Wednesday, March 20, 2013

आवारेपन का रोज़नामचाः मैं कहता तू जागत रहियो


मही एक कलम के मज़दूर का गांव था। बनारस अपने आप में क्या है, प्रेमचंद, बिस्मिल्ला खां...बाबा विश्वनाथ, कबीर और इन जैसे फक्कड़ों का ही तो गुड़-शक्कर की तरह मेल ही तो। 

बनारस गए और लहरतारा नहीं गए, तो यात्रा अधूरी है। 
 
हम जब कबीर के गांव पहुंचे, तो हवा में अजब-सी आध्यात्मिकता घुली थी। १० फीट चौड़ी सड़क पक्की थी। लेकिन सड़कों का पक्का होना गांव की तरक्की का सुबूत नहीं था। गांव में पक्के मकान थे, लेकिन कुछेक ही। 

गांव के प्रधान का मोबाईल नंबर हमारे पास था। बनारस में ही एक जानकार से मिल गया था। 

बहरहाल, गांव के प्रायः हर घर से खटा-खटाखट की आवाज़ आ रही थी। हथकरघे की..। कबीर जी साकार हो गए। 

दूर किसी घर में किसी मरदाना आवाज़ ने स्वागत किया... झीनी-झीनी बीनी चदरिया बीनी रे बीनी.. काहे का ताना काहे का भरनी....देखा सफेद दाढी में शख्स। हमें देखते ही राम-राम। ताज्जुब हुआ। हमने कहा अस्सलामवालेकुम..। उत्तर आया राम-राम। 

हमारी हैरत पर और परदे डालते हुए उन्होंने कहा हम हिंदुओं और मुसलमानों का फरक नहीं करते। 

सिर झुक गया। असली हिंदोस्तां यहीं है, अयोध्या में है, न गोधरा में...न सोमनाथ में, न जामा मस्जिद में...न सांप्रदायिक रंग लिए किसी और जगह।

 लेकिन आध्यात्मिकता के इस रंग को वास्तविकता ने थोड़ा हलका ज़रूर कर दिया। पूरा गांव बुनकरों का है। यहां के लोग अपने पुश्तैनी धंधे में जुटे हैं, दिनभर करघों की आवाज़ गूंजती है, लेकिन रात को नहीं...क्योंकि रात को बिजली नहीं होती। 

कम रौशनी में काम करने की वजह से कई लोगों की आँखें चौपट हो गई हैं। बिजली आती है लेकिन देर रात दो बजे के बाद... और सुबह होते ही फौरन चली जाती है। 

सांझ को काम गैसलाईट में होता है... रेणु जी की कहानी 'पंचलैट' याद आ गई। ऊपर से तुर्रा ये कि अमेरिका से शुरू हुई मंदी ने बनारस के बुनकरों पर असर दिखाना शुरू कर दिया है। 

दिहाड़ी मज़दूरी पर काम करने वाले बुनकरों को साहूकार पहले ही कम मज़दूरी देते थे, लेकिन मंदी की मार ने मज़दूरी की उस रकम को भी लील लिया है। ..

इसी धंधे में लगे मो. अल हुसैन हमसे मिले। कम होती मज़दूरी ने इन्हें इस लायक नहीं छोड़ा है कि वो अपनी बेटी को स्कूल भी भेज सकें। आखिरकार, इन्हें पेट और पढाई में से एक ही चीज़ चुननी थी और इन्होंने पेट को तरजीह दी।  देनी ही थी। उनकी बेटी पोलियोग्रस्त है.. उनकी शादी की चिंता भी है। 

हम नीम की घनी छाया में बैठे। नौजवान बुनकर भी कबीर ही गुनगुना रहे थे। एक ने फिल्मी रोमांटिक तान छेड़ी..। हमें भी अच्छा लगा।

