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Tuesday, April 4, 2023

पुस्तक समीक्षाः अभिषेक श्रीवास्तव की किताब कच्छ कथा बताती है कच्छ संस्कृति के बेशकीमती ब्योरे और सांप्रदायिक सौहार्द के अनसुने किस्से

बहुत सारे लोग कच्छ घूमने नहीं जा सकते. लेकिन अगर शब्दों के सफर पर कच्छ को देखना हो, तो अभिषेक श्रीवास्तव की एथ्नोग्राफिक यात्रा आख्यान ‘कच्छ कथा’ इसके लिए बिल्कुल मुफीद किताब है. कच्छ की धरती ने पिछली दो सदियों में कम से कम दो भीषण और भयावह भूकंपों का सामना किया है. और यह किताब उन भूकंपों के कच्छ की तहजीब पर पड़े प्रभावों को परत दर परत उधेड़ती है.

एक तरह से कहें तो आपने अगर 'कच्छ कथा' पढ़ी तो लेखक आपको एक ऐसी धरती के सफर पर लिए चलते हैं, जहां आप कभी गए नहीं और अगर गए हों तो केवल आवरण देखकर आए गए हों.

अभिषेक घुमंतू स्वभाव के पत्रकार हैं और पिछले एक दशक से ज्यादा वक्त के दौर में उन्होंने कई बार कच्छ की यात्रा की है और इस तजुर्बे के साथ वह कच्छ की सीवन उधेड़कर रख देते हैं. इस किताब में बारीक ब्योरे हैं, लोगों के बारे में विवरण है और ऐसी अनसुनी कहानियां हैं, जो मुख्यधारा में आता ही नहीं.

कच्छ का भूगोल सामने से कुछ नजर आता है लेकिन किताब जब ब्योरे देते हुए आग बढ़ती है तो आप उसमें खोकर एक नई दुनिया के सफर पर निकल पड़ते हैं. मानो अभिषेक आगे चल रहे हों और आप पीछे-पीछे.

पर अभिषेक ने सिर्फ कच्छ को देखा नहीं है. उनकी दृष्टि एकसाथ ही पैनोरेमिक और टेलीलेंसीय दोनो है. कच्छ कथा में कच्छ लॉन्ग शॉट में भी है और एक्स्ट्रीम क्लोज-अप में भी.


 

असल में, कई मंदिरों, दरगाहों, नमक के खेतों, मिथकों और मान्यताओं के जरिए लेखक ने इस किताब में न सिर्फ कच्छे के भूगोल को उकेरा है बल्कि उन्होंने उसका ऐतिहासिक और समाजशास्त्रीय विश्लेषण भी किया है.

संभवतया उनकी यह वैचारिक टेक है कि विकास को लेकर एक आम बहस में वह कच्छी अस्मिता या तहजीब या विरासत की चिंता को बारंबार सामने लाते हैं.

कच्छ कथा धोलावीरा के पुरातात्विक उत्खनन की पड़ताल करते हैं तो साथ ही लखपत के बारे में दिलचस्प ब्योरे देते हैं. नाथपंथी गुरु धोरमनाथ के बारे में अनजाने किस्से बटोरते हैं और फिर नमक के मजदूरों तक की बात करते हैं.

हिंदी किताबों के बारे में बात करते समय हमेशा भाषा के बारे में टिप्पणी की जाती है. ऐसे में, कच्छ कथा की भाषा प्रवाहमय है. ऐसा लगता नहीं कि लेखक लिख रहा है, ऐसा लगता है कि वह आपसे आमने-सामने बात कर रहा है. यह किताब की बहुत बड़ी शक्ति है.

दूसरी बात, किताब बात की बात में भारतीय संस्कृति की असली ताकत यानी इसकी समावेश संस्कृति की सीख देती चलती है. मसलन, किताब की शुरुआत में ही कच्छ के अंजार में हिंदू राजा पता नहीं किस सनक में अपनी प्रजा में सबको मुस्लिम धर्मान्तरित करने पर तुला था. लेकिन उसके खिलाफ फतेह मुहम्मद और मेघजी सेठ उठ खड़े हुए. राजा को कैद कर लिया गया और फिर कच्छ में बारभाया यानी बारह भाइयों के राज की स्थापना हुई. यह अपने किस्म का अलग ही लोकतंत्र था. इन बारह लोगों में हिंदू और मुस्लिम दोनों समुदायों के लोग थे.

