Showing posts with label पूर्वोत्तर. Show all posts
Showing posts with label पूर्वोत्तर. Show all posts

Tuesday, July 3, 2012

मेघ की तलाश में, दिल्ली से पूर्वोत्तर तक

लोगबाग मॉनसून को लेकर हायतौबा मचा रहे हैं। बच्चों के स्कूल गरमी की वजह से 9 जुलाई को खुलेंगे। गरमी की छुट्टियों का एक्सटेंशन हो रहा है..हमें टेंशन इस बात की है कि जब हम स्कूल में थे तो ऐसे क्यों एक्सटेंशन नहीं होता था गरमी की छुट्टियों का।

कुछ लोगों यानी बापों को इस बात की राहत जरूर मिली होगी कि चलो बच्चे का होमवर्क और प्रोजेक्ट पूरा करने में कुछ मोहलत और मिली। दरअसल, आजकल होमवर्क बच्चों को नहीं उनके मां-बापों और सच-सच कहें तो बापों को मिला करता है।

अमां, ये तो ठीक लेकिन ऐसे मॉनसून का क्या करें, जहां बारिश मौन है और बाकी सब सून।

मने भी ठान लिया कि बारिश की खोज में हम आकाशमार्ग से विचरण करेंगे और बादलों को कान पकड़कर खींचते ले आएँगे। तो जनाब, नीले आसमान में हम पहुंत गए श्वेत-नील राजहंस पर बैठकर।

दिल्ली हवा से देखें तो थोड़ी-थोड़ी हरी और कहीं भूरी कहीं गहरी भूरी नजर आती है। कहीं बादल क्या बादल की जात तक नहीं...। सब सून...अनुमानत- कानपुर से कुछ आगे तक आसमान साफ रहा। बाईँ तरफ, दूर उत्तर में हिमालय कपास के ढेर में बैठा जाड़े की रजाई तैयार कर रहा था।

मैं नीचे गंगा को देखने में मशगूल था कि बस अचानक बादलों के छोटे-छोटे टुकड़े कतार में दिखने लगे। एक दम छुटकू बादल। केजी में स्कूल जानेवाले। कतार में। सफेद शर्ट और नीली पैंट पहनने वाले बच्चों की तरह। मेरे पास कैमरे वाला मोबाइल नहीं था, वरना उनक तस्वीर आपके लिए पेश करता। पचीस-तीस कतारों में बच्चों की तरह और कितने होंगे गिनती में कह नहीं सकता...शायद एक कतार में सौ से ज्यादा। इलाहाबाद तक ये कतार बनी रही।

कुछ आगे जाकर शायद बिहार में इन बादलों के आकार आठवीं जाने वाले या दसवीं जाने लायक बच्चों जैसे हो गए। लेकिन इन बेटों से पोतों की उम्मीद बेकार थी। काहे कि, कपासी थे। छोटे भी थे और लग रहा था कि खेत में गोभी लगाए गए हो...जिनमें से छोटे-छोटे फूल आ गए हों।

कपासी मेघ भौंकने वाले कुत्तों सरीखे होते हैं, जिनसे काटने यानी बरसने की उम्मीद भी नहीं होती।

बाद में बंगाल के ऊपर जब हम उड़ रहे थे, तो भी बादल बरसने वाले लगे नहीं। बस, कपासी बादलों का ही ठौर-ठिकाना बड़ा हो गया। मठीधीशों की तरह के बादल, खुद कुछ सिरजते नहीं, कुछ लिखते नहीं...दूर से दिखते हैं। सिर उठाए..वही बादल जिनमें आप तमाम किस्म की आकृतियां देख लेते हैं। पक्षाभ मेघ।


कुछ बादल स्त्रैण भी थे। लजाकर लुक-छिप कर महिलाओं से या यों कहें कि युवतियों (अखबार वालों को युवतियों की तस्वीर छापने का बहुत शौक है, विश्वास न हो तो 10 जुलाई के आसपास जब दिल्ली में बारिश होगी तो हर हिंदी अखबार में भींगती लड़कियों के फोटो छपेंगे...इस कैप्शन के साथ कि बारिश का मजा लेती  सुंदर युवतियां। ये बारिश का मजा लेती वहीं सुंदर युवतियां होती हैं, जो अभी गरमी-लू के टाइम में मुंह ढंककर दस्यु सुंदरियां बन चुकी हैं) की तरह दूसरे बादलों की ओट में छिप जा रहे थे।
इनमें पानी नहीं होता, पानी इनमें जमकर बर्फ बन जाता है। इसी से इतने उजले होते हैं मानों किसी ने नील-टिनोपॉल में धो डाला हो। इऩ बादलों को अपने आकार का बड़ा घमंड था। कुछ नेताओं जैसे थे, कुछ बादल मुख्यमंत्रियों जैसे और ज्यादातर राज्यपालों जैसे। हालांकि ये नेताओं जैसे थे लेकिन उन से वीर्यवान् न थे। इन नपुंसक बादलों पर भी किसी ने जरूर कविता लिखी होगी।