तब तक कोक की बोतल में हैंडपंप का शीतल जल आ गया। कोक की पहुंच यहां तक हो गई है। 

लेकिन राहत ये कि सिर्फ बोतल था, पानी ऑरिजिनल था। अजब मिठास था, पानी में। एक बुजुर्ग प्लेट में दोलमोठ और बिस्कुट ले आए। हमें बहुत शर्म आई.. तकरीबन पूरा गांव शूटिंग देख रहा था, खिड़कियों से झांकती पर्दानशीं महिलाएं.. बकरियों के आगे पीछे खड़े नंग-धडग बच्चे।

 फुसफुसाते बतियाते नौजवान...। उनकी आंखों में उम्मीद की एक किरण थी। बैंक से कर्ज नहीं मिलता कि पावरलूम लगवाएं.. राशनकार्ड नहीं है...बीपीएल कार्ड प्रधानजी ने अपने नज़दीकियों को दिया है..समस्याओं का अंबार था। 

हमें लगा कि हम महज रिपोर्ट बनाने और लिखकर कहीं छाप देने से ज्यादा क्या कर सकते हैं। क्या हम इस समस्या के निदान के लिए किसी भी तईं जिम्मेदार हैं...या हमें तटस्थ रहना चाहिए।  

क्या हमारी बात उत्तर प्रदेश और केंद्र सरकार तक पहुंच पाएगीशंका मुझे भी है।

गांव में पीने के पानी की समस्या थी। पूरे गांव में एक मात्र हैंडपंप है जो नीम के पेड़ के नीचे है। मंदी के असर से खूबसूरत और दिलकश बनारसी साड़ियों की मांग पर असर पड़ा है। जाहिर है, बनारस के आसपास के गांव के बुनकर इससे परेशान हैं। 

बुनकरों की दिहाड़ी पहले 60-70 रूपये थी, घटकर अब वह 40 रूपये हो गई है। मंहगाई ने कमर पहले से तोड़ दी है। 

मलाल इस बात का है कि उनकी माली हालत पर किसी की नज़र नहीं। बिचौलियों और साहूकारों के कर्ज़ से दबे बुनकर अपनी शिकायत करें भी तो किससे। मंदी में साडियों की मांग में आई कमी ने उनकी हालत शोचनीय बना दी है।

कबीर ने पता नही कब निरगुन गाया था यहां...लेकिन बुनकरों की दशा ऐसी कि स्थिति खुद ब खुद निरगुन गवाने लग जाए। महात्रासदी के ग्रीक कोरस की आवाज़ लहरतारा में सुनाई दे रही है...झीनी-झीनी नहीं...मैं कहता तू जागत रहियो।

Tuesday, March 5, 2013

आवारेपन का रोज़नामचाः लमही में

हुत छोटा था, जब मैंने 'गोदान' पढ़ ली थी। उससे भी पहले छठी क्लास में हिंदी की पाठ्य पुस्तक में प्रेमचंद के बचपन का ज़िक्र था। तो मन में एक उत्कंठा थी कि आखिर प्रेमचंद का वह गांव, जहां का वर्णन वह इस तल्लीनता से करते हैं, होगा कैसा?

यात्रा के दौरान इस बात का मौका मिला कि लमही जाऊं। बनारस से मैंने सीधा रूख किया लमही का। थोड़ा वक्त था, तो मैंने राजीव (ड्राइवर ) को कहा सीधे लमही चलने के लिए।
राजमार्ग पर ही एक बड़ा से गेट बना है, मुंशी प्रेमचंद स्मारक गेट। उसके साथ ही दसफुटिया पक्की सड़क आपको लमही तक ले जाएगी।

गांव में घुसते ही पहले तो आपको एक बड़ा-सा बोर्ड नज़र आएगा। निर्मल ग्राम-लमही। यहां-वहां दीवारों पर मनरेगा के नारे। उसी बोर्ड के पीछे दिखेगा एक साफ-सुथरा पेयजल का इंतजाम। हैंडपंप नहीं... टैपवॉटर। पानी की टंकी और उससे लगे आठ नलकियां। यहीं उसके उलटे हाथ पर प्रेमचंद का पैतृक आवास है।

