Tuesday, December 30, 2008

विदेश यात्रा से तौबा

कुछ दिन पहले विदेश यात्रा पर था। इतनी साफ़-सफाई देखी कि उबकाई आने लगी। कुछ भी ऐसी नहीं कि जिसे बेमतलब-बेमकसद कह सकें। मतलब आजादी क्या चीज़ है वहां के लोग जानते ही नहीं..। न सड़क पर कचरा पसरा था, न गायें सड़क पर घूम रही थीं। गो माता की कोई कद्र ही नहीं और ना ही समाजवाद में भरोसा है उनका। अरे, हमारे यहां तो क्या इंसान, क्या गाय-बैल क्या भैंस और क्या सूअर सभी एक साथ सड़क पर घूमते हैं।

सड़क जितनी इंसानों की है उतनी ही जानवरों की भी तो। और सड़क पूछिए ही मत जनाब.. एकदम सपाट.. लगा ही नहीं कि सड़क पर हैं। गाड़ी दन-दनादन रपटती रही। सौ की रफ्तार पर। यार हद है..गाड़ी चल रही है कि उड़ रही है पता तो लगना चाहिए ना। कई बार दरवाज़ खोल कर देखा तो यकीन हुआ कि मुआ टैक्सी ड्राइवर गाड़ी खडी कर ठग नहीं रहा था। लेकिन वह यात्रा भी क्या यात्रा गुरु कि किसी का होल्डाल सर पर नहीं गिरा, किसी ने अपनी अटैची आपके पैर पर न पटक दी, किसी के बच्चे ने अपनी मां की गोद में मूता और वह मूत सरकता हुआ आपकी दसिर पर टपक रहा हो। न धक्के लगे ना हिचकोले, क्या सफर रहा। मजा ही नहीं आया।

ना पार्क में हगते हुए लोग ना नदियों में फूल बहाने वाले भक्तजन.. यार ये फिरंगी लोग नास्तिक होते हैं क्या। नदियों के प्रति श्रद्धा भाव का तो इनमें नितांत अभाव दिखा मुझे। जिस मित्र के घर ठहरा वह वक्त पर अपने दफ्तर जाता रहा, बल्कि अपना फ्लैट मेरी निगरानी में छोड़ गया। न दिन बिजली कटे ना रैन... मन मेरा मुआ धक-धक करने लगा।

निंदिया आवे तो कैसे...हरसूं मनाया कि भई विदेश आए हैं नींद आ ले बिना बिजली कटे ही आले..हम ठहरे दिल्ली वाले... अंधेर में रहने के आदी हमें प्रकाश में घुटन का अनुभव होता रहा। नींद नही आई... उधर मच्छर भी साथ छोड़ गए.. चांद की तलाश में तड़पते चकोर की तरह हमारी अखिंयां तरस गईं मच्छर महाराज विलुप्त हो गए मानो भक्त से भगवान रुठ गए हों। मानो कोई सजनी रुठ कर चली गई हो और हम प्रेमी की तरह बिस्तर पर लोट-पोट हो रहे हो...निज़ामुद्दीन के आसपास रहने वाले दिल्ली वाले जानते होंगे कि बिना मच्छर के रात कटनी कितनी बेमतलब की बात है। मच्छरों के कोरस के अभ्यस्त कान हरि दर्शन को प्यासी ही रह गईँ....

तो भाई लोग हफ्ते की बजाय तीन दिनों में हम वापस लौट लिए.. विदेश जाने से तौबा कर ली..वापसी में सबसे पहले निज़ामुद्दीन नाले की (बद)बू नथुनों में घुसेड़ी.. मच्छरों की संगत में रात काटी तब जाकर नींद आनी शुरु हुई है।

Monday, December 15, 2008

मुए इधर ना आइयो.. - प्रोलॉग (पूर्वकथन)


ऐसा कम ही होता है कि पहले लेख लिख दिया जाए फिर प्राक्कथन या प्रोलॉग लिखा जाए..। लेकिन ऐसा न करुं तो गुस्ताख़ कहलाऊं ही क्यों?



प्राक्कथन के लिए भी एक कहानी हाजि़र है, आप मतलब निकाल लेने के लिए स्वतंत्र हैं, (हमारी मीडिया की तरह, जो आज़ादी के नाम पर कुछ भी कहीं भी कभी भी बेच सकती है)



कहानी- भारत समुदायों में बंटा है। जाति के आधार पर, धर्म के आधआर पर तो है ही, अब राज्य और जिले के स्तर पर भी बंटवारा दिखने लगा है। बहरहाल, एक राज्य है जिसके निवासी पहले काफी वीरता दिखा चुके हैं पर दंतकथाओं में इसके निवासी प्रायः कायर या भीरु बताए जाते हैं।



इस सूबे के ही इसी समुदाय के एक महोदय रेल में सफर कर रहे थे। रेल की राह एक दूसरे सूबे से होकर गुजरती थी, जिसके निवासी प्रायः बेहद अशालीन, असभ्य, बर्बर और उद्दंड माने जाते हैं। ( साबित होता है कि किसी को कुछ भी कभी भी माना जा सकता है) । रेल में सफर के दौरान पहले राज्य के निवासी का दूसरे राज्य के निवासी से झगडी़ हो गया। हमारे यहां रेल यात्रा के दौरान पहले चरण में लात-घूंसे चलने का दौर-दौरा रहता है, तत्पश्चात् मित्रता का भाव आता है। जो खीरा से लेकर झालमुडी बांटने तक स्थायी हो जाता है)



तो, हुआ यूं कि प्रथम चरण में ही दोनों के बीच चरणों का आदान-प्रदान हुआ। घर के किराए के साथ बिजली बिल की तरह गालियां दी -ली गईं। पहले राज्य वाले निवासी थोड़े पिट-से गए। कई ताबड़तोड़ घूंसे उन्हें पड़ गए, क्योंकि कहावत है कि उस खास राज्य के पढ़े-लिखे लोग मार-पीट इत्यादि में थोड़े कमज़ोर हो गए हैं।



लेकिन उन सज्जन से रुका नहीं गया। कहने लगे मुझे पीट दिया कोई बात नहीं, मेरी बीवी को मार कर दिखाओं तो फिर बताता हूं। दूसरे सूबे वाले को औरतों-वगैरह की इज़्ज़त का ज्यादा ख्याल था नहीं, सो बेचारे की बीवी को भी मार खाने पड़ी। इसी तर्ज़ पर उन महौदय ने अपने बेटे और बेटी को भी मार खिलवा दिया। फिर भी चुप बैठे रहे।



दूसरे वाले सज्जन(?) अपने गंतव्य पर उतर गए। उनके जाने के बाद बीवी-बच्चों ने शोर मचाया कि आप मार ही खा चुके थे, तो हमें पिटवाने की क्या ज़रुरत? महोदय तपाक से बोले- अगर मैं अकेला मार खा कर घर जाता तो तुम सब क्या मुझे बोर नहीं बनाते? मुझे चिढा़ते नहीं?



कहानी इतचनी सी ही है। जो मतलब निकालना हो निकालिए। और हां, एक डिस्क्लेमर देना ज़रुरी समझता हूं- कहानी पूरे समुदाय को लेकर नहीं है। उन महाशय के ही समुदाय ने कई जगह दंगा-फसाद करके साबित कर दिया है कि वो कायर नहीं हैं और मार-पीट कर सकते हैं। आगजनी वगैरह में सक्रिय भागीदारी ने उनकी वीरता को स्थापित कर दिया है। हां, देश के लिए एक जुट होने में पहले अपने सूबे की याद ज़रुर आती है। और वो एक होने से मना कर देते हैं।



Saturday, December 13, 2008

मुए, इधर ना आइयो, इधर जनाने हैं

चैनल छान रहा हूं... १४-१५ दिन हो गए चैनल वाले लगातार मुंबई हमले को बेच रहे हैं। मैंने प्रण किया था कि चाहे कुछ हो जाए मुंबई हमले पर लिख कर हमलावरों को फुटेज नहीं दूंगा। लेकिन प्रण गुस्ताख़ का था, टूट गया। अंदर से लग रहा है कि शिवराज पाटिल हो गया हूं।


शख्सियत के तौर पर शिवराज पाटिल होने का मतलब तो जानते हैं न आप? बहरहाल, सरकार के हुंकार पर एक कहानी याद आ रही है। पिछली सरकार का हुंकार और प्रण भी याद आ रहा है... आर या पार की लडाई का हुंकार...।

कहानी थोड़ी देर में बता देगे, काहे परेशान हो रहे हैं। पिछली सरकार ने हज़ारों करोड़ खर्च करके सेना को सरहद पर जमा कर दिया फिर हमला भी नहीं किया। संसद पर हमले के बाद की कहानी है।


हमारे सोच-समझ कर बोलने वाले पीएम को मुमकिन है नोबेल के शांति पुरस्कारों का मन रहा हो। नहीं मिला, मिलेगा भी नहीं।

इस बार देश के मुसलमान पता नहीं क्यों तत्काल प्रतिक्रिया दे रहें हैं। सलमान, शाहरुख, आमिर वहीदुद्दीन खान सबने हमले की निंदा की। अपनी फिल्मों का प्रचार भी कर डाला लगे हाथों। रब ने आने वाली थी शाहरुख ने बयान दिया। हमले की निंदा की। सीएएन-आईबीएन ग्रुप पर एक ही दिन में बैक-टू-बैक शाहरुख डेढ़ गंटा दिखे। आमिर की फिल्म भी रिलीज़ होने वाली है गज़नी। महाशय भी बयान दे रहे हैं। टीवी वाले फुटेज दे रहे हैं, फ्री फोकट में पब्लिसिटी मिल रही है। मौका क्यो गंवाया जाए भला?


गंभीर मसलों पर सलमान आम तौर पर बोलते नहीं। बोलते भी हैं तो कोई उन्हें गंभीरता से लेता नहीं। बहरहाल, वो भी बोले। हालांकि उनकी कोई फिल्म इधर आ नहीं रही है।


लोग डिजाइनर मोमबत्तियां लेकर सड़क पर उतर गए। फैशन डिजाइनर्स जिन्हे देश के प्रधानमंत्री का नाम भी पता नहीं, अपने पुरुष मित्रों के साए से निकल कर पुरुषत्व दिखाने निकले और हाथ में अपने किसी डिजाइनर दोस्त की डिजाइन की गई मोमबत्ती सॉरी कैडल लेकर सड़क पर उतर गए। क्या रस्म निभानी ज़रुरी थी। क्या सचमुच हम एक हो रहे हैं?


यह हम लोग मानने से क्यों हिचकते हैं कि हम भारत के लोग सत्य ही एक लुंजपुंज राष्ट्र हैं। संसद पर हमले करने वाला शख्स आज भी जिंदा है। कहीं सरकार कसाब को भी माफ करने के मूड में तो नहीं? कहीं मानविधाकर आयोग उसके लिए कुछ और सरंजाम तो नहीं जुटा रहा?


ये सवाल गुस्ताखी भरे हैं। लेकिन आपको तो कहानी का इंतजार होगा। चलिए कहानी बता दें। संदर्भ भी बता दें? चलिए बताए देते हैं- संदर्भ है आंतकी हमला और उसके बाद सुरक्षा को लेकर संकल्प। भारतेंदु के साहित्य से कहानी ली है, कहां से याद नही आ रहा।


फरवरी १७३९, दिल्ली पर नादिरशाह हमला करने वाला था। दिल्ली का बादशाह था। मुहम्मदशाह.. पूरा नाम मुहम्मद शाह रंगीला। हमले की खबर रंगीले को दी गई। पूरा दरबार चिंतित था। हमले को कैसे रोकें। बादशाहत हाथ से गई समझो। एक दरबारी बादशाह का मुंहलगा था। कहने लगा, हुजूरे-आला, ऐसा करते हैं कि यमुना के किनारे कनाते लगवा देते हैं। उन कनातो के भीतर हम सब चूडियां पहन कर बैठ रहें। जैसे ही अफ़गानी फौज़ आवे, हम चूडियां चमका करें सीधे औरतो की आवाज़ो में कहें, - मुए, इधर ना आइयो, इधर जनाने हैं।

Friday, December 12, 2008

भांग विद मंजीत- एक और लोकगीत

हे.. लटर-पटर दूनू टांग करै,
जे नहिं नबका भांग करै,
हे.. लटर-पटर दूनू टांग करै,
जे नहिं नबका भांग करै।।

आ रसगुल्ला इमहर सं आ,
इमहर सं आ, उमहर सँ आ,
सीधे मुंह में गुड़कल आ
एक सेर छाल्ही आ दू टा रसगुल्ला
एतबे टा मन मांग करै।

हे.. लटर-पटर दूनू टांग करै,
जे नहिं नबका भांग करै।।

अर्थात्, ((ल‍टर-पटर दोनों ‍‍टांग मेरी
क्या असरदार है नई भांग मेरी
ओ रसगुल्ले इधर से
आइधरर से आ, उधर से आ,
सीधे मुंह में गिरती आ
एक सेर मलाई और दो
रसगुल्लेइतनी ही है मांग मेरी))

Tuesday, December 9, 2008

मेरे फिल्म की कहानी


मैं एक फिल्म बनाने जा रहा हूं.. बिलकुल साफ-सुथरी फिल्म। कहानी कुछ यूं है, तीन मुख्य किरदार और कुछ चरित्र अभिनेताओं के सहारे कहानी आगे बढ़ेगी।



कास्टिंग-



नायक- नाम नहीं सोचा है (वैसे भी नाम में क्या रखा है)


नायिका- कोई भी सुंदर( सारी नायिकाएं सुंदर होती है तो विकल्प खुले रखे हैं, ऐश्वर्य, कतरीना,चित्रांगदा से लेकर प्रियंका तक कोई भी हो सकती है, लेकिन प्रियंका और कतरीना का बाज़ार गरम है)


विलेन- मैं खुद..।



कहानी-
मेरी फिल्म बेहद साफ-सुथरी होगी। पहले ही सीन में नायिका बदन रगड़-रगड़ कर नहाएगी। फिल्म में हीरोइन विलेन से प्यार करती है, दोनों के प्यार में दरार डालने हीरो आ जाता है, लेकिन वह कामयाब नही हो पाता। कुछ स्टंट सीनों और ट्विंस्ट के बाद हीरो जेल चला जाता है और विलेन और हीरोइन एक हो जाते हैं।



बहुत छोटी सी कहानी है हिट होगी या नहीं इस पर रायशुमारी चाहता हूं।



सादर

Monday, December 1, 2008

मजीद मजीदी- सांग ऑफ स्पैरौज़


आपको कितने ऐसे निर्देशको के नाम मालूम हैं दिनकी चार फिल्में ऑस्कर की विदेशी भाषा श्रेणी में नॉमिनेट हो चुकी हैं? गोवा फिल्म समारोह में समापन फिल्म के रुप में शामिल की गई फिल्म् सॉन्ग ऑफ स्पैरोज़ के निर्देशक मज़ीद मजीदी के नाम ऐसा कारनामा दर्ज है। उनकी चार फिल्में सॉन्ग ऑफ स्पैरो (इस साल) बारन (२००२), द कलर ऑफ पाराडाइज़ (२०००) और डिल्ड्रन ऑफ हैवन(१९९९) ऑस्कर के लिए नामांकित हो चुकी हैं।

इनमे से तीन फिल्में डिल्ड्रन ऑफ हैवन(१९९९) कलर ऑफ पाराडाइज़ (२०००) और सॉन्ग ऑफ स्पैरोज़ मांट्रियल फिल्म समारोह में खिताब जीत चुकी हैं। ये मामला थोड़ा और संजीदा हो जाता है जब आप पाते हैं कि मजीदी ने अब तक महज सात फिल्में बनाई हैं।

सॉन्ग ऑफ स्पैरोज़ इस साल बर्लिन फिल्म समारोह में अदाकारी के लिए सिल्वर बियर जीत चुकी है। इसमें तेहरान के बाहरी गंवई इलाके में रहने वाले एक परिवार की व्यथाओं क ी कहानी है। हार और जीत है। १९८१ में एक डॉक्युमेंट्री फिल्मकार के तौर पर करिअर शुरु करने वाले मजीद मजीदी ने मोहसिन मखमलबाफ की फिल्म बायकॉट में अदाकारी भी की है। यह फिल्म १९८५ में बनी थी।

निर्देशक के तौर पर मजीदी की पहली फिल्म १९९२ में आई जिसका नाम था- बादुक। इस फिल्म में भी वह एक भूमिका निभाते नज़र आए थे। ईरानी फिल्मों के पुरअसर होने पर उनका साफ कहना है कि चूंकि ईरान की फिल्में मानवीय मूल्यों को उकेरती है ऐसे में उनकी संवेदना में तो असर होगा ही।-

क्या हमारी मुख्यधारा के सुपरस्टार निर्देशक सुन रहे हैं?


उबलने की कगार पर है गोवा


जिन्हें यह पता होगा कि गोवा बेहद खूबसूरत है और बेहद शांत भी, वह अपनी जगह ठीक है। गोवा की खूबसूरती को शब्दों में बयां करना शायद ही मुमकिन हो(कम से कम मेरेलिए)। वैसे भई गोवा कहते ही लोगों के मन में एक तस्वीर सी उभरती है- समंदर के किनारे अधनंगी लेटी लड़कियों- शराब के दौर पर दौर, सेक्स की तस्वीर। लेकिन पिछले तीन साल में पचास दिन यहां गुजार चुकने के बाद यह कह सकता हूं कि यहां भी भारत वैसा ही है जैसे दूसरे हिस्सों में। यानी पारंपरिक। कोकणी और मराठी तबजीब।


जनांकिकीय दृष्टि से गोवा में तकरीबन ६५ फीसद लोग हिंदू है, इसके बाद करीब ३० फईसद इसाईयों की आबादी है। ये एक पुराना ढर्रा है और इसमें कोई नई बात नहीं। लेकिन पिछले पांच सालों में यहां की आबादी में एक खास बदलाव देखा जा रहा है, जिसकी वजह से स्थानीय आम लोग अंदर से उबल रहे हैं।


कामत की सरकार ने मनोहर पार्रीकर को मात देने के लिए मुसलमानों का मत बटोरा है। और इसके लिए कर्नाटक के मुसलमानों को यहां जगह दी है। पिछले ५ साल में कन्नड़ मुसलमानों की तादाद बढ़कर कुल आबादी का ५ फीसद हो गई है। जनांकीकिय आंकड़ों में यह बदलाव निश्चित रुप से यहां के लोगों को आक्रामक बना रहा है। मेरी बात यहां के लोगों और कुछ पत्रकारों से भी हुई और यह समस्या एक बड़ी समस्या बनने वाली है ऐसा मुझे लग रहा है।


खासकर हिंदू अतिवादी संगठन इसे और बड़ा स्वरुप दे रहे हैं। गोवा जैसे सूबे में मराठी-गैर मराठी जैसा मुद्दा भले न हो लेकिन राज ठाकरेत्व का कुछ असर ज़रुर है और सांप्रदायिकता का नया मसला गोवा की शांति को भंग कर सकता है और इसकी तहजीब को भी।

Sunday, November 30, 2008

सांप्रदायिक आतंक

क्या आतंक की दो परिभाषाएं हैं कम-से-कम धर्म के हिसाब से..? सबसे तेज़ चैनल के कार्यक्रम सीधी बात में आर आर पाटिल से सवाल पूछते वक्त महान पत्रकार के मन में क्या रहा होगा? पाटिल के जवाब का पता नहीं, पर सवाल कुछ यूं था कि आपने एटीएस का ७० फीसद हिंदू आतंकवादियों के पीछ लगा दिया लेकिन बाहरी आतंकियो के लिए महज ३० फीसद एटीएस लगाया?

