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Monday, March 14, 2022

राजनीतिः क्या केजरीवाल बगैर कांग्रेस वाकई मोदी के विकल्प बन सकते हैं?

आम आदमी पार्टी ने पंजाब में प्रचंड जीत दर्ज की है. और देश की गैर-भाजपा, गैर-कांग्रेसी एकमात्र पार्टी है जो एकाधिक राज्यों में सत्ता में है. जाहिर है, मेरे कई मित्रो ने भाजपा के खिलाफ 2024 के संभावित गठबंधन की धुरी के रूप में आप को देखना शुरू कर दिया है.

लेकिन, आप के लिए यह रास्ता आसान नहीं होगा.

1. गैर-भाजपा गठबंधन का कोई ढांचा तय नहीं है.

2. ममता और केसीआर विपक्ष की ओर से मुख्य खिलाड़ी बनने का दावा ठोंके हुए हैं.

3. विपक्षी खेमे में अभी भी एकमात्र राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस है और वह अपना रुतबा यूं ही नहीं छोड़ देगी.

4. आम आदमी पार्टी राज्य के लिहाज से महज 20 लोकसभा सीटों पर असरदार होगी. ममता के पास 42 सीटों का असर होगा. यहां तक कि राजस्थान और छत्तीसगढ़ (कांग्रेसनीत राज्य) में भी कुल मिलाकर 36 सीटें हैं.

5. आप अभी तक विधानसभा के प्रदर्शनों को लोकसभा जीतों में बदलने में नाकाम रही है. दिल्ली में अभी तक यह एक भी सीट नहीं जीत पाई है. पंजाब में भी 2014 के चार से गिरकर यह 2019 में एक पर आ गया.

6. गुजरात विधानसभा में प्रदर्शन पर निगाह रखनी होगी, वह भी तब अगर केजरीवाल गुजरात के दोतरफा मुकाबले को त्रिकोणीय बना पाएं. इस राज्य में दो दशकों से भाजपा एक भी विस या लोस चुनाव नहीं हारी है. कांग्रेस ने 2017 में मुकाबला कड़ा किया था पर 2019 में भाजपा कि किल में यह खरोंच तक नहीं लगा पाई थी.

7. 2024 के लोस चुनावों से पहले 10 राज्यों में विस चुनाव होने हैं—हिमाचल, कर्नाटक, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, राजस्थान, तेलंगाना, त्रिपुरा, मेघालय, नगालैंड और मिजोरम. इन ग्यारह राज्यों (गुजरात समेत) कुल 146 लोस सीटें हैं. इनमें से 121 पर

भाजपा काबिज है. इन सभी राज्यों में भाजपा के मुकाबिल सिर्फ कांग्रेस है.

8. गुजरात, हिमाचल, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान में 95 सीटें हैं. यहां सीधा मुकाबला कांग्रेस और भाजपा के बीच ही है.

9. कांग्रेस का चार राज्यों में शासन है—दो में यह सीधे सत्ता में है और दो में गठबंधन के जूनियर साझीदार के रूप में, लेकिन पार्टी 15 अन्य राज्यों में प्रमुख खिलाड़ी है. सात राज्यों—अरुणाचल, छत्तीसगढ़, गुजरात, हिमाचल, मध्य प्रदेश, राजस्थान और उत्तराखंड—में कांग्रेस और भाजपा के बीच सीधा मुकाबला है, इन राज्यों में लोस की 102 सीटें हैं. इन राज्यों मे अन्य क्षेत्रीय दलों की मौजूदगी तकरीबन नगण्य है ऐसे में कांग्रेस का प्रदर्शन खराब होगा तो भाजपा को नुक्सान पहुंचा सकने वाली अन्य ताकत दिखेगी भी नहीं. असल में इन राज्यों में कांग्रेस का बोदा प्रदर्शन ही भाजपा की शक्ति है.


 

10. पंजाब, असम, कर्नाटक, केरल, हरियाणा, महाराष्ट्र, झारखंड, गोवा, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम और नगालैंड में कांग्रेस निर्णायक भूमिका अदा कर सकती है. इन राज्यों में लोस की 155 सीटें हैं.

कांग्रेस से अलग कोई भी गठबंधन भाजपा विरोधी मतों के बिखराव का सबब बनेगा. याद रखिए, 2019 में कांग्रेस ने 403 सीटों पर चुनाव लड़ा था और 196 पर सेकेंड आई थी. भले ही जीती 52 हो.

इसलिए, मोदी का विकल्प बनने की केजरीवाल की महत्वाकांक्षा, कम से कम 2024 के लिए दूर की कौड़ी लगती है. हो सकता है केजरीवाल कदम दर कदम आगे बढ़ाएं, पर इसमें वक्त लगेगा. 2024 में वह ऐसा तभी कर पाएंगे अगर कांग्रेस उनको आगे करे. और कांग्रेस ऐसा क्यों करेगी?

Wednesday, May 26, 2021

शख्सियतः पूर्वोत्तर के चाणक्य हेमंत विस्व सरमा

शख्सियत । हेमंत विस्व सरमा

मंजीत ठाकुर

बहुत साल हुए, हेमंत विस्व सरमा ने एक असमिया फिल्म में बाल कलाकार के तौर पर अपने अभिनय कैरियर की शुरुआत की थी. अभिनेता वाला कैरियर उतना नहीं चला, पर बतौर नेता हेमंत विस्व सरमा वाकई पूर्वोत्तर के चाणक्य की भूमिका में मशहूर हो गए हैं और 10 मई, 2021 सोमवार की दुफहरिया में उन्होंने असम के मुख्यमंत्री का ताज भी पहन ही लिया.

हेमंत विस्व सरमा इसकी तलाश में न जाने कब से थे.

असम के विधानसभा चुनावों में भाजपा ने लगातार दूसरी बार जीत हासिल की है. पिछली बार असम की कुरसी केंद्र से असम भेजे गए सर्बानंद सोनोवाल को मिल गई थी और इस बार यह पद मिला सरमा को. सोनोवाल और सरमा के बीच सियासी तनातनी बनी रहेगी और दोनों के बीच यह प्रतिस्पर्धा पुरानी है, तब से, जब दोनों ही 1980 के दशक में ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन के सदस्य थे.

बहरहाल, 23 अगस्त, 2015 को जब तिवा स्वायत्त परिषद में कांग्रेस के अच्छे प्रदर्शन वाले नतीजे एक दिन पहले ही आए थे और सरमा ने ट्वीट करके कांग्रेस को बधाई दी, उस समय तक किसी को यह इल्म नहीं था कि सरमा भाजपा में शामिल होने वाले थे. क्षेत्रीय न्यूज चैनलो में भी खबर यही चल रही थी कि भाजपा के असम प्रदेश अध्यक्ष सिद्धार्थ भट्टाचार्य पार्टी के खराब प्रदर्शन की वजह से पार्टी अध्यक्ष अमित शाह से शाम में मिलेंगे और कयास लगाए गए कि भट्टाचार्य अपना इस्तीफा सौंपेंगे.

लेकिन कहानी दूसरी थी.

उसी शाम हेमंत विस्व सरमा कांग्रेस छोड़कर भाजपा में शामिल हो गए थे. यह हैरतअंगेज था क्योंकि लंबे अरसे तक सरमा असम के मुख्यमंत्री तरुण गोगोई के दाहिने हाथ माने जाते थे और जानकारों का मानना है कि 2011 में असम में कांग्रेस की जीत की रणनीति खुद सरमा ने तैयार की थी. सरमा को शायद गोगोई के बाद मुख्यमंत्री की कुरसी मिलने की उम्मीद थी.

