं. बाद में वह कम्युनिस्ट पार्टी के उम्मीदवार के रूप में पश्चिम बांकुड़ा से लोकसभा चुनाव जीतकर संसद में पंडित नेहरू से सवाल भी करते हैं. और बाद में अमेरिकी खुफिय़ा एजेंसी सीआइए उनको फांसने की कोशिश भी करती है.

लेकिन बिंदु से बिंदु मिलाया जाए तो कोलकाता के यह असली भौतिकीविद मेघनाद साहा थे. उन्होंने ही साइक्लोट्रॉन का निर्माण किया था.

डॉ. रज़ा मेहदी पहले एपिसोड में ही नेहरू की चीन नीति को 'फ्लॉप' कहकर खारिज करते दिखते हैं. यहीं पर निर्देशक यह स्थापित कर देता है कि होमी भाभा के प्रति उनके मन में अरुचि है. 

पटकथा लेखक और निर्देशक बहुत बारीक तरीके से डॉ. रज़ा को और अधिक स्याह दिखाते हैं और इससे भाभा का कद बढ़ता हुआ दिखता है. बेशक भाभा को थोड़े तुनुकमिजाज या सनकी की तरह भी दिखाने की कोशिश की गई है पर डॉ. रजा के नमूदार होते ही भाभा का नायकत्व स्थापित होता जाता है. डॉ. रज़ा भाभा के भारत के परमाणु कार्यक्रम के जनक बनने की दिशा में एक महत्वपूर्ण बाधा साबित होते हैं.

 असल में यहीं पर दोनों की पृष्ठभूमि तैयार करने वाले पटकथा लेखकों की तारीफ करनी होगी. डॉ. रज़ा की पृष्ठभूमि दी गई है कि वह असाधारण वैज्ञानिक हैं और उनके माता-पिता शिया-सुन्नी दंगों में मारे गए हैं. इससे उनके मनोविज्ञान पर असर पड़ता है.

अब बात, मेघनाद साहा की. मेघनाद साहा ने दुनिया को 'थर्मल आयोनाइजेशन इक्वेशन' दिया, जिसे 'साहा समीकरण' भी कहा जाता है. उनके इस सिद्धांत ने तारों के वर्णक्रमीय वर्गीकरण की व्याख्या की जा सकी.

1943 में स्थापित साहा इंस्टीट्यूट ऑफ न्यूक्लियर फिजिक्स, उस वैज्ञानिक को श्रद्धांजलि है, जो उत्तर पश्चिमी कलकत्ता निर्वाचन क्षेत्र से संसद सदस्य बने. यानी विलेन को साहा का बनाया जाना था. साहा भी मुखर और सीधे-सादे थे. सीरीज में दिखाए डॉ. रजा भी वैसे ही हैं.

बहरहाल, सीरीज के अंत में जाकर आपको पता लगता है कि भाभा की खुफियागिरी करने में डॉ. रजा की बजाए भाभा के निकटस्थ सहयोगी का हाथ होता है. और डॉ. रज़ा असल में डॉ. भाभा से जितनी नफरत करते थे उससे कहीं अधिक हिंदुस्तान से मुहब्बत करते थे.

सीरीज के निर्देशक पन्नू ने एक चैनल के साथ इंटरव्यू में बताया कि एक तरह से रजा के चरित्र का निर्माण भी इस्लामोफोबिया को प्रतिबिंबित करने के लिए था.

लेकिन पूरी सीरीज़ में डॉ. रजा भले ही विलेन की तरह दिखाए गए हों पर यह किरदार नेहरू से भी सवाल करता है और भाभा से भी. आखिर लोकतंत्र सवालों पर ही तो टिका होता है. यहीं पर सीरीज में कलाम की शानदार एंट्री होती है. वह भारत के आशाओं के प्रतीक पुरुष के रूप में आते हैं. और वह साराभाई के नवजात अंतरिक्ष अनुसंधान कार्यक्रम में शामिल होते है.

बेशक, रॉकेट बॉयज में उन्माद के क्षण नहीं हैं. और निर्देशक और लेखकों ने इसमें कुछ किरदार रचने की स्वतंत्रता ली हो. पर सवाल यही है कि विलेन बनाने के लिए भाभा के प्रतिद्वंद्वी वैज्ञानिक का मुस्लिम होना कितना जरूरी था?

बहरहाल, सीरीज के अंत में दो सुखद बातें होती हैं. पहली, विश्वासघाती वैज्ञानिक डॉ. रज़ा मेहदी नहीं, विश्वेस माथुर होता है. दूसरा, थैंक गॉड, डॉ. रज़ा का किरदार काल्पनिक है.


Sunday, June 5, 2022

फिल्म समाक्षाः जिद, जुनून और कामयाबी का किस्सा है फिल्म कौन प्रवीण तांबे

प्रवीण तांबे! कौन प्रवीण तांबे! क्रिकेटर? यह नाम, जिस पर बायोपिक बन गई, हर शख्स के मुंह से पहला सवाल यही, कौन था प्रवीण तांबे. और बेशक, इस फिल्म का शीर्षक शानदार है.

भारत में इन दिनों आइपीएल का महोत्सव चल रहा है और इन्हीं दिनों ओटीटी प्लेटफॉर्म डिज्नी+ हॉटस्टार रिलीज हुई है फिल्म कौन प्रवीण तांबे. क्रिकेट पर इन दिनों बहुत सारी फिल्में आई हैं और बहुत सारी कतार में भी हैं. क्रिकेटरों पर बायोपिक के लिहाज से, धोनी- द अनटोल्ड स्टोरी सबसे बड़ी हिट रही. डाक्यूमेंट्री के लिहाज से सचिन पर बनी डॉक्यूमेंट्री भी अपने किस्म का शायद पहला ही मामला था कि लोग थियेटर में वृत्तचित्र देखने गए. हालांकि, सचिन पर बनी फिल्म देर से बनी थी. उस फिल्म को 1999 में बनना चाहिए था.

कौन प्रवीण तांबे में निर्देशक सफल रहे हैं क्योंकि इस फिल्म के बायोपिक होते हुए भी इसमें एक ठोस कहानी है. कहानी में उतार और चढ़ाव है, ट्विस्ट है. और इसी के बरअक्स 83’ बतौर निर्देशक कबीर खान की नाकामियों में गिनी जाएगी, क्योंकि उसमें एक इमोशनल आर्क नहीं था. हालांकि, संभावनाएं अपार थी.

बहरहाल, कौन प्रवीण तांबे एक खिलाड़ी की जिद और जुनून की कहानी है. क्रिकेट में सैकड़ों लोग अगर नाम कमाते हैं तो हजारों लोग ऐसे भी हैं, जिन्हें कहीं मौका नहीं मिलता. और उसके पीछे कई वजहें होती हैं. प्रवीण तांबे की खास बात यह थी कि उनकी लड़ाई अपनी बढ़ती उम्र से थी.

इस फिल्म की खासियत यह भी है कि खेलों पर बनी अन्य बायोपिक के मुकाबले इसका ट्रीटमेंट अलहदा किस्म का है. इस फिल्म का क्राफ्ट अलग है. खिलाड़ियों को (मेरी कॉम से लेकर कपिल तक) लार्जर दैन लाइफ चित्रित करने के लिए उनके हीरोइज्म की घटनाओं को और भी बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जाता है. फिल्म कौन प्रवीण तांबे में यह सब कुछ नहीं है. फिल्म की खासियत इसकी कहानी का तानाबाना है. बेशक, जो थोड़ा लंबा है, और इसको संपादन के जरिए और अधिक चुस्त बनाया जा सकता था लेकिन इसके बावजूद यह फिल्म आपको अपने साथ लेकर सुख और दुख की यात्रा पर चलती है.

इस फिल्म में अचानक कुछ नहीं घटता. इसमें आपको लगता है कि एकदम साधारण दिखने वाला नायक आखिर कामयाब होगा भी या नहीं. श्रेयस तलपड़े इससे पहले नागेश कुकूनूर की फिल्म इकबाल में भी क्रिकेटर की भूमिका निभा चुके थे और इसलिए उनके लिए यह भूमिका बहुत मुश्किल नहीं थी. लेकिन तलपड़े ने भावप्रवण एक्टिंग की है. संवाद एकदम सामान्य हैं और उनको कहीं भी नाटकीयता से बचाया गया है. वैसे, श्रेयस तलपड़े को प्रॉस्थेटिक्स का कहीं सहारा नहीं लेना पड़ा. वह अपने चेहरे पर बहुत आसानी से मासूमियत, हंसी और बेचारगी के भाव प्रकट करते हैं.

इस फिल्म की खासियत इसके सभी किरदारों का सहज अभिनय है. चाहे वह नायिका (फिल्म मे तांबे की पत्नी) अंजलि पाटिल हों या कोच की भूमिका में आशीष विद्यार्थी. लेकिन इस फिल्म में एक किरदार ऐसा है जिसके बगैर यह फिल्म अधूरी मानी जाएगी. वह हैं खेल पत्रकार की भूमिका में परमब्रत चटर्जी. गोल और मासूम चेहरे वाले इस अभिनेता को आप विद्या बालन वाली कहानी समेत कई फिल्मों में देख चुके होंगे. लेकिन, इस में वह खेल पत्रकार बने हैं जिनके चरित्र की कई परतें हैं. उनमें नेगेटिव शेड भी है पर वह कहीं भी अतिनाटकीय नहीं हुए. बल्कि अंडर प्ले ही किया है. चेहरे के मांसपेशियों में उतना ही खिंचाव, उतनी ही गति, जितनी की जरूरत है. कई सीन में मुझे चटर्जी में इरफान की झलक दिखाई दी.

असल में, इस फिल्म में कहीं भी कहानी से भटकती नहीं है. जयप्रद देसाई ने बायोपिक में जीवन के हर पहलू को समेटने में थोड़ी ढील नहीं दी होती तो फिल्म और अधिक चुस्त भी हो सकती थी. पर अभी भी आपको कहीं से बोर नहीं करेगी.

