भारतीय राजनीतिक पत्रकारिता के हालिया शब्दावलियों में एक शब्द ने आजकल आया राम, गया राम जैसे पद का स्थान ले लिया है और वह हैः मौसम वैज्ञानिक. जाहिरा तौर पर इस शब्द का इस्तेमाल रामविलास पासवान के लिए किया जाता है क्योंकि हवा के रुख को जितनी चतुराई से पासवान भांप जाते और इसी के मुताबिक आले पर दिया रख देते हैं, वैसी मिसाल कम ही है.
बिहार में कुशवाहा (पढ़ें, कोयरी, एक खेतिहर जाति) के स्वयंभू नेता उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी ने इस बार एनडीए का दामन छोड़कर महागठबंधन का पल्लू थाम लिया और उन्हें पांच सीटें मिल भी गईं. रालोसपा को इतनी अधिक सीटें मिलना एक तरह से साबित करता है कि कुशवाहा ने तेजस्वी से कड़ा मोलभाव किया होगा और तेजस्वी विपक्षी दलों के गठजोड़ को लेकर इतने बेचैन थे कि उन्होंने शर्तें मान भी लीं.
पर सियासी तौर पर शायद कुशवाहा ने थोड़ी अपरिपक्वता दिखा दी है. खासतौर पर तब, जब सीटें जीतना भी उतना ही महत्वपूर्ण हो. ज्यादा वक्त नहीं बीता जब समता पार्टी में नीतीश कुमार के बाद कुशवाहा नंबर दो की कुरसी पर काबिज थे. 2004 के लोकसभा चुनाव के बाद जब बिहार विधानसभा चुनाव में जनता दल यूनाइटेड, भाजपा से बड़ी पार्टी बनी थी तो नीतीश ने कुशवाहा को विपक्षी दल का नेता बनवा दिया था. उस वक्त कुशवाहा की राजनीतिक जमीन उतनी पुख्ता नहीं थी. कुशवाहा पहली बार साल 2000 में विधायक बने थे और पहली बार में ही वह विपक्षी दल के नेता बन बैठे. तब नीतीश कुमार ने कुशवाहा में शायद कोई सियासी समीकरण देख लिया था.
लेकिन, 2005 में राजद के खिलाफ बिहार में नीतीश की लहर चली तो उस लहर में भी एनडीए के उम्मीदवार रहे कुशवाहा चुनाव में खेत रहे.
इस घटना ने नीतीश को कुशवाहा से दूर कर दिया. उपेंद्र कुशवाहा मत्री बनना चाहते थे पर जदयू ने उनकी जगह संगठन में तय कर दिया. पर शायद यह कुशवाहा को अधिक भाया नहीं और 2006 में वह राकांपा में शामिल हो गए.
हाल में, एनडीए से अलग होने पर बंगला खाली करने पर कुशवाहा ने विरोध प्रदर्शन किया था और लाठी चार्ज में कुशवाहा को चोट भी आई थी. उनकी जख्मी हालत में तस्वीर सोशल मीडिया पर खूब देखी-दिखाई गई. पर कुशवाहा का यह पैंतरा पुराना है. 2005 में चुनाव हारने के बावूजद, कुशवाहा विरोधी दल के नेता के तौर पर मिले बंगले में तीन साल तक काबिज रहे थे और 2008 में उनसे जबरिया यह बंगला खाली करवाना पड़ा था. उस वक्त भी उनकी तब की पार्टी राकांपा ने बिहार में धरना-प्रदर्शन किया था. तब भी बंगला खाली करने को इन्होंने कोयरी समाज के अपमान से जोड़ दिया था.
पर, कुशवाहा के कामकाज से राकांपा प्रमुख शरद पवार कत्तई संतुष्ट नहीं थे और 2008 में पवार ने न सिर्फ कुशवाहार को पार्टी से बर्खास्त कर दिया बल्कि पार्टी की बिहार इकाई को ही भंग कर दिया. तब कुशवाहा ने अपनी नई पार्टी गठित की थी. नई पार्टी कुछ खास प्रदर्शन नहीं कर पाई और कुशवाहा राजनीतिक बियाबान में चले गए. 2010 के विधानसभा चुनावों में जद-यू के तब के अध्यक्ष और कभी नीतीश के प्रिय पात्र ललन सिंह और नीतीश में खटपट हुई और ललन सिंह ने पार्टी छोड़ दी. मौका भांपकर कुशवाहा नीतीश की छत्रछाया में लौट आए. पर 2012 में ललन सिंह की पार्टी में वापसी के साथ ही कुशवाहा ने न सिर्फ पार्टी छोड़ी और राज्यसभा से भी इस्तीफा दे दिया.
