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Tuesday, June 17, 2025

चावल और भेड़ का जीन संपादनः जैव-तकनीक में भारत की तीन उपलब्धियां, जो भविष्य की नींव रखेंगी

-मंजीत ठाकुर

युद्ध के मैदान में पाकिस्तान को पीटने की खबरों के शोर-शराबों के बीच दो ऐसी खबरें आईं, जिन पर कम ही लोगों का ध्यान गया, लेकिन जिसका असर आने वाले वक्त में किसी क्रांति से कम नहीं होगा.

पहली, दुनिया में पहली बार भारत के कृषि वैज्ञानिकों ने जीनोम एडिटिंग के जरिए धान की दो नई किस्में तैयार की हैं. चावल की इन दो नई किस्मों को कम पानी और कम खाद तथा उर्वरकों की जरूरत होगी. ये बदलते मौसम के प्रति प्रतिरोधी गुणवत्ता वाली होंगी और इनकी पैदावार भी मौजूदा किस्मों की तुलना में तीस फीसद अधिक होगी. फसल भी सामान्य समय से बीस दिन पहले तैयार हो जाएगी. इन दो किस्मों के नाम डीआरआर-100 या कमला और पूसा डीएसटी राइस-1 रखे गए हैं और उम्मीद की जा रही है कि दोनों बीज देश के धान उत्पादन में क्रांतिकारी परिवर्तन ला सकेंगे.

दूसरी खबर, कश्मीर से आई जो अभी पहलगाम आतंकवादी हमलों के बाद से नकारात्मक रूप से खबरों में बना हुआ था और ऑपरेशन सिंदूर में कश्मीर पाकिस्तान की ज़द में था. लेकिन, शेर-ए-कश्मीर यूनिवर्सिटी ऑफ एग्रीकल्चरल साइंसेज ऐंड टेक्नोलॉजी (एसकेयूएएसटी) के वैज्ञानिकों ने भारत की पहली जीन संपादित (जीन एटिटेड) भेड़ की किस्म भी तैयार की है और इसे एनिमल बायोटेक्नोलॉजी में मील का पत्थर माना जा रहा है.

वैज्ञानिकों ने इस मेमने में 'मायोस्टैटिन' जीन को एडिट किया है. यह जीन शरीर में मांस बनने के लिए जिम्मेदार होता है. इस संपादन के बाद नई किस्म वाली इस भेड़ में मांस की मात्रा तीस फीसद तक बढ़ जाएगी. इससे पहले यह गुण भारतीय भेड़ो में नहीं होती थी.

कुछ लोगों में जीएम फसलों को लेकर एक चिंता रही है लेकिन ध्यान रहे कि जीनोम एडिटिंग जेनेटिक मॉडिफिकेशन या जीएम नहीं है. जीनोम एडिटिंग में उसी पौधे में मौजूद डीएनए में एडिटिंग के जरिए डीएनए सीक्वेंसिंग बदली जाती है. जीनोम एडिटिंग एक सटीक तकनीक है जिसमें किसी जीव के डीएनए में छोटे-छोटे बदलाव किए जाते हैं. इसमें किसी विशेष जीन को काटा, हटाया या बदला जा सकता है. यह प्रक्रिया आमतौर पर CRISPR-Cas9 जैसी तकनीकों से की जाती है. इस विधि में बाहरी डीएनए को जीव के जीनोम में नहीं जोड़ा जाता, बल्कि प्राकृतिक जीन को ही संशोधित किया जाता है.

वहीं जेनेटिक मोडिफिकेशन (जीएम) में किसी दूसरे जीव का जीन लेकर उसे लक्षित जीव में जोड़ा जाता है. मसलन, बैक्टीरिया का जीन यदि किसी पौधे में जोड़ा जाए तो वह पौधा कीट प्रतिरोधी बन सकता है. यह परिवर्तन स्वाभाविक रूप से नहीं होता और इसे ‘ट्रांसजेनिक’ प्रक्रिया कहा जाता है.

इस प्रकार, जीनोम एडिटिंग अधिक सटीक और प्राकृतिक उत्परिवर्तन के करीब मानी जाती है, जबकि जीएम तकनीक में बाहरी जीन जोड़ने से अधिक जैविक परिवर्तन होते हैं.

यह क्रांतियां मौन हैं लेकिन कुछ समय के बाद इनके मुखर होने के संकेत दिखने लगेंगे. जलवायु परिवर्तन और बारिश के पैटर्न में आ रहे बदलावों से फसल चक्र को फिर से दुरुस्त किए जाने की जरूरत है. मॉनसून के बीच में आ रहे लंबे ड्राई स्पैल धान की पैदावार पर नकारात्मक असर डाल रहे हैं और सिंचाई पर निर्भरता बढ़ रही है, जबकि भूमिगत जल के सोते सूखते जा रहे हैं. डीजल या बिजली चालित पंपों से सिंचाई खेती में इनपुट लागत को बढ़ा रही है, इससे किसानों का मुनाफा सिकुड़ता जा रहा है.

दूसरी तरफ हमें और अधिक अन्न उपजाने की जरूरत है क्योंकि देश की आबादी डेढ़ अरब को पार कर गई है और खाद्यान्न आदि में आत्मनिर्भर ही नहीं, सरप्लस होकर ही हम किसी भी रणनीतिक चुनौतियों का सामना कर पाएंगे. खाद्य सुरक्षा के साथ ही, सरप्लस अनाज हमारे विश्व व्यापार को अधिक व्यापकता देगा.

