Saturday, April 16, 2022
पर्यावरण के प्रति प्रेम का पर्व है मिथिला के नववर्ष का त्योहार जूड़-शीतल
असल में, यह मिथिला की प्रकृतिपूजक संस्कृति का अद्भुत त्योहार है. इस त्योहार के संबंध में अयोध्या प्रसाद ‘बहार’ ने अपनी किताब ‘रियाज-ए-तिरहुत’में भी ऐसा ही जिक्र किया है. लेकिन, परंपराओं के परे, ग्लोबल वॉर्मिंग के इस दौर में, जब समूची कुदरत में अलग-अलग किस्म के बदलाव दिख रहे हैं और दर्ज किए जा रहे हैं, जब परंपराओं को खारिज किया जा रहा है, उस वक्त इस त्योहार की सार्थकता और उपयोगिता और अधिक बढ़ जाती है.
जूड़-शीतल उस इलाके की परंपरा है जहां डूबते सूर्य को भी छठ में अर्घ्य दिया जाता है. जूड़ शीतल में गर्मी से पहले तालाब की उड़ाही और चूल्हे की मरम्मत भी की जाती है. चूल्हे को भी आराम देने की शायद मैथिला की संस्कृति एकमात्र संस्कृति है.
जूड़-शीतल में कर्मकांड नहीं होते. यह लोकपर्व है. इससे जुड़ी कहानियां भी नहीं हैं और बाजार को भी इससे कुछ खास हासिल नहीं होता, न ग्रीटिंग कार्ड और न बेचने लायक कुछ सामान, ऐसे में भारत के लोग इसके बारे में ज्यादा नहीं जानते. यहां तक कि मिथिला में भी अब इसका दायरा सिमटता जा रहा है.
मूलतः यह त्योहार शुचिता और पवित्रता का त्योहार है. और इस दो दिनों तक मनाया जाता है. इसके पहले दिन को कहते हैं सतुआइन और दूसरे दिन को कहते हैं धुरखेल.
सतुआइनः अमूमन यह 14 अप्रैल को मनाया जाता है और जैसा कि इसके नाम से ही प्रतीत होता है, इसका रिश्ता सत्तू के साथ है. सतुआइन के दिन लोग सत्तू और बेसन से बने व्यंजन खाते हैं. वैसे भी सत्तू को बिहारी हॉर्लिक्स कहा जाता है. पर गर्मी के इस मौसम में, सत्तू और बेसन के व्यंजनों के खराब होने का अंदेशा कम होता है, इसलिए सत्तू और बेसन के इस्तेमाल के पीछे यह तर्क दिया जा सकता है. आखिर, अगले दिन चूल्हा नहीं जलना और बासी खाना ही खाना होता है.
सतुआइन के दिन की भोर में घर में सब बड़ी स्त्री परिवार के सभी छोटों के सर पर एक चुल्लू पानी रखती है. ऐसा माना जाता है कि ऐसा करने से पूरी गर्मी के मौसम में सर ठंडा रहेगा. सतुआइन के दिन अपने सभी पेड़ों में पानी देना जरूरी होता है. गांव के हर वर्ग, और वर्ण के लोग हर पेड़ में एक-एक लोटा पानी जरूर डालते हैं. हालांकि, इस काम को अनिवार्य बनाने के वास्ते इसको भी पाप और पुण्य से जोड़ दिया गया है और इसलिए कहा जाता है कि सतुआइन के दिन पेड़ों में जल देने से पुण्य हासिल होता है.
धुरखेलः धुरखेल 15 अप्रैल को मनाया जाता है और मिथिला में इस दिन की बहुत अहमियत है. साल का यह ऐसा दिन होता है जब घर के चूल्हे की मरम्मत होती है. याद रखना चाहिए कि यह त्योहार उस दौर के हैं जब घरों में लकड़ी के चूल्हे चलते थे जो मिट्टी के बने होते थे.
इस दिन सुबह उठकर लोग उन सभी स्थानों की सफाई करते हैं जहां पर पानी जमा होता है. मसलन, तालाब, कुएं, मटके, आदि. तालाबों की उड़ाही की जाती है और उसकी तली से निकली चिकनी मिट्टी से चूल्हों की मरम्मत होती है. मिट्टी की उड़ाही के दौरान लड़के-बच्चे एक-दूसरे पर पानी या कीचड़ फेंकते हैं.
पर वह कीचड़ गंदा नहीं होता था. क्योंकि तालाब और पोखरे रोजमर्रा के इस्तेमाल में आते थे और पानी गंदा नही हो पाता था. प्रदूषण भी कम होता था, लोगों और मवेशियों के लिए अलग तालाब होते थे. बहरहाल, तालाबों और कुओं की सफाई के दौरान इस छेड़छाड़ और मजाक से समाज के विभिन्न वर्गों में मेल-मिलाप बढ़ता था.
लोकपर्व छठ की ही तह जूड़-शीतल में न तो कोई कर्मकांड होता है और न ही कोई धर्म या जाति का बंधन. गांव के लोग मिल-जुलकर सार्वजनिक और निजी जलागारों की सफाई करते हैं.
हालांकि, परंपरापसंद लोग शहरों में अपने वॉटर फिल्टर, टंकियों और पंप की सफाई करके इस त्योहार को मनाते हैं. मिट्टी के चूल्हे की मरम्मत की जगह कई लोग गैसचूल्हे की ओवरहॉलिंग करवा लेते हैं.
जूड़-शीतल में तालाबों से लेकर रसोई तक की सफाई के बाद लोग बासी भोजन करते हैं. खासतौर पर बासी चावल और दही से बने कढ़ी-बड़ी (पकौड़े) खाने का चलन है. कई स्थानों पर पतंगें भी उड़ाई जाती हैं और कई गांवों मे जूड़-शीतल के मेले भी लगते हैं.
मिथिला में तालाबों की उड़ाही के दौरान धुरखेल किया जाता है और तालाब की तली की मिट्टी से एकदूसरे को नहलाया जाता है
Tuesday, March 22, 2022
विश्व जल दिवसः 2030 तक बेरोकटोक बढती आबादी होगी 9 अरब, खाने और पीने का संकट होगा गहरा
ऋग्वेद की इस ऋचा में कहा गया है, “हे मनुष्यो! अमृततुल्य तथा गुणकारी जल का सही प्रयोग करने वाले बनो. जल की प्रशंसा और स्तुति के लिए सदैव तैयार रहो.”
दूसरी तरफ, इस्लाम धर्म में जल को ‘जीवन के रहस्य’ की प्रतिष्ठा दी गई है. कुरान में पानी को न सिर्फ ‘पाक’ करार दिया गया है बल्कि इसे अल्लाह की तरफ से मनुष्य के लिये एक नेमत बताया गया है. इस्लाम में पानी की बर्बादी की सख्त मनाही तो है ही; साथ ही मुनाफे के लिए इसके उपयोग को गुनाह करार दिया गया है. मनुष्य, जंतु, पक्षी और पेड़- पौधों के लिए पीने योग्य पानी के संरक्षण को इबादत का ही एक रूप कहा गया है और मान्यता है कि इससे अल्लाह खुश होते हैं.
Monday, January 10, 2022
पंचतत्वः ज्यों ‘ताड़’ माहिं ‘तेल’ है
मंजीत ठाकुर
देश में मुद्दे और मसले इतने सारे हैं कि किसी का ध्यान महंगाई की तरफ जा ही नही रहा है. बे-गुन जैसी चीज 15 रुपए का पाव मिल रहा है, और सरसों तेल और रिफाइंड ऑइल की तो बात ही मत कीजिए. हमारे सार्वजनिक विमर्श में एकाध मीम और दसेक ट्वीट को छोड़कर महंगाई है नहीं कहीं.
मैं भी महंगाई की बात करके नक्कू थोड़े ही बनूंगा. पर सरकार सोच रही है कि खाद्य तेलों की महंगाई कैसे कम की जाए. इसके लिए तिलहन और पाम ऑयल पर राष्ट्रीय मिशन को वनस्पति तेलों के उत्पादन पर निर्भरता कम करने के लिहाज से नीति-नियंता देख रहे हैं. पर, यह नीति एकांगी है और महज एक ही दिशा की ओर देखती है. आपको ‘पीली क्रांति’ की याद होगी. नब्बे के दशक की इस ‘क्रांति’ ने तिलहन की पैदावार को बढ़ाया था. हालांकि, इसके बाद विभिन्न तिलहनों, मसलन मूंगफली, सरसों, सोयाबीन और राई, की पैदावार में लगातार बढ़ोतरी हुई है, लेकिन तेल सरपोटने वाले देश में घरेलू मांग से यह अभी भी कम है.
अब सरकार ने राष्ट्रीय खाद्य तेल मिशन-ऑएल पाम (एनएमईओ-ओपी) योजना पेश की है, जिसमें पूर्वोत्तर राज्यों और अंडमान और निकोबार द्वीप समूह पर खास ध्यान दिया गया है. इस योजना का मकसद खाद्य तेलों के आयात पर निर्भरता कम करने के लिए भारत के ताड़ तेल (पाम ऑएल) पैदावार को बढ़ाना है.
सरकार का लक्ष्य अगले पांच साल में सालाना पैदावार को 11 लाख टन और अगले दस साल में बढ़ाकर 28 लाख करना है. और इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए देश में ताड़ तेल के रकबे को बढ़ाकर 6,50,000 हेक्टेयर किया जाएगा. अगले एक दशक में इस रकबे में 6,70,000 हेक्टेयर और जोड़ा जाएगा.
नीति-नियंताओं का आकलन है कि भारत में, ताड़ तेल, (अरे वही पाम ऑएल) की खेती 28 लाख हेक्टेयर में की जा सकती है जिसमें से करीब 9 लाख हेक्टेयर पूर्वोत्तर में हैं. एनएमईओ-ओपी योजना की कुल लागत 11,040 करोड़ रुपए है, जिसमें से 8,844 करोड़ रुपए केंद्र देगा और बाकी का हिस्सा राज्य सरकारें वहन करेंगी.
सरकार बेशक खाद्य तेलों का आयात कम करना चाह रही है और देश के कुल खाद्य तेल आयात में ताड़ तेल का हिस्सा 50 फीसद से अधिक है. आपने गौर किया होगा, पिछले साल भर में इस तेल की कीमत 60 फीसद तक बढ़ गई है. 1 जून, 2021 ताड़ तेल की कीमत 138 रुपए प्रति किलो तक हो गई थी, जो 1 जून, 2020 को 86 रुपए प्रति किलो था. यह पिछले 11 सालों में सर्वाधिक कीमत थी.
इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए, सरकार ताड़ तेल के उत्पादक किसानों को इनपुट लागत में मदद दे रही है और यह मदद 29,000 रुपए प्रति हेक्टेयर कर दी गई है. उपज के लिए भी खेतिहरों को न्यूनतम समर्थन मूल्य के साथ एक तय कीमत दी जाएगी.
लेकिन, असली चिंता यह नहीं है कि इस कृषि वानिकी की लागत क्या होगी. असली चिंता वह लागत है जो पारिस्थितिकी के नुक्सान से पैदा होगी. सुमात्रा, बोर्नियो और मलय प्रायद्वीप मिसालें हैं जहां वैश्विक पाम ऑयल का 90 फीसद पैदा उत्पादित किया जाता है. इन जगहों पर इसकी व्यावसायिक खेती के लिए बड़े पैमाने पर जंगल काटे गए और स्थानीय जल संसाधनों पर इसका भारी बोझ पड़ा, क्योंकि ताड़ तेल की खेती के लिए पानी की काफी जरूरत होती है.
अंग्रेजी के अखबार, द इंडियन एक्सप्रेस में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक, “इंडोनेशिया में सिर्फ 2020 में ही मुख्य रूप से तेल ताड़ के वृक्षारोपण के लिए 1,15,495 हेक्टेयर वन क्षेत्र का नुक्सान हुआ है. सन 2002-18 की अवधि में, इंडोनेशिया में 91,54,000 हेक्टेयर प्राथमिक वन क्षेत्र का नुक्सान हुआ है. इस जंगल कटाई ने वहां की जैव विविधता पर प्रतिकूल प्रभाव डालने के साथ-साथ जल प्रदूषण को भी बढ़ाया है.”
ताड़ तेल के बागानों से सरकारी नीतियों और परंपरागत भूमि अधिकारों के बीच संघर्ष हो सकता है. अपने देश में, पूर्वोत्तर के राज्य राजनैतिक रूप से संवेदनशील क्षेत्र हैं और पाम ऑयल की खेती की पहल से वहां तनाव पैदा हो सकता है.
दूसरी तरफ, पूर्वोत्तर में पक्षियों की करीबन 850 नस्लें पाई जाती हैं. पूरे पूर्वोत्तर में खट्टे फल पाए जाते हैं, औषधीय पौधे और दुर्लभ पौधों और जड़ी-बूटियां यहां कुदरती तौर पर उगती हैं. यही नहीं, पूर्वोत्तर के विभिन्न इलाकों में 51 प्रकार के वन हैं. सरकारी अध्ययनों में भी पूर्वोत्तर की समृद्ध जैव विविधता पर प्रकाश डाला है. ऐसे में, पाम तेल नीति इस क्षेत्र की जैविक समृद्धि को नष्ट कर सकती है.
वैसे, पर्यावरण और जैव-विविधता की रक्षा के लिए इंडोनेसिया और श्रीलंका ने पाम ट्री पौधारोपण पर बंदिशें आयद करनी शुरू कर दी हैं. 2018 में, इंडोनेशिया सरकार ने पाम आयल उत्पादन के लिए नए लाइसेंस जारी करने पर तीन साल की रोक लगा दी. पिछले साल, श्रीलंका सरकार ने भी चरणबद्ध तरीके से ताड़ तेल के पेड़ों को उखाड़ने के आदेश जारी किए थे.
ताड़ तेल की पैदावार को भारत में बढ़ावा दिया जा रहा है जबकि तथ्य यह भी है कि देश के अधिकांश परिवार रोजाना के खर्च में पारंपरिक तेलों (सरसों, नारियल, सोयाबीन, तिल) का इस्तेमाल ही करता है. ऐसे में, ताड़ तेल पर जोर देने से वर्षाआधारित तिलहन से ध्यान हट जाएगा. इसका असर लोगों के स्वास्थ्य और पर्यावरण की सेहत पर क्या पड़ेगा इसका गहरा अध्ययन जरूरी है.
Sunday, April 18, 2021
पंचतत्वः जंगलों का प्रबंधन स्थानीय समुदायों के हाथों में क्यों नहीं देते!
विर्दी के गांव में, समुदाय के लोग जंगलों से झाड़ियां साफ करते हैं, खरपतवार निकालते हैं और अच्छी गुणवत्ता वाली घास हासिल करते हैं. सरपंच विर्दी के मुताबिक, "अगर जंगलों को ऐसे ही छोड़ दिया जाए, तो झाड़ियां पेड़ों की तरह लंबी हो जाएंगी. इसलिए वनों का प्रबंधन आवश्यक है."
2020-21 के उत्तराखंड आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार, उत्तराखंड में 51,125 वर्ग किलोमीटर के कुल क्षेत्र में से लगभग 71.05 फीसद भूमि वनाच्छादित है. इसमें से 13.41 फीसद वन क्षेत्र वन पंचायतों के प्रबंधन के अंतर्गत आता है और राज्य भर में ऐसे 12,167 वन पंचायत हैं.
उत्तराखंड की खासियत है कि हर वन पंचायत स्थानीय जंगल के उपयोग, प्रबंधन और सुरक्षा के लिए अपने नियम खुद बनाती है. ये नियम वनरक्षकों के चयन से लेकर बकाएदारों को दंडित करने तक हैं. सरमोली के विर्दी गांव में, जंगल की सुरक्षा के पंचायती कानून के तहत जुर्माना 50 रुपये से 1,000 रुपये तक है.