पर, तरुण गोगोई शायद वंशवाद में यकीन रखते थे और उन्होंने अपने बेटे गौरव गोगोई को बतौर वारिस पेश किया तो सरमा का संयम टूट गया. बाद में, सरमा ने मीडिया के सामने इंटरव्यू में कहा कि वह जब कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी से मिलने पहुंचे थे तो कांग्रेस नेता का ध्यान उनसे अधिक अपने कुत्ते पर था. असल में, अपने सियासी उस्ताद तरुण गोगोई से सरमा की तनातनी चार साल से अधिक समय तक चली थी और उस जंग में राहुल गांधी ने गोगोई का पक्ष लिया था और सरमा उसी बाबत गांधी से बात करने आए थे. सरमा ने खुद ट्वीट करके यह बताया था कि जब कांग्रेस उपाध्यक्ष (राहुल गांधी) के साथ असम के अहम मसलों पर वह बातचीत चाहते थे, उस वक्त राहुल अपने पालतू कुत्ते को बिस्किट खिलाने में व्यस्त थे.

उस वक्त की मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, असम के सात में से छह भाजपा सांसद सरमा को पार्टी में लाने के खिलाफ थे. तो फिर नेतृत्व कैसे तैयार हुआ?

क्योंकि भाजपा नेतृत्व को सरमा के रणनीतिक कौशल पर पूरा भरोसा हो गया था. सरमा के पास गजब का राजनैतिक प्रबंधन और चुनावी कारीगरी तो है ही, सूबे भर में उनकी लोकप्रियता भी है. असल में, भाजपा नेतृत्व जानता था कि 2010 और 2014 में असम राज्यसभा चुनाव में कांग्रेस के पक्ष में भाजपा विधायकों की तरफ से सरमा ने ही क्रॉस वोटिंग करवाई थी. भाजपा अब इस कारीगरी का अपने लिए इस्तेमाल करना चाहती थी.

2006 से 2014 के बीच स्वास्थ्य मंत्री के रूप में जालुकबारी से तीन बार विधायक रहे सरमा ने कई लोकप्रिय कदम उठाए, जिनमें 24 घंटे की एंबुलेंस सेवा और ग्रामीण अस्पतालों में डॉक्टरों की मौजूदगी की अनिवार्यता शामिल थे. इसी तरह 2011 से 2014 तक शिक्षा मंत्री के रूप में उन्होंने स्कूली शिक्षकों की भर्ती की एक पारदर्शी प्रक्रिया पेश की जिसकी परिणति लगभग दो लाख नई भर्तियों में हुई.

जाहिर है, सरमा की इस लोकप्रियता से गौरव गोगोई असुरक्षित महसूस करने लगे थे. इस बार असम की 126 विधानसभा सीटों में भाजपा ने 75 सीटों पर जीत हासिल की है और हेमंत विस्व सरमा ने जालुकबाड़ी सीट पर लगातार पांचवीं बार जीत दर्ज की है.

हेमंत विस्वा सरमा 1990 के दशक में कांग्रेस में शामिल हुए थे और 2001 में पहली बार उन्होंने गुवाहाटी के जालुकबाड़ी से चुनाव लड़ा. उन्होंने यहां असम गण परिषद के नेता भृगु कुमार फुकन को हराया और उसके बाद से इस सीट पर सरमा अजेय बने हुए हैं.

कांग्रेस में रहते हुए सरमा ने शिक्षा, स्वास्थ्य और परिवार कल्याण, कृषि, योजना और विकास, पीडब्ल्यूडी और वित्त जैसे महत्वपूर्ण मंत्रालयों का काम संभाला है.

बहरहाल, सरमा का भाजपा में आना पूर्वोत्तर में उसके लिए भाग्योदय जैसा हुआ है. सरमा के पास न सिर्फ असम की, बल्कि पूरे पूर्वोत्तर की अच्छी समझ है. वह बीते 19 साल से सरकार में मंत्री रहे हैं इसलिए उनके पास प्रशासन का भी अगाध अनुभव है.

असल में मुख्यमंत्री बदले जाएंगे इसका आभास तो तभी हो गया था, जब भाजपा ने चुनाव से पहले अपने मुख्यमंत्री पद उम्मीदवार की घोषणा नहीं की थी. आमतौर पर भाजपा अपने सत्तासीन राज्यों में ऐसा नहीं करती.

बहरहाल, हेमंत विस्व सरमा की कहानी में वह मंजिल आ ही गई जिसके लिए उन्होंने गोगोई पिता-पुत्र के खिलाफ बगावत की थी. जानकार बताते हैं कि 23 अगस्त को भाजपा में सरमा के शामिल होने के बाद राहुल गांधी ने बजरिए अहमद पटेल अपना निजी फोन नंबर सरमा को भिजवाया था. राहुल गांधी को सरमा ने फोन नहीं किया, क्योंकि सरमा का सिद्धांत है, पलटकर नहीं देखना.

असम कांग्रेस वाकई सरमा को खोकर पछता रही होगी.

Wednesday, February 19, 2020

वनवास के बाद बाबूलाल मरांडी की घर वापसी से पांचों उंगली घी में

झारखंड में भाजपा को बाबूलाल मरांडी की और मरांडी को भाजपा की जरूरत थी. दोनों एकदूसरे के पूरक बनेंगे तो प्रदेश भाजपा को एक साफ-सुथरी छवि का आदिवासी नेता मिलेगा और मरांडी को अपने लिए मजबूत संगठन. 2009 से 2019 के लोकसभा तक, एक के बाद एक चार चुनाव हार चुके बाबूलाल मरांडी के लिए भाजपा में शामिल होना उनके सियासी करियर के लिहाज से संजीवनी की तरह है.


आखिरकार झारखंड (Jharkhand) के पहले मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी का 14 साल का वनवास खत्म हो ही गया. मरांडी की भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) में 'घर वापसी' हो गई. बाबूलाल खुद तो भाजपा में आए ही, अपने साथ-साथ वह पूरी पार्टी भी लेकर आए और उन्होंने अपनी पार्टी झारखंड विकास मोर्चा (झाविमो) का भाजपा में विलय भी कर दिया. केंद्रीय गृहमंत्री और भाजपा के पूर्व अध्यक्ष अमित शाह ने बाबूलाल मरांडी को माला पहनाकर पार्टी में शामिल करवाया. अब उम्मीद यह है कि बाबूलाल मरांडी को प्रदेश भाजपा में बड़ा पद दिया जा सकता है.

बाबूलाल मरांडी को भाजपा की जरूरत समझ में आती है पर सवाल यह है कि आखिर भाजपा को मरांडी की ज़रूरत क्यों आन पड़ी? असल में, इन सवालों के उत्तर मार्च में संभावित राज्यसभा चुनावों में भी मिल सकते हैं. झाविमो के भाजपा में विलय से झारखंड की 2 सीटों में से भाजपा के लिए एक सीट जीतने की राह आसान हो गई है. बाबूलाल मरांडी के भाजपा में आने से यह संभावनाएं बनी हैं. 2014 में निर्विरोध जीते राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के प्रेमचंद गुप्ता और निर्दलीय परिमल नथवाणी भले ही इस बार झारखंड से राज्यसभा में न जाएं, पर इस बार भी यह चुनाव निर्विरोध ही होने की उम्मीद है. जहां भाजपा की एक सीट तय मानी जाने लगी है. वहीं, झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) की एक सीट पहले से पक्की है.

झामुमो सूत्र संकेत दे रहे हैं कि पार्टी सुप्रीमो शिबू सोरेन को सीबीआई अदालत से राहत दिलाने वाले सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील और पूर्व सांसद संजीव कुमार को झामुमो फिर से राज्यसभा भेज सकता है.

असल में, प्रदेश भाजपा में इसे लेकर थोड़ी पेशोपेश की स्थिति है. नेतृत्व अभी यह तय नहीं कर पा रहा है कि दांव स्थानीय नेताओं पर लगाया जाए या किसी बाहरी को टिकट दिया जाए.