लेकिन बड़ा फायदा यह होगा कि पंजाब में चावल उगाने के लिए जो 5000 लीटर प्रति किलोग्राम और बंगाल में जो 3000 लीटर प्रति किलोग्राम पानी की जरूरत होती है उसको कम किया जा सकेगा. बढ़ती आबादी और कम होते जल संसाधनों के मद्देनजर यह बेहद महत्वपूर्ण खोज है.

शेर-ए-कश्मीर यूनिवर्सिटी ऑफ एग्रीकल्चरल साइंसेज ऐंड टेक्नोलॉजी (एसकेयूएएसटी) के वैज्ञानिकों ने भारत की पहली
जीन संपादित (जीन एटिटेड) भेड़ की किस्म भी तैयार की है 


इन सब चुनौतियों के मद्देनजर ही, केंद्रीय कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने ‘माइनस 5 और प्लस 10’ का नारा दिया है. इसके तहत, धान के मौजूदा रकबे में से पांच मिलियन हेक्टेयर कम क्षेत्र में दस मिलियन टन ज्यादा चावल उगाने का संकल्प है. खाली हुए पांच मिलियन रकबे को दलहन और तिलहन के लिए इस्तेमाल करने की कोशिश होगी. किसानों को अत्यधिक पानी की खपत वाली चावल की खेती से दलहन और तिलहन की ओर ले जाने की कोशिशें अभी बेअसर साबित हुई हैं.

गेहूं और चावल की खेती पर तिलहन और दलहन की तुलना में प्राकृतिक मार कम पड़ती है. एमएसपी के कारण पैदावार बेचने में भी दिक्कत नहीं होती. बहरहाल, जीनोम एडिटिंग का अन्य फसलों के बीजों पर भी प्रयोग होने लगे तो किसान अपनी लाभकारी उपज के प्रति आश्वस्त हो सकेगा. और इसकी मिसाल है, भेड़ की नई जीन संपादित नस्ल, जो अधिक मांस उत्पादित करने में सक्षम होगी.

जलवायु परिवर्तन और तेजी से घटते भूमिगत जल भंडारों के मद्देनजर अगले दस साल में दुनिया में खाद्य उत्पादन रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण हो जाएगा. भारत में जैव-प्रौद्योगिकी की यह नई खोजें भविष्य की ओर बढ़ाया मजबूत कदम है.

Tuesday, February 4, 2020

पिछले साल रहा मौसम बेहाल, अब खेती में राहत की उम्मीद

2019 का साल अति प्राकृतिक घटनाओं का साल रहा. अतिवृष्टि, लू के थपेड़े और चक्रवातों के बाद बारी हिमपात और शीतलहर. पर अब सर्दियों में हुई ठीक-ठाक बारिश से इस बार रबी की फसल बढ़िया होने की उम्मीद जगी है. सरकार की कोशिश अब इसके जरिए मंदी से निपटने की होनी चाहिए

मंदी और कृषि क्षेत्र में तमाम आशंकाओं के बाद एक खुशखबरी मिल रही है. 2020 की पहली फसल कटाई में रबी की पैदावार बेहतर हो सकती है और जाहिर है इससे किसानों को राहत मिलेगी. मौसम का पूर्वानुमान लगाने वाली निजी एजेंसी स्काइमेट ने रबी रिपोर्ट, 2020 जारी करते हुए अच्छी पैदावार की उम्मीद जाहिर की है. रिपोर्ट में कहा गया है कि देश में मॉनसून और मॉनसून के बाद के सीजन में अच्छी बारिश हुई है. रबी उत्पादक प्रमुख राज्यों में भी जनवरी के पहले पखवाड़े में पर्याप्त बरसात हुई है इससे फसल की सेहत को काफी फायदा मिला है.

लेकिन 2019 में मौसम से जुड़े मामले कुछ ठीक नहीं रहे थे.

2019 का साल अति प्राकृतिक घटनाओं का साल रहा. देश को लू के थपेड़ों के बाद अतिवृष्टि, और चक्रवातों के बाद बारी हिमपात और शीतलहर का सामना करना पड़ा था. पर अब सर्दियों में हुई ठीक-ठाक बारिश से इस बार रबी की फसल बढ़िया होने की उम्मीद जगी है. सरकार की कोशिश अब इसके जरिए मंदी से निपटने की होनी चाहिए

पिछले 25 साल के मुकाबले हालांकि, मॉनसून अधिक रहा था और मानक बरसात से 110 फीसद अधिक बारिश हुई थी. गुजरात, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र को बाढ़ का सामना करना पड़ा था. इसके साथ ही कुल मिलाकर 9 चक्रवातीय तूफान भी आए थे. यही नहीं, करेला नीम पर तब चढ़ा जब दिसंबर महीने में उत्तर भारत में शीतलहर की सबसे लंबी अवधि भी रिकॉर्ड की गई. हिमालयी राज्य़ों में अक्तूबर से लेकर दिसंबर तक भारी हिमपात भी दर्ज किया गया. पिछले साल अप्रैल से जून के महीने में मॉनसून से पहले भारी लू भी चली थी. जबकि, मॉनसून के बाद अक्तूबर से दिसंबर तक की अवधि में अतिवृष्टि भी हुई.

हालांकि इस बढ़िया बरसात ने देश के जलाशयों का पेट भर दिया है. इसका असर रबी की अच्छी बुआई पर पड़ा था. मिट्टी में नमी की मौजूदगी ने फसल उत्पादकता पर भी असर डाला है. और इस बार इस असर को सकारात्मक मानना चाहिए. हालांकि, रबी की पैदावार पर सर्दियों का तापमान भी प्रभावित करता है और अच्छा जाड़ा पड़ने से वह भी सकारात्मक ही रहा है.