फिर अस्तित्व में आई राष्ट्रीय लोक समता पार्टी यानी रालोसपा. 2014 में जब नीतीश की भाजपा के साथ कुट्टी हो गई थी तब कुशवाहा ने एनडीए में जुड़ जाना बेहतर समझा. नरेंद्र मोदी की प्रचंड लहर में एनडीए ने रालोसपा को तीन सीटें दी और पार्टी तीनों जीत गई. हैरतअंगेज तौर पर सीतामढ़ी सीट से कुशवाहा ने अज्ञातकुलशील राम कुमार शर्मा को टिकट दिया जो एक गांव के मुखिया भर थे. आज भी यह रहस्य ही है कि कुशवाहा ने एक मुखिया को सीधे सांसदी का टिकट कैसे दे दिया.
2015 में विधानसभा चुनाव में सीट बंटवारे में काफी कलह के बाद कुशवाहा की पार्टी महज 2 सीटें ही जीत पाई. खुद अपने कुशवाहा समाज का वोट भी वे एनडीए में ट्रांसफर करा पाने में नाकाम रहे.
अब जबकि, कुशवाहा को पांच सीटें मिल चुकी हैं और उन पर उनकी ही पार्टी के नेता टिकट बेचने तक का आरोप लगा चुके हैं...यह देखना वाकई दिलचस्प होगा कि क्या उपेंद्र कुशवाहा ने सीटों की संख्या बढ़ाने के लालच में जीतने लायक सीटें छोड़ दी हैं?
सियासी हवा का रुख भांपने में माहिर पासवान एनडीए में ही बने हुए हैं और ओपिनियन पोल भी जो आंकड़े दे रहे हैं वह बिहार में महागठबंधन के लिए बहुत उत्साहजनक तस्वीर पेश नहीं कर रही. खुद रालोसपा तीनेक सीटें जीत भी जाए और खुदा न खास्ता केंद्र में एनडीए सरकार ही बनी तो फिर उपेंद्र कुशवाहा 23 मई के बाद क्या करेंगे?
बिहार में कुशवाहा (पढ़ें, कोयरी, एक खेतिहर जाति) के स्वयंभू नेता उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी ने इस बार एनडीए का दामन छोड़कर महागठबंधन का पल्लू थाम लिया और उन्हें पांच सीटें मिल भी गईं. रालोसपा को इतनी अधिक सीटें मिलना एक तरह से साबित करता है कि कुशवाहा ने तेजस्वी से कड़ा मोलभाव किया होगा और तेजस्वी विपक्षी दलों के गठजोड़ को लेकर इतने बेचैन थे कि उन्होंने शर्तें मान भी लीं.
पर सियासी तौर पर शायद कुशवाहा ने थोड़ी अपरिपक्वता दिखा दी है. खासतौर पर तब, जब सीटें जीतना भी उतना ही महत्वपूर्ण हो. ज्यादा वक्त नहीं बीता जब समता पार्टी में नीतीश कुमार के बाद कुशवाहा नंबर दो की कुरसी पर काबिज थे. 2004 के लोकसभा चुनाव के बाद जब बिहार विधानसभा चुनाव में जनता दल यूनाइटेड, भाजपा से बड़ी पार्टी बनी थी तो नीतीश ने कुशवाहा को विपक्षी दल का नेता बनवा दिया था. उस वक्त कुशवाहा की राजनीतिक जमीन उतनी पुख्ता नहीं थी. कुशवाहा पहली बार साल 2000 में विधायक बने थे और पहली बार में ही वह विपक्षी दल के नेता बन बैठे. तब नीतीश कुमार ने कुशवाहा में शायद कोई सियासी समीकरण देख लिया था.
लेकिन, 2005 में राजद के खिलाफ बिहार में नीतीश की लहर चली तो उस लहर में भी एनडीए के उम्मीदवार रहे कुशवाहा चुनाव में खेत रहे.
