Thursday, January 31, 2013

इंद्रधनुषी कविताः नीला


अगर जीवन है
तो सपने हैं
सपने हैं, 
तो प्यार है

प्यार है, 
दुलार है,
जीना है 
तो वेदना भी
संवेदना भी

हंसो तो भी, रो दो तब भी
कुछ रसीला है, कुछ पनीला है
प्यार तो दूब पर गिरे 
ओस-सा गीला है

सच में संवेदनाओं का रंग 
नीला है।

Wednesday, January 30, 2013

आवारेपन का रोज़नामचाः उड़ीसा में

रत्नागिरि, सूरज की तिरछी किरणों में

हरिदासपुर उतरे, तो छोटे से स्टेशन पर भारी भीड़ जमा थी। कौतूहल से ताकती-निहारती औरतें, लंबी गाड़ियों को छू-भर लेने की तमन्ना से उसके आसपास मंडराते छोकरे। मुंह में गुटखा दबाए मोबाइल पर उड़िया फिल्मी गाने बजाते चंट किशोर। बीड़ी धूंकते बूढ़े। लेकिन सबके चेहरे पर मुस्कुराहट।

हमारे साथी देशी-विदेशी सैलानी तो गेंदे की मालाओं से लद गए।

हरिदासपुर से हम सीधे ललितगिरि गए। ललितगिरि को पिकनिक स्पॉट जैसा माना जा सकता है। उत्खनन स्थल के ऐन पहले, आप पारंपरिक उडिया गांवो का दीदार कर सकते हैं। यह कटक से केन्द्रापाड़ा की तरफ जाने के रास्ते में है।

उदयगिरि, यहां पुष्पगिरि नामक विख्यात विश्वविद्यालय था

 ललितगिरि में स्तूपों के अवशेष मिले हैं। कुछ मजदूर अब भी उत्खनित अवशेषों की साप-सफाई में लगे थे। उड़ीसा में टूरिज़म महकमा उसे प्रोडक्ट बनाकर बेचने को बहुत उत्सुक है।

वहां से हमारी बस निकली तो सीधे रत्नागिरि...। स्कूली छात्रो का हुजूम कतार बनाकर खड़ा था। बच्चों को स्कूली यूनिफॉर्म में स्वागत के लिए खड़ा देखकर, मुझे लगा कि ओडिशा टूरिज़म ने इनको क्योंकर खड़ा कर दिया है।

मैंने एक बुजुर्गवार से बात की, पता चला ये स्वागत इंतज़ाम गांववालों ने अपनी मर्जी से किया है। पर्यटन बढ़ेगा तो उनके गांव का विकास होगा।

हमारे हाथों में छात्रों ने गुलाब का फूल दिया था। कांटे लगे ही थे डंठलो में, खरीदा हुआ नहीं था...किसी न किसी के बागीचे का था। मन प्रसन्न हो गया। फूलवाले की दुकान से खरीदा गुलाब इतना ख़ूबसूरत होता है कि नक़ली लगता है।

बहरहाल, स्थानीय पत्रकारों और न जाने कहां से आ जुटे लोगों ने तोशाली ग्रुप (उड़ीसा सरकार के साथ पीपीपी मॉडलपर टूरिज़म के काम में लगा होटल समूह) के खाने का बंटाधार कर दिया। हमारे साथियों में कईय़ो को खाना नहीं मिल पाया।

खाना नहीं खा सकने वाले लोगों में हम नहीं थे। ऐसी भीड़ में खाना बटोर कर खा लेने का हमारा दिल्ली वाला पत्रकारीय प्रशिक्षण बहुत काम आता है। पहले तो हम रेकी कर लेते हैं, और यह मन में बिठा लेते हैं कि ससुर क्या-क्या नहीं खाना है। और उधर का रूख़ ही नहीं करते।

लोगों के कतार में आने से ऐन पहले हम अंग्रेजी के बॉयल्ड राइस अर्थात् भात और दाल के साथ सिर्फ सलाद और मटन या चिकन (जो भी उपलब्ध हो) से थाली भर कर कोने में खिसक लेते हैं।

जब बाकी लोग अपनी थाली में रोटी, रायता, दाल, नामालूम किस्म की सलादें, हरी चटनी, प्याज, सूख चला खीरा, करीने से कुतरी मिर्च, भात, कम उबली सब्जी वगैरह के मेन्यू का डिमॉन्स्ट्रेशन दिखाते हुए खाने की जद्दोजहद में लगते हैं, मैं सीधे मिठाई की तरफ लपकता हूं। मिठाई के साथ मेरा मोह आदिम है।

रत्नागिरि में खीर के साथ कलाकंद था। अद्भुत। मुंह में लिया तो आनंद अखंड घना था।

खैर, रत्नागिरि के उत्खनन अवशेष देखने के बाद सूरज छिपने लग गया था। हमारे साथ एक बेहद प्रतिबद्ध कैमरामैन थे, खुद डीडी के गोपाल दास और एक अन्य किसी एजेन्सी के लिए, धीरज। हर शै को अपने फ्रेम में कैद कर लेने के लिए ललायित।