लेकिन इस फिल्म का टेक अवे क्या है? टेक अवे है नायक के रूप में, एक कॉमन मैन का उभार. बिना हवा में उड़े, बिना तूफान लाए, बिना माथे पर पत्थर उठाए, बिना प्रॉस्थैटिक और वीएफएक्स के नायक आपके दिल में सहजता से उतर जाता है. आपको अपने मुहल्ले के, अपने बहुत सारे प्रतिभावान खिलाड़ियों की याद आएगी, जो शायद रणजी तक खेल सकते थे, पर नौकरी, परिवार और समाज ने उनको रोक दिया होगा.

प्रवीण तांबे के जीवन की एक ही साध थी, उनको बस एक रणजी मैच खेलना था. उम्र की वजह से उनका चयन रणजी में नहीं हो चुका और तब आया आईपीएल का दौर. राजस्थान रायल्स की तरफ से उनका चयन राहुल द्रविड़ ने 2013 के आइपीएल संस्करण में किया. अपने पहले मैच में पहले ओवर में तांबे ने हैटट्रिक विकेट लेकर रॉयल्स को जीत दिलाई थी. और उस वक्त उनकी उम्र 41 साल की थी.

बाद में वह रणजी में भी चुने गए. और आईपीएल के कई संस्करणों में अलग अलग टीमों से खेले. अभी वह कोलकाता नाइट राइडर्स की टीम में सपोर्ट स्टाफ में हैं. बेशक, यह फिल्म यह भी स्थापित करती है कि उम्र तो महज एक संख्या और आईपीएल ने देश की बहुत सारी क्रिकेटिंग प्रतिभाओं को उचित स्थान दिलाया है.

जिद और जुनून आखिरकार कैसे कामयाबी भी दिलाती है, यह देखना और प्रेरणा भी हासिल करनी हो तो यह फिल्म देखनी चाहिए.

फिल्मः कौन प्रवीण तांबे?

ओटीटीः डिज्नी+हॉटस्टार

निर्देशकः जयप्रद देसाई

अभिनेताः श्रेयस तलपड़े, अंजलि पाटिल, आशीष विद्यार्थी, परमब्रत चटर्जी, छाया कदम, हेमंत सोनी, अरुण नालावड़े.

Saturday, May 15, 2021

स्मृतिः इरफान होने का अर्थ

मंजीत ठाकुर

विश्व सिनेमा में ज्यां गोदार को कौन नहीं जानता? 1960 में रिलीज उनकी एक फ्रांसीसी फिल्म ब्रेदलेस (ए बॉट डि सफल) में एक संवाद है, “व्हॉट इज योर ग्रेटेस्ट एंबिशन इन लाइफ?”

“टू बिकम इमॉर्टल... ऐंड देन डाइ”

(“तुम्हारी जिंदगी की सबसे बड़ी महत्वाकांक्षा क्या है?”

“अमर होना... और फिर मरना”)

यह संवाद हिंदुस्तान के सबसे आला अदाकारों में से एक इरफान को ही पारिभाषित करता है.

कहां से चले थे इरफान? आपको याद है कहां आपने उनको पहली दफा देखा था? संवतया आप डॉ चंद्रप्रकाश द्विवेदी के टीवी सीरियल चाणक्य का नाम लेंगे, जिसमें वह सेनापति भद्रबाहु के रूप में दिखे थे या शायद आपको नीरजा गुलेरी की लोकप्रिय सीरीज चंद्रकांता याद हो जिसमें वह दोहरी भूमिका में थे.

पर, इरफान इससे पहले परदे पर नमूदार हो चुके थे.

1987 में इरफान राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से निकले और मीरा नायर की सलाम बॉम्बे में छोटी सी भूमिका में आए. यह बात दीगर है कि उनके उस छोटे किरदार पर भी फाइनल कट में कैंची चल गई. जमाना दूरदर्शन का था, काम की तलाश थी तो एक रूसी लेखक मिखाइल शात्रोव के नाटक का उदय प्रकाश ने हिंदी अनुवाद किया था और नाम था, लाल घास पर नीले घोड़े और उसमें इरफान खान (तब उपनाम खान भी लगाते थे) लेनिन बने. उसके कुछ महीनों बाद डीडी पर एक सीरियल प्रसारित हुआ डर, जिसमें वह मानसिक रूप से अस्थिर हत्यारे की भूमिका में थे और मुख्य खलनायक बने थे. उन दिनों टीवी पर सास-बहू का जलवा नहीं था और टीवी पर ठीक-ठाक कंटेंट पेश किया जाता था. इसी में मशहूर शायर सरदार अली जाफरी ने एक धारावाहिक बनाई जिसका नाम था कहकशां और इरफान खान उर्दू शायर और मार्क्सवादी कार्यकर्ता मखदूम मोहिउद्दीन की भूमिका में नजर आए. नब्बे के दशक में, चाणक्या, भारत एक खोज, सारा जहां हमारा, बनेगी अपनी बात, चंद्रकांता, श्रीकांत, अनुगूंज जैसे धारावाहिकों में नजर आते रहे.

पर, अमरता की दिशा में यह एक छोटा कदम था. इमॉर्टल होना इतना आसान भी तो नहीं. लेकिन नब्बे के दशक से लेकर 2020 आते-आते यह एक्टर, स्टार भी बन गया. अमर भी. जिसकी आंखों में वह कमाल था कि लोग कहें कि इरफान की आंखें बोलती हैं तो यह तारीफ नाचीज सी लगती है. इरफान अंतरराष्ट्रीय स्टार बन गए, जिसके सामने शाहरुख का कद भी छोटा पड़ने लगा. आप लाइफ ऑफ पई याद करें, आप अमेजिंग स्पाइडरमैन याद करें... आप ऑस्कर में झंडे गाड़ने वाली स्लमडॉग मिलियनर याद करें.

आखिर जयपुर के अपने दकियानूसी परिवार से भागकर दिल्ली के एनएसडी में पहुंचने वाले इरफान के लिए क्या इमॉर्टिलिटी की परिभाषा यही रही होगी? क्या उस शख्स के लिए जिसने टीवी एक्टर मुकेश खन्ना (भीष्म पितामह फेम) से सलाह ली थी कि आखिर फिल्मों में काम कैसे हासिल किया जाए, कामयाबी का पैमाना क्या रहा होगा? बाद में, इंडिया टुडे मैगजीन में कावेरी बामजई को दिए अपने इंटरव्यू में इरफान ने कहा था, “उन्होंने मुझसे कहा आप जो हैं वही करते रहें और यह सुनिश्चित करें कि आप एक दिन टीवी से बड़े बनेंगे.” खन्ना से इस सलाह के समय तक इरफान बनेगी अपनी बात के 200 एपिसोड पूरे कर चुके थे और यह सीरियल 1994 से 1998 के बीच प्रसारित हो रहा था. इरफान चंद्रकाता के कई एपिसोड में नमूदार हो चुके थे और स्टार बेस्टसेलर्स में भी. इरफान ने उसी इंटरव्यू में कहा था, “मैं बोर हो रहा था. मैं काम छोड़ने की सोचने लगा था.”

फिर आसिफ कपाड़िया की निगाह उन पर पड़ी थी. और 2001 में रिलीज हुई ब्रिटिश फिल्म द वॉरियर, जिसने इरफान को अंतरराष्ट्रीय ख्याति दी और उनकी प्रतिभा ने अंतराराष्ट्रीय फिल्मकारों का ध्यान खींचा. माइकल विंटरबॉटम ने उन्हें 2007 में अ माइटी हार्ट में पाकिस्तानी पुलिसवाले की भूमिका दी और वेस एंडरसन ने दार्जिलिंग लिमिटेड में उनके लिए खास छोटी भूमिका ही लिखी, ताकि साथ में काम कर सकें.

तो क्या इतने सफर से वह हासिल हो गया, जिसका जिक्र ब्रेदलेस के संवाद में है?

नहीं.

इरफान भरोसेमंद अभिनेता बनना चाहते थे. सफर बाकी था. ताकि लोगों को उनकी फिल्म रिलीज करते समय सोचना न पड़े.

एनएसडी में उन्हें सिखाया गया था कि साहस बहुत जरूरी है. इरफान ने एक इंटरव्यू कहा कि उन्हें समझ में नहीं आया कि आखिर एक एक्टर का साहस से क्या लेना-देना. पर फिर आई, विशाल भारद्वाज की सात खून माफ. इरफान ने अपने उदास शायर के किरदार को थोड़ा स्त्रैण बनाया, थोड़ा महिलाओं जैसा. सर झटकना और हाथ चलाने की अदाएं डालीं. यह एक भूमिका को अलग दिखाने का साहस था, जो एनएसडी ने उन्हें सिखाया था.

और तब एक और साहस की बात हुई. विशाल भारद्वाज ने मकबूल में 2003 में उन्हें रोमांटिक भूमिका दी. यह भी साहस था. और इसके साथ, व्यावसायिक सिनेमा में पहले खलनायक और बाद में कभी हिंदी मीडियम और कभी अंग्रेजी मीडियम के जरिए इरफान नई इबारतें रचते रहे.

फिर, इरफान का नाम लेते ही जब उस एक्टर का चेहरा जेह्न में छपने लगा, जो अभिनय करते वक्त अपनी मांसपेशियों को एक मिलीमीटर भी फालतू की गति नहीं देता, जिसका अपनी पेशियों पर गजब का नियंत्रण था और जो अपने जज्बात को नाटकीय रूप से पेश नहीं करता था. तब मेरे एक सिनेमची दोस्त विकास सारथी ने मुझसे कहा था, जेह्न में नाम लेते ही इस तरह तस्वीर उभर आए, तो यही इमॉर्टिलिटी है, अमरता है.

इरफान ने अमरता हासिल कर ली और फिर उनकी देह किसी और अनंत यात्रा पर निकल गई.