9 अप्रैल को राज्यसभा में झारखंड से दो सीटें खाली हो रही हैं. चुनाव में जीत के लिए एक उम्मीदवार को कम से कम 28 विधायकों के समर्थन की जरूरत होगी. झामुमो के पास 30 विधायक हैं. बाबूलाल मरांडी के भाजपा में शामिल होने के बाद इस पार्टी की सदस्य संख्या 26 हो जाएगी. आजसू के दो विधायकों को मिला लें तो भाजपा समर्थक विधायकों की संख्या 28 हो जाती है. वैसे भाजपा का दावा है कि दो निर्दलीय विधायक भी उनके संपर्क में हैं. इन्हें मिला लें तो भाजपा 30 तक पहुंच जाती है. इस प्रकार झामुमो-भाजपा अपने-अपने उम्मीदवारों को राज्यसभा भेज सकते हैं.

अब बात, बाबूलाल मरांडी के भाजपा में आऩे की. असल में, मरांडी को अपने सियासी करियर का अस्तितिव बचाए रखने के लिए आज न कल यह कदम तो उठाना ही था.

झारखंड जब बिहार से अलग हुआ था तो पहले मुख्यमंत्री बने थे बाबूलाल मरांडी. तब भाजपा के वे झारखंड के कद्दावर नेता माने जाते थे. पर 28 महीनों तक मुख्यमंत्री रहने के बाद गुटबाजी की वजह से उन्हें कुरसी छोड़नी पड़ी थी और उनकी जगह अर्जुन मुंडा को मुख्यमंत्री बनाया गया था. तब से यह टीस उनके मन में पैठी हुई थी. 2006 में उन्होंने गुटबाजी का आरोप लगाकर पार्टी छोड़ दी और तभी से उनके सियासी करियर पर ग्रहण लगना शुरू हो गया. लगातार दस साल तक, यानी 2009 के बाद 2019 तक बाबूलाल मरांडी कोई चुनाव नहीं जीत पाए थे. उनकी किस्मत ने उनका साथ एक दशक बाद 2019 के विधानसभा चुनावों में दिया, जब वह धनवार से जीते.

2009 से 2019 लोकसभा चुनाव तक, मरांडी लगातार चार चुनाव हार चुके थे. 2009 में वे कोडरमा से सांसद चुने गये थे. कोडरमा से 2004 और 2006 के उपचुनाव में जीतकर लोकसभा पहुंचे थे. 2014 के लोकसभा चुनाव में वे दुमका चले गये जहां शिबू सोरेन ने उन्हें हरा दिया था.

2014 के विधानसभा चुनाव में उन्होंने धनवार और गिरिडीह से परचा दाखिल किया था पर दोनों ही जगह से उनको पराजय का मुंह देखना पड़ा था. 2014 के बाद उनकी पार्टी के छह विधायक टूटकर भाजपा में शामिल हो गए थे. इससे उनकी पार्टी और छवि दोनों को गहरा धक्का लगा था. लगातार चुनाव हारने से भी मरांडी की छवि कमजोर नेता के तौर पर बनती जा रही थी और यह साफ दिखने लगा था कि अब बाबूलाल मरांडी वह नेता नहीं रहे जो झारखंड स्थापना के वक्त थे.

2019 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने कोडरमा से फिर से किस्मत आजमाई पर भाजपा की अन्नपूर्णा देवी ने उन्हें करारी शिकस्त दी थी. और इस बार यानी 2019 के झारखंड विधानसभा चुनाव में भी उनके लिए मुकाबला कोई बहुत आसान नहीं रहा, पर आखिरकार वह जीत गए.

अब, 2014 में मिले सबक को याद रखकर, जब उनके 8 जीते विधायकों में से 6 भाजपा में मिल गए थे, मरांडी ने हर कदम फूंक-फूंककर रखा. उनकी पार्टी के टिकट पर जीते 3 विधायकों में से पहले उन्होंने बंधु तिर्की को पार्टी से बाहर किया और फिर प्रदीप यादव को. तिर्की तो कांग्रेस में शामिल हो गए पर प्रदीप यादव को लेकर खुद कांग्रेस में घमासान मचा हुआ है. प्रदेश कांग्रेस के एक कार्यकारी अध्य़क्ष डॉ. इरफान अंसारी ने इस प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया है. वह यादव को पार्टी में नहीं आऩे देने को लेकर कमर कसे हुए हैं.

बहरहाल, अपने दोनों विधायकों से छुट्टी पाने के बाद मरांडी भाजपा में आए हैं, क्योंकि अब विलय के बाद उन पर दल-बदल कानून प्रभावी नहीं रहेगा. और यह भी तय है कि मरांडी को पार्टी कोई प्रतिष्ठित पद देगी. इसकी एक वजह यह भी रही कि खुद अमित शाह बाबूलाल मरांडी को पसंद करते हैं और मरांडी की पृष्ठभूमि भी संघ के प्रचारक की रही है. मरांडी भाजपा में आने को कितने आतुर थे इसकी झलक उनके इस बयान से भी मिलती है कि वह भाजपा दफ्तर में झाड़ू लगाने को भी तैयार हैं.

सीधे-सादे राजनीतिज्ञ के रूप में छवि बनाए मरांडी को भाजपा में वाकई पद भी मिलेगी और प्रतिष्ठा भी, पर उनकी पार्टी में यह असमंजस है कि उनके पार्टी पदाधिकारियों के हिस्से में क्या आएगा?

Wednesday, October 2, 2019

झारखंड सरकार पर आरोप, मधुपुर में राज्य सरकार ने हड़प ली स्कूल की जमीन

झारखंड में चुनाव की सुगबुगाहट शुरू है और ऐसे में ताबड़तोड़ घोषणाओं और शिलान्यासों का दौर चल रहा है. इसी क्रम में मधुपुर शहर में झारखंड सरकार ने कथित तौर पर एक स्कूल का अहाता ही हड़प लिया है. 


झारखंड में चुनाव की सुगबुगाहट शुरू है और ऐसे में ताबड़तोड़ घोषणाओं और शिलान्यासों का दौर चल रहा है. मधुपुर विधानसभा क्षेत्र में अपनी कमजोर स्थिति से पार पाने के लिए स्थानीय विधायक झारखंड के श्रम मंत्री राज पलिवार भी शिलान्यास पर शिलान्यास किए जा रहे हैं.

पर इस क्रम में झारखंड सरकार ने कथित तौर पर एक स्कूल का अहाता ही हड़प लिया है. 22 सितंबर को झारखंड सरकार के पर्यटन, कला संस्कृति और युवा कार्य विभाग की ओर से मधुपुर विधानसभा क्षेत्र में मधुपुर शहर के मशहूर एमएलजी उच्च विद्यालय के अहाते पर मनमाने ढंग से इंडोर स्टेडियम बनाने के लिए शिलान्यास की खबर आई है. असल में, सरकार स्कूल के अहाते में एक इंडोर स्टेडियम का निर्माण कर रही है. जबकि, जमीन स्कूल की है.

स्थानीय लोग बताते हैं कि स्कूल की जमीन पर इंडोर स्टेडियम बनाने का कोई औचित्य नहीं है और सरकार इसके लिए सरकारी जमीन का इस्तेमाल कर सकती थी. पर शिलान्यास की हड़बड़ी और वाहवाही लूटने के चक्कर में यह काम किया गया है.