मित्रों, हिंदू आतंकवाद क्या है? अगर मुस्लिम आतंकवाद मिथ्या है तो हि्ंदू आतंकवाद भी कुछ लफ्फाजों का जबानी जमा-खर्च ही है। पाकिस्तान के आतंकवादी तयशुदा ढंग से मुसलमान ही होगे लेकिन वे बाहरी क्यों कहे जा रहे हैं? मुसलमान क्यों नहीं। ठीक है और हम भी मानते हैं कि सभी मुसलमान आतंकी नहीं है और आतंक का किसी भी धर्म से कोई लेना-देना नहीं होता। ऐसे मे हिंदू आतंकवाद क्या बला है भई?

आइए हम सब आतंकवाद के खिलाफ फतवा जारी करें।

Thursday, November 27, 2008

ओरु पेन्नम रंदानम यानी अ क्लाइमेट फॉर क्राइंम

ओरु पेन्नम रंदानम यानी अ क्लाइमेट फॉर क्राइंम अडूर गोपाल कृष्णन की एक बेहतरीन फिल्म है। ११५ मिनट की इस फिल्म की कहानी दूसरे विश्वयुद्ध के आसपास बुनी गई है। लडाई में उलझे ब्रिटेन की मुश्किलों की छाया भारत पर भी पड़ने लगती है, और खाने पीने से लेकर रोज़मर्रा की चीज़ो की कमी होने लगती है।

इन्ही हालातों में बेरोज़गारी बढ़ जाती है, वंचित कमजोर तबके के पास इन बुनियादी चीजो और जिंदगी बचाने के लिए अपराध की ओर मुड़ना ही एक आखिरी रास्ता बचा रहता है। कुलीन और शालीन कहा जाने वाले तबके के पास भी कुलीनता छोड़ने के सिवा कोई और चारा नहीं होता।
पिछले साल फिल्म समारोह में दिखाई गई अडूर की ही फिल्म नालू पेन्नूगल में भी चार अलग-अलग सामाजिक पृष्ठभूमि की महिलाओं की चार कहानियां थीं, इस फिल्म मे भी एक साथ चार कहानियां चलती है।
पहली कहानी एक चोर की है जिसमें उसका बेटा अपनी मां से उसके बुरे रास्ते को छुड़वाने का वायदा करता है लेकिन दो साल के बाद वह देखता है कि उसाक पिता ग़रीबी की वजह से ही अपनी पुरानी आदत पर वापस आ गया है।
दूसीर कहानी एक पुलिस वाले की है , जो अपना अपराध एक गरीब रिक्शेवाले पर डाल देता है। रिक्शेवाले पर चोरी का आरोप लगता है लेकिन ्गर वह अपने लिए वकील करता है तो उसकी सारी जिंदगी की कमाई उसी में खत्म हो जाएगी, और अगर वह अपराध कुबूल करता है तो उसे दस दिनों के लिए जेल तो जाना ही होगा।
तीसरी कहानी एक छात्र और उसके घर में काम करने वाली लड़की के प्रेम की कहानी है। सामाजिक बंधनों और अपनी चिंताओं से लड़ने की यह कशमकश बेहतरीन हिस्सा है फिल्म का।
चौथी कहानी में एक खूबसूरत महिला की कहानी है, जिससे हर कोई शादी करना चाहता है लेकिन उसकी कहानी में प्रेम त्रिकोण बन जाता है।
पूरी फिल्म में कैमरा शानदार तरीके से वही दिखाता है, जिसकी कहानी को ज़रूरत होती है। ज्यादा मूवमेंट किए बिना कैमरे में यथार्थवादी तरीके से किस्सागोई की गई है। अडूर का समांतर सिनेमा सोकॉल्ड बड़े फिल्मकारों की सोच से मीलों आगे है। और जो लोग अच्छी फिल्मों के दर्शकों के टोटे का रोना रोते हैं, उनके लिए तो अडूर एक सबक हैं।

Sunday, November 23, 2008

गोवा में तीसरा साल

गोवा में लगातार तीसरे साल आ गया हूे। फिल्म समारोह के लिए । २२ से शुरु हो गया है। लेकिन कोई जगमग नहीं है। खाली-खाली सा मामला। चुकी हुई फिल्मे और चूके हुए फिल्मकार। खीजे हुए स्थानीय लोग और बदहवास बाहरी, यही नज़ारा है अभी पणजी में।

गोवा आने के अनुभव और यहां का अनुभव दोनों बिलकुल विरोधाभासी है..वो एक शेर है ना.. बहुत शोर सुनते थे पहलू में दिल का , जो काटा तो क़तरा-ए-ख़ूं न निकला। उसी तर्ज पर फिल्म समारोह की शोरगुल बहुत सुनते-सुनते उसका उद्घाटन भी हो गया है। लेकिन बड़े दुख से कहना पड़ रहा है कि इस बार मीडिया भी कोई रुचि नहीं ले रहा। और ले भी क्यों, आयोजको ने मीडिया को तरजीह देने या फिर उनके लिए कुछ सुविधाएं जुटाने को कोई तवज्जो नहींदी। औक अंतरराष्ट्रीय होने का ठप्पा लगा ये समारोह किसी भी तरह से उस स्तर का तो नहीं ही है। गोवा आ आयोजको ने इस े पूरी तरह से लोकल बना कर रख दिया है।

तीसरा साल है लगातार जब फिल्म समारोह में आया हूं लेकिन अभी तक के प्रदर्शन से निराश हूँ।

फिल्म समारोह में बिमल रॉय की याद

बिमल राय दो बीघा जमीन, बंदिनी और सुजाता जैसी कालजयी फिल्मों के निर्देशक बिमल राय हिंदी सिनेमा में रोमांटिक यथार्थवाद के जनक थे। यूरोपीय नवयथार्थवादी फ़िल्मों से प्रेरित बिमल राय की फ़िल्मों की छाप है.


12 जुलाई 1909 को ढाका में जन्मे बिमल दा की फिल्मों में एंट्री बतौर कैमरामैन हुई। वह कैमरामैन के तौर पर न्यू थिएटर्स प्राइवेट लिमिटेड में शामिल हुए। इस दौरान उन्होंने 1935 में प्रदर्शित हुई पीसी बरुआ की फिल्म देवदास और 1937 में प्रदर्शित मुक्ति के लिए फोटोग्राफी की।

लेकिन बिमलदा ने बहुत अधिक समय तक कैमरामैन के तौर पर काम नहीं किया और 1944 में उन्होंने उदयेर पौथे नाम की बांग्ला फिल्म का निर्देशन किया। बतौर निर्देशक यह उनकी पहली फिल्म थी। इस फिल्म का हिंदी रीमेक बाद में हमराही नाम से 1945 में प्रदर्शित हुआ।

न्यू थिएटर के पतन के बाद बिमल दा मुंबई आ गए और यहां उन्होंने 1952 में बांबे टाकीज के लिए मां [1952] का निर्देशन किया। लेकिन बिमल दा को असली कामयाबी दो बीघा जमीन से मिली। इटली के नव-यथार्थवादी सिनेमा से प्रेरित बिमल दा की दो बीघा जमीन एक ऐसे गरीब किसान की कहानी है जो शहर चला आता है। शहर आकर वह रिक्शा खींचकर रुपया कमाता है ताकि वह रेहन पड़ी जमीन को छुड़ा सके। गरीब किसान और रिक्शा चालक की भूमिका में बलराज साहनी ने जान डाल दी है।
व्यावसायिक तौर पर दो बीघा जमीन भले ही कुछ खास सफल नहीं रही लेकिन इस फिल्म ने बिमल दा की अंतरराष्ट्रीय पहचान स्थापित कर दी। इस फिल्म के लिए उन्होंने कान और कार्लोवी वैरी फिल्म समारोह में पुरस्कार जीता।

बांग्ला साहित्यकार शरतचंद्र चट्टोपाध्याय के उपन्यास पर फिल्में बनाने के मामले में बिमल दा सबसे आगे रहे। उन्होंने परिणीता के समेत बिराज बहू और देवदास जैसे उपन्यासों पर भी फिल्में बनाईँ। देवदास ने तो अभिनय सम्राट दिलीप कुमार को रातोंरात ट्रेजेडी किंग बना दिया।

इसके बाद बिमल राय ने 1958 में पुनर्जन्म पर आधारित मधुमति तथा यहूदी फिल्म का निर्देशन किया। दोनों ही फिल्में जबर्दस्त हिट रहीं। संगीतकार सलिल चौधरी ने मधुमति के लिए ऐसी धुन रचीं कि उसके गाने आज भी लोगों की जुबां पर हैं।

बिमल दा की सर्वाधिक यादगार फिल्मों में बंदिनी का नाम लिया जा सकता है। यह फिल्म हत्या के आरोप में जेल में बंद एक महिला की कहानी है। इस फिल्म में अभिनेत्री नूतन ने शानदार भूमिका अदा की है। इस फिल्म के एक गीत मेरा गोरा रंग लई से आज के मशहूर गीतकार और फिल्मकार गुलज़ार के फिल्मी जीवन की शुरुआत मानी जाती है। बिमल दा की खासियत ही देखिए कि गीतकार शैलेंद्र से उन्होंने यभाई बहन पर बंदिनी में ए क ऐसा गीत डलवाया जिसके बोल आज भी दिल को छू जाते हैं।

यह गीत शुभा खोटे पर फ़िल्‍माया गया था। इस गाने का अंतरा कितना भावुक है देखिए- (('बैरन जवानी ने छीने खिलौने, और मेरी गुड़िया चुराई।.....।' ))

बिमल दा का सफर इसके बाद तो और भी ज़ोर पकड़ता गया, छूआछूत की समस्या पर आधारित सुजाता में एक बार फिर उन्होंने नूतन को अभिनेत्री के तौर पर लिया।
बिमल राय ने 1960 में साधना को लेकर परख नाम की फिल्म बनाई, इसके अलावा 1962 में प्रेम पत्र नाम की फिल्म का निर्देशन किया।

बिमल दा ने सात बार सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का फिल्म फेयर पुरस्कार जीता। उन्हें यह पुरस्कार 1954 में दो बीघा जमीन, 1955 में परिणीता, 1956 में बिराज बहू, 1959 में मधुमति, 1960 में सुजाता, 1961 में परख तथा 1964 में बंदिनी के लिए यह पुरस्कार मिला। 1940 और 1950 के दशक में समानांतर सिनेमा के प्रणेता रहे बिमल दा के प्रोडक्शन की आखिरी फिल्म रही बेनजीर [1964]। इसका निर्देशन एस खलील ने किया था। लंबी बीमारी के बाद आखिरकार सात जनवरी 1966 को बिमल दा का निधन हो गया और इस तरह हिंदी सिनेमा को नई ऊंचाई देने वाले एक रत्न को फिल्म जगत ने खो दिया।

Saturday, November 15, 2008

ऐश्वर्य, रानी मुखर्जी और मैं

एक ओर एश्वर्य राय दूसरी तरफ़ रानी मुखर्जी। मैंने देखा ऐश्वर्य ने आँखों में कॉन्टैक्ट लेंस लगा रखा था, सलीके से कतरी हुई भौंहें, खूबसूरत पलकें... अथाह सौंदर्य। कैनवास के कच्चे रंग की तरह कि छूने से ही हाथों में लग जाएगा। हवा में उड़ती-सी भूरी जुल्फें। एकटक वह मेरी तरफ देख रही थी।

मेरे दाहिनी तरफ थी रानी मुखर्जी.. भूरी आंखों वाली इस कन्या ने कटाक्ष भरी निगाहें मेरी ओर कर रखी थीँ। पीठ पर डीप कट वाला ब्लाउज... मरून रंग की खूबसूरत साड़ी... सौंदर्य के इस जमावड़े में मैं नखदंतविहीन हो रहा था। बिषहीन तो खैर मैं पहले से ही हूं।

ऑटो के सामने वाले आईने पर पान के आकार के स्‍ीकर में- जिसे पता नहीं क्यों दिल का आकार माना जाता है- सलमान खान ने शर्ट उतार फैंकी थी। आईने के दाहिने कोने पर एक और स्टीकर था जिसमें पृष्ठभूमि से आती रेलगाड़ी और फोरग्राउंड में एक लड़की गठरी की तरह सिर झुकाए थी.. तुम कब आओगे? यह सवाल चस्पां था उस पर। आकृतियों में समानुपात जैसी कोई व्यवस्था नही..ठीक वैसे ही जैसे सड़क के दोनों ओर ऑटो के अगल-बगल से गुजरती गाड़ियों में आकार और रफ्तार का कोई अनुपात न था।

ऑटो आश्रम के उड़नपुल (फ्लाईओवपर) और उसके बाद मूलचंद के अंतःपथ (सब-वे) को पार कर अगस्त क्रांति पथ की ओर चला जा रहा था। इन सबके बीच दफ्तर की चिंता लगी थी। सैलरी में बढोत्तरी की किसी किस्म की संभावना नजर नही आ रहीष मुद्रास्फीति फर्जी तरीके से ८ दशमलव कुछ हो गया है। लेकिन मंहगाई घट गई हो, वैसा दिख नहीं रहा।

दफ्तर में काम का बड़ा बोझ इंतजार कर रहा है। छह राज्यों में चुनाव हो रहे हैं, इलेक्शन डेस्क पर हूं, राज्यों का जनादेश कार्यक्रम जाना है... रंग-तंरग भी करना है.. चंद्रयान देश का झंडा चांद पर भेज रहा है.. क्या होगा अब.. हम तक तो चंदा मामा बना रहा, अब चंदा हमारा मामा नहीं रहेगा? बच्चों का लुभावना खिलौना नहीं रहेगा? कवि अपनी प्रेयसी की तुलना चांद से कर पाएंगे, गोकि देश का झंडा वहां जा लगा है?

ये मैं क्या सोच रहा हूं..ऑटो में बाई ओर से ऐश्वर्य और दाहिनी ओर से रानी कोई जबाव नही देती उनका चेहरा उतना ही खिला हुआ है जितना तब था जब मैं ऑटो में बैठा था। इंग्लैड पर भारती की जीत, मुद्रास्फीति कम होने या चांद पर तिंरगा पहुंचने की खबर का उनपर कोई असर नहीं है।
उनका सौंदर्य मेरा दुख कम क्यो नहीं कर पा रहा.. ।

Tuesday, November 11, 2008

अब आया ऊंट पहाड़ के नीचे

ऑस्ट्रेलिया को सीरीज़ में हराकर भारत ने उसका दंभ तोड़ा, लेकिन रहना होगा सचेत

साल अंपायरों के ग़लत फैसलों और ऑस्ट्रेलियाई खिलाडि़यों की चालाकी की वजह से जो काम अधूरा रह गया था, वह अब पूरा हो गया है। कंगारुओं के दंभ को चकनाचूर करने के वास्ते पहला वार कुबले ने कर दिया था, धोनी ने उसे अंजाम तक पहुंचाया। धोनी ने जीत के साथ टेस्ट मैचों में बतौर कप्तान अपनी जीत की हैट-ट्रिक पूरी की। साथ ही अनुभवहीन टीम के साथ भारत को उसकी मांद में खदेड़ने का रिकी पॉन्टिंग का सपना चकनाचूर हो गया।

इस मैच में, नागपुर में, ऑस्टेलियाई दो सत्र भी खेल नहीं पाए। भारतीय मैदानों पर ३८२ रन की बनाकर जीतने की सपना देखने वाले पॉन्टिंग को सोचना चाहिए ता कि इससे पहले ऐसा कारनामा महज एक बार ही हुआ है, और वो ऑस्ट्रेलिया ने नहीं वेस्ट इंडीज़ ने किया है। भारतीय मैदान पर चौथी पारी में २७६ रन बनाकर जीत दर्ज करने का। गुमान में चूर कंगारू पांच रन के हिसाब से रन ठोंकते रहे इस भरोसे के साथ की इस रेट से वो जीत हासिल कर लेगे। लेकिन पंटर को सोचना चाहिए था कि टेस्ट मैच में यह रन रेट ज्यादा देर चलता नहीं। विकेट गिरते जाएं तो भी अप मारते जाएं तो वही होता है, जो ऑस्ट्रेलिया के साथ हुआ।

ऑस्ट्रेलिया के मन की हालत तो देखिए, इन्होंने अपने रेगलर गेंदबाजो़ की जगह हसी, वाइट औक क्लार्क को लगाए रखा। ओवर रेट पूरा करने के वास्ते। लेकिन ऑस्ट्रेलिया की टीम कायदो से कब से खेलने लगी। पॉन्टिंग को जवाब देना होगा। वैसे, जैसॉन क्रेजा ने १२ विकेट तो ले लिए, लेकिन इससे पहले सहवाग तेंदुलकर और धोनी ने उसे कूटकर भूस भर दिया था।

हम तो पॉन्टिग से उद्दंडता, आक्रामकता और गुस्सेवर तेवर की उममीद कर रहे थे, लेकिन भाई यह तो रक्षात्मक मुद्रा अपना रहे हैं। तो लगता है ऊंट पहाड़ के नीचे आ ही गया।

Saturday, November 8, 2008

ब्रेकिंग न्यूज़- दिल्ली में बर्फ़ गिरी

प्राइवेट न्यूज़ चैनल्स के लिए सादर समर्पित


जी हां, ये कोई अजूबा नहीं, बिलकुल सच है। देश की राजधानी दिल्ली में बर्फ गिरने की खबर सामने आई है। और हम तो नहीं खबरों से खेलने वाले कथित न्यूज़ चैनल चाहें तो इससे खेल सकते हैं।


दरअसल हुआ यूं कि दिल्ली का दिल कहे जाने वाले कनॉट प्लेस में एक साइकिल सवार ने कैरियर पर बर्फ की सिल्ली लाद रखी थी। कैरियर था ढीला और बर्फ गिर पड़ी।