रत्नागिरि में सूरज की तिरछी रोशनी में भग्नावशेष बहुत खूबसूरत लग रहे थे। धीरज और गोपाल बहुत धैर्य से एक एक पल कैद कर रहे थे। हेंतमेंत में वहां से निकले, तो उदयगिरि के लिए गए, जहां पहुंचने तक द्वाभा फैल चुकी थी।

खुदाई में वहां स्तूप तक आने के लिए इस्तेमाल आने वाली पगडंडी भी मिली है। कई मूर्त्तियां, स्तूप, अवशेषों पर जो टीला बन गया उस पर काली का एक मंदिर भी था।

मुझे लगा कि इतिहास के दरीचों में सैर कर रहा हूं।

वापसी में हम साढे आठ बजे तक भुवनेश्वर पहुंचे। ट्रेन पहले से ही प्लेटफॉर्म नंबर एक पर खड़ी थी। अपने कूपे में जाने के साथ ही हमें लगा कि हम कितना थक चुके हैं...अटेंडेंट ने सूप का प्याला रख दिया था।

भुने हुए चने एक बार फिर हमने खरीद ही लिए थे...अब सूप कौन पीता भला?


Monday, January 28, 2013

आवारेपन का रोज़नामचाः ललितगिरि, उदयगिरि, रत्नागिरि

रत्नागिरि, उदयगिरि, और ललितगिरि...उम्मीद ये थी कि भुवनेश्वर सुबह-सुबह पहुंच जाएंगे। लेकिन, भारतीय रेल जिंदाबाद। हम दोपहर एक बजे, हरिदासपुर उतरे। ये कटक से पहले एक बेहद छोटा स्टेशन था।

स्थानीय लोगों ने भारी भीड़ जमा रखी थी। हमारे आने पर स्वागत का इंतज़ाम भी था।

हरिदासपुर से बस वगैरह से पहले ललितगिरि ले जाया गया हमें। दिन भर में हमें ललितगिरि, रत्नागिरि, उदयगिरि और धौलागिरि देखना था।

ये तीनों जगहें, महात्मा बुद्ध से सीधे तौर पर जुड़ी हुई नहीं हैं। लेकिन, इनका संबंध विदेशों में बौद्ध धर्म के विस्तार में रहा है। बौद्ध धम्म अगर एक विश्व धर्म के रूप में अपनी जगह बना सका, तो इसकी बड़ी वजह कलिंग पर अशोक की चढ़ाई रही और कलिंग की एक बड़े वाणिज्यिक केन्द्र के रूप में ख्याति रही।

ललितगिरि में उत्खनित स्थल, उड़ीसा

यह बुद्ध के कुशईनगर में महापरिनिर्वाण के महज दो सौ साल के भीतर ही हुआ। कलिंग का युद्ध 261 ईसापूर्व में हुआ, कहा जाए तो इसने विश्व इतिहास की दिशा बदलने में बड़ी भूमिकी निभाई।

धौलागिरि तो हम जा ही नहीं पाए, सांझ घिर आई थी। पता चला, यही वो जगह थी, जहां अशोक-कलिंग युद्ध हुआ था। आश्चर्यजनक रूप से कलिंग के सम्राट्, जिसे 'महोदधिपति' यानी 'समंदर का राजा' (स्रोतः रघुवंश) और बौद्ध साहित्य 'मंजूश्रीमूलकल्प' के मुताबिक कलिंग सागर में मौजूद सारे द्वीपों का स्वामी 'कलिंगोदरा' कहा गया है--उसके नाम का जिक्र  कहीं नहीं मिला।

ललितगिरि में उत्खनित स्थल, फोटोः इप्सिता बनर्जी


धौलागिरि, भुवनेश्वर के पास है। यहां सन् 1837 में उत्खनन में एक शिलालेख मिला है, जिसे ईसापूर्व 273-236 में यहां अशोक के आदेश से शांतिस्तूप बनाकर स्थापित किया गया था। इसमें मागधी-प्राकृत में ब्राह्मी लिपि में लेखन किया गया है।

उड़ीसा के इन इलाकों में सन् 639 में चीनी यात्री ह्वेन सांग भी आया था। उसने अपने वृत्तांत में लिखा था, कि इस इलाके में यानी आज के जाजपुर, केन्द्रापाड़ा और कटक ज़िले में उसे सौ भी ज्यादा स्तूप मिले। इनमें से तारापुर का केश-स्तूप, लंगुडी पहाडियों में स्थित अशोक स्तूप और रत्नगिरि, उदयगिरि ललितगिरि और पुष्पगिरि (मशहूर विश्वविद्यालय) में विहारों की श्रृंखला सबसे महत्वपूर्ण थी।