पिछले रविवार को एमएलजी स्कूल के अहाते में 1.73 करोड़ की लागत से बनने वाले इंडोर स्टेडियम का शिलान्यास सूबे के श्रम मंत्री राज पलिवार ने कर दिया. इस दौरान उन्होंने कहा कि किसी भी सरकार ने मधुपुर में इंडोर स्टेडियम बनाने का काम नहीं किया. लेकिन भाजपा की रघुबर सरकार ने शहर के खिलाड़ियों की प्रतिभा को देखते हुए मधुपुर में इंडोर स्टेडियम निर्माण की स्वीकृति प्रदान की है. पलिवार ने स्थानीय मीडिया से बातचीत में सरकार की पीठ थपथपाते हुए कहा कि मधुपुर में वर्षों से खिलाड़ी इंडोर स्टेडियम की मांग की जाती रही है जिसे उन्होंने पूरा करने का काम किया है.

उन्होंने कहा कि 12 से 15 माह के अंदर स्टेडियम बनकर तैयार हो जाएगा. यह स्टेडियम अत्याधुनिक सुविधाओं से लैस होगा. इंडोर स्टेडियम मधुपुर क्षेत्र के खिलाड़ियों की प्रतिभा को विकसित करने में मील का पत्थर साबित होगा. इसमें हर प्रकार की सुविधा मिलेगी.

लेकिन चुनावी समय होने से यह मामला सियासी होने लगा है.

कांग्रेस के प्रदेश कार्यकारी अध्यक्ष और जामताड़ा विधायक डॉ. इरफान अंसारी ने कहा है, "स्कूल की जमीन पर सरकारी कब्जा अवैध है और वे स्कूल की जमीन हथियाने नहीं देंगे." गौरतलब है कि खुद अंसारी मधुपुर के रहने वाले हैं. अंसारी कहते हैं, "स्टेडियम का शिलान्यास किया गया है, वह राजनीतिक लाभ लेने की कोशिश मात्र है. वह इलाका शहर का एजुकेशन हब है, वहां आप स्टेडियम बना रहे हैं? सरकार को पुनर्विचार करना चाहिए कि वह बच्चों के भविष्य के साथ खिलवाड़ नहीं करे. कांग्रेस पार्टी वहां ऐसा नहीं होने देगी."

अंसारी का कहना है कि मधुपुर में सरकारी मिल्कियत वाली जमीन की कोई कमी नहीं है और इंडोर स्टेडियम कहीं और भी बनाया जा सकता था. स्थानीय लोगों का कहना है कि स्कूल के अहाते में आसपास के स्कूलों समेत मुहल्ले के बच्चे खेलने आते हैं और स्टेडियम बन जाने से उनका यह मैदान छिन जाएगा.

पर इससे बड़ा मसला यह है कि एमएलजी उच्च विद्यालय को सन 1980 में राज्य सरकार (तब बिहार) ने अधिगृहीत किया था. उससे पहले यह स्कूल विद्यालय प्रबंध समिति के जरिए संचालित किया जाता था.

स्थापना की मंजूरी मिलने के बाद तब के विद्यालय प्रबंध समिति के सचिव राधाकृष्ण चौधरी के जरिए कुल 2.71 एकड़ जमीन विद्यालय के दखल में 1961 से ही है. साथ ही स्थानीय जमींदार से मिले हुकुमनामे के तहत इस स्कूल के पास कोई 6 बीघा 6 कट्ठे से अधिक जमीन स्कूल के पास है.

अधिग्रहण के बाद से यह स्कूल बिहार सरकार के शिक्षा विभाग के तहत चला गया. स्कूल ही नगरपालिका को मालगुजारी और बाकी के टैक्स भरता रहा है. स्कूल प्रशासन भूमि पर अचानक हुए शिलान्यास को अवैध कब्जा बता रहा है. इस संदर्भ में स्कूल प्रशासन ने जिलाधिकारी को ज्ञापन दिया है.

लेकिन सवाल यह है कि क्या स्कूल की जमीन पर अचानक ऐसे किसी स्टेडियम का निर्माण कानूनन सही है या फिर इसे सरकार का जबरिया कब्जा माना जाए.

Thursday, September 12, 2019

'नरेंद्र मोदी सेंसर्ड' फेक नैरेटिव को चुनौती देती काउंटर नैरेटिव की किताब है

पिछले सातेक साल में टीवी, रेडियो, बेवजगत और अखबारों में जितने नरेंद्र मोदी दिखे, सुने और पढ़े गए हैं उतनी जगह शायद ही किसी दूसरे नेता को दी गई होगी. ऐसे में अगर किसी किताब का शीर्षक नरेंद्र मोदी सेंसर्ड हो, तो चौंकाने वाला ही होगा. टीवी पत्रकार अशोक श्रीवास्तव की यह किताब ऐसे दौर में और अधिक दिलचस्प लग सकती है जब हाल ही में चुनाव आयोग ने डीडी न्यूज़ को विभिन्न दलों को दिए जा रहे एयर टाइम में गैर-बराबरी पर फटकार लगाई है. 

चुनाव का वक्त हो तो राजनीति या राजनेताओं से जुड़ी किताबों का प्रकाशन होना कोई नई बात नहीं. राजनीति और चुनाव से जुड़े कथित तौर पर रहस्योद्घाटन करने वाली किताबें दुकानों पर नमूदार होने लगती हैं. इस साल भी जनवरी से ही ऐसी कई किताबें दिखने और बिकने लगी हैं. पर किताब नरेंद्र मोदी से जुड़ी हो तो मामला खास हो जाता है.

इसमें शक नहीं कि पिछले सातेक साल में टीवी, रेडियो, बेवजगत और अखबारों में जितने नरेंद्र मोदी दिखे, सुने और पढ़े गए हैं उतनी जगह शायद ही किसी दूसरे नेता को दी गई होगी. ऐसे में अगर किसी किताब का शीर्षक नरेंद्र मोदी सेंसर्ड हो, तो मामला चौंकाने वाला ही होगा. इस किताब को लिखा है प्रसार भारती के चैनल और सरकार के अनाधिकारिक प्रतिनिधि टीवी चैनल डीडी न्यूज़ के वरिष्ठ एंकर अशोक श्रीवास्तव ने. श्रीवास्तव टीवी की दुनिया के जाने-माने नाम हैं और उनकी यह किताब नरेंद्र मोदी के खिलाफ गढ़े जा रहे कथित फेक नैरेटिव से दो-दो हाथ करती है. नरेंद्र मोदी सेंसर्ड का केंद्रीय विषय तो नरेंद्र मोदी का एक साक्षात्कार है, जिसे डीडी न्यूज़ के लिए अशोक श्रीवास्तव ने लिया था और उसमें डीडी प्रशासन ने कांट-छांट और कतर-ब्योंत की पूरी कोशिश की थी.

पर यह किताब ऐसे दौर में और अधिक दिलचस्प लग सकती है जब हाल ही में चुनाव आयोग ने डीडी न्यूज़ को विभिन्न दलों को दिए जा रहे एयर टाइम में गैर-बराबरी की बात पर फटकार लगाई है.



अशोक श्रीवास्तव की लिखी किताब नरेंद्र मोदी सेंसर्ड
बहरहाल, किताब को आप जैसे ही हाथ में लेते हैं शीर्षक में चस्पां सेंसर शब्द का मंतव्य स्पष्ट करने के लिए काले रंग का एक आवरण आपको दिखता है, जिस पर नरेंद्र मोदी की तस्वीर है. मोदी गौर से आपको ही देखते हुए प्रतीत होते हैं. शीर्षक में सेंसर्ड शब्द रोमन में लिखा है, जो खलता है.

इस किताब में श्रीवास्तव उन पत्रकारों-बुद्धिजीवियों को खुलेआम चुनौती देते दिखते हैं जो 2014 के बाद से मोदी राज में देश में अघोषित आपातकाल का आरोप लगाते रहे हैं और कहते हैं कि पत्रकारों को काम करने की आज़ादी नहीं है. श्रीवास्तव कहते हैं कि जो पत्रकार यह फेक नैरेटिव खड़ा कर रहे हैं वो पत्रकारिता नहीं, राजनीति कर रहे हैं. अपनी बात को साबित करने के क्रम में श्रीवास्तव कई दिलचस्प तथ्य पेश करते हैं.

