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Tuesday, September 10, 2019

जीएम फसलों पर दुविधा में फंसी सरकार और किसान

संसद में एक सवाल का जवाब देते हुए सरकार ने कहा कि इस बात का कोई वैज्ञानिक साक्ष्य नहीं है कि ये फसलें मानव उपभोग के लिए ठीक नहीं हैं. हालांकि इससे जीएम फसलों पर पूरी पाबंदी का मामला फिट नहीं बैठता, लेकिन पर्यावरण को लेकर चिंतित लोग और कुछ किसानों के समूह भी, कहते हैं कि सरकार इस मसले पर ऐसे अध्ययनों को नजरअंदाज कर रही है जो जीएम फसलों की पैदावार को सेहत के नुक्सान से जोड़कर देखते हैं


महाराष्ट्र, हरियाणा और पंजाब जैसे राज्यों के किसान आनुवंशिक इंजीनियरिंग से दुरुस्त किए गए फसलों (जीएम) को उगाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं. उनका तर्क है कि इन्हें उगाने में कम लागत आती है, उपज अधिक होती है और इनपर कीटों और खरपतवारों का हमला भी कम होता है. सरकार ने जीएम कॉटन (कपास) की एक प्रजाति को छोड़कर बाकी जीएम फसलों पर पाबंदी लगा रखी है.

लेकिन 19 जुलाई को संसद में एक सवाल का जवाब देते हुए सरकार ने कहा कि इस बात का कोई वैज्ञानिक साक्ष्य नहीं है कि ये फसलें मानव उपभोग के लिए ठीक नहीं हैं. हालांकि इससे जीएम फसलों पर पूरी पाबंदी का मामला फिट नहीं बैठता, लेकिन पर्यावरण को लेकर चिंतित लोग और कुछ किसानों के समूह भी, कहते हैं कि सरकार इस मसले पर ऐसे अध्ययनों को नजरअंदाज कर रही है जो जीएम फसलों की पैदावार को सेहत के नुक्सान से जोड़कर देखते हैं. पर्यावरणविदों का कहना है कि जीएम फूड के इस्तेमाल से कैंसर भी हो सकता है.

अब सवाल यह भी है कि क्या आनुवंशिक इंजीनियरिंग से तैयार फसलें सेहत की लिए ठीक है या नहीं, इस पर निगाह कौन रखेगा. या खेती में अधिक पैदावार हासिल करने की इच्छा से हम पर्यावरण और सेहत की चिंता को ताक पर रख दें. इसके बरअक्स एक सवाल यह पैदा होता है कि जीएम फसलें बदलते पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन के दौर में मुफीद साबित हो सकती हैं और इससे बढ़ती आबादी का पेट भी भरा जा सकता है.

असल में, बीटी कॉटन को मंजूरी मिले 17 साल बीत गए हैं. यह एकमात्र जीएम फसल है जिसे भारत में उगाने की कानूनी मंजूरी मिली हुई है. हालांकि बीटी ब्रिंजल (बैंगन) और जीएम सरसों को भी 2017 में सरकारी मंजूरी दी जा चुकी है.

पिछली जुलाई में महाराष्ट्र में 12 किसानों को सरकारी बंदिश का उल्लंघन करते हुए गिरफ्तार किया गया था. ये किसान बिना मंजूरी वाले जीएम कपास के बीजों का इस्तेमाल कर रहे थे. इस बाबत, 60 एफआइआर दर्ज किए गए और 1100 किलोग्राम गैरकानूनी बीज भी जब्त किया गया था.

गौरतलब है कि गैरकानूनी जीएम फसलें उगाने पर पांच साल की कैद और 1 लाख रूपए के जुर्माने का प्रावधान है.

