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Thursday, August 18, 2022

भारत की राष्ट्रीयता 'धर्म' और 'भाषा' से कहीं अधिक व्यापक है

मंजीत ठाकुर

मेरे एक अनन्य मित्र हैं विश्वदीपक. वह प्रखर पत्रकार हैं और राष्ट्र की अवधारणा पर उनकी अलग राय है.

विश्वदीपक ने सोशल मीडिया पर मेरे एक आलेख के जवाब में लिखा लिखा, “राष्ट्र की अवधारणा ही 19वीं-20वीं शताब्दी की है. इस पर नहीं जाऊंगा कि गायत्री मंत्र किसने रचा पर वैदिक काल को स्थापित हिंदू धर्म के खांचे में समेट लेना ठीक नहीं. इसका कोई आधार भी नहीं.”

वह बेहद पढ़े-लिखे पत्रकार हैं और ट्रोल्स और घुड़कीबाजी के दौर में वह तर्कों के साथ प्रस्तुत होते हैं.

विश्वदीपक समेत और बुद्धिजीवी मित्र वैदिक काल को स्थापित हिंदू धर्म के खांचे में समेट लेने से नाराज हैं. फिर भी, हिंदूपन को लेकर विश्वदीपक की अलग राय हो सकती है, रंगनाथ सिंह की अलग, सुशांत झा की अलग और मंजीत ठाकुर की एकदम अलहदा. वैसे ही, जैसे हिंदू धर्म को लेकर संघ, कांग्रेस, भाजपा, शिवसेना और बजरंग दल की अलग व्य़ाख्याएं रही हैं.

हिंदू धर्म की सबने अलग व्याख्याएं की हैं. मिथिला के हिंदू धर्म की परंपराएं, तमिलनाडु के हिंदू धर्म से और तमिल हिंदू परंपराएं राजस्थानी हिंदू परंपराओं से अलग हैं. इन समाजों की स्थापित मान्यताएं और परंपराएं अलग हैं, फिर भी उनमें के प्रवाहित धारा एक है. और इसी वजह से तमिल, कन्नड़, मलयाली समाजों को अलग राष्ट्र नहीं कहा जा सकता. यह सारे समाज एक साझा प्रवाह के अंग हैं. यही प्रवाह वैदिक काल से लेकर आज के हिंदू धर्म में हैं. (कृपया कुरीतियों को इसमें न समेटें, सभी धर्मों में अपने हिसाब के कुरीतियां हैं और पर्याप्त हैं, वह मानव स्वभाव है)

बहरहाल, हिंदू धर्म की खासियत ही यही है कि यह सुप्रीम कोर्ट की निगाह में 'जीवन शैली' है और इसकी व्याख्या में आप हर तरह की छूट ले सकते हैं. हिंदू होते हुए आप नास्तिक, आस्तिक, शैव, शाक्त, वैष्णव 'कुछ भी' या 'कुछ भी नहीं' हो सकते हैं. आप मांस खा सकते हैं, मछली खा सकते हैं, देवी के सामने बलि प्रदान कर सकते हैं और शाकाहारी भी हो सकते हैं. यहां तक कि एक ही परिवार में एक व्यक्ति शाकाहारी और दूसरा मांसाहारी हो सकता है. बच्चे के ननिहाल में देवी के सामने बलि प्रदान हो सकता है और अपने घर में कुलदेवी को बलि की मनाही हो सकती है.

आपको मिली यही छूट हिंदू धर्म को एक साथ बेहद मजबूत, सहिष्णु और साथ ही सबसे अधिक कमजोर (आप ‘वलनरेबल’ पढ़ें) भी बनाता है.

कम ज्ञानी लोग कहते हैं (और ऐसा सभी धर्मों के उग्र लोग कहते हैं) कि उनका धर्म खतरे में है. धर्म कभी खतरे में नहीं हो सकता क्योंकि धर्म तो शाश्वत है (अपनी-अपनी पवित्र किताबों में आप इसके संदर्भ को देख सकते हैं). आप को एक साथ गर्व है कि हिंदू धर्म तो भैय्या, बहुत सहिष्णु है, यह वसुधैव कुटुंबकम का संदेश देता है. दूसरी तरफ, इसी धर्म के कुछ लोग उग्रता और कट्टरता के उन्माद में दूसरे धर्मों के लोगों को निशाना बनाते हैं. (कृपया यहां तुलना न लाएं, विवेचना सिर्फ हिंदू धर्म की कर रहा हूं. अन्य धर्मों की कट्टरता और उग्रता के स्वादानुसार इसी व्याख्या में चिपका लें.)

