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Friday, May 5, 2017

सूखे पर क्या सोचा है सरकार

आपका ध्यान ‘आप’ में ‘विश्वास’ के कायम रहने और अक्षय कुमार को राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिलने जैसे राष्ट्रीय महत्व के समाचारों से जरा हटे तो आपके लिए एक खबर यह भी है कि, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने पिछले हफ्ते तमिलनाडु सरकार को एक नोटिस दिया है। यह नोटिस पिछले एक महीने में किसानों की आत्महत्याओं की खबरों के बारे में है। खराब मॉनसून ने सूबे के ज्यादातर जिलों पर असर डाला है और इससे फसल खराब हुई है। लगातार दूसरे साल पड़े इस सूखे ने कई किसानों को आत्महत्या पर मजबूर किया है।

मानवाधिकार आयोग के इस स्वतः संज्ञान के बाद भेजे नोटिस में जिक्र है कि पिछले एक महीने में 106 किसानों ने तमिलनाडु में आत्महत्या की है। वैसे कर्नाटक और आंध्र प्रदेश में भी सूखा उतना ही भयावह संकट लेकर आया है। वैसे पनीरसेल्वम बनाम शशिकला बनाम पनालीसामी के सियासी चक्रव्यूह में फंसे तमिलनाडु में सरकार इस मुद्दे पर चुप है, और चारों तरफ से राज्य को सूखाग्रस्त घोषित किए जाने की मांग के जोर पकड़ने के बाद एक उच्चस्तरीय समिति गठित कर दी गई है।

सरकार के कान पर जूं तब रेंगी, जब मद्रास हाई कोर्ट ने चार हफ्ते के भीतर इस मसले पर हलफनामा दायर करने को कहा। अदालत ने सरकार से आत्महत्याएं रोकने के लिए कदम उठाने को भी कहा है, हालांकि यह कदम क्या होंगे यह कुछ स्पष्ट नहीं हो पाया है। अपनी तमिलनाडु यात्रा के दौरान, और कुछ रिपोर्ट्स देखने के बाद, मुझे लग रहा है कि सूखे की यह समस्या तिरूवरूर, नागापट्टनम्, विलुपुरम्, पुदुकोट्टाई, अरियालुर, कुडालोग और तंजावुर जिलों में अधिक भयावह है।

तमिलनाडु में उत्तर-पूर्वी मॉनसून से बारिश होती है, यानी अक्तूबर के महीने में, और यह बारिश ही सूबे की जीवनरेखा मानी जाती है। इस बारिश का मौसमी औसत करीब 437 मिलीमीटर है, लेकिन भारतीय मौसम विभाग के चेन्नई केन्द्र के आंकड़े बताते हैं कि पिछले मौसम, यानी 2016 के अक्तूबर के बाद से बारिश सिर्फ 166 मिलीमीटर हुई है।

उधर, कर्नाटक से सटे कावेरी डेल्टा इलाके में किसानो की गत बुरी है। यह इलाका अनाज का भंडार माना जाता है, लेकिन कुरवई (गरमी) की फसल पहले ही मारी जा चुकी है क्योंकि उस वक्त कर्नाटक ने कावेरी का पानी छोड़ने से मना कर दिया था, और शीतकालीन मॉनसून के नाकाम हो जाने के बाद संबा की फसल भी बरबाद हो गई है।

उधर, कर्नाटक में, दो बड़े जलाशय कृष्णराजा बांध और कबीनी, सूखने की कगार पर हैं। इनमें 4.4 टीएमसी फीट पानी ही बचा है। जानकारों के मुताबिक, 5.59 टीएमसी फीट के बाद पानी नहीं निकाला जा सकता क्योंकि ऐसा करने पर जलीय जीवों का अस्तित्व संकट में पड़ जाता है। कर्नाटक के बाकी के 12 बांधों में सिर्फ 20 फीसद पानी बचा है, और एक तरह से देखा जाए तो कायदे से पूरी गरमी का डेढ़ महीना काटना बाकी है। बंगलूरु में हर तीसरे दिन पानी की आपूर्ति बाधित हो रही है, तकरीबन हर रिहायशी कॉम्प्लेक्स पानी के टैंकरों से पानी खरीद रहा है। पानी के एक टैंकर की कीमत तकरीबन 700 से 750 रूपये तक है। पानी के यह टैंकर निजी बोर-वेल से भरे जा रहे हैं, लेकिन यह भी कब तक साथ देंगे यह जानना ज्यादा मुश्किल भरा सवाल नहीं है।