कच्छ कथा में लेखक वहां के इस्मायली पंथ का ब्योरा भी देते हैं, जिसमें सतपंथी और निजारी हिंदू भी हैं और मुसलमान भी. अभिषेक लिखते हैं, “यह व्यावहारिक और आध्यात्मिक जीवन की विवशताओं और श्रद्धा से उपजा परिवर्तन था. जहां इस्माइली बनने के बाद व्यावहारिक जीवन में कुछ खास नहीं अपनाना होता था. बस हिजाब और साड़ी का फर्क है, बाकी सतपंथियों की दरगाहें आज भी एक ही हैं. यह एक ऐसा धार्मिक समन्वयवाद है जहां आपको ओम भी मिलेगा, स्वास्तिक भी मिलेगा, हिंदू नाम और पहचान भी मिलेगी लेकिन प्रार्थनाओं में फारसी और अरबी की दुआएं भी मिलेंगी.”

कच्छ कथा में कई ऐसे पीरों का जिक्र है जिनकी कहानी में एक लाचार बूढ़ी औरत होती है, और जिसके मवेशियों को डकैत उठा ले जाते हैं और उसकी मालकिन फरियाद लेकर पीर के पास पहुंचती है. पीर घोड़े पर बैठकर जाते हैं और औरत की गायों को बचाने के चक्कर में शहीर हो जाते है.

अभिषेक ऐसे बहुत सारे पीरों की जिक्र करते हैं लेकिन कम से कम दो पीरों की किस्से ऐसे हैं जिनका उल्लेख वह विस्तार से करते हैं. इनमें से एक हैं हाजी पीर और दूसरे हैं रामदेव पीर. रामदेव पीर की कहानी में पीड़ित स्त्री मुस्लिम है जबकि हाजी पीर के किस्से में महिला हिंदू है, जिसके गाय चुरा लिए गए हैं. हाजी पीर ने हिंदू स्त्री के मवेशी बचाते हुए शहादत दी और रामदेव पीर ने मुस्लिम स्त्री की गायें बचाते हुए जान दी और इसलिए स्थानीय समुदाय में पीरों का दर्जा पाए और पूजित हुए.

एक अन्य उल्लेखनीय मिसाल, एक महादेव मंदिर की दो बहनों का पुजारिन होना है. खासबात यह कि इस मंदिर के संरक्षण का जिम्मा मुस्लिमों के हाथ में है. वह गांव तुर्कों का ध्रब है. लखपत का गुरुद्वारा हिंदू परिवार चलाता था, और वहां के दरगाहों और मंदिरों के संरक्षण का काम वहां के हिंदू और मुस्लिम समुदाय के लोग मिलकर करते हैं.

कुल मिलाकर कच्छ कथा अपने खास वैचारिक झुकाव के बावजूद एक अवश्य पढ़ी जाने वाली किताब है जो न सिर्फ कच्छ की समस्या से, बल्कि कच्छ की एकदम अलहदा विरासत से भी आपको रू ब रू कराती है. पन्ने दर पन्ने यह किताब आपको कच्छ के सफर पर लिए चलती है.

हालांकि, आधी किताब के बाद अभिषेक एकरस भी होते हैं. खासकर तब, जब वह राजनैतिक समीकरणों और बाध्यताओं का जिक्र करते हैं लेकिन ऐसी किताबें आज के दौर में बेहद जरूरी हैं जो देश के बाकी हिस्से के लोगों को अपनी समृद्ध विरासत के बारे में बता सके.


किताबः कच्छ कथा

लेखकः अभिषेक श्रीवास्तव

प्रकाशनः राजकमल प्रकाशन

मूल्यः 299 पेपरबैक

Monday, December 12, 2022

पुस्तक समीक्षाः अजित राय की किताब बॉलीवुड की बुनियाद भारतीय सिनेमा का दस्तावेज है

भारत में सिनेमा पर गंभीर लेखन का चलन कम है. खासकर हिंदी में सिनेमा पर लेखन को ही गंभीर नहीं माना जाता है. लेकिन, कुछ किताबों को संदर्भ पुस्तकों की तरह हमेशा पढ़ा जाएगा और वरिष्ठ सिनेमा और सांस्कृतिक पत्रकार अजित राय की किताब ‘बॉलीवुड की बुनियाद’ उसी पाए की किताब है.