असल में, स्थानीय तौर पर वनों के संरक्षण की जरूरत इस संदर्भ में और अधिक महत्वपूर्ण हो जाती हैं, जब उत्तराखंड के जंगल दावानल से जूझ रहे हैं. वैसे,
पर इन वन पंचायतों की असली भूमिका, वन संसाधनों के इस्तेमाल को दोहन में तब्दील होने से बचाने की भी है. यहां जून से सितंबर तक मॉनसून में ग्रामीणों और उनके मवेशियों के जंगल में जाने की मनाही होती है. इस अवधि के दौरान, लोग गांव के भीतर से ही अपने मवेशियों के लिए घास और चारे की व्यवस्था करते हैं. कुछ जंगलों में गश्त करने और घुसपैठियों को पकड़ने के लिए ग्रामीणों को भी तैनात किया जाता है.
इस उदाहरण को देश के अन्य जंगलों में भी लागू किया जा सकता है. स्थानीय रूप से जरूर कानून रहे होंगे, और वनोपज के इस्तेमाल को लेकर वनाधिकार कानून भी है. पर, कानून लागू करने में किस स्तर की हीला-हवाली होती है, वह छिपी नहीं है. मसलन, मेरे गृहराज्य झारखंड
में मैंने संताल जनजाति की स्त्रियों को जंगल जाकर साल के पत्ते, दातुन आदि लाते देखा है. वे शाम को लौटते वक्त कई दफा लैंटाना (झाड़ी) भी काट लाती हैं, जलावन के लिए.
पर, उन्हें यह छिपाकर लाना होता है. अगर वन विभाग थोड़े दिमाग की इस्तेमाल करे तो लैंटाना जैसी प्रजाति, जिसके कर्नाटक के जंगल में प्रति वर्ग किमी उन्मूलन के लिए दस लाख रूपए से भी अधिक की लागत आती है, को सफाया मुफ्त में हो सकता है.
लैंटाना ने वन विभाग को परेशान किया हुआ है. वन विभाग चाहे तो स्थानीय लोगों को जंगल के भीतर से इस झाड़ी को काटकर लाने के लिए प्रोत्साहित कर सकता है.
वनोपजों और उसके प्रबंधन की बात करते हुए मुझे अक्सर ओडिशा के नियामगिरि के जरपा गांव में एक कोंध-डंगरिया महिला की बात याद आती है, जिनके लिए नियामगिरि पर्वत एक पहाड़ भर नहीं था. उसने मुझसे कहा था, ये हमारे नियामराजा है, हमारे घर, हमारा मंदिर, कचहरी, अस्पताल सब.
जंगलों को अगर इस निगाह से देखने लगें और उसकी उपज के दोहन का नहीं, इस्तेमाल और प्रबंधन की जिम्मेदारी और अधिकार स्थानीय समुदायों को दें, तो वन संरक्षण का मामला सरल हो सकता है. पर सवाल नीयत पर जाकर अटक जाता है.
Monday, March 8, 2021
पंचतत्वः अधिक पड़ता है निचले तबकों और औरतों पर जलवायु परिवर्तन का असर
क्या यह महज पर्यावरणीय मुद्दा न होकर सामाजिक न्याय से जुड़ा मसला भी है? क्या इसको सामाजिक-आर्थिक मसले के रूप में देखने क साथ राजनैतिक मुद्दे के रूप में देखा जा सकता है?
पर्यावरण के मुद्दे पर हुए एक बेविनार में जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय की प्रोफेसर सुचित्रा सेन ने कहा, “जलवायु परिवर्तन पर असर डालने वाले कारकों में उन्ही बीमारियों जैसी समानता है जो महामारी में तब्दील हो जाती हैं.”
कुछ वैज्ञानिक मानते हैं कि जलवायु परिवर्तन मौसमी घटनाओं में अचानक और अत्यधिक रूप से आई बढोतरी है और जो कई संक्रामक बीमारियों के फैलने में सहायक होती हैं.
प्रो. सेन ने अपने संबोधन में आगे कहा, “वैश्विक आर्थिक परिदृश्य ऐसा हो चला है कि कोई भी महामारी या संक्रमण अब स्थानीय नहीं रहता, वैश्विक रूप अख्तियार कर लेता है.”
वैसे, यह तय है कि जलवायु परिवर्तन का असर गरीबों और अमीरों पर अलग अंदाज में होता है और आने वाली पीढ़ियों में यह और बढ़ेगा ही. उसी वेबिनार में प्रो. सेन ने कहा, “जलवायु परिवर्तन से निबटने के लिए तैयार की गई नीतियां खतरनाक तरीके गैर-बराबरी के नतीजे देंगी और इसमें गरीब और कमजोर लोग नीतियों के दायरे से बाहर हो जाएंगे.”
मानवजनित जलवायु परिवर्तन को स्पष्ट रूप से बढ़ते तापमान, समुद्र के जलस्तर में वृद्धि, ग्लेशियरों के पिघलने, बाढ़, सूखे, हर साल चक्रवात आने की संख्या बढ़ने में देखा जा सकता है, पर जो स्पष्ट रूप से नहीं दिख रहा है कि इन परिवर्तनों का समाज के कमजोर तबको पर क्या खास असर पड़ता है.
चूंकि, यह दिख नहीं रहा है इसलिए यह तबका नीतिगत विमर्शों के दायरे से बाहर है.
असल में सिंधु-गंगा का उत्तरी भारत का मैदान बेहद उपजाऊ है और इस इलाके में खेती में पुरुषों का ही वर्चस्व है. जबकि, समाज में स्त्रियों की दशा की स्थिति में ब्रह्मपुत्र बेसिन में ऊपरी इलाकों में अलग आयाम हैं. पूर्वोत्तर के पहाड़ी इलाकों में कामकाज में महिलाओं की अधिक हिस्सेदारी है और मैदानी भारत की तुलना में पूर्वोत्तर के पहाड़ी इलाकों में महिला साक्षरता की दर भी अलग है.
प्रो सेन ने अपने अध्ययन में भी बताया है कि ब्रह्मपुत्र नदी के नजदीक रहने वालों में गरीबी अधिक है और वह अधिक बाढ़, अपरदन और नदी की धारा बदलने का सामना करते हैं और उनका संपत्ति (भूमि) पर अधिकार भी पारिभाषित नहीं है. ऐसा इसलिए क्योंकि कटाव का असर उधर अधिक होता है. दूसरी तरफ नदी से दूर बसे इलाकों में जमीन की मिल्कियत स्पष्ट रूप से चिन्हित होती है.
जलवायु परिवर्तन के सीधे लक्षणों में अमूमन तापमान और बारिश में बढ़ोतरी को ही शामिल किया जाता है. लेकिन नदी के बढ़ते जलस्तर, जब तब होने वाली बारिश और तूफान, मछली, परिंदों और जानवरों के नस्लों का खत्म होता जाना, भूमि की उर्वरा शक्ति घटना यह ऐसी बातें है, जिनका असर हमारी आधी आबादी पर अधिक पड़ रहा है.
मैदानी इलाकों में भी जहां, खेती का नियंत्रण भले ही मर्दों के हाथ में हो लेकिन खेती के अधिकतर काम, बुआई, कटाई और दोनाई में महिलाओं की हिस्सेदारी अधिक होती है, जलवायु परिवर्तन का असर साफ दिख रहा है.
Tuesday, February 23, 2021
पंचतत्वः एक संकल्प हमारे नदी पोखरों के लिए भी
क्या आपने पिछले कुछ बरसों से मॉनसून की बेढब चाल की ओर नजर फेरी है? बारिश के मौसम में बादलों की बेरुखी और फिर धारासार बरसात का क्या नदियों की धारा में कमी से कोई रिश्ता है? मूसलाधार बरसात के दिन बढ़ गए और रिमझिम फुहारों के दिन कम हो गए हैं. मात्रा के लिहाज से कहा जाए तो पिछले कुछ सालों में घमासान बारिश ज्यादा होने लगी है. पिछले 20 साल में 15 सेंटीमीटर से ज्यादा बारिश वाले दिनों में बढोतरी हुई है, लेकिन 10 सेमी से कम बारिश वाले दिनों की गिनती कम हो गई है.
तो मॉनसून की चाल में इस बदलाव का असर क्या नदियों की सेहत पर भी पड़ा है? एक आसान-सा सवाल हैः नदियों में पानी आता कहां से है? मॉनसून के बारिश से ही. और मूसलाधार बरसात का पानी तो बहकर निकल जाता है. हल्की और रिमझिम बरसात का पानी ही जमीन के नीचे संचित होता है और नदियों को सालों भर बहने का पानी मुहैया कराता है. लेकिन नदियों के पानी में कमी से उसका चरित्र भी बदल रहा है और बारहमासी नदियां अब मौसमी नदियों में बदलती जा रही हैं और यह घटना सिर्फ हिंदुस्तान में नहीं पूरी दुनिया की नदियों में देखी जा रही है.
दुनिया की सारी नदियों का बहाव जंगल के बीच से हैं. इसके चलते नदियां बची हैं. जहां नदियों के बेसिन में जंगल काटे गए हैं वहां नदियों में पानी कम हुआ है. नदियों को अविरल बहने के लिए पानी नहीं मिल रहा है. बरसात रहने तक तो मामला ठीक रहता है लेकिन जैसे ही बरसात खत्म होती है नदियां सूखने लग रही हैं. भूजल ठीक से चार्ज नहीं हो रही है. यह मौसमी चक्र टूट गया है.
पुणे की संस्था फोरम फॉर पॉलिसी डायलॉग्स ऑन वॉटर कॉन्फ्लिक्ट्स इन इंडिया का एक अध्ययन बताता है कि बारहों महीने पानी से भरी रहने वाली नदियों में पानी कम होते जाने का चलन दुनिया भर में दिख रहा है और अत्यधिक दोहन और बड़े पैमाने पर उनकी धारा मोड़ने की वजह से अधिकतर नदियां अब अपने मुहानों पर जाकर समंदर से नहीं मिल पातीं. इनमें मिस्र की नील, उत्तरी अमेरिका की कॉलरेडो, भारत और पाकिस्तान में बहने वाली सिंधु, मध्य एशिया की आमू और सायर दरिया भी शामिल है. अब इन नदियों की औकात एक पतले नाले से अधिक की नहीं रह गई है. समस्या सिर्फ पानी कम होना ही नहीं है, कई बारहमासी नदियां अब मौसमी नदियों में बदल रही हैं.
वर्ल्ड वाइल्ड लाइफ फंड ने पहली बार दुनिया की लंबी नदियों का एक अध्ययन किया है और इसके निष्कर्ष खतरनाक नतीजों की तरफ इशारा कर रहे हैं. मई, 2019 में प्रकाशित इस रिपोर्ट में कहा गया है कि धरती पर 246 लंबी नदियों में से महज 37 फीसदी ही बाकी बची हैं और अविरल बह पा रही हैं.
इस अध्ययन में आर्कटिक को छोड़कर बाकी सभी नदी बेसिनों में जंगलों की बेतहाशा कटाई हुई है. अमेज़न के वर्षावनों का वजूद ही अब खतरे में है. सिर्फ अमेज़न नदी पर 1500 से ज़्यादा पनबिजली परियोजनाएं हैं. विकास की राह में नदियों की मौत आ रही है.
इसकी मिसाल गंगा भी है. पिछले साल जून के दूसरे पखवाड़े में उत्तर प्रदेश के जलकल विभाग को एक चेतावनी जारी करनी पड़ी क्योंकि वाराणसी, प्रयागराज, कानपुर और दूसरी कई जगहों पर गंगा नदी का जलस्तर न्यूनतम बिंदु तक पहुंच गया था. इन शहरों में कई जगहों पर गंगा इतनी सूख चुकी थी कि वहां डुबकी लगाने लायक पानी भी नहीं बचा था. कानपुर में गंगा की धारा के बीच में रेत के बड़े-बड़े टीले दिखाई देने लगे थे. यहां तक कि पेयजल की आपूर्ति के लिए भैरोंघाट पंपिंग स्टेशन पर बालू की बोरियों का बांध बनाकर पानी की दिशा बदलनी पड़ी. गर्मियों में गंगा के जलस्तर में आ रही कमी का असर और भी तरीके से दिखने लगा था क्योंकि प्रयागराज, कानपुर और वाराणसी के इलाकों में हैंडपंप या तो सूख गए या कम पानी देने लगे थे.
पानी कम होने का ट्रेंड देश की लगभग हर नदी में है और नदी बेसिनों में बारिश की मात्रा में कमी भी है. हमने इस पर अभी ध्यान नहीं दिया तो बड़ी संपदा से हाथ धो देंगे.
Tuesday, December 15, 2020
पंचतत्वः गाफिल गोता खावैगा
बारिशें हमेशा चाय-पकौड़े, गीत-गजलें और शायराना अंदाज लेकर नहीं आतीं. कुछ बरसातों में दिल तोड़ने वाली बात भी हुआ करती हैं. नहीं, आप मुझे गलत न समझें. पंचतत्व में रोमांस की बातें मैं अमूमन नहीं करता.
दिल्ली में बैठे पत्रकारों को दिल्ली से परे कुछ नहीं दिखता. किसान आंदोलन से भी सुरसुराहट तभी हुई है जब किसान राजधानी में छाती पर चढ़कर जयकारा लगा रहे हैं. बहरहाल, दिल्ली में बादल छाए हैं और सर्दियों में बरसात हैरत की बात नहीं है. हर साल, पश्चिमी विक्षोभ से ऐसा होता रहता है. पर, खबर यह है कि मुंबई और इसके उपनगरों में पिछले 2 दिनों में हल्की बारिश हुई है और अगले 48 घंटों में और अधिक बारिश होने की उम्मीद है. बारिश को लेकर हम हमेशा उम्मीद लिखते हैं, जबकि हमें यहां सटीक शब्द आशंका या अंदेशा लिखना चाहिए.
बहरहाल, मौसम का मिजाज भांपने वाली निजी एजेंसी स्काइमेट कह रहा है कि लगातार 2 दिनों तक हवा गर्म रहने से मुंबई गर्म हो गया है और दिन का तापमान 36 डिग्री सेल्सियस से ऊपर चला गया, जो सामान्य से लगभग 4 डिग्री सेल्सियस अधिक था. न्यूनतम तापमान भी औसत से 5-6 डिग्री सेल्सियस अधिक चल रहा है.
मुंबई अमूमन दिसंबर से अप्रैल तक सूखा रहता है. दिसंबर, 2017 को छोड़ दीजिए जिसमें सामान्य औसत 1.6 मिमी की सामान्य के मुकाबले 76 मिमी वर्षा हुई थी. वजह था चक्रवात ओखी.
मुंबई की बारिश से मैं आपका ध्यान उन असाधारण मौसमी परिस्थितियों की ओर दिलाना चाहता हूं, जो मॉनसून सिस्टम में बारीकी से आ रहे बदलाव का संकेत है. पिछले साल, यानी 2019 में देशभर में 19 असाधारण मौसमी परिस्थितियां (एक्स्ट्रीम वेदर कंडीशंस) की घटनाएं हुईं, जिनमें डेढ़ हजार से अधिक लोगों ने अपनी जान गंवा दी. इनमें से साठ फीसद से अधिक जानें मूसलाधार बारिश और बाढ़ की वजह से गईं.
बिहार की मिसाल लें, जहां की जनता ने साबित किया उनको ऐसी मौतों से फर्क नहीं पड़ता, सूबे में 2019 में 11 जुलाई से 2 अक्तूबर के बीच भारी बारिश और बाढ़ से 306 लोग मारे गए. आकाशीय बिजली गिरने से 71 और लू लगने से 292 लोग मारे गए. अब आप पर निर्भर है कि आप उस राज्य के सुशासन पर हंसे या रोएं जहां लू लगने से लगभर तीन सौ लोग मर जाते हों.
पड़ोसी राज्य झारखंड में स्थिति अलग नहीं है. वहां बाढ़ से मरने वालों की गिनती नहीं है क्योंकि राज्य की भौगोलिक स्थिति ऐसी नहीं है कि बाढ़ आए. बहरहाल, आकाशीय बिजली गिरने से 2019 में वहां 125 लोग मारे गए और लू लगने से 13 लोग मारे गए.