इसी के साथ आंध्र और तेलंगाना में कुछ सियासतदानों ने अनूठे, अजूबे और मूर्खतापूर्ण हरकते भी कीं, जो उनकी समझ में पानी बचाने की कवायद थी। इनमे से एक थी, लाखों रूपये खर्च करके एक बांध को थर्मोकोल से ढंकने की, ताकि पानी भाप बनकर न उड़ जाए। बांध के पानी को थर्मोकोल से ढंका भी गया, लेकिन अगली सुबह जब हवा जरा जोर की चली सारे थर्मोकोल बांध के एक किनारे आ लगे।

एक अन्य उपाय के तहत, बंगलुरू में वॉटर सप्लाई और सीवरेज बोर्ड ने और अधिक बोल-वेल ड्रिलिंग के आदेश भी दिए हैं। अब इसके लिए कितनी गहराई तक ड्रिलिंग करनी होगी, और कितना खोदना सही होगा, यह तो विशेषज्ञ ही बता पाएंगे। लेकिन इतनी बड़ी संख्या में बोर-वेल खोदने से आगे क्या असर पारिस्थितिकी पर पड़ेगा, वह अच्छा नहीं होगा, यह तो हम अभी बता देते हैं। वैसे अगर आप ऐसी खबरों में दिलचस्पी रखते हों, तो पिछली बारिश में बंगलुरू में बाढ़ जैसी स्थिति पैदा हो गई थी, और आज की तारीख में सूखे की है। सिर्फ बंगलुरू ही नहीं, हरे-भरे मैसूर और मांड्या में भी स्थिति कुछ ठीक नहीं है। कर्नाटक सरकार ने हालांकि अपने 176 में से 160 को सूखाग्रस्त घोषित कर दिया है लेकिन क्या सिर्फ इतना करना ही काफी होगा? किसानों ने खरीफ और रबी दोनों फसलें नहीं बोई हैं। कर्नाटक, आंध्र और तमिलनाडु के सरहदी इलाकों में यह स्थिति पिछले 42 सालों में सबसे भयावह है।

किसानों की आत्महत्या के मामले में कर्नाटक की स्थिति भी बेहद बुरी रही है और अनुमान है पिछले चार साल में करीब 1000 किसानों ने आत्महत्या की है।

इतना समझिए कि पिछले साल सामान्य मॉनसून होने (सिर्फ पूर्वी तमिलनाडु को छोड़कर जहां बरसात अक्तूबर में होती है) पर भी तमिलनाडु, आंध्र, केरल और कर्नाटक में पानी की यह कमी, सिर्फ बरसात की कमी नहीं है। केरल में इस बार का सूखा पिछले सौ सालों का सबसे भयानक सूखा है।

सवाल है कि किया क्या जाए। सूखे से निबटने का उपाय ट्रेन से पानी पहुंचाना या ज्यादा बोर-वेल खोदना नहीं है और थर्मोकोल से बांध ढंकना तो बहुत ही बेहूदा कदम है। इसके लिए एक ही सूत्र हैः पानी का कम इस्तेमाल, पानी का कई बार इस्तेमाल, और पानी को रीसाइकिल करना।

इसका उपाय है जलछाजन यानी वॉटरशेड मैनेजमेंट भी है और ग्रीन वॉटर का इस्तेमाल भी। पर उसके बारे में बाद में बात, अभी देखिए कि इस गहनतम सूखे पर मुख्यधारा के किसी चैनल या उत्तर भारत के किसी शहरी अखबार ने कुछ लिखा है क्या? नहीं न। वही तो, सूखा और किसान आत्महत्या खबर थोड़े न है, अलबत्ता एमसीडी चुनाव है।

मंजीत ठाकुर

Thursday, November 12, 2015

आत्मदाह की किसान की फरियाद

आजकल हम छींकते भी हैं तो उसमे बिहार के चुनाव का शोर-सा सुनाई देता है। कसम कलकत्ते की, नीतीश-लालू के महागठबंधन और बीजेपी की अगुवाई वाले एनडीए ने इस दफा घोषणापत्रों की बजाय विज़न डॉक्युमेंट्स जारी किए हैं। घोषणापत्र का फ़ैशन पुराना पड़ चुका है और मैनिफेस्टो कम्युनिस्टी लफ्ज़ मालूम पड़ता है। विज़न डाक्युमेंट सही है। नया है। चलेगा।