स्काइमेट की रिपोर्ट के मुताबिक, गेहूं की पैदावार में इस सीजन में करीबन 10.6 फीसद की बढ़ोतरी होगी और पिछले सीजन के 10.21 करोड़ टन के मुकाबले इस बार उपज 11.30 टन के आसपास रहने की उम्मीद है.

मौसम के मद्देनजर चने और धान की पैदावार में भी बढ़ोतरी होगी. तिलहन की फसल भी अच्छी होने की उम्मीद है जिससे खाद्य तेलों की मौजूदा महंगाई को थामा जा सकेगा. जाहिर है, किसानों की परेशानी के दौर में यह एक बढ़िया खबर तो है पर आगे की भूमिका सरकार को निभानी होगी जो किसानों की उपज को सही तरीके से खरीदे. किसानों के पास क्रयशक्ति बढ़ेगी तो बाजार में छाई मंदी से भी निपटा जा सकेगा.

Thursday, January 9, 2020

खेतिहर मजदूरों की संख्या बढ़ी और उनकी आत्महत्या की गिनती भी

देश में 86 लाख किसानों की संख्या कम हो गई और विरोधाभासी रूप से खेतिहर मजदूरों की संख्या बढ़ गई. साफ है कि किसान, मजदूर बन गए. इसके साथ यह आंकड़ा भी देखिए, जिसे एनसीआरबी ने लंबे अंतराल के बाद जारी किया है कि देश में किसानों की तुलना में खेतिहर मजदूर अधिक आत्महत्या करने लगे हैं

देश में तमाम किस्म की उथल-पुथल और विरोध प्रदर्शनों के बीच एक आंकड़ा आया और आकर चला गया. अधिक लोगों ने उस पर ध्यान नहीं दिया. नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) ने लंबे समय बाद देश भर में 2016 में हुई आत्महत्याओं का आंकड़ा जारी किया है. एनसीआरबी के आंकड़ों के लिहाज से देश भर में कतिपय कारणों से कृषि श्रमिकों की आत्महत्या में बढ़ोतरी हुई है.

8 नवंबर को वर्ष 2016 में हुई आत्महत्याओं का आंकड़ा जारी किया है. एनसीआरबी के आंकड़ों के मुताबिक, 2016 में कृषि क्षेत्र (किसान और खेतिहर मजदूर) में कुल 11,379 आत्महत्याएं हुईं. इस आंकड़े को विस्तारित करें तो हर महीने करीब 948 और रोजाना करीबन 31 आत्महत्याएं देश भर में हुईं.

एनसीआरबी के मुताबिक, देश में 2015 के मुकाबले किसानों की आत्महत्याओं में 11 फीसद की कमी आई है.

गौरतलब है कि साल 2016 में देश भर में कुल 6,270 किसानों ने आत्महत्या की है. साल 2015 में यह आंकड़ा 8,007 था. दूसरी तरफ खेतिहर मजदूरों की आत्महत्या की गिनती में बढ़ोतरी हुई है. इस बीच, एक आंकड़ा यह भी है कि देश में किसानों की संख्या (अंदाजन 86 लाख) में कमी आई है तो कृषि मजदूरों की संख्या में भारी बढ़ोतरी हुई है.

इस समस्या की जड़ हमारी व्यवस्था में है और किसानों की मौत का आंकड़ा सिर्फ एक संख्या ही नहीं है. ओपी जिंदल विश्वविद्यालय में सार्वजनिक नीति पढ़ाने वाले स्वागतो सरकार लिखते हैं, "भारत में जमींदारो किसानों के एक राजनैतिक वर्ग का उदय इसके पीछे एक बड़ा कारण है. जिन्होंने राज्य सब्सिडी और मुफ्त वस्तुओं पर कब्जा करने और सरकारी खरीद और न्यूनतम समर्थन मूल्य का लाभ उठाने वाला एक विस्तृत तंत्र विकसित किया है." जाहिर है, सरकारी नीतियों का फायदा किसानों के निचले और जरूरतमंद तबके तक नहीं पहुंच पाता है.

आंकड़े यह बताते हैं कि देश में शीर्ष 10 फीसद ग्रामीण परिवारों के पास कुल कृषि योग्य भूमि का 54 फीसद का मालिकाना हक है जबकि नीचे की 50 फीसद भूमि 3 फीसद (राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण 399) से कम है. आधी आबादी के इसी निचले वर्ग का भविष्य अनिश्चित है और उन्हें मौत के कुएं की तरफ धकेल रहा है.

नेशनल सैंपल सर्वे 2014 बताता है कि एक औसत किसान परिवार अपनी सालाना आमदनी का सिर्फ आधा हिस्सा ही खेती से कमाता है. इसके अलावा खेती में सुधार और आमदनी बढ़ाने के लिए सार्वजनिक बैंकों के पीछे हटने इन किसानों को साहूकारों के सामने ला खड़ा किया है. सिंचाई की कमी, जलवायु परिवर्तन, मिट्टी की उर्वरता में कमी और फसलों की कीमतों में अस्थिरता (मिसाल के लिए टमाटर, आलू और प्याज) जैसी समस्याओं ने किसानों की स्थिति डांवाडोल कर दी है.