महाराष्ट्र का रिकॉर्ड भी इस मामले में बेदाग नहीं है. वहां बाढ़ से 136, बिजली गिरने से 51 और अप्रैल-जून 2019 में लू लगने से 44 लोग जान गंवा बैठे.
भारत सरकार के गृह मंत्रालय के आपदा प्रबंधन महकमे के आंकड़े बताते हैं कि 2013 से 2019 के बीच लू चलने वाले दिनों की संख्या में करीबन 70 फीसद की बढ़ोतरी हुई है. आपने किसी टीवी चैनल पर इसकी चर्चा सुनी है? खैर, वहां तो आप मसीहाओं को देखते-सुनते हैं.
वैसे गौर करने लायक बात यह है कि रेगिस्तानी (क्लीशे) राज्य राजस्थान में बाढ़ और भारी वर्षा में मरने वालों की संख्या 2019 में 80 रही. आकाशीय बिजली गिरने से मरने वालों की संख्या भी 14 रही.
वैसे, आपदा प्रबंधन विभाग ने लू की तरह ही शीत लहर में मरने वालों की संख्या भी बताई है और जिक्र किया है कि 2017 से 2018 के बीच शीत लहर के दिनों की संख्या में भी 69 फीसद की बढ़ोतरी हुई है.
स्थिति असल में चिंताजनक इसलिए है क्योंकि 2014-15 से हर साल असाधारण मौसमी परिस्थितियों की वजह से जान गंवाने वालों की संख्या हर साल बढ़ती ही जा रही है. 2014-15 में मरने वालों की संख्या करीब 1664 थी जो 2018-19 में बढ़कर 2044 हो गई. इन मौसमी परिस्थितियों में सवा लाख मवेशी मारे गए, 15.5 लाख घरों को मुक्सान पहुंचा और 17.09 लाख हेक्टेयर खेती के रकबे में फसलें चौपट हो गईं.
पर, मैं ये आंकड़े किसलिए गिना रहा हूं!
मैं ये आंकड़े इसलिए गिना रहा हूं क्योंकि सरकार को इन कुदरती आपदाओं की परवाह थोड़ी कम है. इस बात की तस्दीक भी मैं कर देता हूं.
भारत सरकार ने 2015-16 में करीब 3,273 करोड़ रुपए असाधारण मौसमी परिस्थितियों से लड़ने के लिए खर्च किया था. 2016-17 में करीब 2,800 करोड़ रुपए हो गया और 2017-18 में और घटकर 15,985.8 करोड़ रुपए रह गया.
2018-19 में संशोधित बजटीय अनुमान बताता है कि ये 37,212 करोड़ रुपए हो गया जो 2019-20 में करीब 29 हजार करोड़ के आसपास रहा.
2018 से 2019 के बीच तूफानों और सूखे को ध्यान में रखें तो बढ़ी हुई रकम का मामला समझ में आ जाएगा. लेकिन हमें समझ लेना चाहिए (2015 से 2017 तक) कि कुदरत के कहर से निबटने के लिए सरकार किस तरह कमर कसकर तैयार है.
तो अगर आपके इलाके में बेमौसम बरसात हो, बिजली कड़के तो पकौड़े तलते हुए पिया मिलन के गीत गाने के उछाह में मत भर जाइए, सोचिए कि पश्चिमी राजस्थान में बारिश क्यों हो रही है, सोचिए कि वहां ठनका क्यों गिर रहा है. कुदरत चेतावनी दे रही है, हम और आप हैं कि समझने को तैयार नहीं हैं.
Monday, December 7, 2020
पंचतत्वः मिट्टी की यह देह मिट्टी में मिलेगी या जहर में!
हम बहुत छोटे थे तब हमने कवि शिवमंगल सिंह सुमन की एक कविता पढ़ी थी
आशा में निश्छल पल जाए, छलना में पड़ कर छल जाए
सूरज दमके तो तप जाए, रजनी ठुमकी तो ढल जाए,
यों तो बच्चों की गुडिया सी, भोली मिट्टी की हस्ती क्या
आँधी आये तो उड़ जाए, पानी बरसे तो गल जाए!
निर्मम कुम्हार की थापी से
कितने रूपों में कुटी-पिटी,
हर बार बिखेरी गई, किंतु
मिट्टी फिर भी तो नहीं मिटी!
यह आखिरी पंक्ति ऐसी है जो असलियत नहीं है, बस हमारा विश्वास भर है. हमें हमेशा लगता है कि माटी से बनी हमारी देह माटी में मिल जाएगी. माटी अजर है, अमर है. पर ऐसा है नहीं.
आज यानी 5 दिसंबर को विश्व मृदा दिवस है. सोचा, आपको याद दिला दूं, काहे कि इसी की वजह से हम हैं. हमारी सारी फूटानी मिट्टी की वजह से है.
वरना, हमलोग इतने आधुनिक तो हो ही गए हैं कि मिट्टी शरीर से लग जाए तो शरीर गंदा लगने लगता है, कभी हम इसको धूल कहकर दुत्कारते हैं, कभी इसको कूड़ा कहते हैं, कभी बुहारकर फेंकते हैं कभी चुटकियों से झाड़ते हैं. हमें एक बार उस चीज को लेकर कुदरत का धन्यवाद देना चाहिए कि तमाम तकनीकी ज्ञान के बावजूद हमलोग प्रयोगशाला में मिट्टी नहीं बना सकते.
जैसा मैंने कहा, मिट्टी शाश्वत नहीं है. इसका क्षरण हो रहा है.
भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संस्थान (इसरो) की 2016 की एक रिपोर्ट कहती है कि देश का 36.7 फीसद या करीबन 12.07 करोड़ हेक्टेयर कृषियोग्य और गैर-कृषि योग्य भूमि विभिन्न किस्म के क्षरण का शिकार है जिसमें से सबसे अधिक नुक्सान जल अपरदन से होता है. जल अपरदन की वजह से मृदा का नुक्सान सबसे अधिक करीब 68 फीसद होता है.
पानी से किए गए क्षरण की वजह से मिट्टी में से जैविक कार्बन, पोषक तत्वों का असंतुलन, इसकी जैव विविधता में कमी और इसका भारी धातुओं और कीटनाशकों के जमा होने से इसमें जहरीले यौगिकों की मात्रा बढ़ जाती है.
दिल्ली के नेशनल अकेडमी ऑफ एग्रीकल्चरल साइंसेज (एनएएएस) का आंकड़ा कहता है कि देश में हर साल करीबन 15.4 टन मिट्टी बर्बाद हो जाती है. इसका सीधा असर फसलों की पैदावार पर पड़ता है यह कोई कहने की बात नहीं है.
सवाल ये है कि नाश हुई यह मिट्टी कहां जाती है. कहीं नहीं जाती, नदियों की तली में या बांध-पोखरों-तालाबों की तली मैं बैठ रहती है और इससे हर साल सिंचित इलाके में 1 से 2 फीसद की कमी आती जाती है. बरसात के टाइम में यही बाढ़ का इलाका बढ़ा देती है. एनएएएस का अनुमान है कि जल अपरदन की वजह से 1.34 करोड़ टन के पैदावार की कमी आती है. रुपये-पैसे में कूता जाए तो ये करीबन 206 अरब रुपए के आसपास बैठता है.
इस शहरीकरण ने मिट्टी में जहर घोलना भी शुरू कर दिया है. जितना अधिक म्युनिसिपल कचरा इधर-उधर असावधानी से फेंका जाता है, उतना ही अधिक जहरीलापन मिट्टी में समाती जाती है. मिसाल के तौर पर, कानपुर के जाजमऊ के एसटीपी की बात लीजिए.
जाजमऊ में चमड़ा शोधन के बहुत सारे संयंत्र लगे हैं. हालांकि, सरकारी और गैर-सरकारी आंकड़ों में कई सौ का फर्क है फिर भी आप दोनों के बीच का एक आंकड़ा 800 स्थिर कर लें.
तो इन चमड़े के शोधन में क्रोमियम का इस्तेमाल होता है. क्रोमियम भारी धातु है और चमड़े वाले महीन बालों के साथ ये एसटीपी में साफ होने जाता है (अभी कितना जाता है और कितना साफ होता है, इस प्रश्न को एसटीपी में न डालें. उस पर चर्चा बाद में)
तो साहब, एसटीपी के पॉन्ड में चमड़े की सफाई के बाद वाले बाल कीचड़ की तरह जमा हो जाते हैं और उनकी सफाई करके उनको खुले में सूखने छोड़ दिया जाता है. एसटीपी वालों के कर्तव्यों की इतिश्री हो जाती है.
गरमियों में वो बाल हवा के साथ उड़कर हर तरफ पहुंचते हैं. बरसात के पानी के साथ क्रोमियम रिसकर भूमिगत जल और मिट्टी में जाता है और फिर बंटाधार हो जाता है.
इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ सॉइल साइंस, भोपाल का 2015 का एक अध्ययन बताता है कि देश के कई शहरों में कंपोस्ट में भी भारी धातु की मौजूदगी है. एनपीके उर्वरकों का बेहिसाब इस्तेमाल तो अलग से लेख का विषय है ही. अपने देश की मिट्टी में नाइट्रोजन कम है. एनपीके का अनुपात वैसे 4:2:1 होना चाहिए लेकिन एक अध्ययन के मुताबिक, 1960 में 6.2:4:1 से 2016 में 6.7:2.7:1 हो गया है. खासतौर पर पंजाब और हरियाणा में यह स्थिति और भयावह हो गई है. जहां ये क्रमशः 31.4:8.0:1 और 27.7:6.1:1 है.
आज के पंचतत्व में आंकड़ों की भरमार है.
पर यकीन मानिए, हर बार किस्सा सुनाना भी मुमकिन नहीं होता. खासकर तब, जब बात माटी की हो. मरने के बाद तो सुपुर्दे-खाक होते समय आदमी चैन से सोना चाहता होगा, अगर वहां भी प्रदूषित और कलुषित माटी से साबका हो, तो रेस्ट इन पीस कहना भी बकैती ही होगी.
Sunday, April 12, 2020
लॉकडाउन डायरीः अहिरन की चोरी करै, करै सुई की दान
हम सब वक्त के उस विमान में बैठे हैं जो लगता है कि स्थिर है, पर आसमान में बड़ी तेजी से भाग रहा है. कइयों के लिए वक्त नहीं कट रहा, वे एक मिनट में पंखे के डैने कितनी बार घूमता है इसका ठट्ठा कर रहे हैं. पर, वक्त के साथ उनके ठट्ठे धीमे पड़ते जा रहे हैं.
हम सबके बीच अकेलेपन का स्वर अब सीलने लगा है, भींगने लगा है. जैसे जाड़ों की सुबह चाय की कप की परिधि पर जम जाता है. हम उदास भारी सांसें लिए बच्चों के साथ खेलने की कोशिश करते हैं. अपने कंप्यूटर पर हम बार-बार काम निबटाने बैठते हैं. काम खिंचता जाता है. नेट की स्पीड कम होती जा रही है. लोगों ने नेट पर फिल्में और वेबसीरीज देखनी शुरू कर दी है. समय की स्पीड की नेट की स्पीड की तरह हो गई है. बीच-बीच में समय की भी बफरिंग होने लगती है.
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दिल्ली का आसमान, लॉकडाउन के दौरान, फोटोः मंजीत ठाकुर |
बॉस का आदेश है, हमें अच्छी खबरें खोजनी चाहिए. कहां से मिलेंगी अच्छी खबर? दुनिया भर में मौत का आंकड़ा एक लाख के करीबन पहुंचने वाला है. एक लाख! हृदय कांप उठता है. एक लाख अर्थियां! एक लाख कब्रें! एक लाख परिवारों की पीड़ा. क्या आसमान का हृदय नहीं फट पड़ेगा?
मैं देखता हूं निकोटिन के दाग से पीली पड़ी मेरी उंगलियों से पीलापन मद्धम पड़ता जा रहा है. लग रहा है मेरी पहचान मिट रही हो. आखरी कश लिए तीन हफ्ते निकल गए हैं.
तीन हफ्तों में मैं जान गया हूं कि मेरी बिल्डिंग में मेरी फ्लैट के ऐन सामने दो लड़के रहते हैं, दोनों दिन भर सोते हैं और रात को उनके कमरे की रोशनी जलती रहती है. मुझे हाल ही में पता चला है कि एक पड़ोसी है जिसके घर में दो बच्चे हैं. उनमें एक रोज सिंथेसाइजर बजाता है. मुझे पता नहीं था. सुबह नौ बजे रोज कैलाश खेर की टेर ली हुई आवाज़ में सफाई के महत्व वाला गाना बजाती कूड़े की गाड़ी आती है. मैं पहले उसकी आवाज नहीं सुन पाता था.
मेरी बिटिया को ठीक साढ़े नौ बजे रात को सोने की आदत है और मुझे यह भी पता चला है कि उसको सोते वक्त लोरी सुनने की आदत है.
अच्छी खबरों की तलाश में आखिरकार एक अच्छी खबर मिलती है. कोरोना के इस दौर में भी सुकून की एक खबरः धरती मरम्मत के दौर से गुजर रही है. चीन का एसईजेड, जिसको दुनिया का सबसे प्रदूषित इलाका माना जाता था, वहां की हवा में नासा बदलाव देखता है. नासा कहता है वहां की हवा साफ हो रही है. नासा की खबर कहती है वेनिस के नहरों का पानी फिर से पन्ने की तरह हरा हो गया है जिसमें डॉल्फिनें उछल रही हैं. गांव के चौधरी की निगाह हर जगह है. बस चौधरी अपना गांव न बचा पाया. कल तक सुना था करीब 15 हजार अमेरिकी मौत के मुंह में समा गए. मैंने सुना है, अमेरिका अपने नागरिकों की सुरक्षा को लेकर बहुत सतर्क रहता है. क्या सब निबट जाए तो अमेरिका, चीन से बदला लेगा? हम तीसरे विश्वयुद्ध की प्रतीक्षा करें?
वेनिस की नहरें तो साफ हो गईं और अपने हिंदुस्तान में क्या होगा? गंगा-यमुना साफ होगी? मुंबई के जुहू बीच पर भी दिखेगी डॉल्फिन? पर नीला आसमान तो सबको दिख रहा है. दिल्ली में लोग सुपर मून, पिंक मून की तस्वीरें सोशल मीडिया पर उछाल रहे हैं. कुछ कह रहे हैं उन्हें परिंदो की आवाज़ें सुनाई देने लगी हैं. लोग खिड़कियों के पास बैठे परिंदे देख रहे हैं.
मौसम का पूर्वानुमान लगाने वाली स्काईमेट जैसी एजेंसी कह रही है, गुरुग्राम से लेकर नोएडा तक पार्टिक्युलेट मैटर (पीएम) की मौजूदगी हवा में कम हुई है. यह कमी लॉकडाउन से पहले के दौर के मुकाबले 60 फीसद तक है.
जाहिर है, यह लॉकडाउन का असर है. तो फिर 15 अप्रैल के बाद क्या होगा? हालांकि प्रदूषण का स्तर नीचे गया है पर यह तो सिर्फ पीएम के स्तर में कमी है. वैज्ञानिक स्तर पर देखें, तो कारें प्रदूषण की सबसे बड़ी वजह है. कम से कम दिल्ली में तो ऐसा ही है. पर किसी भी सियासी मसले के हल के लिए सिर्फ पीएम (प्रधानमंत्री) और किसी भी प्रदूषणीय मसले के लिए पीएम (पार्टिक्युनलेट मैटर) के भरोसे रहना अनुचित होगा. हमको सल्फर ऑक्साइड आधारित और नाइट्रोजन ऑक्साइट आधारित प्रदूषकों पर भी नजर रखनी चाहिए.
अभी तो प्रदूषण के मसले पर हमारी आपकी स्थिति वैसी ही है, जैसे कबीर कह गए हैं
अहिरन की चोरी करै, करै सुई की दान
ऊंचे चढ़ि कर देखता, केतिक दूर बिमान.
लोग लोहे की चोरी करते हैं और सूई का दान करते हैं. तब ऊंचे चढ़कर देखते हैं कि विमान कितनी दूर है. अल्पदान करके हम सोच भी कैसे सकते हैं कि हमें बैकुंठ की ओर ले जाने वाला विमान कब आएगा?
