याद करो,
बरगद का वो पेड़,
जिसके नीचे, चायवाला दूध
औंटता चाय बनाता है...
काशी पर लिखी किताब,
बरगद के पेड़ को मुंहजबानी याद है।
उसी रेलिंग से टिककर,
नाक छूते मेरे हाथों को
तुमने रोका था कई दफा
मेरी लिखावट में मौजूद है तेरी ही तरावट,
बरगद के पेड़ को वह कहानी याद है।
तुम्हारे कमरे में
जो खिड़की है, वो नहीं खुलती
आम के उस पेड़ के नीचे
जहां खड़ा होकर रस्ता तकता हूं
अस्सी के घाट पर मेरे सुनाए किस्से
बरगद के पेड़ को घाट और रवानी याद है।
मेरे हर लफ्ज पर,
तुम्हारा ही असर है,
कोई तो कह गया है,
इक आग का दरिया है और पार जाना है
बिना इसके
बरगद के पेड़ को जिंदगी है बेमानी, याद है।