यहां ध्यान देने वाली बात है कि देश में साल 2017-18 में 62 लाख मीट्रिक टन कपास की पैदावार हुई थी. चीन के बनिस्बत यह उपज काफी अधिक थी. चीन में 60 लाख मीट्रिक टन, अमेरिका में 46 लाख मीट्रिक टन, ब्राजील में 19 लाख मीट्रिक टन और पाकिस्तान में 18 लाख मीट्रिक टन कपास उगाया गया. भारत से 2017-18 में 11.3 लाख मीट्रिक टन कपास का निर्यात किया गया था. निर्यात के मामले में भारत अमेरिका से काफी पीछे है. अमेरिका में 34.5 लाख मीट्रिक टन कपास उस साल निर्यात किया गया था. भारत कपास का आयात करने में पूरी दुनिया में सातवें पायदान पर है जहां 3,70,000 मीट्रिक टन कपास का आयात किया गया.

देश में कपास की खेती का रकबा करीबन 1.17 करोड़ हेक्टेयर है. यानी दुनिया भर में जितनी जमीन में कपास उगाया जाता है उसका 37.5 फीसदी खेत भारत में है. देश के 10 राज्यों के 65 लाख कपास किसान और करीबन 6 करोड़ लोग कपास से जुड़े कामकाज से अपनी रोटी कमाते हैं.

देश के कपास पैदा करने वाले इलाकों में से 15 फीसदी इलाके महाराष्ट, गुजरात, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में हैं जहां गैर-कानूनी जीएम कपास (2017-18 में) उगाई गई थी. इसमें हर हेक्टेयर में करीबन 2800 से 5000 रुपए तक का फायदा हुआ था.

कॉटन एसोशिएसन ऑफ इंडिया के मुताबिक, साल 2010 से 2015 के बीच प्रति हेक्टेयर 73,200 रुपये की औसत आमदनी कपास उगाने वाले किसानों को हुई थी. जबकि इसी अवधि में कपास उगाने का प्रति हेक्टेयर औसत खर्च 63,941 रुपये था.

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Friday, December 23, 2016

क्या सिद्धू फुंके हुए कारतूस हैं?

ठहाकों के सरदार नवजोत सिंह सिद्धू अब कांग्रेस का दामन थामेंगे। उनकी पत्नी डॉ. नवजोत कौर सिद्धू और हॉकी खिलाड़ी और सिद्धू के साथी परगट सिंह पहले ही कांग्रेस में शामिल हो चुकी हैं।

इसका मतलब यह हुआ कि नवजोत सिंह सिद्धू कांग्रेस के टिकट पर विधानसभा चुनाव लड़ेंगे और वह सीट अमृतसर-पूर्व की सीट भी हो सकती है, जहां से निवर्तमान विधायक उनकी पत्नी डॉ. नवजोत कौर रही हैं।

बीजेपी से दूरी बनाने की जो भई वजहें खुद सिद्धू गिनाएं और या फिर आम आदमी पार्टी और कांग्रेस से पींगे बढ़ाने के पीछे उनकी मंशा क्या है यह साफ करें, लेकिन यह जानना बेहद दिलचस्प होगा कि आखिर पंजाब की राजनीति में सिद्धू को क्या ताकत हासिल है? आखिर, पंजाब में कांग्रेस के खेवनहार कैप्टन अमरिन्दर सिंह क्यों पहले सिद्धू के कांग्रेस में आने से नाखुश थे और अब क्यों उन्होंने सिद्धू के आने की खबरों का स्वागत किया है। (गुरूवार को सिद्धू की पत्नी कांग्रेस में जाने की खबरों की पुष्टि कर चुकी हैं)

नवजोत सिंह सिद्धू को अरुण जेटली ही राजनीति में लेकर आए थे। साल 2014 के लोकसभा चुनाव में अमृतसर के सांसद नवजोत सिंह सिद्धू की जगह बीजेपी ने अरुण जेटली को वहां से उम्मीदवार बनाया। गुस्साए सिद्धू ने जेटली के लिए चुनाव प्रचार नहीं किया। हालांकि, इसी साल अप्रैल में बीजेपी ने सिद्धू को राज्यसभा की सदस्यता दी, लेकिन सिद्धू बजाय राज्यसभा जाने के एक कॉमिडी शो में सिंहासन पर बैठकर ठहाके लगाते और शेरो-शायरी करते देखे गए।