वैसे, यह तय है कि पिछले लोकसभा चुनाव में डीडी पर प्रसारित होने और न होने के दोराहे पर खड़ा यह इंटरव्यू खासा विवादित रहा था. पर 22 अध्यायों में एक इंटरव्यू के इर्द-गिर्द घूमती हुई किताब कई जगहों पर दोहराव की शिकार है.

वैसे, यह जानी हुई बात है कि नरेन्द्र मोदी के इस इंटरव्यू को पहले गिरा देने की कोशिश हुई थी बाद में इंटरव्यू टेलिकास्ट तो हुआ लेकिन उसे बुरी तरह कांट-छांट दिया गया. यूपीए के दौर में डीडी न्यूज नरेन्द्र मोदी का इंटरव्यू प्रसारित करने पर क्यों मजबूर हुआ, श्रीवास्तव ने इसकी अंतर्गाथा इस किताब में लिखी है.

टीवी पत्रकारों के साथ एक दिक्कत यह हो जाती है कि प्रिंट में लिखते समय भी उनकी भाषा टीवी वाली ही रहती है. यह बात एक साथ ही अच्छी और बुरी दोनों है. भाषा की सरलता एक बात हो सकती है, लेकिन साथ ही कई बातों का टीवीनुमा दोहराव खिजाने वाला भी होता है.

इस किताब का पहला अध्याय, यह किताब क्यों...यह साबित करता है कि श्रीवास्तव खुद को कहां खड़ा करते हैं. वह कथित सेकुलर पत्रकारों का फेक नैरेटिव खड़ी करने के लिए उपहास उड़ाते हैं और फिर असहिष्णुता के आरोप में पुरस्कार वापस करने वाले साहित्यकारों को अवॉर्ड वापसी गैंग का नाम देते हैं. मॉब लिंचिंग के खिलाफ श्रीवास्तव लिंचिंग में मारे गए दो हिंदुओं चंपारण के मुकेश और दिल्ली के पंकज नारंग की मिसाल देते हैं. फिर उनके निशाने पर पुण्य प्रूसन वाजपेयी और आशुतोष आते हैं. श्रीवास्तव अरविंद केजरीवाल पर निशाने साधते हैं कि उन्होंने एक पत्रकार को नौकरी से निकलवा दिया था. लेकिन जहां भी वह किताब में अतिरिक्त हमलावर और आक्रामक दिखे हैं उन्होंने महिला पत्रकार या बुद्धिजीवी कहकर काम चला लिया है.

बहरहाल, बाद में किताब को लेकर प्रधानमंत्री की अनुमति वाले प्रकरण में श्रीवास्तव उनकी सदाशयता का हवाला भी देते हैं कि किताब का विषयवस्तु देखने से प्रधानमंत्री कार्यालय ने मना कर दिया. फिर यह किताब जिक्र करती है कि किस तरह उनके चैनल ने नरेंद्र मोदी के साक्षात्कार को लेकर अनमनापन दिखाया और किसतरह श्रीवास्तव ने बड़ी कठिनाई से इसे पूरा किया.

यह बात सोलहो आने सच है कि गुजरात के मुख्यमंत्री रहते मोदी डीडी के मुख्य समाचार चैनल पर ब्लैक आउट कर दिए गए थे और उनकी खबर दिखाई ही नहीं जाती थी. पर लोकसभा चुनाव 2014 के समय दूसरे टीवी चैनलों की तरह डीडी पर भी उनकी रैलियों से महत्वपूर्ण हिस्से दिखाए जाते थे, यह भी उतना ही सच है. श्रीवास्तव ने अपनी किताब में मोदी के न दिखाए जाने का जिक्र किया है जो सच है पर वह डीडी के जनादेश जैसे चुनावी कार्यक्रम को भूल गए हैं, जिसमें मोदी के रैलियों पर रोजाना खबर बनती थी. श्रीवास्तव इस बात का जिक्र करना भूल गए कि 16 मई को मतगणना के दिन ठीक शाम 4 बजे मोदी पर आधे घंटे की डॉक्युमेंट्री प्रसारित हुई थी. डॉक्युमेंट्री बनने में काफी वक्त लगता है और जाहिर है डीडी न्यूज़ ने इसकी तैयारी पहले से कर रखी होगी. श्रीवास्तव को अपनी किताब में इन बातों का भी जिक्र करना चाहिए था कि सेंसरशिप के उस दौर में यह कैसे मुमकिन हुआ होगा.
श्रीवास्तव अपनी किताब में मोदी के साक्षात्कार के रुकने, कटने और काट-छांट के साथ प्रसारित होने के लिए तब के डीजी एस.एम. खान को दोषी ठहराते हैं. वह उनका नाम लेते हैं, (गौरतलब है कि मोदी सरकार आने के बाद खान को हाशिए पर डाल दिया गया और फिर वह रिटायर हो गए) पर सुविधाजनक तरीके से उन एडीजी या समाचार निदेशकों का नाम उजागर नहीं किया गया है जो छिपे तौर पर संदेशों के जरिए श्रीवास्तव के इंटरव्यू की तारीफ कर रहे थे और एक तरह से उनके साथ थे.

बहरहाल, डीडी न्यूज़ सरकारी अधिकारियों के हाथ का खिलौना और सरकार की कठपुतली है इसमें दो राय नहीं है. एनडीए, फिर यूपीए ने, और फिर मोदी सरकार ने अपनी तरह से इसका इस्तेमाल किया है. चुनाव से ऐन पहले समाचारवाचकों के पीछे स्क्रीन पर सरकारी योजनाओं के प्रचार का बैनर इसकी मिसाल है. यह प्रचार किस बेशर्मी से किया गया है इसका उदाहरण है कि एक बुलेटिन में समाचार वाचिका खबर तो पुलवामा हमले का पढ़ रही थी पर उसके पीछे स्क्रीन पर लगातार उज्ज्वला योजना का बैनर लगा हुआ था. ऐसा पूरे समय तक रहता था, हर बुलेटिन में, हर रोज.

बहरहाल, किताब का कलेवर ऊपर से अच्छा है पर भीतर पन्नों में प्रूफ की गलतियां उघड़कर सामने आती हैं. और चुनाव पूर्व दिलचस्प वाकयों को बदमजा कर जाती हैं. यहां तक कि किताब के पिछले आवरण पन्ने (ब्लर्ब) पर भी गलतियां जायका खराब करती हैं. ऐसा लगता है कि किताब को बहुत हड़बड़ी में लिखा और प्रकाशित किया गया हो. किताब किसी अच्छे संपादक की कैंची से होकर गुजरती तो कसावट के साथ आ सकती थी.

बेशक, इस किताब के जरिए अशोक श्रीवास्तव ने मोदी के इंटरव्यू के इर्द-गिर्द बुनकर एक दिलचस्प वाकया पेश किया है और वह फेक नेरेटिव के खिलाफ भी दिखाई देते हैं, पर साथ ही वह इस फेक नैरेटिव के बरअक्स एक काउंटर नैरेटिव भी खड़ी करने की कोशिश करते हैं, जो उतना ही एकपक्षीय है जितना मोदी-विरोधियों की बौद्धिक जुगाली.