रेस्ट इन पीस. इरफान!





Sunday, June 14, 2020

सुशांत सिंह राजपूत की खुदकुशी छोटे शहरों के सपनों के लिए झटका है

जानने वाले कहते हैं सुशांत सिंह राजपूत पूर्णिया के पास मलहारा नाम के किसी छोटी जगह के थे. मुंबई जैसी जगहों में, जहां मुंबई से बाहर की दुनिया बाहरगांव कही जाती है, मलहारा छोड़िए, पूर्णिया भी कम ही लोग जानते हैं. चमकदमक की उस दुनिया में सुशांत सिंह राजपूत पटनावाले कहलाते थे. सवाल यह नहीं है कि सुशांत पटना के थे या पूर्णिया के, महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि छोटे शहरों के प्रतिनिधि के रूप में, जो जाकर मुश्किल से मुश्किल चोटी पर परचम लहरा दे, एक चेहरा और कम हो गया है.

सुशांत सिंह राजपूत उन चेहरों का स्पष्ट प्रतीक थे, जो कुंअर बेचैन की इन पंक्तियों को परदे पर अपने गालों पर पड़ने वाले खूबसूरत गड्ढों और कातिलाना मुस्कान से सजीव करते थे.

दुर्गम वनों और ऊंचे पर्वतों को जीतते हुए,

जब तुम अंतिम ऊंचाई को भी जीत लोगे,

जब तुम्हें लगेगा कि कोई अंतर नहीं बचा अब,

तुममें और उन पत्थरों की कठोरता में,

जिन्हें तुमने जीता है.

सुशांत सिंह राजपूत ने आज खुदकुशी कर ली. फोटोः ट्विटर

पर सुशांत सिंह राजपूत हैं से थे हो गए. फेसबुक पर उनके बारे में जब लिखा तो कई पाठकों ने टिप्पणी की कि काश, कोई 2020 के साल को इस डिलीट कर सकता!

राजपूत ने खुदकुशी की और अमूमन लोग खुदकुशी को कायरों का काम कह रहे हैं.

कुछ साल पहले भारतीय क्रिकेट टीम के विश्वविजयी कप्तान महेंद्र सिंह धोनी के जीवन पर फिल्म बनी थी तो इन्हीं सुशांत सिंह राजपूत को रूपहले परदे पर धोनी का चेहरा बनाया गया था. चेहरा फिट बैठा था और फिल्म हिट हुई थी. इतिहास में अब जब तक महेंद्र सिंह धोनी का नाम रहेगा, परदे पर सुशांत सिंह राजपूत भी उनके चेहरे के प्रतिनिधि के रूप में जीवित रहेंगे.

सुशांत सिंह राजपूत के साथ दो विडंबनाएं हुईं. पहली, छोटे शहरों से आकर धाक जमाने वाले और दुनिया जीत लेने वाले जज्बे से भरे लोगों के एक प्रतीक पुरुष अगर खुद महेंद्र सिंह धोनी हैं, तो दूसरे प्रतीक खुद सुशांत सिंह राजपूत भी हैं. इसी तरह सुशांत सिंह राजपूत की एक और फिल्म छिछोरे भी आई थी.

फिल्म छिछोरे में वह अपने ऑनस्क्रीन बेटे के लिए प्रेरणा की तरह सामने आते हैं जो अवसाद में है. अपने उस बेटे को अवसाद से निकालने के लिए वह अपने सहपाठियों को खोज निकालते हैं. पर अपने जीवन के अवसाद, क्योंकि इस लेख के लिखे जाने तक कुछ मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक सुशांत सिंह राजपूत अवसाद में थे, को कम करने के लिए वह कुछ नहीं कर पाए.

क्या सुशांत सिंह राजपूत जैसे फिल्मी नायकों के इस कदर आत्महत्या करने का असर पड़ेगा? हिंदुस्तान जैसी जगह में जहां आगे बढ़ने की राह में तमाम किस्म की दुश्वारियां दरपेश होती हैं, जहां अपनी दसवीं का नतीजा जानने से लेकर ग्रेजुएशन में परीक्षा के लिए फॉर्म भरने तक किसी किरानी की जेब गर्म करनी होती है, जहां चौथी श्रेणी के छोटी-छोटी नौकरियों के लिए पीएचडी जैसी उपाधियां हासिल करने वाले हजारों लोग आवेदन कर देते हैं, जहां नौकरी के लिए हुई परीक्षा में घोटाले और भ्रष्टाचार के मामले नित दिन उजागर होते रहते हैं, वहां हमारे बच्चों को, खासकर छोटे शहरों और गांवो के लोगों को प्रेरणा कहां से मिलेगी?

यह प्रेरणा इन्हीं विजेताओं से आती है, जो कभी धोनी के रूप में, कभी जहीर खान के रूप में, कभी सुशांत सिंह राजपूत के रूप में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाते हैं. टीवी से शुरुआत करके सीढी-दर-सीढ़ी सिनेमा की संकरी दुनिया में अपनी जगह बनाना और उस में पैर जमाकर अपने लिए अच्छी भूमिकाएं हासिल करना खासी मशक्कत का काम है.

सुशांत सिंह राजपूत ने यह सब किया था. पर, आज उनकी आत्महत्या की घटना से उनको अपना आदर्श मानने वाला एक बड़ा तबका यह जरूर सोचेगा कि क्या इस भीड़ में जगह बनाकर आगे खड़े होने की जद्दोजहद इतनी जानलेवा है?

हो सकता है कि सुशांत सिंह राजपूत की खुदकुशी के पीछे कोई और वजह हो. अवसाद न हो, निजी रिश्ते हों या शायद कोई ऐसा दवाब, जो जाहिर न किए जा सकते हो. पर, नायक होते ही से क्या जिम्मेदारी नहीं बढ़ जाती? भीड़ आपकी भूमिका पर सिर्फ तालियां बजाने नहीं आती, वह आपके किरदार का चोला ओढ़कर फिर अपने गांवो-कस्बों में उसे दूसरों तक ले जाती है.

संभवतया सुशांत सिंह राजपूत ने कुंअर बेचैन की कविता का बाकी आधा हिस्सा नहीं पढ़ा था, पढ़ा होता तो शायद हमारा मुस्कुराता हुआ बांका नायक हमारे बीच होता.

जब तुम अपने मस्तक पर बर्फ़ का पहला तूफ़ान झेलोगे,

और कांपोगे नहीं...

जब तुम पाओगे कि कोई फ़र्क नहीं

सब कुछ जीत लेने में..

और अंत तक हिम्मत न हारने में.

***

Wednesday, April 29, 2020

स्मृतिशेषः तुम्हारी आंखें याद आएंगी इरफान

इरफान नहीं रहे. विश्वास नहीं हो रहा. इतनी तो बोलती आंखें थीं, चेहरे पर भाव चरित्र के मुताबिक आते थे. और अभिनय की क्या रेंज थी...आपको याद करना होगा दूरदर्शन के नब्बे के दशक के सीरियल चंद्रकांता को. जहां तक मुझे याद आता है, इरफान उस वक्त तक इरफान खान हुआ करते थे और उनके नाम एक अतिरिक्त आर भी नहीं जुड़ा था.

पर एक किरदार का नाम सोमनाथ था शायद. वह एक बालक के तौर पर याद रह गया था.

बाद में, उस ज़माने में जब मैं दूरदर्शन न्यूज़ में काम करता था और सालों भर भागदौड़ किया करता था. डीडी न्यूज़ में मेरी नौकरी के दौरान मुझे सिनेमा बीट दी गई थी और मैंने उसे शिद्दत से निभाने की पूरी कोशिश भी की थी. और 2006 से लेकर 2012 तक मैंने भारत का अंतरराष्ट्रीय फिल्मोत्सव भी कवर किया था. लगातार. अभिनेता इरफान तकरीबन हर साल मुलाकात हो जाती थी. मैं तब पत्रकारिता का नौसिखिया था.

पर, बाद में मैंने राजनीतिक और सामाजिक रिपोर्टिंग शुरू कर दी, तब मैंने गोवा के फिल्मोत्सव में जाना बंद कर दिया. पर उन दिनों डीडी में रिपोर्टिंग की मुखिया नीता प्रसाद थीं और उन्होंने मुझसे कहा कि आखिरी बार जाकर फिल्मोत्सव कवर कर आऊं.

2012 का साल था.

फिल्मोत्सव के उद्घाटन में मुझे एंकरिंग करनी थी और मेरे साथ को-एंकर जया सिन्हा थीं. करीब 45 मिनट तक रेड कार्पेट से एंकरिंग के बाद हमदोनों को यह कार्यक्रम अंदर टॉस करना था और वहां से कबीर बेदी कार्यक्रम का संचालन करते.

हमने अपना काम कर दिया और अंदर से कबीर बेदी ने अपनी एंकरिंग शुरू कर दिया था और नीला कुरता पहना मैं तब तक थककर चूर हो गया था. गोवा में उन दिनों का काफी ऊमस होती है. नवंबर में. बहरहाल, मैंने देखा, तब्बू और इरफान चले आ रहे हैं. वे दोनों थोड़ा लेट हो गए थे.

हमारे पास आकर इरफान अपने ही अंदाज में बोले, क्या भैया, हो गया चालू?

मैंने कहा, हां दस मिनट हो गए.

सादगीपसंद तब्बू ने इरफान को छेड़ा थाः अब डीडी वाले तुम्हारा इंटरव्यू नहीं लेंगे, तुम देर से आए हो.

मैंने झेंप मिटाते हुए कैमरा ऑन करवाया और पांचेक मिनट का एक छोटा इंटरव्यू कर डाला. तब तक इरफान मूड में आ गए, तब्बू से बोले, आपको अंदर जाना हो जाओ, मैं इधर हूं रहूंगा.