हमने प्रदूषण को लेकर कुछ नहीं किया. न हिंदुस्तान ने, न चीन ने, न इटली ने...न चौधरी अमेरिका ने. हमने साफ पानी, माटी और साफ हवा के मसले को कार्बन ट्रेडिंग जैसे जटिल खातों में डालकर चेहरे पर दुकानदारी मुस्कुराहट चिपका ली है. कोप औप पृथ्वी सम्मेलनों में हम धरती का नहीं, अपना भला करते हैं.
याद रखिए, यह कयामत का वक्त गुजर जाएगा. बिल्कुल गुजरेगा. फिर खेतों में परालियां जलाई जाएंगी और तब हवा में मौजूद गैसों की सांद्रता ट्रैफिक के पीक आवर से समय से कैसे अलग होती हैं उसका विश्लेषण अभी कर लें तो बेहतर.
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Friday, February 14, 2020
नदीसूत्रः मुंबई की मीठी नदी का कड़वा वर्तमान और जहरीला भविष्य
मायानगरी मुंबई कुछ महीनों पहले सोशल मीडिया पर आरे के जंगल बचाने जाग गई थी. पर शहर के लोगों ने एक मरती हुई नदी पर कुछ खास ध्यान नहीं दिया. मुंबई ने एक नदी को मौत की नींद सोने पर मजबूर कर दिया है. नाम है मीठी, पर इसका भविष्य और वर्तमान दोनों कड़वा-कसैला है. खुद महाराष्ट्र प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने माना है कि मीठी नदी में अवशिष्ट पदार्थ की मात्रा तयशुदा मानकों से 16 गुना अधिक है.
करीब 17.8 किमी लंबी मीठी नदी मुंबई के दिल से गुजरती है और माहीम क्रीक में जाकर मिल जाती है और बोर्ड के मुताबिक इसमें प्रदूषण उच्चतम स्तर का है.
झटके खाने वाली बात यह है कि आरे के जंगलों पर आरा चलने की खबर से एक्टिव मोड में आ गए मुंबईकर मीठी नदी की दुर्दशा पर अमूमन चुप हैं. और सरकार ने इस नदी के पुनरोद्धार पर सैकड़ों करोड़ रुपए खर्च किए हैं पर समस्या का निराकरण कहीं दिखता तक नहीं है. इस नदी में अभी फीकल कॉलीफॉर्म, एक बैक्टिरिया जो इंसानों और जानवरों के मल में मौजूद होता है, की उच्चतम मात्रा मौजूद है. 2018 के जनवरी-मार्च महीनों में मीठी नदी में यह बैक्टिरिया 1,600 प्रति 100 मिली था, जबकि केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) के मुताबिक यह तयशुदा मात्रा 100 प्रति 100 मिली ही होनी चाहिए.
हालांकि, 2005 में मुंबई में आई बाढ़ के बाद राज्य सरकार ने मीठी रिवर डिवेलपमेंट ऐंड प्रोटेक्शन अथॉरिटी (एमआरडीपीए) का गठन किया था और इसने ताजा जानकारी मिलने तक (2018 तक), इसके मद में 1,156 करोड़ रुपए खर्च कर दिए हैं.
करीबन डेढ़ दशक के पुनरोत्थान कार्य के बाद भी नदी की सांस घुट रही है. असल में, इंडिया टुडे में 2018 में प्रकाशित एक रिपोर्ट में लिखा गया कि इस रकम का अधिकतर हिस्सा नदी को गहरा और चौड़ा करने में खर्च हो गया. साथ में नदी के साथ की दीवारों की भी मरम्मत की गई. महाराष्ट्र सरकार के ताजा आंकड़े के मुताबिक, मीठी नदी को पुनर्जीवित करने का पूरा मद करीबन 2136.89 करोड़ रुपए है. इनमें से करीबन 1156.75 करोड़ रु. को 12 पुल बनाने. नदी को चौड़ा करने, दीवारें खड़ी करने, अतिक्रमण हटाने, सर्विस रोड बनाने और गाद हटाने में खर्च किया जा चुका है.
पर यह तो अगली बाढ़ से बचाव का रास्ता हुआ. यह तो महानगर का स्वार्थ है. नदी के लिए क्या काम हुआ? इस रिपोर्ट में लिखा गया कि उस वक्त मद में बचे 600 करोड़ को नदी पर मौजूद पांच पुलो, माहीम कॉजवे, तान्सा, तुलसी, धारावी और माहीम रेलवे ब्रिज को चौड़ा करने में खर्च किया जाना है. इससे नदी का संकरा रास्ता चौड़ा हो जाएगा.
पर नदी की सेहत की बात करें तो मीठी नदी में बायोकेमिकल ऑक्सीजन डिमांड (बीओडी) सुरक्षित स्तर से पांच गुना अधिक है. बीओडी पानी में जलीय जीवन के जीवित रहने के लिए जरूरी ऑक्सीजन की मात्रा होती है. हिंदुस्तान टाइम्स में प्रकाशित 2019 की एक रिपोर्ट में आइआइटी बॉम्बे और एनईईआरआइ को उद्धृत करते हुए कहा है कि औद्योगिक अपशिष्ट और ठोस कचरे ने मीठी नदी को एक खुले नाले में बदल दिया है.
वैसे इस नदी को साफ करना कोई खेल नहीं है. इसके दोनों किनारों पर करीब 15 लाख लोग झुग्गियों में रहते हैं.
द हिंदू में प्रकाशित जून, 2019 एक लेख में महाराष्ट्र के पर्यावरण मंत्री रामदास कदम को उद्धृत किया गया है जिन्होंने 2015 में कहा था कि मीठी नदी में 93 फीसद अपशिष्ट घरेलू है जबकि बाकी का 7 फीसद ही औद्योगिक कचरा है. पर सचाई यह है कि इस नदी के किनारे करीबन 1500 औद्योगिक इकाईयां है और उनमें से अधिकतर अपना अपशिष्ट सीधे इसी नदी में बहाते हैं.
असल में इस नदी के किनारे की झुग्गियों में कचरा निस्तारण व्यवस्ता ठीक नहीं है. ऐसे में लोगों को सारा अपशिष्ट नदी में ही डालने पर मजबूर होना होता है.
2004 में मीठी नदी के प्रदूषण पर महाराष्ट्र प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड में एक रिपोर्ट दाखिल की गई जिसमें कहा गया कि यह नदी अपने उद्गम पर ही प्रदूषित हो जाती है. रिपोर्ट के मुताबिक, "नदी घनी आबादी से होकर बहती है और इस आबादी का सीवेज इस नदी को मुंबई के सबसे बड़े नाले में बदल देता है."
मीठी नदी, मुंबई |
पर डेढ़ दशक के बाद और हजार करोड़ रुपए बहाने के बाद आज भी मीठी नदी की हालत जस की तस ही है. वैसे महाराष्ट्र में पिछली फड़णवीस सरकार ने मीठी को बचाने के लिए एक रिवर एंदेम बनाया था. पर, नदी को बचाने के लिए घाट, सड़क-पुल-दीवार बनाना झुंझला देने वाली बात है.
हमारी नदियों को आरती और चुनर चढ़ाए जाने की ज़रूरत नहीं है. उनमें सीवर का मल नहीं, साफ पानी बहे, तब उनकी जान बचेगी. मीठी नदी मर गई तो मुंबई के लिए सबक कड़वा होगा.
Friday, February 7, 2020
नदीसूत्रः स्वर्ग ले जानी वाली नदी वैतरणी आखिर है किधर
नदियों के नामों को लेकर पिछली एक पोस्ट पर बहुत दिलचस्प जानकारियां मुझे मिली थीं और आपके साथ साझा भी किया था. इसको आगे बढ़ाने का मन है.
हिंदुओं के लिए गरुण पुराण बेहद महत्वपूर्ण है. मुमुक्षुओं के लिए इसकी महत्ता काफी अधिक है और आखिरी सांसें गिन रहे लोगों को यह पुराण पढ़कर सुनाया जाता है. गुरुड़ पुराण के मुताबिक, मरने के बाद वैतरणी नाम की नदी पार करनी होती है. बहरहाल, ओडिशा में एक नदी है जिसका नाम वैतरणी है. इसके बेसिन को ब्राह्मणी-वैतरणी बेसिन कहा जाता है. लेकिन इसके साथ ही महाराष्ट्र में भी एक वैतरणी नदी है, जो नासिक के पास पश्चिमी घाट से निकलती है और अरब सागर में गिरती है. अब इसमें से किस नदी को पार करने पर स्वर्ग मिलेगा यह स्पष्ट नहीं है.
वैतरणी से थोड़ी ही दूरी पर मशहूर गोदावरी का भी उद्गम स्थल है, और नासिक के पास से निकलकर यह प्रायद्वीपीय भारत की सबसे लंबी नदी बन जाती है. इसको दक्षिण की गंगा भी कहते ही हैं. लेकिन, एक अदद गोदावरी नेपाल में भी है. वैसे, बुंदेलखंड के चित्रकूट में एक गुप्त गोदावरी भी निकलती है और जो एक पहाड़ी गुफा के भीतर से पतली धारा के रूप में बहती है. गोदावरी की सहायक नदी है इंद्रावती, जो छत्तीसगढ़ में बहती है पर एक इंद्रावती नेपाल में भी मौजूद है.
उत्तर प्रदेश की प्रदूषित नदियों में शर्मनाक रूप से टॉप पर रहने वाली गोमती नदी की बात करें तो एक गोमती त्रिपुरा में भी है जो वहां से आगे बांग्लादेश में घुस जाती है. इसी नदी पर त्रिपुरा में का सबसे बड़ा और बदनाम बांध बना हुआ है. गंगा का नाम तो नदी शब्द का करीबन पर्यायवाची ही बन गया है. आदिगंगा से लेकर गोरीगंगा और काली गंगा से लेकर वनगंगा और बाल गंगा तक नाम की नदियां अस्तित्व में हैं.
पंजाब की रावी का एक नाम इरावती भी है. लेकिन, एक और इरावती है. पर यह इरावती नमाइ और माली नदियों के मिलने से बनती है और म्यांमार में बहती है. यह हिमालयी हिमनदों से शुरू होती है. पंजाब वाली रावी पाकिस्तान होती हुई सिंधु में मिल जाती है और म्यांमार वाली इरावदी अंडमान सागर में.
परिणीता दांडेकर लिखती हैं कि कावेरी नाम की भी दो नदियां हैं. एक तो वह मशहूर कावेरी नदी, जिसके पानी के लिए तमिलनाडु और कर्नाटक में रार मचा रहता है. जबकि दूसरी कावेरी पश्चिम की तरफ बहने वाली नदी नर्मदा की सहायक नदी है और दांडेकर के मुताबिक, ओंकारेश्वर नर्मदा और कावेरी के संगम पर ही बसा है.
दांडेकर अपने लेख में चर्चा करती हैं कि हांगकांग में सतलज, झेलम और व्यास नदियां मौजूद हैं. संभवतया, यह 1860 के आसपास हुआ जब हांगकांग में तैनात पंजाब के सिख सैनिकों ने वहां की नदियों के नाम अपने पसंद के रख दिए. हांगकांग की सबसे बड़ी ताजे पानी की नम भूमि लॉन्ग वैली को दोआब नाम दिया गया और यह वहां की सतलज और व्यास के बीच की भूमि है. शायद, इन छोटे मैदानों को देखकर सिख फौजियों को अपने वतन की याद आती होगी.
दांडेकर अपने लेख में धीमान दासगुप्ता को उद्धृत करती हैं जो कहते है कि लोग अपने साथ कुछ नाम भी लिए चलते हैं. मसलन, "प्राचीन वैदिक लोग अपने साथ नाम लेकर चले थे. असली सरस्वती और सरयू नदियां (जिनका जिक्र रामायण में है, अफगानिस्तान और ईरान में थीं. असली यमुना फारस की मुख्य देवी थीं." जाहिर है, इतिहास के इस नए नजरिए के साथ भी देखना चाहिए.
नदियों के नामों में वैदिक संस्कृत का प्रभाव स्पष्ट रूप से कर्नाटक में दिखता है जहां शाल्मला, नेत्रावती, कुमारधारा, पयस्विनी, शौपर्णिका, स्वर्णा, अर्कावती, अग्नाशिनी, कबिनी, वेदवती, कुमुदावती, शर्वती, वृषभावती, गात्रप्रभा, मालप्रभा जैसी नदियों के नाम मौजूद हैं.
गुजरात की नदियों साबरमती और रुक्मावती का नाम याद करिए. कितने सुंदर और शास्त्रीय नाम हैं! लेकिन एक नदी वहां ऐसी भी है जिसका नाम है भूखी. एक अन्य नदी है उतावली. राजस्थान अलवर जिले में एक नदी का नाम जहाजवाली भी है.
कुछ नदियों के नाम भी वक्त के साथ बदले हैं जैसे, गोदावरी आंध्र प्रदेश में गोदारी कही जाने लगती है और पद्मा बांग्लादेश में पोद्दा. चर्मावती चंबल हो जाती है और वेत्रावती, बेतवा.
दांडेकर लिखती हैं, कुछ नदियों के नाम में इलाकाई और भाषायी असर भी आता है. मसलन, तमिल और मलयालम में आर और पुझा (यानी नदी) कई नदियों के नाम में जुड़ा हुआ है. गौर कीजिए, चालाकुडी पूझा, पेरियार, पेंडियार वगैरह. इसी तरह भूटान, सिक्कम और तवांग इलाके में छू का मतलब नदी ही होता है. अब वहां की नदियों हैं, न्यामजांगछू या राथोंग छू. तो अब इसके आगे नदी शब्द मत लगाइए. क्योंकि पहले ही छू कहकर नदी कह चुके हैं. असम में भी नदियों के नाम के आगे कुछ खास शब्द लगाए जाते हैं, और वो हैं दि. दिहांग, दिबांग, दिखोऊ, दिक्रोंग आदि. बोडो में दि शब्द का मतलब होता है पानी और याद रखिए ब्रह्मपुत्र घाटी में सबसे पहले बसने का दावा भी बोडी ही करते हैं.
जाहिर है, नदियों के नाम इतिहास के सूत्र छोड़ते हैं. भाषा विज्ञानियों को इस दिशा में काम करना चाहिए.
Tuesday, February 4, 2020
पिछले साल रहा मौसम बेहाल, अब खेती में राहत की उम्मीद
लेकिन 2019 में मौसम से जुड़े मामले कुछ ठीक नहीं रहे थे.
2019 का साल अति प्राकृतिक घटनाओं का साल रहा. देश को लू के थपेड़ों के बाद अतिवृष्टि, और चक्रवातों के बाद बारी हिमपात और शीतलहर का सामना करना पड़ा था. पर अब सर्दियों में हुई ठीक-ठाक बारिश से इस बार रबी की फसल बढ़िया होने की उम्मीद जगी है. सरकार की कोशिश अब इसके जरिए मंदी से निपटने की होनी चाहिए
पिछले 25 साल के मुकाबले हालांकि, मॉनसून अधिक रहा था और मानक बरसात से 110 फीसद अधिक बारिश हुई थी. गुजरात, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र को बाढ़ का सामना करना पड़ा था. इसके साथ ही कुल मिलाकर 9 चक्रवातीय तूफान भी आए थे. यही नहीं, करेला नीम पर तब चढ़ा जब दिसंबर महीने में उत्तर भारत में शीतलहर की सबसे लंबी अवधि भी रिकॉर्ड की गई. हिमालयी राज्य़ों में अक्तूबर से लेकर दिसंबर तक भारी हिमपात भी दर्ज किया गया. पिछले साल अप्रैल से जून के महीने में मॉनसून से पहले भारी लू भी चली थी. जबकि, मॉनसून के बाद अक्तूबर से दिसंबर तक की अवधि में अतिवृष्टि भी हुई.