बहरहाल, ऐसा लग गया था कि यह क्रिकेटर विधानसभा चुनाव से पहले कुछ तो करेगा और पंजाब की राजनीति में उबाल आया तो सत्ताविरोधी लहर की और आम आदमी पार्टी की संभावनाओं के मद्देनज़र सिद्धू का नाम भी आप से जोड़ा जाने लगा। हालांकि, न तो आप ने और न कभी सिद्धू ने इसके बारे में किसी अंतिम फ़ैसले पर टिप्पणी की।

फिर सिद्धू ने 18 जुलाई को राज्यसभा की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया। उनकी पत्नी और अमृतसर से विधायक नवजोत कौर सिद्धू ने भी इस्तीफ़ा दे दिया। यानी तस्वीर साफ होने लगी थी।

आम आदमी पार्टी में शामिल होने को लेकर बात यहां तक गई कि दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के साथ उनकी कई बैठकें भी हुईं, लेकिन बात किसी नतीजे पर नहीं पहुंच पाई।

कहा जाता है कि सिद्धू आप से अपने लिए, पत्नी और अपने कुछ लोगों के लिए विधानसभा चुनाव की टिकट मांग रहे थे. लेकिन आप का संविधान एक ही परिवार के दो लोगों को टिकट देने से रोकता है।

इसके बाद उन्होंने पूर्व हॉकी खिलाड़ी परगट सिंह और लुधियान के दो विधायक भाइयों के साथ 'आवाज़-ए-पंजाब' के नाम से एक राजनीतिक मंच बनाया।

उनका कहना था कि उनका मंच चुनाव में उन लोगों का साथ देगा जो पंजाब के लिए कुछ अच्छा करना चाह रहे हैं. लेकिन उन्होंने उन लोगों का नाम नहीं बताया जिनका वो साथ देना चाहते हैं. इस तरह उन्होंने अपने विकल्पों को खुला रखा।

बाद में 'आवाज़-ए-पंजाब' में सिद्धू के साथ आए लुधियाना के दोनों विधायकों ने आप में शामिल होने का फ़ैसला किया।

सवाल यह है कि आखिर नवजोत सिंह सिद्धू में ऐसा क्या ख़ास है कि आप हो या कांग्रेस उनके आने से खुश है और अपना हाथ ऊपर मान रही है। असल में, इसकी एकमात्र वजह है सिद्धू की पृष्ठभूमि क्रिकेटर की होना और यही वजह है कि सिद्धू भी अपने मशहूर ‘खड़काओ’ की तर्ज पर मंजीरा छाप होकर निकल लिए हैं। अब यह उनका अति-आत्मविश्वास ही है कि उन्हें लगता है कि वह बेहद कामयाब या करिश्माई शख्सियत हैं और पंजाब की राजनीति के लिए अपरिहार्य हैं।

वैसे, सिद्धू ने गोटी बड़े करीने से खेली है और इस बार चुनाव में उनने पंजाबी बनाम बाहरी का दांव चल दिया है। ठीक बिहार विधानसभा चुनाव की तरह और अगर यह दांव सही पड़ गया तो मूलतः हरियाणा के केजरीवाल को नुकसान हो जाएगा।

बहरहाल, सिद्धू को जब बीजेपी में खास तवज्जो नहीं मिली तो आप के ज़रिए उन्होंने सीएम की कुरसी पर निशाना साधने की कोशिश की और अब कम से कम इतना ज़रूर चाहते हैं कि वह किंग नहीं तो कम से कम किंगमेकर की भूमिका में ज़रूर रहें।

पंजाब की राजनीति पर नज़र रखने वालों का मानना है कि जिस समय नवजोत सिंह सिद्धू की आम आदमी पार्टी से बातचीत चल रही थी, उस समय अगर वो आप में शामिल हो गए होते तो शायद उन्हें बड़ी सफलता मिलती।

लेकिन जिस तरीके से पिछले तीन-चार महीने में सिद्धू और उनकी पत्नी नवजोत कौर अलग-अलग पार्टियों से बातचीत में मशगूल दिखाई दीं, तो लोगों में यही संदेश गया कि वे लोग सियासी मोल-भाव में व्यस्त हैं। जाहिर है, इससे उनकी चमक कम हुई है।