कुछेक साल पहले यह टूटी-फूटी हालत में था। लेकिन अभी ठीक-ठाक है। सफेद पुताई के साथ गरिमामय मौजूदगी। उससे ठीक पीछे है प्रेमचंद स्मृति भवन। ज़िला प्रशासन ने थोड़ा ध्यान तो दिया है। गोदान पढ़ें और आज के लमही को देखें, तो बड़ा अंतर है।

मुझे लगता है कि प्रेमचंद ने जब गोदान लिखा होगा तो लमही कहीं-न-कहीं उनके मन में साकार रहा होगा। ऐसे में मुझे लगा कि होरी, धनिया, गोबर और झुनिया से मिला जाए।  मैंने एक किसान खोज ही निकाला। चेहरे पर झुर्रियों वाले बुजुर्गवार से मिलते ही लगा, यही तो होरी है। एक पैर में चोट लगी थी सो थोड़ा लंगड़ा कर चल रहे थे। एक नौजवान ने कंधे का सहारा दे रखा था।

हमसे मिलते ही कहने लगे दरवाजे पर चलो, तो खटिए पर बैठ कर बातें करें। हमारे इस नए होरी के घर पर तीन गाएं बंधी थी , दो भैंसें भी थीं। उन्होंने बताया कि घर पर टीवी भी है, और डीटीएच भी। हां, ये सारा कुछ महज किसानी से नहीं आया। राजमार्ग के बगल वाली ज़मीन उनने निकाल दी (यानी बेच दी) और खेती तो है ही। दूध से भी कमाई हो जाती है। दूध बनारस चला जाता है। खाने-पहनने की कमी नहीं।

हमारी बातचीत के दौरान उनकी घरवाली (हमारे हिसाब से धनिया) चटख रंग की सा़ड़ी को कोर मुंह में दबाए मुस्कुराती रही।

झुनिया भी बदल गई है। होरी के गांव में झुनिया सिलाई-कढाई का स्कूल चलाती है। गोबर, अब गोवर्धन बन गया है। लखनऊ जाने की ज़रूरत नहीं। बदलते वक्त और बाजार ने गोबर के लिए मौके भी दिए है, और सम्मान भी। 

गांव के नौजवान के पास मोबाइल फोन है और उसका बेझिझक इस्तेमाल... मुझे फील गुड हो रहा था। (हालांकि आगे की यात्रा में यह एहसास कायम नहीं रह पाया।)


पूरे गांव की सड़कें लगभग साफ-सुथरी थी। नालियां भी साफ थी। एक आम भारतीय गांव से थोड़ा अलग लगा लमही। कम से कम पहली नज़र में ..। गांव में कई भारत मार्का हैंडपंप लगे थे। खेत में फसल भी थी ठीक ही थी। मसूर, अरहर, गेहूं और पीले सरसों के खेत।


लेकिन, साथ ही बहुत कुछ सालता भी है। प्रेमचंद इतने बड़े साहित्यकार हुए, उनके नाम पर देश भर में कोई विश्वविद्यालय तक नहीं, प्रेमचंद के नाम पर राजधानी दिल्ली में कोई सड़क नहीं। दिल्ली ने मार्शल टीटो से लेकर कर्नल नासिर तक के नाम पर सड़क बनाकर सम्मान जाहिर किया गया है।


पता नहीं क्यों प्रेमचंद सम्मान के हकदार नहीं हो पाए। जनता उन्हें कितना प्यार करती है ये बात और है।


मैंने सुना है कि लंदन में वह शहतूत का पेड़ आज तक सुरक्षित है, जिसे शेक्सपियर ने लगाया था। लेकिन, भारत को और भारतीयों को अपनी विरासत पर पता नहीं ज़रा भी गर्व नहीं होता। थाती को संभाल कर रखना तो दूर है।


