Saturday, February 28, 2009
मेरा एक दिन..
कल रात जब दफ्तर में ही, एक लोहे की सीढ़ीनुमा संरचान के पास रबर प्लांट के आसपास सिगरेट फूंक रहा था। विकास सारथी ऐसे पलों में मेरे साथी हुआ करते हैं, हालांकि वह सिगरेट नहीं पीता। आसमान की तरफ नजर गई। दोनों नॉस्टेल्जिक हो गए। सितारे देखे हुए एक अरसा हो गया था। दिल्ली में सारे सितारे तो जमीं पर हैं। गोया आसमान की तरफ नजर ही नही जाती। शुक्र पूरे तेज से चमक रहा था। शुक्र बड़ा बलवान है यहां, दिल्ली में। हरी-हरी रौशनी से अगल-बगल को चमकाए रखता है। मंगल भी चमकीला है।
सारथी बता रहा था कि वह बरेली में आसमान देखा करता था। मै मधुपुर में। दिन पीछे छूट गए हैं। दिल्ली में धुआं कम हुआ है तो सितारे भी दिखने लगे हैं। टिमटिमाते हुए। सिगरेट का धुआं आंख के आगे था लेकिन तारों तक नहीं। हल्की पछवा से देर सिहर रही थी। ठंडक कम हो गई है। सिहरन भी भदेस है आजकल।
दफ्तर में वाइस ओवर और पैकेजेस की धुंध से निकल कर घर जाता हूं। लेकिन खेलगांव से आश्रम तक, ट्रैफिक की चिल्ल-पों से परेशानी बढ़ ही जाती है। सारा दिमाग़ भन्नाने लगता है। घर जाता हूं तो टेलिविज़न अपने सुर मे छीक रहा होता है। संवादों के बीच में साउंड इफैक्ट.. रिएक्शन शॉट्स..। लगता नहीं कि झेल पाउंगा। मां, भाभी ...पूरा परिवार बालिका वधू के सुख-दुख मे शामिल है।
बुढिया दादी-सा की कुटिल चालों पर कोसती हैं भाभी। मेरी मां भी। उन सब को अपनी सासें याद आ रही है। मैं कमरे में बंद हो जाता हूं। असहनीय है। धारावाहिक शायद असहनीय हो न हो। लेकिन दिन भर विजुअल्स और वाइस ओवर से जूझने के बाद टीवी की तरफ देखना असहनी.य है।
किताबें.. रैक पर ढेर हैं। दक्षिण एशिया में विकास के तरीके..गोदान भी है, चौरंगी भी, टटा प्रफेसर भी.. लेकिन दरवाजा भी..किसको पढूं.. चाय आ जाती है। भतीजी चॉकलेट के लिए बिफर रही है। मुझमें हिम्मत नहीं कि सीढियां उतर कर चॉकलेट के लिए जाऊं। भाभी का चेहरा उतर जाता है। चाय पटक जाती हैं। दुनिया भर के तमाम खाद्य और पेय पदार्थों में चाय .. आई एम लविंग इट।
देखना चाहता हूं कि विनोद दुआ लाइव में दुआ साहब किसको लपेट रहे हैं.। रवीश जी ने अपने चैनल का चोला बदल दिया है। लेकिन सीरियल लगातार चलते रहते हैं। रिमोट नहीं मिला पाता। छोटा भतीजा साढे नौ बजे रामायण देखना चाहती है। मैं धार्मिक झेलू टाइप प्रोग्राम से दूर रहने की भरसक कोशिश करता हूं।
अखबार मे हमारे चैनल पर चल चुकी खबरें ही हैं। ऐसी खबरें, अखबारों में आती हैं, जो दूसरे चैनलों पर दिखती नहीं। हमारे चैनल पर होती है। अखबार भी पटक देता हूं। क्या करुं..? जी मिचलाने जैसा.. खाने में भी स्वाद नहीं। रोटी के साथ सब्ज़ी.. भगवान। मुझे क्या हो गया है।
सोने जा रहा हूं, च्यवनप्रास के साथ दूध.. खांसी हो गई है। आती और जाती सर्दी से बचने के तमाम हिदायतें मां की ओर से। मोबाइल से ही एफएम बजा देता हूं.. रेनबो पर तपस्या हैं, कह रही हैं सपने कितने अपने। सोने की कोशिश करता हूं कल वक्त पर जागने के लिए...