हालांकि इस बढ़िया बरसात ने देश के जलाशयों का पेट भर दिया है. इसका असर रबी की अच्छी बुआई पर पड़ा था. मिट्टी में नमी की मौजूदगी ने फसल उत्पादकता पर भी असर डाला है. और इस बार इस असर को सकारात्मक मानना चाहिए. हालांकि, रबी की पैदावार पर सर्दियों का तापमान भी प्रभावित करता है और अच्छा जाड़ा पड़ने से वह भी सकारात्मक ही रहा है.
स्काइमेट की रिपोर्ट के मुताबिक, गेहूं की पैदावार में इस सीजन में करीबन 10.6 फीसद की बढ़ोतरी होगी और पिछले सीजन के 10.21 करोड़ टन के मुकाबले इस बार उपज 11.30 टन के आसपास रहने की उम्मीद है.
मौसम के मद्देनजर चने और धान की पैदावार में भी बढ़ोतरी होगी. तिलहन की फसल भी अच्छी होने की उम्मीद है जिससे खाद्य तेलों की मौजूदा महंगाई को थामा जा सकेगा. जाहिर है, किसानों की परेशानी के दौर में यह एक बढ़िया खबर तो है पर आगे की भूमिका सरकार को निभानी होगी जो किसानों की उपज को सही तरीके से खरीदे. किसानों के पास क्रयशक्ति बढ़ेगी तो बाजार में छाई मंदी से भी निपटा जा सकेगा.
Wednesday, January 29, 2020
नदीसूत्रः ...और जी उठी पौराणिक महत्व की नदी छोटी सरयू
हाल में खबर आई कि उत्तर प्रदेश शासन ने घाघरा नदी, जिसको अयोध्या के आसपास के टुकड़े को सरयू कहा जाता था, का नाम बदलकर सरयू कर दिया. नाम बदलने में कोई बुराई नहीं. पर आराध्य राम से जुड़ी सरयू नदी पर सरकार की इतनी कृपा है तो थोड़ी कृपादृष्टि तो छोटी सरयू पर भी बनती थी. आजमगढ़ की नदियों पर काम कर रहे और गैर-सरकारी संस्था लोक दायित्व के संयोजक पवन कुमार सिंह ने 2018 में छोटी सरयू को मूल सरयू का नाम देकर इसको बचाने के लिए अभियान प्रारम्भ किया. उनका कहना है कि छोटी सरयू ही मूल सरयू है.
बहरहाल, 2018 तक स्थिति यह थी कि आकार में काफी हद तक सिकुड़ चुकी छोटी सरयू नदी का क्षेत्रफल लगातार सिमटता जा रहा था. (अभी यह बहुत संकरे बरसाती नाले की रूप में है) साफ-सफाई न होने से नदी का प्रवाह थम-सा गया था. आजमगढ़ के लाटघाट से शुरू हुआ 59 किलोमीटर का सफर तय करते-करते नगर की तलहटी में प्रवाहित तमसा तक आते-आते नदी का पानी काला पड़ जाता था. नदी का अस्तित्व मिटने के कगार पर पहुंच गया था पर प्रशासन मौन ही रहा.
आंबेडकर नगर जिले से निकली छोटी सरयू नदी आजमगढ के विभिन्न इलाकों से होते हुए बड़गांव ब्लाक क्षेत्र से होते हुए कोपागंज ब्लाक के सहरोज गांव के पास टौंस नदी में मिल जाती है. एक जमाना था कोपागंज ब्लॉक क्षेत्र के सिंचाई का एकमात्र साधन छोटी सरयू नदी थी. सैकड़ों गांवों के लोग पेयजल के लिए भी इसी पर निर्भर थे.

लेकिन प्रदूषण की मार से कहीं-कहीं नदी का पानी इतना जहरीला हो गया है कि पशु भी इसका पानी पीने से कतराते हैं. इस नदी में पानी की कमी थी और गर्मियों में हालात और भी खराब थे.
आजमगढ़ जिले के महुआ गढ़वल रेगुलेटर से समय-समय पर पानी छोड़ा जाता, तो नदी में थोड़ी जिंदगी लौट आती थी. अतिक्रमण सुरसा की तरह अलग मुंह फाड़े नदी को निगल रही थी (यह संकट अब भी है) लोकदायित्व संस्था के पवन सिंह कहते हैं, "सिकुड़ती नदियां और उनका प्रदूषण आज राष्ट्रीय चिंता का विषय है. गंगा, यमुना, गोदावरी, नर्मदा आदि बड़ी नदियों पर सरकारी प्रोजेक्ट चल रहे हैं. इन बड़ी नदियों को पोषित करने वाली छोटी नदियों की दुर्दशा पर भी लोगों को और प्रशासन को ध्यान देना चाहिए."
बहरहाल, लोकदायित्व और पवन सिंह ने दायित्व उठाया कि छोटी सरयू को दोबारा जिलाया जाए.
असल में, आजमगढ़ जिले में छोटी-बड़ी मिलाकर लगभग डेढ़ दर्जन नदियां हैं जिनके बेसिन में पानी का ऐसा संकट है कि वहां डार्क जोन बन रहा है. पवन सिंह कहते हैं कि आजमगढ़ जिले के उत्तरी इलाके के तमाम गांव में जलस्तर काफी नीचे चला गया है और पानी प्रदूषित हो चुका है. जबकि इस क्षेत्र में सरयू नदी का एक बड़ा तंत्र रहा है, जिसके अवशेष आज भी दिखते हैं. ऐसी ही एक नदी है- छोटी सरयू.
लोकदायित्व ने 2018 में छोटी सरयू को मूल सरयू का नाम देकर इसको बचाने के लिए अभियान प्रारम्भ किया.
छोटी सरयू कम्हरिया घाट से करीब तीन किमी पूर्व की तरफ कम्हरिया मांझा से निकलती है. यहां से कुछ आगे गढ़वल बाजार के पूरब से आती स्थानीय नदी पिकिया इसमें मिलती है. इस संगम पर मोहरे बाबा का स्थान है. आंबेडकर नगर जिले के प्रसिद्ध पौराणिक स्थल भैरव बाबा पर अतरौलिया बाजार की तरफ से एक नदी (जिसे सरकारी अभिलेख में छोटी सरयू भाग-1 कहा गया है) आकर मिलती है. बहवलघाट होते हुए यह नदी प्रसिद्ध सलोना ताल के बाद मऊ जिले में प्रवेश करती है.
छोटी सरयू की पौराणिकता की तरफ इशारा करते हुए श्रीराम सांस्कृतिक शोध संस्थान दिल्ली के डॉ. रामअवतार शर्मा ने कहा है कि विश्वामित्र के यज्ञ की रक्षा के लिए राम और लक्ष्मण इसी के दाहिने किनारे से आगे गए थे. स्थानीय किंवदन्ती है कि 23वें त्रेतायुग में प्रजापति दक्ष ने यहीं पर यज्ञ किया था और यहीं पर यज्ञकुंड में माता सती ने अपने प्राण दिए थे.
छोटी सरयू की व्यथा का आरंभ होता है 1955 में आई बाढ़ से. जब बाढ़ के समाधान के तौर पर इलाके में महुला गढ़वल बांध बनाया गया. इस बांध ने छोटी सरयू को बड़ी सरयू से अलग कर दिया, जिसके कारण छोटी सरयू में प्रवाहित जल से रिश्ता टूट गया, और वह बरसात के जल पर निर्भर हो गयी. जब तक बारिश ठीक होती रही नदी अपने जीवन को किसी तरह बचाती रही. धीरे धीरे जलस्तर गिरता गया नदी सिकुड़ती गयी और नदी का चरित्र बदलता गया. नदी में गिरनेवाले नालों की संख्या बढ़ती गयी जिससे उसमें जलकुंभियां और अन्य वनस्पतियां घर बनाने लगीं.
पवन सिंह कहते हैं, "नदी वेगेन शुद्धयति. नदी को शुद्ध रखना है तो उसकी अविरलता को बचाना होगा. प्रवाह में आने वाली बाधाओं को रोकना होगा. पानी में नालों के माध्यम से गिरने वाले खनिजयुक्त व उर्वर पदार्थों को रोकना होगा. महुला गढ़वल बांध पर रेगुलेटर लगाकर बाढ़ के समय नियंत्रित जल मूल सरयू में छोड़ना होगा. अवैध कब्जों को हटाना होगा. यह सभी कार्य न ही अकेले सरकार कर सकती है और न ही कोई एजेंसी. इसलिए जनजागरूकता फैलाकर लोगों को प्रशिक्षित कर इस अभियान से जोड़ना होगा."

इस नदी की हालत देखकर 25 स्वयंसेवकों की टोली के साथ लोक दायित्व और पवन सिंह ने काम करना शुरू किया. उस समय नदी में जलकुंभी और कचरे की भीषण समस्या थी. लगातार छह महीने की मेहनत से भैरव स्थल पर नदी की सूरत बदल गई है. नदी साफ लगने लगी और लोग उसमें कूड़ा फेंकना भी बंद कर चुके हैं.
इस साफ-सफाई में अच्छी बात यह हुई कि नदी तल में तीन पातालतोड़ कुएं भी निकल आए, जिससे नदी को नवजीवन मिल रहा है.
छोटी सरयू का जी जाना यह यकीन दिलाता है कि जो समाज अपने विरासतों को संभालकर रखना चाहता है, जिसके लिए नदी की पूजा कर्मकांड नहीं है, असल में वही समाज जीवित है.
(इस ब्लॉग के लिए तस्वीरें लोकदायित्व संस्था ने मुहैया कराई हैं)
Tuesday, January 14, 2020
नदीसूत्रः गंगाजल पाइपलाईन योजना बिहार सरकार का मायोपिक विजन है
सरकारें विकास की योजनाओं को लेकर किस कदर मायोपिक होती हैं इसकी ताजा मिसाल है बिहार सरकार की गंगा वॉटर लिफ्ट योजना. 18 दिसंबर की शाम बिहार सरकार की कैबिनेट की मंजूरी के बाद सूबे के जल संसाधन मंत्री संजय कुमार झा ने फूले न समाते हुए ट्वीट कियाः "जल संसाधन मंत्रालय के प्रस्ताव को मिली कैबिनेट मंजूरी से आह्लादित हूं. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की जल जीवन हरियाली अभियान के तहत यह बहुमुखी और अनूठी योजना गंगा वॉटर लिफ्ट स्कीम गया, बोधगया और राजगीर जैसे शहरों में पेयजल मुहैया कराएगी."
नीतीश कुमार और संजय झा |
उनका अगला ट्वीट अधिक सूचनाप्रद था जिसमें बिहार के जल संसाधन मंत्री ने बताया, "गंगाजल लिफ्ट स्कीम के पहले चरण का बजट 2836 करोड़ रुपए है और इससे गया को 43 एमसीएम (मिलियन क्यूबिक मीटर) और राजगीर को 7 एमसीएम पानी मुहैया कराया जाएगा. यह जल दोनों ऐतिहासिक और धार्मिक महत्व के दोनों शहरों की जरूरतों के लिहाज से पर्याप्त होगा."
झा का तीसरा ट्वीट यह बताने के लिए काफी था कि गंगा का पानी ही फल्गु नदी में श्रद्धालुओं के नहाने के लिए छोड़ा जाएगा. क्योंकि इस भारी-भरकम बजट वाली योजना का कुछ फायदा तो आम लोगों के लिए दिखना चाहिए था. झा के ट्वीट के मुताबिक, 'यह योजना बिहार सरकार की उस कोशिश का हिस्सा है जिसके तहत सरकार फल्गु नदी में साफ पानी उपलब्ध कराना चाहती है.'
सवाल है कि आखिर इस योजना को लेकर शक क्यों है?
शक इसलिए है कि फल्गु नदी को आखिर गंगा का पानी चाहिए ही क्यों? गया जिले में बारिश कम नहीं होती. मौसम विभाग के साइट पर जाएं तो आंकड़े बताते हैं कि गया के पूरे इलाके में औसतन बरसात 110 सेमी के आसपास होती है. लेकिन सचाई यह है कि गया नगर निगम के तहत आने वाले 70 फीसदी घरों में नल का पानी नहीं आता. पूरे जिले में भूजल तेजी से नीचे गिर रहा है.
यह स्थिति तब है जब गया में फल्गु नदी के साथ ही साथ पड़ोस में दो और नदियां, जमुनी और मोरहर मौजूद हैं. दो साल पहले गया के जिलाधिकारी संजय सिंह ने इन नदियों का पानी शहर तक पहुंचाने की योजना बनाई थी. पर इस योजना का नामलेवा कोई नहीं बचा. आखिर, सरकार पानी के नाम पर वाकई कुछ बड़ा करना चाहती थी.
बिहार सरकार भी कभी फल्गु को गंगा से जोड़ने तो कभी फल्गु को सोन नदी से जोड़ने को लेकर दुविधा में रही.
बहरहाल, गंगा का पानी 170 किलोमीटर लंबे पाइपलाईन के जरिए मोकामा से गया तक लाने का काम किसी को मछली देने जैसा है, जबकि मछली पकड़ना सिखाना बेहतर विकल्प होता. बिहार सरकार ने गया के पानी की समस्या को निबटाने के लिए गया के गिरते भूजल को सुधारने की योजना क्यों नहीं बनाई? खासकर तब, जब गया जैसे इलाके में तालाब और पोखरे बनाकर और वर्षा जल संचयन के जरिए भूमिगत जल का स्तर ठीक किया जा सकता था.
वैज्ञानिक मानते हैं कि पानी को आयात करना समस्या का महज फौरी निवारण ही है. वॉटरशेड मैनेजमेंट, यानी स्थानीय बारिश को रोककर रखना, उससे भूमिगत जल के स्तर को दुरुस्त करना और बारिश के पानी को रोककर शहर में उसकी आपूर्ति करना न सिर्फ दीर्घकालिक समाधान होता बल्कि पाइप लाईन बिछाने से अधिक सस्ता और त्वरित भी होता. सरकार को गया, राजगीर, नवादा जैसे इलाकों में अधिकाधिक तालाब खुदवाने चाहिए थे. इससे मछली उत्पादन भी बढ़ता, खेतों के सिंचाई के लिए भी पानी मिलता और कुओं में भी पानी आ जाता. साथ भी यह ध्यान भी रखना चाहिए था कि गया के इलाके में अभी भी अच्छी खासी खेती होती है, जो बिना पानी के मुमकिन नहीं है. गया का इलाका अभी भी बुंदेलखंड जैसी स्थिति में नहीं पहुंचा है. हां, नदियों को जोड़ना फैशन और चलन में आ गया है तो बात और है.
दूसरी तरफ, खुद गंगा अपने अस्तित्व के लिए लड़ रही है. अगर गर्मियों में उससे 50 एमसीएम पानी निकाल लिया जाएगा, तो खुद इसके पारितंत्र पर क्या असर पड़ेगा इसका क्या कोई अध्ययन बिहार सरकार ने कराया है?
असल में, सरकारों को लगता है कि नदी में पानी बहकर और बचकर निकल जाए तो वह पानी की बरबादी है. जबकि ऐसा है नहीं और मोकामा से अगर 50 एमसीएम पानी निकाल लिया जाएगा तो उसके आगे बड़ी मात्रा में नदी के बेड में गाद भी जमा होगी. क्या राज्य सरकार उसके लिए तैयार है?
गया के आसपास जिस तरह की धरती है वहां वॉटरशेड प्रबंधन बहुत कारगर भी साबित होता. पिछली गर्मियों में मिथिला क्षेत्र के दरभंगा और मधुबनी जैसे जिलों में भी अमूमन सालों भर पानी से भरे रहने वाले पोखरे सूख गए थे, वैसे में उनको जिलाने की कोई योजना सरकार की निगाह में नहीं है. पर, गंगा का पानी गया भेजने की योजना को जिसतरह फटाफट लागू करने की तैयारी है और जिस तरह से उसके लिए रकम भी जारी की गई है, उससे तो सरकार के विकास वाले विजन पर सवालिया निशान और भी गहरा ही हो गया है.
हां, जद-यू का अगले साल के चुनावी मैदान का विजन स्पष्ट दिख जरूर रहा है.