ऐसे क्लीव बादलों को देखता हूं तो लगता है इनके जरूर किसी सरकारी अधिकारी का दर्जा मिला होगा अपने बादलों के साम्राज्य में। फिर भी, इनमें इतनी ताकत तो थी कि इनसे होकर विमान गुजरता तो थोड़ा डगमगा जाता था।

जल्दी ही हम असम में प्रवेश कर गए। यहीं था असली खेल...बादलों में स्तरीय बादल भी, पक्षाभ भी, कपासी भी..गहरे भूरे से लेकर निंबस तक...आसमान में नीले के कई शेड देखने को मिले। धरती एक दम हरी-हरी। कुछ दूर पानी फैला हुआ भी...लेकिन आज सिर्फ बादलों की चर्चा..।

मैं उम्मीद लगाए बैठा था कि शायद कहीं बरस जाए। इस सत्र में बारिश से सिर्फ एक दफा मध्य प्रदेश में मुलाकात हुई है। बरसात बेवफा प्रेमिका की तरह मिलने से कतरा रही है लगातार। सिर्फ एक दफा उमक कर मिली है।

जोरहाट उतरे तो सूरज सिर पर चमक रहा था, प्रधानमंत्री के साथ सोनिया गांधी को भी असम के बाढ़ का जायज़ा लेना था। सरकार कह रही है 77 लोग मर गए हैं बाढ़ में। मुझे अंदेशा है कि ज्यादा मरे होंगे। मैंने भी बाढ़ के पानी को देखा, मेरे आगे के दो हेलिकॉप्टरो में प्रधानमंत्री और सोनिया थे।

मैंने अब सर पर मंडरा रहे बादलों को गाली दी थी भद्दी-सी। वो भड़क गए थे। मैंने कहा था सालों सरकारी योजनाओं की तरह एक ही जगह क्यों अटक गए हो। यहां किसी को डुबो कर मार रहे हो, कहीं लोग तुम्हारे इंतजार में मर रहे हैं।

मैंने पूर्वोत्तर के बादलों से दिल्ली चलो का आह्वान किया है। देखें क्या होता है....



Wednesday, April 28, 2010

पूर्वोत्तर-तस्वीरों में

पूर्वोत्तर का सौंदर्य वास्तव में अतुलनीय है। यहां की नदियां इतनी बलखाती और सुंदर हैं कि बस मन मोह लें। पहाड़ों के नीचे उतरते बादल... और हम ऊपर.. लगता था हम स्वर्ग की यात्रा पर हैं।

दो मेगापिक्सल के कैमरे से जितना सौंदर्य बन पड़ा मैंने कैद करने की कोशिश की है।


दूसरी तरफ पहाड़ों का पूरा परिवार था। देखिय़े तो सही...


Monday, April 26, 2010

तस्वीरः जहां मैं झोंपड़ी बनाऊंगा...

गुस्ताख़ बहुत दिनों से यह बताने के चक्कर में था कि उसका ड्रीमलैंड क्या है। पहले बचपन में सोचता था कि स्विट्ज़रलैंड बहुत खूबसूरत है। वहां जाना चाहिए और इंशाअल्लाह एक बार जाऊंगा ज़रुर। लेकिन पहले अपने देश की खूबसूरती को एक बार निहार लूं...यह तमन्ना भी है।

देश में गोवा से लेकर झारखंड, महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान, बिहार, हरियाणा, उडीसा तमाम राज्यों मे घूमा हूं। हर राज्य की अपनी अलग खूबसूरती है..लेकिन अरुणाचल में जिस जगह का उल्लेख मैं कर रहा हूं, वह दिल के बहुत करीब है।

मेरी सलाह है कि साहित्यकार बंधु उस जगह जा सकते हैं और बहुत महान साहित्य की रचना कर सकते हैं।

नीचे की तस्वीर को ध्यान से देखिए,  इस नदी के किनारे मैं अपनी झोंपड़ी बनाऊंगा। दिन भर मछली मारूंगा और दिन ढले घर आऊंगा, मछली-भात खाऊंगा।



हालांकि दो मेगापिक्सल के मेरे मोबाइल कैमरे में सौंदर्य बहुत निखर कर नहीं आया लेकिन अपनी फोटॉग्रफी की  कला पर आत्ममुग्ध हूं।

नदी का पानी कांच की तरह साफ था। इतना कि इसकी तली के पत्थर भी साफ दिखते थे। गुस्ताख तो भई, दिल से गया इसे देखकर..इस नदी के दूसरी तरफ तत्व-सेवन की भी व्यवस्था है। सस्ते दामों में खुदा बोतलों में बंद होकर मिलते हैं। दारुबाज़ मित्रों के लिए आनंद का उत्तम प्रबंद होगा।

तेजू शहर की कुल 211 दुकानों में से 47 लिकर शॉप थीं..।

माछ-भात खाने को आप सभी आमंत्रित हैं...शाकाहारियों के लिए भी व्यवस्था की जाएगी।