वैसे भी, सिद्धू के लिए इससे भयभीत होने की ज़रूरत नहीं। पंजाब की पार्ट-टाइम पॉलिटिक्स तो किसी भी स्टूडियो से हो सकती है।



मंजीत ठाकुर

Saturday, November 19, 2016

बेपानी सियासत में पानी की राजनीति

चुनावी वक्त में पानी की तरह रूपया ज़रूर बहाया जाता है लेकिन पानी को पानी की ही तरह बहाना मुद्दा है। ताजा विवाद पंजाब बनाम हरियाणा का है, जहां मसला सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले के बाद गहरा गया। शीर्ष अदालत ने पंजाब सरकार को बड़ा झटका देते हुए सतलज का पानी हरियाणा को देने का आदेश दिया था। लेकिन, गुरूवार यानी 17 नवंबर को उच्चतम न्यायालय पंजाब द्वारा सतलुज-यमुना संपर्क नहर के लिए भूमि पर यथास्थिति बनाए रखने के शीर्ष अदालत के अंतरिम आदेश का कथित उल्लंघन करने के मामले में हरियाणा की याचिका पर 21 नवंबर को सुनवाई के लिए सहमत हो गया।

अदालत के सामने हरियाणा सरकार के वकील ने इस याचिका का उल्लेख करते हुए इस पर तुरंत सुनवाई का अनुरोध किया था। हरियाणा का कहना था कि नहर परियोजना के निमित्त भूमि पर यथास्थिति बनाए रखने का पंजाब सरकार को निर्देश देने संबंधी ऊपरी अदालत के पहले के आदेश का हनन करने के प्रयास हो रहे हैं।

हाल ही में पंजाब सरकार ने इस परियोजना के निमित्त अधिग्रहीत भूमि को तत्काल प्रभाव से अधिसूचना के दायरे से बाहर करने और इसे मुफ्त में इसके मालिकों को लौटाने का फैसला किया था। राज्य सरकार का यह निर्णय काफी महत्वपूर्ण हो गया है क्योंकि न्यायमूर्ति दवे की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय पीठ ने पिछले सप्ताह पंजाब समझौता निरस्तीकरण, 2004 कानून को असंवैधानिक करार दिया था। इस कानून के जरिए ही पंजाब ने हरियाणा के साथ जल साझा करने संबंधी 1981 के समझौते को एकतरफा निरस्त कर दिया था।

शीर्ष अदालत ने राष्ट्रपति को भेजी अपनी राय में कहा था कि पंजाब समझौते को ‘एकतरफा’ निरस्त नहीं कर सकता है और न ही शीर्ष अदालत के निर्णय को ‘निष्प्रभावी’ बना सकता है।

वैसे, पंजाब और हरियाणा के बीच सतलुज यमुना के जल-बंटवारे को लेकर विवाद पचास साल से भी ज्यादा पुराना है। पंजाब सरकार का पक्ष है कि उनके सूबे में भूमिजल स्तर बेहद कम है। अगर पंजाब ने सतलुज-यमुना नहर के जरिए हरियाणा को पानी दिया तो पंजाब में पानी का संकट खड़ा हो जाएगा। वहीं हरियाणा सरकार सतलुज के पानी पर अपना दावा ठोंक रही है।

चुनावी वक्त में पानी ने पंजाब की राजनीति को गरमा दिया है। इस मुद्दे पर पंजाब के विधायकों और कुछ सांसदो ने इस्तीफे का दौर भी चला।

दरअसल, इस विवाद की शुरूआत तो सन् 1966 में पंजाब के पुनर्गठन के साथ ही हो गई थी। इसी साल हरियाणा राज्य का गठन हुआ था। लेकिन पंजाब और हरियाणा के बीच नदियों के पानी का बंटवारा तय नहीं हो पाया था।