2011 की जनगणना बताती है कि देश में कृषि अर्थव्यवस्था धीरे-धीरे विघटन की ओर जा रही है. किसानों की संख्या में आई गिरावट और खेतिहर मजदूरो की संख्या में बढ़ोतरी साफ संकेत है कि किसान अब मजदूर बन रहे हैं. 
खेतिहर मजदूरों की आत्महत्या का आंकड़ा 2015 में 4,595 था जो 2016 में बढ़कर 5,109 हो गया. एक लाख की आबादी पर आत्महत्या की राष्ट्रीय दर 10.3 है. 19 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में यह दर राष्ट्रीय स्तर से अधिक है. सिक्किम में यह सर्वाधिक 40.5 है.

एनसीआरबी के अनुसार, 2016 में देशभर में कुल 1,31,008 लोगों ने आत्महत्या की. इसमें कृषि क्षेत्र में की गई आत्महत्या 8.7 फीसद है. 2015 की तरह 2016 में भी महाराष्ट्र में सबसे अधिक किसानों ने आत्महत्या की. किसानों की कुल आत्महत्या में महाराष्ट्र की हिस्सेदारी 32.2 फीसद है. इसके बाद कर्नाटक (18.3 फीसद), मध्य प्रदेश (11.3 फीसद), आंध्र प्रदेश (7.1 फीसद) और छत्तीसगढ़ (6 फीसद) सर्वाधिक आत्महत्या वाले राज्यों में शामिल हैं.

आत्महत्या करने वाले 6,270 किसानों में 275 महिलाएं हैं. वहीं कृषि श्रमिकों में 633 महिलाओं ने आत्महत्या की. रिपोर्ट के अनुसार, बिहार, बंगाल और नगालैंड जैसे राज्यों में किसी किसान ने आत्महत्या नहीं की.

संकट में पड़ा किसान, कर्ज में फंसा किसान, जमीन खो रहा किसान मजदूर बनकर आत्महत्या कर रहा है. यह मर्ज इतना बड़ा है कि सरकार आंकड़े जारी करने में देरी कर रही है और इसकी दवा सिर्फ और सिर्फ साहसिक और तत्काल सुधार हैं लोकलुभावन बजटीय प्रावधान नहीं.


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Tuesday, September 10, 2019

जीएम फसलों पर दुविधा में फंसी सरकार और किसान

संसद में एक सवाल का जवाब देते हुए सरकार ने कहा कि इस बात का कोई वैज्ञानिक साक्ष्य नहीं है कि ये फसलें मानव उपभोग के लिए ठीक नहीं हैं. हालांकि इससे जीएम फसलों पर पूरी पाबंदी का मामला फिट नहीं बैठता, लेकिन पर्यावरण को लेकर चिंतित लोग और कुछ किसानों के समूह भी, कहते हैं कि सरकार इस मसले पर ऐसे अध्ययनों को नजरअंदाज कर रही है जो जीएम फसलों की पैदावार को सेहत के नुक्सान से जोड़कर देखते हैं


महाराष्ट्र, हरियाणा और पंजाब जैसे राज्यों के किसान आनुवंशिक इंजीनियरिंग से दुरुस्त किए गए फसलों (जीएम) को उगाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं. उनका तर्क है कि इन्हें उगाने में कम लागत आती है, उपज अधिक होती है और इनपर कीटों और खरपतवारों का हमला भी कम होता है. सरकार ने जीएम कॉटन (कपास) की एक प्रजाति को छोड़कर बाकी जीएम फसलों पर पाबंदी लगा रखी है.

लेकिन 19 जुलाई को संसद में एक सवाल का जवाब देते हुए सरकार ने कहा कि इस बात का कोई वैज्ञानिक साक्ष्य नहीं है कि ये फसलें मानव उपभोग के लिए ठीक नहीं हैं. हालांकि इससे जीएम फसलों पर पूरी पाबंदी का मामला फिट नहीं बैठता, लेकिन पर्यावरण को लेकर चिंतित लोग और कुछ किसानों के समूह भी, कहते हैं कि सरकार इस मसले पर ऐसे अध्ययनों को नजरअंदाज कर रही है जो जीएम फसलों की पैदावार को सेहत के नुक्सान से जोड़कर देखते हैं. पर्यावरणविदों का कहना है कि जीएम फूड के इस्तेमाल से कैंसर भी हो सकता है.

अब सवाल यह भी है कि क्या आनुवंशिक इंजीनियरिंग से तैयार फसलें सेहत की लिए ठीक है या नहीं, इस पर निगाह कौन रखेगा. या खेती में अधिक पैदावार हासिल करने की इच्छा से हम पर्यावरण और सेहत की चिंता को ताक पर रख दें. इसके बरअक्स एक सवाल यह पैदा होता है कि जीएम फसलें बदलते पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन के दौर में मुफीद साबित हो सकती हैं और इससे बढ़ती आबादी का पेट भी भरा जा सकता है.

असल में, बीटी कॉटन को मंजूरी मिले 17 साल बीत गए हैं. यह एकमात्र जीएम फसल है जिसे भारत में उगाने की कानूनी मंजूरी मिली हुई है. हालांकि बीटी ब्रिंजल (बैंगन) और जीएम सरसों को भी 2017 में सरकारी मंजूरी दी जा चुकी है.

पिछली जुलाई में महाराष्ट्र में 12 किसानों को सरकारी बंदिश का उल्लंघन करते हुए गिरफ्तार किया गया था. ये किसान बिना मंजूरी वाले जीएम कपास के बीजों का इस्तेमाल कर रहे थे. इस बाबत, 60 एफआइआर दर्ज किए गए और 1100 किलोग्राम गैरकानूनी बीज भी जब्त किया गया था.