जहां तक किसानों की बात है, लमही का हमारा तजुर्बा पूरे भारत की बदलती तस्वीर बयां नहीं करता। बाकी के भारत में होरी अभी भी मर ही रहा है। किस्से भले ही बाहर नहीं आ पाते..।  लमही अलहदा था...।

पूर्वी उत्तर प्रदेश का यह गांव आपने आसपास के गांवों से अलग है। सौ किलोमीटर दूर ही बुंदेल खंड है..वहां की दास्तां अलग है। पूर्वी उत्तर प्रदेश के गांवो की जो दशा है लमही कम से कम पहली नज़र में अपवाद लगता है। मुझे बड़ी शिद्दत से पश्चिमी उत्तर प्रदेश के शामली जिले के किसान की याद आई जो संपन्न गांव में अपवाद था...जिसने राष्ट्रपति से आत्महत्या की अनुमति मांगी है।


अपवाद कितनी चटख रंगो के होते हैं, अपनी ओर फटाकदेनी से ध्यान खींचते हैं। है ना।

जारी

Monday, March 4, 2013

आवारेपन का रोज़नामचाः जो मज़ा बनारस में...

बनारस पहुंचने की बारी आई तो हम लेट नहीं हुए। अल्लसुबह ट्रेन बनारस स्टेशन पहुंच गई थी। बाहर काफी कोहरा था। एकदम सफ़ेद-झक्क चादर। 

बस के खिड़की का शीशा पनिया गया था। 

होटल पहुंचकर कमरे में जल्दी-जल्दी चाय पी गई और आधे घंटे में हम सारनाथ निकल गए।

सारनाथ को पहले हम लोग सामान्य ज्ञान की किताबों में पढ़ते थे। गौतम को बोधगया में महाबोधि हासिल हुई थी। उसके बाद उन्होंने अपने पांच पहले शिष्यों को पहली बार यहीं पर उपदेश दिए थे। इस घटना का उल्लेख बौद्ध साहित्य में धम्मचक्र प्रवर्तन के नाम से हुआ है।

बौद्ध ग्रंथों में सारनाथ के नाम का जिक्र ऋषिपत्तन, धर्मपत्तन और मृगदाय के रूप में हुआ है लेकिन ताज्जुब की बात ये है कि इसका नाम सारनाथ, महादेव शिव के एक नाम सारंगनाथ से आय़ा है।
  
सारनाथ पहुंचते ही हमारी बस सबसे पहले एक बड़ी ईंट की इमारत-से अवशेष के पास रूकी। यह चौखंडी स्तूप  था। इसके सबसे ऊपर की ओर देखें, तो एक आठ कोनों वाली आकृति की तरफ नजर जाती है, यह अकबर के काल में हुमायूं की याद में टोडरमल के बेटे गोवर्धन ने बनवाया था।

यही वो जगह है जहां पर गौतम बुद्ध ने अपने पाँच शिष्यों को सबसे प्रथम उपदेश सुनाया था जिसके स्मारकस्वरूप इस स्तूप का निर्माण हुआ। इसका जिक्र ह्वेनसांग ने भी किया है।

ह्वेनसाँग ने इस स्तूप की स्थिति सारनाथ से करीब एक किलोमीटर दक्षिण-पश्चिम में बताई है, जो करीब 91 मीटर ऊँचा था। इस ब्योरे के मुताबिक चौखंडी स्तूप ही वह स्मारक है। जैसा मैंने बताया इसके सबसे ऊपर आठ कोनों वाली एक बुर्जी बनी हुई है, जिसके उत्तरी दरवाजे पर पड़े हुए पत्थर पर फ़ारसी में एक लेख है, वहां गाइड ने बताया, और शिलापट्ट पर भी अंकित है कि टोडरमल के बेटे गोवर्द्धन ने सन् 1589 ई. (996 हिजरी) में इसे बनवाया था। हुमायूँ ने इस जगह पर एक रात बिताई थी, जिसकी यादगार में इस बुर्ज का निर्माण हुआ था। 

