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Monday, June 18, 2012

दाढ़ी महात्म्यः हिस्ट्री-पॉलिटिक्स-सोशियोलजी

दाढ़ी केवल फिजिक्स-केमेस्ट्री-बॉयोलॉजी नही , हिस्ट्री-पॉलिटिक्स-सोशियो भी है...

बचपन में हीर-रांझा देखी थी , बेतरतीब-भगंदर टाइप दाढ़ी में राजकुमार जंगल झाड़ सूंघते-सर्च करते दिख रहे थे। लगा दाढ़ी प्रेम का पागलपन है। बैकग्राउंड से ह्रदय छीलती दर्दीली ध्वनि अविरल झरझरा रही था – “ये दुनिया , ये महफिल मेरे काम की नही… “। फिर कुछ दिनों बाद लैला-मंजनू देखी , चॉकलेटी रिषी कपूर सफाचट का इंतजार करते थक चु...की दाढ़ी ओढ़े पत्थर झेल रहे थे। रंजीता के लाख मनुहार के बावजूद पत्थर थे कि उछलते ही जा रहे थे , रंजीता की दर्द भरी आवाज अगल-बगल छोड़ काल और चौहद्दी से परे ऑडिएंस को भावुक किए जा रही थी – “कोई पत्थर से न मारे मेरे दीवाने को”। अब शक के कीड़े को मानो रिवाइटल का डोज मिल गया , विचार पुख्ता हो गया –दाढ़ी प्रेम की परिणति-परिणाम है।

कुछ साल पहले एक मित्र से मुलाकात हुई , करीब साल भर बाद। हमलोग बीते साल के अनुभव गाहे-बेगाहे उछाल रहे थे। वो एलएसआर पढ़ाने के सिलसिले में गया था … और गंवई भाषा में कहे तो छौरा-छपाटा समझ कर चलता कर दिया गया। एंट्री में ही तमाम पापड़ों से पाल पड़ गया उसका। कन्याओं की तो छोड़िए , गार्ड से भी तव्वजो न मिली। अनुभवियों और पके-पकाये , तपे-तपायों से प्रीसक्रिप्शन मिला- 1.मोटे फ्रेम का चश्मा 2. बढ़ी हुई दाढ़ी । दाढ़ी उसके लिए छात्र से शिक्षक के सफर का संवाद-तन्तु साबित हुई । अब रिस्पेक्टपुल हो गया है , इंटेल दिखने लगा है , था तो खैर बचपन से ही। लगा दाढ़ी मजबूरी है।

बीएचयू में पढ़ाई के दौरान एक शख्स से मुलाकात हुई- जहीन, नवीन , आधुनिक ... कमी केवल एक ही। सुबह से लेकर शाम-रात तक चांद हर समय उसके सर पर घोंसला बनाए मिलती। महोदय हर अगली सुबह दाढ़ी के नए ज्यामितिय रुप के साथ अवतरित होते – त्रिभुजाकार , वृत्ताकार , अर्धवृताकर ... दाढ़ी मुझे `अभाव के बीच मेरे प्रयोग` टाइटल आत्म-संस्मरण की विषयवस्तु सी लगी।

डीयू में अध्ययनरत था तो रिसर्च मेथोडोलॉजी की योगेंद्र यादवीय पड़ताल का ज्ञान लेने साऊथ कैंपस जाना हुआ। उन्होंने एक बात बतायी जो कमोबेश `ऑल दैट ग्लीटर्स इज नॉट गोल्ड` के उलट टाइप लगी। बातों-बातों में उन्होंने एक बात बतायी कि बढ़ी हुई दाढ़ी और झोला लटकाए पाए जाने सज्जनों की अच्छी-खासी संख्या लेफ्टिस्ट लीनिंग वाली होती है। दाढ़ी मुझे विचारधारा का आकार लेती नजर आयी।

आजकल मुझे रोजाना फ्रेंचकटीय फुफेरे भाई से दो-चार होना पड़ता है। मेरा फ्लैट पार्टनर भी है। खांटी देहात से आईआईटी के बीच इसकी दाढ़ी ने भी न जाने कितने आकार बदले। दाढ़ी मुझे ग्रोथ की अनेकानेक भाव-भंगिमाओं में से एक लगी।

सच कहूं तो दाढ़ी मुझे किसी बहुरुपिए से कमतर नही लगता। दाढ़ी धर्म भी है , दाढ़ी समाज भी है , दाढ़ी कम्यूनल भी है , दाढ़ी सेक्यूलर भी है । पता नही क्यों लेकिन मैं अक्सर पाता हूं कि सिखों और हिंदू टाइप दाढ़ी तो पुलिस-सेना में `लोगों` की नजरें एडजस्ट कर लेती है , लेकिन मुसलमानों टाइप दाढ़ी पर यही नजरें सवाल करती नजर आती है।

अन्त में यही कहूंगा कि दाढ़ी विज्ञान ही नही समाजविज्ञान की विषय-वस्तु भी है। ये सरकारी और निजी ऑफिसो , लॉनों , गार्डनों में उग आया घास नही , जिस पर माली हर सुबह-शाम कतर-ब्यौंत करता है , यह जीवनधारा भी है।

----रजनीश प्रकाश (रजनीश प्रकाश के फेसबुक स्टेटस से बिना उन्हे आभार दिए छाप दिया है) 

Thursday, May 10, 2012

वेन यू आर इन शिट्

आज एक कहानी सुनाने का मन कर रहा है। बहुत शिक्षाप्रद कथा है। नाम है गुस्ताख लेकिन कसम बादलों के पीछे बैठे पत्थर के मूरतों की...कहानी धांसू है।

हुआ यूं कि एक बार एक कबूतर रहा। बहुत मांसल। बहुत मुलायम। फरों वाला। खूबसूरत भी। बहुत दिनों से एक बिल्ली उस पर नजर गड़ाए बैठी थी। बिल्ली की नजर उसे मांस पर थी। उसके मुलायम मांस की सोचते ही बिल्ली के मुंह से लार की अजश्र धारा फूट निकलती। वह कल्पना करती कि इस कबूतर के खूबसूरत फरों को यूं खींचकर अलग कर दूंगी...फिर खाऊंगी।

बिल्ली अपनी ताक में...कबूतर भांप गया।

उस साल दिल्ली में बहुत ठंड  पड़ी थी। इतनी कि आदमी तो खैर अकड़ कर मरे ही, कबूतर तक गिर कर मरने लगे।

तापमान जीरो डिग्री तक...। कबूतर बचा रहा।

लेकन कबूतर की अम्मां कब तक खैर मनाती...एकदा सड़क पर फैले दाने चुगने में कबूतर कुछ व्यस्त था। व्यस्त इसलिए था क्योंकि अब दाने लोगों के पेट की बजाय सड़कों पर पड़े मिलते थे। देश में रामराज्य नहीं आया था. मोहन और मोंटी का राज था।

दाने सड़ा दिए जाते थे। लेकिन दाने-दाने को मोहताज लोगों को नहीं दिए जाते। बाजार में कल्याण का भाव नहीं होता। अस्तु। दाने सड़ रहे थे। सड़े हुए दाने सड़क पर फिंक जाते। फेंक नहीं दिए जाते। सड़े हुए दाने नीलाम होते। बीयर बनाने वाली कंपनियां खरीद ले जातीं। लाने ले जाने में कुछ दाने फिंक जाते। गिर जाते। कबूतरों को चुनने की छूट थी। कबूतर, कबूतर थे आदमी जो नहीं थे।

बहरहाल, कबूतर सड़क पर फैले दाने चुगने में व्यस्त था। पेट भर गया था। लेकिन इस दौरान उस कड़ाके की ठंड से वो अकड़ गया। अकड़कर गिर गया।

बिल्ली आगे बढ़ी। झपट्टा मारने। लेकिन ये क्या...वहां से गुजरती एक गाय ने ऐसे शिट् (गोबर) किया कि कबूतर उससे ढंक गया। बिल्ली के भागों जो छींका टूटने वाला था उसपर गोबर...शिट्।

बिल्ली हताश।

लेकिन कबूतर को गोबर की गरमी मिली। ठंड की अकड़ जाती रही। कबूतर गोबर के भीतर से ही गुनगनाने लगा। उधर से गुजरते एक आदमी ने शिट् से गुनगुनाने की आवाज सुनी तो कबूतर को गोबर से निकाल कर बाहर कर दिया।

गोबर से बाहर निकालना था कि घात लगाई बिल्ली ने कबूतर पर हाथ साफ कर दिया।

वायदे के मुताबिक मुझे आपको बताना है कि आखिर इस किस्से से क्या शिक्षा मिलता हैः

1. आप पर शिट् करने वाला हर कोई आपका दुश्मन नहीं होता
2. आपको शिट् से निकालने वाला हमेशा आपका दोस्त नहीं होता
और,
3. जब आप शिट् में हों गाना-गुनगुनाना अच्छा नहीं, बल्कि नुकसानदेह होता है।

Thursday, April 19, 2012

पॉर्न ह्रीं श्रीं स्वाहा:!

