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Saturday, April 16, 2022

पर्यावरण के प्रति प्रेम का पर्व है मिथिला के नववर्ष का त्योहार जूड़-शीतल

देश के विभिन्न हिस्सों में नववर्ष अलग रीतियों से मनाए जाते हैं. गुड़ी परवा हो या बैशाखी, बिहू हो या फिर जूड़-शीतल. जूड़ शीतल मिथिला का परंपरागत त्योहार है, जो मूल रूप से पर्यावरण संरक्षण, जल संरक्षण और स्वच्छता से जुड़ा है. इस त्योहार के साथ ही मिथिला के नववर्ष की शुरुआत होती है.

असल में, यह मिथिला की प्रकृतिपूजक संस्कृति का अद्भुत त्योहार है. इस त्योहार के संबंध में अयोध्या प्रसाद ‘बहार’ ने अपनी किताब ‘रियाज-ए-तिरहुत’में भी ऐसा ही जिक्र किया है. लेकिन, परंपराओं के परे, ग्लोबल वॉर्मिंग के इस दौर में, जब समूची कुदरत में अलग-अलग किस्म के बदलाव दिख रहे हैं और दर्ज किए जा रहे हैं, जब परंपराओं को खारिज किया जा रहा है, उस वक्त इस त्योहार की सार्थकता और उपयोगिता और अधिक बढ़ जाती है.

जूड़-शीतल उस इलाके की परंपरा है जहां डूबते सूर्य को भी छठ में अर्घ्य दिया जाता है. जूड़ शीतल में गर्मी से पहले तालाब की उड़ाही और चूल्हे की मरम्मत भी की जाती है. चूल्हे को भी आराम देने की शायद मैथिला की संस्कृति एकमात्र संस्कृति है.

जूड़-शीतल में कर्मकांड नहीं होते. यह लोकपर्व है. इससे जुड़ी कहानियां भी नहीं हैं और बाजार को भी इससे कुछ खास हासिल नहीं होता, न ग्रीटिंग कार्ड और न बेचने लायक कुछ सामान, ऐसे में भारत के लोग इसके बारे में ज्यादा नहीं जानते. यहां तक कि मिथिला में भी अब इसका दायरा सिमटता जा रहा है.

मूलतः यह त्योहार शुचिता और पवित्रता का त्योहार है. और इस दो दिनों तक मनाया जाता है. इसके पहले दिन को कहते हैं सतुआइन और दूसरे दिन को कहते हैं धुरखेल.

सतुआइनः अमूमन यह 14 अप्रैल को मनाया जाता है और जैसा कि इसके नाम से ही प्रतीत होता है, इसका रिश्ता सत्तू के साथ है. सतुआइन के दिन लोग सत्तू और बेसन से बने व्यंजन खाते हैं. वैसे भी सत्तू को बिहारी हॉर्लिक्स कहा जाता है. पर गर्मी के इस मौसम में, सत्तू और बेसन के व्यंजनों के खराब होने का अंदेशा कम होता है, इसलिए सत्तू और बेसन के इस्तेमाल के पीछे यह तर्क दिया जा सकता है. आखिर, अगले दिन चूल्हा नहीं जलना और बासी खाना ही खाना होता है.

सतुआइन के दिन की भोर में घर में सब बड़ी स्त्री परिवार के सभी छोटों के सर पर एक चुल्लू पानी रखती है. ऐसा माना जाता है कि ऐसा करने से पूरी गर्मी के मौसम में सर ठंडा रहेगा. सतुआइन के दिन अपने सभी पेड़ों में पानी देना जरूरी होता है. गांव के हर वर्ग, और वर्ण के लोग हर पेड़ में एक-एक लोटा पानी जरूर डालते हैं. हालांकि, इस काम को अनिवार्य बनाने के वास्ते इसको भी पाप और पुण्य से जोड़ दिया गया है और इसलिए कहा जाता है कि सतुआइन के दिन पेड़ों में जल देने से पुण्य हासिल होता है.

धुरखेलः धुरखेल 15 अप्रैल को मनाया जाता है और मिथिला में इस दिन की बहुत अहमियत है. साल का यह ऐसा दिन होता है जब घर के चूल्हे की मरम्मत होती है. याद रखना चाहिए कि यह त्योहार उस दौर के हैं जब घरों में लकड़ी के चूल्हे चलते थे जो मिट्टी के बने होते थे.