इस पूरे किस्से को तीन सेक्शन मे बांट लें। और आधा घंटे का प्रोग्राम पेल दें।

गुस्ताखी माफ।

Wednesday, November 5, 2008

भीमसेन जोशी को भारत रत्न


शास्त्रीय संगीत की हिंदुस्तानी शैली में जीवित किंवदंती बन चुके भीम सेन जोशी भारत रत्न से सम्मानित किए जाएंगे। उनक आवाज़ की गहराई और उतार-चढाव के बारे में कुछ कहना सूर्य को दीया दिखाने जैसा है। दरअसल जोशी जी खुद में गायन शैली के एक स्कूल बन चुके हैं। भारत रत्न सम्मान किसी भी शख्सियत को सात साल के बाद दिया जा रहा है। इससे पहले ये पुरस्कार 2001 में लता मंगेशकर और उस्ताद बिस्मिल्ला ख़ान को दिया गया था।


पंडित जी को इससे पहले 1999 में पद्म विभूषण, 1985 में पद्म भूषण और 1972 में ही पद्म श्री से सम्मानित किया जा चुका है। इसके अलावा उन्हें संगीत-नाटक अकादमी पुरस्कार भी दिया जा चुका है। लेकिन भीम सैन जोशी जी को जनता का जो प्यार मिला है, यह अनूठा ही है। 1922 में कर्नाटक के गदग में जन्मे भीम सैन जोशी किराना घराने के शिष्य रहे है। पंडित जी किराना घराने के गायिकी के अंदाज़ को अपनी शैली का पुट देकर और समृद्ध किया।


जोशी जी ने अपनी गायन शैली में दूसरे घरानों की खूबियां भी अपनाई और उन्हें और मांजकर और रागों में मिलाकर नए रागों की रचना की। जोशी जी को उनकी खयाल गायिकी के लिए खासतौर पर जाना जाता है, साथ ही उनके भजनों में जो गहराई है कहीं और मिलनी मुश्किल है। 1932 में गुरु की तलाश में घर छोड़ देने वाले जोशी जी दो साल तक उपयुक्त गुरु की तलाश में घूमते रहे। इस दौरान वह बीजापुर, पुणे और ग्वालियर में घूमते रहे।


आखिरकार उन्हें अपना गुरु मिला और ग्वालियर में उस्ताद हाफिज़ अली ख़ान से उन्होंने गायिकी की दीॿा ली। इसके बाद 1936 में सवाई घराने रामबन कुंडगोलकर से उन्होंने खयाल गायिकी की शिक्षा ली। गदग में उन्होंने सवाई गंधर्व से खयाल गायिकी की बारीकियां सीखीं। 19 साल की ही उम्र में उन्होंने अपनी पहली प्रस्तुति दी। उनका पहला अलबम तब आया जब वे महज 20 साल के थे और ये था एक भजनों के रेकॉर्ड। जोशी जी के ही प्रयासों से पुणे में हर साल सवाई गंधर्व संगीत महोत्सव आयोजित किया जाता है।


हमें उम्मीद हैं कि सुर से सुर मिलाने की बात करने वाले इस संगीत सम्राट की बात को देश ध्यान से सुनेगा।

Monday, October 20, 2008

पप्पू कांट डांस साला...

ये पप्पू कौन है, जिसने गानों में एड में अपनी जगह बनाई है, ये समाज की उस पांत का आदमी है, जिसकी खिल्ली हर जगह उडाई जाती है...

आजकल एक गाना काफी हिट हुआ है। पप्पू कांट डांस साला... आपको याद ही होगा कि कुछ महीनों पहले कैडबरी के एड में अमिताभ जी पप्पू पास हो गया गा रहे थए। सवाल ये है कि ये पप्पू है कौन, जिसे नाचना नहीं आता और जो पढ़ने-लिखने में भी फिसड्डी है।

क्लास में पिछली बैंच में बैठने वाले लड़के जिनका ध्यान पढाई में कम लगता है, कुछ-कुछ तारे ज़मी पर के ईशान अवस्थी जैसा लड़का पप्पू ही है। लेकिन ज़रूरी नही कि आर्थिक रुप से वह कमजोर ही हो। गाने में तो साफ लिखा है ना कि पप्पू के मुंह में चांदी की चमची है, और वह गुच्ची के परफ्यूम इस्तेमाल करता है। वह गिटार बजाता है। पप्पू किशोर समाज का वह तबका है जो न उत्तर पुस्तिकांओं के ज़रिए परीक्षक को खुश कर पाता है और ना उनमें वो नाचने जैसी सामाजिक गतिविधियों में कामयाब है।

दरअसल पप्पू मुंबई गया हुआ बिहारी है। यह वह बिहारी है जो असम, पंजाब और दिल्ली में स्थानीय लोगों के कोप का शिकार होते हैं। पप्पू वह है जो तैयारी तो सिविल सेवाओं की करता है लेकिन नेवी से लेकर तटरक्षक और बीएसआरबी की परीक्षाओं में शरीक होता है--इस उम्मीद में कि पप्पू को एक अदद नौकरी तो मिल ही जाएगी।

सवाल ये है कि पिछली पांत में बैठने वाले इन पप्पुओं के लिए हम क्या कर रहे हैं। गांव के पप्पू पीने के पानी और चिकित्सा की सुविधाओं से महरुम हैं। दरअसल पप्पू क्रिकेट टीम का बारहवां खिलाड़ी है जो मैदान में पानी ढोने को अभिशप्त है। इस पप्पू के लिए विकास के फ्लाई ओवर पर चलने केलिए कोई रास्ता नहीं है, कूद कर सड़क के पार हो जाओ और किसी भी चलती गाड़ी के नीचे आने को मजबूर रहो, क्यों कि पप्पू कांट वाक साला। ये साला पप्पू अंग्रेजी नहीं जानता। उसे पिज्जा की बजाय रोटी अच्छी लगती है, नल का पानी पीता है।

आइए इस दीवाली हम सब पप्पू के पास होने में कैडबरी खाएँ।

यही तो बाजारवाद है

जेट एयरवेज कमॆचारियो के निकाले जाने से बाजार के लोगो के ही प्राण पखेरू उड़ गए । शायद किसी ने सोचा नही होगा कि ऐसी स्थिति का सामना जेट एयरवेज के कमॆचारियो को करना पड़ेगा । बाजार के पैरोकार ही बाजार में भीख मांगते नजर आए ।

कल तक लोगो को पैसे की कीमत और अपने मांडलिंग के जरिए आम लोगो को लुभाने वाले ये कमॆचारी इस कदर अपनी दलील देते नजर आए । ऐसा पहले कभी सोचा नही गया था । एक क्षण में ही पता चल गया कि बाजार क्या होता है । खैर अब भारतीय भिखारियो को भीख मांगने में शमॆ महसूस नही होगी । दरअसल आथिॆक मंदी की मार से कोई अछूता नही है । समाजवाद का धुर-विरोधी अमेरिका समाजवाद की गोद में जाने को तैयार है । शायद यह समाजवाद की जीत भी है ।

कल तक निजीकरण का हवाला देने वाला अमेरिका बाजार के विफल होने के बाद सरकार की शरण में आ गिरा है । अब अमेरिका के अनेक वित्तीय संस्थानो में बाजार का पैसा नही बल्कि सरकार का पैसा लगा होगा । यानी अथॆव्यवस्था को नियंत्रित करने वाली उंचाईयों पर बाजार का नही सरकार का कब्जा होगा । औऱ यही तो समाजवादी व्यवस्था में होता है । आज स्थिति यह है कि जो अथॆव्यवस्ता पर ज्यादा आधारित है वह उतना ही ज्यादा संकट में है । जिसका असर न केवल अमेरिका बल्कि भारत में भी दिख रहा है । भारत का तकदीर इस मायने में अच्छा है कि यहां पूणॆ ऱूप से निजीकरण सफल नही हो पाया है बरना जेट एयरवेज जैसे कई कम्पनियो के कमॆचारी सड़क पर गुहार लगाते मिलते । औऱ अपनी चमक पर स्व्यं पदाॆ डालने की कोशिश करते । यही तो बाजारवाद है ।

(धीरज कुमार नवोदित पत्रकार हैं, उनकी टिप्पणी को हम प्रकाशित कर रहे हैं)

Saturday, October 18, 2008

अच्छी है शूट ऑन साइट, चलेगी कर्ज

पौराणिक गाथाओं से बाहर निकालेगी चींटी-चींटी बैंग-बैंग

हम पहले से ही कर्ज़ (सुभाष घई वाली) के बारे में जानते हैं। तीन दशकों के बाद भी फिल्म लोगों को याद है यह पुराने वाले कर्ज की खासियत ही कही जाएगी। सुभाष घई ने हॉलिवुड की रिइनकार्नेशन ऑफ़ पीटर प्राउड का मुंबइय़ा संस्करण बडी़ खूबसूरती से तैयार किया था और फिल्म का कारोबार भी ठीक रहा था। स बार भी सतीश कोशिख ने घई की लीक पर चलना ही ठीक समझा है, और एक हद तक कामयाब भी रहे हैं।


लेकिन तमाम बातों के बावजूद पुराने कर्ज़ से नए कर्ज़ की तुलना हो रही है। हिमेश-ऋषि, उर्मिला-सिमी हर स्तर पर तुलना की गुंजाइश है। संगीत के सत्र पर भी लक्ष्मी-प्यारे बनाम हिमेश। हिमेश तीन मोर्चे पर हैं, अदाकीर, गायिकी ौर संगीत। निर्देशक सतीश कौशिक ने कर्ज़ में कहानी के स्तर पर कुछ ट्विस्ट दिया तो है, लेकिन फिल्म मे सबसे अहम बात है हिमेश रेशमिया की अदाकारी।


पिछली बार यानी आपका सुरुर में हिमेश ने खुद का किरदार किया था , लेकिन कर्ज मे उन्हें मोंटी का किरदार निभाना था और आप शायद अंदाजा भी न लगा पाएं वे अदाकारी के लिहाज से खरे उतरे हैं। मुकाबला करने वालो और कला पक्ष पर चिंतित होने वालों को ये जानना चाहिए कि ये मसाला फिल्म है। क्राफ्ट की उम्मीद करना बेकार है।


पुनर्जन्म की अविश्वनीय कहानी पर आधारित फिल्म में कला के लिहाज से और फिल्मी क्राफ्ट के हिसाब से कुछ भी उल्लेखऩीय नहीं है लेकिन लोकप्रिय संगीत और संपूर्ण मनोरंजन की वजह से फिल्म बडी़ हिट हो सकती है। जनता के बीच हिमेश की लोकप्रियता का फायदा फइल्म को मिलेगा, फिल्म का ठीक संगीत भी प्लस पॉइंट है। लेकिन पिछले सप्ताह की फिल्मों का बॉक्स ऑफिस पर घटिया औरगया-गुजरा प्रदर्शन कर्ज के लिए राहें खोल सकता है।


वैसे मुझे बड़ा ताज्जुब होता है कि क्यों लोग हिमेश के पीछे पड़े हुए हैं। मानता हूं कि न वह चोटी के संगीतकार गायक या अदाकार नहीं है। लेकिन जनता का एक बड़ा तबका उन्हें पसंद करता है। और जनता की पसंद पर अपरनी पसंद थोपने का अधिकार किसी कथित समीक्षक को नही है। कला के इन महान पुजारियों ने तो पिछली कर्ज को भी फ्लॉप करार दे दिया था। लेकिन रिजल्ट क्या हुआ था आप सबको पता है। वैसे, तय ये है कि फिल्म को हिमेश अपने कंधे पर ढो लेंगे।


रिलीज़ हुई दूसरी फिल्म है शूट ऑन साइट। निर्देशक जगमोहन मूंदड़ा ने फिल्म में नसीरुद्दीन शाह ओम पुरी और गुलशन ग्रोवर जैसे मंझे हुए कलाकारों को कास्ट किया है, ऐसे में एक्टिंग के लिहाज से निश्चिंत हो जाइए।


ये फिल्म लंदन में हुए हमले पर आधारित है, फिल्म में हमले के बाद स्कॉटलैंड यार्ड के मुस्लिम पुलिस अधिकारी बने नसीर की जिदगी में आई उथल-पुथल को दिखाया गया है। निर्देशक जगमोहन मूंदड़ा इससे पहले भी सामाजिक विषयों पर फिल्म बनाने के लिए जाने जाते हैं। शूट ऑन साइट कुल मिलाकर फिल्म तो अच्छी है लेकिन बॉक्स ऑफिस पर कुछ कर पाएगी इसमें संदेह है।


रिलीज़ हुई तीसरी फिल्म है एक एनिमेशन फिल्म चीटी-चींटी बैंग-बैंग। फिल्म को निलॉय कुमार दे ने निर्देशित किया है और फिल्म में आशीष विद्यार्थी, अंजन ॽीवास्तव, महेश माजरेकर और असरानी ने अपनी आवाजे दी हैं।


पिल्म का टारगेट ऑडियंस बच्चे ही हैं, लेकिन बड़ो में पसंद की जा सकती है। कम से कम भारत में एनिमेशन फिल्मों के पौराणिक गाथाओं से बाहर निकलने की अच्छी शुरुआत है।


मंजीत ठाकुर

Friday, October 3, 2008

इस हफ्ते की फिल्में- द्रोण और किडनैप

शुक्रवार की बजाय गुरुवार को रिलीज़ हुई फिल्म द्रोण कई मायनों में एक बडी़ फिल्म है। बडे़ सितारे, बडा़ बैनर, स्पेशल इफैक्ट और विॾापन पर बडा़ खर्च...फिल्म से उम्मीदें भी बडी़ हैं.. लेकिन इसके रिजल्ट कितने बड़े होंगे यह अभी साफ होना बाकी है।
बॉलिवुड में फैंटेसी या एडवेंचर फिल्में कम ही बनती हैं लेकिन निर्देशक गोल्डी बहल की द्रोण उस कमी को एक हद तक पूरा करती है। द्रोण को आप स्टोरी लाईन की बजाय बेहतरीन दृश्यों के लिए कुछ दिनों तक ज़रूर याद रखेंगे।
फिल्म के लेखक फंतासी और सुपर हीरो फिल्म बनाने के मसले पर उलझ गए लगते हैं। सुपर हीरो यानी छोटे बच्चन को अधिक ताकतवर दिखाने के लिए खलनायक का भी ताकतवर होना जरुरी है, लेकिन फिल्म मंे के के मेनन खलनायक कम विदूषक ज्यादा लगे हैं। फिल्म की हीरोईन प्रियंका भी बोर करती हैं राहत की बात ये है कि अभिषेक बच्चन ने अपना किरदार संजीदगी से निभाया है।
फिल्म के गाने वैभव मोदी ने लिखे हैं और गाने अच्चे बन पड़े हैँ।
द्रोण एक औसत फिल्म है और पब्लिसिटी की वजह से कमाई तो कर लेगी लेकिन फिल्म बहुत दिनों तक जनता-जनार्दन के दिलो-दिमाग़ पर छाई रहेगी इसमें संदेह है।
रिलीज़ हुई दूसरी फिल्म है किडनैप। फिल्म के निर्देशक हैं संजय गढ़वी.. धूम और धूम टू जैसी फिल्मों के वजह से इनसे बड़ी उम्मीदें थीं, लेकिन किडनैप में इन्होंने पूरी तरह निराश किया है।
फिल्म एक लड़के की बदले की कहानी है, और बॉलिवुड के लिहाज से इस कहानी में बहुत संभावनाएं थीँ, लेकिन लेखक शिवानी बथिजा इसे भुना नहीं पाईँ। प्लॉट के लिहाज से फिल्म संजय दत्त की ही ज़िंदा के करीब नजर आ रही है। फिल्म बढिया शुरुआत के बाद बिखरती चली जाती है। संजय दत्त अदाकारी में असहज दिखे हैं और मीनिषा लांबा को मिसकास्ट किया गया है। वह न तो सॼह साल की लड़की दिखती है और न ही उनके चेहरे पर अपहृत होने के बाद का डर उभर पाया है।
लेकिन इमरान खान की अदाकारी ठंडे हवा की झोंके की तरह ताज़गी देती है। लेकिन अकेले उनकी एक्टिंग फिल्म को बॉक्स ऑक्स ऑफिस पर नहीं खींच पाएगी। इमरान के प्रदर्शन को छोड़ दें तो बाकी की फिल्म निराश करती है।

राज़धानी के ड्राइवर को सलाम

कुछ अरसा हुआ मुझे गोवा जाना था। त्रिवेंद्रम राज़धानी में लंबी यात्रा से बोर भी हो रहा था और उसका एक तरह से लुत्फ भी ले रहा था। रत्नागरी के बाद रेल फिर चल पड़ी... राज़धानी एक्सप्रैस भी कोंकण रेल के उस हिस्से का मजा सेती गुजर रही थी। अचानक हुआ ये कि गाड़ी रुक गई।
हमारे अंदर का युवा इंसान और रिपोर्टर जाग गया, हमने गेट से बाहर झांका और गार्ड से पूछताछ की तो पता चला, रेल ट्रैक के बगल में कोई आदमी गिरा पड़ा था। हम भी वहां पहुंच गए, देखा एक बुजुर्ग थे। बाद मे पता चला कि पहले गई गोवा एक्सप्रैस में से गिर पड़े थे। बहरहाल, उन्हे गाड़ी में उठाकर अगले स्टेशन तक खबर पहुंचा दी गई। गोवा एक्सप्रैस उनका इंतजार करती रही थी। बुजुर्गवारक वैसे तो बेहौश थे, लेकिन कोई जानलेवा चोट नहीं आई थी।
मुझे हैरत इस बात की हुई कि राज़धानी जैसी एलीट कही जाने वाली गाड़ी एक आम आदमी के लिए रोक दी गी। ड्राइवर की नज़र की दाद देनी होगी कि उसकी निगाह उन पर पड़ गई। सबसे बडी बात ये कि ऐसा इंसानियत भरा कारनामा दिल्ली जैसे महानगर मंअभी तक देक नहीं पाया। आज याद आई है तो राज़धानी के उस ड्राइवर को सलाम करता हूं।

Thursday, October 2, 2008

मेरी गांधीगीरी...