तब्बू अंदर गईं शायद और इरफान ने कला अकेडेमी में (जहां उद्घाटन हुआ था, पंजिम की कला अकादेमी का ग्राउंड है वो) जेटी की तरफ बढ़ना शुरू कर दिया. जेटी मांडोवी नदी पर बनी हुई है. और निहायत खूबसूरत जगह है.

मैं भी उनके पीछे चल दिया तो इरफान ने मेरी तरफ देखा, अबे इधर आ रहे हो, मैं तो धुआं पीयूंगा...और हवा खाऊंगा.

मैंने खींसे निपोर दीं. उस समय तक शायद इरफान हाथ से बनाई सिगरेट नहीं पीते थे. पर इतने उम्दा कलाकार के साथ खड़ा रहना भी सौभाग्य था. मेरी छोटी गोल्ड फ्लेक देखकर उनने कहा था, ये ब्रांड पीते हो!

मैंने कहा, बस सर, आदत है. पुराने दिनों से.

इरफान का वो मुस्कुराना अब भी याद है. बड़ी-बडी आंखों में एक बहुत अपनापा उतर आया था. वो मुझे जानते नहीं थे. शायद उस घटना के बाद मैं उनसे दोबारा मिलता तो उनको याद भी नहीं रहता. पर उनका सिर्फ इतना कहना, बहुत बढ़िया.. मुझे छू गया था.

उस मुलाकात के बाद मैं इरफान से दोबारा उस तरह नहीं मिला, अब शायद मिल भी नहीं पाऊंगा. पर उनकी सादगी का कायल हो गया.

इरफान भाई इत्ती जल्दी नहीं जाने का था आपको.


***

Thursday, February 27, 2020

हवा को बांधने वाले उत्साही लड़के की कहानी द बॉय हू हार्नेस्ड द विंड

द बॉय हू हार्नेस्ड द विंड मलावी के एक ऐसे गांव को बचाने वाले लड़के की कहानी है जहां भुखमरी है और भयानक सूखा है. उम्दा अभिनय, शानदार पटकथा और बेहतरीन सिनेमैटोग्राफी इस फिल्म में दर्शक को अंत तक बांधे रखती है. यह फिल्म एक राजनीतिक टिप्पणी भी है

कुछ फिल्मों को सिर्फ इसलिए भी देखना चाहिए क्योंकि उनमें एक ऐसा संदेश होता है, जो मुश्किल वक्त में भी इंसान को जिंदा रहने की वजहें देती हैं. लेकिन अगर किसी फिल्म में एक मजबूत और प्रेरणास्पद कथाक्रम के साथ ही, शानदार सिनेमैटोग्राफी और बेजोड़ संपादन और उम्दा अभिनय भी हो तो बात ही क्या!

किसी को पता नहीं था कि लेखक-निर्देशक चिवेटेल ज्योफोर अपने पहले ही शाहकार में ऐसा कमाल कर गुजरेंगे. ऐसी कहानी, जिसमें राजनीतिक टिप्पणी है, पर वह लाउड नहीं है, ऐसी कहानी जिसमें त्रासदी है, भूख है, पर वह इंसान को बेचारा साबित नहीं करती. बल्कि तमाम बाधाओं के बीच प्रतिभा के विस्फोट और संसाधन जुटाने की चतुराई के साथ एक पिता और पुत्र के पीड़ाओं के बीच एकदूसरे के साथ खड़े होने की कथा कहती है.

फिल्म में कमाल की किस्सागोई है जिसमें संवेदनशीलता और सहानुभूति दोनों भावनाएं गजब तरीके से पिरोई गई हैं. कहानी में प्रवाह है.

फिल्म द बॉय हू हार्नेस्ड द विंड का वीडियो ग्रैब


असल में, ज्योफोर ने मलावी नाम के देश के एक इंजीनियर विलियम कंक्वाम्बा की असली कहानी को रूपहले परदे के लिए ढाला है और इस कहानी में परत दर परत आप गरीबी, सूखा, गृहयुद्ध और भुखमरी को उघड़ता देखते हैं. मलावी में कथित तौर पर लोकतंत्र आने के बाद राजनैतिक नेतृत्व का रवैया भी उधेड़ा गया है.

फिल्म की शुरुआत एक ऐसे लॉन्ग शॉट से होती है जहां हरी फसल के फोरग्राउंड में मलावी के आदिवासी कबीलों के पारंपरिक वेषभूषा में आते दिखते हैं. इनकी मेहमानवाजी कबीले के सरदार के जिम्मे है. अगले शॉट में मक्के की पकी फसल है जिसकी कटाई के दौरान ही नायक विलियम के दादाजी की मौत हो जाती है. गरीबी से जूझ रहे गांव में हर तरफ सूखा और गरीबी है और निर्देशक आहिस्ते से अपनी बात को शॉट्स के बेहतर संयोजन से बता जाते हैं. विलियम अपने गांव में रेडियो के लिए छोटे विंड टरबाइन के जरिए बिजली का इंतजाम करते हैं. यहां निर्देशक ज्योफोर थोड़ी रचनात्मक छूट लेते हैं, पर ज्योफोर की रचनात्मकता इस सृजनात्मक छूट का औचित्य साबित भी करती है, जो कहानी को दृश्यात्मक बनाने के लिहाज से जरूरी भी थी कि सूखे ग्रस्त गांव में कुआं सूखा नहीं था और उसका पानी खेतों तक पहुंचाने के लिए बड़े पवनचक्की की जरूरत होती है.



हालांकि बड़ी पवनचक्की बनाने के वास्ते विलियम को अपने पिता की एकमात्र पूंजी साइकिल की जरूरत है. और यहीं नायक के साथ पिता के रिश्तों में तनाव आता है. पिता इस नए प्रयोग के लिए न जाने क्यों अपनी साइकिल देने से मना करता है और यह जाने क्यों पुत्र के साथ उसकी प्रतिस्पर्धी भावना है.

इस फिल्म में निर्देशक-लेखक ज्योफोर ने खुद ट्राइवेल (विलियम के पिता) का किरदार निभाया है. यह ऐसा चरित्र है जो एक किसान और पिता के तौर पर दहशत के साए में जीता है. उनके अभिनय में गजब की गहराई है. उनकी आंखों में उनका किरदार दिखता है. उनके पुत्र विलियम के किरदार में मैक्सवेल सिंबा हैं और वह इस फिल्म की जान हैं.

फ्रेम दर फ्रेम आप बगैर किसी संवाद से जबरिया सुझाए बिना जानते जाते हैं कि विलियम का यह गांव गरीबी और भुखमरी से जूझ रहा है. यहां भी जमीन के मालिकान जमीनों के सौदे करने की कोशिश करते हैं. सियासी लोग हमेशा की तरह सनकी, हिंसक और भ्रष्ट दिखाए गए हैं जो एक हद तक सही भी है.

इन सबके बीच विलियम के भीतर तकनीक को लेकर कुदरती रुझान है और स्कूली शिक्षा को सरकार की मदद के अभाव में स्कूल दर स्कूल बंद होते हैं और वहां विलियम स्कूल की लाइब्रेरी की मदद लेता है. वहीं एक किताब से उसे लगता है कि बिजली की मदद से वह गांव को बचा ले जाएगा.

सिंबा अपने अभिनय में परिपक्वता से उभरे हैं और वह बतौर अभिनेता कहीं भी ज्योफोर से उन्नीस नहीं बैठते. फिल्म में हर फ्रेम की लाइटिंग चटख है और आपको बांधे रखती है. सिनेमैटोग्राफर डिक पोप ने रंगों का खास खयाल रखा है.

यह फिल्म हाल ही में नेटफ्लिक्स पर भारतीय दर्शकों के लिए उपलब्ध है. और पूरी फिल्म की कहानी में उतार-चढ़ाव के बीच, हालांकि आपको लगता है कि विलियम आखिर में कामयाब होंगे ही, पर साइकिल के पहिए की मदद से बनी पवनचक्की जब हवा के साथ तेज घूमती है तो आपकी दिल की धड़कनें बढ़ती हैं और कुछेक सेकेंड के सिनेमैटिक साइलेंस के बाद जब कुएं पर लगा और विलियम के बनाए मोटर की पाइप से पानी आने लगता है तो फिल्म के किरदारों के साथ आपका मन में रोमांच में कूदने लग जाने का करने लगेगा.

इस फिल्म की यही कामयाबी है.

हिंसा, भूख, त्रासदियों के दौर में अ बॉय हू हार्नेस्ड द विंड सपने देखने और उन्हें साकार करने की गाथा है.

फिल्मः द बॉय हू हार्नेस्ड द विंड

निर्देशकः चिवेटल ज्योफोर

कहानीः विलियम कम्कवम्बा

पटकथाः चिवेटल ज्योफोर

अभिनेताः मैक्सवेल सिंबा, चिवेटल ज्योफोर

***

Tuesday, September 24, 2019

अमिताभ को न मिलता तो दादा साहेब फाल्के पुरस्कार अर्थहीन हो जाता.

उस दौर में जब राजेश खन्ना का सुनहरा रोमांस लोगों के सर चढ़कर बोल रहा था, समाज में थोड़ी बेचैनी आने लगी थी. बेचैनी इसलिए क्योंकि आजादी के बाद का खुमार उतर चुका था. आराधना जैसी सुपर हिट फिल्म से राजेश खन्ना का आविर्भाव हुआ था. खन्ना का रोमांस लोगों को पथरीली दुनिया से दूर ले जाता, यहां लोगों ने परदे पर बारिश के बाद सुनसान मकान में दो जवां दिलों को आग जलाकर फिर वह सब कुछ करते देखा, जो सिर्फ उनके ख्वाबों में था.