पॉर्न देखना राजमार्गी तंत्र साधना का अंग लगता है। पॉर्न ह्रीं श्रीं स्वाहा:! कुछ दिनों पहले जब फेसबुक पर यह स्टेटस डाला था तो लोगों को कुछ मजेदार-सा लगा था। नहीं, इसमें मज़ेदार कुछ नहीं। इसमें गहरा धक्का लगता है लोगों को।

भारत जैसे देश में जहां हिपोक्रेसी की अद्भुत परंपरा है, जहां सेक्स एक वर्जना है। जहां परदा करना जरुरी है, जहां सगोत्रीय विवाह करना मौत को दावत देना है...वहां की आबादी 122 करोड़ पार कर जाती है तो ऐसा लगता है कि हमने सारी की सारी आबादी इंटरनेट से डाउनलोड की है।

वैसे भी खजुराहो के देश में सेक्स स्कैंडलों की एक महान परंपरा और थाती रही है। हमें गर्व है कि हमारे नेताओं की-उनकी जिनके बारे में खुलासा हो चुका है--यौन पिपासा भी कुछ वैसी है, जैसी सार्वजिनक शौचालयों में नर-मादा जननांगो की तस्वीर बनाने वालो की होती है।

कुछ लोग आरोप लगाते हैं कि नेताओं का ऐसा कृत्य लोकतंत्र को शर्मसार करता है। ऐ बुरा सोचने वालों, जरा ये सोचो कि आखिर हमारे इन नेताओं ने फिल्मों के लिए कितना कहानियां मुहैया कराई हैं। याद है मधुमिता की सेक्स सीडी...बेचारी को जान से हाथ धोना पड़ा। कवयित्री अच्छी थी लेकिन अमर रहें मणि।

एक उत्तरी सूबे के मुख्यमंत्री और दक्षिणी राज्य के राज्यपाल ने भी स्कैंडलों के लिए काफी योगदान किया है। वयोवृद्ध कांग्रेसी नेता को तो डीएनए परीक्षण के लिए भी ललकारा गया है, उनके पुत्र भी अपने जैविक पिता से आंख से आंख मिलाकर देखना चाहते हैं। बुरा हो उस तेलुगू चैनल का, जिसने न जाने क्यों, खबर मानते हुए, या सनसनी मानते हुए या महज पंडिज्जी के खिलाफ फसक में उस सीडी का प्रसारण कर दिया जिसके बाद महामहिम को पद छोड़ देना पड़ा। हत्। कोई निजता को भी ऐसे प्रसारित करता है क्या -)

सेक्स सीडियों की अमर कथा में अगर भंवरी देवी के बवंडर को शामिल न करें तो यह पुराण अधूरा रहेगा।

लेकिन यह न मानिए गा कि ऐसी सीडियों को लेकर सिर्फ कांग्रेस ही विश्वप्रसिद्ध है। हिंदुत्व की रक्षक भारतीय जनता पार्टी के नेता थे एक । नाम उनका वही था जो धृतराष्ट्र के मंत्री का था जो उन्हें युद्ध का आँखों-देखा हाल बताते थे। याद आया..अरे संजय जोशी। मामला कहां है पता नहीं। शायद बेदाग छूट गए हों...आखिर आरोप बेदाग छूटने के लिए ही लगाए जाते हैं।

सुना तो यही है कि आरटीआई कार्यकर्ता शेहला मसूद की हत्या के पीछे भी कुछ लोकतंत्र के रक्षक ही हैं। दोस्त लोग बता रहे हैं कि हाल ही में एक बड़े नेता भी राजमार्गी तंत्रसाधना में पोर्न की पुष्पांजलि देते रेकॉर्ड कर लिए गए हैं।

वैसे असली कमाल तो बीजेपी के नेताओं ने कर्नाटक और गुजरात में किया । हिंदुत्व की रक्षा में तैनात इन नेताओं ने मंत्रजाप करते हुए भैरवी साधना ठान ली। अब मौबाईल पर पॉर्न क्लिप देखना इतना बड़ा गुनाह तो नहीं। आखिर वो वयस्क भी थे और क्या कहा...विधानसभा की मर्यादा? ये क्या होता है...कम से कम कुरसियां और माइक तो नहीं तोड़ रहे थे. एक दूसरे को पीट तो नहीं रहे थे...शांति से बैठकर पॉर्न ही तो देख रहे थे।


असली समस्या तो तब होती है जब कोई फेसबुक वगैरह पर किसी सरकार के सदस्य के बारे में कार्टून वगैरह बना दे। कभी नौकरी पर बन आती है तो कभी इंटरनेट को ही बैन कर देने की बात शुरु हो जाती है। अच्छा है, पॉर्न देखने और उसमें बतौर कलाकार हिस्सा लेने का अधिकार तो महज नेताओं और अधिकारियों को ही है। आम जनता तो रोटी की चिन्ता करे, मंहगाई, पेट्रोल की कीमतों के गम में डूबी रहे। उसे पॉर्न की चिंता न ही करनी चाहिए।

पॉर्न आधुनिक राजमार्गी तंत्र साधना का अंग है। पॉर्न ह्रीं श्रीं स्वाहा:!

Sunday, April 8, 2012

निर्मल बाबा का सच

कई बाबाओं को धंधा जमाते देखा, निर्मल बाबा एकदम तेज-तर्रार निकले। लंबे घुंघराले बालों, बड़ी दाढियों और टकले बाबाओं को भी वक्त लगा था। लेकिन निर्मल बाबा अचानक नेपथ्य से निकल कर दुखियों के तारनहार हो गए।

निर्मल बाबा, नए बाबा जिनकी तूती है, लेकिन शक है उनकी ताकत पर
लेकिन निर्मल बाबा को जानना बहुत जरुरी है। आखिर, मन्नतें पूरी करने की नई तकनीक खोजने वाले को जानना ही चाहिए। पति नहीं पसंद करता, ब्युटी पार्लर जाओ। गर्लफ्रेंड भाव नहीं देती या है नहीं, फेसबुक पर अकाउंट खोलो। या तो निर्मल बाबा स्वयं भगवान हैं, जो हो नहीं सकते या पब्लिक को वही बना रहे हैं, जो पब्लिक बनते रहना चाहती है।

भक्तजनों, निर्मल बाबा मूल रूप से झारखण्ड का रहनेवाले हैं। निर्मल बाबा भले ही धर्म की धंधेबाजी के कारण अब चर्चा में आ रहे हों लेकिन फेसबुक पर अपडेट किए सुशील गंगवार नाम के मित्र की अद्यतन जानकारी के मुताबिक, निर्मल बाबा के एक रिश्तेदार झारखण्ड के रसूखदार नेताओं में गिने जाते हैं। निर्मल सिंह इन्हीं इंदर सिंह नामधारी के सगे साले हैं। यानी नामधारी की पत्नी मलविन्दर कौर के सगे भाई।

गंगवार आगे लिखते हैं, कि "
निर्मल बाबा का असली नाम है निर्मलजीत सिंहनरुला इसने जनता को चमत्कार दिखा-दिखा कर अकूत दौलत इकट्ठी कर ली है। इसे आप अगर ठगी कहें, (मैं तो कहता ही हूं) तो इसी ठगी से कमाई दौलत से दिल्ली के पॉश इलाके ग्रेटर कैलाश के ई ब्लॉक मे चार सौ करोड का बंगला खरीदा है।"

निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में लोकसभा पहुंचे नामधारी झारखण्ड के दो बार विधानसभा अध्यक्ष भी रह चुके हैं। उनके सामने निर्मल का नाम लेने पर कई राज खुलते हैं। मीडिया दरबार के संचालक धीरज भारद्वाज निर्मल बाबा की खोजबीन के दौरान नामधारी से संपर्क करने में कामयाब हो गये और नामधारी ने भी बिना लाग-लपेट के स्वीकार कर लिया कि वह उनका सगा साला है, लेकिन उसका जो कुछ भी काला है उससे उनका कोई लेना देना नहीं है। इंदर सिंह नामधारी कहते हैं कि वे खुद कई बार निर्मल को सलाह दे चुके हैं कि वह लोगों की भावनाओं के साथ खिलवाड़ न करे, लेकिन वह सुनता नहीं है।

नामधारी स्वीकार करते हैं कि शुरुआती दिनों में वे खुद निर्मल को अपना करिअर संवारने में खासी मदद कर चुके हैं। धीरज भारद्वाज से बात करते हुए उन्होंने बताया कि उनके ससुर यानी निर्मल के पिता दिलीप सिंह बग्गा का काफी पहले देहांत हो चुका है और वे बेसहारा हुए निर्मल की मदद करने के लिए उसे अपने पास ले आए थे। निर्मल को कई छोटे-बड़े धंधों में सफलता नहीं मिली तो वह बाबा बन गया।

जब धीरज भारद्वाज ने नामधारी से निर्मल बाबा के विचारों और चमत्कारों के बारे में पूछा तो उन्होंने साफ कहा कि वे इससे जरा भी इत्तेफाक़ नहीं रखते। उन्होंने कहा कि वे विज्ञान के छात्र रहे हैं तथा इंजीनियरिंग की पढ़ाई भी कर चुके हैं इसलिए ऐसे किसी भी चमत्कार पर भरोसा नहीं करते। इसके अलावा उनका धर्म भी इस तरह की बातें मानने का पक्षधर नहीं है।

सिख धर्म के धर्मग्रथों में तो साफ कहा गया है कि करामात कहर का नाम है। इसका मतलब हुआ कि जो भी करामात कर अपनी शक्तियां दिखाने की कोशिश करता है वो धर्म के खिलाफ़ काम कर रहा है। निर्मल को मैंने कई दफ़ा ये बात समझाने की कोशिश भी की, लेकिन उसका लक्ष्य कुछ और ही है। मैं क्या कर सकता हूं?” नामधारी ने सवाल किया।

उन्होंने माना कि निर्मल अपने तथाकथित चमत्कारों से जनता से पैसे वसूलने के गलत खेलमें लगे हुए हैं जो विज्ञान और धर्म किसी भी कसौटी पर जायज़ नही ठहराया जा सकता।


(फेसबुक पर सुशील गंगवार के इनपुट्स के साथ)

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Monday, February 13, 2012

हतोत्साहित हूं...