Friday, February 20, 2009
तस्वीरे- मांडवी की मौत, जुआरी के साथ जुआ
Wednesday, February 18, 2009
एक अपील- खनन से खो रही खूबसूरती
सभी ब्लॉगर साथियों से अनुरोध है कि इस पोस्ट को अपने ब्लॉग पर छाप कर या किसी और तरीके से इस बारे में जागरुकता फैलाएं। अखबार वाले बंधु इस सामाचार को तरजीह दें। आप चाहेंगे तो हम सेबेस्टियन रोड्रिग्ज़ के बारें में और उनका संपर्क भी आपको देगें। हमने सोचा कि हम इसके बारे में एक ड्राइव चलाएं। आप सभी अपने-अपने ब्लॉग पर बेहिचक इन तस्वीरो को छापें और वहां के पर्यावरण को बचाने की मुहिम में हमारा साथ दें।
गोवा का अपना सौंदर्य है। और अगर आप हनीमून या बस यूं ही घूमने फिरने के ख्याल से गोवा जाना चाहते हैं तो जल्दी कीजिए। इसलिए नहीं कि हम कोई ट्रैवल पैकेज देने वाले है? गोवा का असली सौंदर्य खतरे में है। गोवा से ही हमीरी एक मित्र ने इस बारे में हमें आगाह किया है। वहां सेवेस्टियन रोड्रिग्ज़ नाम के शख्स गोवा के कुदरती सुंदरता को बचाने और इसके पर्यावरण पर पड़ने वाले बुरे प्रभावों के खिलाफ लगातार संगर्षरत है। परिणामः खनन कंपनियों ने उनके खिलाफ कोलकाता हाई कोर्ट में मुकदमा दायर कर दिया है।
वहां के स्थानीय शिक्षक के मुताबिक गोवा में खनन कंपनियों ने ओपन कास्ट माइनिंग करनी शुरु कर दी है। इसका परिणाम वहां के भौमजल पर पड़ना शुरु हो गया है। खासकर बीचोलिम में भूमिगत जल- जो पीने लायक होता है- बिलकुल सूख चला है। शिक्षक रमेश गौंस बताते हैं कि ओपन कास्ट माइनिंग के दौरान काफी अंदर तक खुदाई चल रही है इससे पानी की क्वॉलिटी पर असर पड़ रहा है। बाकी बातें तो तस्वीरें खुद बयां कर रही हैं।
Tuesday, February 17, 2009
कविता लिखने से क्या उखड़ेगा
मेरे यार लोग प्रेम में और बेवफाई में कविताएं लिखते हैं। मै भी कई बार कविता टाइप लिखने की गुस्ताखी कर बैठता हूं। लेकिन रिजल्टेंट क्या होता है। हेमिंग्वे से लेकर पनवाड़ी की दुकान पर बैठने वाले रम्मू तक की कविता पढी है। लेकिन असर नहीं होता। सवाल है कि असर होता किस बात का है हमपर। दिनकर की एक कविता पढ़ी थी, दो में से तुम्हें क्या चाहिए कलम या कि तलवार..।
दोस्तों ने प्रेम पर कविता लिखकर पन्ने रंग दिए। प्रेम की देवी रुठी की रुठी रही। कविता के गोल-गोल जलेबीनुमा शब्दों से रोटी ज्यादा गोल होती है। कविता संगीन से ज्यादा ताकतवार है, किसी ने कहा है तो क्यों न राम ने रावण को कविता सुनाकर बस में कर लिया। खासकर, एसटीडी बिलों पर लिखी जा रही कविता। चलें लादेन को बुश साब की कविता सुनवा देतें है।
तुम्हारी लिखी कविता कौन पढ़ता है। बच्चों को हिंदी आती नहीं.. जिन्हें आती है वह कविता क्यों पढ़े, मस्तराम क्यों न पढें। कविता से समाज बदल जाता तो सत्ता बदलने के लिए बंदूक की ज़रुरत ही क्या थी.। लेनिन कविताएं लिखने वाले लोगों को कविता क्रांति का पाठ पढाते।
कुछ करना है तो सॉलिड करो, कविता लिख के कुछ नहीं उखड़ने वाला।
Saturday, February 14, 2009
कृपया प्रेम न करें
आज के दिन कृपया प्रेम न करें। न देश से, न इंसान से, न जानवर से। करना तो दूर, उसकी बात तक न करें। किसी का फोन आए तो काट दें। कोई फूल दे, तो नज़रें फेर लें। संस्कृति के तथाकथित रखवाले ऐसा ही तो चाहते हैं। क्या त्रासदी है। लोगों को प्रेम से बचना होगा ताकि टीवी चैनलों और कल के अखबारों की सुर्खियों में कोई अप्रिय घटना का समाचार न देखना-सुनना-पढ़ना पड़े।
हमें याद रखना होगा कि हम एक ऐसे समाज में रहते हैं, जिसमें हिंसा जायज़ है, प्रेम नाजायज है, शादी सज़ा है। मंगलौर की घटना बता रही है कि प्रम करने पर प्रेमियों के साथ क्या होता है। लेकिन कई सवाल सामने हैं, क्या हम लकीर के फकीरों से डर जाएंगे? क्या दो-तिहाई युवा आबादी वाले मुल्क को चंद अतीतजीवी हांकेंगे? क्या एक फोबियाको कल्चर क ीहिफाजत की गलतफहमी में रहने दिया जाए? क्या उनके बेतुके फरमानों को चुपचाप निबाहा जाए?
