Tuesday, July 23, 2019

गंगा नहीं रहेगी तो देवी गंगा का क्या होगा?


नदियों को देवी के रूप में पूजने वाले देश में गोमुख के पास खड़े होकर यह सोचना कितनी पीड़ा की बात है कि यहां ग्लेशियर दिन ब दिन पीछे खिसक रहा है, वहां मैदानों में हम अपने घरों और उद्योगों का पूरा कूड़ा नदी में प्रवाहित कर रहे हैं. नदी ही नहीं बची, तो देवी मान कर जिस गंगा की पूजा हम करते हैं, उसका क्या होगा?


नदीसूत्रः तीन/गंगा/गंगोत्री

किसी पुराण में लिखा है कि सुमेरु पर्वत से चार नदियां, चार दिशाओं में निकलती हैं. आप अगर नक्शा देखें तो बात कुछ स्पष्ट होगी. बद्रीनाथ और केदारनाथ के बीच में, लगभग सात हजार मीटर ऊंचे चार खंभों की वजह से ही शायद इस स्थान को बद्रीनाथ-चौखम्बा नाम दिया गया है.

चौखम्बा के क्रोड गंगोत्री से गंगा निकलती है जो लगभग उत्तर-पश्चिम दिशा में पचीस किलोमीटर यात्रा कर गोमुख में भागीरथी को जन्म देती है. चौखम्बा के उत्तर-पूर्व में सतोपन्थ बांक और भागीरथी हिमनद हैं जो अलकनन्दा को जन्म देते हैं. चौखम्बा के पंद्रह किलोमीटर पश्चिम में सुमेरु पर्वत है जिसके क्रोड में से निकले हिमनद से मंदाकिनी का जन्म होता है.

सुमेरु पर्वत के लगभग उत्तर-पश्चिम में यमुनोत्री है. अब पता नहीं पुराणों में जो चार नदियों के चार दिशाओं में निकलने की बात है वह इसी सुमेरु से इन चार नदियों की बात है या उसका अर्थ सिंधु, ब्रह्मपुत्र, गंगा और सतलज से है. गोमुख हिमनद गंगा के जल का मुख्य स्रोत है. गंगोत्री से अठारह किलोमीटर ऊपर हिमालय में स्थित. यह हिमालय की सबसे बड़ी हिमनदों में से है, लगभग 27 घन किलोमीटर बड़ा. कुछ अध्ययन बताते हैं कि इसकी गहराई लगभग 200 मीटर है.

वैज्ञानिक कहते हैं कि ग्लेशियर तब बनते हैं जब लंबे समय तक हिम की परतें एक के ऊपर एक जमा हो जाती हैं. हिम की यह परतें कई सौ फुट मोटी हिमनदों का रूप ले लेती हैं. गंगोत्री हिमनद भी ऐसे ही बना होगा. हजारों वर्षों का इतिहास समेटे. मगर यहां लोगों के लिए यह सब सिर्फ किताबी बातें हैं.

जिस गुफा से यह हिमनद निकलता वह है गोमुख. गोमुख यानी गाय का मुख. जिस गुफा से गंगा नदी निकलती है वह कभी बिलकुल ऐसा ही था. गंगोत्री से गोमुख तक की यात्रा आसान नहीं है. अगर आप उसी दिन वापस आना चाहते हैं तो कंपकपाती सर्दी में तड़के चार बजे निकलना पड़ेगा. यूं आप चाहें तो भोजबासा में रात्रि विश्राम भी कर सकते हैं. भोजपत्र के पेड़ों की अधिकता के कारण ही इस स्थान का नाम भोजवासा पड़ा था, लेकिन अब तो इस जगह भोज वृक्ष गिनती के ही बचे हैं.