इस घटना ने नीतीश को कुशवाहा से दूर कर दिया. उपेंद्र कुशवाहा मत्री बनना चाहते थे पर जदयू ने उनकी जगह संगठन में तय कर दिया. पर शायद यह कुशवाहा को अधिक भाया नहीं और 2006 में वह राकांपा में शामिल हो गए.
हाल में, एनडीए से अलग होने पर बंगला खाली करने पर कुशवाहा ने विरोध प्रदर्शन किया था और लाठी चार्ज में कुशवाहा को चोट भी आई थी. उनकी जख्मी हालत में तस्वीर सोशल मीडिया पर खूब देखी-दिखाई गई. पर कुशवाहा का यह पैंतरा पुराना है. 2005 में चुनाव हारने के बावूजद, कुशवाहा विरोधी दल के नेता के तौर पर मिले बंगले में तीन साल तक काबिज रहे थे और 2008 में उनसे जबरिया यह बंगला खाली करवाना पड़ा था. उस वक्त भी उनकी तब की पार्टी राकांपा ने बिहार में धरना-प्रदर्शन किया था. तब भी बंगला खाली करने को इन्होंने कोयरी समाज के अपमान से जोड़ दिया था.
पर, कुशवाहा के कामकाज से राकांपा प्रमुख शरद पवार कत्तई संतुष्ट नहीं थे और 2008 में पवार ने न सिर्फ कुशवाहार को पार्टी से बर्खास्त कर दिया बल्कि पार्टी की बिहार इकाई को ही भंग कर दिया. तब कुशवाहा ने अपनी नई पार्टी गठित की थी. नई पार्टी कुछ खास प्रदर्शन नहीं कर पाई और कुशवाहा राजनीतिक बियाबान में चले गए. 2010 के विधानसभा चुनावों में जद-यू के तब के अध्यक्ष और कभी नीतीश के प्रिय पात्र ललन सिंह और नीतीश में खटपट हुई और ललन सिंह ने पार्टी छोड़ दी. मौका भांपकर कुशवाहा नीतीश की छत्रछाया में लौट आए. पर 2012 में ललन सिंह की पार्टी में वापसी के साथ ही कुशवाहा ने न सिर्फ पार्टी छोड़ी और राज्यसभा से भी इस्तीफा दे दिया.
फिर अस्तित्व में आई राष्ट्रीय लोक समता पार्टी यानी रालोसपा. 2014 में जब नीतीश की भाजपा के साथ कुट्टी हो गई थी तब कुशवाहा ने एनडीए में जुड़ जाना बेहतर समझा. नरेंद्र मोदी की प्रचंड लहर में एनडीए ने रालोसपा को तीन सीटें दी और पार्टी तीनों जीत गई. हैरतअंगेज तौर पर सीतामढ़ी सीट से कुशवाहा ने अज्ञातकुलशील राम कुमार शर्मा को टिकट दिया जो एक गांव के मुखिया भर थे. आज भी यह रहस्य ही है कि कुशवाहा ने एक मुखिया को सीधे सांसदी का टिकट कैसे दे दिया.
2015 में विधानसभा चुनाव में सीट बंटवारे में काफी कलह के बाद कुशवाहा की पार्टी महज 2 सीटें ही जीत पाई. खुद अपने कुशवाहा समाज का वोट भी वे एनडीए में ट्रांसफर करा पाने में नाकाम रहे.
अब जबकि, कुशवाहा को पांच सीटें मिल चुकी हैं और उन पर उनकी ही पार्टी के नेता टिकट बेचने तक का आरोप लगा चुके हैं...यह देखना वाकई दिलचस्प होगा कि क्या उपेंद्र कुशवाहा ने सीटों की संख्या बढ़ाने के लालच में जीतने लायक सीटें छोड़ दी हैं?
सियासी हवा का रुख भांपने में माहिर पासवान एनडीए में ही बने हुए हैं और ओपिनियन पोल भी जो आंकड़े दे रहे हैं वह बिहार में महागठबंधन के लिए बहुत उत्साहजनक तस्वीर पेश नहीं कर रही. खुद रालोसपा तीनेक सीटें जीत भी जाए और खुदा न खास्ता केंद्र में एनडीए सरकार ही बनी तो फिर उपेंद्र कुशवाहा 23 मई के बाद क्या करेंगे?