उस वक्त, केन्द्र सरकार ने एक अधिसूचना जारी की थी, जिसके तहत कुल 7.2 एमएएफ (मिलियन एकड़ फीट) में से 3.5 एमएएफ पानी हरियाणा को दिया जाना था। इसी पानी को हरियाणा तक लाने के वास्ते सतलुज-यमुना नहर (एसवाईएल) बनाने का फैसला हुआ। इस नहर की कुल लम्बाई 212 किलोमीटर है।

हरियाणा को पानी की जरूरत थी, सो उसने अपने हिस्से की 91 किलोमीटर नहर तयशुदा वक्त में पूरी कर ली। लेकिन, पंजाब ने अपने हिस्से की 122 किमी लम्बी नहर का निर्माण को अभी तक लटकाए रखा है। यही नहीं, पंजाब ने इसी साल यानी 2016 के मार्च में नहर निर्माण के लिए अधिग्रहीत ज़मीनें किसानों को वापस करने का फैसला कर लिया। इसका एक मतलब यह भी है कि पंजाब ने हरियाणा को पानी न देने की अपनी नीयत साफ कर दी।

नतीजतन, हरियाणा सुप्रीम कोर्ट पहुंचा। शीर्ष अदालत ने पंजाब को यथास्थिति बनाए रखने का निर्देश दिया। लेकिन अब इस मामले पर अन्तिम फैसला सुनाते हुए न्यायालय ने नहर का निर्माण को पूरा करने का फैसला सुना दिया है।

हालांकि इसी तरह के रोड़े अटकाए जाने के दौरान अदालत 1996 और 2004 में भी यही फैसला सुना चुकी है। इस दौरान कांग्रेस और अकाली दल भाजपा गठबन्धन की सरकारें पंजाब में रहीं, लेकिन नहर के निर्माण को किसी ने गति नहीं दी। मसलन एक तरह से न्यायालय के आदेश की अवमानना की स्थिति बनाई जाती रही।

ऐसा नहीं है कि इस मुद्दे को सुलझाने की कोशिशें नहीं हुईं। 31 दिसंबर, 1981 को केन्द्र सरकार ने पंजाब, हरियाणा और राजस्थान के मुख्यमंत्रियों की बैठक इसी मसले पर बुलाई थी। बैठक में रावी-व्यास नदियों में अतिरिक्त पानी की उपलब्धता का भी अध्ययन कराया गया।

इस समय पानी की उपलब्धता 158.50 लाख एमएएफ से बढ़कर 171.50 लाख एमएएफ हो गई थी। इसमें से 13.2 लाख एमएएफ अतिरिक्त पानी पंजाब को देने का प्रस्ताव मंजूर करते हुए तीनों राज्यों ने समझौता-पत्र पर हस्ताक्षर भी कर दिए थे। शर्त थी कि पंजाब सतलुज-यमुना लिंक नहर बनाएगा। काम को तेज़ी के लिए तब की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 8 अप्रैल, 1982 को पटियाला जिले के कपूरी गाँव के पास नहर की खुदाई का भूमि-पूजन भी किया। लेकिन तभी सन्त लोंगोवाल की अगुआई में अकाली दल ने नहर निर्माण के खिलाफ धर्म-युद्ध छेड़ दिया। नतीजतन पूरे पंजाब में इस नहर के खिलाफ एक आंदोलन जैसी स्थिति पैदा हो गई।

राजीव गांधी के प्रधानमंत्री बनने के बाद राजीव-लोंगोवाल समझौते पर हस्ताक्षर हुए। जिसकी शर्तों में अगस्त 1986 तक नहर का निर्माण पूरा करने पर सहमति बनी। साथ ही, सुप्रीम कोर्ट के जज की अध्यक्षता में प्राधिकरण गठित किया गया, जिसने साल 1987 में रावी-व्यास के अतिरिक्त पानी को पंजाब और हरियाणा दोनों ही राज्यों में बांटने का फैसला लिया। लेकिन यह फैसला भी ठंडे बस्ते में चला गया।