गंगोत्री से ही आक्सीजन की कमी महसूस होने लगती है. गोमुख को समझने की कोशिश कई शोधकर्ता सालों से कर रहे हैं. वैज्ञानिक पिछले कई वर्षों से चीख-चीखकर कह रहे हैं कि गोमुख ग्लेशियर पिघल रहा है. पहले से कही ज्यादा तेज गति से. कभी गोमुख क्षेत्र में 26 किमी लंबा और लगभग 3.5 किमी चौड़ा ग्लेशियर था जो अब दो-ढाई किमी पीछे सरक गया है.

जाहिर है इसके लिए ग्लोबल वॉर्मिंग को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है, जिसमें परमाफ्रॉस्ट यानी सालों भर बर्फ से जमे रहने वाले इलाके और ग्लेशियर भी पिघलते जा रहे हैं. शोध होना बाकी है कि क्या यह हर हिम युग के बाद आने वाला भौगोलिक भाषा में गर्म दौर का हिस्सा है या अत्यधिक इंसानी गतिविधियों और बढ़ती आबादी ने इस पर अपना बहुचर्चित असर डाला है.

क्या किसी को कभी भरोसा भी होगा कि यहां हिमालय की यह उत्तुंग श्रेणियां, जिनकी ऊंचाई को लेकर कभी-कभी आसमान की कुरसी भी हिल जाती होगी, वह कभी सागर की तलहटी का हिस्सा रहा होगा? हैरतअंगेज है, लेकिन है सच. भूगोल का हर छात्र अपने विषय की बुनियादी पढ़ाई यहीं से शुरू करता है. यह टेथिस सागर था. भूगोल ने इसे साबित किया है क्योंकि हिमालय की चोटियों के पत्थरों में मछलियों के जीवाश्म मिले हैं.

ग्लेशियर यानी हिमानियां अपना स्वरूप बदलती रहती हैं. कुछ समय से उनके आकार में कमी आई है. जलवायु परिवर्तन के प्रचलित सिद्धांत और मान्यताएं कहती हैं कि ग्रीन हाउस प्रभाव और अन्य ऐसी ही वजहों से वैश्विक तापमान में बढोत्तरी दर्ज की जा रही है, और पहाड़ों का हिमावरण तेजी से घटता जा रहा है.

जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया की रिपोर्ट बताती है कि 1935 से 1976 तक ही गोमुख ग्लेशियर 775 मीटर पीछे सरक गया था. यह पढ़ते हुए मुझे भूगोलवेत्ता ग्रीफिथ टेलर याद आए. विकास और पर्यावरण के द्वन्द्व में मुझे हमेशा ग्रीफिथ टेलर याद आते हैं. उनने विकास के मॉडल्स के बारे में 'रूको और जाओ' नीति का पक्ष लेने की बात कही थी. उन्होंने कहा था कि अंधाधुध विकास के कामों को शुरू करने से पहले हमेशा उसकी सततता के बारे में विचार करना चाहिए.

कथित विकास की अंधी दौड़ में हमें टिकाऊ या सतत विकास के बारे में सोचने का मौका ही नहीं मिलता.

ग्लेशियर हैं तो नदियां हैं, नदियां हैं तो जल, जंगल, और मानव सभ्यता और जीवन है. लेकिन सचाई यही है कि गंगा की बेसिन में क्लास एक शहरों के रूप में वर्गीकृत 36 शहर नदी में जाने वाले अपशिष्ट में 96 फीसदी गंदगी डालते हैं. केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की 2013 की रिपोर्ट के मुताबिक नदी के किनारे बसे शहर रोजाना 2,723 मिलियन लीटर घरेलू सीवेज इस नदी में ही प्रवाहित करते हैं. लेकिन यह महज एक अनुमान है और वास्तविकता इससे कहीं अधिक भयावह हो सकती है, क्योंकि बोर्ड का यह अनुमान शहरों में पानी की सप्लाई की मात्रा को लेकर की गई गणना है.