ये विहार महायान और वज्रयान शाखा के थे।

रत्नागिर और ललित गिरि में भग्नावशेषों और खुदाई में निकले ढांचों को देखने के बाद बौद्ध धर्म के थेरवाद--जो स्तूपों की सामान्य ढंग से पूजा करते थे--से महायान और वज्रयान (तांत्रिक बौद्ध धर्म) के विकास को परिलक्षित किया जा सकता है।

ललितगिरि के स्तूप से महात्मा बुद्ध के शरीर के कुछ अवशेष भी मिले हैं...जो अब भुवनेश्वर में भारतीय पुरात्त्व सर्वेक्षण के संग्रहालय में रखे गए हैं। हमने इनका भी दीदार किया।


वैसे, धातु वंश के मुताबिक, कलिंग के राजा गुहशिव ने, जो बुद्ध के अवशेषों के रूप में प्राप्त उनके दांतो की पूजा करता था, मगध के राजा पांडु के डर से उन दांतो को अपनी बेटी हेममाला और दामाद दंतकुमार के साथ श्रीलंका के अपने मित्र राजा महासेना के पास भिजवा दिया। उसकी बेटी और दामाद सन् 310 में अनुराधापुर पहुंचे थे, और पवित्र दांतों को महासेना को सौंप दिया था।

खैर, रत्नागिरि, उदयगिरि और ललितगिरि के इतिहास पर थोड़ी रोशनी डालना जरूरी था, ताकि इनका ऐतिहासिक महत्व स्पष्ट हो सके। मेरा वहां का अनुभव कल लिखूंगा।

...जारी







Monday, January 21, 2013

आवारेपन का रोज़नामचाः पहला दिन

अचानक बॉस का कॉल आया, तो उलझन में था। बॉस का कॉल आना कोई अच्छी बात नहीं होती। लेकिन, मुझसे बड़ी मुलायमियत से बात करते हुए बॉस ने आदेश दिया कि मुझे अगले सात दिनों के लिए एक टूर पर जाना है। टूर है, महात्मा बुद्ध से जुड़े कुछ स्थानों पर दो एपिसोड के एक कार्यक्रम के लिए।

पहला दिनः दिल्ली में धूप भी खिली थी, और हवा भी तेज़ थी। लेकिन 20 जनवरी को कत्तई यह अहसास नहीं हो रहा था कि अठारह-उन्नीस को ज़बरदस्त बारिश हुई हो।

हमेशा से कतार में लग कर टिकट लेने वाले के लिए सफ़दरजंग रेलवे स्टेशन पहुंचकर हुआ स्वागत अजूबे से कम नहीं थी। स्टेशन के गेट पर दो महिलाएं खूबसूरत साड़ियों में सजी खड़ी थीं,, माथे पर तिलक लगाने और गले में गेंदे की माला पहनाने के लिए। जीवन में दूसरी बार किसी कन्या ने गले में हार पहनाया, पहली बार जिसने पहनाया था, वह हार गेंदे का नहीं था। वह हार भी नहीं था, वह माला थी। जयमाला।

भारतीय रेल की एक त्रासदी है। इसका सरकारी होना। सरकारी होने की वजह से अंडगेबाज़ी इसके सबसे अहम लक्षणों में से एक बनकर रह गई है। डेढ़ बजे चलनेवाली ट्रेन सफदरजंग से 3 बजे चली। लेकिन चली, ये सबसे अच्छी बात रही।

हमें एक कूपा दिया गया। मैं और मेरे साथ मेरे कैमरा मैन गोपाल दास। मैंने उस बर्थ को देखा, गौर से देखा, जो अगले सात रातों तक हमारी कुर्सी-बिछौना बना रहने वाला है।

बिस्तर बिछा था। गोपाल जी ने कुछ शॉट्स लिए। लेकिन रात भर में वाया लखनऊ हमें बनारस होते हुए गया पहुंचना था। गया पहुंचने के लिए सुबह साढे आठ का वक्त तय था। नींद हमें जल्दी नहीं आती। फोन का नेटवर्क आता-जाता रहा। कुछ इष्ट मित्रों से फोनियाने की इच्छा दबी की दबी रह गई। 

दूसरा दिनः सुबह नींद खुली, बाहर झांका तो कुहरे की सफेद चादर में सब कुछ लिपटा था। मन में आया एक कविता लिख डालूं...लेकिन उस कविताई पर नींद ज्यादा भारी थी। सो गया...। अगली दफा अटेंडेंट ने चाय दी, तो सात बजे थे सुबह के।

थोड़ी ही देर में सूरज महाराज खुद कुहरे की चादर हटाकर मैदान में कूद पड़े थे। ओस में अलसाए खेत...उनसे निकलते भाप...कैमरा असिस्टेंट राजकुमार नहा-धोकर सामने आ खड़े हुए। नहाने का इंतजाम भी है..? जी हां, बोगी में नहाने का इंतजाम भी है। हमारे बाद वाली पूरी बोगी थाई तीर्थयात्रियों से भरी है। हमारी बोगी समेत ट्रेन की हर बोगी के दरवाज़ों में ताले जकड़ दिए जाते हैं।