असल में, यह किताब इस बात को पन्ना-दर-पन्ना दर्ज करती जाती है कि आखिर आज हिंदी सिनेमा के जिस साम्राज्य के बारे में बोलकर, कहकर और सुनकर हम छाती फुलाते हैं, असल में उसके पीछे एक खास परिवार का योगदान था. यह बात अहम इसलिए भी है क्योंकि उस उद्योगपति ‘परिवार’ के किसी सदस्य ने इसका कभी कोई श्रेय लेने की कोशिश भी नहीं की.

बॉलीवुड की बुनियाद किताब के बारे में इसके फ्लैप पर बीबीसी के वरिष्ठ पत्रकार रेहान फजल लिखते हैं, “जिसे हम हिंदी सिनेमा का स्वर्ण युग कहते हैं, वह दुनियाभर में हिंदी फिल्मों की वैश्विक सांस्कृतिक यात्रा का भी स्वर्ण युग था. आज हिंदी फिल्में सारी दुनिया में अच्छा बिजनेस कर रही हैं, लेकिन इसकी बुनियाद 1955 में हिंदुजा बंधुओं ने ईरान में रखी थी. ईरान से शुरू हुआ ये सफर देखते-देखते सारी दुनिया में लोकप्रिय हो गया.”

आज हम फिल्मों के बायकॉट के दौर में हैं. और इन्हीं परिस्थितियों में ‘ब्रह्मास्त्र’ नामक फिल्म की पीआर एजेंसियां फ्लॉप के तमगे से बचने के लिए वैश्विक कारोबार का संदर्भ देती हैं. अगर कथित रूप से वैश्विक कारोबार में ब्रह्मास्त्र ने शानदार बिजनेस किया भी है, तो इसका श्रेय बेशक हिंदुआ बंधुओं का जाता है जिन्होंने पचास के दशक में हिंदी फिल्मों के विदेशों में प्रदर्शिन की व्यवस्था की. हैरतअंगेज बात यह भी है कि इन फिल्मों का प्रदर्शन उस ईरान से हुआ, जिसको आज इस्लामिक कट्टरता की भूमि कहा जाता है और जहां कड़ी परंपराओं के खिलाफ महिलाएं आंदोलनरत हैं.

यह किताब अंग्रेजी और हिंदी दोनों में आई है. अजित राय की इस किताब का बढ़िया अंग्रेजी अनुवाद मुर्तजा अली खान ने किया है और अंग्रेजी में इस किताब का नाम हिन्दुजा एंड बॉलीवुड के नाम से किया गया है.

यह किताब सिने-प्रेमियो के साथ ही सिनेमा के शोधार्थियों के लिए भी महत्वपूर्ण है. अजित राय खुद हिंदी के संभवतया इकलौते पत्रकार हैं जो कान फिल्म फेस्टिवल में रिपोर्टिंग के लिए जाते रहे हैं और उसपर लगातार लिखते रहे हैं.

असल में यह किताब हिंदी सिनेमा के वैश्विक विस्तार का दस्तावेज भी है. आज शायद ही किसी को इस बात का यकीन होगा कि करीबन पचास साल पहले राज कपूर की फिल्म ‘संगम’ जब फारसी में डब होकर ईरान में प्रदर्शित हुई तो यह फिल्म तीन साल तक और मिस्र की राजधानी काहिरा में एक साल तक चली.

महबूब ख़ान की ‘मदर इंडिया’ और रमेश सिप्पी की ‘शोले’ भी ईरान में एक साल तक चली. भारतीय उद्योगपति हिन्दुजा बन्धुओं ने 1954-55 से 1984-85 तक करीब बारह सौ हिंदी फिल्मों को दुनियाभर में प्रदर्शित किया और इस तरह बना ‘बॉलीवुड’.