क्या आपको लगता है कि शहरों में जितना पानी इस्तेमाल होता है उतना पानी निगम वाले वाकई सप्लाई करते हैं? हर शहर में हैंडपंप और कुएं जैसे अलहदा साधन भी होते हैं. सीपीसीबी के पाया कि गंगा में रोजाना 6,000 मिलियन लीटर सीवेज नालों के जरिए गिराया जाता है.

कहने की जरूरत नहीं कि हमारे शहरों में इस सीवेज को उपचारित (ट्रीट) करने की क्षमता बेहद कम है. बेहद कम इसलिए, अगर हम दो तथ्यों पर ध्यान दें. पहली बात, सीवेज पैदा होने और उसके उपचार के बीच का अंतर हर साल 55 फीसदी का है. इसका अर्थ यह भी हुआ कि चाहे हम सीवेज ट्रीटमेंट में और अधिक क्षमता को जोड़ भी लें तो भी आबादी बढ़ोतरी की वजह से यह अंतर तो बना रहेगा.

आबादी में बढोतरी और सीवेज डिस्चार्ज की वास्तविक मात्रा के अनुमान को साथ रखकर गणना की जाए तो पता चलता है कि हमारी ट्रीटमेंट की क्षमता और सीवेज उत्पादन के बीच का अंतर 80 फीसदी तक बढ़ जाता है.

मैदानी इलाकों में गंगा के मुख्य धारा और इसकी दो सहायक नदियों राम गंगा और काली नदी के साथ कम से कम 764 औद्योगिक इकाईयां हैं जो नदी में 500 एमएलडी जहरीला अपशिष्ट उड़ेलती हैं.

गंगा के साथ दिक्कत यह है कि इसके किनारे अधिकतर शहरों में भूमिगत सीवेज सिस्टम भी नहीं है. खासकर प्रयागराज और वाराणसी जैसे शहरों को 80 फीसदी हिस्सा अभी भी सीवर की कवरेज में नही है. इन शहरों में अपशिष्ट तो पैदा हो रहा है लेकिन वह ट्रीटमेंट प्लांट तक नहीं पहुंचता.

नदियों को देवी के रूप में पूजने वाले देश में गोमुख के पास खड़े होकर यह सोचना कितनी पीड़ा की बात है कि यहां ग्लेशियर दिन ब दिन पीछे खिसक रहा है, वहां मैदानों में हम अपने घरों और उद्योगों का पूरा कूड़ा नदी में प्रवाहित कर रहे हैं.

नदी ही नहीं बची, तो देवी मान कर जिस गंगा की पूजा हम करते हैं, उसका क्या होगा?


Tuesday, July 16, 2019

नदीसूत्र दो: बढ़ती आबादी का बोझ उठा रही नदियां समंदर तक नहीं पहुंच पाएंगी

कुछेक साल पहले मैं गंगोत्री गया था. मेरी इच्छा गोमुख तक जाने की थी, सो थोड़ी फूलती सांस के साथ जब मैं वहां पहुंचा और मैंने चारों तरफ पलटकर देखा तो बस कालिदास याद आएः

आसीनानाम् सुरभितशिलम् नाभिगन्धैर्मृगाणाम्
तस्या एव प्रभवमचलम् प्राप्ते गौरम् तुषारैः.
वक्ष्यस्य ध्वश्रमदिनयने तस्य श्रृंगे निषण्णः शोभाम्
शुभ्रत्रिनयन वृशोत्खात्पंकोपमेयाम्..