इस दिन सुबह उठकर लोग उन सभी स्थानों की सफाई करते हैं जहां पर पानी जमा होता है. मसलन, तालाब, कुएं, मटके, आदि. तालाबों की उड़ाही की जाती है और उसकी तली से निकली चिकनी मिट्टी से चूल्हों की मरम्मत होती है. मिट्टी की उड़ाही के दौरान लड़के-बच्चे एक-दूसरे पर पानी या कीचड़ फेंकते हैं.

पर वह कीचड़ गंदा नहीं होता था. क्योंकि तालाब और पोखरे रोजमर्रा के इस्तेमाल में आते थे और पानी गंदा नही हो पाता था. प्रदूषण भी कम होता था, लोगों और मवेशियों के लिए अलग तालाब होते थे. बहरहाल, तालाबों और कुओं की सफाई के दौरान इस छेड़छाड़ और मजाक से समाज के विभिन्न वर्गों में मेल-मिलाप बढ़ता था.

लोकपर्व छठ की ही तह जूड़-शीतल में न तो कोई कर्मकांड होता है और न ही कोई धर्म या जाति का बंधन. गांव के लोग मिल-जुलकर सार्वजनिक और निजी जलागारों की सफाई करते हैं.

हालांकि, परंपरापसंद लोग शहरों में अपने वॉटर फिल्टर, टंकियों और पंप की सफाई करके इस त्योहार को मनाते हैं. मिट्टी के चूल्हे की मरम्मत की जगह कई लोग गैसचूल्हे की ओवरहॉलिंग करवा लेते हैं.

जूड़-शीतल में तालाबों से लेकर रसोई तक की सफाई के बाद लोग बासी भोजन करते हैं. खासतौर पर बासी चावल और दही से बने कढ़ी-बड़ी (पकौड़े) खाने का चलन है. कई स्थानों पर पतंगें भी उड़ाई जाती हैं और कई गांवों मे जूड़-शीतल के मेले भी लगते हैं.

मिथिला में तालाबों की उड़ाही के दौरान धुरखेल किया जाता है और तालाब की तली की मिट्टी से एकदूसरे को नहलाया जाता है

Tuesday, February 23, 2021

पंचतत्वः एक संकल्प हमारे नदी पोखरों के लिए भी

पूरब के महत्वपूर्ण और पवित्र माने जाने वाले त्योहार छठ का एक अभिन्न हिस्सा है नदी तालाबों में कमर भर पानी में खड़े होकर सूर्य को अर्घ्य देना. सूर्य शाश्वत है, पर समाज ने तालाबों और नदियों को बिसरा दिया है. तालाब-पोखरों और नदियों के अस्तित्व पर आया गंभीर संकट इसी बिसराए जाने का परिणाम है. अगस्त के महीने में आपने बिहार, असम और केरल जैसा राज्यों में भयानक बाढ़ की खबरें भी पढ़ी होंगी, ऐसे में अगर मैं यह लिखूं कि देश की बारहमासी नदियां अब मौसमी नदियों में बदल रही हैं और उनमें पानी कम हो रहा है तो क्या यह भाषायी विरोधाभास होगा? पर समस्या की जड़ कहीं और है.

क्या आपने पिछले कुछ बरसों से मॉनसून की बेढब चाल की ओर नजर फेरी है? बारिश के मौसम में बादलों की बेरुखी और फिर धारासार बरसात का क्या नदियों की धारा में कमी से कोई रिश्ता है? मूसलाधार बरसात के दिन बढ़ गए और रिमझिम फुहारों के दिन कम हो गए हैं. मात्रा के लिहाज से कहा जाए तो पिछले कुछ सालों में घमासान बारिश ज्यादा होने लगी है. पिछले 20 साल में 15 सेंटीमीटर से ज्यादा बारिश वाले दिनों में बढोतरी हुई है, लेकिन 10 सेमी से कम बारिश वाले दिनों की गिनती कम हो गई है.