गौरतलब है कि गैरकानूनी जीएम फसलें उगाने पर पांच साल की कैद और 1 लाख रूपए के जुर्माने का प्रावधान है.

यहां ध्यान देने वाली बात है कि देश में साल 2017-18 में 62 लाख मीट्रिक टन कपास की पैदावार हुई थी. चीन के बनिस्बत यह उपज काफी अधिक थी. चीन में 60 लाख मीट्रिक टन, अमेरिका में 46 लाख मीट्रिक टन, ब्राजील में 19 लाख मीट्रिक टन और पाकिस्तान में 18 लाख मीट्रिक टन कपास उगाया गया. भारत से 2017-18 में 11.3 लाख मीट्रिक टन कपास का निर्यात किया गया था. निर्यात के मामले में भारत अमेरिका से काफी पीछे है. अमेरिका में 34.5 लाख मीट्रिक टन कपास उस साल निर्यात किया गया था. भारत कपास का आयात करने में पूरी दुनिया में सातवें पायदान पर है जहां 3,70,000 मीट्रिक टन कपास का आयात किया गया.

देश में कपास की खेती का रकबा करीबन 1.17 करोड़ हेक्टेयर है. यानी दुनिया भर में जितनी जमीन में कपास उगाया जाता है उसका 37.5 फीसदी खेत भारत में है. देश के 10 राज्यों के 65 लाख कपास किसान और करीबन 6 करोड़ लोग कपास से जुड़े कामकाज से अपनी रोटी कमाते हैं.

देश के कपास पैदा करने वाले इलाकों में से 15 फीसदी इलाके महाराष्ट, गुजरात, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में हैं जहां गैर-कानूनी जीएम कपास (2017-18 में) उगाई गई थी. इसमें हर हेक्टेयर में करीबन 2800 से 5000 रुपए तक का फायदा हुआ था.

कॉटन एसोशिएसन ऑफ इंडिया के मुताबिक, साल 2010 से 2015 के बीच प्रति हेक्टेयर 73,200 रुपये की औसत आमदनी कपास उगाने वाले किसानों को हुई थी. जबकि इसी अवधि में कपास उगाने का प्रति हेक्टेयर औसत खर्च 63,941 रुपये था.

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Monday, April 23, 2018

कृषि सरकार की प्राथमिकताओं में कहां खड़ी है?

खुदा का शुक्र है कि इस साल इंद्र भगवान भारत पर अपनी कृपा बनाएंगे. इस साल मौसम विभाग ने मॉनसून सामान्य रहने का अनुमान लगाया है. यह अनुमान कितने राहत से भरा है यह वही लोग बता सकते हैं जिनके खेत में बिवाइयों की दरारें पड़ी हैं या फिर दिल्ली में बैठे नीति-नियंता जो बारिश की बूंदों की उम्मीद चातक की तरह लगाए हैं. अब इन नीति नियंताओं की नीतियों का सूचकांक भी बारिश की नमी से हरा-भरा होगा.

इस साल पिछले दस साल के औसत के मुकाबले 97 फीसदी बारिश होने के आसार हैं. किसानों के लिए ये राहत की खबर है.

बारिश जब होती तब होगी, फिलहाल तो इस अनुमान से ही राहत है क्योंकि दक्षिण भारत के कुछ राज्य पानी के गहरे संकट से जूझ रहे हैं. केरल सरकार 27 मार्च को राज्य के 14 ज़िलों में से 9 ज़िलों को सूखा-ग्रस्त घोषित कर चुकी है. राज्य के प्रभावित ज़िलों में टैंकरों से पानी पहुंचाने के लिए बड़े स्तर पर पहल की गई है. साफ है, केरल के सूखा प्रभावित किसानों को देश में मॉनसून का सबसे ज्यादा इंतजार है.

पिछले साल अक्टूबर से दिसंबर के बीच औसत से कम बारिश हुई है जिसका असर देश के बड़े हिस्से में साफ तौर पर दिख रहा है. सबसे ज्यादा चिंता उत्तर भारत को लेकर है जहां 2013 के बाद से कुछ राज्यों में सूखा पड़ चुका है. इस इलाके के 6 बड़े जलाशयों में सिर्फ 20% पानी बचा है जो पिछले साल इस समय 23% था.

वैसे मॉनसून की बारिश भारत की राजनीति को भी प्रभावित करती है. प्रधानमंत्री कार्यकाल के आखिरी साल में ये खबर उनके लिए भी राहत देने वाली है. फसल अच्छी हुई तो किसानों की नाराजगी कुछ कम होगी.

किसानों की नाराजगी दूर करना बेहद अहम है, क्योंकि भारत में चुनाव दालों और प्याजों की कीमतों के आधार पर जीते और हारे जाते हैं (मंदिर वगैरह तो भावनात्मक मुद्दे हैं)

कुछ साल पहले, तब के आंध्र प्रदेश में. तेलुगूदेशम पार्टी हैदराबाद को आधुनिक बनाने के चंद्रबाबू नायडू की पुरजोर कोशिशों के बाद भी चुनाव में पटखनी खा गई थी. हाल में, गुजरात में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का जनादेश सिकुड़ गया. दोनों ही मामलों में किसानों और ग्रामीण आबादी की नाराजगी बड़ी वजह बताई गई.

