Thursday, December 25, 2014

पीकेः धर्म का मर्म तो अब लुल्ल एलियन ही समझाएगा


किसी फिल्म को देखने के दो नज़रिए होते हैं। अव्वल तो यह कि समाज में मौजूदा घटनाओं के बरअक्स कोई फिल्म अपनी जगह कहां रखती है। दोयम, अपनी क़िस्सागोई की शैली और क्राफ्ट में फिल्म ने क्या ज़मीन फोड़ी। इसके अलावा तीसरा नज़रिया यह है कि उस फिल्म ने कितना कारोबार कर लिया और इस लिहाज से उसका साल की हिट फिल्मों की फेहरिस्त में वह कहां है।

बॉलिवुड की तमाम फिल्में तीसरे किस्म की फिल्म होने में फ़ख्र महसूस करती हैं।

पीके के लिहाज से सोचें तो पहला और तीसरा नज़रिया सही होगा। रामपाल और आसाराम प्रकरण के बरअक्स इस कहानी ने सामयिकता के मसले पर अपनी वक़त दिखाई है।

कुछ और कहने से पहले यह कह दूं कि पीके में मुझे विषय का दोहराव नज़र आय़ा। ईमानदारी से कहा जाए तो धर्म के कारोबार के इस विषय को उठाने में उमेश शुक्ला बाज़ी मार गए। ओह माय गॉड, इस विषय पर बनी पहली उल्लेखनीय फिल्म है, जिसका कारोबार भी उम्दा रहा था।
पीके कथानक के स्तर पर ओएमजी का दोहराव है।

मैं पीके की तारीफ करना चाहता हूं, क्योंकि कि मैं इस विषय पर ज्यादा फिल्में देखना चाहता हूं। राजकुमार हीरानी संभवतया आमिर को केन्द्र में रखकर बेहतर शैली में उसी कहानी को कहने के अति-आत्मविश्वास के शिकार हो गए हैं। असल में पीके, ओएमजी की कहानी को सलीके से कहती है।

उमेश शुक्ला की ओएमजी एक बरबाद हुए कारोबारी के तर्कों के कमाल पर बुनी तो गई थी, लेकिन धर्म का मामला कुछ ऐसा नाजुक है कि तर्क के ऊपर आस्था ने कब्जा जमाया, और कृष्ण बने अक्षय कुमार को आखिर में अपने अस्तित्व को बताने के लिए चमत्कार करना ही पड़ा।

पीके में भी किसी दूसरे ग्रह से आए आमिर को मानना पड़ा कि भगवान तो है जरूर, हां ये बात और है कि उस तक हम अपनी बात गलत लोगों के ज़रिए लुल्ल तरीके से पहुंचा रहे हैं।

भारत ही नहीं दुनिया भर में धर्म का मसला इतना नाजुक है कि एक आम आदमी सीधे-सीधे सवाल पूछने की ताकत ही नहीं रखता। इसी के लिए भोजपुरी बोलने वाले हमारे हीरो को असल में एक एलियन होना पड़ता है।

सोचिए जरा, धर्म पर सवाल करने के लिए एलियन ही होना पड़ेगा। लेकिन जो सवाल पीके में आमिर पूछते हैं, वाजिब हैं या नहीं। मंदिर में चप्पल चोरी होने से लेकर, गाल पर भगवान का स्टिकर चिपकाने तक, चुटीले और छोटे संवादों के ज़रिए असली बात कही गई है।

फिल्म बड़ी समस्या का सरलीकरण है। यही इसकी खूबी भी है, और कमजोरी भी।

संगीत पक्ष सामान्य ही लगा मुझे। परफेक्शनिस्ट आमिर खान कई दफा मुझे उसी अंदाज में संवाद बोलते दिखे, जिस अंदाज में वो थ्री इडियट्स में बोलते थे।

अनुष्का कन्विशिंग लगीं। ओएमजी से एक तुलना और, टीवी चैनल और इंटरव्यू का ड्रामा दोनों में था। देखना होगा कि आइडिया के मसले पर उमेश शुक्ला (निर्देशकः ओएमजी) और हीरानी के बीच कोई समझौता हुआ था या नहीं।

हीरानी ने फिल्म के विषय का सरलीकरण किया, मैं इस फिल्म की कहानी का थोड़ा और सरलीकरण करते हुए कहना चाहता हूं।

मेरे खयाल से यह फिल्म किसी एलियन की नहीं है। इसका आमिर किसी और गोले से नहीं आया...वह इसी गोले के किसी ऐसे हिस्से से आया है, जहां गरीबी है, जहां से आने पर कोई चालाक आदमी उसका ताबीज जैसा रिमोट खींच ले जाता है। ठगा हुआ वह आदमी, सभ्य दुनिया की नजर में नंगा है क्योंकि ईमानदार है, क्योंकि वह झूठ बोलना नहीं जानता।

दिल्ली जैसे महानगर में घर वापस लौटने के उस रिमोट की तलाश में वह आता है, तो उसे धर्म की चाशनी मिलती है। उसका वह रिमोट किसी तपस्वी के कब्जे में है।

मीडिया की मदद मिलती है, लेकिन वह भी तपस्वी जैसों के त्रिशूल का दाग़ अपने चूतड़ पर लिए घूम रहा है।

लब्बोलुआब यह कि, पीके कुल मिलाकर कई बार देखी जाने लायक फिल्म है। लेकिन सिर्फ विषय के लिहाज से। क्राफ्ट, अभिनय या निर्देशन बाकी किसी चीज़ के हिसाब से इस फिल्म से राजकुमार हीरानी की छाप नदारद है।

वैसे भी, धर्म के बारे में फिल्म बनाने के लिए आपको सारा दोष किसी तपस्वी टाइप खलनायक पर डालना होगा। सीधे-सीधे धर्म की खाल तो किसी और गोले से आया एलियन भी नहीं कर सकता। आखिर निर्देशक कुशल कारोबारी है कोई लुल्ल बकलोल नहीं।