विदेशी सैलानी साथ हैं तो एहतियात जरूरी है। हमने देश के आम आदमी की तुलना की, जो कतार लगाकर लात खाता हुआ, कुलियों के ज़रिए जनरल बोगी में सीट हासिल करता है।

मैं अपने दुश्मनों को हमेशा आम आदमी हो जाने का शाप दिया करूंगा।

बहरहाल, पता चला आने वाला स्टेशन बनारस ही है। काशीनाथ सिंह ने लिखा ही है, जो मज़ा बनारस में, न पैरिस में, न फारस में। मन मचल उठा..प्लेटफॉर्म पर टहल आऊं। एक दो ठो अखबार ही उठा लाऊं। (अखबार की ख़ब्त ज्यादा थी) कुछ इस तरह की मैं आज का अखबार न पढूं, तो राहुल बाबा उपाध्यक्ष पद छोड़ ही देंगे।

अटेंडेट ने टोक दिया। दरवाजे नहीं खुलेंगे। अखबार मै ला देता हूं। मेरा मिजाज़ गर्म हो गया। अबे, ट्रेन है कि बिग बॉस का घर। दरवाजे नहीं खुले। पर अखबार हासिल हो गया। हिंदुस्तान का बनारस संस्करण। दोनों भाषाओं में।

गया पहुंचते-पहुंचते शाम के तीन बज गए। भारतीय रेल का कुछ नहीं हो सकता। सात बजे सुबह से ही आसमान साफ था, धूप खिली थी, ट्रेन भी विश्वस्तरीय सेवा के डींगों के साथ चल रही थी, तो भी सुबह के साढे आठ की बजाय हम दोपहर बाद तीन बजे गया पहुच पाए।

लेकिन वहा उत्तम भोजन ने इस जन्मना ब्राह्मण को तृप्त किया। अंत में गरमा-गरम गुलाब जामुन।

इस सफ़र में फिर हमारा काफ़िला पहुंचा, जापानी मंदिर। बुद्ध की 80 फुट की प्रतिमा के पीछे सूरज डूब रहा था। ऐसा लग रहा था कि किसी बढ़िया फिल्म की शूटिंग के लिए शानदार बैक-लाइट दिया गया हो।

इससे पहले में सन् 1994 में आया था। इसी 80 फुट वाले बुद्ध की प्रतिमा भी देखी थी। यादें ताज़ा हो गई। बड़े भाई साथ थे तब उस सफ़र में।

वहा से महाबोधि मंदिर। मुलाकात हुई पर्यटन विभाग में कभी डिप्टी डायरेक्टर रहे, और अब सेवानिवृत्त हो चुके रामबली सिंह से। रामबली जी ने लयात्मक और ठेठ बिहारी हिदी-अंग्रेजी में सबको इस जगह की जानकारी दी। सारी जानकारी जो आप पहले ही नेट से पढ़कर जाते हैं, या अपने फोन पर गूगलिंग कर सकते हैं।

फिर भी, वापस बस में ठुंस कर हम ट्रेन में पहुंचे। ट्रेन में पहुंचने से पहले मैंने एक अच्छा काम किया। गया स्टेशन के पास एक भड़भूंजे की दुकान से मूंगफली और भिंगोये चनों को भुनवा कर साथ में मिर्च और नमक रखवा लिया। शाम को सूप के बाद काम आने वाले थे।

अब ट्रेन चल रही है, रूक रही है। रूक-रुक कर चल रही है, और चल-चल कर रूक रही है। कल सुबह भुवनेश्वर पहुंचूंगा, तो वहां के आवारेपन का रोज़नामचा कल शाम को।





Sunday, January 20, 2013

बैंगनी


यूं तो
कई रंग हैं, जीवन में
लेकिन बैंगन-सी
या जामुन-सी
लगता है जैसे हरियाला पहाड़ भी
क्षितिज से मिलकर
हो जाए जामुनी

सूरज की तरफ देख कर
फूंक मारूं पानी के फव्वारे
तू रंग पहला नजर आए
वो हैं बैंगनी

वो रंग है जो उल्लास का
प्यार की प्यास का।

Saturday, January 19, 2013

राहुल गांधी के उपाध्यक्ष बनने से क्या होगा?