साभार- दो टूक, हिंदुस्तान, १४ फरवरी, २००९(पढ़कर रोक नहीं पाया हूं छापने से)
प्रेम की पराकाष्ठा
दुल्हन की डोली सजना बीते दिनों की बात है..सो डोली को कंधा देना भी अतीत हुआ। अब दुल्हन कार में जाती है, साजन के घर। तो कोई देवदास बनना चाहे भी और देवदास की तरह प्रेमिका की डोलीनुमा कार को कंधा देना चाहे भी , तो ये वायवल नहीं लगता। कार को कंधा देना मुमकिन है? प्रेमिका का विवाह वेलेंटाईन डे के दिन हो, और पूर्व प्रेमी डांस फ्लोर पर डीजे की धुनों पर नाचे तो इस परिस्थिति को क्या कहेंगे आप, प्रेमं की पराकाष्ठा ही न?
आज प्रेम दिवस है। आप सबों को प्रेम दिवस की बधाई.. बाबा वात्स्यायन के देश में प्रेम दिवस से पावन भला और क्या हो सकता है? लेकिन कुछ सरफिरे इसे समाज के विरुद्ध मान रहे हैं। लड़कियों के कपड़ों पर उनका नाराज़गी है, शराब पीने पर नाराज़गी है। निजता में दखल देकर सुर्खियां पाना एक शॉर्ट-कट है।
बहरहाल, हम प्रेम की पराकाष्टा पर कुछ कहना चाह रहे थे। मेरे एक मित्र है। मेरी एक सहेली भी है। सहेली की शादी आज ही है। वेलेंटाईन दिवस को..मेरे मित्र उससे प्रेम जैसा कुछ करते थे..लेकिन तीन साल तीन सदियों की तरह गुज़र गए ना तो मित्र प्रेम का इज़हार कर पाए न सहेली समझ पाई। कि ये जो रोज़ कुत्ते की तरह मेरे पीछे-पीछे गूमता है मुझसे प्यार करता है।
दुल्हन की डोली सजना बीते दिनों की बात है..सो डोली को कंधा देना भी अतीत हुआ। अब दुल्हन कार में जाती है, साजन के घर। तो कोई देवदास बनना चाहे भी और देवदास की तरह प्रेमिका की डोलीनुमा कार को कंधा देना चाहे भी , तो ये वायवल नहीं लगता। कार को कंधा देना मुमकिन है? प्रेमिका का विवाह वेलेंटाईन डे के दिन हो, और पूर्व प्रेमी डांस फ्लोर पर डीजे की धुनों पर नाचे तो इस परिस्थिति को क्या कहेंगे आप, प्रेमं की पराकाष्ठा ही न?