—कालिदास, मेघदूत

(वहां से चलकर जब तुम हिमालय की उस हिम से ढंकी चोटी पर बैठकर थकावट मिटाओगे, जहां से गंगा निकलती है और जिसकी शिलाएं कस्तूरी मृगों के सदा बैठने से महकती रहती हैं. तब उस चोटी पर बैठे ही दिखाई देगा जैसे महादेव के उजले सांड़ के सींगों पर मिट्टी के टीलों पर टक्कर मारने से पंक जम गया हो.)
कालिदास के मेघदूत की इन पंक्तियों को मन में दोहराने के साथ गंगोत्री के आगे गोमुख के पास जब मैंने अपनी नजरें चारों तरफ फिराईं तो मन में एक ही विचार आया थाः ये हिमशिखर इस पृथ्वी के नहीं हो सकते! मुझे लगा कि मैं किसी और लोक में हूं. जहां तक नज़र जाती, हर तरफ सूरज की किरणें हिमकणों को जादुई तरीके से बदल रही थीं. मेरे चारों ओर बिखरे थे असंख्र्य हीरे, मोती, माणिक...चांदी-सी चमकती एक अनंत चादर पर.

आप गोमुख आएंगे तो आपको चारों ओर बिखरा मिलेगा, युगों का इतिहास, भविष्य की झलक, सच जैसा मिथक और जादुई यथार्थ, वेदों की ऋचाएं, ऋषियों का तप, और कवियों की कल्पना. इन हिमकणों ने एक कैलिडोस्कोप का रूप ले लिया है और इसमें दिख रहा है सूदूर इलाकों में बुझती प्यास, अपने खेतों को सींचता किसान, साईबेरिया से आकर बसेरा ढूंढते पक्षी, बुद्ध और शिव, ब्रह्मा का कमंडल, भागीरथ की तपस्या, वर्षा और बाढ़, आशा, निराशा, हताशा...और भारतवर्ष की असली परिभाषा.

और जब भी मैं भारतवर्ष, गंगा नदी, इसके बेसिन की बात करता हूं, मुझे असंख्य नरमुंड नजर आते हैं. गंगा के किनारे-किनारे आप चलते चले जाइए, गंगासागर तक. गंगा ही क्यों, इसकी हर सहायक नदी के तट पर भी आपको अपार जनसंख्या मिलेगी.

दुनिया की आबादी 7 अरब कब का पार कर गई. क्या हम ज़रूरत से ज्यादा हो गए हैं? अब बढ़ती आबादी पर कोई बात नहीं करता. राजनीति में बढ़ती आबादी पर रोक लगाना कोई मुद्दा नहीं है. इसमें धर्म का कोण भी आ जाता है.

लेकिन, हम चाहें लाख इस मुद्दे पर बात करने से कतराते रहें और अपनी जनसंख्या को अपने संसाधन बताते रहें, लेकिन कुछ अध्ययनों पर गौर करें तो नदियों और जल के संदर्भ में आने वाले संकट के संकेत दिखेंगे. हाल ही में, नीति आयोग ने संयुक्त जल प्रबंधन सूचकांक (कंपॉजिट वॉटर मैनेजमेंट इंडेक्स, सीडब्ल्यूएमआइ) विकसित किया है ताकि देश में जल प्रबंधन को प्रभावी बनाया जा सके. चेतावनी स्पष्ट है, साल 2030 तक देश में पानी की मांग उपलब्ध आपूर्ति की तुलना में दोगुनी होने वाली है.

इस परिदृश्य में, हर राज्य की जनसंख्या वृद्धि को देखा जाए, जिसका पूर्वानुमान भारतीय राष्ट्रीय जनसंख्या आयोग 2001-2026 ने 2006 में किया था. अब इसका पूर्वानुमान अब 2080 तक के लिए किया गया है. इसके मुताबिक, गंगा बेसिन में आबादी साल 2040 तक करीबन डेढ़ गुनी हो जाएगी. 2011 की जनगणना के मुताबिक, इस बेसिन की आबादी 45.5 करोड़ थी जो 2040 में बढ़कर 70.6 करोड़ हो जाएगी. बढ़ती आबादी के साथ शहरीकरण भी बढ़ेगा. शहरी आबादी में करीब 70 फीसदी वृद्धि होगी. शहरी आबादी मौजूदा 14.4 करोड़ से बढ़कर 24.3 करोड़ तक हो जाएगी. ग्रामीण आबादी में 35 फीसदी की बढोतरी होगी. यह मौजूदा (2011) के 34.1 करोड़ से पढ़कर 46.3 करोड़ हो जाएगी.