सवाल बहुत टेढ़ा है। टेढ़ा है पर मेरा है। आखिर राहुल गांधी को कांग्रेस का उपाध्यक्ष बनाकर क्या होगा? और अगर आज यह घोषित किया गया कि राहुल गांधी आज कांग्रेस के नंबर दो बन गए हैं, तो कोई साफ करेगा कि कल तक वो क्या थे।

और कल तक अगर कुछ और थे तो किसी कांग्रेसी महासचिव की तुलना में उनका वज़न इतना ज्यादा क्यों था। और अगर कल उनका वजन, उनका क़द पहले ही ज्यादा था, तो नंबर दो घोषित करने की वजह क्या है।

जनाब जयराम रमेश ने चिंतन शिविर में पहले ही चिंता व्यक्त कर दी है कि कांग्रेस अपने बूते सत्ता में नहीं आ पाएगी। यह बात तो राजनीति, पत्रकारिता और सामान्य नर-नारियों को पहले से पता है, रमेश बाबू कुछ तो नया कहिए।

अगला चुनाव कहा जा रहा है कि राहुल गांधी की अगुआई में लड़ा जाए। तो बिहार, यूपी, पंजाब वगैरह के पिछले चुनाव आपने किसकी अगुआई में लड़े थे।

फिर भी, चिंतन शिविर में हुई बातचीत और राहुल बाबा के नाम को आगे करने, उसके समर्थन करने के इस किस्से पर मुझे एक वाकया याद आ रहा है। एक डॉक्टर और उसके जूनियर इंटर्नों के बीच की बात-चीत है। खालिस किस्सा है, कहीं पढ़ा था। इसका किसी राजनीतिज्ञ से कोई लेना-देना नहीं।

"सड़क पर डॉक्टर साहब अपने जूनियर डॉक्टरों से घिरे आ रहे हैं। वे कुछ कह रहे थे और बाकी के लोग आगे आ-आकर उनकी हां में हां मिला रहे थे। आगे आकर दूसरे से पहले हां कहने के चक्कर में जूनियर डॉक्टर कई बार बड़े डॉक्साब के पैरों तले आते-आते रह जाते या किसी गड्ढे में पैर दे डालते।

क्यो भई, आपको क्या लगता  है। क्या केस है ये?
सर मुझे तो वह...सर जैसा आप कहें।
यह अपेंडिसाइटिस तो नहीं लगता।
हां सर, यह अपेंडिसाइटिस तो नहीं है।
वैसे राइट आइलियक फोसा में दर्द और टेंडरनेस होने के कारण अपेंडिसाइटिस भी हो सकता है।
हां सर, यह अपेंडिसाइटिस भी हो सकता है।
पर यह अपेंडिसाइटिस नहीं है।
हां सर, यह केस अपेंडिसाइटिस तो नहीं है।
यह केस किसने रेफर किया था
डॉक्टर द्विवेदी ने
द्विवेदी गधा है
जी सर
यह केस अमीबिक लिवर तथा अमीबिक कोलायटिस क्यों नही है
हां सर, लगता तो वही है
तुम क्या कहते हो
जी आप जैसा कहे
यार है तो यह अपेंडिसाइटिस ही है अमीबिक लीवर तो बिलकुल नहीं
हां सर लिवर तो बढ़ा है ही नहीं
उसे पक्का अपेंडिसाइटिस ही है
उसका ब्लड काउंट भी बहुत है
जी हां, ब्लड काउंट भी बहुत था
वैसे रिपोर्ट गलत भी हो सकती है।
जी सर आजकल रिपोर्ट बहुत गड़बड़ आ रही है
फिर भी य.ह तो तय नहीं कि अपेंडिसाइटिस ही है
जी हां, ये कैसे कह सकते हैं
यस सर यह अमीबिक ही लगता है

तय रहा कि यह डॉक्टर अगले चुनाव में पार्टी का ऑपरेशन करके मानेगा। आप वोट देने जाइएगा, युवा शक्ति इस नए डॉक्टर की तरफ आशा भरी निगाहो से देख रहा है, ऐसा कई जूनियर डॉक्टर मान रहे है।

मरीज़ों ने विजय चौक और राजपथ पर लाठियां खाते हुए जब जनपथ की ओर ताका था तो यह युवा नेता पता नहीं कही छुट्टियां मना रहा था। राजनीति में छुट्टियां मनाना बहुत जरूरी है। लेकिन ध्यान रखना पड़ता है कि छुट्टियां ज्यादा लंबी न हो जाए, वरना जनता छुट्टी कर देती है।




Friday, January 18, 2013

क्यों चाहिए मिथिला राज्य...?


पिछले कुछ दिनों से कुछ लोगों ने मिथिला राज्य की मांग करनी शुरू कर दी है। इतिहास में मिथिला एक राज्य रहा है, और आजादी तक मिथिला की रियासत भी रही थी। आबादी के हिसाब से मिथिला नेपाल और बिहार में अवस्थित है। अलग मधेशी राज्य की मांग नेपाल में भी है और दबे स्वरों में बिहार की तरफ वाली मिथिला में भी।

सरहद के दोनों ओर मिथिला राज्य की मांग का मूल आधार एक ही हैः दोनों ही तरफ विकास के लिहाज से उपेक्षा का भाव नेतृत्व ने दिखाया है।