Monday, January 13, 2020
कार्बन उत्सर्जन और पानी की कमी के बहाने ऊंटों को मारने का ऑस्ट्रेलिया का प्रपंच
खबर ऑस्ट्रेलिया से है और बेहद हृदय विदारक है. ऑस्ट्रेलिया में अधिकारियों ने तय किया है कि अगले पांच दिनों में दस हजार ऊंटों को गोली मार कर खत्म कर दिया जाएगा. वजह इतनी है कि ऊंट पानी बहुत पीते हैं. ऑस्ट्रेलिया ऊंटों को मारने के पीछे अपना कार्बन फुटप्रिंट कम करने की वजह भी बता रहा है. पर क्या यह वाकई तार्किक है या बहाना है?
अधिकारियों की योजना है कि इन ऊंटों को मारने के लिए हेलिकॉप्टर लगाए जाएंगे. पर दावानल से परेशान ऑस्ट्रेलिया का यह कदम अबूझ मालूम पड़ रहा है.
प्रतीकात्मक तस्वीर |
न्यूज एजेंसी आइएएनएस को अनांगू पित्जानत्जारा यान्कुन्त्याजारा (एबोरिजनल आबादी के लिए बना स्थानीय और विरल आबादी का इलाका) के कार्यकारी बोर्ड सदस्य मारीटा बेकर ने बताया है कि कान्यपी के उनके इलाके में ये ऊंट उनके समुदाय के लिए मुश्किलें खड़ी कर रहे थे.
बेकर के मुताबिक, ये ऊंट उनके एयरकंडीनर तोड़ देते थे (पानी की तलाश में) और घरों की बाड़ को भी नुक्सान पहुंचा रहे थे.
एक ऐसे देश (और महादेश) में, जहां, बकौल सिडनी विश्वविद्यालय के शोधार्थियों के, नवंबर से लगी दावानल में 4.80 करोड़ जानवर जलकर मर गए हों, बेकुसूर ऊंटों का जान से मारने का फैसला समझ से परे है.
असल में ऐसे संकटग्रस्त देश में जिसका मुखिया अभी हवाई में छुट्टियां मना रहा है, आखिर ऊंटों को मारना कितना न्यायसंगत है? वजह और तर्क सिर्फ वही नहीं है जो बताई जा रही हैं.
ऑस्ट्रेलिया में ऊंटो को हमेशा से नफरत की निगाह से ही देखा जाता रहा है. उनको आक्रमणकारी प्रजाति (इनवैसिव स्पीशीज) माना जाता है और उनके साथ करीबन वैसा ही बरताव होता है जैसा हम भारत में खर-पतवार या चूहों के साथ करते हैं.
चूंकि ऑस्ट्रेलिया दुनिया भर में अमेरिका के बाद दूसरा सबसे अधिक कार्बन उत्सर्जक देश है तो उस पर कार्बन उत्सर्जन कम करने का भी दबाव है. पर इसके लिए कार की संख्या कम करने की बजाए उसे ऊंटों को मारना अधिक मुफीद लग रहा है.
विडंबना यह है कि ऑस्ट्रेलिया की सरकार कार्बन उत्सर्जन कम करने के वास्ते न तो अपने कोयला आधारित उद्योगों पर लगाम लगाने को तैयार है न ऑटोमोबाइल्स पर. गौरतलब यह भी है कि ऑस्ट्रेलिया में कोयला आधारित उद्योग सालाना करीबन 53.4 करोड़ टन कार्बन उत्सर्जन करता है. कोयला खनन ऑस्ट्रेलिया के लिए बेहद अहम है, पर कार्बन और ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन में इसका हिस्सा इसकी पूरी अर्थव्यवस्था से भी अधिक है.
दुनिया भर में अगर यह तर्क चल निकला तो सोचिए जरा दक्षिण एशिया में क्या होगा. इस तर्क के मुताबिक तो भारत-बांग्लादेश-थाईलैंड-श्रीलंका-नेपाल जैसे धान उत्पादक देशों के किसानों को भी गोली मारनी होगी क्योंकि उनके धान के खेतों में पानी की भी खपत होती है और धान के खेतों के साथ उनके पशुधन से सबसे अधिक मीथेन उत्सर्जित होता है. यह बात दूर की कौड़ी है पर फिलहाल जान ऊंटों की जा रही है क्योंकि ऊंट न तो विरोध प्रदर्शन कर सकते हैं, न बोल सकते हैं. उनको दौड़ाकर गोली मारना आसान भी है.
Wednesday, January 8, 2020
नदीसूत्रः सोन से रूठी नर्मदा हमसे न रूठ जाए
ब्याह तय हो गया. अब तक नर्मदा ने शोणबद्र के रूप-गुण और जांबाजी के बारे में बहुत कुछ सुन लिया था. मन ही मन चाहने लगी थी. शादी में कुछ दिन बाकी थे कि रहा न गया नर्मदा से. दासी जुहिला के हाथो शोणभद्र को संदेशा भिजवा ही दियाः एक बार मिल तो लो.
शोणभद्र ने भी नर्मदा को देखा तो था नहीं सो पहली मुलाकात में जुहिला को ही नर्मदा समझ बैठा. जुहिला की नीयत भी शोण को देखकर डोल गई. उसने सच छिपा लिया, कहा, मैं ही हूं नर्मदा.
दासी जुहिला के आने में देरी हुई तो नर्मदा खुद चल पड़ी शोणभद्र से मिलने. वह पहुंची तो देखती क्या है, जुहिला और शोणभद्र प्रेमपाश में हैं. अपमान और गुस्से से भरी नर्मदा वहां से उल्टी दिशा में चल पड़ी फिर कभी ना लौटने के लिए.
शोण ने बहुतेरी माफी मांगी पर नर्मदा ने धारा नहीं बदली. आज भी जयसिंहनगर में गांव बरहा के पास जुहिला नदी को दूषित नदी माना जाता है और सोन से इसका बाएं तट पर दशरथ घाट पर संगम होता है. वहीं नर्मदा उल्टी दिशा में बह रही होती है. अब भी शोण के प्रेम में, पर अकेली और कुंवारी...
वही नर्मदा एक बार फिर अकेली पड़ गई है.
नर्मदा की सूखती सहायक नदी का पाट फोटोः सोशल मीडिया |
मध्य प्रदेश में जंगल का इलाका काफी सिकुड़ा है और आंकड़े इसकी तस्दीक भी करते हैं. 2017 की भारत सरकार का वन सर्वेक्षण की रिपोर्ट बताती है कि मध्य प्रदेश में 1991 में जंगल का इलाका 1,35,755 वर्ग किमी था जो 2011 में घटकर 77,700 वर्ग किमी रह गया. इसमें अगले चार साल में और कमी आई और 2015 में यह घटकर 77,462 वर्ग किमी हो गया. 2017 में सूबे में वन भूमि 77,414 वर्ग किमी रहा. जाहिर है, तेजी से खत्म होते जंगलों की वजह से नर्मदा के जलभर (एक्विफर) भरने वाले सोते खत्म होते चले जा रहे हैं.
2018 में नर्मदा कई जगहों पर सूख गई थी. नर्मदा प्रायद्वीपीय भारत की सबसे बड़ी नदियों मे से एक है और मध्य प्रदेश के अमरकंटक से निकलती है. इस नदी पर बने छह बड़े बांधों ने इसके जीवन पर संकट पैदा कर दिया है. छह ही क्यों, नर्मदा घाटी विकास परियोजना के तहत 30 बड़े और 135 मझोले बांध हैं.
वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टीट्यूट (डब्ल्यूआरआइ) की एक रिपोर्ट में इसे दुनिया की उन छह नदियों में रखा है जिसके सामने अस्तित्व का संकट आन खड़ा हुआ है. रिपोर्ट के मुताबिक, 2017 में तो इस नदी में जल का ऐसा संकट आ खड़ा हुआ था कि गुजरात सरकार ने सरदार सरोवर बांध से सिंचाई के लिए पानी लेने पर भी बंदिश लगा दी थी. जानकार बताते हैं, कि इस नदी के बेसिन पर बहुत अधिक दबाव बन रहा है और बढ़ती आबादी की विकासात्मक जरूरतें पूरी करने के लिहाज का नर्मदा का पानी कम पड़ता जा रहा है.
एसएएनडीआरपी वेबसाइट पर परिणीता दांडेकर लिखती हैं कि महेश्वर बांध पर उन्हें ऐसे लोग मिले जो कहते हैं कि अगर जमीन के बदले जमीन दी जाती है, मकान के बदले मकान, तो नदी के बदले नदी भी दी जानी चाहिए.
नर्मदा ही नहीं तमाम नदियों के अस्तित्व पर आए संकट का सीधा असर तो मछुआरा समुदाय पर पड़ता है. उन्हें कोई मुआवजा नहीं मिलता, कोई पुनर्वास नहीं होता, उनके लिए किसी पैकेज का प्रावधान नहीं. रोजगार नहीं.
नर्मदा पर बांध बनने के बाद से, दांडेकर लिखती हैं, कि उन्हें बताया गया कि मछली की कई नस्लें विलुप्ति के कगार पर पहुंच गई हैं. झींगे तो बचे ही नगीं. गेगवा, बाम (ईल) और महशीर की आबादी में खतरनाक तरीके से कमी आई है.
न्यूज वेबसाइट फर्स्टपोस्ट में प्रकाशित एक खबर में आइआइटी दिल्ली के शोध छात्र के हवाले से एक आंकड़ा दिया गया है जिसके मुताबिक, मध्य प्रदेश में नर्मदा की 41 सहायक नदियां अपने अस्तित्व के संकट से जूझ रही हैं.
शोणभद्र से रूठी नर्मदा का आंचल खनन और वनों की कटाई से तार-तार हो रहा है. डर है, मां रेवा कहीं अपनी संतानों से सदा के लिए न रूठ जाए.
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Thursday, December 19, 2019
नदीसूत्रः सोने के कणों वाली नदी स्वर्णरेखा की क्षीण होती जीवनरेखा
हर नदी के पास एक कहानी होती है. स्वर्णरेखा नदी के पास भी है. झारखंड की इस नदी को वैसे ही जीवनदायिनी कहा जाता है जैसे हर इलाके में एक न एक नदी कही जाती है. पर झारखंड की यह नदी, अपने नाम के मुताबिक ही सच में सोना उगलती है.
यह किस्सा स्वर्णरेखा के उद्गम के पास के गांव, नगड़ी के पास रानीचुआं के लोकमानस में गहराई से रचा-बसा है कि अज्ञातवास के समय पांडव यहां आकर रहे थे, इसीलिए गांव का नाम पांडु है. खास बात यह है कि स्वर्णरेखा के उद्गम का नाम रानी चुआं इसलिए पड़ा क्योंकि एकबार जब इस निर्जन इलाके में रानी द्रौपदी को प्यास लगी तो अर्जुन ने बाण मारकर इसी स्थल से पानी निकाला था, जो आज भी मौजूद है. समय के साथ नदी का नाम स्वर्णरेखा पड़ गया.
वैसे भी मिथक सच या झूठ के दायरे से वह थोड़े बाहर होते हैं. यह पता नहीं कि पांडु गांव, पांडवों के अज्ञातवास और अर्जुन के बाण से निर्मित रानी चुआं की कहानी कितनी सच है? लेकिन यह मिथक कतई नहीं है कि स्वर्णरेखा झारखंड की गंगा की तरह है और गंगा की तरह ही इसको देखना अब रोमांचकारी कम और निराशाजनक ज्यादा हो गया है.
पर स्वर्णरेखा नदी से सोना निकलता जरूर है, पर यह कोई नहीं जानता कि इसमें सोना आता कहां से है. स्वर्णरेखा नदी में स्वर्णकणों के मिलने के कारण इस क्षेत्र के स्वर्णकारों के लिये इस नदी की खास अहमियत है. किंवदन्ती है कि इस इलाके पर राज करने वाले नागवंशी राजाओं पर जब मुगल शासकों ने आक्रमण किया तो नागवंशी रानी ने अपने स्वर्णाभूषणों को इस नदी में प्रवाहित कर दिया, जिसके तेज धार से आभूषण स्वर्णकणों में बदल गए और आज भी प्रवाहमान है.
आज भी आप जाएं तो नदी में सूप लिए जगह-जगह खड़ी महिलाएं दिख जाएंगी. इलाके के करीब आधा दर्जन गांवों के परिवार इस नदी से निकलने वाले सोने पर निर्भर हैं. कडरूडीह, पुरनानगर, नोढ़ी, तुलसीडीह जैसे गांवों के लोग इस नदी से पीढियों से सोना निकाल रहे हैं. पहले यह काम इन गांवों के पुरुष भी करते थे, लेकिन आमदनी कम होने से पुरुषों ने अन्य कामों का रुख कर लिया, जबकि महिलाएं परिवार को आर्थिक मदद देने के लिए आज भी यही करती हैं.
नदी की रेत से रोज सोना निकालने वाले तो धनवान होने चाहिए? पर ऐसा है नहीं. हालात यही है कि दिनभर सोना छानने वालों के हाथ इतने पैसे भी नहीं आते कि परिवार पाल सकें. नदी से सोना छानने वाली हर महिला एक दिन में करीब एक या दो चावल के दाने के बराबर सोना निकाल लेती है. एक महीने में कुल सोना करीब एक से डेढ़ ग्राम होता है. हर दिन स्थानीय साहूकार महिला से 80 रुपए में एक चावल के बराबर सोना खरीदता है. वह बाजार में इसे करीब 300 रुपए तक में बेचता है. हर महिला सोना बेचकर करीब 5,000 रुपए तक महीने में कमाती है.
395 किलोमीटर लंबी यह बरसाती नदी देश की सबसे छोटी अंतरराज्यीय (कई राज्यों से होकर बहने वाली) नदी है जिसके बेसिन का क्षेत्रफल करीब 19 हजार वर्ग किमी है. यह रांची, सरायकेला-खरसावां, पूर्वी सिंहभूम, पश्चिमी मेदिनीपुर (पश्चिम बंगाल) और बालासोर (ओडिशा) से होकर बहती है. पर जानकारों का कहना है कि यह नदी अब सूखने लगी है और इसके उद्गम स्थल पर यह एक नाला होकर रह गई है. जानकारों के मुताबिक, इस नदी में कम होते पानी की वजह से भूजल स्तर भी तेजी से गिरता जा रहा है. काटे जा रहे जंगलों की वजह से मृदा अपरदन भी बढ़ गया है.
हालांकि इस नदी पर बनने वाले चांडिल और इछा बांध का आदिवासियों ने कड़ा विरोध किया और यहां 6 जनवरी, 1979 को हुई पुलिस फायरिंग में चार आदिवासियों ने अपनी जान दे दी. परियोजना चलती रही और 1999 में इस परियोजना पर भ्रष्टाचार की कैग की रिपोर्ट के बाद इसे पूरे होने में 40 साल का समय लगा. परियोजना तो पूरी हुआ लेकिन इसमें चस्पां स्थानीय लोगों के लिए रोजगार और बिजली मुहैया कराने के वायदे पूरे नहीं हुए.
इस नदी की बेसिन में कई तरह के खनिज हैं. सोने का जिक्र हम कर ही चुके हैं. पर इन सबने नदी की सूरत बिगाड़ दी. खनन और धातु प्रसंस्करण उद्योगों ने नदी को प्रदूषित करना भी शुरू कर दिया है. अब नदी के पानी में घरेलू और औद्योगिक अपशिष्टों के साथ-साथ रेडियोसक्रिय तत्वों की मौजूदगी भी है. खासकर, खुले खदानों से बहकर आए अयस्क इस नदी की सांस घोंट रहे हैं.
ओडिशा के मयूरभंज और सिंहभूम जिलों में देश के तांबा निक्षेप सबसे अधिक हैं. 2016 में किए गिरि व अन्य वैज्ञानिकों के एक अध्ययन के मुताबिक, सुवर्ण रेखा नदी में धात्विक प्रदूषण मौजूद है. अब नदी और इसकी सहायक नदियों में अवैध रेत खनन तेजी पर है. इससे नदी की पारिस्थितिकी खतरे में आ गई है.