बहुत पहले जब हम कॉलेजिया स्टूडेंट ही थे। उसी वक्त, हमारे एक मित्र प्यार में पड़ गए। गरमी की एक देर रात, मेरे मित्र पसीनायित कमरे में नमूदार हुए। हम एग्रीकल्चर की हैंडबुक के भीतर कोई और ही कल्चर डिवेलप कर रहे थे। साफ शब्दों में कहें तो वर्जित साहित्य का रसपान कर रहे थे। मित्र को पसीनायित देखकर वहां मौजूद सभी मित्रों ने सवाल पर सवाल दागा। बकौल मित्र, वह रात उनके लिए कयामत की रात थी। उनकी प्रेमिका का विवाह था और वह बारातियों को पूडी़ बांटकर आ रहे थे। तभी से नाकाम प्रेमियों को हम बारात में पूड़ी बांटने वाला कह कर अभिहीत करते हैं।
लेकिन क्या यह भी प्रेम की पराकाष्टा नहीं है। प्रेमिका का इंतजार उनक घर के बाहर या कॉलेज के गेट के सामने या ट्यूशन सेंटर के बाहर मचान से लटके शिकारी की तरह इंतजार करने वाले् तमाम प्रेमियों से हमारी सह-अनुभूति है। जो लोग भग-वा ब्रिगेड के स्वंयभू कमांडर हैं उन्हें भी समझना चाहिए कि इस दुनिया में जिस चीज़ की सबसे ज्यादा कमी है वह प्रेम है। इसे बढा़ने में मदद करें ना कि इसे प्रतिबंधित करें।
Saturday, February 7, 2009
सरस्वती पूजा और सानिया मिर्जा कट नथुनिया
जयनगर स्टेशन उतर कर जब हम लोग होटल की तरफ चले, तो राह में ट्रकों पर सरस्वती जी की प्रतिमाएं थीं, और साथ में अजब-गज़ब गानों पर नाचते लड़के। बिहार में सानिया मिर्जा की लोकप्रियता की एक खास झलक भी दिखी। गाने बज़ रहे थे--सानिया मिर्जा कट नथुनिया में जान मारेलु...। तेज़ संगीत..। जितना तेज़ संगीत, उतना ही तेज़ नाच।
जो नाच रहे थे..उनमें से अधिकतर ऐसे थे जिन्हें पढाई के नाम परबुखार आ जाता होगा। लेकिन उस इलाके में सरस्वती पूजा बड़े जोर-शोर से होता है। चंदा मांगकर.. कई लोग चंदा लेकर बड़ी धूमःदाम से पूजा करते हैं। लेकिन एक दंश सालता है.. बिहार में साक्षरता का औसत देश में सबसे कम है, महिला साक्षरता की तो बात छोड़ ही दीजिए।
एक और गाना बहुत सुनाई दिया।... ताड़ी वाली ताड़ी पिला दे.. ताड़ वाला ज्यादा डालअ, खजूर वाला कम..तर्ज थी हरियाणवी गाने पाणी वाली पाणी पिला दे की। एक बार फिर लगा कि बिहार भी ग्लोबल जैसा कुछ हो रहा है। कम से कम हरियाणवी गाने की धुन सुनना अच्छा ही लगा। गाना चाहे जैसा था।( बिहार के संगीत से कम प्रेम नही मुझे भी लेकिन गाने के शब्द कुछ ऐसे थे कि कुछ खास बिहारीपना और कलाकारी थी नहीं उसमें, अतएव मुझे बिहार का मज़ाक बनाने वाला न माना जाए)
सरस्वती का आराधना का शोरगुल वाला ढंग अभी भी वैसा ही है, जैसा हमारे किशोरवय के दिनों में था। इन्ही विसर्जन की प्रक्रियाओं में भाई लोग अपनी 'उन' से भी मिल लेते हैं, नज़र भर कर देख लेते हैं, नाच कर रिझाने की कोशिश करते हैं, अच्छी बुरी हरकते करते हैं। देवी सरस्वती भी ज़रुर मुस्कुरा रही होंगी।
बहरहाल, पांडा साहब को हमने वादा किया था कि जयनगर की मशहूर मिठाई ज़रूर खिलाएँगे। मिथिला के लोग मिठाई के प्रेमी होते हैं.। उदरेस्थु मैथिलः यानी मैथिल अपने पेट या भोजनभट्टई के लिए मशहूर हैं। हमने मिथिला के रसगुल्ले पांडा को पेश किए।
लेकिन इस दौरान एक और सवाल जेह्न में घूमता रहा कि आखिर वो कौन सी चीज़ है, जिसने सानिया मिर्जा या उनकी नथुनिया को बिहार में इतना पॉप्युलर कर दिया है। जवाब...सोच रहा हूं।
अगली सुबह हमें जनकपुर जाना था.. नेपाल रेल्वे के ज़रिए.. उसका विवरण बाद में..