सवाल ये है कि मिथिला राज्य है कहां और क्यों बनना चाहिए। मधुबनी जिले की सीध में बेगूसराय तक और आधा सीतामढ़ी और कोसी से पूरब का सारा इलाका...थोड़ा गंगा से दक्षिण तक, यानी बिहार के जिस हिस्से की भाषा मैथिली है या उस भाषा के बीज हैं यानी भाषा में वाक्य के आखिर में छै या छिकै शब्द हो, वहां तक मिथिला है। 

हालांकि, मिथिला की शुरुआत बंगाल की ओर से कटिहार घुसने के साथ ही हो जाती है, जहां आबादी में मुसलमान ज्यादा हैं। कुछ लोगों को मिथिला शब्द से चिढ़ है, सिर्फ इसलिए क्यों कि इससे उन्हें पौराणिक ब्राह्मणवाद की गंध मिलती हैं। लेकिन सच तो यह है कि सिंदूर टीकाधारी मैथिल ब्राह्मणों (गलती से उन्हें ही मिथिला की पहचान और प्रतीक मान लिया जाता है) से परे मिथिला में तकरीबन 24 फीसदी यादव और 15 फीसदी मुसलमानों की आबादी है। अनुसूचित जातियों की तादाद भी काफी है। ऐसे में अलग राज्य से उनके सामाजिक विकास को नई दिशा मिलेगी। 

मिथिलांचल राज्य की मांग में कुछ भी गलत नहीं है। पूरा मिथिला क्षेत्रीय विकास के तराजू पर असमानता का शिकार है। मिथिला के किसी भी कोने मे चले जाए, नीतीश कुमार के 11 फीसदी विकास के दावों की पोल खुल जाएगी। 

बिहार सरकार विकास के तमाम दावे कर रही है लेकिन यह देखना होगा कि सारा विकास कहां केन्द्रित हो रहा है। गंगा के उत्तर और दक्षिण विकास की सच्चाईयों में जमीन आसमान का फर्क है। 
बाढ़ (मोकामा के पास) में एनटीपीसी की योजना से लेकर, नालंदा विश्वविद्यालय तक और आयुध कारखाने से लेकर जलजमाव से मुक्ति की योजनाओं तक में कहीं भी मिथिला के किसी शहर का नाम नहीं है। इन योजनाओं के तहत आने वाले इलाके नीतीश के प्रभाव क्षेत्र वाले इलाके हैं। नीतीश अपनी सारी ताकत मगध और भोजपुर में केन्द्रित कर रहे हैं। 

इन विकास योजनाओं से किसी किस्म की दिक्कत नहीं होनी चाहिए, लेकिन जब इसी के बरअक्स समस्तीपुर के बंद पड़े अशोक पेपर मिल की याद आती है, जिसे फिर से शुरु करने की योजनाओं को पलीता लगा दिया गया या फिर सड़कों के विकास की ही बात कीजिए तो मिथिला का इलाका उपेक्षित नजर आता है। 

इस इलाके के पास एक मात्र योजना है अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की शाखा की। मिथिला में न तो किसी उद्योग की आधारशिला रखी गई है न शैक्षणिक संस्थानों की। सारा कुछ पटना और इसके इर्द-गिर्द समेटा गया है, एम्स, आईआईटी, चंद्रगुप्त प्रबंधन संस्थान और चाणक्य लॉ स्कूल। हाल में धान के भूसे से बिजला का प्रस्ताव गया की ओर मुड़ गया और कोयला आधारित प्रोजेक्ट औरंगाबाद के लिए। मिथिला की हताशा बढ़ती जा रही है।
सिर्फ विकास ही एक मुद्दा नहीं है। मिथिला की अपनी एक अलग संस्कृति है, भाषा खानपान और रहन-सहन है। मिथिला की जीवनशैली में एक खतरनाक बदलाव आ रहा है। भाषा का बांकपन छीजता जा रहा है। 

पान-मखान की मैथिली संस्कृति को बचाने के लिए भी एक अलग राज्य बनाना बेहद जरुरी है।

कई लोग यह मानते हैं कि अब और नए राज्यों की जरूरत नहीं। तमाम किस्म के तर्क गढ़े जा रहे हैं। 1956 में भी भाषाआधारित राज्यों के गठन के समय ऐसे ही तर्क उछाले गए थे। लेकिन तब के 16 बने राज्यों से आज के 28 राज्यों तक क्या कोई ऐसा राज्य है तो नाकाम साबित हुआ हो?  