दोनों विज़न डॉक्युमेंट्स में किसानों के लिए कुछ कहा गया है। उस कुछ में से खास यह है कि कृषि के लिए अलग से बजट तैयार किया जाएगा। ठीक है। अलग से बजट तैयार करने वाले कर्नाटक में ही किसानों का क्या भला हो गया। बिहार में भी अलग से बजट पेश कीजिएगा। वैसे, सनद रहे कि बिहार के किसान आत्महत्या नहीं करते हैं। तमाम परिस्थितियां है आत्महत्या के मुफीद, लेकिन ढीठों की तरह जिए जाते हैं। ईंट ढोते हुए जिंदगी गुजार देते हैं, लेकिन आत्महत्या नहीं कर पाते।

आमतौर पर किसान आत्महत्याओं की खबरों में हम उम्मीद करते हैं कि यह खबर बुंदेलखंड या विदर्भ से होगी। या फिर आजकल आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और बंगाल से भी आत्महत्या की खबरें आऩे लगी हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश आत्महत्या के मानक पर मुझे लगता था कि थोड़ा संपन्न है।

लेकिन, क्या पश्चिमी उत्तर प्रदेश, क्या मेवात, क्या बुंदेलखंड और क्या विदर्भ, देश भर में किसानों की हालत बदतर ही होती जा रही है। मुज़फ़्फ़रनगर से थोड़ी ही दूरी पर है शामली ज़िला। वहीं याहियापुर के दलित किसान हैं, चंदन सिंह।

चंदन सिंह ने भारत के राष्ट्रपति को अर्ज़ी भेजी कि उन्हें सपरिवार आत्मदाह की अनुमति दी जाए। बुंदेलखंड के उलट याहियापुर के इन किसान चंदन सिंह की आत्महत्या की कोशिश की एक वजह कुदरत नहीं है।

चंदन सिंह गरीबी और तंत्र से हलकान हैं।

हुआ यूं कि सन् 1985 में ट्यूब वैल लगाने के लिए चंदन सिंह मादी ने भारतीय स्टेट बैंक से 10,000 रूपये कर्ज़ लिए। वो कर्ज़ मर्ज़ बन गया। उस रकम में से चार किस्तों में चंदन सिंह ने 5,700 रुपये का कर्ज़ चुका भी दिया था।

लेकिन, इसी वक्त केन्द्र में विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार बन गई। यूपी में मुलायम मुख्यमंत्री बने। सरकार ने ऐलान किया कि दस हज़ार रूपये से कम के सार कृषि ऋणों की आम माफ़ी की जाएगी। चंदन सिंह का बुरा वक़्त वहीं से शुरू हुआ।

चंदन सिंह को लगा कि कर्ज माफी में उनका नाम भी आएगा। चंदन सिंह याद करते हुए बताने लगते हैं, कि किसतरह बैंक के लोगों ने उनसे दो हजा़र रूपये घूस के लिए मांगे थे। घूंघट की आड़ से उनकी पत्नी बताती हैं कि गांव का अमीन भी शामिल था। लेकिन, बहुत हाथ पैर मारने के बाद भी चंदन सिंह 700 रूपये ही जुगाड़ पाए।

जाहिर है, उनका नाम कर्ज माफी की लिस्ट में नहीं आ पाया।

चंदन सिंह इसके बाद किस्तें चुकाने में नाकाम रहे तो पुलिस उन्हें पकड़ कर ले गई। चौदह दिन तक जेल में भी बंद रहे। अनपढ़ चंदन सिंह को लगा कि जेल जाने से शायद कर्ज़ न चुकाना पड़े आगे।

लेकिन, अगले तीन साल तक कोई ख़बर नहीं आई।

सन् 1996 में, बैंक ने उनके 21 बीघे ज़मीन की नीलामी की सूचना उन्हें दी तो वो सन्न रह गए। फिर शुरू हुआ गरीबी का चक्र। कर्ज़ की रकम बढ़कर बीस हज़ारतक पहुच गई। 21 बीघे ज़मीन महज 90,000 रूपये में नीलाम कर दी गई।