जाहिर है इस बढ़ी आबादी को खाने के लिए अनाज चाहिए होगा, नहाने और धोने के लिए पानी चाहिए होगा. अनाज उगाने के लिए पानी भी मौजूदा संसाधनों से ही खींचा जाएगा. असल में, पानी की मांग आबादी में बढोतरी के साथ उपभोक्ता मांग और विश्व बाजार के विकास से भी होता है.

वॉटर रिसोर्स ग्रुप का पूर्वानुमान कहता है कि साल 2030 तक सिंचाई के लिए पानी की जरूरत सालाना 2.4 फीसदी की दर से बढ़ेगी. यानी 2040 तक की गणना की जाए, तो पानी की मांग आज की तुलना में 80 फीसदी बढ़ जाएगी. इसी शोध पत्र में कहा गया है कि औद्योगिक क्षेत्र में उत्पादनों की जरूरतों के लिए पानी की मांग चौगुनी हो जाएगी.


विषय ऐसा है कि हमें और आपको चिंता करने की जरूरत है. दुनिया भर की मीठे पानी का महज 4 फीसदी हिस्सा हमारे पास है. आबादी को बोझ उससे कई गुना ज्यादा. जैसा कि गांधी जी कहते थे, प्रकृति के पास हमारी आवश्यकता पूरी करने लायक बहुत है, पर हमारी लालच पूरी करने लायक नहीं.

हमें दो मोर्चों पर काम करने की जरूरत है. एक तरफ नदियों को बचाना होगा, दूसरी तरफ आबादी पर प्रभावी ढंग से लगाम लगानी होगी. वरना, तीसरा विश्वयुद्ध पानी के लिए हो न हो, गृहयुद्ध जरूर हो जाएगा.

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Thursday, July 11, 2019

नदीसूत्र एकः जल को तिलांजलि देता समाज

अचानक हमारे समाज को क्या हो गया कि हमने नदियों और झील-तालाबों को कूड़ेदान समझ लिया? उन्हें सुखा देने की साजिश करने लगे. इन नदियों को तो हमने कभी देवी का दर्जा दिया था.



सूखा. इस शब्द से शुष्क और दरार से फटी जमीन और ऊपर चिलचिलाता मेघविहीन आसमान दिमाग में कौंधता है. बारिश गड़बड़ हो जाती है तो नदी-नाले, गांव के कुएं सब सूख जाते हैं. खेत धूल से भरे कटोरों में बदल जाते हैं. जानवर और परिंदे प्यासे भटकते हैं. यह काली छाया इन गर्मियों में हकीकत बन गई है और इसने पहले ही चिंताजनक शक्ल अख्तियार कर ली है. पूरे हिंदुस्तान में विनाशकारी सूखा दस्तक दे रहा है और पहले से ही संकट झेल रही मध्य पट्टी के ऊपर कहर बरपाने की धमकी दे रहा है.

ऐसे में याद आता है कि हमारी सदानीरा नदियों का क्या हुआ? नदीसूत्र श्रृंखला उस सूत्र को तलाशने की कोशिश है जिसे, हमने भुला दिया है.

आखिर, जिस देश ने अपने शहर नदियों के किनारे बसाए, जिस देश ने अपने पूजा-संस्कार की विधियां नदियों के किनारे और नदियों को लेकर विकसित किए, नदियां देवी मानी गईं, वहां यह सूत्र गायब कैसे हो गया? आखिर, हमारे सबसे पुराने ग्रंथों, जो देवों की वाणी भी है, ऋग्वेद समेत तमाम वेदों, उपनिषदों, ब्राह्मणों में नदियों और उसकी महिमा का विस्तार से जिक्र है.