लोग झारखंड का उदाहरण विफल राज्यों में देते हैं, लेकिन जैसी समस्याएं नए राज्यों में हैं वैसी तो पुराने राज्यों में भी हैं। नेतृत्व को याद रखना चाहिए कि मिथिला के लाखों नंगे-भूखे अशिक्षित लोग भी भारत के ही नागरिक हैं। उन्हें कब न्याय मिलेगा

 सरकारों को जनता के नजदीक लाने का काम छोटे राज्य ही कर सकते हैं। कम वोटरों वाले विधायकों का अपनी जनता से निकटता का संबंध होगा। शक्ति और सत्ता का विकेन्द्रीकरण केन्द्र को भी मजबूत बनाएगा।
मिथिला के इलाके के पास खूब उपजाऊ जमीन है, संसाधन भी हैं। मानव संसाधन हैं, जो बाहर जाकर औने-पौने दामों में अपना श्रम बेचते हैं। अलग राज्य इन संसाधनों का सही इस्तेमाल कर पाएगा। कभी जयनगर या दरभंगा जाने वाली ट्रेनों को देखिए, हमेशा भारी भीड़ यही साबित करती है कि उस इलाके से कितना पलायन दिल्ली और एनसीआर में हुआ है। 

मिथिला राज्य का प्रादुर्भाव इलाके के श्रम को पलायन करने से रोकेगा। तरक्की की नई इबारत लिखने के लिए मिथिला का एक अलग राज्य बनाया जाना जरुरी है, देरसबेर यह बात साबित भी होगी

Thursday, January 17, 2013

शिबू सोरेनः प्रभामंडल बनाम मंत्रिमंडल

आज केन्द्रीय कैबिनेट ने झारखंड में राष्ट्रपति शासन की सिफ़ारिश कर दी। झारखंड ने साबित कर दिया कि सिर्फ आर्थिक मोर्चे पर ही नहीं, राजनैतिक मोर्चे पर भी वह एक असफल राज्य है। लेकिन, मैं आज झारखंड राज्य की नियति पर बात करना नहीं चाहता। मैं सिर्फ शिबू सोरेन की नियति पर कुछ बातें करना चाहता हूं।

शिबू सोरेन के राजनैतिक करिअर में राजा पीटर से हार जाना, एक गहरे धब्बे की तरह चस्पां रहेगा। वह विधानसभा  का उप-चुनाव था, उस चुनाव से शिबू सोरेन उर्फ गुरुजी झारखंड के मुख्यमंत्री बने रह सकते थे। लेकिन वो हार गए थे।

सवाल है कि वह शख्स, जिसके एक इशारे पर पूरा झारखंड उठ खड़ा होता था, सड़कें वीरान हो जाती थीं, जब उनकी पुकार होती, दुकानें और बाज़ार बंद हो जाते थे। उसी गुरुजी के इशारे पर ही नहीं, बल्कि झोली फैला कर वोट मांगने पर, वोट तक नहीं मिले।

आज शिबू की छवि सत्ता की चाहत रखने वाले, कमजोर यादद्दाश्त वाले सत्तालोलुप अवसरवादी राजनीतिज्ञ की हो गई है।

क्या ही अच्छा होता कि झारखंड बनने के ठीक बाद, शिबू सोरेन झारखंड के जनक के रूप में छवि निर्माण करते। सत्ता की राजनीति की बजाय और चुनावों के जरिए मुख्यमंत्री बनने का अपना सपना पूरा करने की बजाय शिबू सोरेन अगर उसी वक्त झारखंड मुक्ति मोर्चा छोड़ देते, तो उनकी ताक़त और उनकी वक़त का सामना करने लायक किसी का कद न था।

अगर शिबू झारखंड में पितृपुरुष का कद हासिल कर लेते, तो उनकी बात दलगत भावनाओं से ऊपर सुनी जाती। लेकिन, अपनी ही छवि में, जिसमें उन्हे दिशुम गुरु बोला जाता था, जिसमें उनकी पुकार पर झारखंड के लोग आंदोलन के लिए निकल पड़ते थे, जिसमें कई ऐसी किवंदंतियां उनके साथ जुड़ गई थीं, जो उनको दंतकथाओं का नायक बना गई थी...उस छवि को गुरुजी ने तार-तार कर दिया।

अब, कोयला मंत्री के रूप में केन्द्र में उनकी छवि हो, या नरसिंह राव की सरकार बचाने में चार सांसदों का खरीद प्रकरण हो, या फिर झारखंड में पुत्र मोह में ग्रस्त धृतराष्ट्र बनने की बातें, गुरुजी ने जनजातियों का अगुआ का अपना सिंहासन खुद सत्ता के मोह में तज दिया है।

सत्ता से दूर रहकर गुरुजी अपने चारों तरफ एक प्रभामंडल बना सकते थे, लेकिन अपना मंत्रिमंडल बनाने का मोह शायद ज्यादा लुभावना था।

Tuesday, January 1, 2013

सुनो मृगांकाः28: सिर्फ तुम

अभिजीत उगना के साथ मधुबनी तक गया था। रास्ते भर वह सोचता रहा। पिछले कुछ वक्त से कुछ उसे कोंचता रहा था।

गांव के तालाब सूखे थे। जिनमें थोड़ा-बहुत पानी था भी, उनमें सेवार और जलकुंभियां अंटी थीं। अभिजीत को जब तब तेज़ बुखार आ जाया करता। रात को सोता, तो अंदर ही अंदर उसे लगता कि पता नहीं अगली सुबर उठ भी पाऊंगा या नहीं।