गांधी जी की जय। मेरी भी। गांधी जी का जन्मदिन सारे देश ने मनाया। लोगों ने भाषण दिए। मेरी मां भी मेरा जन्मदिन मनाती है। खीर और गाजर का हलवा हर हिंदी फिल्म के नायक की तरह मुझे भी पसंद है, सो वह बना देती है। कहती है, निठल्ले ठूंस ले। मैं कहता हूं कि अम्मां, अब मैं निठल्ला नहीं ठहरा॥ काम करता हूं। लेकिन दूसरों की तरह मेरी मां भी मेरे काम को अहमियत नहीं देती। बहरहाल, मेरी गांधीगीरी वहीं से शुरु होती है। मैं सारे का सारा मयगाली के, खा जाता हूं। बिना शिकायत किए।


तो गांधी की इस जयंती पर मैं अपनी गांधीगिरी चालू रखने की कसम खाता हूं। मैं कसम खाता हूं कि मैं हमेशा दूसरे चैनलों के भूत-प्रेत, नाग-नागिन, हनुमान के आंसू, भीम की शर्ट-पैंट, नालियों में हिरे-पड़े बच्चों, मियां-बीवी की बेडरूम में होने वाली लड़ाईयों की, झांसी की रानी के पुनर्जन्म की कहानियों पर आधारित आधा घंटा खिंचाऊं घंटा टाइफ प्रोग्रामों की न सिर्फ निंदा करूंगा, बल्कि खिल्ली उड़ाने की हद तक करूंगा। साथ मन ही मन मैं उस चैनल में काम करने की जुगत भिडा़ता रहूंगा। मैं हमेशा उन्हें यह कह कर कोसूंगा कि चूतियों ने पत्रकारिता का तिया-पांचा कर रखा है। लेकिन मैं हर महीने अपना सीवी उनके चैनल हैड को फॉरवर्ड किया करूंगा।


मैं ये भी कसम खाता हूं कि रॉयटर्स से आने वाले फीड में शकीरा और ब्रिटनी स्पियर्स जासी मादक मादाओं के गुदाज़ बदन का, उनके मांसल बदन को, सिर्फ एडिट बे में छिपकर लॉग किया करूंगा, गो कि यह हमारे चैनल में दिखाया नहीं जा सकता। बाद में मैं सीना ठोंक कर कह सकता हूं कि बहन॥चो.. हम उल्टा-सीधा नहीं दिखाते।बाद में जब मैं सीनियर हो जाऊंगा, तो अपने जूनियरों को यह कह कर हड़काऊंगा कि जो कवरेज जो रिपोर्ट हमने की तुम क्या तुम्हारे पुरखे भी नहीं कर सकते। अगर जूनियर २३-२४ साल का हुआ तो उसे यह कहूंगा कि जितनी तुम्हारी उमर नहीं, उतने दिनों से तो मैं मीडिया में कवरेज कर रहा हूं।

मैं कोशिश करूंगा कि सभी मंत्रियों, सभासदो, पार्षदों, सांसदों, विधायकों, उन सबकी पत्नियों, सालों, बहनोईयों के चरण रज का वंदन किया करूं, ताकि वक्त आने पर वो मुझे बाईट दे दिया करें।


मैं ये भी कसम खाता हूं कि कभी किसी प्रकाश झा की तुलना राम गोपाल वर्मा से करके अपनी भद नही पिटवाऊंगा। ताकि दोनों के प्रशंसक मुझसे नाराज़ न हों। और मेरी हर जगह पैठ बनी रहे। आगे से मैं जो भी लिखूंगा, लोगों को खुश करने के लिए लिखूंगा। किसी को नाराज़ नहीं करूंगा। हां, मशहूर होने के लिए रचनाएं ( अच्छी हो या बुरी, कोई फरक नहीं पड़ता) चुरा कर छपवाऊंगा, क्योकि कि पुरस्कार लोगों को मशहूर बनाता है। इसके लिए मैं हिंदी का क्षेत्रीय भाषाई होने का पुरस्कार भी बिना विरोध किए ले लूंगा, क्योंकि मुझे तो मशहूर बनना है।


हां एक और आइडिया है.. सार्वजनिक मंचो पर और नोबेल प्राप्त सर विदिया की तरह बापू की बुराई करके भी मैं मशहूर हो सकता हूं। तो आप मेरे मशहूर होने का इंतज़ार कीजिए। मैं किसी अच्छी रचना की जुगाड़ में हूं।

Tuesday, September 30, 2008

मेरे ब्लॉग का एक साल


खुशी भी हो रही है और एक सिहरन भी। मेरे ब्लॉग का एक साल आज पूरा हो गया। पिछले साल २९ सितंबर को ही ब्लॉग बनाया था। इससे पहले मैंने अपने मित्र निखिल के साथ भगजोगनी शुरु की, लेकिन मित्र का दावा था कि लेखकीय सामग्री पर एडिटोरियल राइट्स उनके ही होंगे। अर्थात्, मेरे लिखे को एडिट किया जाता। चुनांचे, ये बात मुझे कुछ भायी नहीं और कुछ दिनों तक इंतजार करने के बाद मैंने अपना ब्लॉग शुरु कर दिया।

पहले एक बरस के अनुभव ने उत्साह दिया है। लोग मुझे पढ़ने लिखे। मेरा ऊल-जुलूल सब लोगों ने पढ़ा। समीर लाल उर्फ उड़न तश्तरी कनाडा से उड़-उड़कर ब्लॉग पर आते रहे। मजा़ आया। लेकिन एक साल के बाद अब लगता है कि खेल-खेल में शुरु किए इस काम को खिलवाड़ न मानते हुए कुछ संजीदा गुस्ताखी की जाए। अपनी पीठ खुद इसलिए थपथपा रहा हूं क्यों कि मेरा पूरा ब्लॉग लेखन साइबर कैफे के ज़रिए हुआ है और अभी तक मेरे पास कंप्यूटर नहीं हो पाया है।

अब ऐसा लग रहा है कि कुछ संजीदा लिखूं। कुछ बढिया लिखूं.. गौतम और महावीर की तरह मुझे एक बरस के बाद ही बुद्धत्व और कैवल्य मिल गया है। पाठको का प्यार मिला है, आगे मिलता रहे इसी आशीर्वाद की आकांक्षा है।

सप्रेम
गुस्ताख़
मंजीत

Thursday, September 25, 2008

मैथिली लोकगीत

सावन-भादों मे बलमुआ हो चुबैये बंगला

सावन-भादों मे...!

दसे रुपैया मोरा ससुर के कमाई

हो हो, गहना गढ़एब की छाबायेब बंगला

सावन-भादों मे...! ]

पांचे रुपैया मोरा भैन्सुर के कमाई

हो हो, चुनरी रंगायब की छाबायेब बंगला

सावन-भादों मे...!

दुइये रुपैया मोरा देवर के कमाई

हो हो, चोलिया सियायेब की छाबायेब बंगला

सावन-भादों मे...!

एके रुपैया मोरा ननादोई के कमाई

हो हो, टिकुली मंगायेब की छाबायेब बंगला

सावन-भादों मे...!

एके अठन्नी मोरा पिया के कमाई

हो हो, खिलिया मंगाएब की छाबायेब बंगला

सावन-भादों मे...!

Wednesday, September 24, 2008

ऑस्कर की आशा

तारे ज़मीन पर ऑस्कर में नॉमिनेट होने के लिए चुन ली गई है.. अभी ऩॉमिनेट हुई नहीं है... लेकिन भारत के लोगों में इस फिल्म को लेकर बहुत उत्साह है। हर साल हम विदेशी भाषा वर्ग में अपनी फिल्म भेजते रहे हैं, लेकिन 1956 में पहली बार प्रविष्टि के लिए गई मदर इंडिया के बाद अब तक गंगा में बहुत पानी बह चुका है.. और हम दुनिया में सबसे अधिक फिल्में बनाने वाले देश बन गए हैं। लेकिन अभी तक स्थिति ये है कि हम महज तीन बार ऑस्कर के लिए नॉमिनेट हो पाए हैं। पुरस्कार जीतना तो दूर की कौड़ी है।


नॉमिनेशन की बात की जाए तो 1956 में महबूब खान की मदर इंडिया और 1988 में मीरा नायर की सलाम बाम्बे के बाद 2001 में आशुतोष गोवारिकर की लगान इस वर्ग में पुरस्कार की दौड़ में शामिल हो सकीं।


लाख टके का सवाल ये है कि अगर हम बॉलिवुड का परचम दुनिया भर में फैलाने का खम ठोंकते हैं तो हमारी फिल्मो को संजीदगी के साथ क्यों नहीं लिया जाता। आखिर बर्लिन या कॉन जैसे प्रतिष्ठित फिल्म समारोहों और ऑस्कर पुरस्कार समारोहों में हमारी नुमाइंदगी इतनी कमज़ोर क्यों होती है।
ऑस्कर में लगान का प्रदर्शन उत्साह बढाने वाला था लेकिन हम पुरस्कार पाने से चूक गए थे। 2002 में संजय लीला भंसाली की देवदास अवॉर्ड के लिए भेजी गई। फिल्म रीमेक थी और ट्रीटमेंट को लेकर चूक गई।


2003 में कोई आधिकारिक प्रविष्टि नहीं भेजी गई। 2004 में संजय सावंत की मराठी फिल्म श्वास और अगले साल यानी 2005 अमोल पालेकर की पहेली को नॉमिनेशन के लिए भेजा गया। खांटी भारतीय विषय पर बनी फिल्म पहेली भी ऑस्कर में नाकाम रही। 2006 में आमिर खान की अदाकारी और राकेश ओम प्रकाश मेहरा के निर्देशन में बनी फिल्म रंग दे बसंती भारत की प्रविष्टि थी। भ्रष्टाचार के खिलाफ़ एक दस्तावेज की तरह बनी इस फिल्म ने युवाओं को काफी अपील किया, लेकिन वैश्विक दर्शकों को यह उतना अपील नहीं कर पाई, ऐसे में यह भी ऑस्कर में नॉमिनेट नही हो पाई।
2007 में विधु विनोद चोपड़ा की एकलव्य- द रॉयल गार्ड को भारत की ओर से नामित किया गया, लेकिन यह भी ऑस्कर के स्तर तक नहीं पहुंच पाई। वैसे, एकलव्य भारतीय दर्शकों को भी नहीं लुभा पाई थी, और कला के लिहाज से भी कमजोर फिल्म थी।


अब एक बार फिर अदाकार आमिर और निर्देशक आमिर दोनों को मौका मिला है, भारत के सिर ऑस्कर का सेहरा बांधने का। यूं भी तारे ज़मीन पर एक अलग किस्म की फिल्म है, जिसकी कहानी हटके है। फिल्म समीॿकों के साथ दर्शकों का भी भरपूर दुलार मिला है।


उम्मीद है कि लगान के ज़रिए ऑस्कर पाने में जरा से चूक गए आमिर इस बार ऑस्कर के तारे को भारत की ज़मीन पर ले ही आएंगे।

Tuesday, September 23, 2008

ऑस्कर की दौड़ में भारतीय फिल्मे


खबर ये है कि इस साल आमिर ख़ान की फ़िल्म 'तारे ज़मीं पर' ऑस्कर पाने की होड़ में शामिल हो गई है।भारत से विदेशी भाषा की श्रेष्ठ फ़िल्मों की श्रेणी में इसे प्रवेश मिलेगा. शनिवार शाम मुंबई में फ़िल्म फेडरेशन ऑफ इंडिया की तरफ़ से फ़िल्म निर्माता सुनील दर्शन ने इसकी घोषणा की है।

लगे हाथ बता दें कि अब तक विदेशी फिल्मों की श्रेणी में किन भारतीय फिल्मों को नामित किया गया है-िसमें रिलीज़ हुए बरस का उल्लेख मैं कर रहा हूं, जिसमें अगले वसंत माह में पुरस्कार बंटता है।

१८५६- मदर इंडिया - महबूब खान- नॉमिनेटेड

१९६२- साहब, बीवी और गुलाम- अबरार अलवी

१८६९- देवामागन्- ए सी थिरुलोगचंदर

१९७०-कोई एंट्री नहीं

१९७१- रेशमा और शेरा- सुनील दत्त

१९७२ उपहार- सुधेंदु रॉय

१९७३- सौदागर-सुधेंदु ऱॉय

१८७४- गरम हवा- एम एस सथ्यू

१९७५-७६ कोई एंट्री नहीं

१९७७-मंथन- श्याम बेनेगल

१९७८ द चेस प्लेयर- सत्यजित् रे

१९७९- कोई एंट्री नहीं

१९८०- पायल की झनकार- सत्येन बोस

१९८१-८३- कोई एंट्री नहीं

१९८४- सारांश- महेश भट्ट

१९८५- सागर- रमेश सिप्पी

१९८६- स्वाति मुत्यम्- विश्वनाथ

१९८७- नायकन्- मणिरत्नम्

१९८८-सलाम बॉम्बे- मीरा नायर- नॉमिनेटेड

१८८९- परिंदा- विधु विनोद चोपड़ा

१९९०- अंजलि- मणिरत्नम्

१९९१- हिना- रणधीर कपूर

१९९२-थेवर मगन- भरतन्

१९९३- रुदाली- कल्पना लाजिमी

१९९४ बैंडिट क्वीन- शेखर कपूर-

१९९५- कुरुदिपुनल्- पी सी श्रीराम

१९९६-इंडियन- शंकर

१९९७- गुरु- राजीव अंचल

१९९८-जींस- शंकर

१९९९- अर्थ- दीपा मेहता

२०००- हे राम- कमल हासन

२००१- लगान- आशुतोष गोवारिकर- ऩॉमिनेटेड

२००२-देवदास- संजय लीला भंसाली

२००३-कोई एंट्री नहीं

२००४- श्वास- संजय सावंत

२००५-पहेली- अमोल पालेकर

२००६- रंग दे बसंती- राकेश ओमप्रकाश मेहरा

२००७- एकलव्य- द रॉयल गार्ड- विधु विनोद चोपड़ा

२००८- तारे ज़मीन पर- आमिर खान
यानी अब तक तारे ज़मीर पर को छोड़ दें तो महज तीन फिल्में ही ऑस्कर की दौड़ में शामिल हो पाई है, मदर इंडिया, सलाम बॉम्बे और लगान।
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Wednesday, September 17, 2008

बेटो के लिए पर्व-जितिया


अभी कल भाभियां गप्प कर रही थीं, जितिया पर्व के बारे में॥। जितिया बिहार और यूपी में पुत्रवती महिलाओं के बीच लोकप्रिय त्योहार (उपवास) है। मान्यता है कि जिस भी औरत के बेटे हों, उसे यह त्योहार करना चाहिए और िस उपवास के करने से बेटों की उम्र लंबी होती है।


उपवास के बाद एक राजा जीमूतवाहन की कथा भी सुनी जाती है, और भारतीय श्रुति परंपरा के हिसाब से गलत भी नहीं है । हां, पितृसत्तात्मक समाज का एक उदाहरण ये त्योहार भी है। लेकिन मेरे खयाल से महिला विमर्श वालों ने और महिला के अधिकारों के अलंबरदारों ने बहुत कुछ लिखा होगा इस पर।
इस त्योहार पर मैं जो सोच रहा हूं और जो लिख रहा हूं और जो मुझे याद आ रहा है वह थोड़ा अलग है। सोच ये रहा हूं कि जितिया त्योहार के पीछे इतिहास क्या हो सकता है?

मुझे लगता है कि सौ-दो सौ बरस या उससे भी पहले मृत्युदर बेहद ज्यादा थी। अकाल, बाढ और महामारी जैसी बीमारियां बहुत थीं। लडाईयां भी होती रहती थीं, ऐसे में लोगों की औसत उम्र बहुत नहीं होती थी। ३५- या ज्यादा-ज्यादा ४०। ऐसे में पंडितो ने घबराई मांओं को यह त्योहार सुझाया होगा। बाप बेटे के लिए उपवास क्यो नहीं करता यह अलग और अहम सवाल है। शायद कमाऊ इंसान के लिए ज्यादा उपवास वगैरह करना ठीक न माना जाता हो।


दूसरे, जितिया त्योहार मेरे लिए एक अलग याद लेकर आता है। परिवार में छोटा होने का फायदा हमेशा मुझे मिलता रहा। बहनों ने भी कभी इस बात की शिकायत नहीं कि मां उनकी लंबी उम्र के लिए कोई व्रत या उपवास क्यो नही करती। जितिया उपवास शुरु होने से पहले मां हमें अल्लसुबह उठा देतीं। बहनें जबरन मुंह धुलवाकर थाली में चिउडा-दही परोस देतीं। मैथिली में इस प्रक्रिया को ओँठगन कहा जाता है।


लंबे उपवास से पहले महिलाओं को भारी बोजन करवा देने का रिवाज था। मुमकिन है कि मां अकेले खा लेना मुनासिब न समझती हों। लेकिन यह इस त्योहार का अभिन्न अंग हो जाता था, कि मां सुबह-सुबह लिंग विभेद किए बिना सभी बच्चों को उत्कृष्ट किस्म का खाना खिला देतीं।


तो जनाब हम भी सारा भोजन उदरस्थ करके बिना कुछ बोले पुनः लंबी तान देते। भरा पेट होने की वजह से ९ बजे या फिर दस बजे तक ही जगते। सुबह-सुबह तर माल उडाने का जो मज़ा था, वह आज भी याद आता है। फिर मां जिस दिन यानी तकरीबन डेढ दिन बाद जब व्रत तोड़तीं, एक बार हमारे लिए महाभोज होता।


मन कर रहा है कि जितिया से पहले मां के पास घर चला जाऊं, लेकिन बॉस ने छुट्टी देने से मना कर दिया है।

Tuesday, September 16, 2008

वस्त्र-पुरुष को धो डाला


भारत में एक छूट है॥ आप निरक्षर हैं तो शिक्षा मंत्री बन सकते हैं, और चाहें तिकने भी कमजोर और नरम क्यों न हों गृहमंत्री भी बन सकते हैं। अब एक मान्यता इस पद को लेकर ये है कि इस पद पर आसीन व्यक्ति लौह पुरुष टाइप होना चाहिए और इससे पहले यात्रा पुरुष लालकृष्ण आडवाणी भी लौह पुरुषनुमा भंगिमा धारण किए रहते थे। लौहपुरुष तो ये दोनों क्या खाक होंगे हां, जंग उनकी राजनीति में ज़रुर लग गई।

अब १३ सितंबर के दिल्ली धमाकों के बाद मीडिया की नज़र कमजोर गृहमंत्री की रिपोर्ट कार्ड पर पड़ ही गई। आखिरकार कब तक मीडिया भी दुनिया के तबाह होने की और बाघों के प्रेम कथा को खींच पाता। कपड़े बदलने के लिए मशहूर नफासतपसंद होम मिनिस्टर पर भी उनकी नज़र पड़ ही गई। स्टार और आजतक ने गृह मंत्री की बखिया उधेड़कर रख दी। सिर्फ एनडीटीवी ही उनके बचाव के प्रोपैगेंडा के तहत यूपीए और एनडीए के गृहमंत्रियों की तुलना करता नजर आया।

धमाकों के ठीक बाद तीन बार कपड़े बदल-बदलकर कैमरे के सामने दिखने की इच्छा शिवराज पाटिल की उघड़ गई। मामला बेनकाब होने वाला हो गया। हर धमाके के बाद अपना घिसा-पिटा बयान वे देते नज़र आए। अरे , थोडा़ जानदार बयान दे देते। अब गृह मंत्रालय के लिए बड़े दिनो से मचान पर लटके शिकारी की तरह इंतजार में खड़े लालू ने तुरंत हमाला बोल दिया। लेकिन लालू जी, अब आखिर के ५-६ महीने में गृह मंत्रालय लेकर क्या ज़ायका बिगाडिएगा? जाइतो गंवइलऊं, स्वादों नईं पईलहुं वाला मामला न हो जाए।