यह किताब कई नई कहानियां और अंतर्कथाएं पेश करती है. एक तरह से यह भारतीय सिनेमा को दुनियाभर में ले जाने के हिंदुजा बंधुओं के उपक्रम का दस्तावेजीकरण है. बेशक, यह किताब अजित राय ने निजी अंदाज में लिखा है. यह पूरी किताब हिंदुजा बंधुओं के सिनेमा के योगदान पर घूमती है. यह कुछ-कुछ अजित राय के निजी संस्मरण जैसा भी है कि कैसे वह कॉन फिल्म फेस्टिवल में हिंदुजा बंधुओं के शाकाहारी डिनर में आमंत्रित किए गए, कैसे ब्रिटेन के सबसे अमीर आदमी रहे हिंदुजा उनके साथ मुंबई की सड़को पर ऑटो रिक्शा में सफर करने से भी नहीं हिचकिचाए.

इस किताब में, राज कपूर की शराबनोशी की लत का भी जिक्र सुनहरे वर्क में लपेटकर किया गया है कि राज कपूर के कैसे तेहरान की थियेटर से जेल की गाड़ी में बिठाकर निकालना पड़ा. और ऐसी एक फिल्म के बार में भी दिलचस्प किस्सा है कि जिसके प्रदर्शन के दौरान सिनेमा हॉल में दर्शक नमाज पढ़ने लगते थे. हिंदी फिल्मों को विदेशों में प्रदर्शित करने से पहले कैसे गोपीचंद हिंदुजा उसे खुद संपादित करवाकर छोटी करवा लेते थे, यह वाकया भी मजेदार है.

किताब फिलहाल हार्ड कवर में है और इसकी कीमत 395 रुपए है. विषय वस्तु के लिहाज से किताब जरूरी और अनछुए विषय पर है लेकिन किताब के अंदर की सजावट और अधिक बेहतर बनाई जा सकती थी. तस्वीरों को लगाते समय सौंदर्यशास्त्र (एस्थेटिक्स) का ख्याल नहीं रखा गया है.

बहरहाल, आज जब हर व्यक्ति सिनेमा के बारे में अपनी राय रखता है और ओटीटी के जमाने में लोगों के पास वैश्विक सिनेमा का कंटेंट उपलब्ध है, बॉलीवुड कैसे, बॉलीवुड बना यह जानना दिलचस्प है.

सिनेमा के विद्यार्थियों के लिए यह किताब अपरिहार्य है.

किताबः बॉलीवुड की बुनियाद

लेखकः अजित राय

प्रकाशकः वाणी प्रकाशन

कीमतः 395 रुपए (हार्ड कवर)





Thursday, June 25, 2020

पुस्तक समीक्षाः जन के खिलाफ लामबंद तंत्र का किस्सा है वैधानिक गल्प

यह वक्त, जिसे हम हड़बड़ियों में मुब्तिला लोगों का दौर कह सकते हैं, अधिकतर संजीदा लेखक या अप्रासंगिक होते जा रहे हैं या फिर समयबद्ध क्षरण का, विचारों को लंबे समय तक प्रासंगिक बनाए रखने के लिए उसका दस्तावेजीकरण जरूरी है. वैधानिक गल्प नामक उपन्यासिका इस कोशिश में खड़ी नजर आती है.


जमाना बदल गया है दुनिया के अधिकतर लोग सोशल मीडिया पर लिख रहे हैं और वहीं अपनी प्रतिबद्धताएं भी जाहिर कर रहे हैं. ऐसे वक्त में अधिकांश नवतुरिया लेखकों के सामने वह लड़ाई भी बची हुई है, जो जरूरी तो है पर सोशल मीडिया का क्षणभंगुर स्वरूप शायद उसको लंबे समय तो तक संजोकर नहीं रख पाए. ऐसे में जब दोनों पक्ष के लेखक अपनी विचारधाराओं की लड़ाई में ट्रोल्स की अवैधानिक भाषा का शिकार होते हैं, चंदन पांडेय वैधानिक गल्प के साथ पेश हैं.