सोच रहा हूं एक किताब लिख डालूं।  पत्रकारिता के पेशे में आने के बाद सोचना शुरु कर दिया है। हालांकि स्थिति ये है कि मेरे कई साथी सोचते नहीं पूछते हैं अर्थात् बाईट लेते हैं और अपना उपसंहार पेलते हैं। पहले अपने भविष्य के बारे में सोचता रहता था। वह सेक्योर नहीं हो पाया तो देश के भविष्य के बारे में सोचने लगा।

एक मित्र हैं सुशांत भाई..उन्होंने लगे हाथ सुझाव दिया। किताब लिख डालो। देश की व्यवस्था पर लिख डालो.. लोग लिख रहे हैं तो तुम क्यों नहीं लिखते।

एक अन्य  मित्र हैं.. उन्होंने टिप्पणी दी, लिख कर के समाज को क्या दे दोगे? कौन पढेगा, पढ भी लेगा तो क्या अमल मे लाएगा? अमल में लाना होता तो रामचरित मानस ही अमल मे ले आते। तुम्हारा लिखा कौन पढेगा।? क्यों पढेगा। मैं हतोत्साहित हो गया।

हतोत्साहित होना मेरा बचपन का स्वभाव है। कई बार हतोत्साहित हुआ हूं।

परीक्षाएं अच्छी जाती रहीं, लेकिन परीक्षा परिणांम हतोत्साहित करने वाले रहे। अपने कद में मैं अमिताभ बच्चन की कद का होना चाहता था। ६ फुट २ इंच लंबाई का गैर-सरकारी मानक था उस वक्त॥लेकिन अफसोस हमारे अपने क़द ने हमें हतोत्साहित किया। चेहरे-मौहरे से हम कम से कम शशि कपूर होना चाहते थे, लेकिन हमारे थोबड़े ने हमें हतोत्साहित कर दिया।

रिश्तदारों ने रिश्तों में हतोत्साहित किया, कॉलेज में लड़कियों ने हतोत्साहित किया। भाभी की बहन ने हमें देखकर कभी नहीं गाया कि दीदी तेरा देवर दीवाना... हम कायदे से बहुत हतोत्साहित महसूस कर रहे हैं। देश की दशा ने, महंगाई ने, राजनीति के गिरते स्तर, इंग्लैंड और ऑस्ट्रेलिया में धोनी के लड़ाकों का घटिया प्रदर्शन, सचिन के सौवें शतक के लंबे होते इंतजार से हतोत्साहित हो रहा हूं।

एक आम आदमी की हैसियत से हतोत्साहित हूं। क्या कोई मेरे हतोत्साहित होने पर ध्यान देगा?

हतोत्साहित करने वाले वाकये बढ़ते जा रहे हैं। अभी कुछ दिन पहले योजना आयोग के नीली पगड़ी वाले असरदार सरदार मोंटेक ने कहा था कि शहरों में आम आदमी के जीने के लिए 32 रुपये काफी हैं। भिंडी 15 रुपये पाव बिक रहा है, प्याज 20 रुपये किलो....आटे और दाल की कीमतों पर कोई टिप्पणी किए बिना इतना ही हतोत्साहित होने के लिए काफी लग रहा है। मकान खरीदने के लिए बैंक से ली गई कर्ज की  मेरी ईएमआई लगातार बढ़ती जा रही है...कर्जे ब्याज दर लगातार बढ़ रही है। हर महीने मैं वेतन पाने के बाद ज्यादा हतोत्साहित हो जाता हूं।


मोंटेक का बंगला दिल्ली के लुटियन ज़ोन में आता है। कीमत होगी करीब 400 करोड़ रुपये। उनकी लॉन में करीने से कुतरी गई  हर घास की कीमत 32 रुपये से ज्यादा ठहरती है। हतोत्साहित होने के लिए यह भी पर्याप्त है।

कल वैलेंटाईन डे हैं...यह एक ऐसा दिन है जो सालाना मुझे हतोत्साहित करता है।

Saturday, November 12, 2011

अंधेर नगरी, चौपट चैनल

एक बार क्या हुआ कि वाकया बहुत दिलचस्प हुआ। अंधेर नगरी नामक राज्य के राजा को- जो कि एक बब्बर शेर था- एक चैनल की जरुरत महसूस हुई। ताकि वह चैनल जंगल राज के किस्सों को दिखा सके।

जंगल राज में कई किस्म की योजनाएं चलाई जाती थीं। बब्बर शेर चूंकि शेर था लेकिन उनके पिता- जो उनके जैविक पिता भी थे- ने उनका नाम चौपट सिंह रखा था। जंगल राज में नाम से ज्यादा महत्व काम का था और काम से भी ज्यादा महत्व उस चीज का था, जिसे अंग्रेजी में चीज, अथवा बटर या मक्खन कहते हैं। यहां चमचागिरी अकेले कारगर नहीं थी, उसमेंम बटरिंग यानी मक्खनबाजी की जरुरत थी। बहरहाल, बजाय देश की महिमा का बखान करने के, हम आपको सीधे चैनल में लिए चलते हैं।

तो उस चैनल का नाम भी देश के नाम पर ही अंधेर चैनल ही रखा गया। अंधेर चैनल में समान रुप से घोड़े -गधे भरे गए। वहां घोड़ों गधों में कोई फर्क नहीं था। लेकिन क्राइसिस आइडेंटिटी की थी। ये ठीक से पता ही नहीं चलता था कि घोड़ा कौन है और गधा कौन..।

दरअसल, घोड़े गधों को गधा समझते थे और गधे घोड़ों को...। गधे एक समान थे एक ही रंग के घोड़ों का रंग अलग-अलग था। कोई घोड़ा काला, कोई सफेद, कोई भूरा या कोई चितकबरा था। किसी घोड़े से काम लेने के दिन भी नियत नहीं थे। तो गधे जो घोड़ो को गधा समझते थे, उनको स्थायी तौर पर चैनल में रहने नहीं दिया गया।

चूंकि जंगल राज में प्रायः दंगल हुआ करते तो दूसरे महकमों को भी गधों की समान आवश्यकता हुआ करती थी। देश को घोड़ो की आवश्यकता तो थी लेकिन जंगल घने होने के साथ ही घोड़ा होना आसान होता गया था और गधा होना मुश्किल।

चूंकि गधे काम के बोझ से दबे हुए थे और उनको प्रोत्साहित करना जरुरी था। इसलिए अंधेर चैनल उनको हर साल सम्मानित करता था। चूंकि घोड़ों को वक्त पर घास दे दी जाती, कभी कभार कुछ वफादार घोड़ों को चना और गुड़ भी दिया जाता।

....जारी।

Friday, October 15, 2010

तेरे जैसा कौन उठे- हीरो जी की दास्तां

एक हैं हीरो जी। यूं तो उनका चेहरा थोड़ा-बहुत समोसे जैसा है और उस पर उनका मुख ऐसा, कि कोई अगर बहुत ध्यान से न देखे तो लगे कि चुंबनोद्यत है।

हीरो जी बहुत जड़ से जुड़े हुए आदमी हैं। ( आदमी हैं, यह मैंने ऐसे ही भलमनसाहत में लिखी है। इसे प्रमाणस्वरुप कहीं उद्धृत न कीजिएगा। क्योंकि उनके आदमी होने पर कईयों को संदेह है, और संदेह निराधार नही है)

बहुत साल हुए, मान लीजिए कि 3-4 साल हुए, और 3-4 साल बहुत होते हैं यह तो तय है, किसी ने हीरो जी के कान में फुसक दिया कि भई हीरो जी काला चश्मा लगाकर तुम बंबास्टिक दिखते हो। तब से ही अपने हीरो जी ने फिल्मी नायकों की तर्ज पर चश्मा आंखों पर कम और कॉलर में ज्यादा लटकाना शुरु कर दिया।

किसी ने हीरोजी  को यह भी बताया था कि आज कल की लड़कियां प्रायः दुश्चरित्र होती हैं और दुश्चरित्र लड़कियों को लड़कों ( पढें- मर्दों) की छाती के बाल बहुत आकर्षित करते हैं। चूंकि, हीरो जी मर्द थे और उनकी छाती में खासे बाल भी थे। नतीजतन, हीरो जी दफ्तर आते वक्त रास्ते में ही काला चश्मा शर्ट की कॉलर पर लटका लेते थे, और छाती के बाल तो उनकी ऊपर की दो बटनों के बीच से झांकते ही रहते हैं।

हीरो जी की दिली इच्छा थी कि स्साला टीवी पर दिखना है। हीरो जी का नाम सिर्फ हीरो नाम का ही न रह जाए। काम भी हीरो का हो जाए, तो उन्होंने सबसे पहले काम ये किया कि अपने गांव के पते से चार चिट्ठियां अपने चैनल हैड के नाम लिखवा लीं, अलग-अलग रंगो की स्याही से, अलग-अलग लिखावट में। ध्यान रहे, मैं आगाह कर रहा हूं- कोई हीरो जी को चूतिया या मूर्ख न समझे।

चिट्ठी का मजमून यह था कि आपके चैनल में जो हीरो जी नाम के शख्स काम करते हैं, उनके तेजोमय व्यक्तित्व के सम्मुख कामदेव भी पानी भरते हैं। अतएव फौरन से पेश्तर, रात नौ बजे का बुलेटिन हीरो जी से ही पढवाया जाए। 

बहरहाल, चैनल के बड़े विभाग में चिट्टी आई, गई कहीं खो गई।  हीरो जी का सपना अधूरा ही रह गया। लेकिन इस कवायद में उन्हें एक कैवल्य मिल गया। कैवल्य इस मामले में कि उन्हें इस बात का ज्ञान हो गया कि चैनलों में जनता-फनता होती है ठेंगे पर। जनता की बातों का कोई महत्व नहीं।

तो सवाल यह कि महत्व किसकी बात का होता है...?