हे जनता जनार्दन, आंखे खोलों ये शिवराज तो महज एक नेता है॥ सभी नेता ऐसे ही हैं..। कपड़े बदलने में माहिर। कोई बंद गले का कोट बदलता है कोई कलफ लगा हुआ कुरता। अपने वोट बैंक के लिए ये कुछ भी करते हैं..लेकिन आगे से ऐसे नेता चुनाव न जीत कर आएं, यह आपको सुनिश्चित करना होगा।

Saturday, September 6, 2008

टीवी की असलियत की तस्वीरें





ये प्रेमकथा बडी मार्मिक है गौर से देखिए और टिप्पणी कीजिए.. हमारी उज्जवल टीवी पत्रकारिता का...अब तिलचट्टे झींगुरों और पिल्लुओं की प्रेम कहानी दिखाई जाएगी।





पत्रकारिता का अवसान निकट है॥ ये प्रेमकथा बडी मार्मिक है गौर से देखिए और टिप्पणी कीजिए.. हमारी उज्जवल टीवी पत्रकारिता का।

Monday, September 1, 2008

बचपन में पढ़ी एक कविता

चींटे का चांटा खाते ही,

गिरा लुढ़ककर हाथी,

भाग चले सब भालू-सूअर,

भगे शेर ले साथी।

कान पकड़कर हाथी बोला

अब न करो बेपानी

पूंछ पकड़कर ज़रा उठा दो,

क्षमा करो शैतानी

Tuesday, August 26, 2008

एक कहानी

एक थे सेठ जी। जैसा कि आम तौर पर कहानियों में होता है, सेठ जी बड़े दयालु थे। और प्रायः पुण्य इत्यादि करने के वास्ते हरिद्वार वगैरह जाते रहते थे। एक बार वह गंगासागर की यात्रा पर गए।कहते हैं, सब धाम बार-बार गंगासागर एक बार। और ये भी मान्यता है कि गंगासागर जैसी पवित्र जगह में अपनी एक बुरी आदत छोड़कर ही आना चाहिए। इस बाबत सेठ जी अपने दोस्त से बातें कर ही रहे थे॥और उसे बता रहे थे कि इस बार वह अपने बात-बात में गुस्सा हो जाने की आदत को गंगासागर में ही छोड़कर आए हैँ।

सेठ जी का दोस्त बड़ा खुश हुआ, सेठानी भी मन ही मन नाच उठी कि अब तो सेठ जी उसे हर बात पर नहीं डांटेंगे। और ऐसा भी हमेशा होता है कि सेठ जी लोगों का एक नौकर होता है और आमतौर पर उसका नाम रामू ही होता है। इन सेठ जी के भी नौकर का नाम भी रामू ही था।

तो रामू ने सेठ जी के लिए पानी का गिलास रखचे हुए पूछा कि सेठ जी आप गंगासागर में क्या छोड़कर आए ? सेठ जी जवाब दिया- गुस्सा।रामू पानी रखकर चला गया। फिर छोड़ी देर बाद जब वह ग्लास उठाने आया तो उसेने फिर पूछा - सेठ जी आप गंगासागर में क्या छोड़कर आए ? सेठजी ने मुस्कुराते हुए कहा - गुस्सा छोड़ कर आया हूं।

कुछ देर और बीता रामू फिर सवाल लेकर आ गया- सेठ जी आप गंगासागर में क्या छोड़कर आए ? सेठ जी थोड़े झल्लाए तो सही लेकिन उन्होंने अपने-आपको जब्त करते हुए कहा कि मैं गंगासागर में गुस्सा छोड़कर आया हूं।

फिर रात के खाने का वक्त आया- रामू फिर खुद को रोक न पाया, पूछ ही बैठा- सेठ जी आप गंगासागर में क्या छोड़कर आए ? अब तो सेठ जी का पारा गरम हो गया। जूता उठा कर नौकर को दचकते हुए उन्होंने कहा कि हरामखोर। तब से कहे जा रहा हूं कि गुस्सा छोड़कर आया हूं तो सुनता नहीं? हर जूते के साथ सेठ जी कहते सुन बे रमुए, गुस्सा छोड़ कर आया हूं, गुस्सा।

इस कहानी से क्या शिक्षा मिलती है? पता नहीं आपको क्या शिक्षा मिली, मुझे तो ये मिली कि
नंबर १- किसी सेठ के यहां नौकरी मत करो।
२- नौकरी करनी ही पड़ जाए तो सेठ से सवाल मत पूछो और नियम पालन करो कि सेठ एज़ आलवेज़
राइट३- कभी किसी सेठ की बात का भरोसा मत करो, चाहे वह गंगासागर से ही क्यों न आया हो।

Tuesday, August 19, 2008

मुसलमानों को घर क्यों नहीं मिलता?

ये सवाल पिछले दिनों शबाना आज़मी ने उठाया. कि हिंदुस्तान में मुसलमानों को घर नसीब नहीं। फिर एक बैठक के दौरान माननीय सईद नकवी ने भी बयान दिया है कि उन्हें इस सेकुलर हिंदुस्तान में कमारा किराए पर नहीं मिला क्योंकि वह मुसलमान थे और गोश्त खाते थे।

क्या सचमुच यह स्थिति है कि मुसलमानो को घर नहीं मिलता? क्या देश के सोलह करोड़ मुसमान बिना घरबार के सड़कों पर रह रहे हैं। पहले नकवी साहब की बात, उनका कहना ता कि दिल्ली के हिंदुओं ने उन्हे रहने के लिए किराए पर मकान नहीं दिया. उनकी बात का समर्थन किया कुलदीप नैयर ने। ये बात तीसेक साल पहले की है, जब इंदिरा जी जिंदा थी और कथित रुप से भारत सेकुलर भी था। उस वक्त कुलदीप नैयर साहब ने स्टेट्समैन के नाम पर किराए पर घर लिया, और उसे नकवी को दिया। ( अब ये तो नैयर साहब ने उस मकान मालिक के साथ धोखा किया)

नकवी साहब गोश्त खाना नहीं छोड़ सकते.. तो क्या उस मकान मालिक को इतनी छूट नहीं कि वह गोश्त नही खाता तो गोश्त खाने वाले को घर न दे।

यह भी तो हो सकता है कि उसने गोश्त खाने वाले हिंदुओं को भी मकान नहीं दिया हो। इसकी क्रास चेकिंग की गई? बहरहाल अब बात शबाना की। आपने हाल ही में कहा कि मुसलमानों के साथ भेदभावपूर्ण रवैया अख्तियार किया जा रहा है। कहां? क्या हज यात्रियों को सब्सिडी मिलनी बंद हो गई है? क्या हिंदुओं को कैलाश-मानसरोवर यात्रा के लिए कोई छूट दी जा रही है? अल्पसंख्यक होने का फायदा उठाना और बात है?

दरअसल मुसलमानों का आम मानस अब भी मासूम है, और उसाक फायादा सियासतदां उठा रहे हैं। उन्होंने ही फिजां बना दी है कि सिर्फ मुसलमान होने के नाते उनको परेशान किया जा रहा है। क्या इस बात का कोई रेकॉर्ड है कि कितने लोग बेवजह व्यवस्था द्वारा परेशान किए गए? उनकी कोई गिनती है धर्म के आधार पर। गिनती की जाए तो उनमें भी हिंदु ओ की गिनती ही ज्यादा होगी। इस मुद्दे पर खोल में सिमटने की बजाय खुलेमन से देखने की ज़रूरत है। वरना क्या वजह है कि अज़हरुद्दीन क्रिकेट टीम के कप्तान बनते हैं तो ठीक, मैच फिक्सिंग में फंसे तो कहा कि अल्पसंख्यक होने की वजह से उन्हे फंसाया जा रहा है। ऐसा ही सलमान खान ने कहा था। चिंकारा मामले में।

एक और बात, रोज़े-नमाज़ से दूर रहने वाले ये सेलेब्रिटी जेल जाते वक्त तुरत सर पर टोपी पहने लेते हैं। ताकि संदेश ये जाए कि वह मुसलमान है और उन्हे परेशान किया जा रहा है। कल को दाउद इब्राहिम भी कहेगा कि वह मुसलमान है इसलिए भारत में उसे परेशान किया जा रहा है।
इधर जैसे ही हाई कोर्ट ने सिमी परसे पाबंदी बटाने की बात की, मुलायम कह उठे- देक्खा, मैंने तो पहले ही कहा था कि उन्हें परेशान किया जा रहा है। बहरहाल, संतोष की बात ये है कि सुप्रीम कोर्ट ने मामले पर स्टे दे दिया और सिमी पर प्रतिबध कायम है। बाद में अहमदाबाद और जयपुर धमाको में उनके रिश्तों की खबरें भी सामने आईं, इनमं सिमी के लोग शामिल बताए जा रहे हैं। अब तुरत-फुरत बयानबाज़ी करने वाले नेताओं के बारे में क्या कहा जाए। मेरे खयाल में तो पहला प्रतिबंध इन नताओँ पर ही लगा दिया जाए।

इस तरह की सोच को बदला जाना ज़रूरी है। खासकर तुष्टिकरण देश का सबसे ज्यादा नुकसान कर रहा है।

Wednesday, August 13, 2008

सेकुलर चैनलों की खुल गई पोल

टीवी देख रहा हूं.. चैनल बम बम भोले की रट लगाते लोगों के एंबियांस से गुंजायमान है। एनडीटीवी पर शेखी बघारते बड़े पत्रकार जम्मू को नजरअंदाज़ करते हुए श्रीनगर की घटना के बारे में जोर देते हुए खबरदार करते हैं- कि १६ प्रदर्शनकारी मार डाले गए। पद्मश्री से नवाजे गए पत्रकार अपने क़द का फायदा उठाते हुए फतवा जारी कर रहे हैं कि जम्मू और घाटी में मुद्दे बदल गए हैं। बड़े पत्रकार महोदय, क्या मुद्दा हमेशा घाटी ही तय करेगा?
संवैधानिक व्यवस्था के खिलाफ स्थिति के बारे में आपकी क्या टिप्पणी है.. जब घाटी में प्रदर्शनकारी पाकिस्तानी झंडे लहरा रहे हैं।

जायका चखते-चखते विनोद दुआ जी आपको नजर नहीं आता कि इसके पीछे की क्या पॉलिटिक्स है? श्रीमान नौसिखिया भी बता देगा कि पीडीपी का जम्मू में कोई आधार नहीं है, उन्होंने हुर्रियत कॉन्फ्रेंस का एजेंडा उससे छीन लेने की कोशिश की है। ताकि कश्मीर घाटी में उनका आधार और मज़बूत हो सके। इसके बाद नेशनल कॉन्फ्रेंस में घबराहट फैली और उन्होंने भी इस मुद्दे का समर्थन करने का फ़ैसला किया, इसके बाद दोनों पार्टियों में होड़ लग गई।

डीडी ने साफ कहा कि घाटी में जरूरी चीजों की कोई कमी नहीं, तो आप किसा आधार पर आर्थिक नाकेबंदी की बात करत हैं?
क्या आपको नजर नहीं रहा सेकुलर चैनलों कि धीरे-धीरे यह आंदोलन भाजपा के हाथों से निकलकर एक जनआंदोलन में बदल गया है? आंदोलन का आकार बढ़ता देखकर जम्मू कांग्रेस में घबराहट फैलने लगी है और अब उन्हे अपने कदम पर पछतावा ज़रु हो रहा होगा। ये जम्मू-कश्मीर कांग्रेस के ताबूत में आखिरी कील साबित होगी।
राजनीतिक गहमागहमी और खेल की ऐसी की तैसी.. लेकिन जिसतरह ये चैनल उससे खेल रहे हैं उस पर बड़ा रंज होता है। खासकर बौद्धइक माने जाने वाले चैनलों के पत्रकार निराश करते हैं। ुन्हें अपने बुद्धिजीवी होने का गुमान है और ये लगने लगा कि वो देश को मिसलीड कर सकते हैं। इन लोंगो की ताजा रिपोर्टिंग से इतना जल गया हूं कि इनके क्रेडिबिलिटी पर सवालिया निशान लगने लगे हैं।
क्रेडिबिलिटी की ए बी सी यानी एक्युरेसी, बैलेंस, और क्लेरिटी की तो इन्होने परवाह ही नही की है. और झंडा बुलंद करते है पत्रकारिता का। एनडीटीवी इंडिया ने साबित कर दिया कि विश्वसनीयता के उसेक लिए कोई मायने नहीं और उसका अपना अजेंडा हैं. किसी खास पार्टी का। हिडन.अजेंडा। लेकिन आगे से आपलोगों के मुंह से १३ पुरस्कारों को की सूची सुनकर बुरा ही लगेगा। इन बड़े नामों ने पत्रकारिता को रखैल बनाकर रख लिया है।
दुखी हूं. पहले यही चैनल देखता था, अब नहीं देखूंगा। किसी धर्म की बात नहीं बात सच्चाई और भरोसे का है।

अभिनव चमत्कार को सलाम

चमत्कार हमारे देश में होते रहते हैं.. और हम चमत्कारों के आगे नतमस्तक भी होते रहते हैं। देश ही चमत्कार की वजह से चल रहा है। जितना दूसरे देशों का बजट होता है उतना तो हम घोटालों में खा जाते हैं। हर मुमकन चीज़ का घोटाला कर लेने और दलाली की सूरत निकाल लेने में हमें महारत हासिल है।
लेकिन एक और चमत्कार ये हुआ कि अभिनव बिंद्रा भारत के लिए अकल्पनीय स्वर्ण जीत लाए। देश उन्हें सलाम कर रहा है,मैं भी। देश को चमत्कारों की और नायकों की ज़रूरत रही है। सदा-सर्वदा से। आज अभिनव है, धोनी हैं,कल सचिन और गावस्कर थे। कपिल थे।
लेकिन इन चमत्कारों के पीछे कितना पसीना बहाना पड़ा है इन नायकों को, ये किसी ने जानने की जहमत नहीं उठाई। एक टीवी न्यूज़ चैनल की मानें, तो अभिनव के राइफल में छेड़छाड़ की कोशिश की बात भी सामने आ रही है। हमार समाने अचानक हीरोज़ उभर कर आते हैं, और हम उन्हे पूजने भी लगते हैं, टेनिस सनसनी सानिया, इरफान पठान, विश्वनाथन आनंद.. इंडिया टुडे जैसी पत्रिका के एक अंक ने तो आगरकर पर कवर स्टोरी कर दी थी.. आगरकर का आविर्भाव। कहां गए आगरकर..। दरअसल हम अपने हीरोज़ से हमेशा जीतने की उम्मीद करत ेहैं.. जो मेरे खयाल से हमेशा मुमकिन होता नहीं दिखता।
जीत को दोनों हाथों से थामना सावाभाविक ही है, लेकिन हार को भी खेल का हिस्सा मानकर आगे की तैयारी में जुट जाना क्या हम नहीं सीख सकते? वो भी तब जब हमें हारने की आदत हो गई हो।

Wednesday, August 6, 2008

ये दोस्ती हम... नहीं...तोडेगें

कहते हैं जिंदगी छोटी है और दोस्तों का होना अपने आप में बड़े भाग्यवान् होने का परिचायक है। पिछले रविवार को मित्रता दिवस था तो लगा कि दोस्तों से दुनिया को परिचित करवाने का इससे बढिया मौका तो मिल ही नहीं सकता। कई मित्र हुए हैं, जिन्हें भलना मेरे लिए ताउम्र मुमकिन नहीं होगा।

मेरे घर में एक किराएदार परिवार था। पति राजनीति शास्त्र के और पत्नी हिंदी की प्रफेसर। दोनों की दूसरी शादी। उन्हें शहर भर में कोई किराए पर घर देने को तैयार नहीं। तलाकशुदा होना और दूसरी शादी करना जघन्य अपराध था उन दिनों खासकर मधुपुर जैसे छोटे क़स्बे में। उनके दोनों के मिलाकर छद बच्चे। छोटा था पीयूष.. जिनकी प्रेम कहानी से मैं पाठकों को पहले ही परिचित करवा चुका हूं। मेरी और उसकी सोच, आदतें वगैरह मिलती थीं.. दोनो दुनिया भर के आवारा थे।

कलात्मक चीजें इकट्ठा करना और नागराज, परमाणु, सुपर कमांडो ध्रुव की कॉमिक्स पढना दोनो का शगल.. साथ में नंदन. पराग और सुमन सौरभ जैसी पत्रिकाओं का शौक। एक अलगाव दोनों मे ये था कि वह बाद में कला पढ़ता गया.. बाद में फाइन आर्ट में एम एफ ए भी किया.. मैं साइंस की ओर झुका था।

दूसार अंतर था दोनो ंदोस्तो ंमें कि उसे एक ही लड़की से मुहब्बत हुई और मुहब्बत मरे लिए खैरात की तरह था उन दजिनों जिसे मैं मुक्त हस्त लड़कियों में बांटता था। अर्थात्, मेरी कई प्रेम कहानियां निबटीं। इस मित्र से संपर्क आज भी है, दूरियां बढीं लेकिन दिलों में कायम न हो पाई हैं।

बारहवीं के दौरान दूसरा मित्र मिला आलोक रंजन, विवेकानंद का अनुयायी.. इसे लड़कियों को देखकर की कंपकंपी लगती थी। एक जगह टिक कर पढ़ने की आदत मुझमें आलोक ने डाली .. हॉस्टल में मेरा रुम मेट था। कई बार उकसा कर और इसकी तरफ से प्रेम पत्र लिखकर मैंने इसकी गाड़ी पटरी पर चढ़ाने की कोशिश की लेकिन बच्चा लड़की को बहनजी कहकर आ जाता। बाद मे कई घंटों तक दुर्गा सप्तशती का पाठ करता। उसेक घर से उसके पिता हॉर्लिक्स भेजते, उसे मैंने सूखा ह़र्लिक्स फांकना सिखाया, आलोक आजतक इस बात पर पछताता है कि क्यों उसने मेरी बात मानी, क्योंकि आज भी उसकी ह़र्लिक्स फांकने की आदत गई नहीं है। मुझे इस बात का संतोष है कि कम से कम एक छात्र मेरा ऐसा है जो मेरी सीख से आज तक पीछा नहीं छुडा़ पाया है।

बाद में एक और मित्र एग्रीकल्चर की पढाई के दौरान मिली, जिसका अहसान मैं आज भी मानने को तैयार हूं क्यों कि खेत की मिट्टी लगी जींस पैंट वगैरह वह बड़े प्यार से धो दिया करती। बड़े शौक से धोती..उसका चेहरा मुझे तब भी और अब भी मौसमी चटर्जी की तरह दिखता रहा है। शायद, मैं मौसमी को बहुत पसंद करता हूं उस खातिर.. लेकिन न तो वह और न मैं, इस रिश्ते को बस दोस्ती ही मानने को तैयार हूं.. शायद यह कुछ और ही था। ... ये कहानी अभी खत्म नहीं हुई है मेरे दोस्त..