किताबः नरेंद्र मोदी सेंसर्ड
लेखकः अशोक श्रीवास्तव
मूल्यः 300.00 रु.
प्रकाशकः अनिल प्रकाशन

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Thursday, May 2, 2019

मोदी के बायोपिक पर बैन और अक्षय के साथ साक्षात्कार

अब इस बात में बहुत संदेह नहीं हो सकता कि इंदिरा गांधी के बाद नरेंद्र मोदी हमारी सबसे ताकतवर राजनैतिक शख्सियत हैं. थोड़ा और गहराई में जाएं तो यह कह सकते हैं कि वे अब तक के सबसे दबंग और आवेगपूर्ण नेता हैं. मारग्रेट थैचर के संदर्भ में आवेगपूर्ण नेता की परिभाषा एक ऐसे नेता की थी जो अपनी ही धारणा से चलता है और आम राय से जिसे कोई लेना-देना नहीं होता. इसके अलावा, मोदी हमारे सबसे अच्छे वक्ता भी हैं. आप पिछले पांच साल में संसद में उनके भाषणों में हाव-भाव और इशारों को लेकर या सवालों के जवाब सीधे न देने को लेकर बेशक शिकायत कर सकते हैं, लेकिन एक ऐसे वातावरण में वे बेहद वाचाल हो जाते हैं जो उनके पूरे नियंत्रण में हो. एक बार जब वे अपने श्रोता चुन लेते हैं तो अपने भाषण से ऐसा समां बांधते हैं कि हमने आज तक इस देश में नहीं देखा. वाजपेयी महान वक्ता थे, लेकिन वे हमेशा ऐसे नहीं होते थे. उन्होंने कभी भी अपने विचारों या फिर विचारधारा का प्रचार करने के लिए किसी बड़े मंच का इस्तेमाल नहीं किया.

पिछले पांच साल में हम बारंबार मोदी के इन गुणों से हम वाबस्ता हुए हैं. और, अक्षय कुमार के साथ मोदी के गैर-राजनीतिक और पारिवारिक किस्म के इंटरव्यू की आप चाहे जितनी छीछालेदर कर दें, आम की गुठलियों वाले सवाल पर विमर्श का पोटला खोल दें. पर सच यही है कि मोदी बुधवार को दिन पर स्क्रीन पर छाए रहे. गुरुवार को वाराणसी में रोड शो में उनका स्क्रीन पर छाया रहना तय था और शुक्रवार को वो नामांकन का परचा दाखिल करेंगे. 27 अप्रैल के शाम 5 बजे प्रचार बंद हो जाएगा, तो गौर करिए कि आखिर चर्चा में कौन रहा? चुनाव के इस गलाकाट दौर में मीडिया में स्क्रीन पर कब्जा कर लेना कितना अहम है?

आपको नहीं लगता कि मोदी की बायोपिक को चुनाव आयोग किसी संत के जीवन पर बनाई गई फिल्म करार दे, और फिल्म में मोदी को पूजनीय दिखाया गया है. ठीक है, यह आचार संहिता के दायरे में आता है. पर राहुल गांधी या सोनिया या शरद पवार की जीवन वृत्त पर कोई फिल्म बने तो उसमें क्या उनकी आलोचना होगी? बाल ठाकरे पर बनी फिल्म याद करिए, उनके विचारों को क्या उसमें जस्टिफाई करने की कोशिश नहीं की गई है? मुक्केबाज मेरी कॉम हो या पान सिंह तोमर जैसा डकैत, उनके जीवन को क्या फिल्मों ने ग्लोरीफाइ करने की कोशिश नहीं की है?

कांग्रेस को फिल्म का जवाब फिल्म से देना चाहिए था. बहरहाल, बायोपिक पर रोक मोदी को रोक नहीं पाई और अक्षय कुमार के साथ साक्षात्कार एक तरह से सवा घंटे का मोदी का बायोपिक ही तो था.

क्या वह इंटरव्यू देखकर आपको नहीं लगा कि लंबी दूरी तय करने वाला कोई चालक अपनी गाड़ी को संभालने की कोशिश कर रहा हो. इसमें कोई नया नुस्खा नहीं उछाला गया है. मोदी के चुनावी रैलियों पर ध्यान दें. अब वे पुराने नुस्खों, खासकर शौचालय, स्वच्छ भारत और मेक इन इंडिया के मामले में कुछ खास नहीं कहते. क्योंकि वह जानते हैं वोट इनसे नहीं मिलते. मोदी भारतीयों की नब्ज जानते हैं कि लोग आवेगों पर वोट करते हैं. ताकतवर नेता घटनाओं के आधार पर अपनी नीतियां तय नहीं करते और आवेगपूर्ण नेता दूसरों की उम्मीदों के हिसाब से नहीं चलते. इसकी बजाए, वे आपको चौंकाते हैं.

ताकतवर और आवेगपूर्ण नेता दूसरों को अपना मंच छीनने का मौका नहीं देते. अगर मोदी को दूसरे नेताओं का मंच छीनना था, तो बुधवार की सुबह साक्षात्कार रिलीज करवाकर उन्होंने वाकई मंच छीन ही लिया.

Monday, November 5, 2018

बिहार में भाजपा जद-यू के आगे क्यों झुकी?

एक और सहयोगी को खो बैठने के डर से बिहार में भाजपा 2019 के लिए संसदीय सीटों की नीतीश की मांग के आगे झुकी 

बिहार के मामले में आखिरकार, भाजपा और उसके अध्यक्ष अमित शाह को नरम होना पड़ा. अमित शाह और जद (यू) प्रमुख और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने यह घोषणा की कि वे बिहार में 2019 लोकसभा चुनाव में बराबर सीटों पर लड़ेंगे. सीटों पर बराबरी की यह बात गौर से देखें तो साफ लगता है कि भगवा पार्टी काफी झुक गई. फिलहाल राज्य में उसके पास लोकसभा की सबसे ज्यादा सीटें हैं. जीत के लिहाज से उसे सीटें ज्यादा मिलनी चाहिए थीं.

राज्य में 2014 में भाजपा को 40 में से 22 पर जीत मिली थी, जबकि अकेले लडऩे वाले जद (यू) को सिर्फ दो सीटें हासिल हुई थीं. नए तालमेल का मतलब यह है कि भाजपा के कम से कम पांच मौजूदा सांसदों का टिकट कट सकता है. राज्य में एनडीए के पास फिलहाल 33 सीटें हैं, जिनमें रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी के पास छह और उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक समता पार्टी के पास तीन सीटें हैं.

खबर है कि भाजपा को यह घोषणा करने के लिए मजबूर होना पड़ा, क्योंकि नीतीश कुमार ने गठबंधन की किसी भी बैठक में हिस्सा लेने से इनकार कर दिया था. मौजूदा गणित में भाजपा और जद-यू 17-17 सीटों पर चुनाव लड़ेंगी. इस तरह लोजपा के लिए सिर्फ चार और आरएलएसपी के लिए सिर्फ दो सीटें बचेंगी. आरएलएसपी के उपेंद्र कुशवाहा तो खुलकर खीर बनाने की कोशिशें करते नजर आ सकते हैं. दो सीटों के विकल्प के साथ उनके पास नाक बचाने के लिए एनडीए छोड़ने के सिवा ज्यादा चारा है नहीं.

भाजपा के झुकने की वजह यह मानी जा रही है कि बिहार में अच्छे नतीजों के लिए भाजपा नीतीश कुमार पर निर्भर है. तो क्या यह माना जाए कि चंद्रबाबू नायडू के कांग्रेस के पाले में चले जाने के बाद भाजपा नहीं चाहती कि नीतीश से उनका ब्रोमांस खत्म हो जाए.

बिहार में नीतीश अपरिहार्य हैं. इसकी एक वजह यह भी है कि 2005 से 2015 के बीच (सिर्फ 2014 में नरेंद्र मोदी लहर को छोड़ दें तो) हुए चार विधानसभा और दो लोकसभा चुनाव के दौरान जीत उसी धड़े को हासिल हुई जिसकी तरफ नीतीश कुमार थे. साथ ही यह बात भी समझिए कि 2014 में जहां भाजपा मोदी लहर और सत्ताविरोधी रूझान को साथ लेकर उड़ रही थी अब 2019 में हमें उसे खुद सत्ताविरोधी रुझान का सामना करना है. जनता के एक तबके में मोदी से मोहभंग जैसा माहौल भी है, उससे निपटना भी आसान नहीं होगा.