नेताओं को चैनलों की जरुरत है, चैनलों को नेताओँ की। दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। हीरो जी ने ताड़ लिया।
एक ऐसे ही किसी शुभ दिन, जब बाकी की दुनिया सो ही रही थी और कौओं ने गू में चोंच भी न मारा था, हीरो जी बढिया शेव करके, अपनी सबसे बढिय़ा शर्ट पहन कर, एक नेता के घर के आगे धरने पर बैठ गए।

यह वही नेता थे जिनके साथ अपने बहुत नजदीकी संबंधों का ज़िक्र वह अपने दफ्तर में अपना रोब गाफिल करने को किया करते थे। हालांकि नजदीकी संबंधों के बारे में खुद नेताजी भी अनभिज्ञ थे।

तो जैसे ही वह धरने पर बैठे, पहले तो गार्डों ने उन्हें लात मार कर बाहर कर दिया..और बमुश्किल हाथ-पैर जोड़कर जब वह नेता जी के घर के अंदर पहुंते तो घर की सफाई का काम चल रहा था। हालांकि हमारे हीरो जी कम स्वाभिमानी नही हैं , लेकिन जब उन्होंने देखा कि कई लोग काम कर रहे हैं, जिन्हें दूसरे लोग नौकर लेकिन नेता लोग कार्यकर्ता कहते हैं। तो एक झाड़ू लेकर उनने भी बुहारना शुरु कर दिया।

कुछ देर बाद संयोग ये हुआ कि वह झाडू मार रहे थे ओर उन्हीं के दफ्तर के कुछ दूसरे लोग भी वहां आ पहुंचे। हीरो जी चालाक भी हैं, लेकिन उनकी किस्मत यहां थोड़ा गच्चा दे गई। उन्हें झाड़ू देते हुए देख लिया गया। यद्यपि उनने छिपने का भरसक यत्न किया था।

हीरो जी के नेता जी के घर में मौजूद होने की बात बॉस तक पहुंच गई। बॉस समझदार था। उसने समझ लिया कि घर के अंदर तो नजदीकी रिश्तेदार ही होते हैं।

हीरो जी का आजकल बॉस से खूब पटती है। चैनल है़ड हीरो जी को पुलित्जर के लिए नामांकित करवाने की सोच रहा है।

अर्ज है---

हर दिशा में छा गए तुम,
जो भी चाहा पा गए तुम।
क्या करें हम टहनियों का
फल तो सारे खा गए तुम।
क्या गजब के आदमी हो,
फांद कर के आ गए तुम।
क्या जुगाडू लग रहे हो,
बॉस को कैसे भा गए तुम।

Sunday, May 9, 2010

हम फाइनल-वाइनल के चक्कर में हीं पड़ते

गुस्ताख का मूड खराब हो गया था। दफ्तर में किसिम-किसिम के लोगों से मगजमारी करने के बाद मैच देखने बैठो। घरवालों का सारा गुबार झेलों और फिर भारत की क्रिकेट टीम हैकि ....बस।

कक्का जी को गुस्ताख का ऐसे बिदकना नहीं सुहाया।

अरे बचवा, थके मांदे खिलाड़ियों से ज्यादा उम्मीद ही रखना बेकार है। बेचारे आईपीएल में खेल-खेल के थक गए थे...थके हुए शहसवार तो धराशायी ही होते हैं ना...

लेकिन कक्का विश्व कप में तो वे भारत का प्रतिनिधित्व करते हैं ना
लेकिन बचवा आईपीएस में वह पैसे का प्रतिनिधित्व करते हैं। देखो ना हमारे आईपीएल के तमाम विजेता ऑस्ट्रेलियाई बाउंसरों और वेस्ट इंडियन तेजी के सामने मुंह बा दिए।


और यह भी सत्य है कि हमारे खिलाड़ी खेल में भरोसा रखते हैं जीत में नहीं। खेल भावना से खेलते हैं, जीत से ज्यादा जरुरी है खेल का होना। इसलिए तो हम भारतीय फाइनल वाइनल में भरोसा नहीं रखते।

सुपर आठ तक पहुंच गए यह कम है क्या,,,यहां एक मैच बचा है उसको निपटा कर घर चलेंगे। बहुत सारे विज्ञापनों की शूटिंग बची है उसे पूरा करना है।

Sunday, February 7, 2010

नॉट माइ जॉब पुरस्कार के विजेता- तस्वीर देखिए

ये तस्वीर मुझे सहयोगी और नज़दीकी मित्र निशांत ने भेजी है। इसमें नॉट माइ जॉब का अवॉर्ड नैशनल हाईवे अथॉरिटी ऑफ इंडिया को दिया गया है। तस्वीर पर गौर फरमाएं....


Thursday, February 4, 2010

बाल ठाकरे और दाऊद के समधी




तमाम उम्र वह दूसरों को शीशा दिखाने में बिजी रहे, इतना कि खुद को आईने में देखने की कभी फुरसत ही नहीं मिली। विचारशून्य और दूरदृष्टिदोषग्रस्त राजनीतिक दल शिवसेना के प्रमुख बाल ठाकरे ने कभी खुद को आईने में देखा होता तो उन्हें अपनी कथनी और करनी का अंतर पता चलता।



सबसे पहला तो यही दाग जो वह शाह रुख़ में देख रहे हैं, यानी पाक क्रिकेटरों के साथ खड़े होने का। कल टीवी चैनल वालों ने बाल ठाकरे की पोल खोल दी और 2004 का एक फुटेज पेल दिया जिसमें ठाकरे, दाउद के समधी जावेद मियांदाद के साथ दिख रहे थे।



मियांदाक की अगवानी में बड़बोले राज और उद्धव भी हाथ बंधे खड़े दिखे। चैनलों ने पूरे देश को एक ऐसे शख्स की असलियत दिखा दी, जिसके दो चेहरे हैं। एक और तो वह भारत-पाकिस्तान के बीच होने वाले क्रिकेट मैच में पिच पर डामर उड़ेल देते हैं, विकेट खोद देते हैं और तमाम किस्म का गुलगपाड़ा मचाते हैं, दूसरी तरफ मियांदाद को दावत देते हैं।



अब वह शाहरुख को धमकी दे रहे है कि मन्नत मुंबई में ही है। अर्थात् माफी तो मांग ही लो।
यह सेना की फिसलती जा रही सियासत पर सान चढाने की कवायद भर ही माना जाना चाहिए और एक तरह से बयानबाजियों के दौर से शिवसेना प्रमुख ने राज ठाकरे की सियासत में सेंध तो लगा ही दी है।



दरअसल, कथित रुप से हिंदू हृदय सम्राट कहे जाने वाले ठाकरे की राजनीतिक ज़मीन बेहद पोली है। विकास का विज़न नहीं। भावनात्मक मुद्दों के अलावा उनके पास और कोई विजन ही नहीं। आमची मुंबई, मराठी मानुष और पाकिस्तान के खिलाफ़ ज़हर उगलने के सिवाय भविष्य के बारे में उनकी सोच और दिशा अभी तक साफ नहीं हो पाई है। सत्ता में रह कर ही शिवसेना ने कौन सा तीर मार लिया यह भी साफ नहीं।



बेतुके बाइटों के ज़रिए वह मीडिया में चढायमान तो हैं, लेकिन इससे उनका वोटबैंक कैसे समृद्ध होगा। मुझे तो लगता है कि सोचने और विचार करने वाला मराठी भी उनके जैसे संकीर्ण सोच वाले नेता को अपना समर्थन नहीं देगा। पिछले लोकसभा और विधानसभा चुनावों में यह बात साबित हो ही चुकी है। 12-13 सीटें तो चिरकुट नेता भी जीत जाते हैं।



तो लब्बोलुआब यह कि या तो शिवसेना जैसी पार्टी को अपना भविष्य संवारने के लिए विकास और समग्र विकास के लिए अपना अजेंडा तय करना चाहिए और भड़काऊ बयानबाजी से दूर रहकर आम आदमी के हित में काम करना चाहिए, दूसरी और भूमिपुत्रों के हित को ध्यान में ऱखने के लिए विस्तृत विज़न अपनाना चाहिए।



अपना विकास ज्यादा ज़रुरी है, दूसरों के पेट पर लात मारने से। वैसे भी ऐसी ही हालत रही तो जिसतरह तमिलों के विरोध में उनकी गुंडागर्दी के खिलाफ दॿिण में सिनेमा विकसित हो गया। वैसे ही मुंबईया फिल्म इंडस्ट्री कहीं और शिफ्ट हो जाएगी।



विकास के लिए सबसे अहम गुंडागर्दी पर लगाम लगाना होता है, सत्ताधारी कांग्रेस जितनी जल्दी यह समझे उतना बेहतर। शिवसेना वाले चाहें तो बिहार के विकास के ग्राफ से सीख ले सकते हैं। गुंडागर्दी ने बिहार में विकास को जितना नुकसान पहुंचया और वहां के मेहनतकश लोगो को राज्य छोड़ने को मजबूर किया, यह जगजाहिर है।


Friday, November 13, 2009

झारखंड: पैंतरा दोनों ओर से है..

एक-दूसरे को कोसते-कोसते भाजपा पलट जिन भाविमो प्रमुख बाबूलाल मरांडी और कांग्रेस की ताजा दोस्ती हुई है, उसका हश्र क्या होगा? सूबे में इस सवाल का जवाब खोजा जा रहा है।

सही उत्तर तो चुनाव परिणाम के बाद ही सामने आएंगे, लेकिन कांग्रेस और बाबूलाल कि निष्ठा को लेकर बहस छिड़ी हुई है।



कहने वाले तो कहते हैं, जब कांग्रेस झारखंड मुक्ति मोर्चा के शिबू सोरेन की न हुई, जब आरजेडी वाले लालू यादव और एलजेपी वाले रामविलास पासवान की नहीं हुई तो बाबूलाल किस खेत की मूली है।


पलटवार यह कि जिस संघ की हाफ पैंट की बदौलत झोलाछाप मास्टर से ऊपर उठकर बाबूलाल भाजपा के भग-वे के भरोसे केंद्र में मंत्री बने, राज्य के मुख्यमंत्री बने, वे जब उसके न हुए तो कांग्रेस के नीचे कब तक रहेगे?