जिन चार मित्रों का जिक्र न करुं तो कहानी अधूरी रहेगी..वह थे रामाशंकर, दिलीप, शन्नी और खालिद। मधुपुर के ये दोस्त आज सभी शादीशुदा हैं,। लेकिन अब भी घर जाता हूं तो हमारी क्रिकट टीम तैयार हो जाती है। हमने खूब पिकनिक मनाई.. लाईन मारे.. एक साथ। मधुपुर के पास बहती हुई अजय नदी हमारे कई पिकनिकों की गवाह है। हम पांचो का नाम भी लोग पांच पापी रख चुके थे। बहरहाल, मेरा डिस्क्लेमर है कि हमने कोई पाप किए नहीं, जो मजहबी कसौटी पर खरे पाप होते हों। सिगरेट पीना पहले पहल मैंने इन्ही की सोहबत में सीखा।

फिर आईआईएमसी के दौरान सुधीर नाम का लड़का मिला, ये कई मामलो में मेरा भी उस्ताद निकला। सुधीर की दिलचस्पी लड़कियों में मुझसे भी ज़्यादा थी, है और रहेगी। मामू के नाम से मशहूर रोहित रमण, जो फिलहाल ज़ी स्पोर्ट्स में काम कर रहे हैं, फूफा जी के नाम से मशहूर नितेंद्र सिंह, कई दौस्त हुए।

मेरे करीबी दोस्तों में सुशांत राजनीतिक प्रवक्ता और योगेंद्र यादव की तरह एनालिटिकल हैं तो राजीव किसी बात को चूतियापा कहकर टाल देने में माहिर। उसकी अलग विचारदृष्टि है और उसके विचार में कार्ल मार्क्स भी प्रबुद्ध नहीं। एक और मेरे मित्र हैं ऋषि रंजन काला, जिनके उपनाम में चस्पां हुआ काला उनके उजले मन की ओर संकते करता है। आप पहली नज़र में उन्हे देखें तो आपको लगेगा किसी किसी हलवाई या बनिए से मिल रहा हूं। खाते-पीते खानदान के लगते हैं। पेट यूं लटका हुआ मानो पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण से खिंचकर धरती पर लोटने लगेगा। ऐस उभरा हुआ मानो दूर क्षितिज से कोई उसे पुकार रहा हो...।लेकिन दुनिया के किसी भी विषय पर वे साधिकार बयानबाज़ी करते हैं, और खासकर इटली के ऑपरा और पावरोत्ती वगैरह की बात जब वह करने लगता है तो हम चित्त हो जाते हैं। दर्शन और आध्यात्म पर वह किसी भी फिलासफर की टुइयां कर सकता है।

बहरहाल, इन सभी मित्रों में मुमकिन है कि विकास, दीपांशु सरीके कई नाम छूट गए हों। लेकिन इन्ही दोस्तों ने मुझे इस जगह तक पहुंचने और कुछ हासिल करने की ललक पैदा की है। उनके भरोसे को कायम रखूं, और नए मित्र बनाते चलूं. यही उम्मीद है।।

Tuesday, August 5, 2008

मंगल ठाकुर की मैथिली कविता

मांगिक पेट भरैय छी यौ
जौं शिव जनताह हमर कलेष
तौं दुख हरताह यौ
एसगर दिवस बिताबैं मंगल
दुख की गाइयब यौ
दुख दारुण अछि हमर महादेव
जौ दुख हरता यौ

क्षणिका

आस भरोसक टाट लगाओल,
आँग समांगक ठाठ बनाओल,
मुदा घुरतइ इ दिन के फेर,
की हरता शिव विधि के टेर


भावानुवाद-

( आश-भरोसे की टाट लगाई,
अपनों के कुछ बांध बनाए,
अब बहुरेगे दिन के फेर,
कभी सुनें शिव मेरी टेर)

मंगल ठाकुर

मैथिली की इस क्षणिका का भावानुवाद करने की कोशिश की है।

Saturday, August 2, 2008

शिबू सोरेन- ना ख़ुदा मिला ना विसाले सनम..

सोरेन के लिए यह लाईन बेहद सटीक बैठती है। ना खुदा मिला ना विसाले सनम, ना इधर के रहे ना उधर के... यूपीए के विश्वास मत प्रस्ताव में पक्ष में वोट देकर अपनी गोटी लाल करने का इरादा शिबू ने जाहिर किया। लेकिन सोनिया और सरकार उनपर कोई ध्यान ही नहीं दे रही। गुरुजी ने सोचा था, एक तीर से दो शिकार॥।

झारखंड में मुख्यमंत्री का पद एक नगरवधू की तरह है, खुद उस पर कब्जा जमा लें, और अपने दो सांसदों को केद्र में मंत्री पद दिलवा दें। झारखड में एक निर्दलीय मुख्यमंत्री बना बैठा है। दो दिनों से सोरेन दिल्ली में अपने बाकी के चार सासंदों के साथ लाईन में लगे बैठे हैं॥ पर सोनिया जी भाव ही नहीं दे रहीं। मिलने का वक्त ही नही मिल रहा। अभी कुछ हफ्ते पहले ही विश्वास प्रस्ताव से पहले उनका कथित १२ मांगें मान ली गई थीं।


लेकिन झारखंड मुक्ति मोर्चा को अंदेशा भी न था कि सबकुछ इतनी जल्दी बदल जाएगा। इन्ही सोरेन के लिए पूरी कॉन्ग्रेस ने पलक-पांवडे बिचा दिए थे। अब झारखंड की राजनीति करने की सार्वजनिक इच्छा ज़ाहिर करने के बावजूद यूपीए उन्हे भाव नहीं दे रहा। झामुमो के ही अंदर भारी खींचतान मची है। खुद झारखंड में सोरेन को दूर रखने के लिए कई घटक तैयार हो गए हैं।


पार्टी के भीतर ही महत्वाकांक्षा की टकराहट शुरु हो गई है। सभी सांसद खुद को मंत्रिमंडल में जगह दिलवाने की फिराक में हैं। अब दो-तीन दिनों के भीतर केंद्र उनकी नहीं सुनता है , तो सोरेन क्या करेगे? तीखे तेवर अपनाएंगे? लेकिन कांग्रेस तो उनका इस्तेमाल कर चुकी, अपने वादे से मुकर जाए तो सोरेन करेंगे क्या?


जो भी हो, ऐसी स्थिति में चुप रहना सोरेन के लिए हितकर नहीं होगा। राज्य की कमान उनके हाथ में हो तभी बात बनेगी, वरना झारखंड में एंटी-इंकम्बेंसी फैक्टर उन्हे लील जाएगा। लेकिन यूपीए के लिए तो सोरेन -मतलब निकल गया तो पहचानते नहीं... वाला गाना गा रहे हैं।

पिता को श्रद्धांजलि..


कल मेरे पिता की पुण्यतिथि थी। मेरे पिता का १९८२ में तब निधन हो गया, जब मैं महज २ साल का था। पिता का चेहरा याद नहीं, लेकिन एक छाया जैसी महसूस करता हूं। पुनर्जन्म में मेरा यकीन नहीं॥ लेकिन अब भी उनकी उपस्थिति महसूस करता हूं।

और किसी परेशानी मे पड़ता हूं, ईश्वर को याद करने से पहले पिता को याद करता हूँ। उनकी ये उपस्थिति मेरे लिए एक देवता जैसी हो जाती है। मेरे पिता, जिन्हे मैं बाबूजी कहता हूं, देवता नहीं थे। लेकिन मेरे ख्याल से मुकम्मल इंसान थे। उनकी डायरी में निजी बातों की बजाय गरीबी और मानवता से पगी बातें हैं।

मेरे पिता कोई बहुत बड़े आदमी नहीं थे, एक क़स्बे के टिपिकल आम आदमी। लेकिन हमारे लिए एक ऐसी जोत, जो हमममें जीने की नई राह बताते चलते हैं।एक पुत्र के तौर पर ऐसा पिता पाकर में बेहद गौरवान्वित हूं। उस वक्त, जो राजनीतिक हलचल थी, उसमें भी राजनीतिक रुप से तटस्थ रहते हुए वे आम आदमी के लिए सोचते थे।

पेशे से शिक्षक मेरे पिता कभी किसी अखबार की सुर्खियों में नहीं आए, न राजनीतिक फतवेबाजी में पड़े, न इमरजेंसी के दौरान जेल जान की नौबत आई,। लेकिन परिवार के प्रति जिम्मेदारियों को निभाते हुए भी बाबूजी ने सभी बच्चों में यानी हम सभी भाई-बहनों में अच्छे मानवीय मूल्य भरने की कोशिश की। मेरी मां अब भी उनकी बाते कहकर उनका उदाहरण देकर हमें गलत करने से रोकती हैं।

पिता की मृत्यु को २६ साल हो गए, लेकिन आज भी वह हमारे साथ हैं ऐसा लगता है। एक पूरी ईमानदारी से अपने जीवन के ४२ साल उन्होंने जिए, मेरी प्रार्थना है हर कोई जिए। अगर कहीं ईश्वर हैं, तो मेरी प्रार्थना है कि मेरे पिता ने जो गुण- देशभक्ति, मानवीयता और पर्यावरण के प्रति जारगुकता के गरीबी के प्रति लड़ाई के, - मुंझमें देखने चाहें वे मुझमें अगर हैं तो बने ,रहें नहीं हैं तो मुझमें आएँ।

हर जन्म में बाबूजी मेरे पिता बनें...। नमन

Wednesday, July 30, 2008

रत्नजटित तलवार से सब्जी काटना उर्फ़ सिफारिशी लाल

जैसा कि हमेशा होता है मेरे दफ्तर में कुछ लोग ऐसे हैं जो बड़े लोगों के खासमखास हैं। बड़े, बरगद से भी बड़े लोगों के नजदीकी, क्लोज लोग... क्लोज बोले तो बिलकुल क्लोज। पता नहीं ये क्लोजनेस किस मायने में है, लेकिन ये तो तय है कि ये बड़े लोगों के बेटे या बेटी या भांजे-भतीजे-बुआ के लड़के नहीं हैं। तो ये तय रहा कि वे मक्खनबाज़ कम्युनिटी के सम्मानित सदस्य हैं जिन्हे हम लोग आम भाषा में चमचे कहते हैं।

तो इन चमचों का क्रेज़ ऐसा है कि ये लोग बॉस तक को हड़का देते हैं। लेकिन चमचों की इस फौज़ ने अपनी अहमियत के पैर को खुद ही कुल्हाड़े पर मार दिया है। छोटी-छोटी चीज़ो के लिए मचल जाते हैं। मसलन, बॉस मुझे घर फोन करना है॥ सरकारी फोन से। बास कहता है तथास्तु। जिस वरदान से वह कॉपी एडिटर हो सकते थे, उन्होंने इसी वरदान का इस्तेमाल चतुर्थ वर्गीय कर्मचारी बनने के लिए कर लिया है। बॉस हैरान भी है खुश भी..

चमचा ठिनक कर कहता है- बॉस मुझे कैंटीन से मुफ्त में चाय चाहिए। बास कहे देता है-एवमस्तु। गुस्ताख भी हैरान हैं।

अगर गुस्ताख किसी का चमचा होता तो दस बजे वाली रोज़ाना की मीटिंग उसके घर पर हुआ करती, लेकिन गुस्ताख को हैरानी इस बात की भी है कि लोग किस तरह बेहयाई से रत्नजटित तलवार से सब्जी काटते हैं। हमें भी दुख है। बहुमूल्य सिफारिशों के इसतरह बेजा इस्तेमाल का।

Tuesday, July 29, 2008

इश्क और बरसात के दिन

बरसात के दिन खूब नॉस्टेल्जिक करते हैं मुझे। दिल्ली में तो रिमझिम होती है।
मकान बचपन के दिन में हम देखते थे कि आसमान हठात् काले रंग का हो जाता था। और बौछारें शुरु..। कमरे में बैठे हैं.. उजाला घटने लगा.. मां ने आदेश दिया.. आंगन से कपड़े उठा लाओं जबतक कपड़े उठाने गए.. तब तक तरबतर..। बड़ी बड़ी बूंदें.. ऐसी मानो किसी बंगालन कन्या के बड़े-बड़े नैन हों।


बरसात होती तो हमारे घर के चारों तरफ जो खाली ज़मीन थी उसमें अरंडी वगैरह के झाड़ उग जाती॥ हरी चादर बिछ जाती। हमारे पैतृक गांव से बाढ़ की खबर आती। मकान बह जाते, क्यों कि फूस से बने होते थे। मकान क्या होते थे, झोंपड़ियां हुआ करती थीं, बांस के फट्टों को बांधकर उनमें अरहर की सूखी टहनियां कोंचकर मिट्टी से लीप दिया जात। हो गई दीवार तैयार, तो ऐसे मकान के लिए क्या रोना।


गांव में हमारे मकान को उंचे टीले की तरह मिट्टी भरकर बनाया गया बाद में। फिर बरसात में बाढ़ आने के बाद आंगन तक पानी आता तो सही लेकिन घर नहीं गिरता। नीचे उतरते ही बड़ा मैदान, जिसके बीचों-बीच पाकड़ का बड़ा-सा पेड़ है। लोग कहते हैं कि उसमें शिव के गण भैरव का निवास है। भैरव बाबा॥। उनका चबूतरा भी बचा रहता। कमर तक पानी..हमारे चचेरे भाई मछलियां ढूंढते।


उस भैरव बाबा के उस आंगन से घर के आंगन के लिए चढ़ाई करते वक्त हम चढाई पर फिसलन से धड़ाके से गिरते थे। कई लोगों ने बगटुट भागने के दौरान खुद को दंतहीन पाया।

बहरहाल, मधुपुर, झारखंड का क़स्बा है, जहां हम पिताजी के निधन के बाद भी रहते रहे। लाल मिट्टी का शहर.. बरसने के फौरन बाद पानी गायब.. कहां जाए पता ही नहीं। सड़क उँची-नीची। पत्थरों भरी। वहां बंगाल का बहुत प्रभाव था। लड़कियों के जिस स्कूल के पीछे हम खेलने जाते वहां घास की चादर बिछ जाती। एक झाडी़, जिसका नाम पता नहीं उसमे पीले-पीले फूलों को देखकर मन खिल जाता। भटकटैया के फूल चूसते, मीठेपन का अहसास होता। दूब की चादर पर लाल-लाल बीर बहूटियों को पकड़ लेते। हथेलियों पर लाल बीर बहूटियो को देखकर हम आपस में बातें करते कि यही रेशम के कीड़े हैं। लेकिन बाद में पता चला कि रेशम के कीड़े अलग होते हैं। दरअसल बीर बहूटियों के थोरेक्स बड़े मखमली होते थे तो हमारी जुगाड़ तकनीक ने उसे रेशम का कीड़ा मान लिया था। अस्तु॥

असली मज़ा तो तब आता, जब स्कूल जाने के वक्त जोरदार बारिश हो रही हो, सुबह से ही। माताजी, फिर भी नहीं मानती और छाता लेकर स्कूल के अंदर तक खदेड़ आतीं। बदले में हम वापसी में काले रंग के चमड़े के जूतों में मिट्टी लपेसकर लाल कर आते। गीले जूतों से अगले दीन स्कूल जाने की संभावना प्रायः खत्म हो जाती।

लेकिन उसेक बाद घर आते ही जूतों की हालत देखकर माताजी उन्हीं जूतों से हमें दचककर कूटतीं। हमारे कई सीनियर बरसात में प्रेम-ज्वर से पीडि़त हो जाते। बाद में भाभी ने बरसात होते ही चाय और पकौड़े का चलन शुरु किया, जिसे हम आज भी जारी रखने के मूड में हैं। हमारे मन में आज भी बरसात का मतलब जमकर बरसना होता है। दिल्ली में तो महज फुहारें होती है। बाद में जब हमने सिगरेट पीना शुरु किया तो चोरी छिपे बारिश होते हुए और अपने दोस्त की प्रेमिका के घर के सामने से भींगते हुए सिगरेट पीने का मज़ा ही कुछ और होता। हां, मीरा के घर के सामने हम सिगरेट को अपने होंठों में ले लेते। ताकि दोस्त की इमेज पर असर न पड़े।

हम लोग कई बार दूर गांव की तरफ निकल जाते थे। झारखंड का ये इलाका हरियाली के लिए मशहूर है, और उस हरियाली को मैं आज भी अपने अंदर जिंदा महसूस करता हूं। हरियाली तो दिल्ली में भी है लेकिन पता नहीं क्यों झारखंड की हरियाली में जो गंध थी, यहां महसूस नहीं हो पाती। झारखंड में इस वक्त पलाश के जंगल में पत्ते आ जाते हैं। और साल के हरियाली में अलग-अलग शेड्स आ जाते हैं।

Monday, July 28, 2008

ब्लांड शूर्पनखा और ब्रूनेट मेघनाद


एक सैकुलर कहे जाने वाले न्यूज़ चैनल ने अपना मनोरंजन का चैनल शुरु किया। उत्साही लोगों को लगा, कि चलो एक गंभीर चैनल वाले मनोरंजन भी दिखैाएंगे तो कुछ गंभीर होगा। डिस्कवरी और नैट-जियो की तरह के वृत्त चित्र देखने को मिलेंगे। लेकिन ये क्या॥ चैनल ने अपनी फ्लैग-शिप कार्यक्रम रामायण को बनाया।

यहां तक तो ठीक था लेकिन बताया गया कि नई पीढी को रामायण की जानकारी देने के वास्ते और बुजुर्गों के मन से अरुण गोविल की छवि मिटाने की गरज से रामायण के रीमेक की रचना की जा रही है।लेकिन परदे पर आते ही आशाएं धूल-झूसरित हुईँ।

काले कपड़े पहने हुए फूहड़ राक्षस हवा में टंग कर उड़ते नज़र आए। घटिया मेक-अप ने खेल बिगाड़ दिया। सारा का सारा परिदृश्य नकली नज़र आता रहा । आउटडोर के नाम पर एक ही आश्रम में वशिष्ठ से लेकर विश्वामित्र और सार आश्रम शूट कर लिए। एक ही बागीचे में सीता हरण से लेकर हनुमान मिलन तक शूट कर लिया। एक ही पहाड़ के चारो तरफ वानर सीता को खोजते घूम रहे हैं। दर्शक क्या इतना बेवकूफ है?