शायद यही वजह है कि भाजपा ने बिहार में एनडीए के लोकसभा अभियान का नेतृत्व नीतीश को सौंप दिया है. उत्तर प्रदेश में लोकसभा उपचुनावों में भाजपा की हार और मोदी लहर के ठंडे पड़ते जाने से भगवा पार्टी के पास इसके अलावा कोई विकल्प भी नहीं है. इसके साथ ही कीर्ति आजाद जैसे कई कमजोर खिलाड़ियों का पत्ता साफ हो सकता है. दरभंगा के मौजूदा सांसद आजाद वैसे भी अरूण जेटली की हिट लिस्ट में हैं. आजाद उन पांच भाजपा सांसदों में होंगे जिनकी जगह जद-यू के किसी प्रत्याशी को दी जा सकती है. संजय झा जद-यू के महासचिव और नीतीश कुमार के काफी करीबी हैं.

जो भी हो, फिलहाल भाजपा ने ध्वज नीतीश के हाथों में पकड़ा दिया है.

Monday, February 5, 2018

मध्य प्रदेश में किसानों बटाईदारों का भाजपाई वोट कैसे बचाएंगे शिवराज?

समर पर समर फतह करती जा रही भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) मध्य प्रदेश के नगर निकाय चुनाव के नतीजों के बाद शायद में कुछ कसमसाहट में आए. मध्य प्रदेश के नगर निकाय चुनावों में कांग्रेस ने भाजपा को कड़ी टक्कर दी है और मुकाबला बराबरी पर छूटा है. दोनों पार्टियों को 9-9 सीटें मिली हैं. एक सीट निर्दलीय के खाते में गई है.

भाजपा के लिए यह कोई अच्छी खबर नहीं है. खासकर चुनावी साल में.

इस सूबे में असंतोष की वजह क्या है? खासकर, किसानों के बीच गुस्से की वजह को जानना बेहद जरूरी है. पिछले कुछ साल में मध्य प्रदेश की छवि कृषि उत्पादन के क्षेत्र में बेहतर प्रदर्शन करने वाले सूबे की बनी है. यहां राज्य सरकार ने सिंचाई का रकबा बढ़ाने में भी जोरदार काम किया. फिर भी किसान दुखी और निराश क्यों है? पिछले साल जून के महीने से ही सूबे की किसान हितैषी छवि को धक्का लगना शुरू हुआ, जब मंदसौर में किसान आंदोलन पर उतर आए थे. पुलिस ने आंदोलनरत किसानों पर गोलीबारी भी की थी.

यह मानना गलत नहीं होगा कि भारत में खेती-बाड़ी अपने बुरे दौर से गुजर रही है और इसने ग्रामीण अर्थव्यवस्था को धक्का पहुंचाया है. जाहिर है, कृषि और किसानों की समस्या अब सियासत के केंद्र में है.

कृषि की इन समस्याओं की वजह से ही गुजरात विधानसभा चुनाव में भाजपा को ग्रामीण सीटों पर नुकसान उठाना पड़ा था. अब मध्य प्रदेश के निकाय चुनावों में औसत प्रदर्शन से भाजपा यह सोचने के लिए मजबूर होगी कि शिवराज सिंह चौहान के लगातार तीन बार के कार्यकाल से सत्ताविरोधी रुझान से निपटना एक चुनौती तो है ही, ग्रामीण अर्थव्यवस्था को लगे झटके के बाद ग्रामीण वोट संभाले रखना भी अहम है.

मध्य प्रदेश में करीब 72 फीसदी ग्रामीण वोट हैं. एक आंकड़ा बताता है कि 2014 के लोकसभा चुनाव में 49 फीसद से अधिक किसानों ने एनडीए को वोट दिया था. साथ ही, एक तिहाई भूमिहीन बटाईदारों का वोट भी एनडीए को ही मिला था.

इन्हीं वोटों के दम पर शिवराज सिंह चौहान पिछले दो चुनावों में सत्ता-विरोधी रुझान को थामने में कामयाब रहे थे. लेकिन उन्हें याद रखना होगा कि 230 सीटों वाली मध्य प्रदेश विधानसभा में से कम से कम 60-70 सीटें ऐसी थीं, जहां भाजपा ने थोड़े ही अंतर से जीत दर्ज की थी.

2013 के विधानसभा चुनाव के लिहाज से इलाकावार तरीके से अगर भाजपा और कांग्रेस के सीटों को देखें तो यह अंतर साफ दिख जाएगा, जहां भाजपा को मामूली बढ़त मिली थी. साथ ही यह भी साफ होगा कि उत्तरी मालवा कैसे भाजपा के मजबूत गढ़ के रूप में स्थापित हो गया था. 2013 में भाजपा को कुल 165, कांग्रेस को 58 और अन्य को 7 सीटें मिली थीं.

मध्य प्रदेश के चंबल इलाके में कुल 34 विधानसभा सीटें हैं जहां भाजपा ने 20 सीटें हासिल की थीं और कांग्रेस 12 सीटे लेकर आई थीं. लेकिन दोनों के वोट हिस्सेदारी में महज दो फीसदी का ही अंतर था. भाजपा को 37.9 फीसदी वोट मिले थे और कांग्रेस को 35.6 फीसदी.

विंध्य प्रदेश की 56 सीटों में से भाजपा को सीटें 36 सीटें और 39.1 फीसदी वोट मिले थे जबकि कांग्रेस कांग्रेस 18 सीटें और 33 फीसदी वोट हासिल करने में कामयाब रही थी.


महाकौशल इलाके में कुल 49 सीटें हैं. यहां वोट शेयर में दोनों पार्टियों में गहरा अंतर था. वोट शेयर में यह अंतर करीब दस फीसदी का था. यहां भाजपा ने 34 और कांग्रेस ने 14 सीटें जीती थीं.

उत्तरी मालवा में कुल 63 और जनजातीय मालवा इलाके में 28 सीटें हैं. इन दोनों इलाकों में भाजपा को क्रमशः 51.8 और 45.8 फीसदी वोट मिले थे. उत्तरी मालवा में भाजपा ने दबदबा कायम करते हुए 55 सीटें जीत ली थीं और कांग्रेस को महज 7 सीटों पर समेट दिया. कांग्रेस को वोट भी 37.8 फीसदी मिले. जनजातीय मालवा में भाजपा को 20 सीटें मिली थीं और कांग्रेस यहां भी सिर्फ 7 सीट ही जीत पाई थी. लेकिन उसे वोट करीब 40 फीसदी मिले थे.

लेकिन इस बार शिवराज सिंह चौहान के लिए चुनौती ज्यादा कठिन है क्योंकि ग्रामीण मध्य प्रदेश का बड़ा तबका उनसे नाराज है. खासकर, जिस सीमांत भूमिहीन किसान और छोटी जोत वाले किसानों ने भाजपा को वोट दिया था, वह उससे बिदके हुए लग रहे हैं.

असल में, मध्य प्रदेश के किसानों की आमदनी कम बारिश और बदलते मौसम की वजह से खराब होती फसलों की वजह से पिछले दो सालों से कम होती गई है. उनकी हालत 2013-14 से ही खराब होनी शुरू हुई है जब खेती का जीडीपी सिकुड़कर 1.14 फीसदी रह गया और उसके अगले साल यह बढ़कर 4.6 फीसदी तो हुआ लेकिन फिर 2015-16 में घटकर 1.7 फीसदी ही रह गया. अब आंकड़ों में एक जादुई उछाल दिखा, जब 2016-17 के आंकड़ों ने इस वृद्धि को 22 फीसदी से अधिक बता दिया.