हालांकि ग्रामीण आबादी और खेती को एक दम से एक ही घेरे में नहीं रखा जा सकता, लेकिन यह सच है कि दोनों एक दूसरे से नजदीकी और जरूरी रिश्ता रखते हैं. पिछले कुछ साल से हमारे कृषि विकास के आंकड़े गोते लगा रहे हैं.

ऐसे में, वक्त का तकाजा है कि बारिश की उम्मीदों के साथ ही खेती को आधुनिक बनाने और साथ में कृषि गतिविधियों को थोड़ा तकनीक का साथ मिले. पिछले ब्लॉग में मैंने ग्रीन रिवॉल्यूशन के बाद जीन रिवॉल्यूशन की बात की थी.

अब जरूरत है कि केंद्र सरकार कृषि क्षेत्र में कुछ और नई पहल करे और खेती के विकास को समग्रता की तरफ ले जाए. इन पहलों को लागू करने में राज्यों की सहमति के साथ उनके तर्कों को भी स्थान देना चाहिए. आखिर कृषि राज्य का विषय होने के साथ अलग-अलग राज्यों की जरूरतें भी अलग और स्थानीय किस्म की होती हैं.


भारत में कृषि नीतियों में बदलाव की सोचने से पहले जरा एक नजर अतीत पर डालने की जरूरत है. जवाहर लाल नेहरू के निधन के बाद लाल बहादुर शास्त्री ने अपने कार्यकाल में नीलम संजीव रेड्डी को कृषि मंत्री पद का प्रस्ताव दिया था, जिसे रेड्डी ने ठुकरा दिया.

वजहः उनके पूर्ववर्ती, जयराम दास दौलतराम दास, के.एम. मुंशी और रफी अहमद किदवई जैसे कृषि मंत्री कृषि क्षेत्र के भले के लिए नगण्य उपलब्धियां ही हासिल कर पाए थे. ऐसे में शास्त्री जी ने उद्योगों के मुकाबले कमजोर दिख रहे इस सेक्टर की कमान तब भारी उद्योग मंत्री रहे सी.सुब्रह्मण्यम को सौंपी थी.

पहले तो सी.सुब्रह्मण्यम को लगा कि उनका डिमोशन कर दिया गया है लेकिन उसके बाद एम.एस. स्वामीनाथन और एस. शिवरामन के साथ इस तिकड़ी ने भारतीय कृषि की किस्मत बदलने की नींव रखनी शुरू कर दी थी.

साल 2000 तक हरित क्रांति अपनी रफ्तार से चलती रही, जब तक कि नए नई राष्ट्रीय कृषि नीति (एनएपी) की नींव तब के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने नहीं रखी. एनएपी का लक्ष्य सालाना 4 फीसदी कृषि विकास दर हासिल करने का था (जो कभी हासिल नहीं किया जा सका) और किसानों को बेहतर जीवन शैली मुहैया कराने के लिए ग्रामीण बुनियादी ढांचे को मजबूत करना था.

बहरहाल, इस कदम के बाद यूपीए सरकार ने किसानों के लिए एक राष्ट्रीय आयोग का गठन 2004 में किया था और इसकी रिपोर्ट 2006 में आई.

इतनी बातों का मर्म यही है कि इतनी रस्साकस्सी के बाद भी देश में कृषि को लेकर एक समग्र नीतिगत फ्रेमवर्क नहीं बन पाया है, ताकि कृषि, पशुपालन, और इससे जुड़े अन्य क्षेत्रों को आगे बढ़ाया जा सके.

इसी कमी का नतीजा है कि कृषि उत्पादन को लेकर देश भर में असमानता है. हम हर बार बारिश और मौसम पूर्वानुमानों के आधार पर शेयर बाजार की बढ़त और घटत की ओर टकटकी लगाए रहते हैं.

जलवायु परिवर्तन के दौर में खेती को नए नजरिए की दरकार है. जिसमें तकनीक और बाकी जरूरतों का ख्याल रखा जाए. एक मजबूत फ्रेमवर्क ही जीन क्रांति समेत कृषि से जुड़ी अन्य जरूरतों का ख्याल रख सकता है.

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Wednesday, April 4, 2018

कृषि में ग्रीन के बाद अब जीन क्रांति का वक्त

महाराष्ट्र के किसान जब बिवाई फटे पैरों के साथ नासिक से मुंबई पहुंचे तो सोशल मीडिया में जैसे जाग पड़ गई. सोशल मीडिया पर उधड़ी चमड़ी वाले पैरों की तस्वीरों ने बताया कि बुलेट ट्रेन के सपनों के बाजार में नंगे पैरों से रोटी और राजा का फासला नापते किसानों का कदमताल भारतीय लोकतंत्र का वह विहंगम दृश्य है, जिस पर समय शर्मिंदा है. 21वीं सदी के 18वें बरस के मचान से अपने अन्नदाताओं के पैरों से रिसता हुआ खून पूरा देश देख रहा था.

लेकिन असल सवाल यह नहीं है. यह बेहद फौरी-सा सवाल है, जिसका अर्थ कत्तई कर्जमाफी जैसे छोटे उपायों में नहीं ढूंढा जाना चाहिए. किसानों को मछली देने की बजाय, उन्हें मछली पकड़ना सिखाना होगा.

देश जिस कृषि संकट से गुजर रहा है, जहां गुजरात में पानी की कमी की वजह से बुवाई पर रोक है और कहीं अधिक पैदावार की वजह से उपज की बाजिव कीमत नहीं मिल पा रही है तो वहां किसान तिलमिलाए न तो क्या करे?