यह वक्त, जिसे हम हड़बड़ियों में मुब्तिला लोगों का दौर कह सकते हैं, अधिकतर संजीदा लेखक या अप्रासंगिक होते जा रहे हैं या फिर समयबद्ध क्षरण का, विचारों को लंबे समय तक प्रासंगिक बनाए रखने के लिए उसका दस्तावेजीकरण जरूरी है. वैधानिक गल्प नामक उपन्यासिका इस कोशिश में खड़ी नजर आती है. 

वैधानिक गल्प का कवर

यह किताब, एक किस्से से शुरू होती है. यह कथा एक मशहूर लेखक के केंद्रीय पात्र उसकी पूर्व प्रेमिका और उसके आदर्शवादी पति की है. उपन्यास की कथाभूमि आज का दौर ही है, जब व्यवस्था का अर्थ पुलिसिया राज है, जब हमारे इर्द-गिर्द एक किस्म का जाल बुना गया है, जिसमें राजनेता हैं, जिसमें कानून है, जिसमें मीडिया भी है. और केंद्रीय पात्र लेखक है, जो खुद अपनी पत्नी के अधिकारी भाई के सामने हीनताबोध से ग्रस्त तो है ही, पर साथ में सुविधाजनक रूप से लिखाई भी कर रहा है. कंफर्ट जोन में रहकर लिखना उसकी नई सुविधा है.

उपन्यासिका के पहले बीसेक पन्नों में हमें लगता है कि चंदन पांडे शायद लव जिहाद की बात कर रहे हैं जिसमें उसकी प्रेमिका एक मुस्लिम शिक्षक से विवाह कर लेती है. फिर, धीरे-धीरे शिक्षा व्यवस्था में बैठे तदर्थवाद की झलक मिलती है, और फिर अगर आप रफीक में सफदर हाशमी की झलक देखते हैं तो क्या ही हैरत!

वैधानिक गल्प वैचारिक भावभूमि पर खड़े होकर किस्से को प्रतिबद्ध तरीके से कहन का तरीका है. वैसे, गुस्ताखी माफ, पर यह किताब आर्टिकल 15 की कतार में है, जिसमें चाहे-अनचाहे एक फिल्म की संभावना संभवतया लेखक ने देखी होगी. अगर इस विषय पर फिल्म बनती है तो यह फिल्म माध्यम के लिए बेहतर ही होगा, क्योंकि वैधानिक गल्प का विषय हमारे वक्त की एक जरूरी बात है. ये और बात है कि इस उपन्यास का अंत, फिल्मी नहीं है और बेहद यथार्थपरक होना किसी निर्देशक को भा जाए, निर्माता के लिए मुफीद नहीं होगा.

पर, पांडेय का शिल्प निश्चित रूप से उनको नवतुरिया और समतुरिया लेखकों की कतार में अलग खड़ा करता है. उनकी भाषा समृद्ध है और वे कहीं से भी अपनी बात थोपते नजर नहीं आते हैं. हां, रफीक की डायरी के गीले पृष्ठों का ब्योरा खटकता जरूर है और थोड़ा बोझिल है, पर वह बेचैन करने वाला हिस्सा है

वैधानिक गल्प मौजूदा वक्त में लिखे जा रहे राजनैतिक कथाओं में प्रभावशाली उपस्थिति दर्ज कराती है. लेखक को राजनीति के तहों की जानकारी है और उन्होंने अपनी रचना में इसे बखूबी निभाया भी है.

इस उपन्यास में हिंदू पत्नी और मुस्लिम पति, यानी लव जिहाद का जो शक आपको होता है, उपन्यास के मध्य में जाकर स्थानीय पत्रकार उसे मुद्दा बनाता भी है. पूरी किताब में ऐसी कई सारी घटनाएं हैं जिनसे आपको वास्तविक जीवन में और सियासत में घट रही घटनाओं का आभास मिलेगा. चाहे किसी छात्र का गायब हो जाना हो, चाहे एडहॉक शिक्षकों का मसला हो, चाहे वीडियो को संपादित करके उससे नई साजिशें रचने और किस्से गढ़ने का मसला हो, सड़े-गले तंत्र के बारे में आपको आभास होगा कि वाकई यह सड़ा-गला नहीं है. जन के खिलाफ एक मजबूत तंत्र के लामबंद होने का किस्सा हैः वैधानिक गल्प.