अर्थात्, पैंतरा दोनों ओर से है..।

Thursday, September 17, 2009

बुत हमको कहें काफ़िर....विनोद दुआ बनाम डीडी

दूरदर्शन (टीवी के लिए हिंदी शब्द) के पचास साल पूरे क्या हो गए.. सरकारी चैनल डीडी के आलोचकों का मानों मुंह खुल गया। वैसे सिला ही कब था? १५ सितंबर के आठ बजे विनोद दुआ लाइव में विनोद दुआ जी ग्यान-गंगा बहाने बैठे। उनके श्रीमुख से शब्द निर्झर की तरह झहरते हैं। लोग मंत्रमुग्ध होकर सुनते हैं। लेकिन बहुधा वह इसका गलत इस्तेमाल करने लग जाते हैँ।

पहले तो दूरदर्शन के पचास साल जुमले पर उन्होंने आपत्ति दर्ज की। ठीक है...मान लिया। डीडी में दस हजार गलतियां हैं। चलो ग्यारह हजार होगीं। किस सरकारी तंत्र में भ्रष्टाचार नहीं होता। लेकिन सिर्फ इसलिए कि सरकारी चैनल बेहूदेपन की हद तक नकारा हैं, आपके साफ-सुथरे और दूध से धुले होने का सार्वभौमिक सत्य स्थापित नहीं हो जाता।

तो जनाब, विनोद दुआ ने डीडी की उम्र ३५ साल कूती। क्योंकि पिछले १५ साल से निजी चैनल मार्केट में उतरे ठहरे। विनोद दुआ जी से कोई पूछे कि आपने अपना करिअर शुरु कहां से किया था? और वह दूरदर्शन छोड़ कर निजी चैनलों में क्यों कूदे? और जब कूदे तो डीडी से क्या ले गए थे? और क्या इसी बहाने वह अपना पिछला हिसाब चुकता तो नहीं कर रहे? और डीडी को ऑटोक्रेटिक ठहराने वाले अपने गिरेबां में झांकेगे क्या?

बहरहाल, सीना तान कर और मूंछों पर ताव देते हुए मैं डीडी का सगर्व दर्शक इसे इसकी पूरी गलतियों के साथ अपनाता हूं। विनोद दुआ के एनडीटीवी की दुकानदारी पूरे सस्ते होने और सड़कछाप हो जाने पर भी नंबर एक नहीं पहुंच पाई है, शायद १५ सितंबर का जेहादी तेवर उसी की परिणति है।

वैसे कूड़ा परोसने में एनडीटीवी भी पीछे नहीं। नेट के झरोखे से, और टीवी के धारावाहिकों औक कॉमिडी शोज़ के अलग से विशेष उनने दिखाने शुरु कर दिए हैं। और हां, १६ सितंबर की शाम विनोद जी का एक और कारनामा दिखा। वैसे एंकर थे तो जिम्मेदारी उन्हीं की बनती है। रवीश कुमार की फरमाइश पर विनोद दुआ लाइव में उनने फिल्म "उसने कहा था" का एक गीत दिखाया। यहां तक सबकुछ स्वाभाविक था..लेकिन हद तो तब हुई जब सुपर में रवीश कुमार की फरमाइश चलने लगा और एक तस्वीर भी उनकी चस्पां हो गई स्क्रीन पर।

इसी लिए तो हम ग़ुलाम अली के गले की आवाज़ में सुनते हैं .......
"बुत हमको कहें काफ़िर, अल्लाह की मर्जी है.." ...... हैरानी नहीं होती।

दुआ साहब हम मानते हैं कि रवीश आपके आउटपुट हैड हैं, लेकिन,......आप तो डीडी से बेहतर हैं ना?

Saturday, August 15, 2009

ये देश है तुम्हारा खा जाओ इसको तल के


पहले देश को, देशवासियों को, ब्लॉग जगत के लिक्खाडों को ज़श्ने-आजादी की मुबारकवाद, मुबारकबाद उन्हें जो आम हैं, खास नहीं। और ऐसे ही रहे ईमानदार वगैरह तो जिंदगी भर आम ही रहेगे। लेकिन असली अभिनंदन, उन भ्रष्टाचारियों का जो देश को बपौती का माल समझकर दीमक का अनुसरण किया करते हैं।


हे बेईमानी के मील के पत्थरों, आजादी की इस सालगिरह पर उन तमाम लोगों के दिलों पर गिरह लग गई होगी, जिन्होंने पता नहीं क्या सोचकर खून-पसीना वगैरह बहाकर, अंग्रेजो की गोलियां वगैरह खाई। तुम लोगों के गुरदे, जिगर दिल बेचो, शर्म और हया के साथ ईमान बेचो...स्वाईन फ्लू से बचाने वाले मास्क से लेकर दवा तक कालाबाजार के हवाले कर दो, खरीदने वालों की होगी औकात तो खरीदेंगे वरना न तो देश में लकडियों की कमी है ना कब्र के लिए ज़मीन की।

ट्रेन में बिना टिकट चलने वाले हे महासपूतों, टिकट लेकर चलना न सिर्फ शर्मनाक है, बल्कि धिक्कार है तुम्हारी मर्दानगी पर..। एक अदने से टिकट चेकर की यह औकात कि तुम जैसे वीर को टिकट लेने पर मजबूर करो। देश की हर रेल पर तुम्हारा अधिकार है। हर गाड़ी तुम्हारे ही पूज्य पिता की है, जब चाहों आंदोलन के नाम पर इसे फूंक दो।


और, हे उन पिताओं का सच्चे सपूतों, सुबह उठकर अपने मलमूत्र वगैरह सड़क के किनारे ही सादर समर्पित करो। इससे बरसात के इस मौसम में क्या ही मनोरम छटा पैदा होती है.. हरी-हरी घास पर पीला-पीला गू... मानो हरी चादर पर सुनहरे बेलबूटे...।


दाल, चावल आटा, गन्ना, चीनी, पेट्रोल. जो इच्छा हो जिस चीज़ की इच्छा हो, ब्लैक में बेचो। काला धन, धन के नस्लवाद को कम करता है, धन के रंग भेद के खिलाफ फतवा है।


हे आम आदमी, तुम चक्की में पिसने वाले घुन हो, तुम बलियूप की प्रतीक्षा में खड़े पाठा अर्थात् मेमने हो, तुम दड़बे में दुबक कर अपनी मौत का इंतजार कर रहे मुर्गी के नपुंसक संतान अर्थात् चिकन हो.. लेकिन यह भरोसा रखो कि तुम्हारे नेता भी तुम्हारी तरह हैं। ....ये बात और है कि कुछ लोग उन चिकनों को हेडलैस चिकन कह जाते हैं......उनका भरोसा करो.. वह भरोसा तो दिला ही रहे हैं और मंहगाई बढेगी, दाल-चीनी मंहगी होगी. मौत के दिन नजदीक आंगे..पानी कम बरसेगा...माटी और गरम होगी।


हे आम आदमी अगर तुम रैकेट नहीं चला सकते, ध्रुव के निकट नहीं जा सकते.. तो आम तो नहीं ही रहोगे अमरुद और शरीफे भी नहीं बन पाओगे।

अतः हे कापुरुषों अगर भ्रष्टाचार के अतिचार के संवाहक अर्थात् वैक्टर बनकर इस परंपरा के अंग नहीं बन सकते तो अपने अंग भंग के लिए तैयार रहो।
अतएव आजादी के इस पावन दिवस पर गुस्ताख की सीख मानो और िस गीत को गुनगुनाओ


'घोटालों की डगर पर बच्चों दिखाओ चल के...

ये देश है तुम्हारा खा जाओ इसको तल के। '

आमीन।

Friday, April 17, 2009

नरक में मार्च एंडिंग


मैं आजकल नरक में हूं। नरक में रहना कोई बहुत पापकर्म रहा नहीं। नरक में भी मौज है। मर्त्यलोक में हमारे कर्मों का लेखा-जोखा करने के बाद और हमारे चरित्र का विश्लेषण करने के बाद चित्रगुप्त जी महाराज ने बहियां जला दीं क्योंकि उन्हें डर है कि इस सेंसरशिप के बगैर आने वाली पीढियां हमारी तरह ही गुस्ताख और बददिमाग़ हो लेंगी।

बहरहाल, मौज में हूं। नरक में जितना फंड बजट के बाद आया था, खर्च नहीं हो पाया। पता नहीं क्यों। जिस कड़ाह में तेल डाल कर हम जैसे पापियों को उबालते-तलते थे, उसकी तली में छेद हो गया है। कड़ाह खरीदा नहीं गया है, एक पुराना कड़ाह कबाड़ में रखा तो है लेकिन न तो कोयला है जलाने के लिए और न ही तेल आ पाया है। इस काम के लिए फंड नहीं था।


जिस आरे से पापियों को चीरा जाता रहा है, उस आरे की दांतें घिस गई हैं। गोया उस आरे से चोट तो लग सकती है लेकिन चीरा नहीं जा सकता। सारे हरबे-हथियार पुराने पड़े हुए हैं, संग्रहालय में रखने लायक हो चुके हैं। हम सारे पापी उस हथियारखाने की ओर से गुज़रते हैं तो सादर थूक समर्पित करते हुए जाते हैं।


नरक में पूछताछ के कमरे, अपराधी के सिर पर जलने वाला जो ढाई सौ वॉट का बिजली का बल्ब लगा होता है, वह फ्यूज़ हो चुका है और चेहरे पर फेंकने के लिए गंदे पानी की सप्लाई भी रोकी हुई है। ऐसे में पापियों से पूछताछ रुकी हुई है। स्टे ऑर्डर लगा हुआ है पूछताछ पर। पापी चक्की भी नहीं पीस पा रहे... चक्की चलाएं तो कैसे, पीसने के लिए अनाज भी नहीं आया।