जब पंजाब के मुख्यमंत्री सुरजीत सिंह बरनाला था, तो उन्होंने राजीव-लोंगोवाल समझौते के तहत नहर का काम शुरू करवा दिया, लेकिन फिर पंजाब में उग्रवादियों ने नहर निर्माण में काम करने वाले 35 मजदूरों का नरसंहार कर दिया। बाद में नहर के दो इंजीनियरों की भी हत्या कर दी गई। इसके बाद काम रूक गया।

1990 में तत्कालीन मुख्यमंत्री हुकुम सिंह ने केन्द्र सरकार की मदद से नहर का अधूरा काम किसी केन्द्रीय एजेंसी से कराने की पहल की। सीमा सड़क संगठन को यह काम सौंपा भी गया, किन्तु शुरू नहीं हो पाया। मार्च 2016 में तो पंजाब ने सभी समझौतों को दरकिनार करते हुए नहर के लिये की गई 5376 एकड़ भूमि के अधिग्रहण को निरस्त करने का ही फैसला ले लिया।

लेकिन पंजाब में सियासी दल जिस तरह के रूख पर अड़े हैं, उससे यह कावेरी मसले की तरह के विवाद में बने रहने की ही आशंका है। लगता नहीं कि यह मुद्दा फौरी तौर पर सुलझ भी पाएगा।

एक बात साफ है कि आने वाले विधानसभा चुनाव में सियासतदानों की नज़रें सिर्फ वोटों पर ही हैं, समावेशी विकास में पंजाब और हरियाणा एक साथ नहीं आ सकते, यह बात भी स्पष्ट हो रही है।




मंजीत ठाकुर

Monday, February 8, 2016

खेती के विकास का टिकाऊ रास्ता

इन दिनों एक लंबी यात्रा पर हूं। इस सफ़र के ज़रिए भारत के विकास की रफ़्तार को नापने की कोशिश कर रहा हूं। इस सफ़र में चार राज्यों में घूमने की योजना है। लेकिन आज किस्सा पंजाब का।

देश में हरित क्रांति आई तो पंजाब और हरियाणा खेती के नए तरीकों को गले लगाया और अनाज की कमी से जूझ रहे देश का पेट भरने के लिए भरपूर पैदावार दी। लेकिन हरित क्रांति के हल्ले में एक गलती हो गई, होती चली गई।

पैदावार बढ़ाने के लिए रासायनकि खाद और कीटनाशकों का भरपूर इस्तेमाल हुआ। वैज्ञानिकों ने उस समय बताया, और खेतिहर अपनाते गए। संकर बीज, रसायन, रासायनिक खाद। उपज बढ़ गई, लेकिन उसका असर पड़ा ज़मीन पर, लोगों पर, उनकी सेहत पर और पानी पर।

आज की तारीख में देश में रासायनिक खाद के इस्तेमाल का औसत 128 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर है। लेकिन दक्षिणी पंजाब और उत्तरी हरियाणा में उर्वरकों के इस इस्तेमाल का आंकड़ा कुछ ज्यादा ही है। पूरे पंजाब राज्य में औसत रूप से 250 किलो प्रति हेक्टेयर और हरियाणा में 207 किलो की खपत होती है।

नतीजा यह हुआ कि सिंचाई के लिए खेतों में खुला पानी छोड़ देने की आदत और पंजाब-हरियाणा में पहले से पानी की कमी से रासायनिक खाद और कीटनाशकों का जहर जानवरों से होता हुआ और अनाज के ज़रिए भी इंसानों में प्रवेश कर गया।

पंजाब में इस जहर के असर लोगों की सेहत पर पड़ना शुरू हो गया। कैंसर के रोगियों की तादाद यहां सबसे अधिक है। बठिंडा के आसपास के कई गांव तो ऐसे हैं जहां कैंसर के रोगी सैकड़ों की तादाद में हैं। बठिंडा से चलकर बीकानेर तक जाने वाली एक ट्रेन का नाम ही कैंसर एक्सप्रेस हो गया है। इस ट्रेन में सफर करने वालों में कैंसर के रोगियों की संख्या बहुत अधिक होती है। यह लोग इलाज के लिए बीकानेर जा रहे होते हैं।