इसके पीछे सामान्य वजह थी कि एक साल पहले के खराब उत्पादन के बाद बंपर उपज ने वृद्धि के आंकड़े को आसमान तक पहुंचा दिया. लेकिन नोटबंदी और फिर जीएसटी ने उपज की कीमतों को धराशायी कर दिया. ऐसे में किसान चाहते हैं कि सरकार उनकी लागत का डेढ़ गुना कीमत दिलवाने का आश्वासन दे और उनके सारे कर्ज माफ कर दिए जाएं.

हालांकि, शिवराज सिंह चौहान इस गुस्से को थामने के लिए कोशिश कर रहे हैं और उन्होंने मुख्यमंत्री भावांतर भुगतान योजना शुरू की है, जिसके तहत बादजार में उपज बेच पाने में नाकाम किसानों को सीधे सरकार मूल्य देगी. फिर भी किसान असंतुष्ट हैं और ऐसे मौके पर, जब चुनाव को बहुत ज्यादा वक्त नहीं बचा है, भाजपा को अपनी रणनीति को अलग नजरिए के साथ तैयार करना होगा.

आखिर कांग्रेसमुक्त भारत का सपना देखने वाली भाजपा के लिए शिवराज समस्यामुक्त मध्य प्रदेश तो बनाना ही चाहेंगे.

Wednesday, December 20, 2017

भाजपा के हाथों से खिसक रही गांव की जमीन

गुजरात के चुनाव नतीजों को लेकर न जाने कितनी बातें कहीं जाएंगी. लेकिन नतीजों का रणनीतिक विश्लेषण अभी भी प्रासंगिक होगा क्योंकि अगले साल चार बड़े राज्यों में चुनाव होने हैं और लोकसभा चुनावों में महज अठारह महीने बाकी हैं. इस निगाह से देखें तो गुजरात के ग्रामीण इलाकों में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को झटका खाना पड़ा है और उसमें भी सौराष्ट्र क्षेत्र उसके लिए दुःस्वप्न सरीखा ही रहा.

मिसाल के लिए, उत्तरी गुजरात के ग्रामीण इलाकों में जहां 2012 में मोदी की रैलियों के दौरान भारी-भरकम भीड़ जमा हुई थी वहां पार्टी ने बेहतर प्रदर्शन नहीं किया. गुजरात में करीब दो साल पहले दिसंबर में हुए जिला पंचायत चुनाव में कांग्रेस ने 31 में से 23 सीटों पर भाजपा को शिकस्त दी.

तालुक चुनाव में भी भाजपा के मुकाबले कांग्रेस को अच्छी खासी सीटें मिलीं थीं. इन दोनों चुनाव के नतीजों को 2017 के नतीजों के मिला दें तो ग्रामीण गुजरात में भाजपा की खिसक चुकी जमीन का मसला सच साबित होता है. गुजरात के गांव भाजपा के लिए चुनौती बने और कांग्रेस के लिए गुजरात में वापसी बल्कि यह कहें कि पैर जमाने के मौके के तौर पर आए, और कांग्रेस एक हद तक उसमें कामयाब भी रही.

हालांकि भाजपा ने पूरी कोशिश की थी कि ग्रामीण इलाके में उसका वोट बैंक नहीं टूटे, यदि किसी वजह से इन्हें टूटने से नहीं बचाया जा सके तो कम से कम वोटरों को कांग्रेस की तरफ एकजुट होने से तो रोका ही जाए. भाजपा की यह रणनीति ही बयान कर रही थी कि पार्टी रक्षात्मक मुद्रा में है. आखिर, जीएसटी, गन्ना और मूंगफली के मूल्यों को आखिर पलों में समर्थन देना ऐसा ही कदम था. जरा इलाकावार देखिएः

सौराष्ट्र इलाके में कुल 54 विधानसभा सीटें हैं. 2012 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने यहां 35 सीटें हासिल की थीं, लेकिन इस बार उसे 23 सीटों से संतोष करना पड़ा. पूरे राज्य में सौराष्ट्र ही एकमात्र क्षेत्र रहा जहां भाजपा-कांग्रेस के बीच सीट शेयर का अंतर सकारात्मक से नकारात्मक की तरफ गया. तो इस बदलाव का क्या अर्थ है? क्या सिर्फ भौगोलिक विभाजन या इसके कोई आर्थिक संकेत भी हैं?

निश्चय ही, आर्थिक कारक अधिक मजबूत कारण बने. अब यह बात हर किसी को पता है कि गुजरात के गांवों में भाजपा के जनाधार को चोट पहुंची है. अगर क्षेत्रवार बात करें तो हर क्षेत्र के ग्रामीण इलाकों में मतदाता भाजपा से नाराज दिखा है.

उत्तर गुजरात में करीब 90 फीसदी सीटें ग्रामीण इलाके की हैं, जबकि दक्षिण गुजरात में सिर्फ 50 फीसदी. सौराष्ट्र में 75 फीसदी और मध्य गुजरात में ग्रामीण सीटों की संख्या 63 फीसदी है. जैसी कि उम्मीद थी कांग्रेस ने उत्तर गुजरात और सौराष्ट्र क्षेत्र में भाजपा पर सीटों की संख्या के मामले में बढ़त बना ली. इन दोनों इलाकों में कांग्रेस को क्रमशः 53.1 और 55.56 फीसदी सीटें हासिल हुईं.

दोनों पार्टियों के प्रदर्शन में क्षेत्रवार अंतर की वजहें सीटों की प्रकृति में छिपी हैं. कुछ नहीं, एक आसान सा आंकड़ा स्थिति स्पष्ट कर देता है. राज्य स्तर पर दोनों पार्टियों के बीच सीट शेयरिंग में करीब 12 फीसदी का फासला है. लेकिन इसी आंकड़े को इलाकावार देखें तो इसमें काफी उतार-चढाव भी है. शहरी और ग्रामीण सीटों पर अलग-अलग विश्लेषित करने पर इस अंतर में पर्याप्त कमी आती है.

क्षेत्रवार सीटों का अंतर ग्रामीण इलाकों में कम और शहरी इलाकों में अधिक है. इसका मतलब यह हुआ कि ग्रामीण गुजरात में भाजपा के खिलाफ असंतोष अधिक मुखर था. 2012 में ऐसा नहीं था. ग्रामीण इलाकों में भी भाजपा का प्रदर्शन सौराष्ट्र में कांग्रेस के प्रदर्शन से बेहतर था. तब उसे सौराष्ट्र की 40 ग्रामीण सीटों में से 24 और दक्षिण गुजरात में 15 में से 9 सीटें हासिल हुई थीं. तो इस बार क्या बदल गया?

गुजरात में सौराष्ट्र का इलाका कपास उत्पादक क्षेत्र है. 2012 के बाद से कपास की कीमतें औंदे मुंह गिरी हैं. शायद दक्षिण गुजरात के किसानों को सौराष्ट्र के किसानों जैसी मुश्किल का सामना नहीं करना पड़ा हो क्योंकि वहां, कपास नहीं गन्ना प्रमुख फसल है. गन्ने के फसल की कीमत मूंगफली या कपास की तरह धड़ाम नहीं हुई थी. ऐसे में दक्षिण गुजरात में कांग्रेस और भाजपा के बीच ग्रामीण इलाकों में मुकाबला बराबरी पर छूटा है.

खैर, गुजरात में तो हाथी भी निकल गया और उसकी पूंछ भी, लेकिन भाजपा के सामने बड़ी चुनौती होगी राजस्थान और मध्य प्रदेश में अपनी सत्ता बचाए रखना. आखिर, गांवों के अपने छीजते जनाधार को बचाए रखन पाने में अगर भाजपा नाकाम रही तो 2019 में अपने बूते बहुमत में आऩा टेढ़ी खीर साबित होगा.