लेकिन, राष्ट्र के संदर्भ में एक दफा फिर से हमें याद रखना चाहिए कि अगर विद्वान साथी यह कह रहे हैं कि ‘राष्ट्र की अवधारणा ही 19वीं-20 शताब्दी की है’ तो हमें राष्ट्र को संकीर्ण परिभाषाओं की बजाए, उसके सांस्कृतिक संदर्भों में समझना चाहिए.

यह राष्ट्र, राष्ट्रवाद और राष्ट्रीयता के उस विचार जैसा नहीं है जो 1648 में जर्मनी के वेस्टफेलिया में 100 से अधिक यूरोपीय ताकतों के बीच हुए शांति समझौते से उपजा था. जिन दिनों हम गणितीय सूत्रों को सुलझाने में अनुपात के मुताबिक शहरों के नियोजन में व्यस्त थे यूरोपीय लोग तकरीबन बर्बर थे. मेरे एक मित्र सलीम सरमद ने उसका जवाब दिया कि ‘आप तुकाराम, कबीर को भूल गए.’

बेशक हिंदुस्तान के निर्माण में तुकाराम, कबीर, रसखान का योगदान अतुल्य है, पर वह तो बहुत बाद का मामला है. उस पर भी सही वक्त में आएंगे.

बहरहाल, यूरोप का इतिहास और उसकी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि भारतीय पृष्ठभूमि से अलहदा है. व्यक्तिवाद पर यूरोप के विचार भारतीय विचारों से अलग हैं. गुलाम मानसिकता के औपनिवेशिक किस्म के लोग हर भारतीय विचार और सिद्धांत, खोज और आविष्कार, परंपरा और आस्था को अविश्वास से देखते हैं और एक हद तक मखौल उड़ाते हैं.

यूरोपीय राष्ट्र की परिभाषाओं की बैक स्टोरी अलग है, भारत की अलग. वहां के इतिहास में अलग-अलग समयावधि में जो कुछ घटा, उसी का नतीजा है कि उनके लिहाज का ‘राष्ट्र-राज्य’ (नेशन स्टेट) और लोकतंत्र का उनका अपना संस्करण निकला, जिस पर भारतीय बौद्धिक लहालोट होते हैं.

भारत के इतिहास में यह तरीका नहीं रहा. यहां समाज, व्यक्ति या राज्य से अधिक शक्तिशाली इकाई रहा है. भारतीय समाज में हमेशा धर्मदंड राजदंड से अधिक शक्तिशाली रहा है. वरना, क्या वजह थी कि एक ऋषि किसी राजा से उसके दो बेटे मांगने आ जाता है और राजा भयभीत होकर, अपने दोनों बेटे ऋषि के साथ यज्ञों की सुरक्षा के लिए भेज देता है.

फिलहाल, कई जगहों से पढ़ने और सुनने के बाद हमारे वाले ‘राष्ट्र’ को ‘नेशन’ का पर्यायवाची मानना उचित नहीं जान पड़ता. दोनों शब्दों का इस्तेमाल एक ही मतलब में करना, दोनों के प्रति अन्याय होगा.

हमारा राष्ट्र ‘नेशन-स्टेट’ नहीं है बल्कि यह हमारी परंपराओं और विश्वासों की निरंतरता है. जो भी कुछ पढ़ा है उसमें मैं भी आर्यों के भारत आगमन के सिद्धांत को मानता रहा था, पर मोटे तौर पर मुझे इस पर शक होने लगा है. इस पर थोड़ा और गहरा अध्ययन करने के बाद ही मैं कुछ लिखूंगा. लेकिन मुझे लगता है कि हड़प्पा सभ्यता की जिस एक मिसाल से मैंने सांस्कृतिक और सभ्यतामूलक निरंतरता की बात की थी, उसको विस्तार देने की जरूरत है.