Friday, February 6, 2009
बिहार यात्रा से लौटकर
मेरी इस यात्रा की शुरुआत कुछ बेहतर नहीं कही जा सकती। कैमरामैन बिहार जाने के नाम पर बिदक रहा था (हालांकि वह खुद उड़ीसा का है) उसे किसी न कहा था कि बिहार की सीमा में घुसते ही एक गोली आएगी और सीधे उसेक भेजे को भेदती अनंत में विलीन हो जाएगी। लेकिन सरकारी आदेश के सामने उस अदने कैमरामैन की क्या बिसात.. उसे जाना पड़ा, जाना ही था।
गरीब रथ में कायदे से कोई गरीब दिखा नहीं, तो हमें निराशा होने लगी। ( ब्लॉग लेखन कर रहा हूं तो भाई निशांत सौरभ की तरफ से त्वरित टिप्पणी आई है कि गरीब रथ गरीबों की कमाई से खींचा जाने वाला रथ है, दुहाई हो) बहरहाल, पूरी बोगी में और मुमकिन है कि पूरी गाड़ी में सबसे ज्यादा गरीब हम लोग ही थे। लैप टॉप को लैप पर बिछाए आईटीकुशल युवा और चमक-दमक साडियों में सजी सामंती महिलाएं..दो-एक लड़कियां। पुरानी आदत है कि ट्रेन में चढ़ने से पहले रिज़रवेशन चार्ट देखता हूं और उसमें अपनी सीट के अगल-बगल १८ से २८ के रेंज की लड़कियों की तलाश करता हूं। ( महिला विमर्श के झंडाबरदारो से क्षमायाचना सहित)
परंपरागत रुप से मैंने इस बार भी किया, लेकिन बात जमी नहीं। लगा कि यह यात्रा बोर होने वाली है। लेकिन जैसे ही गाड़ी ने निज़ामुद्दीन स्टेशन छोड़ा, कैमरामैन को मैंने बताया कि बिहार के बारे में उसकी सोच भ्रामक है। बिहार बिहार है। बिहार अफगानिस्तान नहीं है, बिहार मुंबई भी नहीं है। और मेरे जैसा शराफत का पुतला भी इसी बिहार की देन है। तब जाकर हमारे कैमरामैन पांडा साहब थोड़े संतुष्ट हुए।
गरीब रथ के बारे में हमने अपने सहयात्रियों से बातचीत की।
राजनीतिक शिगूफे के तौर पर गरीब रथ को चाहें जितना गरिया लें, लेकिन ज्यादातर लोग इस बात से वाकिफ हैं और गरीब रथ को लेकर ज्यादा इंप्रैस नहीं हुए हैं। कुछेक सच्चे अर्थों में लाभान्वित लोग, दिल्ली में सड़क बनाने के काम में लगे कामगार.. पहली बार गांव जा रहे थे, पहली बार एसी में चढ़े भी थे। उनमें से एक हरलाखी जी ने बताया कि वह नेपाल सीमा से सटे गांव उनगांव जा रहे हैं और जीवन में पहली बार गांठ से खर्च करके एसी का सफर कर रहे हैं गोकि उऌकी पत्नी की बड़ी तमन्ना थी कि वह एसी में सफर करें। बहरहाल, हरलाखी और उनकी पत्नी के चेहरे पर खुशी के आलेख में आसानी से पढ़ गया.
एक परेशानी लोगों को इस ट्रेन में पैंट्री कार की कमी को लेकर थी। लोग खाना खरीदने के लिए भी मार किए हुए थे।
अगली सुबह तकरीबन नौ बजे जब नींद खुली तो ट्रेन खड़ी थी। दोनों तरफ हरियाली..। असीम..अनंत। पांडा जी ने बताया कि अभी-अभी कोई नदी पार हुई है। देखा हॉल्ट था, राजेंद्र पुल..मैंने बताया कि गंगा को पार कर हम उसके ही किनारे खड़े हैं। पांडा जी फौरन से पहले गगा माई को प्रणाम किया.। गंगा की ओर से आते ठंडी बयार से उनके पुराने खयाल धुलने लगे। कहने लगे, बिहार में यह सब भी है। मुझे मुस्कुराना पड़ा। उनका कहना था कि बिहार के बारे में उनकी यह राय फिल्म मृत्यदंड देखने के बाद बनी थी।
गाड़ी लेट हो चुकी थी। दोनों तरफ की हरियाली को ताकते हुए हम मूंगफली जैसे टाइम पास का सहारा ले रहे थे। वहां से गाड़ी की असली रंगत दिखनी शुरु हई और जयनगर पहुंचते पहुंचते शाम के पांच बज गए। शाम हो ही गई थी, सड़क पर हर ओर सरस्वती पूजा के अगले दिन होने की वजह से विसर्जन की धूम थी।