जब हम पास में चाय पीने गए, तो चाय दुकान वाले ने इस मिसाल का जिक्र करते हुए कहा कि फैज़ाबाद (अयोध्या) में भी ऐसा ही हुआ होगा। 

बहरहाल...।  

बुद्ध के प्रथम उपदेश (लगभग 533 ई.पू.) से 300 वर्ष बाद तक का सारनाथ का इतिहास अज्ञात है। उत्खनन से इस दौर का कोई भी अवशेष नहीं मिला है। 

सारनाथ की समृद्धि और बौद्ध धर्म का विकास का उल्लेख सम्राट् अशोक के शासनकाल से दीखने लगता है। उसने सारनाथ में धर्मराजिका स्तूप, धमेख स्तूप और सिंह स्तंभ बनवाए थे। 

अशोक के बाद, सारनाथ फिर से अवनति की ओर अग्रसर होने लगा। ई.पू. दूसरी शती में शुंग वंश के राज्य की स्थापना हुई, लेकिन सारनाथ से इस काल का कोई लेख नहीं मिला है। प्रथम शताब्दी ई. के लगभग उत्तर भारत के कुषाण राज्य की स्थापना के साथ ही एक बार पुन: बौद्ध धर्म की उन्नति हुई। कनिष्क के राज्यकाल के तीसरे वर्ष में भिक्षु बल ने यहाँ एक बोधिसत्व प्रतिमा की स्थापना की। कनिष्क ने अपने शासन-काल में न केवल सारनाथ में वरन् भारत के विभिन्न भागों में बहुत-से विहारों एवं स्तूपों का निर्माण करवाया।
 
इसके बाद हम सीधे चले धमेख स्तूप की तरफ। यही वो जगह है जिसकी तस्वीरें आप गूगल पर सर्च करके पाते हैं। 

यहां का स्तूप एक ठोस गोलाकार बुर्ज जैसा है। करीब 28 मीटर व्यास का, और करीब चालीस मीटर ऊंचा। 

इस स्तूप की नींव अशोक के समय में पड़ी। इसका विस्तार कुषाण-काल में हुआ, लेकिन गुप्तकाल में यह पूर्णत: तैयार हुआ। यह साक्ष्य पत्थरों की सजावट और उन पर गुप्त लिपि में अंकित चिन्हों से निश्चित होता है।

खैर...इसके बाद हम सीधे होटल को लौट गए। कुछ भाई लोगों को गंगा स्नान करना था, वो होटल में भोजन के बाद गंगा को कूच कर गए। मुझे इप्सिता मुखर्जी ने कहा कि उनको पूजा करनी है। मेरा एकमात्र मकसद बनारसी मिष्टान्न ठूंसना था। हम आठ लोग, विश्वनाथ मंदिर की ओर चले।

श्रद्धालुओं ने विश्वनाथ की पूजा की, मैं बनारस की गलियों का जो वर्णन पढ़ आया था, उसमें और हक़ीक़त में मेल करने में व्यस्त था। 

विश्वनाथ मंदिर भारत के दूसरे हिंदू मंदिरों की ही तरह लूट का क़िला और गंदगी का पिटारा है। जहां तहां निर्माल्य, बेलपत्र, फूल...गेंदे की मालाएं, एक दूरे पर ही दूध का अर्घ्य ढाले दे रहे हैं...गंदगी का साम्राज्य और लूट-खसोट का माहौल ऐसा मानो महमूद गज़नवियों की सेना में घुल गए हों गलती से।

वहां से बच-बचा कर निकले, ऑटो वाले से कहा मिष्टान्न भंडार ले जाने को। तमाम किस्म की चंद्रकला, चंद्ररेखा नामधारी मिठाईयां, और स्वाद...पूछिए मत। लिखते वक्त भी, स्वाद साक्षात् ज़बान पर है। मतलब कम शब्दों में जान लीजिए कि आनंद अखंड घना था।