वैधानिक गल्प हमारे समय के यथार्थ को उघाड़कर रख देता है. पर इसके साथ ही अगर वैचारिक भावभूमि की बात की जाए, तो आपको यकीन हो जाएगा कि पांडे की यह किताब खालिस किस्सागोई नहीं है आपको महसूस होगा कि लेखक एक विचारधारा से प्रभावित हैं और यह उपन्यास उसके इर्दे-गिर्द बुनी गई है.

पर उपन्यासकार के तौर पर चंदन पांडे ने कोई हड़बड़ी नहीं बरती है. भाषा और शिल्प के मसले पर बड़े जतन किए गए हैं और वह दिखता भी है. सतही और लोकप्रिय लेखन के दौर में पांडे उम्मीद जगाते हैं और आश्वस्ति प्रदान करते हैं.

वैधानिक गल्प उपन्यास ही नहीं एक दस्तावेज भी है.

किताबः वैधानिक गल्प (उपन्यास)

लेखकः चंदन पांडेय

कीमतः 160 रुपए

प्रकाशकः राजकमल प्रकाशन

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Saturday, April 25, 2020

पुस्तक समीक्षाः विधाओं से परे अनहद रचनात्मकता की मिसाल है ग्लोब से बाहर लड़की

प्रत्यक्षा की किताब 'ग्लोब के बाहर लड़की' को विधाओं के खांचे में नहीं बांधा जा सकता है. पर इसको पढ़कर आप प्रत्यक्षा के रचना संसार में विचर सकते हैं जहां की दीवारें पारदर्शी हैं. यह किताब रचनात्मकता के एक नए अंदाज का आगाज है, जिसको आने वाले वक्त में कई लेखक आगे बढ़ा सकते हैं.

आप जब कोई किताब उठाते हैं तो अपनी विधा के लिहाज से पढ़ने के लिए चुनते हैं. विधाएं, यानी कथा या कथेतर. पर, कोई किताब जब न कथा की श्रेणी में आए और न ही कथेतर की श्रेणी में, फिर यह कहा जाए कि इस किताब को पढ़ना सृजनात्मकता में गदगद कर देने वाला अनुभव हो तो?




प्रत्यक्षा की किताब या ज्यादा बेहतर होगा उनकी सृजनात्मकता का आईना 'ग्लोब के बाहर लड़की' ऐसी ही एक किताब है. यह शब्दों और कूचियों दोनों से रचे गए रेखाचित्रों और शब्द-चित्रों का संग्रह है. इस किताब में शब्दों की बिनाई और तानाबाना एकदम बारीक है. इसे सृजनात्मकता का आईना इसलिए कहना सर्वथा उचित है क्योंकि इस किताब में बीसेक रेखांकन भी हैं और वह भी प्रत्यक्षा की कूची से निकले हैं.

'ग्लोब के बाहर लड़की' को पढ़ना शुरू करते ही लगता है कि यह छोटी कथाओं का संग्रह है, कुछ आगे बढ़ने पर यह डायरी की प्रविष्टियों सरीखा लगता है, और कहीं कहीं से ये उधर-उधर लिखे नोट्स जैसे लगते हैं.

किताब की शुरुआत में एक पन्ने की छोटी सी भूमिका में प्रत्यक्षा खुद कहती हैं कि ये ‘सतरें दिल की बहकन’ हैं.

इनको न आप कविता कह सकते हैं, न कहानी, न कथा, न यात्रा, न डायरी. पर ऐसा लगता है ब्लॉगिंग की लोकप्रियता के दौर में प्रत्यक्षा ने अपने ब्लॉग पर जो प्रविष्टियां डाली थीं उनको हार्ड कॉपी में उतारा है. पर आपको इसमें बासीपन नजर नहीं आएगा.

जहां वह गद्य लिखती हैं उनमें कविताओं जैसा प्रवाह है और जहां कविता है वहां गद्य जैसी दृढ़ता है. उन्होंने विधाओं का पारंपरिक अनुशासन तोड़कर ऐसी अभिव्यक्ति रची है जिसमें कविता की तरलता भी है और गद्य की गहनता भी. इसे गद्य कविता जैसा कह सकते हैं, पर इस लेखन में गद्य कविता जैसी भावुकता नहीं है.