विचारक किस्म के लोगों से मेरा अनुरोध यही है कि जब हमारी लोक विरासत ईसा से भी कई हजार साल (ईसा से कम से कम आठ हजार साल) पुरानी है तो हम अपनी विरासत को संकुचित करके क्यों देख रहे हैं? हमारी परिभाषाएं वेस्टफेलिया संधि से क्यों उधार लिए हुए हैं? हमारी अपनी समस्याओं के समाधान का तरीका भी हमारा अपना होना चाहिए.

बाकी, जहां तक वामपंथ के विचारकों की बात है गोविंदाचार्य ने एक बार इंडिया टुडे के साथ साक्षात्कार में कहा था कि "आजादी के समय कम्युनिस्ट पार्टी आजादी के समय भारत में 17 अलग-अलग राष्ट्रीयता के अस्तित्व की बात करती थी. क्या आपको वाकई लगता है कि ऐसा ही था? कुछ लोग सन सैंतालीस के बाद के भारत को ही भारत मानते हैं और इसे एक राष्ट्र की निरंतरता की बजाए नवगठित देश मानते हैं."

पर उनकी इस परिभाषाओं में बहुत झोल हैं. कि अगर भारत था ही नहीं, तो भारत को भारत नाम मिला कैसे? क्या भारत नाम आनंद भवन में गढ़ा गया था? इसलिए मुझे लगता है कि भारत राष्ट्र विभिन्न संस्कृतियों का एक मिश्रण है और ऐसा राष्ट्र कभी यूरोपीय लोगों ने देखा नहीं था इसलिए उनकी परिभाषा के विचार बिंदु में भी नहीं आया होगा. मिसाल के तौर पर मेरे मित्र विश्वदीपक ने कभी 'डोंका' का मांस नहीं खाया होगा. विश्वदीपक का पहला प्रश्न मुझसे मिलते ही यही होगा कि आखिर ‘डोंका’ होता क्या है. इसलिए जो डोंका को जानता ही नहीं हो, उसका जायका कैसे जानेगा?

आपकी सूचना के लिए बता दूं कि मिथिला इलाके में धान के खेतों में सुनहरे रंग का घोंघा पाया जाता है, जिसका मांस काफी जायकेदार होता है.

अधिकतर विचारक अनजाने में या जानबूझकर स्मृतिलोप का शिकार होते हैं. उनकी शह का परिणाम है कि बामियान में बुद्ध की मूर्ति का विध्वंस करने वाले ध्वंस के बाद भी इन्हीं कथित उदारवादियों की तरफ से मासूमों की तरह पेश किए जाते हैं हैं.

भारत की निरंतरता बतौर राष्ट्र इसी में है कि इसने अपने मूल गुणसूत्रों को कमोबेश बनाए रखा है.

Sunday, September 23, 2018

क्या कोई आकर हमें हिंदुत्व का पाठ पढ़ाएगा?

ध्रुवीकरण और एकता की संघीवादी खोज के पीछे हिंदू धर्म को वह सब बनाने की ललक भी है जो वह नहीं हैरू उसे 'सेमिटाइज' करने की ललक, ताकि वह 'आक्रमणकारियों' के धर्मों की तरह दिखाई दे—संहिता और रूढ़ सिद्धांतों से बंधा धर्म, जिसका एक पहचानने लायक भगवान (संभवतः राम) हो, एक प्रधान पवित्र ग्रंथ (गीता) हो.

अमूमन माना जाता है कि हिंदुओं को सहिष्णु होना चाहिए. इसलिए जब हिंदुओं को ग़ुस्सा आता है तो लोग स्तब्ध रह जाते हैं. वो समझते हैं कि ये तो हिंदू धर्म का मूल नहीं है. ऐसे में एक तबका सामने आता है, जो ख़ुद को धर्मनिरपेक्ष कहते हैं, पर असल में वे हिंदू धर्म के विरुद्ध हैं. इन लोगों के लिखने में या बोलने में हिंदू विरोधी पूर्वाग्रह दिखाई देता है.