ये सारा मामला फरवरी के आखिरी दिनों तक ही था। मार्च के शुरुआती दिनों में एडमिन( नरक प्रशासन) की नींद खुली। अतिरिक्त महानिदेशक ने डायरेक्टर से, डायरेक्टर ने जॉइंट डायरेक्टर, जॉइँट डायरेक्टर ने डिपुटी डायरेक्टर से यानी बड़े अधिकारी ने छोटे अधिकारी से और उस अधिकारी ने एकांउंटेंट से जानकारी मांगी।


कहा, फंड खरचना ज़रूरी है वरना अगले वित्त वर्ष में फंड कम हो जाएगा। अब नरक में मच गई अफरातफरी। निविदाएं मंगाई जाने लगीं। अधिकारियों के कमरे में एसी बदल दिए गए। पूरे नर्क प्रशासन भवन की पुताई की गई, साइन बोर्ड, बदल दिए गए। सेंट्रलाइज्ड एसी को दुरुस्त करने के बहाने ढेर खर्च किया गया।


मज़बूत दीवार को तोड़ने में कई मजदूर लगाए गए...फिर उसे तोड़कर कमजोर और डिजाइनदार दीवार बनाई गई। अतिरिक्त महानिदेशक और संयुक्त सचिव को पसंद नहीं आई। नतीजतन दीवार तोड़ दी गई और उसकी जगह नामी कंपनी का बना कांच लगाया गया।


नरक के लॉन में खुदाई करके नर्सरी से मंगाई गई घास रोपी गई। किनारे-किनारे मंहगी इंटें गाड़कर फूलों के पौधे लगाने की जगह बनाई गई। साइकस और मनीप्लांट के मंहगे पौधे मंगाए गए। सात-आठ सौ पौधे, जिनमें पानी न डालने की सख्त हिदायत दी गई है। लोगबाग उसे थूकदान की तरह इस्तेमाल करते हैं।


सभी अधिकारियों के कमरों में नए सोफे लगाए गए और वैसे लोग जो सोफे के काहिल नही उनके कमरे में नए कवर वाले पुराने सोफे डाल दिए गए। फर्श की घिसाई की गई.. मतलब सारे पैसे खर्च हो गए, अब चपरासियों को वेतन नहीं मिला है और कड़ाह वगैरह की खरीद नहीं हो पाई है। पानी की सप्लाई दुरुस्त नहीं हो पाई है, तेल बेचने वाला कोई अधिकारी का रिश्तेदार नहीं निकल पाया सो निविदा भी नहीं निकल पाई। आरा अब भी दांत के इंतजार में है। हरबे हथियारों के ज़रुरत ही नहीं है, उसका इस्तेमाल करना कौन चाहता है।


लब्बोलुआब ये कि अधिकारी वित्त वर्ष खत्म होने से पहले खुले हाथों से फंड की रकम खर्च करने में व्यस्त हैं। यमराज ये देखने में लगे है कि उसकी बाईट किस चैनल पर कितने देर चली। और हम पापी नरक में मज़े ले रहे हैं।


Saturday, April 11, 2009

अंतर्गाथा- साला मैं तो एंकर बन गया।

अंतर्गाथा- मैं सिफारिशी लाल बोल रहा हूं


मेरा नाम है सिफारिशी लाल। आज कल मैं एंकर हूं, प्रतिष्ठित चैनल में... पहले मैं कबाड़ खरीदने बेचने का काम करता था। लेकिन उस बात को दिल पर न लें। क्योंकि उससे भी पहले मैं जनपथ पर लुंगी और रुमाल बेचा करता था।


बहरहाल, आज मेरी एंकरिंग का पहला दिन है। मैंने एक दम झक्क नया कोट-पैंट खरीदा है। मूंछें करीने से कुतरवाई हैं, शेव को सीधा-उल्टा दोनों तरह से मारा है। स्लमडॉग की तरह एक लड़की इम्प्रैस करनी है आज।


चेहरे पर ढेरों मेक-अप पुतवा कर नकली चेहरा लाना और नकली शालीनता लाना ज़रुरी है। हमारे चैनल की खासियत है शालीनता। ओढी हुई। मेरे चश्मे का एक रिम टेढा़ हो चुका है, लेकिन ुसे सीदा करने का वक्त नहीं है। दुनिया को टेढी़ निगाह देखना ज़रूरी हो गया है।


मैं तैयार हूँ। ८ बस बजने ही वाले हैं। टीम ने स्क्रिप्ट लिख दी होगी। उसपर नज़र डालकर होगा क्या? सीधे टेलि-प्रॉम्प्टर से पढेंगे। ऊपर से प्रसन्न दिखने की चेष्टा कर रहा हूं। अंदर से दिल धक्क-धक्क और सांसे फक्क-फक्क कर रही हैं। सिर्फ मैं ही जानता हूं कि ८ बजे का प्राइम टाइम पाने के लिए कितनी टंगड़ी मारनी पड़ी है मुझे।


पसीना आ रहा है पेशानी पे। ब्लड का बहाव तेज़ हो गया है। टीम के सारे लोग दुश्मन लग रहे हैं। स्क्रिप्ट में स, श और ष का अनुप्रास जानबूझकर डाल दिया है चू.. यो ने। सोच रहा हूं कि अपना अजेंडा कैसे पेल दूं कार्यक्रम में, आखिर जिन आकाओं ने मुझे यहां तक पहुंचाया, उनसे वफा करना ही होगा।
इस ज़माने में वफा की उम्मीद करना बेकार है, लेकिन हम उन लोगों में हैं जो वफादार है। हो भी क्यों न कोई और चारा ही नहीं। पैर छू-छू कर तो यह पद मिला है। जितने सांसदों -विधायको-पार्षदों को जानता हूं, सबके चरण घिस दिए हैं छू-छू कर मैंने।


कईयों ने तो अपने चरणों का देसी इस्तेमाल किया है मेरे लिए। मतलब मुझे लात भी मारी है। लेकिन दुधारु गाय की तो लात भी सहनी पड़ती है, है ना। सो उनके चरणों को मैं चरणामृत समझ कर सादर ग्रहण करता हूं, किया है आज तक।


एडीटोरियल टीम के मेरे लोग गदहे हैं। बड़े आदमी की अहमियत नहीं समझते। मै कितना बड़ा हूं इसका कत्तई अंदाजा नहीं है इन्हें। बहरहाल, मैंने रनडाउन देख लिया है। मेरा तो कहीं नाम ही नहीं है। इतने बड़े आदमी का नाम तो कार्यक्रम से भी बड़ा होना चाहिए।


कार्यक्रम की शुरुआत ही होनी चाहिए... नमस्कार....। मैं हूं सिफारिशी लाल, और मेरे साथ हैं मेरे को-एंकर हरफनमौला.. मेहमान है घुन्ने लाल. चर्चा करेंगे हॉलैंड में अकालपीडितों पर। सबसे आखिर में बोलूंगा कार्यक्रम का नाम.. न्यूज़ आठ बजे।


लेकिन लाइट्स जल चुकी हैं, कैमरा ऑन हो चुका है, मुझे घबराहट वैसी ही हो रही है, मेरा साथ एंकर हरफनमौला मुझसे ज्यादा तेज़ है। शुरु मुझे करना है, शुरु कैसे किया जाए????


हां, आइसक्रीम की फेरी वाले की तरह चीख कर, सावधान मुद्रा में... नमस्काआआआआआआआर। इससे आईबीएन-७ वाले आशुतोष वाला पुट भी आ जाएगा। कबाडी खरीदते वक्त भी मैं ऐसे ही फेरियां लगाया करता था। जिंदाबाद मिल गया... यूरेका।


लो जी कार्यक्रम हो गया शुरु। थोड़ा सा अटक गया मै लेकिन कोई बात नहीं देश की जनता के लिए नहीं अपनी प्रेमिका की आंख और आकाओँ के चरणों में समर्पित मेरी ये एंकरिंग.. बस स, श और ष सही से कहना है।


....नमश्कार, मैं हूं शिपारिसी लाल और मेरे शाथ हैं मेरे शाथी एंकर हरफनमऊला जी, ......

एडिटोरिल वाले गधे कान में कुछ कह रहे हैं टॉक बैक के ज़रिए, चूतियों को कहने दो, साला मैं तो एंकर बन गया। सवाल दर सवाल पूछते चलो। मतलब चाहे उसका कुछ न हो।

Friday, April 3, 2009

बाथरूम के साहित्यकार

आप सबने बाथरूम सिंगर शब्द ज़रूर सुना होगा। कई तो होंगे भी। बाथरूम में गाना अत्यंत सुरक्षित माना जाता है। न पड़ोसियों की शिकायत, न पत्नी की फटकार का डर..। लोगबाग भयमुक्त वातावरण में अपने गाने की रिहर्सल करते हैं।

बाथरूम ऐसी जगह है, जहां आप और सिर्फ आप होते हैं। कई मामलों में आप अकेले नहीं भी होते हैं, लेकिन हम अभी अपवादों की बात नहीं कर रहे। बहरहाल, हम मानकर चल रहे हैं कि बाथरूम में आप अकेले होते हैं। ठीक? चलिए... ।

शौचालय वह जगह है, जहां आप सोच सकते हैं। वहां कोई व्यवधान नहीं है। नितांत अकेलापन। आप और आपकी तन्हाई। हम तो मानकर चल रहे हैं कि शौचालय का नाम बदलकर सोचालय रख दिया जाए। प्रैशर को हैंडल करने का तरीका। आ रहा है तो अति उत्तम... नहीं आ रहा तो सोचना शुरु कर दीजिए।