ऋग्वेद के दशम मंडल के पचहत्तरवें सूक्त में कहा गया हैः

इयं मे गंगे! यमुने! सरस्वती! शतुद्रि! स्तोमं सचत परुष्ठया.
असिक्त्या मरुद् वृधे! वितस्तया जीकाये! श्रृणुह्यासुवौयया.

तो अचानक हमारे समाज को क्या हो गया कि हमने नदियों और झील-तालाबों को कूड़ेदान समझ लिया? उन्हें सुखा देने की साजिश करने लगे.

हमारे देश की हर नदी के साथ लोकगीत हैं, उनसे जुड़ी लोककथाएं हैं. थोड़ा इतिहास भी है और थोड़ा विज्ञान भी. परंपरा और रीति-रिवाज तो खैर हैं ही. ऐसे में नदियों को लेकर हम क्या सोचते हैं, नदीसूत्र उसका एक किस्म का यह रियलिटी चेक भी है.

मैंने खुद गंगा के किनारे गोमुख से लेकर गंगासागर तक का सफ़र तय किया है.

देश कैसे नदियों को भूल गया है और अपनी नदियों की स्थिति परिस्थिति उनकी कथा और व्यथा को श्रृंखलाबद्ध तरीके से पेश करने की कोशिश करूंगा. उम्मीद है कि नदियों के किनारे खड़े, पले और बढ़े समाज को अपने जलाशयों, तालाबों, पोखरों, डबरों, बावड़ियों और नाले-जोहड़ों की याद आए.

इस श्रृंखला में कोशिश यह होगी इसमें पढ़ने वालों को सिर्फ नकारात्मकता और हताशा भरे ब्योरे ही न मिलें. गंगा ही नहीं देश की जिन भी नदियों के किनारे-किनारे, जहां तक भी मैंने सफर किया है, जिनसे भी मैं मिला, उन सबकी बातें, उनके बतरस, उनके कहे किस्से और लोकगीतों और लोककथाओं का एक विशाल तो नहीं, लेकिन एक अनोखा और नए किस्म का अनुभव मुझे हुआ, और उसे आपके सामने ज्यों का त्यों रख देने की कोशिश करूंगा.

सफ़र में हमें कई वैज्ञानिक मिले, इनमें से कई गंगा नदी की अनोखी स्वयंशुद्धि क्षमता पर बात करते रहे. गंगा ही नहीं तमाम नदियों के प्रदूषण पर भी बात करने वाले कई लोग थे, कई श्रद्धालु मिले जो सिर्फ पौराणिकता की, श्रद्धा की बातें करते रहे. जिनके लिए गंगा-यमुना-नर्मदा-कावेरी-गोदावरी अगाध आस्था का स्रोत हैं. लेकिन हमें कई ऐसे लोग मिले, जिन्होंने इधर-उधर, कभी चाय की दुकान तो कभी किसी होटल की लॉबी में, हमें नदियों से जुड़े किस्से सुनाए. इनमें से कुछ कहानियां पौराणिक हैं, कुछ किंवदंतियां और दंतकथाएं हैं तो कुछ लोककथाएं.

इन कहानी सुनाने वालों में से कई अलग-अलग प्रदेशों के थे, जो अपनी जड़ों से दूर अपने इलाके की ऐसी कहानियां हमें सुना रहे थे, जिसमें कहीं न कहीं, कोई न कोई नदी मौजूद थी. इनमें होटल मैनेजर से वेटर तक, नदियों में चप्पू चलाने वाले नाविक से लेकर पंडित तक और कपड़े साफ कर रहे धोबी से लेकर चाय की दुकान पर बैठे गपोड़ तक सब हैं.