कई दफा़ खा चुकने के बाद भी (क्योंकि मेरे मिष्टान्न उदरस्थ करने के अभियान की प्रायोजक खुद इप्सिता थीं) जब मैंने रसमलाई का एक और कटोरा मांग लिया, तो मिठाई वाला भी मुस्कुरा उठा। इप्सिता के बिन पूछे ही मैंने  सफाई दे दी, कमिश्नर की गाडी़ आती है तो कैसा भी जाम छूट जाता है...

मित्रो इस जन्मना बामन ने बनारस में छककर मिठाई खाई। तत्पश्चात्, एक पान को गालो मेदबाने के बाद हम होटल को चले। पेट तन गया था। इच्छा हो रही थी कि अब एक मीठी नींद ली जाए..लेकिन अब शाम ढल रही थी, हमें गंगा आरती देखने जाना था। 

नाव में बैठे, तो बस क्या कहा जाए, शब्द कम पड़ जाएं। वही प्रदूषित गंगा यहां महिमामयी लगती है। किनारे की तऱफ घाटों की छटा ऐसी....ठीक ही लिखा है काशीनाथ सिंह ने, जो मज़ा बनारस में, न पेरिस में न फारस में।

नजरों के आगे से कई घाट गुज़रे, हरिश्चंद्र घाट भी, मणिकर्णिका और..भोंसले घाट भी..गंगा आरती होती है दशाश्वमेध घाट पर।

देशी-विदेशी सैलानी एक नदी की पूजा का अद्भुत नज़ारा देखने इकट्ठा होते हैं। हमारे साथ थाइलैंडके कुछ लोग थे, उनकी प्रतिक्रिया तो हैरतअंगेज़ थी। नाव पर बैठे तो काशी का अस्सी का पहला पेज याद हो आया, मैं ज़ोर से चिल्लाया हर हर महादेव...(और आहिस्ते से भों...के।)

मणिकर्णिका घाट पार करते वक्त कई दर्जन लाशें जलती देखी...थोड़ी देर के लिए तो श्मशान वैराग्य घर कर जाता है। धधकती हुई लाशें, हमारी उन्ही देहों को हमारे ही लोग बांस से पीट-पीटकर पूरी तरह जला डालते हैं, जिनको हम तेल-फुलेल, खुशबूओं, इत्रों, रंग-रोगन, डियो और न जाने किन-किन स्नो-पाउडरों से सजाते हैं, संवारते हैं।

जैसा कि हमेशा होता है श्मशान-वैराग्य भी इस देह की तरह क्षणिक होता है। गंगा की आरती देखी गई। गंगा को शुक्रिया कहने का यह धार्मिक तरीका अच्छा है। कुछ दर तक खुद को खोने का, खुद को आध्यात्म में डुबो देने का।

मुझे शारदा सिन्हा याद आ रही थीं, मैया ओ गंगा मैया...लेकिन यह पूजा-राधना...काश..ये नदियों को गंदा करते जाने की हमारी मानसिकता को थोड़ा बदल पाती।


खैर....अब हम चल रहे है वापस....अंधेरा घिर आया है। लेकिन माहौल आध्यात्मिक है....सब गंभीर थे। आसमां में चांद निकल आया था। याद आने लगा बचपन में वचनदेव कुमार के निबंध संग्रह में चांदनी रात में नौका विहार का लेख पढ़ते थे। 

परीक्षा में आया करता था, इस विषय पर लेख...। अब जीवन परीक्षा है तो चांदनी रात में नौका विहार बेकार लगता है। समय की बर्बादी...लेकिन खुद से मिलना हो तो कभी बनारस जाइए और चांदनी रात में नौका विहार ज़रूर कीजिए।

जारी