राजेश खन्ना अपने 4 साल के छोटे सुपरस्टारडम में लोगों को लुभा तो ले गए, लेकिन समाज परदे पर परीकथाओं जैसी प्रेम कहानियों को देखकर कर कसमसा रहा था. इस तरह का पलायनवाद ज्यादा टिकाऊ होता नहीं. सो, ताश के इस महल को बस एक फूंक की दरकार थी. दर्शक बेचैन था. उन्ही दिनों परदे पर रोमांस की नाकाम कोशिशों के बाद एक बाग़ी तेवर की धमक दिखी, जिसे लोगों ने अमिताभ बच्चन के नाम से जाना.




महंगाई, बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार और पंगु होती व्यवस्था से लड़ने वाली एक बुलंद आवाज़ की ज़रुरत थी. ऐसे में इस लंबे लड़के की बुलंद आवाज़ परदे पर गूंजने लग गई. इस नौजवान के पास इतना दम था कि वह व्यवस्था से खुद लोहा ले सके और ख़ुद्दारी इतनी कि फेंके हुए पैसे तक नहीं उठाता.

गुस्सैल निगाहों को बेचैन हाव-भाव और संजीदा-विद्रोही आवाज़ ने नई देहभाषा दी. उस वक्त जब देश जमाखोरी, कालाबाज़ारी और ठेकेदारों-साहूकारों के गठजोड़ तले पिस रहा था, बच्चन ने जंजीर और दीवार जैसी फिल्मों के ज़रिए नौजवानों के गुस्से को परदे पर साकार कर दिया.

विजय के नाम से जाना जाने वाला यह शख्स, एक ऐसा नौजवान था, जो इंसाफ के लिए लड़ रहा था, और जिसको न्याय नहीं मिले तो वह अकेला मैदान में कूद पड़ता है.

कुछ लोग तो इतना तक कहते है कि अमिताभ के निभाए इसी गुस्सेवर नौजवान किरदार ने सत्तर के दशक में एक बड़ी क्रांति की राह रोक दी. लेकिन बदलते वक्त के साथ इस नौजवान के चरित्र में भी बदलाव आया. जंजीर में उसूलों के लिए सब-इंसपेक्टर की नौकरी छोड़ देने वाला नौजवान फिल्म देव तक अधेड़ हो जाता है. जंजीर में उस सब-इंस्पेक्टर को जो दोस्त मिलता है वह भी ग़ज़ब का. उसके लिए यारी, ईमान की तरह होती है.

बहरहाल, अमिताभ का गुस्सा भी कुली, इंकलाब आते-आते टाइप्ड हो गया. जब भी इस अमिताभ ने खुद को या अपनी आवाज को किसी मैं आजाद हूं में या अग्निपथ में बदलना चाहा, लोगों ने स्वीकार नहीं किया.

तो नएपन के इस अभाव की वजह से लाल बादशाह, मत्युदाता, और कोहराम का पुराने बिल्लों और उन्हीं टोटकों के साथ वापस आया हुआ अमिताभ लोगों को नहीं भाया. वजह- उदारीकरण के दौर में भारतीय जनता का मानस बदल गया था. अब लोगो के पास खर्च करने के लिए पैसा था, तो वह रोटी के मसले पर क्यों गुस्सा जाहिर करे.

उम्र में आया बदलाव उसूलों में भी बदलाव का सबब बन गया. देव में इसी नौजवान के पुलिस कमिश्नर बनते ही उसूल बदल जाते हैं, और वह समझौतावादी हो जाता है.

लेकिन अमिताभ जैसे अभिनेता के लिए, भारतीय समाज में यह दो अलग-अलग तस्वीरों की तरह नहीं दिखतीं. दोनों एक दूसरे में इतनी घुलमिल गए हैं कि अभिनेता और व्यक्ति अमिताभ एक से ही दिखते हैं. जब अभिनेता अमिताभ कुछ कर गुज़रता है तो लोगों को वास्तविक जीवन का अमिताभ याद रहता है और जब असल का अमिताभ कुछ करता है तो पर्दे का उसका चरित्र सामने दिखता है.

अमिताभ का चरित्र बाज़ार के साथ जिस तरह बदला है वह भी अपने आपमें एक चौंकाने वाला परिवर्तन है. जब ‘दीवार के एक बच्चे ने कहा कि उसे फेंककर दिए हुए पैसे मंज़ूर नहीं, पैसे उसको हाथ में दिए जाएं, तो लोगों ने ख़ूब तालियां बजाईं.

बहुत से लोगों को लगा कि यही तो आत्मसम्मान के साथ जीना है. फिर उसी अमिताभ ने लोगों के सामने पैसे फ़ेंक-फेंककर कहा, ‘लो, करोड़पति हो जाओ.’ कुछ लोगों को यह अमिताभ अखर रहा था लेकिन ज्यादातर लोगों को बाज़ार का खड़ा किया हुआ यह अमिताभ भी भा गया.

अपनी फिल्मों के साथ आज अमिताभ हर मुमकिन चीज बेच रहे हैं. वह तेल, अगरबत्ती, पोलियो ड्रॉप से लेकर रंग-रोगन, बीमा और कोला तक खरीदने का आग्रह दर्शकों से करते हैं. करें भी क्यों न, आखिर उनकी एक छवि है और उन्हें अपनी छवि को भुनाने का पूरा हक है. दर्शक किसी बुजुर्ग की बात की तरह उनकी बात आधी सुनता भी है और आधी बिसरा भी देता है.

बहरहाल, अमिताभ बच्चन ने अपनी फिल्मों के साथ जो विज्ञापन किए उसमें बाजार के साथ और चलन के साथ उनका खड़ा होना स्पष्ट दिखता है. विज्ञापन में कंघी-शीशा-तेल बेचने के साथ-साथ अमिताभ ने अपनी सियासी दोस्ती भी निभाई. एक तरफ वे कमिटमेंट और मजबूरी के तहत पोलियो के ब्रांड एंबेसेडर बने तो दूसरी तरफ उत्तर प्रदेश को उत्तम प्रदेश बताने का काम भी किया. (काम किया यह तकियाकलाम है समाजवादियों का) और फिर बदलते वक्त के साथ अमिताभ ने जाहिर न होने देते हुए पाला बदल लिया.

अब वे दर्शकों से गुजारिश करते हैं कि कुछ दिन तो गुजारिए गुजरात में.

बहरहाल, अमिताभ बच्चन की सबसे बुरी फिल्मों में किसी को अमिताभ के अभिनय से शिकायत नहीं हुई है. तूफान, जादूगर से लेकर अक्स, निशब्द, तीन..किसी भी फिल्म का नाम लीजिए, अमिताभ काम के समय और काम को लेकर पाबंद रहे हैं. उनके इन गुणों को लेकर टनों कागज खर्च किए जा चुके हैं.

फिल्हाल, उनके कद और अभिनय को देखते हुए हम यही कहते हैं देर-सबेर इंडस्ट्री के शहंशाह को यह तो मिलना ही था. न मिलता, तो दादा साहेब फाल्के पुरस्कार ही अर्थहीन होता.



Wednesday, September 11, 2019

हरियाणा के लोहारू किले का इतिहास खोजती है आदित्य सांगवान की डॉक्युमेंट्री फिल्म

हरियाणा के भिवाऩी के आदित्य सांगवान ने जब एक दिन फिल्मकार बनने का फैसला किया तो उनके पास विषय की कमी नहीं थी. बचपन के दिनों से ही वह रोज स्कूल जाते समय एक किले को देखा करते थे, जो सुनसान पड़ा रहता था. सांगवान जब बड़े हुए तो उस किले का इतिहास जानने की इच्छा जोर मारने लगी. फिर इस युवा फिल्मकार ने 18 मिनट की एक डॉक्युमेंट्री फिल्म बनाई और उसे निर्देशित भी किया. भिवाऩी के उपेक्षित लेकिन शानदार और गौरवशाली इतिहास वाले लोहारू किले की कहानी कहने वाली उनकी फिल्म कई फिल्म महोत्सवों में दिखाई जा चुकी है. 

लोहारू किले को लोहारु के नवाबों ने 1802 में बनवाया था और यह बिट्स पिलानी से यह महज 10 किलोमीटर की दूरी पर है. सांगवान कहते हैं, " मैंंने फ़िल्म इसलिए बनाई क्योंकि लोहारू ही मेरा घर है. ये किला बहुत जीर्ण-शीर्ण हालत में था और हम चाहते थे इसकी मरम्मत की जाए और इसको पर्यटन स्थल की तरह विकसित किया जाए. ताकि लोहारू के लोगों को रोजगार मिल सके और यहां के इतिहास के बारे में लोगों को पता लग सके."
आदित्य सांगवान की फिल्म का पोस्टर. फोटो सौजन्यः आदित्य सांगवान


अब जबकि फिल्म बन गई है इसने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी लोगों का ध्यान खींचा है और 9 फिल्म फेस्टिवल में दिखाई जा चुकी यह फिल्म दो पुरस्कार भी जीत चुकी है.

लोहारू रियासत को अंग्रेजों के शासनकाल में 9 तोपों की सलामी दी जाती थी. सांगवान के मुताबिक, इस किले के स्थापत्य ने उनका मन मोह लिया, जिसमें बहुत किस्म की वास्तु शैलियों का मिश्रण है. यह किला 1971 तक नवाबों के अधिकार में रहा. आखिरी नवाब ने इस किले को सरकार के हाथों बेच दिया. उसके बाद से यह किला बेसहारा हो गया और उपेक्षित पड़ा रहा. 
लोहारू का वीरान पड़ा किला फोटो सौजन्यः आदित्य सांगवान

लोहारू से उर्दू-फारसी साहित्य का भी रिश्ता है और मिर्ज़ा ग़ालिब की पत्नी उमराव जान लोहारू के नवाब की बेटी थीं. मिर्जा गालिब प्रायः लोहारू आया करते थे. गालिब ही नहीं, गालिब के समकालीन एक और बड़े शायर दाग देहलवी का भी ताल्लुक इस किले से था. सांगवान कहते हैं, "अगर इस किले की मरम्मत की जाए और आम लोगों के लिए खोलकर पर्यटन के लिहाज से इसका प्रचार-प्रसार किया जाए तो लोग इसकी बेशकीमती इतिहास और विरासत को जान पाएंगे."