नई कविता, नई कहानी, प्रगतिवाद, प्रयोगवाद जैसे कई आंदोलनों ने शौच के दौरान कूखने की प्रक्रिया में ही जन्म लिया. ऐसा हमारा विश्वास है.। कई तरह की कविताएं.. जो एसटीडी बिलों पर लिखी जाती हैं, कहानी की नई विधाएं जो आम लोगों की समझ के बाहर हों, दूसरे प्रतिद्वंद्वी साहित्यकारों पर कीचड़ उछालने की नायाब तरकीबें... कल कौन सी लड़कियां छेड़ी जाएं, इसकी लिस्ट सब बाथरूम में ही तैयार की जाती हैं।

अस्तु, हम तो मानते हैं कि इस शब्द बाथरूम और शौचालय में थोड़ा अंतर है। ट्रेनों में बाथरूम नहीं होता। लेकिन वहां भी साहित्य रचना करने वाले धुरंधरों को भी हम बाथरूम साहित्यकारों के नाम से ही अभिहीत करते हैं। हिंदी में शब्दों का थोड़ा टोटा है। जगह की भी कमी है।

दिल्ली जैसे शहर में बाथरूम और टायलेट में अंतर नहीं होता। दोनों का अपवित्र गठबंधन धड़ाके से चल रहा है। इसे कंबाइंड कहते हैं। एलीट लोग कुछ और भी कहते हों, हम किराएदार तो यही कहते हैं। दिल्ली में तो क्या है, मकानमालिक यहां उत्तम पुरुष है... किराएदार अन्यपुरुष। बहरहाल, टायलेट और बाथरूम की इस संगति की वजह से नामकरण में मैने यह छूट ली है। बाद के साहित्यकार अपने हिसाब से वर्गीकरण कर लें।

तो बाथरूम साहित्यकारों का जो यह वर्ग है, जम्मू से कन्याकुमारी तक फैला है। मैं सिर्फ पतिनुमा बेचारे लेखकों की बात नहीं कर रहा। लेकिन भोपाल हो या गोहाटी अपना देश अपनी माटी की तर्ज़ पर टायलेट साहित्यकार पूरे देश में फैले हैं।

मैं अब उनकी बात नहीं कर रहा हूं...जो लेखन को हल्के तौर पर लेते हैं और जहां-तहां अखबारों इत्यादि में लिखकर, ब्लॉग छापकर अपनी बात कहते हैं। मैं उन लेखकों की बात कर रहा हूं, जो नींव की ईट की तरह कहीं छपते तो नहीं लेकिन ईश्वर की तरह हर जगह विद्यमान रहते हैं। सुलभ इंटरनैशनल से लेकर सड़क किनारे के पेशाबखाने तक, पैसेंजर गाडि़यों से लेकर राजधानी तक तमाम जगह इनके काम (पढ़े कारनामे) अपनी कामयाबी की कहानी चीख-चीख कर कह रहे हैं।

ज्योंहि आप टायलेट में घुसते हैं, बदबू का तेज़ भभका आपके नाक को निस्तेज और संवेदनहीन कर देता है। फिर आप जब निबटने की प्रक्रिया में थोड़े रिलैक्स फील करते हैं, त्योहि आप की नज़र अगल-बगल की गंदी या साफ-सुथरी दीवारों पर पड़ती है।

यूं तो पूरी उम्मीद होती है कि नमी और काई की वजह से आप को कुदरती चित्रकारी ही दिखेगी, अगर गलती से दीवार कुछ दीखने लायक हो.. तो आप को वहां गुमनाम शायरों की रचनाएं नमूदार होती हैं, कई चित्रकारों की भी शाश्वत पेंटिंग्स दिख सकती हैं। सकती क्या दिखेंगी ही। कितना वक्त होता है, बिल्कुल डेडिकेटेड लोग.। कलम लेकर ही टायलेट तक जाने वाले लोग। जी करता है उनके डेडिकेशन पे सौ-सौ जान निसार जाऊं।

इतना ही नहीं, आजकल मोबाईल फोन का ज़माना है, लोग अपना नंबर देकर खुलेआम महिलाओं को आमंत्रण भी देते हैं। इतना खुलापन तो खजुराहो के देश में ही मुमकिन है। इन लोगों के बायोलजी का नॉलेज भी शानदार होता है.. तभी ये लोग दीवारों पर नर और मादा जननांगों की खूबसूरत तस्वीरें बनाते हैं। पहले माना जाता था कि ऐसा सस्ता और सुलभ साहित्य गरीब तबके के सस्ते लोगों का ही शगल है। इसे पटरी साहित्य का नाम भी दिया गया था।

लेकिन बड़ी खुशी से कह रहा हूं आज कि इनका किसी खास आर्थिक वर्ग से कोई लेना देना नहीं है। राजधानी एक्सप्रेस में यात्रा करने वाले ठेलेवाले या रिक्शेवाले तो नहीं ही होते हैं, वैसे में इन ट्रेनों के टायलेट में रचना करने वाले सुरुचिपूर्ण साहित्यकारों की संख्या के लिहाज से मैं कह सकता हूं कि साहित्य के लिए कोई सरहद नहीं है। कोई वर्गसीमा नहीं है। अपना सौंदर्यशास्त्र बखान करने की खुजली को जितना छोटे और निचले तबके के सिर मढ़ा जाता है, उतनी ही खाज कथित एलीट क्लास को भी है।

इन तस्वीरों के साथ चस्पां शेरों को उद्धृत करने की ताकत मुझमें नहीं है। मेरी गुस्ताखी की सीमा से भी परे ऐसे महान, सार्वकालिक, चिरंतर गुमनाम लेकिन देश के हर हिस्से में पाए जाने वाले साहित्यकारों को मैं शत-शत नमन करता हूं।

Tuesday, March 31, 2009

जोरा-जोरी चने के खेत में

हमने बहुत से गाने सुने हैं, जिनमें चने के खेत में नायक-नायिका के बीच जोरा-जोरी होने की विशद चर्चा होती है। हिंदी फिल्मों में खेतों में फिल्माए गए गानों में यह ट्रेंड बहुत पॉपुलर रहा था। अभी भी है, लेकिन अब खेतों में प्यार मुहब्बत की पींगे बढ़ाने का काम भोजपुरी फिल्मों में ज्यादा ज़ोर-शोर से हो रहा है। उसी तर्ज पर जैसे की एक क़ॉन्डोम कंपनी कहीं भी, कभी भी की तर्ज पर प्रेम की पावनता को प्रचारित भी करती है।

या तो घर में जगह की खासी कमी होती है, या फिर खेतों में प्यार करने में ज्यादा एक्साइटमेंट महसूस होता हो, लेकिन फिल्मों में खेतो का इस्तेमाल प्यार के इजहार और उसके बाद की अंतरंग क्रिया को दिखाने या सुनाने के लिए धडल्ले से इस्तेमाल में लाया जा रहा है।

एक बार फिर वापस लौटते हैं, जोरा-जोरी चने के खेत में पर। प्रेम जताने के डायरेक्ट एक्शन तरीकों पर बनी इस महान पारिवारिक चित्र में धकधकाधक गर्ल माधुरी कूल्हे मटकाती हुई सईयां के साथ चने के खेत में हुई जोरा-जोरी को महिमामंडित और वर्णित करती हैं। सखियां पूछती हैं फिर क्या हुआ.. फिर निर्देशक दर्शकों को बताता है कि जोरा-जोरी के बाद की हड़बड़ी में नायिका उल्टा लहंगा पहन कर घर वापस आती है।

अब जहां तक गांव से मेरा रिश्ता रहा है, मैं बिला शक मान सकता हूं कि गीतकार ने कभी गांव का भूले से भी दौरा नहीं किया और गीत लिखने में अपनी कल्पनाशीलता का जरूरत से ज़्यादा इस्तेमाल कर लिया है।

ठीक वैसे ही जैसे ग्रामीण विकास कवर करने वाली एक टीवी पत्रकार ने मुझे बताया कि धान पेड़ों पर लता है। धान के पेड़ कम से कम आम के पेड़ की तरह लंबे और मज़बूत होते हैं। मेरा जी चाहा कि या तो अपना सर पीट लूं, या कॉन्वेंट में पढ़ी उस अंग्रेजीदां बाला के नॉलेज पर तरस खाऊं, या जिसने भी रूरल डिवेलपमेंट की बीट उसे दी है, उसे पीट दूं। इनमें सबसे ज़्यादा आसान विकल्प अपना सिर पीट लेने वाला रहा और वो हम आज तक पीट रहे हैं।

बहरहाल, धान के पेड़ नहीं होते ये बात तो तय है। लेकिन चने के पौधे भी इतने लंबे नहीं होते कि उनके बीच घुस कर नायक-नायिका जोरा-जोरी कर सकें। हमें गीतकारों को बताना चाहिए कि ऐसे पवित्र कामों के लिए अरहर, गन्ने या फिर मक्के के खेत इस्तेमाल में लाए जाते या जा सकते हैं।

लेकिन गन्ने के खेत फिल्मों में मर्डर सीन के लिए सुरक्षित रखे जाते हैं। उनमें हीरो के दोस्त की हत्या होती है। या फिर नायक की बहन बलात्कार की शिकार होती है। उसी खेत में हीरो-हीरोइन प्यार कैसे कर सकते हैं? उसके लिए तो नर्म-नाजुक चने का खेत ही मुफीद है।

हां, एक और बात फिल्मों में सरसों के खेतों का रोमांस के लिए शानदार इस्तेमाल हुआ है। लेकिन कई बार यश चोपड़ाई फिल्मों में ट्यूलिप के फूलों के खेत भी दिखते हैं। लेकिन आम आदमी ट्यूलिप नाम के फूल से अनजान है।

उसे यह सपनीला परियों के देश जैसा लगता है। अमिताभ जब रेखा के संग गलबहियां करते ट्यूलिप के खेत में कहते हैं कि ऐसे कैसे सिलसिले चले.. तो गाना हिट हो जाता है। अमिताभ का स्वेटर और रेखा का सलवार-सूट लोकप्रिय हो जाता है। ट्यूलिप के खेत लोगों के सपने में आने लगते हैं, लेकिन यह किसी हालैंड या स्विट्जरलैंड में हो सकता है। इंडिया में नहीं, भारत में तो कत्तई नहीं।