शूर्पनखा के बाल सुनहरे हैं, शूर्पनखा ब्लांड थी क्या? और मेधनाद के बाल सीधे-सीधे? ग्रंथो की राय में मेघनाद रावण का पुत्र था और रावण आर्य था। आर्यों के बाल मानवशास्त्र के हिसाब से लहरदार होते थे। मेघनाद के सीधे क्यों हैं? और मेघनाद समेत कई राक्षस चेहरे पर हास्यास्पद तरीके से टैटू लगाए हैं।

राम और हनुमान एक बार मिलते हैं तो यूकेलिप्टस के जंगल मं, सीधे-सीधे पतले -पतले पेड़ों के बीच ...कतार में लगे हुए पेड़। जनता गधी है क्या? सबको पता है कि यूकेलिप्टस ऑस्ट्रेलिया का पेड़ है और प्राचीन भारत में नहीं-ही पाया जाता था। कुल मिला कर प्रॉडक्शन क्वॉलिटी गठिया है, रामायण देखकर निराशा होती है। अब पता चला है कि शनिदेव पर भी एक सीरियल शुरु हो रहा है। ये क्या सचमुच एनडीटीवी है? क्या हो गया प्रणय रॉय को..?
हैरान हूं।

श्रद्धांजलि..

बम धमाकों में मारे गए लोगों को श्रद्धांजलि..











Tuesday, July 22, 2008

हतोत्साहित हूं..

सोच रहा हू एक किताब लिख डालूं॥ पत्रकारिता के पेशे में आने के बाद सोचना शुरु कर दिया है। हालांकि स्थिति ये है कि मेरे कई साथी सोचते नहीं पूछते हैं अर्थात् बाईट लेते हैं और अपना उपसंहार पेलते हैं। पहले अपने भविष्य के बारे में सोचता रहता था। वह सेक्योर नहीं हो पाया तो देश के भविष्य के बारे में सोचने लगा।

एक मित्र हैं। निखिल रंजन जी॥और सुशांत भाई..उन्होंने लगे हाथ सुझाव दिया। किताब लिख डालो। देश की व्यवस्था पर लिख डालो.. लोग लिख रहे हैं तो तुम क्यों नहीं लिखते। एक और मित्र हैं, स्वदेश जी.. उन्होंने टिप्पणी दी, लिख कर के समाज को क्या दे दोगे? कौन पढेगा, पढ भी लेगा तो क्या अमल मे लाएगा? अमल में लाना होता तो रामचरित मानस ही अमल मे ले आते। तुम्हारा लिखा कौन पढेगा।? क्यों पढेगा। मैं हतोत्साहित हो गया।

हतोत्साहित होना मेरा बचपन का स्वभाव है। कई बार हतोत्साहित हुआ हूं। परीक्षाएं अच्छी जाती रहीं, लेकिन परीक्षा परिणांम हतोत्साहित करने वाले रहे। अपने कद में मैं अमिताभ बच्चन की कद का होना चाहता था। ६ फुट २ इंच लंबाई का गैर-सरकारी मानक था उस वक्त॥लेकिन अफसोस हमारे अपने क़द ने हमें हतोत्साहित किया। चेहरे-मौहरे से हम कम से कम शशि कपूर होना चाहते थे, लेकिन हमारे थोबड़े ने हमें हतोत्साहित कर दिया।

रिश्तदारों ने रिश्तों में हतोत्साहित किया, कॉलेज में लड़कियों ने हतोत्साहित किया। भाभी की बहन ने हमें देखकर कभी नहीं गाया कि दीदी तेरा देवर दीवाना... हम कायदे से बहुत हतोत्साहित महसूस कर रहे हैं। देशकी दशा ने, महंगाई ने, बिहार और दिल्ली में बिहारियों की स्थिति उनकी मानसिकता से हतोत्साहित हो रहा हूं।

अभी ब्रेकिंग न्यूज़ है कि सांसदों की खरीद-फरोख्त लोकसभा तक पहुंच गया है। सांसद नोटों की गड्डियों को लेकर लोकसभी में प्रदर्शन कर रहें हैं। एक आम आदमी की हैसियत से हतोत्साहित हूं। क्या कोई मेरे हतोत्साहित होने पर ध्यान देगा? भिंडी ७ रुपये पाव बिक रहा है॥ सांसद ९ करोड़ इच के हिसाब से बिकाने लगे हैं,,कोई मेरी भी कीमत बताए। ताकि दिल्ली में एक फ्लैट लेने का सपना साकार हो सके। क्योंकि दिल्ली में प्रॉपर्टी की कीमत को लेकर भी मैं काफी हतोत्साहित हूं।

Saturday, July 12, 2008

दुनिया के नक्शे और हाथी गायब

भला हो ग्लोबलाइजेशन का हमारा टीवी चैनलों से अंट गया है। समाचारों के ही इतने चैनल हैं कि दिखाने के लिए समाचार कम पड़ने लगे हैं। न्यूज़ चैनल मनोंरजन दिखाते-दिखाते न्यूड हो गए हैं। लेकिन एक दिन अचनाक ही मेरा ध्यान इस तथ्य पर गया कि लाइव इंडिया से लेकर इंडिया न्यूज़ तक और स्टार से लेकर आजतक में हर का मोंटाज दुनिया के नक्शे को समाहित किए हुए है। इंडिया टीवी तो अपने बुलेटिन के दौरान क्रोमा पर दुनिया को घुमाता रहता है॥ लेकिन दुनिया की कौन सी खबर होती है इनके पास?


नोएडा के आरुषि मर्डर केस को इन्होंने इतना खींचा, हाथी को गायब करवाया लाइव और डॉ तलवार के साई बाबा मंदर जाने को ब्रेकिंग न्यूज़ बनाया। ज्यादा कुछ कहना ही नहीं है कंटेंट को लेकर॥ निजी चैनलों में एनडीटीवी को छोड़कर कंटेट पर टिप्पणी करना बेमानी है। एक चैनल आया था इस दावे के साथ कि खबरों की वापसी हो गई है , अब ज्यादा इधर-उधर ताक-झांक करने की ज़रूरत नहीं है। बस इसी चैनल पर आपको खबरें मिला करेंगी। हमें पलभर को तो यकीन भी हो गया था कि अब शा।यद संपादकीय मंडल को खबरों के टीवी पर आने की ज़रूरत महसूस होने लगी है।



एक और चैनल है जिसने पंच लाईन बनाई है खबर, हर कीमत पर। सच तो ये है कि खबर नहीं॥टीआरपी हर कीमत परहोनी चाहिए। मठाधीश कहते हैं कि दर्शक जो देखना चाहेंगे वह हम दिखाएंगे.. दर्शक आगर रतिमग्न जोड़े अर्थात् ब्लू फिल्म देकना चाहे तो भी दिखाना चाहेंगे।


बहरहाल, चैनल शर्म करें न करें, रुपया पीटने के लिए टकले बाबाओं की भविष्यवाणियां भले दिखाएं.. आज आपका दौर है..डेविड धवन का भी दौर था कभी.. लेकिन प्लीज़ अपने चैनल आईडी और मोंटाज से दुनिया के नक्शे को तो हटा लें।

Wednesday, July 9, 2008

संस्कृत की परीक्षा और मैं

मेरे जीवन में दो चीज़े बड़ी प्रॉमिनेंट रहीं हैं, मैं थियेटर में आगे और कक्षा में पीछे बैठना ही पसंद करता हूं। लोगों को थोड़ा स्ट्रेंज लग सकता है, लेकिन है ये सच ही। वजह ये कि दोनों ही जगह पर एक्शन होता है। कक्षा में आगे बैठने वाले विद्यार्थी चुपचाप एकटक मास्साब के मुखमंडल को निहारा करते थे। हमारा इन चीज़ों में कोई भरोसा नहीं था। मैं और हमारे तीन साथी साइंस की क्लास के सिवा हर क्लास में पिछली बेंचों पर बैठते थे।

मजा़ आता था। पिछली बेंच पर बैठकर हम आपस में इशारों में बातें करते। संस्कृत की किताब में भर कर इंद्रसभा और दफा ३०२ पढ़ते। दफा ३०२ में वैसे तो अपराध कथाएं होती थीं लेकिन हम खासतौर पर उन एकाध पैराग्राफ पर ध्यान जमाते जो ज़रा अश्लील होती थीँ। लेकिन वह अश्लीलता भी उतनी ही थोड़ी-सी थी, जितनी हमारे संस्कृत माटसा-ब की मूंछे। माटसा-ब की मूछें नाक के पास तो दस-बारह बालों वाली होती थी, लेकिन होठों के कोर तक पहुंचते-पहुंचते उसकी आबादी वैसे ही घट जाती जैसे कि जर्मनी में इंसानों की घट रही है। होठ जहां खत्म होते हैं वहा उनकी मूंछ में महज एक बाल बच पाता था. साइबेरिया निष्कासित सोवियत नागरिक-सा, या फिर किसी शापित एकांतवासी गंधर्व सरीखा। राजकुमार स्टाइल में मूंछें, करीने से तराशी हुई.

लेकिन संस्कृत वाले माट साब पूरे जल्लाद थे। कपड़े के थान के बीच में रहने वाली मोटी गोल लकडी़ की छड़ी या फिर सखुए की संटी लेकर क्लास में आते। ज़ोर-ज़ोर से बुलवाते- सत्यं ब्रूयात, प्रियं ब्रूयात॥ न ब्रूयात सत्यम् अप्रियम्.. जिसने लता शब्द रुप कंठस्थ नहीं किए.. उसकी हथेली में संटी के दाग़ उभर आते।

स्कूल में उर्दू-फारसी पढ़ाने वाले मौलवी साहब का स्वभाव नरम था। प्रायः अपनी क्लास मे मौलवी साहब भूगौल पढाते और हमसे पूछते स्पेन की राज़धानी का नाम बताओ, या फिर जाड़े के मौसम में मानसून अपने देश में किस हिस्से में आता है। पता नहीं क्यो ंहम भूगोल के सवालों के उत्तर जानते होते। और मौलवी साहब हमारी पीठ पर प्यार से धौल जमाते।

बहरहाल, उर्दू पढना नवीं या दसवीं में शुरु करना मुमकिन नहीं था। खासकर तब जब राम की जन्मभूमि को आजाद कराने और मंजिर वहीं बनाने का उन्माद छाया था, यह विचार मन में लाना भी घरवालो और दोस्तो के लिए पागलपन ही था।

दोस्तो के साथ हमने संस्कृत की परीक्षा मे बेहतर करने का नया नुस्खा निकाला। प्रश्नों के उत्र हिंदी में लिख दो, स्याही की कलम से लिखों और कलम की निब में एक प्यारी सी फूंक मार दो॥ जहां-जहां विसर्ग हलंत और बिंदु लगने हैं भगवत्कृपा से स्वयं चस्पां हो जाएँगे। लेकिन दसवीं की बोर्ड परीक्षा के लिए हमने तकरीबन पांच सात सौ अनुवाद रट लिए, पचीस-तीस संस्कृत के पैराग्राफ रट्टा मारे और राम का नाम लेकर परीक्षा में बैठे.. और गज़ब ये कि पास भी हो गए। आप भी आजमाएं, संस्कृत लिखने का नया तरीका कैसा है बताएँ।

Thursday, July 3, 2008

दोस्त की मार्मिक प्रेम कहानी

सबसे पहले डिस्क्लेमर... इस कहानी का मुझसे कोई लेना-देना नहीं है और यह कहानी मेरे दोस्त की आपबीती है। उसके साथ घटी मधुर-तिक्त घटनाओं का मैं राज़दार रहा हूं। हां, सावधानी बरतते हुए मैंने पात्रों के नाम बदल दिए हैं।

ये डिस्केमर देना भी ज़रूरी है, क्योंकि लोगों के सवालात उछलने लगते हैं कि दोस्त का नाम लेकर कहीं खुद की कहानी तो नहीं कह रहे हो? ऐसा करके।

खैर जनाब, उन दिनों जब हम पाजामे का नाड़ा बांधना सीख रहे थे और लड़कियों को महज एक झगड़ने की चीज़ माना करते थे, उन्हीं दिनों हमारे एक दोस्त को एक लड़की भा गई। फिल्मों का असर कह ले या पूर्वजन्म के संबंधों का इस जन्म में फलित होना। बात ये रही कि अमृत को लड़की भा गई। और ऐसी-वैसी नहीं भायी.. दीवानगी की हद तक भा गई।

क्लास में जाता तो होमवर्क करके लाने की बजाय उस लड़की को देखता रहता। अब सुविधा के लिए लड़की का नाम भी कहे देते हैं। नाम था मीरा।

अब जनाब, पूरे स्कूल में ऐसी बात फैलते तो देर लगती नहीं। अमृत शनैः शनैः मीरा का मोहन नाम से मशहूर हो गया। फिर हम लोग तेजी से बढ़ने लगे। दसवीं तक आते-आते लड़की को भी पता हो गया, कि कलाकार-सा दीखने वाला लड़का मुझसे प्यार करता है।

हमारा दोस्त गणित की क़ॉपियों में सुंदर-सुंदर आंखों की तस्वीरें बनाने लग गए। बीजगणित में अंडा पाने वाले छोकरे की हाथ की कलाकारी से हम दांतो तले अंगुलियां दबाते। फिर क्या हुआ कि लड़की ने अपनी बायोलजी की प्रैक्टिकल कॉपी उसे बनाने को दी.. लड़का खुशी से बेतरह नाच उठा। हमें शानदार पार्टी मिली।

अमृत अब उसके घर के नीचे से बहुधा गुजरने लगा। लड़की बालकनी में दिख गई तो स्टेशन रोड पर चाय की दुकान पर एक चाय मुहब्बत के साथ (यानी मलाई मार के) हमारे लिए तय होती थी। और कुछ नहीं, तो अलगनी से सूखते कपड़े ही दिख जाते। अमृत उससे भी खुश हो जाता।

फिर दसवीं के बाद, जब हम साइस पढें या कला या कॉमर्स। या साइंस लें भी तो प्योर साइंस या बायोलजी.. इसकी उधेड़बुन में लगे थे.. अमृत अपने प्यार की गहराईयों में खोया हुआ था। फिर अमृत भी निकल गया.. पढने और मैं भी पटना चला गया। छुट्टियों में हम घर आते तो अमृत अपनी महबूबा को देखने के लिए तरसता हुआ मिलता।

हमारा छोटा सा शहर है, लड़के-लड़कियों के मिलने के लिए बुद्धा गार्डन या नेहरु पार्क नहीं हैं। न मॉल थे, न मल्टीप्लेक्सेज़.. तो पंचमंदिर आया करते थे सब.. मैं जन्म से ही नास्तिक था,लेकिन दोस्त के लिए मंदिर चला जाता। फायदा मुझे ये होता था कि कुछ लड़कियां मैं भी लाईन मार लेता। नारियल का प्रसाद मिलता चने के साथ वह फाव में।


उन्हीं दिनों हमारे पिछड़े क़स्बे में पिज्जा हट की आहट हुई और दोनों वहां मिलने लगे। साथ में मेरा होना ज़रूरी था। ठीक वैसे ही जैसे उन दिनों के हिट हो रहे फिल्मों में अक्षय कुमार या उसी तरह के हीरोज़ के साथ दीपक तिजोरी हुआ करत थे। दोनों पता नहीं क्या-क्या बातें करते, और अपनी ब्राह्मण वृत्ति के अनुरुप ही मैं तब तक खूब पित्सा पेलता और कॉफी डकारता।

लेकिन फिर बारहवी के बाद मैं एग्रीकल्चर पढ़ने चला गया..अमृत भी बीएफए पढ़ने लखनऊ विश्वविद्यालय आ गया। मिलना कम हो गया।

गरमी की एक छुट्टियों में जब हम दोनो अपने क़स्बे में ही थे, उस मीरा की शादी की खबर आई। शादी में हम दोनों पहुंचे.. लेकिन न तो हमारी हिम्मत थी, न अमृत की.. हमने कोई नायकत्व नहीं दिखाया। मैं बस खाना खाकर आ गया, अमृत भूखा ही रहा।

उसी तरह फिर कुछ दिन कमरे में बंद रहके और कुछ दिन शेव करने पर बैन लगाकर अमृत वापस लखनऊ गया और मेरा तो एक मूक दर्शक होने का जो दायित्व था वह हम आज तक पूरा करते आ रहे हैं। सवाल ये कि क़स्बाई प्रेम का क्या यही अंत होता है, जिसमें सफल प्रेम कहानियां उन्हें ही माना जाता है, तो असफल रहती हैं।

अमृत के वाकये ने एक सबक मुझे दिया, जो मैं किसी को नहीं बताने जा रहा क्यों कि अगर बता दूं तो प्रेम का अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा। गुस्ताखी माफ़...