बहरहाल, कैंसर एक्सप्रेस के बारे में फिर कभी। आज तो पंजाब के इस विकास को अब टिकाऊ शक्ल देने के बारे में सोचने वाले कुछ किसानों की कहानी।

हम बठिंडा के कलालवालाँ गांव पहुंचे तो वहां मुलाकात हुई भोला सिंह, जगदेव सिंह और उनके भतीजे रॉबिन सिंह से। इन लोगों ने जैविक खेती शुरू की। सब्जी हो या गेहूं, या फिर गुलाब, इन लोगो ने रासायनिक खादों का इस्तेमाल बंद कर दिया।

लेकिन जैविक खेती तो बहुत सारे लोग करते हैं। जगदेव सिंह के परिवार ने ऐसा खास क्या किया? खास है उनका जैविक कीटनाशक। इन लोगों ने जीव अमृत नाम से एक ऐसा खास घोल तैयार किया है, जो मिट्टी के पोषक तत्वों को बढ़ा देता है।

हमारे कहने पर इन लोगों ने वह मिश्रण बनाना हमें भी सिखा दिया है। उनके मुताबिक, यह मिश्रण को कोई कोकाकोला का रहस्य नहीं और देश के हर राज्य के किसानों के काम आना चाहिए।

जीव अमृत के लिए 10 किलो देसी (संकर नहीं) गाय का गोबर, 10 किलो गोमूत्र, दो मुट्ठी नदी या नहर की बिना रसायन वाली मिट्टी, एक किलो गुड़ या दो लीटर गन्ने का रस, एक किलो फलीदार आटा, (समझिए सोयाबीन), और इसमें 200 लीटर पानी मिलाकर छाया में 48 घंटे के लिए छोड़ दीजिए और हर बारह घंटे में एक बार लकड़ी से चला दें। ठीक 48 घंटे बाद इस जीव अमृत को 15 लीटर पानी में 2 लीटर मिलाकर एक एकड़ में छिड़काव करने से फसल पर दस दिनों के भीतर असर दिखने लगता है।

मेरी सलाह है कि इसको बनाने का खर्च बेहद कम है तो क्यों न इस्तेमाल कर के देखा जाए। रसायनों पर सब्सिडी के लिए हो-हल्ला नहीं होगा। सरकार का बोझ दो तरफ से कम होगा। रसायनों के इस्तेमाल से होने वाले सेहत के नुकसान पर दवाओं का खर्च कम होगा सो घलुए में।



Wednesday, January 25, 2012

पंजाबः गड्डमड्ड समीकरण

पंजाब मैं पहले भी आय़ा था, लेकिन इसे इतने करीब से देखने का मौका नहीं मिला था। चुनावी हलचल हवा में है, लेकिन बड़े पैमाने पर कहीं भी पोस्टर नहीं दिखे, जो दृश्य पिछले अप्रैल में मैने पश्चिम बंगाल विधान सभा चुनाव के दौरान देखे थे वो यहां नदारद हैं। 


पंजाब की चुनावी फिजां का रंग जरा हटके है। शिरोमणि अकाली दल (बादल)-शिअद और भारतीय जनता पार्टी के गठबंधन को उम्मीद है कि वह अपनी पिछली कामयाबी को दोहरा पाएंगे। चुनावी रैलियों में भी वो जनता के सामने बिहार और गुजरात का हवाला देते हैं, जहां विकास के मुद्दे पर जनता ने उन्हें दोबारा सत्ता की कुरसी नवाजी।
मोगा में भाजपा-शिअद की रैली


जालंधर की बीजेपी-शिअद रैली में बधिया रोड विच चलावांगा गड्ड़ी हम्मर नूं, यूके वाल बनात्तां शहर जलंधर नूं..का गीत बज रहा था। यानी, निवर्तमान सरकार के नुमाइँदे विकास को मुद्दा बना रहे हैं, वही कांग्रेस ने धीमी विकास दर को चुनावी मुद्दा बनाया है। दोनों ही पार्टियां एक ही मुद्दे् पर वोट मांग रही है। पहली बार धर्म और जाति पीछे और विकास आगे की कतार में है।