इस नदी बेसिन के मध्यवर्ती इलाके में यूरेनियम के निक्षेप है. यूरेनियम खदानों के लिए मशहूर जादूगोड़ा का नाम तो आपने सुना ही होगा. मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, रेडियोसक्रिय तत्व इस खदान के टेलिंग पॉन्ड से बहकर नदी में आ रहे हैं.
जमशेदपुर शहर, जो इस नदी के बेसिन का सबसे बड़ा शहर है, का सारा सीवेज सीधे नदी में आकर गिरता है. और अब इसके पानी में ऑक्सीजन की मात्रा घटती जा रही है और नदी के पानी में बायोलॉजिकल ऑक्सीजन डिमांड (बीओडी) तय मानक से अधिक हो गया है, जबकि बायोलॉजिकल ऑक्सीजन डिमांड मानक से कम होना चाहिए. झारखंड राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने स्वर्णरेखा नदी के पानी के नमूने की जांच कराई तो पता चला कि अधिकतर जगहों पर पानी में ऑक्सीजन की मात्रा कम पाई गई.
स्थिति यह है कि स्वर्णरेखा नदी का पानी जानवरों और मछलियों के लिए सुरक्षित नहीं है. जानवरों और मछलियों के लिए पानी में बायोलॉजिकल ऑक्सीजन डिमांड की मात्रा 1.2 मिलीग्राम से कम होनी चाहिए, जबकि 7.0 मिलीग्राम प्रति लीटर तक है. इसकी वजह से काफी संख्या में मछलियां नदी में मर रही हैं इसके साथ ही साथ जानवरों को भी कई तरह की बीमारियां हो रही हैं.
स्वर्णरेखा और खरकई नदियों का संगम, जमशेद पुर के ठीक पास में है और यहां आप लौह अयस्क के कारखानों से निकले स्लग को देख सकते हैं. हालांकि, भाजपा नेता (अब बागी) सरयू राय ने 2011 में इसे लेकर जनहित याचिका दायर की थी, और तब टाटा स्टील ने जवाब में कहा कि यह स्लग शहर की जनता को स्वर्णरेखा की बाढ़ से बचाने के लिए जमा किया गया है. हाइकोर्ट ने टाटा को यह जगह साफ करने को कहा था. हालांकि इस पर हुई कार्रवाई की ताजा खबर नहीं है.
इस इलाके में मौजूद छोटी और बड़ी औद्योगिक इकाइयों, लौह गलन भट्ठियों, कोल वॉशरीज और खदानों ने नदी की दुर्गति कर रखी है.
बहरहाल, खेती, पर्यटन और धार्मिक-आध्यात्मिक केंद्र के नजरिए से सम्भावनाओं से भरे स्वर्णरेखा नदी में उद्गम से लेकर मुहाने तक, इस इलाके में पांडवों से लेकर चुटिया नागपुर के नागवंशी राजाओं से जुड़े मिथकों का प्रभाव कम और हकीकत के अफसाने ज्यादा सुनाई पड़ते हैं. मृत्युशैय्या पर पड़ी जीवनरेखा स्वर्णरेखा की आखिरी सांसों में फंसे अफसाने.
Monday, November 25, 2019
नदीसूत्रः कहीं गोवा के दूधसागर झरने का दूधिया पानी गंदला लाल न हो जाए
इन दिनों गोवा में अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव की धूम हुआ करती है. मांडवी के किनारे कला अकादमी और और पुराने मेडिकल कॉलेज के पीछे आइनॉक्स थियेटर में गहमागहमी होती है. फिल्मों के बीच थोड़ी छुट्टी लेकर लोगबाग मांडवी के तट पर टहल आते हैं. ज्यादा उत्साही लोग दूधसागर जलप्रपात भी घूमने जाते हैं. दूधसागर जलप्रपात पर ही मांडवी नदी थोड़ा ठहरती है और आगे बढ़ती है. दूधसागर यानी दूध का सागर. इस नाम के पीछे भी एक दिलचस्प किस्सा है.
बहुत पहले, पश्चिमी घाट के बीच एक झील हुआ करती थी जहां एक राजकुमारी अपनी सखियों के साथ रोज स्नान करने आती थी. स्नान के बाद राजकुमारी घड़ा भर दूध पिया करती थी. एक दिन वह झील में अठखेलियां कर ही रही थी, कि वहां से जाते एक नवयुवक की उन पर नजर पड़ गई और वह नौजवान वहीं रुककर नहाती हुई राजकुमारी को देखने लग गया.
अपनी लाज रखने के लिए राजकुमारी की सखियों ने दूध का घड़ा झील में उड़ेल दिया ताकि दूध की परत के पीछे वे खुद को छुपा सकें. कहा जाता है कि तभी से इस जलप्रपात का दूधिया जल अनवरत बह रहा है.
पर अब यह दूधिया पानी लाल रंग पकड़ने लगा है. लौह अयस्क ने मांडवी को जंजीरों में बांधना शुरू कर दिया है. लौह अयस्क का लाल रंग मांडवी के पानी को बदनुमा लाल रंग में बदलने लगा है.
माण्डवी नदी जिसे मांडोवी, महादायी या महादेई या कुछ जगहों पर गोमती नदी भी कहते हैं, मूल रूप से कर्नाटक और गोवा में बहती है. गोवावाले तो इसको गोवा की जीवन रेखा भी कहते हैं. मांडवी और जुआरी, गोवा की दो प्रमुख नदियां हैं.
लंबाई के लिहाज से मांडवी नदी बहुत प्रभावशाली नहीं कही जा सकती. जिस नदी की कुल लंबाई ही 77 किलोमीटर हो और जिसमें से 29 किलोमीटर का हिस्सा कर्नाटक और 52 किलोमीटर गोवा से होकर बहता हो, आप उत्तर भारत की नदियों से तुलना करें तो यह लंबाई कुछ खास नहीं है. पर व्यापारिक और नौवहन की दृष्टि से यह देश की सबसे महत्वपूर्ण नदियों में से एक है और यह इसकी ताकत भी है और कमजोरी भी.
इस नदी का उद्गम पश्चिमी घाट के तीस सोतों के एक समूह से होता है जो कर्नाटक के बेलगाम जिले के भीमगढ़ में है. नदी का जलग्रहण क्षेत्र, कर्नाटक में 2,032 वर्ग किमी और गोवा में 1,580 वर्ग किमी का है. दूधसागर प्रपात और वज्रपोहा प्रपात, मांडवी के ही भाग हैं.
गोवा में खनिजों में लौह अयस्क सबसे महत्वपूर्ण हैं और राज्य के राजस्व का बड़ा हिस्सा भी. लेकिन लौह अयस्क के गाद ने राज्य की दोनों प्रमुख नदियों की सांस फुला दी है. गोवा की नदियों पर हुए एक हालिया अध्ययन कहता है कि लौह अयस्क की गाद से दोनों नदियां दिन-ब-दिन उथली होती जा रही हैं. और इसका असर नदियों की तली में रहने वाले जलीय जीवन पर पड़ने लगा है.
गोवा विश्वविद्यालय के सागर विज्ञान विभाग के एक अध्ययन में बात सामने आई है कि राज्य की बिचोलिम लौह और मैगनीज के अयस्कों की वजह से बेहद प्रदूषित है वहीं मांडवी नदी के प्रदूषकों में मूल रूप से लौह और सीसा (लेड) हैं.
बिचोलिम उत्तरी गोवा जिले में बहती है और मांडवी की सहायक नदी है. इस अध्ययन में इस बात पर चिंता जताई गई है कि दक्षिणी गोवा जिले में बहने वाली जुआरी नदी और उसके नदीमुख (एस्चुअरी) पर भी धात्विक प्रदूषण का असर होगा.
गोवा में खनिज उद्योग करीबन पांच दशक पुराना है और 2018 में मार्च में उस पर रोक लग गई थी जब सुप्रीम कोर्ट ने 88 लौह अयस्क खदानों के पट्टों का नवीकरण खारिज कर दिया था. गोवा विश्वविद्यालय के शोधार्थियों सिंथिया गोनकर और विष्णु मत्ता ने गोवा की नदियों और उसकी तली के पारितंत्र पर खनन के असर और जुआरी नदी की एस्चुअरी (जहां नदी समुद्र में मिलती है) पर धात्विक प्रदूषण के बारे में अध्ययन किया है.
यह अध्ययन रिसर्च जरनल इनवायर्नमेंट ऐंड अर्थ साइंसेज में छपा है और इसमें कहा गया है कि उत्तरी गोवा में रफ्तार से हुए खनन की वजह से प्रदूषण बढ़ा है. इस में गोवा की तीन नदियों बिचोलिम, मांडवी और तेरेखोल से नमूने लिए गए था.
अध्ययन के मुताबिक, बिचोलिम नदी में लौह और मैगनीज के साथ सीसे और क्रोमियम का भी प्रदूषण बडे पैमाने पर मौजदू है. इनमें से सीसा और क्रोमियम भारी धातु माना जाता है और इसके असर से कैंसर का खतरा होता है. जबकि मांडवी नदी में मैगनीज और सीसे का प्रदूषण है. तेरेखोल नदी (जो हाल तक प्रदूषण से पूरी तरह मुक्त थी) में तांबे और क्रोमियम (यह भी खतरनाक है) जैसे धातुओं की भारी मात्रा मौजूद है.
गौरतलब है कि इन नदियों में बड़े पैमाने पर जहाजों के जरिए अयस्कों का परिवहन किया जाता है और इससे अयस्क नदी में गिरते रहते हैं. खुले खदानों से बारिश में घुलकर अयस्कों का मलबा भी आकर नदियों में जमा होता है. इससे नदियों की तली में गाद जमा होने गई है और इसने तली के पास रहने वाले या तली में रहने वाले जलीय जीवों का भारी नुक्सान किया है.
अध्ययन के मुताबिक, जुआरी नदी के पानी में ट्रेस मेटल्स (सूक्ष्म धातुओं) की मात्रा खनन के दिनों के मुकाबले खनन पर बंदिश के दौरान में काफी कम रही हैं. इससे साफ है कि यह प्रदूषण खनन की वजह से ही हो रहा है.
मांडवी पर गोवा के लोग उठ खड़े हुए हैं. सरकार भी सक्रिय हुई है और राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण ने भी आदेश दे दिया है. कोशिश यही होनी चाहिए कि मांडवी का जल गाद में जकड़ न जाए और दूधसागर प्रपात का जल दूधिया ही रहे, गंदला लाल न हो जाए.
Friday, November 8, 2019
नदीसूत्रः पूर्णिया की सरस्वती बनने को अभिशप्त है सौरा नदी
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पूर्णिया की सौरा नदी की एक धारा. फोटोः पुष्यमित्र |
देश में नदियों के सूखने या मृतप्राय होते जाने पर खबर नहीं बनती. चुनावी घोषणापत्रों में अमूमन इनका जिक्र नहीं होता. बिहार को जल संसाधन में संपन्न माना जाता है और अतिवृष्टि ने बाजदफा लोगों को दिक् भी किया है. इस बार तो राज्य के उप-मुख्यमंत्री भी बेघर हो गए थे.
पर इसके बरअक्स एक कड़वी सचाई यह भी है कि एक समय में बिहार में लगभग 600 नदियों की धाराएं बहती थीं, लेकिन अब इनमें से अधिकतर या तो सूख चुकी हैं और अपना अस्तित्व खोने के कगार पर पहुंच चुकी हैं. नदी विशेषज्ञों का कहना है कि नदी की इन धाराओं की वजह से न केवल क्षेत्र की अर्थव्यवस्था को मजबूत किया था, बल्कि इससे क्षेत्र का भूजल भी रिचार्ज होता था, लेकिन आज हालात बदल चुके हैं.
विशेषज्ञों का कहना है कि सिर्फ बिहार में ही लगभग 100 नदियां, जिनमें लखंदी, नून, बलान, कादने, सकरी, तिलैया, धाधर, छोटी बागमती, सौरा, फालगू आदि शामिल हैं, खत्म होने की कगार पर हैं.
पिछले नदीसूत्र में हमने सरस्वती का जिक्र किया था और आज आपको बता रहे हैं भविष्य की सरस्वती बनकर विलुप्त होने को अभिशप्त नदी सौरा का.
बिहार के भी पूरब में बसा है खूबसूरत शहर पूर्णिया, जो अब उतना खूबसूरत नहीं रहा. ब्रिटिश काल की छाप लिए इस शहर में एक नदी सौरा बहती थी. नदी बहती तो अब भी है, पर बीमार हो रही है. बहुत बीमार.
पूर्णिया में नदियों को बचाने के लिए अभियान चलाने वाले अखिलेश चंद्रा के मुताबिक, यह नदी लंदन की टेम्स की तरह थी, जो पूर्णिया शहर के बीचों-बीच से गुजरती थी, अब पूरी तरह सूख चुकी है और यहां अब शहर का कचरा डाला जा रहा है.
अखिलेश अपनी एक रिपोर्ट में लिखते हैं, कभी 'पुरैनियां' में एक सौम्य नदी बहती थी सौरा. कोसी की तरह इसकी केशराशि सामान्य दिनों में छितराती नहीं थी. जो 'जट' कभी अपनी 'जटिन' को मंगटिक्का देने का वादा कर 'पू-भर पुरैनियां' आते थे, उन्हें यह कमला नदी की तरह दिखती थी. जटिन जब अपनी कोख बचाने के लिए खुद पुरैनियां आती थी, तो गुहार लगाती थी, "हे सौरा माय, कनी हौले बहो...ननकिरबा बेमार छै...जट से भेंट के बेगरता छै...(हे सौरा माई, आहिस्ते बहिए. बच्चा बीमार है. जट से मुलाकात की सख्त जरूरत है)
...और दुख से कातर हो सौरा नदी शांत हो जाती थी.
अपने लेख में अखिलेश सौरा को 'जब्बर नदी' कहते हैं. जब्बर ऐसी कि कभी सूखती ही नहीं थी. पर बदलते वक्त ने, बदलती जरूरतों, इनसानी लालच और आदतों ने इसे दुबला बना दिया है. नदी का दाना-पानी बंद हो गया है. लोग सांस थामे इसे मरते देख रहे हैं. अखिलेश लिखते हैं, हमारी मजबूरी ऐसी है कि हम शोकगीत भी नहीं गा सकते!
असल में, बदलते भारत की एक विडंबना यह भी है कि हमने जिन भी प्रतीकों को मां का दर्जा दिया है, उन सबकी दुर्गति हो गई है. चाहे घर की बूढ़ी मां हो या गंगा, गाय और हां, पूर्णिया की सौरा नदी भी. इसे दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि हमें जिन प्रतीकों की दुर्गति करनी होती है, उसे हम मां का दर्जा दे देते हैं.
चंद्रा लिखते हैं कि पूर्णिया शहर को दो हिस्सों में बांटने वाली सौरा नदी को सौर्य संस्कृति की संवाहक है. पर पिछले कुछ वर्षों से इस पर जमीन के कारोबारियों की काली नजर लग गई. नतीजतन, अनवरत कल-कल बहने वाली नदी की जगह पर कंक्रीट के जंगल फैल गए हैं.
एक समय था जब सौरा नदी में आकर पूर्णिया और आसपास के इलाकों में सैकड़ों धाराएं मिलती थीं और इसकी प्रवाह को ताकत देती थीं, लेकिन अब ऐसी धाराएं गिनती की रह गई हैं. इन धाराओं के पेटे में जगह-जगह पक्के के मकान खड़े कर दिए गए. नतीजतन सौरा की चौड़ाई कम होती जा रही है.
हालांकि सौरा बेहद सौम्य-सी दिखने वाली नदी है, पर इसका बहुत सांस्कृतिक महत्व है. इसके नामकरण को लेकर अब भी शोध किये जा रहे हैं. लेकिन, यह माना जाता है कि सूर्य से सौर्य और सौर्य से सौरा हुआ, जिसका तारतम्य जिले के पूर्वी अंतिम हिस्से से सटे सुरजापुर परगना से जुड़ा रहा है.