मिसाल के तौर पर, छत्तीसगढ़ का किस्सा है जो मुझे उत्तर प्रदेश के तीर्थ विंध्याचल के पास किसी ढाबे में एक भक्त ने सुनाया. वह रायपुर से आए थे. माता विंध्यवासिनी के दर्शन करने. उन्होंने भोजली का गीत सुनाया था. यह गीत बहुएं गाती हैं, जिसमें गंगा का संबोधन होता है.

देवी गंगा, लहर तुरंगा
हमरो भोजली देवी के
भीजे ओठों अंगा.


लेकिन कई विद्वानों ने गंगा की हालत के लिए भ्रष्टाचार और राजनीतिक एजेंडे में नदियों के न होने के अलावा एक नया तथ्य भी सामने रखा. वह था, मिडिओकर विशेषज्ञों का बाहुल्य. यानी हमारे देश में नदियों को लेकर तथाकथित विशेषज्ञों की दक्षता और विचार. यह बात हैरान कर देने वाली निकली कि जिन इंजीनियरों की बदौलत कई-कई योजनाएं और एक्शन प्लान को बनाकर लागू करने की कोशिश की गई, दरअसल में उनके विचारों में ही पोलापन था.

कई विशेषज्ञों ने यह लगभग साबित कर दिया कि नदियों के विज्ञान को लेकर विश्वविद्यालयों में होने वाली पढ़ाई में बड़ा संकट है, वहीं विदेशों में पढ़े या मेधावी छात्र सरकारी तंत्र का अंग नहीं है. नतीजतन, समाधान की रूपरेखा में ही परिपक्वता की कमी रही है. मसलन, नदी की संकल्पना और सिद्धांत आम से लेकर ख़ास तक के लिए स्पष्ट नहीं.

आम तौर पर माना जाता है कि नदी का काम पानी ले जाना है, जो आगे जाकर समुद्र में मिल जाती है. लेकिन, क्या हमने कभी यह सुना है कि नदी का काम गाद ले जाना भी है? ख़ासकर गंगा जैसी नदियों के संदर्भ में यह और भी महत्वपूर्ण है. यह बुनियादी सोच ही शायद योजनाओं और परियोजनाओं में जगह नहीं बना पाई, नतीजा फरक्का बराज जैसी परियोजनाएं होती हैं. जिसने न केवल लाखों लोगों को बेघर कर दिया, बल्कि हज़ारों हेक्टेयर उपजाऊ ज़मीन भी विसर्जित हो गई.

गंगा जैसी नदी हमारी सभ्यता, हमारे पाप-पुण्य सबको संभालती रही, लेकिन आबादी और उम्मीदों के बोझ ने उसे आज हरा दिया है. अक्सर गंगा की सफाई से जुड़ी परियोजनाओं और अभियानों में भ्रष्टाचार से जुड़ी कहानियां ज़रूर सुनी होंगी. देश के किसी भी हिस्से में नदियों और नदी घाटियों को लेकर सरकारी सोच में एक निरंतरता मिलती है. यानी, बड़ी परियोजनाएं बनाना और लागू करना.

असल में, बड़ी परियोजनाओं का फायदा सबको मिलता है, सिर्फ नदी और उनके बेटों को छोड़कर. यानी बड़ी परियोजनाएं, बड़ी राशि, बड़ा कट. बड़ी सामान्य-सी बात है. लेकिन परियोजनाएं भी वैसी बनी और बनाई गईं और अभी भी बुनी जा रही हैं, जिनको पश्चिमी देशों ने नकार दिया है. फरक्का बराज इसी का उदाहरण है.

सूखा भयावह रूप अख्तियार कर रहा है. अकाल से भयानक है अकेले पड़ जाना. हमें नदियों को साथ रखकर आगे बढ़ना सीखना होगा. एकआयामी विकास नहीं, बल्कि सतत विकास की ओर बढ़ना होगा, जिसमें साफ-सुथरी, जीवित और कलकल-निर्मल-अविरल नदियों की महत्वपूर्ण भूमिका होगी.

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