इधर, कांग्रेस जीत को लेकर आश्वस्त है। इतनी आश्वस्त कि 25 जनवरी को जालंधर में युवराज राहुल गांधी ने कैप्टन अमरिंदर सिंह को भावी मुख्यमंत्री कह कर पुकारा। हालांकि यह तय था कि होना ऐसा ही है और कैप्टन की पत्नी परणीत कौर का नाम महज ऐंवईं हवा में उछला है-लेकिन अब यह औपचारिक हो गया है।
कपूरथला में सोनिया गांधी ने कहा, केन्द्र की योजनाएँ पंजाब नहीं करता लागू 


सोनिया हों या मनमोहन सिंह या फिर राहुल गांधी सबने केन्द्र की सरकार के कामकाज के आधार पर ही वोट मांगे हैं। मुझे एंटी-इंकम्बेन्सी का उतना असर तो दिखा नहीं कहीं, क्योंकि ग्रामीण पंजाब में अकाली के मजबूत आधार से निबटना कांग्रेस के लिए टेढ़ी खीर साबित हो रही है। हालांकि, मनप्रीत बादल ने अकालिय़ों को हलकान जरुर किया है और इतना तय है कि अकालियों के वोट इससे कटेंगे। 

एक सर्वेक्षण के मुताबिक, पंजाब में अकाली-शिअद गठबंधन को 7 फीसद वोटों को नुकसान और कांग्रेस को 2 फीसद वोट का फायदा हो सकता है। इसका मतलब है कि गठबंधन को करीब 27 सीटों का नुकसान झेलना पड़ सकता है और कांग्रेस की 25 सीटें बढ़ जाएंगी। लेकिन यह सर्वे जनवरी के पहले हफ्ते में किया गया था। और अभी के हालात थोड़े बदले-से हैं।


कांग्रेस को सबसे नुकसान होने वाला है दलित वोटों के खिसकने से। जितना नुकसान अकालियों को मनप्रीत की पीपीपी ( पीपुल्स पार्टी ऑफ पंजाब) से होने वाला है । तकरीबन उतना बहुजन समाज पार्टी भी कांग्रेस के वोट बैंक में सेंध लगाने वाली है। दूसरी तरफ, कांग्रेस के 23 बागी प्रत्याशी भी मैदान में डटे हैं, जिनमें से एक दर्जन को कैप्टन ने पार्टी से बाहर का रास्ता भी दिखा दिया है।


वैसे, यह तय है कि भाजपा अपना पिछला प्रदर्शन दोहरा नहीं पाएगी। उसका जनाधार पहले के मुकाबले थोड़ा खिसका है। मेरा अनुमान है कि इस बार उसे 23 सीटों में से 10 से संतोष करना होगा। अकाली अपना आधार भले बचा लें जाएं, लेकिन सरकार बनाने में उन्हें मुश्किल होगी। 


वाम दलों और पीपीपी का साझा मोर्चा अभी खेल में किसी की नजर में नहीं, लेकिन मुझे लगताहै कि वो किंगमेकर बन सकते हैं। भले ही इनके पास 5-6 विधायक ही हों। 


मौजूदा हालातों में, जिनमें मैं मालवा इलाके की बात बिलकुल नहीं कर रहा क्यों कि मैं उधर गया ही नहीं हूं, माझा-दोआबा के हालातों के मद्देनजर फिलहाल तो मुकाबला बराबरी का लग रहा है। वोटर मुंह खोलने को तैयार नहीं, ऐसे में आखिरी क्षणों में स्विंग होने वाले वोटर ही तय करेंगे कि कमान आखिरी पारी खेल रहे बादल के हाथों जाएगी, या कैप्टन बादलों के बीच से सूरज की तरह उभरकर सामने आएंगे। 

पंजाब में कुल सीटें-117, बहुमत के लिए चाहिए-64
मेरा अनुमान- कांग्रेस-55
शिअद-भाजपा- 52
साझा मोर्चा-6
अन्य- 4