उनके रचना का स्थापत्य भी कोई सोचा-समझा नहीं है, थोड़ा अनगढ़-सा है. इतना अनगढ़ कि पाठक शब्दों को इस तरह कुलांचे भरता देखकर थोड़ा हैरान भी होगा.

'ग्लोब के बाहर लड़की' में चार खंड हैं. पहले खंड, 'ये जो दिल है, दर्द है कि दवा है' में यदा-कदा अंग्रेजी (और रोमन) के नोट्स दिख जाते हैं. दूसरा खंड, 'घर के भूगोल का पता' है. यह कमोबेश डायरीनुमा है. और इसमें आपको थोड़ा संदर्भ भी मिलता जाता है. तीसरा खंड, 'किस्से करमखोर' है जिसमें कुछ किस्सागोई-सा है. चौथे खंड 'दोस्त दिलनवाज' में प्रत्यक्षा अपने पहले तीन खंडों के मुकाबले अधिक मुक्त होकर लिखती दिखती हैं.

असल में, प्रत्यक्षा के रचना संसार में घूमने का तजुर्बा भी अलग आस्वाद देता है. इसमें ढेर सारे लोग हैं जो बकौल प्रियदर्शन, ‘कसी हुई रस्सी से बने हैं, जहां ढेर सारे लोग बिल्कुल अपनी जि़ंदा गंध और आवाज़ों-पदचापों के साथ आते-जाते घूमते रहते हैं.’

हिंदी में इन दिनों धड़ाधड़ किताबें छप रही हैं, कुछेक उपन्यासों और लेखकों को छोड़ दें, तो अधिकतर किताबों के कथ्य और शिल्प विधान में कोई नयापन नहीं है. इस मायने में प्रत्यक्षा का यह संग्रह थोड़ा अलहदा भी है और विलक्षण भी. 'ग्लोब के बाहर लड़की' पाठक को वह नया जायका दे सकती है.

प्रत्यक्षा ने एक नई विधा की शुरुआत की है और हो सकता है आने वाले वक्त में हमें ऐसी और किताबें देखने को मिलें

किताबः ग्लोब के बाहर लड़की

लेखिकाः प्रत्यक्षा

प्रकाशकः राजकमल पेपरबैक्स

कीमतः 160 रुपए

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Monday, February 17, 2020

पुस्तक समीक्षाः बुढ़ापे में जीवन प्रबंधन की उम्दा गाइड

अगले एक दशक में भारत में बुजुर्गों की संख्या आज से कहीं अधिक होने लगेगी. न्यक्लियर परिवारों की वजह से समाज में बुुजर्गों का दखल कम हुआ है ऐसे में बीमारियों और तमाम दुश्वारियों के प्रबंधन सुझाने के लिहाज से एम्स के डॉ. प्रसून चटर्जी की किताब उम्दा गाइड सरीखी है

बुढ़ापे के बारे में कहा गया कि जीवन संध्या में आकर इंसान खुद बच्चा हो जाता है और उसे बच्चों जैसी ही देखभाल की जरूरत होती है. और अमूमन बुजुर्गों को भारतीय समाज में धर्म-कर्म-ईमान की तरफ मोड़ दिया जाता है. ऐसे में, अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) के गेरियाट्रिक मेडिसिन विभाग (ऐसी दवाइयां जो बुढापे से जुड़ी हों) के डॉक्टर प्रसून चटर्जी ने एक उम्दा किताब लिखी है, जिसका नाम है हेल्थ ऐंड वेल बीइंग इन लेट लाइफः पर्सपैक्टिव्स ऐंड नैरेटिव्स फ्रॉम इंडिया.