वे कहते हैं, "लोहारू में पर्यटन की संभावनाएं हैं क्योंकि यह हरियाणा और राजस्थान के बॉर्डर पर है और इस के आस-पास पिलानी ओर मंडावा जैसे पर्यटन स्थल हैं जहां पर काफी सैलानी आते-जाते हैं. इसको भी उस बेल्ट में जोड़ा जा सकता है. इसके लिए मैंने मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर से भी मुलाकात की थी. पर कोई खास परिणाम नहीं निकला. इस किले को लाईब्रेरी या कोई आर्ट सेंटर भी बना सकते हैं."

पहले पत्रकार रहे सांगवान की कला, संस्कृति, सिनेमा, संगीत और रंगमंच में गहरी रुचि है. फिल्म निर्माण का किस्सा बताते हुए वे कहते हैं, "इस फ़िल्म में काम करने वाले सभी आर्टिस्ट कॉलेज के छात्र थे. किसी ने सिनेमैटोग्राफी की है तो किसी ने फ़िल्म को डिज़ाइन किया है और किसी ने स्क्रिप्ट लिखी है. ये किला मेरे घर के पास होने की वजह से हमेशा से मुझे लगता था कि इस पर काम होना चाहिए तो जब मौका मिला तो फ़िल्म बना दी."
आदित्य सांगवान उभरते हुए फिल्मकार हैं.

वे कहते हैं, फिल्म बनाने के लिए इसमें दाखिल होना भी मुश्किल था. पूरी टीम को किले के अंदर दीवार फांदकर जाना पड़ा था. लेकिन यह चुनौती उतनी बड़ी नहीं थी. असली चुनौती थी इस किले से जुड़े तथ्यात्मक दस्तावेजों की कमी. ऐसे में सांगवान और उनके दोस्तों ने किले के आसपास रहने वाले लोगों से बातचीत शुरू की और इस किले के बारे में लिखी किताबों को ढूंढना शुरू किया. साथ ही किले के वास्तुकला, और नवाबों की जीवनशैली पर भी उन्होंने काफी शोध किया. सांगवान बताते हैं, "किले के बारे में रिसर्च के लिए लोहारू के नवाब खानदान से मिला और कई किताबें पढ़ीं. मिर्जा गालिब इंस्टीट्यूट से भी जानकारी मिली, कई ऐसे लोगों से मिला जो इस किले से जुड़े हुए हैं और इसके बारे में जानते हैं. मिसाल के तौर पर, जम्मू-कश्मीर हाइकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश रहे बदर दुरेज अहमद और लेखिका नमिता गोखले से भी काफी जानकारी मिली. लोहारू के बारे में लिखा हुआ इतिहास बहुत कम है तो लोगों से ही ज्यादा जानकारी मिली."

सांगवान की 18 मिनट की फिल्म ने 9 फिल्म महोत्सवों में दर्शकों का ध्यान खींचा है और 2 महोत्सवों में पुरस्कृत भी हुई है. अब सांगवान का सारा ध्यान अपनी अगली परियोजना पर है. पर, उनको उम्मीद है कि हरियाणा और केंद्र की सरकार लोहारू के लिए कुछ करेगी.

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Friday, July 13, 2018

उम्मीदों और आशाओं का नया पाठ है 102 नॉट आउट

आसानी से कहे जाने वाली इस फिल्म के खत्म होने पर आप थोड़े भावुक हो सकते हैं. लेकिन आपके पास तब जिंदगी को महज बिताने नहीं बल्कि जीने के कुछ गुर होते हैं. 
फिल्म 102 नॉट आउट की कहानी नएपन के साथ जिंदगी जीने का फलसफा देती है .फोटो सौजन्यः गूगल


भारतीय खासकर हिंदी फिल्मों की कई जरूरतों में से सबसे अहम हैः एक निहायत खूबसूरत नायिका. चलिए '102 नॉट आउट' में नायिका तो नहीं है. दूसरी प्रमुख शर्त हैः कई सारे नाटकीय दृश्य. 102... में यह भी नहीं है. गाने, हम्म...नहीं ही हैं. डायलॉगबाजीः नहीं है. नाचगानेः नहीं है. सीरियल किसिंगः नहीं है. मारधाड़ नहीं है. पात्र भी तीन ही हैं. 

तो आखिर क्या है 102 नॉट आउट में!

इसमें अमिताभ हैं. और हैं ऋषि कपूर. दोनों का सर्वोत्कृष्ट अभिनय है. शानदार सिनेमैटोग्रफी है, उम्दा संपादन है. कसी हुई पटकथा और नयापन लिए कहानी है.

'102 नॉट आउट' मुख्यधारा हिंदी सिनेमा के परिपक्वता की ओर बढ़ने का संकेत देने वाली कई फिल्मों में से एक है. फिर भी अलहदा है.

जिंदगी जीने का तरीका हमारी फिल्में पुराने समय से बताई जाती रही हैं. जागते रहो में राज कपूर ने बिना ज्यादा संवादों के यह कहा था और उसी फिल्म में मोतीलाल सड़क पर, जिंदगी ख्वाब है, ख्वाब में झूठ क्या और भला सच है क्या..कहते हुए फलसफे बता रहे थे.

याद आऩे वाली फिल्मों में ऐसा ही संदेश आनंद ने दिया. मुख्यधारा में थोड़े सतही ढंग से यही कल हो न हो ने कहा...

'102 नॉट आउट' इसी संदेश को थोड़े अलहदा मिजाज के साथ कहती है. 102 साल के पिता और 75 साल के बेटे की कहानी में फिल्म हर दृश्य में ताजा बनी रहती है. हर दृश्य में एक नयापन और एक नए किस्म का प्रयोग है. क्या आपको यह बात दिलचस्प नहीं लगेगी कि सौ साल से अधिक उम्र का बाप अपने बेटे को वृद्धाश्रम सिर्फ इसलिए भेजना चाहता है क्योंकि वह दुनिया में सबसे ज्यादा जीने वाले इंसान का रिकॉर्ड तोड़ना चाहता है. उसे लगता है कि बुजुर्गवार जैसे बरताव वाला उदासीन-सा उसका बेटा माहौल को खुशनुमा नहीं रहने दे रहा.

बाप द्वारा बेटे को वृद्धाश्रम भेजने का यह नायाब आइडिया हमारे आसपास की जिंदगी के छोटे-छोटे प्रसंगों को अपने साथ बुनती चलती है और फिर आपको गुदगुदाती है. नहीं, आप इसे कॉमिडी फिल्म न समझें. यह फिल्म जीवन का उत्सव है. बहरहाल, पुत्र बने ऋषि कपूर वृद्धाश्रम जाने से बचने के लिए पिता की हर शर्त पूरी करते हैं. और उनके जीवन में जिंदगी का रस फिर से प्रवाहित होने लगता है.

मासूम से संवाद. छोटे-छोटे दृश्य...आपको हर सीन के बाद फिल्म में मजा आने लगता है. यह फिल्म मैंने थियेटर में नहीं देखी. मौका निकल गया. अमेजन प्राइम वीडियो पर मैं ने सोचा इसे दो चार बार में देख लूंगा लेकिन फिल्म ने ऐसा बांधा कि फिर मैं उसके तानेबाने (जो कि बेहद सरल हैं) से बाहर ही नहीं निकल पाया.

सोचिए जरा पिता के उस किरदार के बारे में, जो अपने बेटे के सामने एक पौधे में फूल उगाने के लिए पखवाड़े भर की मोहलत देता है. पहले से नाउम्मीदी से घिरा बेटा फिर भी उस पौधे की सेवा करता है, कि फूल खिलेंगे. शर्त लगाने वाला पिता जानता है पखवाड़े भर में फूल नही आएंगे, पर उम्मीद जिंदा रहे इसके लिए वह फूल लगे हुए पौधे वाले गमले को बिना फूल वाले मूल गमले से बदल देता है. पिता-पुत्र का यह रिश्ता हमें क्या एक मजबूत संदेश नहीं देता?
उम्मीदों और आशाओं का नया पाठ है यह फिल्म.

अमिताभ से बेहतरीन अभिनय की तो उम्मीद थी ही, लेकिन हाल तक पूरे बाजू का स्वेटर पहनकर स्विट्जरलैंड की हसीन वादियों में नायिका के साथ बोल राधा बोल करने वाले ऋषि कपूर का आला दर्जे का अभिनय छूता है. फिल्म का शीर्षक पिता के लिए है, पर किरदार में जो गहराई बेटे में है, वह लेखक की सृजनात्मकता का कमाल है. फिल्म की शुरूआत में आपको कंधे झुकाए ऋषि कपूर दिखते हैं जो आखिरी दृश्यों तक आते-आते आत्मविश्वास से भर जाते हैं.

अमिताभ बच्चन और ऋषि कपूर करीब तीन दशक के बाद एक साथ किसी फिल्म में आए हैं. ‘102 नॉट आउट’ में बच्चन से पंगों के अलावा जिमित त्रिवेदी के साथ उनका लव-हेट रिलेशनशिप भी आपको मजा देगा. अपनी भूमिका में त्रिवेदी भी अच्छा अभिनय करते हैं और सिनेमा के दो दिग्गजों की मौजूदगी में भी अपनी उपस्थिति बनाए रखते हैं.

सबसे बड़ी बात कि फिल्म में सिर्फ तीन किरदार हैं. साथ मुंबई भी है. आप उसे भी एक किरदार की तरह देख सकते हैं. असल में यह फिल्म एक नाटक पर आधारित है, जिसे सौम्य जोशी ने लिखा है. सरल होते हुए भी इस फिल्म के संवाद कमाल के हैं.

आसानी से कहे जाने वाली इस फिल्म के खत्म होने पर आप थोड़े भावुक हो सकते हैं. लेकिन आपके पास तब जिंदगी को महज बिताने नहीं बल्कि जीने के कुछ गुर होते हैं.