भारतीय किसान यूनियन के स्थानीय नेता योगेन्द्र सिंह बताते है कि आत्महत्या के लिए गुहार का फ़ैसला बिलकुल सही है। अगर चंदन सिंह की जमीन उसे वापस ही नहीं मिली तो इसके 13 लोगों के परिवार का भरण-पोषण कैसे होगा। ये क्या, इसके साथ तो हमें भी मरना होगा।'

चंदन सिंह की पत्नी भी कहती है, जमीन न रही तो बच्चे फकीरी करेंगे, फकीरी से तो अच्छा कि मर ही जाएं। गला रूंध आता है। आंखों के कोर भींग आते हैं। मैं कैमरा मैन से कहता हूं, क्लोज अप बनाओ।

चंदन सिंह का परिवार अब दाने दाने को मोहताज है। बड़े बेटे ने निराशा में आकर आत्महत्या कर ली, बहू ने भी। चौदह साल की बेटी दो सला पहले, कुपोषण का शिकार होकर चल बसी।

चंदन सिंह दलित किसान हैं। लेकिन दलितों की नेता मायावती के वक्त में भी उनकी नहीं सुनी गई। कलेक्ट्रेट में ही उन्होंने आत्महत्या की कोशिश की थी। पखवाड़े भर फिर जेल भी रह आए, लेकिन सुनवाई नहीं हुई।

बाद में कमिश्नर के दफ्तर से उन्हें सत्तर हज़ार रूपये (नीलामी के बाद उनके खाते में गई रकम) की वापसी पर ज़मीन कब्जे का आदेश मिला। उन्होंने वो रकम वापस भी कर दी। लेकिन सिवाय उसकी रसीद के कुछ हासिल नहीं हुआ। कमिश्नर का आदेश भी कागजो का पुलिंदा भर है।

अब चंदन सिंह अपने हाथों में मौत की फरियाद वाले हलफ़नामे लेकर खड़े हैं। सूरज तिरछा होकर पश्चिम में गोता का रहा है। सामने खेत में गेहूं की फसल एकदम हरी है। लेकिन चंदन सिंह का मादी की निगाहें खेत को हसरत भरी निगाहों से देख रही है।

सूरज की धूप...पीली है, बीमार-सी।

क्या चंदन सिंह की कहीं सुनी जाएगी? यह मेरा सवाल भी है और फरियाद भी।

Saturday, August 10, 2013

किसान आत्महत्याः कर्नाटक भी है किसानों की क़ब्रगाह

कर्नाटक में गुलबर्गा जिले के जाबार्गी बाजार में हूं...दरअसल बाजार से थोड़ी दूर है वह जगह। आप चौराहा जैसी जगह कह सकते हैं। सड़के के किनारे बीजेपी के निवर्तमान मुख्यमंत्री (चुनाव के वक्त के मुख्यमंत्री) और मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार लिंगायत नेता जगदीश शेट्टार की रैली है।

सूरज ढल रहा है, गरमी बरकरार है। जगदीश शेट्टर मंच पर हैं, सड़कों पर धूल उड़ रही है, रैली खचाखच भरी है। आसपास अपनी गहरी नज़र से देखता हूं, क्या यह भीड़ खरीदी हुई है...लोगों के चेहरे से पता नहीं लगता। हर चेहरा पसीने से लिथड़ा है...किसी चेहरे पर कुछ नहीं लिखा है। सौम्य जगदीश शेट्टर मंच से कन्नड़ में कुछ कहते हैं, (बाद में पता चला, वो कह रहे थे एक लिंगायत को वोट देंगे ना आप?) जनता की तरफ से आवाज़ आती है आवाज नहीं, हुंकार।

स्थान परिवर्तन। जगहः बेल्लारी जिला. हासनपेट, राहुल गांधी की रैली। बांहे चढ़ाते हुए राहुल हिंदी में भाषण दे रहे हैं। पूछते हैं, घूसखोर और बेईमान येदुयरप्पा और उनकी पार्टी (चुनाव से पहले की) बीजेपी को हराएँगे ना आप..जनता फिर हुंकार भरती है। 

यहां भी लोगों के चेहरे पर उदासीनता थी। लेकिन हेलिकॉप्टर की आवाज ने  एक उत्तेजना तो फैलाई ही थी।