भारत में आज की तारीख में भी, जब सेवा क्षेत्र के विस्तार और संभावनाओं की कहानियां कही और सुनाई जा रही हैं, करीब 65 करोड़ लोग अपनी आजीविका के लिए खेती या इससे जुडे क्षेत्रों पर निर्भर हैं. यह संख्या देश की आबादी का तकरीबन 50 फीसदी है. साठ के दशक के मध्य से भारत में हरित, श्वेत, पीली और नीली क्रांतियां हो चुकी हैं और भारत खाद्यान्न आयात करने वाले से खाद्यान्न उत्पादन करने वाले ताकतवर देश में बदल चुका है. भारत एफएओ यानी खाद्य और कृषि संगठन में सबसे अधिक अनाज दान करने वाला देश है. लेकिन तथ्य यह भी है कि दुनिया की एक चौथाई भूखी और गरीब आबादी भारत में रहती है.

करीब 12 करोड़ किसान परिवार सबसे गरीब तबके में आते हैं और खेती तथा गैर-खेतिहरों के बीच आमदनी की खाई करीब 1:4 तक बढ़ गई है. औसतन कृषि उत्पादन और कुल कारक उत्पादकता वृद्धि तो कम है ही. एक ओर तो जमीन, पानी, जैव विविधता, और दूसरे प्राकृतिक संसाधन लगातार छीज रहे हैं, दूसरी तरफ भारत बहुत तेजी से, यानी अगले पांच साल में, दुनिया की सबसे अधिक आबादी वाला देश बनने की दिशा में अग्रसर है.

इन सबके बरअक्स जलवायु परिवर्तन से खेती पर पड़ने वाला असर अलग ही है.

राष्ट्रीय, क्षेत्रीय और वैश्विक विश्लेषण बताते हैं कि भारत जैसे खेती पर निर्भर या कृषि के लिए महत्वपूर्ण देशों में खेती का विकास गरीबी और भुखमरी के खात्मे में तिगुना अधिक प्रभावी साबित होते हैं, जबकि दूसरे सेक्टर में विकास से यह फर्क उतना अधिक नहीं पड़ता.

अब जिस तरह के कृषि संकट से देश दो-चार है, ऐसे में भारतीय कृषि को एक नए बदलाव की जरूरत है. इसे अधिक समावेशी होना होगा. इसके लिए एमएलएम समीकरण इसे अपनाना होगा, मोर फ्रॉम लेस फॉर मोर यानी कम संसाधनों में अधिक लोगों के लिए अधिक उत्पादन.

इसके लिए खेती-किसानी में आधुनिकता लानी होगी, इसमें उत्पादकता बढ़ाने के लिए वैल्यू चेन का समुचित होना होगा. इसे ही हम इनपुट यूज एफिशिएंसी या इनपुट के इस्तेमाल की अधिकतम योग्यता कहते हैं. खेती को जाहिर है लाभदायक बनाना होगा, जिसके लिए कीमतों का स्थिरीकरण और किसानों का बाजार से सीधे जुड़ाव जरूरी है. खेती को टिकाऊ बनाना होगा यानी इसमें संसाधनों के संरक्षण, उसे बचाने और वृद्धि करने के विकल्प के साथ आगे बढ़ना होगा. खेती में समानता लानी होगी, खेती को हर हालत में गरीबों के पक्ष में और किसान हितैषी बनाना ही होगा. इसमें एक लक्ष्य 2022 तक किसानों की आमदनी दोगुनी करना भी है.


खेती में आधुनिकीकरण का रास्ता

ग्रीन रिवॉल्यूशन का दौर तो बीत गया. अब जीन रिवॉल्यूशन का दौर आने वाला है. आपको बीटी कॉटन की याद है? एक संकर बीज? भारत में आज की तारीख में कुल 1.2 करोड़ हेक्टेयर में कपास की खेती होती है इसमें से 1.1 करोड़ हेक्टेयर में बीटी कॉटन उगाया जाता है. बीटी कॉटन करीब 70 लाख लघु और सीमांत किसानों के हित में उठाया गया एक कामयाब कदम माना जा सकता है.

इसकी वजह से कपास उत्पादन में कीटनाशकों के इस्तेमाल में सात गुना कमी आई है, दूसरी तरफ, 2001-02 में कोई 4 करोड़ कपास की गांठों का उत्पादन होता था जो अब 14 करोड गांठों तक बढ़ गया है. प्रति हेक्टेयर उत्पादन भी 278 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर से बढ़कर 570 किग्रा प्रति हेक्टेयर हो गया है. रूपयों-पैसों के मामले में इसे बताएं तो यह 60 अरब डॉलर का नफा है. इससे भारत कपास के निर्यातकों में पहले और दूसरे पायदान पर आ गया है.

नीतियों और उसके क्रियान्वयन की जड़ता की वजह से साथ ही तकनीक बदलाव में पीढ़ीगत जड़ता की वजह से ऐसे फायदे दूसरी फसलों में नहीं उठाए जा सके हैं. समावेशी रूप से जैवसुरक्षा और संरक्षा को अपनाकर भारत को विज्ञान की अगुआई वाली बायोटेक नीति को लागू करना चाहिए, लेकिन इसका एक मानवीय पहलू होना चाहिए.

ऐसा कर पाए तो समूचे खाद्य और कृषि सेक्टर में इसका फायदा मिलेगा और इस क्षेत्र की अगुआ तकनीकों का फायदा नई खोजी जा रही तकनीकों के जरिए उठाकर जलवायु परिवर्तन से होने वाले नुक्सान को कम किया जा सकेगा.