102 नॉट आउट आज के दौर की सबसे जरूरी फिल्मों में से एक है.

Thursday, June 14, 2018

ओस में गीले हरसिंगार जैसी ताज़ी फिल्म है अक्तूबर

इस सिनेमाई कविता को आप पांच-दस बरस बाद भी देखेंगे तो इसके भाव उतने ही शाश्वत रूप से ताजा होंगे, जितने ओस में गीले खुद हरसिंगार के फूल. 

कभी बहुत खूबसूरत सिनेमाई कविता देखने का मन हो तो आपको फिल्म अक्तूबर देखना चाहिए. फोटो सौजन्यः गूगल


हम कविताएं पढ़ते हैं या सुनते हैं. लेकिन कभी बहुत खूबसूरत सिनेमाई कविता देखने का मन हो तो आपको फिल्म अक्तूबर देखना चाहिए.

प्रेम के प्रकटीकरण के बेहद शोना-बाबू युग में जब प्रेमी-प्रेमिका के वॉट्सऐप पर आए हर मेसेज के जबाव में फौरन से पहले जवाब देना अनिवार्य हो और फेसबुक पर पोस्ट पर दिल चस्पां करना, अक्तूबर बताता है कि प्रेम किस कदर गहरा हो सकता है. समंदर की तरह.

अगर कोई प्रेम के होने या न होने पर संजीदा सवाल उठाए, उसके अस्तित्व पर प्रश्नचिह्न खड़े करे तो उन सौ सवालों का एक जवाब है अक्तूबर.

यह फिल्म असली जिंदगी के ही किसी गहरे प्रेम को इतने सटीक तरीके से परदे पर उकेरता है कि आपको इस नश्वर संसार में प्रेम के शाश्वत होने पर यकीन होने लग जाएगा.

तो इस प्रेम के शाश्वत तत्व क्या हैं? जाहिर है, वेदना, पीड़ा, त्याग और हां, बहुत गहरा अनुराग. अक्तूबर मुक्तिबोध के अंधेरे में की तरह की एक लंबी कविता सरीखा है.

भारत में सिनेमा को लेकर एक कट टू कट हड़बड़ी है. हम एक सीन को नब्बे सेकेंड से ज्यादा बरदाश्त नहीं करते. हम 60 विज्ञापन फिल्मों को एक कथासूत्र में बांध कर एक फीचर फिल्म बनाते हैं. ताकि दर्शक बंधा रहे. हमारे पास कामयाबी का एक मनमोहनी (देसाई) तरीका है, सीन-दर-सीन, नाच-गाना-कॉमिडी-मारधाड़-फिर से गाना-मां-बिछड़ना-मिलना.

अक्तूबर जैसी फिल्में इस समीकरण का एंटी-थीसिस हैं.

अक्तूबर की कहानी को दो मिनट में निपटाया जा सकता है. लेकिन उसकी संवेदनशील कहानी को सीन-दर-सीन विवेचित किया जाए तो एक पूरी किताब लिखनी चाहिए.

हमने हमेशा वरूण धवन को गोविंदा के नक्शे-कदम पर चलते देखा है. लेकिन पहले बदलापुर और फिर अक्तूबर में धवन ने अपने अंदर के असाधारण कलाकार से परिचित कराया है. इस फिल्म की साधारण कहानी हमारे जीवन के किस्सों की तरह ही साधारण है. इसमें खिंचा-खिंचा से रहने वाला होटल प्रबंधन का छात्र डैन है, इसमें कभी कभार उससे बात कर लेने वाली उसकी सहपाठी शिवली है.

शिवली नए साल के उत्सव में शामिल होते वक्त होटल की चौथी मंजिल से गिर जाती है. बुरी तरह जख्मी शिवली कोमा में चली जाती है. गिरने से पहले उसने आखिरी सवाल अपनी दोस्त से डैन के बारे में पूछा होता हैः डैन कहां है? और, यह सवाल डैन की जिंदगी बदल देता है.

अक्तूबर को देखेंगे तो शिवली और डैन के अलावा आपको कड़क मिज़ाज बॉस का किरदार दिखेगा, जिसकी वजह से आपको डैन के किरदार के अलग अलग शेड्स दिखते हैं, जिसकी वजह से डैन के किरदार की परतें खुलती हैं.

फिर आपको अस्पताल के चक्कर काटते डैन और शिवली की मां के बीच पनपता एक ममतामय रिश्ता नजर आएगा. डैन और उसके दुनियादार दोस्तों के बीच की कैमिस्ट्री नजर आएगी. आप फ्रेम दर फ्रेम इस फिल्म के क्राफ्ट से मुत्तास्सिर होते जाएंगे.

इस फिल्म का क्राफ्ट आम हिंदी फिल्मों के क्राफ्ट से बेहद अलहदा है. इसके संपादन में एक रिदम है, गति है, लय है. अविक मुखोपाध्याय की सिनेमैटोग्राफी में ओस से गीले हरसिंगार के फूल, मकड़ी के जाले, बोगनवेलिया एक काव्यात्मकता रचते हैं. खूबसूरत लगता हर फ्रेम फिल्मी रूप से नाटकीय नहीं बल्कि इतना वास्तविक है कि मन करेगा कि फ्रेम को अपने कंप्यूटर का स्क्रीनसेवर बना लें.

लेकिन इन्हीं दृश्यों से एक उदासी सृजित होती जाती है. फिर पहाड़ हैं. उनमें जंगलों से निकलता सूरज है, उसकी किरनें हैं, नदी है. और हर फ्रेम में अपनी अदाकारी से आपको आश्वस्त करते वरूण धवन हैं.

अक्तूबर बिस्तर पर पड़े मरीजों की देखभाल में लगे लोगों के त्याग का अनकहा पाठ है और कुछ असंवेदनशील लोगो पर टिप्पणी भी.

नायिक बनिता संधू (शिवली) फिल्म में ज्यादातर वक्त बिस्तर पर मृतप्राय अवस्था में बिताती दिखती हैं. उनके पास विकल्प कम थे पर उनकी आंखें अद्भुत रूप से संप्रेषणीय हैं.

हमें न तो बनिता का नाम जानने की जल्दी होती है न फिल्म खत्म होने के बाद हमें वरूण धवन याद रहते हैं. हमें बस शिवली याद होती है और याद रहता है डैन.

इस सिनेमाई कविता को आप पांच-दस बरस बाद भी देखेंगे तो इसके भाव उतने ही शाश्वत रूप से ताजा होंगे, जितने ओस में गीले खुद हरसिंगार के फूल. 


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Monday, June 11, 2018

फिल्म परमाणु में भाजपा का झंडा लहराता है

गरमी की छुट्टियां चल रही थीं तो मेरे बेटे ने जिद की कि वह फिल्म देखना चाहता है. मुझे इनफिनिटी वॉर नाम की फिल्म दिखाने का इसरार वह कर रहा था और मैं कत्तई इस मूड में नहीं था कि मैं तीन घंटे सिनेमा हॉल में बोर होकर आऊं.

मुझे विलक्षण मार-धाड़ वाली फिल्में बोर करती हैं.

बहरहाल, यह पृष्ठभूमि थी फिल्म परमाणु देखने की. यह पोकरण परमाणु परीक्षणों पर आधारित है. मैं चूंकि खुद पोकरण जा चुका हूं और डॉक्युमेंट्री भी बनाई है इस विषय पर, तो मुझे लगा कि देखना चाहिए कि इसमें कितनी सच्चाई है और कितना मसाला निर्देशक ने डाला है.

रुस के विघटन के बाद भारत को अंतराराष्ट्रीय स्तर पर घेरने की कोशिश हो रही थी, चीन और अमेरिका पाकिस्तान के पीछे रणनीतिक रूप से गोलबंद थे. उन दिनों किस तरह से यह परमाणु परीक्षण हुए वह अपने आप में हम सब के लिए गर्व का विषय तो है ही. तब बुद्ध फिर से मुस्कुराए थे.

किस तरह भारतीय वैज्ञानिकों और परीक्षण की तैयारी कर रहे दल ने इस ऑपरेशन को अंजाम दिया था उसे ही इस फिल्म की थीम बनाया गया है. मुझे इन सब पर कुछ और नहीं लिखना है क्योंकि अब तक आप लोगों ने यह फिल्म देख ली होगी या उस पर पढ़ भी लिय़ा होगा.

असल में लेखकों और निर्देशक के सामने बड़ी चुनौती यह थी कि वह कैसे इस विषय को एक वृत्त चित्र होने से बचाएं और कहानी में दर्शकों की दिलचस्पी बरकरार रखें. क्योंकि फिल्म के क्लाइमेक्स का भी सबको पता था ही. उसके बाद काल्पनिक किरदार जोड़े गए. लेकिन अश्वत रैना का किरदार तो ठीक है पर उसके परिवार से जुड़ी कहानी का फिल्म की कहानी से कोई मेल नहीं होता.

मसलन, अश्वत रैना की पत्नी को पहली बार नाकाम परीक्षणों के बाद यह तो पता रहता है कि अश्वत सिविल सेवा अधिकारी है, और वह किसी खास एटमी मिशन से जुड़ा है. मिशन फेल होने के बाद वह अश्वत की नौकरी चले जाने की बात भी जानती है. लेकिन वही पत्नी, जो संयोग से खुद एक खगोलशास्त्री है, कहानी के उतरार्ध में पति के मिशन से अनजान रहती है और पाकिस्तानी खुफिया एजेंटो के झांसे में आ जाती है. यह बात एकदम से पचती नहीं.

दूसरी बात, जॉन अब्राहम के डोले-शोले एक दम वैसे ही हैं जैसे दूसरी फिल्मों में होते हैं. अब उनसे दुबला कोई पाकिस्तानी जासूस उनको पीटता रहे और वह एक थप्पड़ भी न मार पाएं, यह हजम नहीं होता.