पूर्णिया-किशनगंज के बीच एक कस्बा है सुरजापुर, जो परगना के रूप में जाना जाता है. बायसी-अमौर के इलाके को छूता हुआ इसका हिस्सा अररिया सीमा में प्रवेश करता है. यह इलाका महाभारतकालीन माना जाता है, जहां विशाल सूर्य मंदिर का जिक्र आया है. पुरातत्व विभाग की एक रिपोर्ट में भी सौर्य संस्कृति के इतिहास की पुष्टि है. वैसे यही वह नदी है, जहां आज भी छठ महापर्व के मौके पर अर्घ देने वालों का बड़ा जमघट लगता है.
अररिया जिले के गिधवास के समीप से सौरा नदी अपना आकार लेना शुरू करती है. वहां से पतली-सी धारा के आकार में वह निकलती है और करीब 10 किलोमीटर तक उसी रूप में चलती है. श्रीनगर-जलालगढ़ का चिरकुटीघाट, बनैली-गढ़बनैली का धनखनिया घाट और कसबा-पूर्णिया का गेरुआ घाट होते हुए सौरा जब बाहर निकलती है, तो इसका आकार व्यापक हो जाता है और पूर्णिया के कप्तानपुल आते-आते इसका बड़ा स्वरूप दिखने लगता है.
यह नदी आगे जाकर कोसी में मिल जाती है. एक समय था, जब सौरा इस इलाके में सिंचाई का सशक्त माध्यम थी. मगर, बदलते दौर में न केवल इसके अस्तित्व पर संकट दिख रहा है, बल्कि इसकी महत्ता भी विलुप्त होती जा रही है.
नदी के आसपास के हिस्से पर आज कंक्रीट के जंगल खड़े हो गए हैं. पूर्णिया में सौरा नदी के पानी के सभी लिंक चैनल बंद हो गए. अंग्रेजों के समय सौरा नदी का पानी निकलने के लिए लाइन बाजार चौक से कप्तान पुल के बीच चार पुल बनाए गए थे. ऊपर से वाहन और नीचे से बरसात के समय सौरा का अतिरिक्त पानी निकलता चला जाता था. आज पुल यथावत है, पर उसके नीचे जहां नदी की धारा बहती थी, वहां इमारतें खड़ी हैं. इधर मूल नदी का आकार भी काफी छोटा हो गया है. नदी के किनारे से शहर सट गया है.
हालांकि सोशल मीडिया पर अब पूर्णियावासी सौरा को बचाने के लिए सक्रिय हो गए हैं. फेसबुक पर सौरा नदी बचाओ अभियान नाम का एक पेज बनाया गया है और पूर्णिया शहर के नाम पर बने पेज पर भी लगातार सौरा के बारे में लिखा जा रहा है. स्थानीय अखबारों की मदद से सौरा से जुड़े अभियानों पर लगातार लिखा जा रहा है और जागरूकता भी फैलाई जा रही है. पर असली मसला तो भू-माफिया के चंगुल से सौरा को निकालना है. और उससे भी अधिक बड़ा दोष तो एक इंच और जमीन कब्जा कर लेने की हम सबकी बुनियादी लालची प्रवृत्ति की तरफ जाता है.
सौरा को संजीवनी देनेवाली धाराओं के मुंह बंद किए जा रहे हैं. ऐसे में लग तो यही रहा है कि अगली पीढ़ी सौरा को 'सरस्वती' के रूप में याद करेगी और उसके अस्तित्व की तलाश करेगी. दुख है कि पूर्णिया की सौरा नदी अगली सरस्वती बन रही है.
Friday, October 25, 2019
नदीसूत्रः कहीं पाताल से भी न सूख जाए सरस्वती
हरियाणा में विधानसभा चुनाव के नतीजे आ रहे हैं और लग रहा है जैसे कि कांग्रेस के सूखते जनाधार में निर्मल जल का एक सोता फूटकर उसे फिर से जीवित कर गया हो. हरियाणा ही संभवतया सरस्वती की भूमि भी रही है. हरियाणा का नाम लेते ही कुरुक्षेत्र और सरस्वती नदी, ये दो नाम तो जेह्न में आते ही हैं. तो आज के नदीसूत्र में बात उसी सरस्वती नदी की, जिसके बारे में मान्यता है कि वह गुप्त रूप से प्रयागराज में संगम में शामिल होती है. वही नदी जो वैदिक काल में बेहद महत्वपूर्ण हुआ करती थी.
वैसे, खबर यह भी है कि केंद्रीय जलशक्ति मंत्रालय ने प्रयागराज में एक ऐसी सूखी नदी का भी पता लगाया है जो गंगा और यमुना को जोड़ती है. राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन के मुताबिक, इस खोज का मकसद था कि एक संभावित भूमिगत जल के रिचार्ज स्रोत का पता लगाया जाए.
इस प्राचीन नदी के बारे में मंत्रालय ने बताया कि यह 4 किमी चौड़ी और 45 किमी लंबी है और इसकी जमीन के अंदर 15 मोटी परत मौजूद है. पिछले साल दिसंबर में इस नदी की खोज में सीएसआइआर-एनजीआरआइ (नेशनल जियोफिजिक्स रिसर्च इंस्टिट्यूट) और केंद्रीय भूमिगत जल बोर्ड ने एक जियोफिजिकल हवाई सर्वे के दौरान किया.
बहरहाल, अगर यह सरस्वती है तो वह कौन सी सरस्वती है जिसको हरियाणा और राजस्थान में खोजने की कोशिश की गई थी? क्या सरस्वती ने भारतीय उपमहाद्वीप के विवर्तनिक प्लेट की हलचलों की वजह से अपना रास्ता बदल लिया? वह नदी कहां लुप्त हो गई?
आज से करीब 120 साल पहले 1893 में यही सवाल एक अंग्रेज इंजीनियर सी.एफ. ओल्डहैम के जेहन में भी उभरा था, जब वे इस नदी की सूखी घाटी यानी घग्घर के इलाके से होकर गुजरे थे. तब ओल्डहैम ने पहली परिकल्पना दी कि हो न हो, यह प्राचीन विशाल नदी सरस्वती की घाटी है, जिसमें सतलुज नदी का पानी मिलता था. और जिसे ऋषि-मुनियों ने ऋग्वेद (ऋचा 2.41.16) में ''अम्बी तमे, नदी तमे, देवी तमे सरस्वती” अर्थात् सबसे बड़ी मां, सबसे बड़ी नदी, सबसे बड़ी देवी कहकर पुकारा है.
ऋग्वेद में इस भूभाग के वर्णन में पश्चिम में सिंधु और पूर्व में सरस्वती नदी के बीच पांच नदियों झेलम, चिनाब, सतलुज, रावी और व्यास की उपस्थिति का जिक्र है. ऋग्वेद (ऋचा 7.36.6) में सरस्वती को सिंधु और अन्य नदियों की मां बताया गया है. इस नदी के लुप्त होने को लेकर ओल्डहैम ने कहा था कि कुदरत ने करवट बदली और सतलुज के पानी ने सिंधु नदी का रुख कर लिया. हालांकि उसके बाद सरस्वती के स्वरूप को लेकर एक-दूसरे को काटती हुई कई परिकल्पनाएं सामने आईं.
1990 के दशक में मिले सैटेलाइट चित्रों से पहली बार उस नदी का मोटा खाका दुनिया के सामने आया. इन नक्शों में करीब 20 किमी चौड़ाई में हिमालय से अरब सागर तक जमीन के अंदर नदी घाटी जैसी आकृति दिखाई देती है.
अब सवाल है कि कोई नदी इतनी चौड़ाई में तो नहीं बह सकती, तो आखिर उस नदी का सटीक रास्ता और आकार क्या था? इन सवालों के जवाब ढूंढऩे के लिए 2011 के अंत में आइआइटी कानपुर के साथ बीएचयू और लंदन के इंपीरियल कॉलेज के विशेषज्ञों ने शोध शुरू किया.
इंडिया टुडे में ही छपी खबर के मुताबिक, 2012 के अंत में टीम का 'इंटरनेशनल यूनियन ऑफ क्वाटरनरी रिसर्च’ के जर्नल क्वाटरनरी जर्नल में एक शोधपत्र छपा. इसका शीर्षक था: जिओ इलेक्ट्रिक रेसिस्टिविटी एविडेंस फॉर सबसरफेस पेलिओचैनल सिस्टम्स एडजासेंट टु हड़प्पन साइट्स इन नॉर्थवेस्ट इंडिया. इसमें दावा किया गया: ''यह अध्ययन पहली बार घग्घर-हाकरा नदियों के भूमिगत जलतंत्र का भू-भौतिकीय (जिओफिजिकल) साक्ष्य प्रस्तुत करता है.” यह शोधपत्र योजना के पहले चरण के पूरा होने के बाद सामने आया और साक्ष्यों की तलाश में अभी यह लुप्त सरस्वती की घाटी में पश्चिम की ओर बढ़ता जाएगा.
पहले साक्ष्य ने तो उस परिकल्पना पर मुहर लगा दी कि सरस्वती नदी घग्घर की तरह हिमालय की तलहटी की जगह सिंधु और सतलुज जैसी नदियों के उद्गम स्थल यानी ऊंचे हिमालय से निकलती थी. अध्ययन की शुरुआत घग्घर नदी की वर्तमान धारा से कहीं दूर सरहिंद गांव से हुई और पहले नतीजे ही चौंकाने वाले आए. सरहिंद में जमीन के काफी नीचे साफ पानी से भरी रेत की 40 से 50 मीटर मोटी परत सामने आई. यह घाटी जमीन के भीतर 20 किमी में फैली है.
इसके बीच में पानी की मात्रा किनारों की तुलना में कहीं अधिक है. खास बात यह है कि सरहिंद में सतह पर ऐसा कोई संकेत नहीं मिलता जिससे अंदाजा लग सके कि जमीन के नीचे इतनी बड़ी नदी घाटी मौजूद है. बल्कि यहां तो जमीन के ठीक नीचे बहुत सख्त सतह है. पानी की इतनी बड़ी मात्रा सहायक नदी में नहीं बल्कि मुख्य नदी में हो सकती है. शोधकर्ताओं ने तब इंडिया टुडे का बताया कि यहां निकले कंकड़ों की फिंगर प्रिंटिंग से यह लगता है कि यह नदी ऊंचे हिमालय से निकलती थी. कोई 1,000 किमी. की यात्रा कर अरब सागर में गिरती थी. इसके बहाव की तुलना वर्तमान में गंगा नदी से की जा सकती है.
सरहिंद के इस साक्ष्य ने सरस्वती की घग्घर से इतर स्वतंत्र मौजूदगी पर मुहर लगा दी. यानी सतलुज और सरस्वती के रिश्ते की जो बात ओल्डहैम ने 120 साल पहले सोची थी, भू-भौतिकीय साक्ष्य उस पर पहली बार मुहर लगा रहे थे.
यानी सरस्वती की सहायक नदी सतलुज उसका साथ छोड़कर पश्चिम में खिसककर सिंधु में मिल गर्ई और पूर्व में सरस्वती और चंबल की घाटी में यमुना का उदय हो गया. ऐसे में इस बात को बल मिलता है कि भले ही प्रयाग में गंगा-यमुना-सरस्वती के संगम का कोई भूभौतिकीय साक्ष्य न मिलता हो लेकिन यमुना के सरस्वती के जलमार्ग पर कब्जे का प्रमाण इन नदियों के अलग तरह के रिश्ते की ओर इशारा करता है. उधर, जिन मूल रास्तों से होकर सरस्वती बहा करती थी, उसके बीच में थार का मरुस्थल आ गया. लेकिन इस नदी के पुराने रूप का वर्णन ऋग्वेद में मिलता है. ऋग्वेद के श्लोक (7.36.6) में कहा गया है, ''हे सातवीं नदी सरस्वती, जो सिंधु और अन्य नदियों की माता है और भूमि को उपजाऊ बनाती है, हमें एक साथ प्रचुर अन्न दो और अपने पानी से सिंचित करो.”
आइआइटी कानपुर के साउंड रेसिस्टिविटी पर आधारित आंकड़े बताते हैं कि कालीबंगा और मुनक गांव के पास जमीन के नीचे साफ पानी से भरी नदी घाटी की जटिल संरचना मौजूद है. इन दोनों जगहों पर किए गए अध्ययन में पता चला कि जमीन के भीतर 12 किमी से अधिक चौड़ी और 30 मीटर मोटी मीठे पानी से भरी रेत की तह है. जबकि मौजूदा घग्घर नदी की चौड़ाई महज 500 मीटर और गहराई पांच मीटर ही है. जमीन के भीतर मौजूद मीठे पानी से भरी रेत एक जटिल संरचना दिखाती है, जिसमें बहुत-सी अलग-अलग धाराएं एक बड़ी नदी में मिलती दिखती हैं.
यह जटिल संरचना ऐसी नदी को दिखाती है जो आज से कहीं अधिक बारिश और पानी की मौजूदगी वाले कालखंड में अस्तित्व में थी या फिर नदियों के पानी का विभाजन होने के कारण अब कहीं और बहती है. अध्ययन आगे बताता है कि इस मीठे पानी से भरी रेत से ऊपर कीचड़ से भरी रेत की परत है. इस परत की मोटाई करीब 10 मीटर है. गाद से भरी यह परत उस दौर की ओर इशारा करती है, जब नदी का पानी सूख गया और उसके ऊपर कीचड़ की परत जमती चली गई. ये दो परतें इस बात का प्रमाण हैं कि प्राचीन नदी बड़े आकार में बहती थी और बाद में सूख गई. और इन दोनों घटनाओं के कहीं बहुत बाद घग्घर जैसी बरसाती नदी वजूद में आई.
सैटेलाइट इमेज दिखाती है कि सरस्वती की घाटी हरियाणा में कुरुक्षेत्र, कैथल, फतेहाबाद, सिरसा, अनूपगढ़, राजस्थान में श्रीगंगानगर, हनुमानगढ़, थार का मरुस्थल और फिर गुजरात में खंभात की खाड़ी तक जाती थी. राजस्थान के जैसलमेर जिले में बहुत से ऐसे बोरवेल हैं, जिनसे कई साल से अपने आप पानी निकल रहा है. ये बोरवेल 1998 में मिशन सरस्वती योजना के तहत भूमिगत नदी का पता लगाने के लिए खोदे गए थे. इस दौरान केंद्रीय भूजल बोर्ड ने किशनगढ़ से लेकर घोटारू तक 80 किमी के क्षेत्र में 9 नलकूप और राजस्थान भूजल विभाग ने 8 नलकूप खुदवाए. रेगिस्तान में निकलता पानी लोगों के लिए आश्चर्य से कम नहीं है. नलकूपों से निकले पानी को भाभा एटॉमिक रिसर्च सेंटर ने 3,000 से 4,000 साल पुराना माना था. यानी आने वाले दिनों में कुछ और रोमांचक जानकारियां मिल सकती हैं.
वैज्ञानिक साक्ष्य और उनके इर्द-गिर्द घूमते ऐतिहासिक, पुरातात्विक और भौगोलिक तथ्य पाताल में लुप्त सरस्वती की गवाही दे रहे हैं. हालांकि विज्ञान आस्था से एक बात में सहमत नहीं है और इस असहमति के बहुत गंभीर मायने भी हैं. मान्यता है कि सरस्वती लुप्त होकर जमीन के अंदर बह रही है, जबकि आइआइटी का शोध कहता है कि नदी बह नहीं रही है, बल्कि उसकी भूमिगत घाटी में जल का बड़ा भंडार है.
अगर लुप्त नदी घाटी से लगातार बड़े पैमाने पर बोरवेल के जरिए पानी निकाला जाता रहा तो पाताल में पैठी नदी हमेशा के लिए सूख जाएगी, क्योंकि उसमें नए पानी की आपूर्ति नहीं हो रही है. वैज्ञानिक तो यही चाहते हैं कि पाताल में जमी नदी के पानी का बेहिसाब इस्तेमाल न किया जाए क्योंकि अगर ऐसा किया जाता रहा तो जो सरस्वती कोई 4,000 साल पहले सतह से गायब हुई थी, वह अब पाताल से भी गायब हो जाएगी.
(इस ब्लॉग को लिखने में इंडिया टुडे में पीयूष बबेले और अनुभूति बिश्नोई की रपटों को आधार बनाया गया है)