ऐसी ही किसी अलसाई रात, जब कानों में मच्छरों का मद्धम संगीत बज रहा था। उसे लगा कि भैंसे के गले की घंटियां बज उठी हों। काली-सी छाया उसे सामने दिख रही थी। शायद यमराज हो।

अभिजीत को अपनी मौत का कोई ग़म न था। बल्कि उसे तो इंतजार था...इस वक्त-बेवक्त के दर्द से छुटकारा तो मिले। लेकिन हर वक्त मृगांका का साया उसके हर काम पर रहता।

रास्ते पर लकड़ियों का गठ्ठर ढोकर लाती हुई लड़की उसे मृगांका लगती, तो कभी चूल्हे सुलगाती हुई लड़की, कभी मछली पकड़ती हुई लड़की। उसे लगा था कि शायद उसके प्रेम का विस्तार हो रहा है, और शायद एक क़र्ज-सा था उस पर। प्रेम का अर्थ सिर्फ पाना ही नहीं होता।

मृगांका, मजलूमों की खबरें करती थी, उनके दुख साझा करती थी...उसे याद आया। अपनी पहली रिपोर्टंग में मृगांका एक स्लम ही गई थी। उस  स्लम में, राजस्थान के गांव में, जहां बिजली तक न थी।

अभिजीत ने तय किया, वह मृगांका के रास्ते पर चले तो भी प्रेम की राह पर ही होगा। प्रेम की कई परिभाषाएं है। नए अर्थ हैं प्रेम के, कई और अर्थ हैं जिनका खुलासा होना बाकी था।

गांव की तस्वीर बदलनी है, उसके अंदर स्वदेस का मोहन भार्गव जागने लगा था। उगना ने लोटे में हैंडपंप का ताजा पानी रख दिया था। प्लेट में प्याज टमाटर खीर हरी मिर्च, तीखी वाली।

पहले पैग के साथ ही अभिजीत योजनाओं पर विचार करने लगा था। गांव की हर लड़की को वह शिक्षा देगा, उनकी पढाई का खयाल रखेगा। गांव के हर वंचित लड़के-लड़की के लिए....। प्रेम विस्तार पा रहा था।

अभिजीत के पास वक्त बहुत कम था, इस बात का एहसास खुद उसे भी था।

चार पैग के बाद अभिजीत को याद आने लगा...कैसे मुंबई जाने के लिए मृगांका का रिज़डर्वेशन राजधानी एक्सप्रेस में कन्फर्म नहीं हो पाया था, तो वह किसी साधारण ट्रेन में चढ़ गई थी। पश्चिम एक्सप्रेस थी शायद।

मृगांका पहली बार दूसरे दर्जे में सफर कर रही थी। ट्रेन की तमाम गंधों और आवाजों से उसका पहला परिचय था...वो भी वेटिंग में किसी और के बर्थ पर।

सफ़र में जितना कष्ट मृगांका को हुआ था उतना ही कष्ट अभिजीत को हुआ था, दिल्ली में। रास्ते में कई दफा हाल चाल लेने की कोशिश की। जितऩी दफा, फोन कनेक्ट नहीं हा पाता, उसके दिल की धड़कनें तेज हो जातीं।

मृगांका, मुंबई पहुंच गई थी। लेकिन अभिजीत को देश के मर्दों के मिजा़ज पता थे। ट्रेन तो खैर सुरक्षित क्या होते, देश की सड़के भी सुरक्षित नहीं। न बस, न कार, न घर तो सड़क।

अभिजीत, निढाल था। मृगांका उसके वजूद पर छाई हुई थी। हमेशा की तरह।

कमरे के एक किनारे उन किताबों का ढेर था, जो गांव के बच्चों के लिए खरीद कर लाया था। कुछ कपड़े भी थे, कुछ खाने के सामान भी थे। कल से स्कूल शुरु करने वाला है।

सोच रहा है कल प्रशांत से बात करे। और मृगांका से....उसने आंखें बंद कर मुस्कुराती हुई मृगांका की तस्वीर को दिलो-दिमाग़ में बसाया।

दिमाग़ के काले परदे पर एक तेजस्वी सा चेहरा पसर गया। अचानक, अभिजीत को अपने बचपन के दिन याद आने लगे, सारे दृश्य....स्कूल, कॉलेज, अपना शहर, ्पना गांव, सारे टीचर, मृगांका से मुलाकात....सुना था उसने मौत आने लगती है तो पूरा अतीत घूम जाता है आंखों के सामने।

नहीं, मुझे अभी नहीं मरना। कुछ कर के जाना है। इसी मौत की तलाश में वह दर दर भटक आया है, और जब मौत आई है तो वह मोहलत मांगना चाहता है। उसका हाथ अपने गरदन की तिल पर चला गया, मृगांका इस तिल को बहुत बार चूम चुकी है...बहुत बार मृगांका ने इस गरदन पर अपना प्यार बिखेरा है।

आज अभिजीत खुद बिखर रहा है तो मृगांका कहां होगी?


....जारी