Monday, June 30, 2008

फुरसतिया दिनों की याद

गुस्ताख़ को पिछले फुरसत के दिन याद आ रहे हैं। क्यों याद आ रहे हैं॥इसका जवाब भी है कि शनिवार को दफ्तर में सत्रह घंटे तक लगातार काम करने के बाद आराम के दिन याद आने ही थे।


मेरा जो गृहनगर है॥झारखंड का छोटा-सा क़स्बा.. लाल मिट्टी वाला। सुबह उठने के विषाणु (वायरस) मुझमें कभी नहीं थे। बड़े भाई साहब जूता लेकर दचकने उठते थे, तब ही बिस्तर छोड़ता था। आंखे मलता बाहर निकलता तो देखता कि हर घर के मुखिया हाथों में खुरपी लेकर घास खोद रहे हैं, बागीचे में पानी दे रहे हैं, आंगन में झाड़ू दे रहे हैं या यूं ही फुरसतिए कि तरह क्रोटन के पौधों से सूखी पत्तियां ही नोच रहे हैं। अस्तु.. थोडी़ देर बाद उनकी जब ये काम खत्म होता तो किसी एक के घर के बाहर सब जमा होते... कुरसियां डल जातीं।


घर के स्वामी छोटी बिटिया या मेरे जैसे नाकारा बेटे को चाय का आदेश देते। चाय आ जाती। आकाशवाणी पर समाचार सुने जाते। पहले दिल्ली वाले, पटना वाले फिर रांची से मतलब कम-अज-कम दो बुलेटिन तो सुने ही जाते। फिर बीबीसी वाले समाचारों का चर्वण होता। गांव की राजनीति से फिलीस्तीन मसला सब सुलझा लिया जाता। कुछ भाईबंद खेल के जानकार होते। नए लड़के सचिन के क्रिकेटिय टैलेंट की बात होती। कपिल के इनस्विंगर की॥ रवि शास्त्री के धीमे खेलने की.. ऐसी ही बातें। विधायक जी के चावल चुराने से लेकर स्थानीय एमपी साहब पहले कोयले की मालगाडियो से कोयले चुराया करते थे इसका रहस्योद्घाटन भी।


ऐसी ही बातों में चाय का एक और दौर चलता। बातों के अंतहीन सिलसिले... जो तभी टूटता जब गृहस्वामिनी परदे के पीछे से डांटने की-सी मुद्रा में कहती - क्यों जी स्कूल (या दफ्तर जो भी लागू हो) नहीं जाना। फिर जमात धीरे-धीरे बिखरती । अपने-अपने घर में नहाने खाने के बाद एक हाथ से साइकिल और दूसरे से धोती का छोर पकड़ के लोगबाग दफ्तर को निकल लेते।


दप्तर में काम की कमी या काम करने की इच्छा की कमी के मद्देनज़र पहले शान से कुरसी झड़वाई जाती। स्कूल के केस में मास्टर साहब प्रार्थना के बाद या उसेक दौरान ही पहुंचते। मुझे याद है प्रार्थना के दौरान मास्टर साहब लोग आंखे मूंद कर पता नहीं किसके खयालों में खो जाते थे। संभवतः अपने इष्ट के खयाल में। लेकिन लड़के इस अवसर का फायदा उठाते। कुछ तो घर को फूट लेते ॥ बाकी जो फूट नहीं सकते वे आपस में लड़कर,एक दूसरे को गाली देकर या पादकर ही अपनी भड़ास निकालते।


फिर हर दो पीरियड के बाद चाय के दौर होते। शाम के वक्त॥यानी पांच बजे दफ्तर के लोग दो हिस्सों में निकलते।। एक जो सब्जी बाजार होते हुए घर लौटेंगे। और दूसरे जिनकी बीवियां वित्त मंत्री हुआ करतीं। लौंडे खेल के मनौदान की तरफ... बरसात होती तो फुटबॉल खेला जाता, जाडों में क्रिकेट और गरमियो में बेल तोड़कर खाए जाते। जिसके अंदर का गोंद हमारे मुंह पर लगा जाया करता था। गरमियों में आम तौर पर हम पतंगे उड़ाते, गोली खेलते या फिर गिल्ली डंडा खेलते। अब तो मौसम के हिसाब से खेल का चलन खत्म हो गया है और बरसात हो या गरमी क्रिकेट ही खेली जाती है।


वह मैदान लड़कियों के स्कूल का पिछवाड़ा था। और उस दौरान हम प्यार-मुहब्बत के बारे में ज्यादा नहीं जानते थे। जब जान गए तो अपना एक पीरियड गोल कर पहले ही मैदान पहुंच जाते थे। टापने। कईयों को उस दौरान ट्रू-लव (सच्चा प्यार) भी हुआ। हमारा चैहरा ही इतना चूतियाटिक था, कि लड़कियां घास नहीं डालती थी।(राज की बात ये कि आज भी नहीं डालती) फिर दसवीं के इम्तिहान के बाद लड़के छिटक गए। कोई पटना कोई रांची निकल गया। एक दोस्त की प्रेम कहानी बडी़ मार्मिक है। वह दसवीं के बाद लखनऊ चला गया। उसकी प्रेमकथा इतनी मार्मिक है कि दिल पर पत्थर रखकर लिखना पड़ेगा। बड़ा पत्थर चाहिए होगा, खोज रहा हूं मिलते ही फिर बताऊगा। लेकिन अभी तो वो पल याद आ रहे हैं, जब चिंता नाम की चीज़ नहीं थी। एक ही चिंता हुआ करती थी संस्कृत की परीक्षा में पास होने की।

Saturday, June 28, 2008

नौकरी- एक कविता


मैं फिर से मां की आंखों का तारा हो गया हूं,
बहनों का दुलारा हो गया हूं,
झिड़कियां थमती नहीं थी जिनकी,
नौकरी मिली,

तो उन सबका प्यारा हो गया हूं।

Tuesday, June 24, 2008

सौमित्र च‍टर्जी को दादा साहेब फाल्के


ताज़ा खबर ये है कि बांगला फिल्मों के जानेमाने अभिनेता सौमित्र च‍टर्जी को दादा साहेब फाल्के पुरस्कार दिया जा सकता है। इस बारे में बाज़ार में खय्याम और प्राण के नामों पर भी विचार चल रहा था। लेकिन सूत्रों के मुताबिक बांगाली कार्ड कारगर हो गया है। और इस साल सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार भी मुंह फुला कर स्वीकारकरने वाले सौमित्र को दादा साहेब दिया जाएगा। बहरहाल ,हम उनकी काबिलियत पर शंका नहीं कर रहे और जानते हैं कि वह इसके काबिल हैं और उन्हें बहुत पहले ऐसे पुरस्कार मिल जाने चाहिए थे। आखिर सत्यजित रे के साथ उन्होंने १४ फिल्में की हैं।

Monday, June 23, 2008

कैसे बने कामयाब पति- कुछ नुस्खे


आज के दौर में हर शादीशुदा या गैरशादीशुदा इंसान जिस समस्या से जूझ रहा है वह है कामयाब पति कैसे बनें की जद्दोजहद-- कक्का जी ने सोफे पर पसरते हुए बयान दिया। कक्का जी का चेहरा भव्य है और पीआर करने में माहिर हैं, उनकी मूंछे यूपीए गठबंधन की तरह खिचडी हैं। नाक के बाल बीएसपी की तरह कभी समर्थन देते हैं, कभी खींच लेते हैं।


गुस्ताख हैरान रह गया। शादीशुदा तो खैर समझ में आता है कि परेशां होंगे लेकिन गैर शादीशुदा॥?यार वो भी कभी शादीशुदा होंगे कि नहीं-- कक्का जी ने बात साफ़ की। देखते नहीं कि कनाडा में बठे उड़नतश्तरी तक पत्नी से घबराते हैं। पत्नी होती ही घबराने वाली चीज़ है। कविता या कहानी में किसी स्त्री की जिक्र हो जाए, तो पत्नी एयर ले लेती है। कौन है? किस पर लिखा है इतना रोमांटिक ? हम पर तो कभी नहीं लिखा? अब आप जनाब देते रहे दुहाई-- तुमको मैं अपनी जान कहूँ या नील गगन का चाँद कहूँ।

गुस्ताख घबराया - यार कक्का कोई तो नुस्खा होगा कामयाब पति बनने का। कक्का जी फूले -सुनो बचवा हमारे हमारे पास इस बारे में अगाध नॉलेज है। गुस्ताख ने पूछा - पति बनने का? पर हमारे खयाल से आप भी बेलन नहीं तो कम-अज-कम बातों से पसली तो रोज़ाना तुड़वाते ही हैं। कक्का जी ने रजनीश को बहुत पढ़ा है।

उनकी बातचीत में सेक्स बहुत बार प्रयोग होता है। कुछ महिला विमर्श भी पढ़ रखा है। सेकेंड सेक्स भी पढ़ने दिया था। साइकोलजी पढ रखी है। कहा- तुन्हें अभिनय आना चाहिए वह भी बेदाग। रोने लगो तो राजेंद्र कुमार फेल हो जाना चाहिए। भावप्रवण अभिनय करो॥ राजकपूर की तरह.. लगे कि यह जो बंदा है सच्चा है और आरोप लगे तो अभी मैच फिक्सिंग में फंसे कपिल की तरह दहाड़ें मार कर रो पड़ेगा।

दूसरा, झूठ बालना आना चाहिए। पत्नी को बिला शक बॉस मानते हुए बहाने बनातर हमेशा तैयार रखों। बहाने भी एक दम फिट एन फाईन हों? यार आज तो लाईफ़ एँड डेथ का मामला था। इस टाइप का॥कक्का जी कुछ बोलने ही वाले थे कि भीतर से काकी ने आवाज़ लगाई..कक्का बाहर निकले तो कुछ और नुस्खें बताएं। हम भी इंतजार में हैं।

Friday, June 20, 2008

मेरी अभिलाषा- कविता

मैं होना चाहता हूं पेड़
ताकि कोई ले जाए तोड़कर मेरी शाख़
और मुझे जलाकर पकाए अपनी रोटियां
उसकी फूंकों के संग बन कर उडुं राख

मैं होना चाहता हूं चुटकी भर नमक
या कि हल्दी
कि मेरे होने से किसी के खाने में आ जाए स्वाद
किसी की पीली हो जाए दाल
और मुस्कुराहटों से भर जाए उसके गाल

मैं होना चाहता हूं घास
कि मुझे खाकर कोई गाय
बना दे दूध
या कि गोबर सही
कि किसी के चूडी़ भरे हाथों से दुलरा का दीवारों पर ठोंक दिया जाऊं
उपले बनकर चूल्हे में जलूं
पर कुछ होने की खुशी पाऊं

Wednesday, June 18, 2008

तपन सिन्हा को लाईफ टाईम अचीवमेंट

ताजा समाचार ये है कि इस बार भारत का पहला लाईफ़ टाइम अचीवमेंट पुरस्कार तपन सिन्हा को दिया जाएगा। २० जून को पश्चिम बंगाल के राज्यपाल गोपाल कृष्ण गांधी न्यू अलीपुर के उनके मकान पर जाकर उन्हें ये पुरसकार देंगे। साथ में सूचना और प्रसारण मंत्री प्रिय रंजन दास मुंशी भी होंगे। लाईफ टाईम अचीवमेंट श्रेणी को पहली बार राष्ट्रीय पुरस्करों में शामिल किया गया है। और भारत की आजा़दी की साठवीं सालगिरह पर इसे शुरु किया गया है।

तपन सिन्हा की पहली फिल्म उपहार थी जो १९५५ में रिलीज़ हुई थी। १९५६ मे रिलीज़ हुई फिल्म काबुलीवाला दूसरी फिल्म थी।इसके गाने तो आज तक लोगो की ज़बान पर हैं। इसके अलावा एक डॉक्टर की मौत, सगीना और आदमी और औरत तपन दा की बेहतरीन फिल्मों में गिनी जाती हैँ। आपने बावर्ची जैसी कई फिल्मों की कहानी भी लिखी है।

Friday, June 13, 2008

सस्ता शेर

"उन्हें याद करने का ये रीज़न था

कि मर जाए निगोडी़ हिचकी लेते-लेते।।"


नोट- महिलाएं अपने पुरुष मित्रों के लिए 'निगोडा़' शब्द इस्तेमाल करें।

Thursday, June 12, 2008

ईरानी फिल्म- वेयर इज़ द फ्रेंड्स होम( खानेह ये दस्त कोजस्त


फिल्म- वेयर इज़ द फ्रेंड्स होम ( खानेह ये दस्त कोजस्त)
ईरान/१९८७/रंगीन/९० मिनटनिर्देशन और पटकथा- अब्बास कियारोस्तामी

सिनैमेटौग्रफी- फ़रहाद साबा
कास्ट- बेबाक अहमदपुर, अहमद अहमादापुर


एक छोटा लड़का एक दिन स्कूल से लौटकर जब अपनी होमवर्क करने बैठता है। तो देखता है कि उसने गलती से अपने दोस्त की कॉपी भी अपने बस्ते में डाल ली है। चूंकि, उसका क्लास टीचर चाहता है कि सारे होमवर्क एक ही कॉपी में किए जाएं, ऐसे में वह लड़का माता-पिता के मना करने पर भी पड़ोस के गांव में रहने वाले छात्र के यहां जाकर कॉपी वापस करना चाहता है। लेकिन वह अपने दोस्त के पिता का नाम या पता नहीं जानता। ऐसे में वह उसे खोजने में नाकाम रहता है।


आखिरकार, कई लोगों की मदद और ग़लत घरों में घुसने के बाद लड़का अपने गांव वापस लौटकर उस लड़के का भी होमवर्क पूरा करने का फ़ैसला करता है।


पूरी पटकथा निर्दोष है। किस्सागोई का एक अलग अंदाज़..जिसमें ईरान में आई इस्लामी क्रांति का असर देखा जा सकता है। क्रांति के पहले का ईरान कुछ और था। सभ्यता के कुछ और मायने थे। रूमी की कविताओं की शानदार पंरपरा थी। लेकिन इस्लामी क्रांति ने पहरे बिठा दिए। लेकिन इन परंपराओं का असर फिल्म पर पूरी तरह देखा जा सकता है। कड़ी बंदिश के बाद फिल्मकारो ने इतिहास और परिस्थियों को मेटाफर के तौर पर दिखाना शुरु कर दिया। आम तौर पर किरियोस्तामी जैसे निर्देशकों ने बच्चों को लेकर फिलमें बनाई और बच्चों को ईरान के नागरिक का प्रतीक और मेटाफर ( ध्यातव्यः प्रतीक और मैटाफर में बुनियादी अंतर होता है) के तौर पर इस्तेमाल करना शुरु कर दिया। फिल्मों में लोग पूरे ईरान में घूमते हैं। और इस तरह फिल्मकारों ने समस्याओ को सामने रखने का अपना काम जारी रखा।इस फिल्म की बात करे ंतो इसमें बच्चे को अनेक अनिश्चितताओं के मेटाफर बनाकर पेश किया गया है। दोस्त मिलेगा या नहीं, लड़का घर कैसे ढूंढेगा और घर नहीं मिला तो लड़का क्या करेगा॥ये सवालात सहज ही दिमाग में उठते हैं।


औरतों की समस्या भी खासतौर पर रेखांकित की जा सकती है। गो कि बच्चे को सहज ही हर घर के भीतर प्रवेश मिलता है। और बच्चे का अपनी मां और अपने पिता के साथ रिशते भी खास तौर पर ध्यान दिए जाने लायक है।एक दृश्य में, बच्चे को जब उलझन रहती है कि रात घिर आने के बाद वह घर नहीं खोज पाया है और कॉपी भी उसे देनी ही है। वह एक खिड़की के सामने खड़ा होता.. और उसे तत्काल हल मिल जाता है। यह सीन कुछ इस तरीके से शूट किया गया है और परदे पर कुछ इस तरह दिखता है ..जैसे इस्लामी संस्कृति में ईश्वरीय शक्ति को उकेरा जाता है। जाली दार खिड़की और उससे छनकर आती बेहिसाब रौशनी..फिल्म में बच्चा बड़ों के लिए ताकत का प्रतीक बन कर उभरता है। वैसे बड़ों के लिए जो शासन और सत्ता से खतरे और धमकियों का सामना कर रहे थे। पाठकों को सलाह ये है कि ईरान की इस फिल्म को ज़रूर देखे।

Sunday, June 8, 2008

नल्लू पेन्नूगल और अडूर गोपाल कृष्णन


चार नहीं समाज की सभी औरतों की कहानी


गोवा में ही अजित राय ने अडूर की इस फिल्म की अहमियत समझा दी थी। मैं व्यस्तताओं की वजह से फिल्म देख नहीं पाया। टीवी में काम करना फिल्मोंत्सव कवरेज के दौरान भी फिल्म देखने की छूट कम ही देता है। बहरहाल, मन में साध थी, कि यह फिल्म देखूं। दिल्ली के जिस इलाके में रहता हूं वहां भी मलयाली लोग रहते हैं लेकिन सीडी किराये पर देने वाले के पास भी अडूर नहीं थे।


बहरहाल, रविवार को इंडिया हैबिटाट सेंटर में कवरेज के ही दौरान मैं दम साध कर कैमरामैन की तरफ बिना देखे.. पूरी फिल्म देख गया। कैमरामैन भी देख रहा था, मेरे ही साथ अगली सीट पर अडूर भी थे और नंदिता भी। नंदिता इस फिल्म में एक अहम रोल में हैं।


बहरहाल , नल्लू पेन्नूगल.. मेरे हिसाब से यही उच्चारण होना चाहिए ... यानी चार औरते केरल के एल्लेप्पी जिले के कुत्तांड के विभिन्न पृष्ठभूमि की चार महिलाओं की कहानी है। फिल्म टी शिवशंकर पिल्लई की चार अलग कहानियों पर आधारित है। अडूर ने कहा भी कि वह कहानियों से फिल्म बनाने में थोड़ी छूट ले गए हैं लेकिन यह छूट महज रचनात्मक छूट ही है। हर कहानी में आरोह, उत्थान और उपसंहार है । और हर कहानी आपको एक ऐसी जगह परले जाकर छोड़ देती है, जहां आप महज आह भरकर आगे की कल्पना ही कर सकते हैं।


पहली कहानी द प्रोस्टिट्यूट में वेश्या कुंजीपेन्नू की भूमिका में पद्मप्रिया हैं। कुंजीपेन्नू, पप्पूकुट्टी से शादी कर अपना धंधा छोड़कर आम जिंदगी जीना चाहती है। लेकिन समाज का दकियानूसी रवैया और शादी का कोई सुबूत न होना उनके गले की हड्डी बन जाता है। आखिरकार, पुलिस उन्हे पकड़ ले जाती है। जहां उन्हे ग़ैरक़ानूनी ढंग से यौन क्रिया का दोषी मानते हुए १५ दिन की जेल हो जाती है। अपने अच्छी ज़िंदगी(?) यानी मजदूरी के दौरान ठेकेदार का लोलुप रवैया और साथी मजदूरों की सहानुभूति कहीं न कहीं मार्क्सवाद के असर का परिणाम जान पड़ती है।


फिल्म में दूसरी कहानी है- द वर्जिन। फिल्म के इस हिस्से में गीता मोहन दास की मुख्य भूमिका है। वह धान के खेतों में काम करती है,और उपार्जित पैसे अपने दहेज के लिए बचा कर रखती है। लेकिन उसकी शादी एक ऐसे कंजूस और पेटू दुकानदार से हो जाती है। जिसे सेक्स में बिलकुल रुचि नहीं। और ेक दिन वह अचानक बिना कारण ही कुमारी को मायके छोड़ आता है। चरित्र पर बिना किसी तरह की सफाई दिए कुमारी फिर से खेतों में काम करने लग जाती है।


तीसरी कहानी एक घरेलू औरत की है। विवाह के कऊ साल बीत जाने के बाद भी मां नहीं बन पाती। ऐसे में उसका स्कूली दिनों का एक सीनियर आजा है। सीनियर उसका प्रैमी भी रहा होता है। वह उसे बच्चा होने का एक ऐसा तरीका बताता है, जिसे अनैतिक माना जाता है। बहरहाल, घरेलू स्त्री उसे नकार देती है और घर से निकल जाने को कहती है।


चौथी कहानी में काली कामाक्षी( नंदिता) के विवाह में आ रही अड़चनों का आख्यान है। उसे देखने आया लड़का उसीक छो़टी बहन को पसंद कर उससे विवाह कर लेता है। छोटे भाई की भी शादी हो जाती है, मां के मरने के बाद कामाक्षी अकेली हो जाती है। उसकी अपनी ही बहन अपने घर में पनाह देने को राजी नहीं, ऐसे में आखिर में कामाक्षी अपमी मर्जी से अकेलेपन को चुन लेती है।


पूरी फिल्म में कैमरा शानदार तरीके से वही दिखाता है,जिसकी कतहानी को ज़रूरत होती है। ज्यादा मूवमेंट किए बिना कैमरे में यथार्थवादी तरीके से किस्सागोई की गई है। अडूर का समांतर सिनेमा सोकॉल्ड बड़े फिल्मकारों की सोच से मीलों आगे है। और जो लोग अच्छी फिल्मों के दर्शकों के टोटे का रोना रोते हैं, उनके लिए तो अडूर एक सबक हैं। हमीं ने कभी अडूर से पूछा था, हिंदी में फिल्में क्यों नहीं बनाते.. सीधा जबाव था.. मलयालम में दर्शक मिल रहे हैं तो हिंदी के ढूंढने क्यों जाउँ?