बीबीसी हिंदी में लिखे एक स्तंभ में पौराणिक कहानियों के लेखक देवीदत्त पटनायक कहते हैं, "अगर आपको ईसाइयत को समझना हो तो आप बाइबिल पढ़ सकते हैं, इस्लाम को समझना है तो क़ुरआन पढ़ सकते हैं, लेकिन अगर हिंदू धर्म को समझना है तो कोई शास्त्र नहीं है जो यह समझा सके कि हिंदू धर्म क्या है. हिंदू धर्म शास्त्र पर नहीं बल्कि लोकविश्वास पर निर्भर है. इसका मौखिक परंपरा पर विश्वास है."

वो आगे कहते हैं कि इन्हीं कतिपय कारणों से हिंदुओं में गुस्सा है. मुझे लगता है कि अगर हिंदुओं में कोई हीन भावना है, या गुस्सा है, और आज के दौर में जिस तरह वॉट्सऐप के जरिए गलतबयानियां फैलाना आसान हो गया है, उसमें हिंदुओं की छवि आक्रामकता भरी हो गई है. पर मेरा एक और सवाल है, क्या आज के हिंदुत्व में बहुलदेववाद (समझ में न आए तो कमेंट बॉक्स में कूड़ा न फैलाएं, आपको आपके इष्ट देव की कसम) का स्थान है?

क्या मांसाहार करना हिंदुओं के लिए वर्जित है? लेकिन भारतीय संस्कृति की रक्षा करने वाले ज्यादातर लोगों को पता ही नहीं है कि असल में भारतीय संस्कृति है क्या? संस्कृति का प्रस्थान बिंदु कहां से तय किया जाएगा? क्या आज भी, और पहले भी, उत्तर भारत का हिंदू धर्म, दक्षिण भारत के हिंदू धर्म से अलग नहीं है? यकीन मानिए, हजार बरस पहले का हिंदू धर्म आज के हिंदू धर्म से बहुत अलग था. हर जाति, हर प्रांत और भाषा में हिंदू धर्म के अलग-अलग रूप हैं. यह विविधता ज़्यादातर लोगों की समझ में नहीं आती. या आती भी होगी तो उसे मानना उनके लिए सुविधाजनक नहीं होगा.

आज कारों के पीछे गुस्साए हुए हनुमान कुछ लोगों को प्रिय लग रहे होंगे. पर सच यह है कि हमारे प्यार हनुमान तो वह है जो तुलसी के मानस पाठ में चुपचाप बैठकर रामकथा श्रवण करते थे. जो संजीवनी लाए वह थे हनुमान. राम रसायन तुम्हरे पासा, सदा रहो रघुपति के दासा...

पर आज अगर हिंदू आक्रामक है या उसे आक्रामक बनाने में कुछ लोगों को समर्थन मिल रहा है तो उसके पीछे वह वामपंथी बुद्धि है जिसने एक पूरे धर्म को हमेशा अपमानित किया है. एक पूरे धर्म को समझने की बजाए उसको सुधार कर एक नया रूप देने की कोशिश की गई.

आज भी हिंदू संगठन वैसा ही करने की कोशिश कर रहे हैं. इसके नियम और शास्त्र स्पष्ट करने की कोशिश की जा रही है. राम के एकमात्र देवता के रूप में प्रतिष्ठित किया जा रहा है. (सीता तस्वीरों से गायब हैं) गीता को एकमात्र धार्मिक किताब के रूप में स्थापित किया जा रहा है (मानस व्यापक स्वरूप में है उसे भाव नहीं दे रहे, जबकि वाल्मीकि रामायण तो उन लोगों ने देखी भी नहीं होगी जो इस पोस्ट पर रायता फैलाने कल आएंगे, और वाल्मीकि रामायण में देवत्व वाला भाव भी कम है.)

ध्रुवीकरण और एकता की संघीवादी खोज के पीछे हिंदू धर्म को वह सब बनाने की ललक भी है जो वह नहीं हैरू उसे 'सेमिटाइज' करने की ललक, ताकि वह 'आक्रमणकारियों' के धर्मों की तरह दिखाई दे—संहिता और रूढ़ सिद्धांतों से बंधा धर्म, जिसका एक पहचानने लायक भगवान (संभवतः राम) हो, एक प्रधान पवित्र ग्रंथ (गीता) हो.