तो मॉनसून की चाल में इस बदलाव का असर क्या नदियों की सेहत पर भी पड़ा है? एक आसान-सा सवाल हैः नदियों में पानी आता कहां से है? मॉनसून के बारिश से ही. और मूसलाधार बरसात का पानी तो बहकर निकल जाता है. हल्की और रिमझिम बरसात का पानी ही जमीन के नीचे संचित होता है और नदियों को सालों भर बहने का पानी मुहैया कराता है. लेकिन नदियों के पानी में कमी से उसका चरित्र भी बदल रहा है और बारहमासी नदियां अब मौसमी नदियों में बदलती जा रही हैं और यह घटना सिर्फ हिंदुस्तान में नहीं पूरी दुनिया की नदियों में देखी जा रही है.

दुनिया की सारी नदियों का बहाव जंगल के बीच से हैं. इसके चलते नदियां बची हैं. जहां नदियों के बेसिन में जंगल काटे गए हैं वहां नदियों में पानी कम हुआ है. नदियों को अविरल बहने के लिए पानी नहीं मिल रहा है. बरसात रहने तक तो मामला ठीक रहता है लेकिन जैसे ही बरसात खत्म होती है नदियां सूखने लग रही हैं. भूजल ठीक से चार्ज नहीं हो रही है. यह मौसमी चक्र टूट गया है.

पुणे की संस्था फोरम फॉर पॉलिसी डायलॉग्स ऑन वॉटर कॉन्फ्लिक्ट्स इन इंडिया का एक अध्ययन बताता है कि बारहों महीने पानी से भरी रहने वाली नदियों में पानी कम होते जाने का चलन दुनिया भर में दिख रहा है और अत्यधिक दोहन और बड़े पैमाने पर उनकी धारा मोड़ने की वजह से अधिकतर नदियां अब अपने मुहानों पर जाकर समंदर से नहीं मिल पातीं. इनमें मिस्र की नील, उत्तरी अमेरिका की कॉलरेडो, भारत और पाकिस्तान में बहने वाली सिंधु, मध्य एशिया की आमू और सायर दरिया भी शामिल है. अब इन नदियों की औकात एक पतले नाले से अधिक की नहीं रह गई है. समस्या सिर्फ पानी कम होना ही नहीं है, कई बारहमासी नदियां अब मौसमी नदियों में बदल रही हैं.

वर्ल्ड वाइल्ड लाइफ फंड ने पहली बार दुनिया की लंबी नदियों का एक अध्ययन किया है और इसके निष्कर्ष खतरनाक नतीजों की तरफ इशारा कर रहे हैं. मई, 2019 में प्रकाशित इस रिपोर्ट में कहा गया है कि धरती पर 246 लंबी नदियों में से महज 37 फीसदी ही बाकी बची हैं और अविरल बह पा रही हैं.

इस अध्ययन में आर्कटिक को छोड़कर बाकी सभी नदी बेसिनों में जंगलों की बेतहाशा कटाई हुई है. अमेज़न के वर्षावनों का वजूद ही अब खतरे में है. सिर्फ अमेज़न नदी पर 1500 से ज़्यादा पनबिजली परियोजनाएं हैं. विकास की राह में नदियों की मौत आ रही है.

इसकी मिसाल गंगा भी है. पिछले साल जून के दूसरे पखवाड़े में उत्तर प्रदेश के जलकल विभाग को एक चेतावनी जारी करनी पड़ी क्योंकि वाराणसी, प्रयागराज, कानपुर और दूसरी कई जगहों पर गंगा नदी का जलस्तर न्यूनतम बिंदु तक पहुंच गया था. इन शहरों में कई जगहों पर गंगा इतनी सूख चुकी थी कि वहां डुबकी लगाने लायक पानी भी नहीं बचा था. कानपुर में गंगा की धारा के बीच में रेत के बड़े-बड़े टीले दिखाई देने लगे थे. यहां तक कि पेयजल की आपूर्ति के लिए भैरोंघाट पंपिंग स्टेशन पर बालू की बोरियों का बांध बनाकर पानी की दिशा बदलनी पड़ी. गर्मियों में गंगा के जलस्तर में आ रही कमी का असर और भी तरीके से दिखने लगा था क्योंकि प्रयागराज, कानपुर और वाराणसी के इलाकों में हैंडपंप या तो सूख गए या कम पानी देने लगे थे.

पानी कम होने का ट्रेंड देश की लगभग हर नदी में है और नदी बेसिनों में बारिश की मात्रा में कमी भी है. हमने इस पर अभी ध्यान नहीं दिया तो बड़ी संपदा से हाथ धो देंगे.