इस दौरे में उत्तरी कर्नाटक के जिस भी जिले में गया, चुनावी भागदौड़ के बीच हर जगह एक फुसफुसाहट चाय दुकानों पर सुनने को मिली। कन्नड़ समझ में नहीं आता था, लेकिन स्वर-अनुतानों से पता चल जाता था कि खुशी की बातें तो हैं नहीं।

कारवाड़, बीजापुर, गुलबर्गा, बीदर...सूखा था। किसानों की आत्महत्या के किस्से भी। 

बीजापुर के एक गांव नंदीयाला गया। इस गांव में पिछले साल एक किसान लिंगप्पा ओनप्पा ने आत्महत्या की थी। उसके घर जाता हूं, दिखता है भविष्य की चिंता से लदा चेहरा। रेणुका लिंगप्पा का। अब उनपर अपने तीन बच्चों समेत सात लोगों का परिवार पालने की जिम्मेदारी आन पड़ी है। पिछले बरस इनके पति लिंगप्पा ने कर्ज के भंवर में फंसकर और बार-बार के बैंक के तकाज़ों से आजिज आकर आत्महत्या का रास्ता चुन लिया। 

लिंगप्पा ने खेती के काम के लिए स्थानीय साहूकारों और महाजनों और बैंक से कर्ज लिया था, लेकिन ये कर्ज लाइलाज मर्ज की तरह बढ़ता गया। बीजापुर के बासोअन्ना बागेबाड़ी में आत्महत्या कर चुके चार किसानों के नाम हमारे सामने आए। इस तालुके के मुल्लाला गांव शांतप्पा गुरप्पा ओगार पर महज 31 हजार रूपये का कर्ज था। नंदीयाला वाले लिंगप्पा पर साहूकारों और बैंको का कुल कर्ज 8 लाख था। इंगलेश्वरा गांव के बसप्पा शिवप्पा इकन्नगुत्ती  और नागूर गांव के परमानंद श्रीशैल हरिजना को भी मौत की राह चुननी पड़ी।


पूरे बीजापुर जि़ले में पिछले साल अप्रैल के बाद से अब तक 13 किसानों ने आत्महत्या की राह पकड़ ली है। पूरे कर्नाटक में यह आंकड़ा इस साल 187 तो 2011 में 242 आत्महत्याओं का रहा था। इस साल, बीदर में 14, हासन मे दस, चित्रदुर्ग में बारह किसानों ने आत्महत्याएं की हैं। गुलबर्गा, कोडागू, रामनगरम, बेलगाम कोलार, चामराजनगर, हवेरी जैसे जिलों से भी किसान आत्महत्याओं की खबरें के लिए कुख्यात हो चुके हैं।

खेती की बढ़ती लागत और उत्तरी कर्नाटक का सूखा किसानों की जान का दुश्मन बन गया है। पिछले वित्त वर्ष में कुल बोई गई फसलों का 16 फीसद अनियमित बारिश की भेंट चढ गया। और कर्नाटक सरकार ने सूबे के 28 जिलों के 157 तालुकों को सूखाग्रस्त घोषित कर दिया था। लेकिन राहत कार्यो में देरी ने समस्या को बढ़ाया ही। किसानों की आत्महत्या कर्नाटक में नया मसला नहीं है। पिछले दस साल में 2886 किसानों ने अपनी जान दी है। 

पिछले दशक में बारह ऐसे जिले हैं जिनमें सौ से ज्यादा किसान आत्महत्याएं हुई हैं, ये हैं. बीदर, 234. हासन 316, हवेरी 131, मांड्या 114, चिकमंगलूर 221, तुमकुर 146, बेलगाम 205, शिमोगा 170 दावनगेरे, 136, चित्रदुर्ग 205 गुलबर्गा 118, और बीजापुर 149
लेकिन, किसानों की आत्महत्याएं अब आम घटना की तरह ली जाने लगी हैं और विकास की अंधी दौड़ में हाशिए पर पड़े गरीब किसानों की जान की कीमत अखबार में सिंगल कॉलम की खबर से ज्यादा नही रही हैं। 

कर्नाटक दौरे में यह इलाका, अब मुझे परेशान करने लगा है। गरमी तो झेल लेगा कोई, लेकिन समस्याओं की यह तपिश नहीं झेली जाती।