क्या मांसाहार करना हिंदुओं के लिए वर्जित है? लेकिन भारतीय संस्कृति की रक्षा करने वाले ज्यादातर लोगों को पता ही नहीं है कि असल में भारतीय संस्कृति है क्या? संस्कृति का प्रस्थान बिंदु कहां से तय किया जाएगा? क्या आज भी, और पहले भी, उत्तर भारत का हिंदू धर्म, दक्षिण भारत के हिंदू धर्म से अलग नहीं है? यकीन मानिए, हजार बरस पहले का हिंदू धर्म आज के हिंदू धर्म से बहुत अलग था. हर जाति, हर प्रांत और भाषा में हिंदू धर्म के अलग-अलग रूप हैं. यह विविधता ज़्यादातर लोगों की समझ में नहीं आती. या आती भी होगी तो उसे मानना उनके लिए सुविधाजनक नहीं होगा.


हिंदुत्व के पोस्टरों में कृष्ण को राधा के बिना, राम को सीता के बिना और शिव को पार्वती के बिना दिखाया जाता है. उनकी बहसों में शंकराचार्य के ब्रह्मचर्य का गुणगान किया जाता है जिनके बारे में वे यह दावा करते हैं कि उन्होंने एक हजार साल पहले लड़ाकू नागाओं का जत्था तैयार किया था ताकि विदेशी हमलावरों से विनम्र साधुओं को बचाया जा सके.

यही वह दावा है जिससे हिंदुत्व गुंडों या ''हाशिये के समूहों" के अस्तित्व को वाजिब ठहराता है. हालांकि वे उस किंवदंती को नजरअंदाज कर देंगे जब उसी शंकराचार्य ने मंडन मिश्र की पत्नी उभया भारती की सलाह पर अपनी गुप्त शक्तियों का इस्तेमाल करके राजा अमारु के शरीर में जाकर यौन अनुभव लिया था.

हिंदुत्व का स्त्रैण भाव और कामुकता को खारिज करना उन अब्राहमी मिथकों को ही प्रतिध्वनित करता है जिनमें ईश्वर स्पष्ट रूप से पुरुष है, उसके दूत भी पुरुष हैं और जहां उसका पुत्र बिना किसी यौन संबंध के किसी कुंआरी महिला से पैदा होता है.

लेकिन एक हिंदू के रूप में मैं उनकी बंदिशें क्यों स्वीकार करूं? मैं एक सवर्ण हूं, ब्राह्मण हूं, मेरे खानदान में सैकड़ों सालों से शिव, भैरव, काली और दुर्गा के विभिन्न रूपों की उपासना होती रही है. मिथिला हमारा इलाका है. जहां हम लोग सगर्व मांसाहार करते हैं और मछली हमारे भोजन के अहम हिस्सा है. जबकि देश के दूसरे हिस्सों में (जैसे पश्चिमी यूपी, राजस्थान गुजरात में मांसाहार का प्रचलन कम है) तो यही विविधता है न.

विडंबना यह है कि हिंदुत्व का नए सिरे से बढ़-चढ़कर दावा आत्मविश्वास के बजाए असुरक्षा की झलक देता है. यह अपमान और पराजय की बार-बार याद दिलाने की बुनियाद पर खड़ा किया जाता है, मुस्लिम फतह और हुकूमत की गाथाओं से इसे मजबूत किया जाता है, तोड़े गए मंदिरों और लूटे गए खजानों के किस्से-कहानियों से इसे हवा दी जाती है.

इस सबने बेहद संवेदनशील हिंदुओं को नाकामी और पराजय के अफसाने में कैद कर दिया है, जबकि उन्हें आत्मविश्वास से भरे उस धर्म की उदार कहानी का हिस्सा होना चाहिए था जो दुनिया में अपनी जगह की तलाश कर रहा है. अतीत की नाकामियों की तरफ देखने से भविष्य की कामयाबियों के लिए कोई उम्मीद नहीं जागती.

मैं हिंदू धर्म के एकेश्वरवादी बनाए जाने की कोशिशों का विरोध करता हूं.


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