फिल्म में एक बात और अखरती है कि आर चिदंबरम से लेकर अनिल काकोडकर और एपीजे अब्दुल कलाम तक, सारे वैज्ञानिकों को तकरीबन हास्यास्पद दिखाया गया है, जो छोटी बातों के लिए शिकायत करते और गुस्सा होते दिखते हैं. मसलन, रेगिस्तान में काम करने की शिकायत, धूल धूप और गरमी की शिकायत. और इतने फूहड़ की गोलगप्पे खाते हुए जासूसों के सामने अश्वत रैना का राज़ उगल देते हैं. ऐसा नहीं हुआ था. और एपीजे अब्दुल कलाम जिस तरह से दिखाए गए हैं कि वह हमेशा कुछ न कुछ खाते रहते हैं यह भी गलत है और हां, वह उस वक्त डीआरडीओ में थे और प्रधानमंत्री के रक्षा सलाहकार भी थे. फिल्म उनको इसरो में काम करने वाला वैज्ञानिक बताती है.

डायना पैंटी खूबसूरत लगी हैं और शायद उनको सिर्फ इसीलिए फिल्म में लिया भी गया. यक्षवा पूछ रहा है कि पैंटी की जरूरत ही क्या थी फिल्म में. लेखकों ने खुफिया एजेंसी रॉ का एक तरह का मजाक उड़ाया है क्योंकि अश्वत के गेस्ट हाउस में पाकिस्तानी और अमेरिकी जासूस खुले आम आते-जाते हैं सवाल है कि तब रॉ के लोग क्या कर रहे होते हैं, यह पता नहीं चलता. इतने बडे ऑपरेशन के दौरान पाकिस्तानी जासूस सारे रास्ते पर भाग रहा होता है, रॉ कुछ नहीं करती. पाकिस्तानी जासूस रैना के घर में जाकर ट्रांसमीटर लगा देते हैं, फोन टैप कर लेते हैं और रॉ कुछ नहीं करती.

इंटरवल के बाद फिल्म जरूर रफ्तार पकड़ती है जब पाकिस्तानी और अमेरिकी जासूस पोकरण में रह कर इस बात को पकड़ लेते हैं कि भारत परमाणु परीक्षण करने जा रहा है. यहां पर थ्रिल पैदा होता है. क्लाइमैक्स अच्छे से लिखा गया है और दर्शक सिनेमाहॉल छोड़ते समय अच्छी फिलिंग लेकर निकलते हैं और लेखक यहां पर कामयाब हुए हैं.

निर्देशक अभिषेक शर्मा की फिल्म बेहतर विषय पर बनी हुई है, संपादन भी कसा हुआ है. और इसमें जॉन अब्राहम का भावहीन सपाट चेहरा भी नहीं खलता. देशभक्ति के लिए यहां छाती नहीं ठोंकी गई. पूरी फिल्म में सिर्फ एक बार तिरंगे का इस्तेमाल हुआ है. पर अगर आपमें गौर से देखने की क्षमता और इच्छा हो तो देखिएगा, पूरी फिल्म में कम से कम तीन दफा दूर पृष्ठभूमि में भाजपा का चुनावी झंडा लहरा रहा होता है.

भरोसा नहीं, तो खुद देख लीजिएगा.



Sunday, March 4, 2018

फूटा घट-घट घटहिं समाना

अभिनेत्री श्रीदेवी के अचानक निधन से पूरा देश सदमे में आ गया था. 24 फरवरी की रात अचानक खबर आई कि दुबई में श्रीदेवी का हार्ट अटैक से निधन हो गया. खबर सुनते ही बॉलीवुड के तमाम सितारे सोशल मीडिया पर शोक जताने लगे और उन्हें श्रद्धांजलि देने लगे. लेकिन श्रीदेवी के निधन पर जिस तरह से मीडिया कवरेज हुई उससे अभिनेता ऋषि कपूर थोड़े नाराज भी दिखे.

उन्होंने ट्वीट किया, "अचानक श्रीदेवी 'बॉडी' कैसे बन गईं? सारे टीवी चैनल दिखा रहे हैं कि बॉडी आज रात मुंबई लाई जाएगी. अचानक आपकी पहचान खत्म हो गई और बॉडी बन गई."

थोड़ी देर के लिए मीडिया कवरेज को छोड़ दीजिए, तो ऋषि कपूर की इस नाराजगी का जबाव भारतीय परंपरा और मनीषा में मिलता है. हिंदू जीवन धर्म में जन्मतिथियों के मनाने की परंपरा है और पुण्यतिथि सिर्फ पिता की मनाई जाती है. क्योंकि पिता की मृत्यु की घटना जीवन से जुड़ी है. भारतीय परंपरा कहती हैकि मृत्यु के अनंतर ही पिता का सारा ऋण पुत्र को हस्तांतरित होता है.

कोई सामान्य हिन्दू श्राद्ध की सारी विधियां पूरी करे या न करे, दाह संस्कार के बाद पीपल के पेड़ के नीचे एक घड़ा जरूर बांधता है. उस घड़े में नीचे छोटा-सा छेद कर दिया जाता है. प्रतिदिन उस घड़े में पानी भरा जाता है और यह अपेक्षा की जाती है कि पानी निरंतर पीपल की जड़ में गिरता रहे. उस घड़े के पास प्रतिदिन दीपक जलाया जाता है.

यह जीवन की साधना है.

महाप्रयाण के लिए गया जीवन ही उस घड़े के रूप में सनातन काल की शाखाओं में उतने दिनों तक लटका दिया जाता है जितने दिन प्रतीक रूप में उसे नया जन्म ग्रहण कर लेना है. और तब इस प्रतीक की जरूरत नहीं रह जाती है. इस प्रतीक की सार्थकता खत्म हो जाती है तो इसे भी फोड़ दिया जाता है, 'फूटा घट-घट घटहिं समाना'. एक चेतन व्यक्ति समष्टि में, सृष्टि में वापस चला जाता है.

विज्ञान पढ़ने वाले लोग जानते होंगे, हम सभी मूलतः ऊर्जा से बने हैं. हम एनर्जी का पार्ट हैं. उस एनर्जी या ऊर्जा को जो इस अखंड ब्रह्मांड में व्याप्त है और हर ओर प्रवाहित हो रही है. ऊर्जा के संरक्षण का सिद्धांत कहता है, 'ऊर्जा का न तो नाश हो सकता है न उसका सृजन किया जा सकता है. वह सिर्फ रूपांतरित हो सकता है.'

क्या भौतिकी का यह सामान्य नियम आपको गीता के श्लोकों की याद दिला रहा है? बिलकुल सही, हम सभी ऊर्जा का हिस्सा हैं और उसी में चले जाते हैं. आप चाहें तो इसको 'पंचतत्वों में विलीन हो जाना' भी कह सकते हैं.

क्षिति जल पावक गगन समीरा,

पंच रचित अति अधम शरीरा।

शरीर के भौतिक अवशेषों को गंगा की धारा में या तीर्थ में प्रवाहित करने के पीछे भी जीवन की निरंतरता की खोज की भावना है. भस्मीभूत अवशेष एक अध्याय की समाप्ति के प्रतीक भर हैं, वे पूरी तरह अशुचि हैं. अपवित्र हैं. उन्हें छूने भर से आदमी अपवित्र हो जाता है, क्योंकि आदमी मृत्यु को छूने के लिए नहीं बना है. वह जीवन का प्रतीक है. इसलिए मृत्यु अशौच है, अपवित्र है. आदमी की देह जीवन के पार जीवन की खोज के लिए साधन है. भारतीय परंपरा कहती है ऐसे साधन देवताओं तक को मयस्सर नहीं है.

लेकिन बदलते वक्त में चलन उल्टा हो गया है. भस्मियां पवित्र हो गई हैं. उनको ताम्र कलशों में रखा जाने लगा है. चुपचाप शांति से प्रवाहित करने की बजाय बड़े-बड़े जुलूस निकाले जाते हैं. उनको एक जगह नहीं, जगह-जगह प्रवाहित करने का चलन चल पड़ा है. मृत्यु की पूजा भोंडे तरीके से शुरू हो गई.

दिवंगतों की मूर्तियों की स्थापना की जाने लगी हैं. मंदिर बनने लगे हैं. जो चला गया, उसकी पार्थिव आकृति इतिहास के लिए भले जरूरी हो, पर उसकी पूजा क्यों?

श्रीदेवी के मामले में उनका काम ही अनुकरणीय है. सिनेमा की कला में उनका योगदान ही सराहा जाना चाहिए. शरीर तो रीत गया, फूट गया (घड़े की तरह) तो उसकी पूजा क्यों?

यह श्लोक ऋषि कपूर ने नहीं सुना हो तो सुनना चाहिए,

न त्वहं कामये राज्यं, न स्वर्गं न पुनर्भवम।

कामये दुःख ऋतांना केवलमार्स्त्तिनाशनम्।।

यानी, न मैं राज्य चाहता हूं न स्वर्ग, न पुनर्जन्म के चक्कर से मुक्ति. मैं केवल दुखितों के पीड़ा हरने का अवसर चाहता हूं.

जो कुछ भी जैसा जीवन चारों तरफ है, उसकी साझेदारी यही हिन्दू सनातन परंपरा का मूल तत्व है. दर्शन है.

ऐसे में श्रीदेवी का कार्य ही उनकी पहचान है. बाकी जो बचा हुआ है, पांच तत्वों वाला, वह घड़ा है रीता हुआ, खाली हुई देह है, बॉडी है. मैं जानता हूं कि संवेदनशील ऋषि कपूर बेहद शोकाकुल हैं पर उऩको श्रीदेवी के पार्थिव शरीर को 'बॉडी' कहने पर नाराज नहीं होना चाहिए.

(यह लेख इंडिया टुडे में प्रकाशित हो चुका है, कृपया कहीं और प्रकाशित न करें)