फिर कैमरे में शानदार कलर कॉम्बिनेशन के लिए सरसों के खेत आजमाए जाने लगे। लेकिन यह जभी अच्छा लगता है, जब पंजाब की कहानी है। क्योंकि सरसों के साग और मक्के दी रोटी पे तो पंजावियों का क़ॉपीराईट है। फिर दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे के बाद सरसों के खेत का इस्तेमाल करना भी खतरे से खाली नही रहा। सीधे लगता है कि सीन डीडीएलजे से उठा या चुरा लिया गया है।

बहरहाल, मेरी अद्यतन जानकारी के मुताबिक, चने के पौधों की अधिकतम लंबाई डेढ फुट हो सकती है, उसमें ६ फुटा गबरू जवान या पांच फुटी नायिका लेटे तो भी दुनिया की कातिल निगाहों से छुपी नहीं रह सकती। इससे तो अच्छा हो कि लोगबाग सड़क के किनारे ही प्रेमालाप संपन्न कर लें। यह भी हो सकता है कि हमारे यशस्वी गीतकार गन्ने या मक्के के खेत की तुकबंदी न जोड़ पा रहे हों।


हमारी सलाह है राष्ट्रकवि समीर को कि हे राजन्, गन्ने और बन्ने का, मक्के और धक्के का तुक मिलाएं। अरहर की झाड़ी में उलझा दें नायिका की साड़ी फिर देखें गानों की लोकप्रियता। एक दो मिसाल दे दिया है.. क्या कहते हैं मुखड़ा भी दे दूं..

चलिए महाशय सुन ही लीजिए-

गांव में खेत, खेत में गन्ना, गोरी की कलाई मरोड़े अकेले में बन्ना,
या फिर,

कच्चे खेत की आड़, बगल में नदी की धार,

धार ने उगाए खेत में मक्का,

साजन पहुंच गए गोरी से मिलने

अकेले में देऽख के मार दिया धक्का..


एक और बानगी है-

हरे हरे खेत मे अरहर की झाडी़,

बालम से मिलने गई गोरी पर अटक गई साड़ी


अब ब़ॉलिवुड के बेहतरीन नाक में चिमटा लगा कर गाने वाले संगीतकारों-गायकों से यह गाना गवा लें। रेटिंग में चोटी पर शुमार होगा। बस ये आवेदन है कि हे गीतकारों, सुनने वालों को चने की झाड़ पर मत चढ़ाओ... गोरियों से नायक की जोरा जोरी कम से कम चने के खेत में मत करवाओ हमें बहुत शर्म आती है।

Thursday, March 26, 2009

गांधी बनाम गांधी

एक ने दूसरे से मुस्किया कर कहा- चुनाव से इतने पहले ही सारी मीडिया पर छाए रहोगे तो चुनाव में क्या करोगे? दूसरा जल-भुन गया, सब कुछ के बावजूद आखिरकार भाई थे। उसने कटखने सुर में कहा, -अग्रिम ज़मानत मिल गई है, और कुछ भी करुं न करुं, कम से कम जेल नहीं जाऊंगा?

वे जुड़वां नहीं थे , मगर भाई थे। सगे नहीं थे, मगर भाई थे। अलग-अलग महलों में रहते थे, मगर भाई थे। ठीक-ठाक अलग नज़र आते थे, गुजारे लायक अलग-अलग चल भी लेते थे, मगर एक दूसरे न टोकते थे, ना एक दूसरे का रास्ता काटते थे, क्योंकि भाई थे। घूम फिरकर उन्ही-उन्हीं जगहों पर पहुंच जाते थे, आखिरकार भाई थे। संयोग नहीं था कि दोनों गांधी थे, भाई थे।

एक दिन एक साथ, एक ही हवाई अड्डे पर पहुंचे, भाई जो थे। एक ही जगह के लिए एक ही हवाई जहाज में पहुंचे आखिर भाई थे। एक ही क्लास में एगल-बगल की सोटों पर बैठे, भाई जो थे। पीलीभीत हो चुका था। एक ने दूसरे से मुस्किया कर कहा- चुनाव से इतने पहले ही सारी मीडिया पर छाए रहोगे तो चुनाव में क्या करोगे? दूसरा जल-भुन गया, सब कुछ के बावजूद आखिरकार भाई थे। उसने कटखने सुर में कहा, -अग्रिम ज़मानत मिल गई है, और कुछ भी करुं न करुं, कम से कम जेल नहीं जाऊंगा?
बात कड़वाहट की तरफ जाती दिखी, तो दूसरे ने संभालने की कोशिश की, भाई जो थे।

चुनावी पॉलिटिक्स में कभी-कभी ऐसी समस्याए भी आती है। मगर ये रास्ता पकड़ ही लिया है तो जो भी समस्या सामने आए, धीरज से उसका मुकाबला करना चाहिए। एक बार जो गलती हो गई, दुबारा उसे दोहराना नहीं चाहिए। पहली वाली शक्ल में तो हरगिज नहीं। पहले को लगा, दूसरा ऊंचाई से खडे होकर बात कर रहा है,. सो बात संभलने से और दूर हो गई, भाई जो थे। पहले ने कुढ़कर कहा, नसीहत के लिए शुक्रिया। वैसे मुझे नहीं लगती कि मैंने कुछ गलती की है। जिसे दोहराने से मुझे बचना चाहिए।
पहले की स्थिति अपेक्षाकृत अच्छी और सुरक्षित थी। वह उदारता अफोर्ड कर सकता था, वैसे भी भाई जो थे। समझाने लगा बात सिर्फ करने या ना करने की नहीं होती है। ये डिमोक्रैसी है, इसमें सबसे ज्यादा मैटर ये करता है कि करने वाला कौन है? वही दूसरा करे तो कोई ध्यान तक नहीं देता, मगर हम करे तो मार तमाम आसमान सिर पर उठा लेंगे। कि हाय, ऐसा कर दिया। अपन गांधी जो हैंः डिमोक्रैसी के राजकुमार।

दूसरे को गांधी में तंज दिख गया। और बात संभलते-संभलते बिगड़ गई। कहने लगा- अब किसी को भला लगे कि बुरा, गांधी होना तो मुझसे कोई छीन नहीं सकता है। एरक बार गांधी, सो हमेशा के लिए गांधी। पर करूंगा मैं अपने मन की। दूसरे की अकड़बाजी, पहले को बेजा लगी। उसने घुमाकर तीर चलाया। गांधी होना कोई छीन भले न सकता हो, कई बार बहुत भारी ज़रुर पड़ सकता है। दूसरे के स्वर में तेज़ी आ गई- माने? पहले ने शब्द चबाते हुए कहा- गांधी होकर अगर कोई मारने-काटने बात करे, तो लोग इसे कैसे मंजूर करेगे? बार-बार यही सुनने को मिलेगा- राम, राम, गांधी नाम और ऐसे काम?
अब दूसरा उखड़ गया- आप लोगों की धद्म-धर्मनिरपेक्षता की ही तरह, आप लोगों का गांधी भी धद्म गांधी है। हम असली गांधी वाले हैं। हमारी अहिंसा अन्यायी हाथ काटने वाली, वीर की हिंसा है। कायर की अहिंसा नहीं। पहले ने आपत्ति की, मगर गांधी की वह दूसरा गाल आगे करने वाली बात।

दूसरे ने उसकी नादानी पर हंसते हुए कहा- जब तमाचा मारने वाला हाथ ही नहीं रहेगा,तो दूसरा गाल आगे करने न करने का सवाल ही क्यों उठेगा? पहले ने खीझ कर प्रहार किया- हमें भी पता है कि तुम लोगो की वीरता की तलवार कैसे अन्याय और किन अन्यायियों के खिलाफ है। दूसरे ने झट झुककर वार की काट की- मुश्किल अन्याय और अन्यायी कोजना नहीं, वीर खोजना है। वीर तो हाथ या सर कलम करने के लिए सैकड़ों साल पुराने इतिहास में से भी अन्याय और अनयायी खोज निकालाता है।
पहले ने बिगड़ कर कहा, यह तो गांधी धर्म नहीं है। दूसरे ने लापरवाही से कहा- मगर हम तो चुनावी कर्म की बात कर रहे हैं। फिर शिकायत करने लगा- चुनाव के लिए तुमन दलित की झोंपड़ी में रात बिताओ, तुम दलित के घर खाना खाओ, तो ठीक। मैं जय श्री राम का नारा लगाऊं, हिंदुओँ पर अन्याय करने वाले के हाथ काटने की कसम खाऊं तो गलत। यह कहां का न्याय है?

पहले ने समझाइश दी- तुम्हारा रास्ता गलत है। दूसरा भी अड़ गया- रास्ता तो मेरा भी वही है, संसद का। हां, हमारा रास्ता ज़रा अलग है। मगर रास्ते अलग हैं, तभी तो डिमोक्रैसी है। लेकिन, अलग रास्ते को गलत कहने वाले डिमोक्रैट नहीं होसकते। पहले ने टोका- मैंने गलत कहा क्योंकि यह गांधी का रास्ता नहीं है। वैसे भई गांधी के रास्ते से तो राजघाट तक पहुंचा जा सकता है, राजपाट तक नहीं।
तभी एयर होस्टेस आ पहुंची- मोहनदास नाम के बुजुर्ग ने आप लोगों के लिए संदेश भेजा है। संदेश संक्षिप्त किंतु स्पष्ट था- मैं गांधी नाम छोड़ रहा हूं। यह कैसा मजाक है- दोनों के मुंह से एक साथ निकला, आखिरकार भाई जो थे।

साभार-राजेंद्र शर्मा, दैनिक भास्कर