(यह लेख इंडिया टुडे में प्रकाशित हो चुका है)

Friday, February 9, 2018

किसानों से किया वादा पूरा नहीं कर पाएंगे मोदी!

भारत में जिस तरह अर्थव्यवस्था झटकों से उबरने की कोशिश कर रही है और जिस तरह कृषि की विकास दर भी गोते लगा रही थी, किसान अधिक उपजाने पर भी संकट में था और कम उपजाकर भी, ऐसे में खेती-किसानी की तुलना कुछ लोग ब्लू व्हेल गेम से करने लगे थे, जिसमें आखिर में आकर मौत ही हासिल होनी है.

ऐसे में, लग रहा था कि इकोनॉनोमिक सर्वे 2017-18 में इस पर गंभीरता से कुछ कहा जाएगा. लेकिन आर्थिक सर्वेक्षण के कुछ तथ्य प्रधानमंत्री मोदी के लिए चिंता का सबब होना चाहिए, जिसमें खेती पर जलवायु परिवर्तन के असर को रेखांकित करने की कोशिश की गई है.

बतौर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने साल 2022 तक किसानों की आमदनी दोगुनी करने का एक लक्ष्य तय किया. अब भारत में खेती से जुड़े तमाम कार्यक्रम और योजनाओं की रुख इसी तरफ मुड़ गया लगता है.

आर्थिक सर्वेक्षण "मध्यकालिक अवधि में खेती से होने वाली आमदनी 20 से 25 फीसदी तक घटने" की चेतावनी देता है. देश में खेती सबसे अधिक रोजगार देने वाला सेक्टर है और ऐसी चेतावनियां खेतिहरों की आमदनी दोगुनी करने के दिशा में कोशिशों पर पानी फेर सकती हैं.

आर्थिक सर्वे यह भी कहता है कि सरकार का खेतिहरों की मुश्किल दूर करने और उनकी आय को दोगुनी करने के लक्ष्य को पूरा करने के लिए लगातार फॉलो अप करना होगा, जिसमें किसानों तक विज्ञान और प्रौद्योगिकी पहुंचाने के लिए फैसलाकुन कोशिशें भी करनी होंगी. बिजली और उर्वरक पर दी जा रही सब्सिडी की जगह प्रत्यक्ष लाभ अंतरण के जरिए मदद पहुंचानी होगी.

आर्थिक सर्वेक्षण साफ करता है कि मौसम में तापमान में अत्याधिक उतार-चढ़ाव से किसानों की आमदनी में खरीफ की फसल के दौरान 4.3 फीसदी की कमी आई है, जबकि रबी की फसल के दौरान यह कमी 4.1 फीसदी रही है. जबकि ज्यादा बारिश ने आमदनी को क्रमशः 13.7 और 5.5 फीसदी कम कर दिया.

किसानों की आमदनी पर मौसम की मार असिंचित इलाकों में अधिक रही है. गौतरलब है कि देश के 60 फीसद रकबे में सिंचाई का जरिया महज बारिश ही है. आर्थिक सर्वे में कहा गया है, 'एक बार फिर, इन औसतों ने विविधता पर असर डाला. मौसम में बदलाव का असर असिंचित इलाकों में ज्यादा रहा.

अभी यह स्पष्ट नहीं कि कृषि राजस्व किस तरह मुड़ना चाहिए--एक तरफ तो उपज में कमी आई दूसरी तरफ, कम आपूर्ति से स्थानीय रूप से कीमतों में उछाल आई. ऐसे में नतीजे साफ तौर पर संकेत दे रहे हैं कि "आपूर्ति पर दुष्प्रभाव" ज्यादा जोरदार रहा है--उपज में कमी ने राजस्व को कम कर दिया.'

सर्वे के मुताबिक, इन सालों में जब तापमान औसत से एक डिग्री सेल्सियस अधिक रहा, वर्षा सिंचित जिलों में खरीफ के दौरान किसानों की आमदनी 6.2 फीसदी कमी हुई, जबकि रबी की फसल में यह कमी 6 फीसदी रही. इसी तरह, उन वर्षों में जब बरसात की मात्रा औसत से 100 मिलीमीटर कम रही, किसानों की आय में खरीफ के दौरान 15 फीसदी और रबी के दौरान 7 फीसदी की कमी दर्ज की गई है.

अनुमान है कि जलवायु परिवर्तन की वजह से किसानों की आमदनी में औसतन 15 से 18 फीसदी की कमी आई है. वर्षासिंचित इलाकों में यह औसत 20 से 25 फीसदी तक हो सकती है. यह तथ्य वाक़ई चिंताजनक हैं क्योंकि भारत में खेती से आय पहले ही काफी कम है.

इसका एक अर्थ यह भी हो सकता है कि सरकार का किसानों की आमदनी बढ़ाने का लक्ष्य भी अप्रासंगिक हो जाएगा. अगर सरकारी आंकड़ों में जलवायु परिवर्तन की वजह से हुए नुकसान को शामिल कर लिया जाए तो कहानी सिरे से बदल जाएगी.

सर्वे की चेतावनी और भी चिंताजनक है कि जलवायु परिवर्तन से होने वाला नुकसान असली असर से थोड़ा कम ही सामने आया है. आखिर भविष्य में तापमान बढ़ने की दुश्चिंता भरी भविष्यवाणियां भी हैं. नीति नियंताओं के लिए यह तथ्य उनके सिर का तापमान बढ़ाने वाला साबित हो सकता है.