सबकी बड़ी बात कि यह किताब ओपन एक्सेस है. किताब पर मूल्य अंकित नहीं है और यही बात इस किताब के प्रकाशन को अमूल्य बनाती है. 
डॉ. प्रसून चटर्जी की किताब का कवर. फोटोः मंजीत ठाकुर


वैसे सचाई यही है कि बढ़ती उम्र को आगे बढ़ते जाने से रोका नहीं जा सकता, लेकिन इसे खूबसूरत और स्वस्थ जरूर बनाया जा सकता है. एम्स, दिल्ली के डॉक्टर प्रसून चटर्जी ने अपनी पुस्तक में बताया है कि कैसे आप वृद्धावस्था में प्रसन्न रह सकते हैं. इस किताब में कई कहानियां हैं जो कि प्रेरणा से भरपूर है.

डॉ. चटर्जी की किताब हेल्थ ऐंड वेल बीइंग इन लेटलाइफः पर्सेपेक्टिव्स ऐंड नैरेटिव्स फ्रॉम इंडिया में इस बात का उल्लेख किया है कि कैसे आप अपने जीवन को सक्रियता से भर सकते हैं. इस किताब में ऐसे किस्से हैं जिन्हें पढ़कर आप खुद को उससे जोड़ पाएंगे. इन कहानियों के किरदार ऐसे हैं जो अपनी शारीरिक एवं सामाजिक चुनौतियों के बावजूद अपने जीवन का पूरा आनंद ले रहे हैं. इस किताब में कुल दस अध्याय हैं.

किताब के ये दस अध्यायों में पहला फ्रैलिटी पर है. यानी बढ़ती उम्र के साथ मनोवैज्ञानिक रूप से आ रहे ढलान पर. डॉ. चटर्जी विस्तार से बताते हैं कि इससे निबटा कैसे जाए. इसके साथ ही, भूलने की आदत और यादद्धाश्त का कम होते जाने जैसे बुढ़ापे के सामान्य मर्ज पर एक पूरा अध्याय है.



अगर आपको बुढ़ापे में कब्ज पर बने पीकू जैसी फिल्म की याद है तो एक पूरा अध्याय कब्ज की समस्या पर है. इसके साथ ही, कैंसर और स्ट्रोक जैसे वृद्धावस्था के तमाम पहलुओं पर बात की गई है. लेखक ने कई तरह की भ्रांतियों को भी दूर करने की कोशिश की है जैसे वृद्धावस्था का दूसरा नाम संन्यास नहीं है. साथ ही किताब में यह भी बताया गया है कि बढ़ती उम्र में उन्हें कब और किन चीज़ों का इलाज कराना चाहिए, और कब नहीं.

किताब का आठवां अध्याय यौन स्वास्थ्य पर आधारित है. यह एक ऐसी समस्या है जिसमें पूरे उप-महाद्वीप में बातचीत से बचा जाता है. ऐसे में यह किताब एक जरूरी किताब बन जाती है.

वैसे डॉ. चटर्जी की यह किताब उनकी कई पहलों का एक पहलू भर है. वह समाज को बेहतर बनाने की जिद के चलते नित नए-नए प्रयोग करते रहते हैं. उनकी ही प्रेरणा से नोएडा के सेक्टर-12 के पूर्व माध्यमिक विद्यालय में इंटर जनरेशनल लर्निंग सेंटर (आइजीएलसी) इस मुहिम को साकार रूप देने में लगा है. उनके इस संकल्प को आगे बढ़ाने में सरकारी सेवा से रिटायर हुए कुछ लोग भी शामिल हैं.

जाहिर है, भारत में जहां जीवन-संध्या में आकर लोग हिम्मत हारने लगते हैं वहां यह किताब एक रोशनी की तरह काम करेगी. खासकर यह और महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि अगले एक दशक में हम अपने डिमोग्राफिक डिविडेंड में से बुढाते हुए लोगों की बढ़ती संख्या देखेंगे. समाज में जिस तरह से न्यूक्लियर परिवारों का चलन बढ़ा है और परिवार नाम की संस्था में बुजुर्गों का दखल कम हुआ है, ऐसे में यह किताब मौजूदा बुजुर्गों और भावी बुजुर्गों के लिए बेहतरीन साबित होगी. फिलहाल, यह किताब अंग्रेजी में है और इसका हिंदी संस्करण अधिक लोगों तक एक अच्छी बात पहुंचा सकेगा.किताबः हेल्थ ऐंड वेल बीइंग इन लेट लाइफः पर्सपेक्टिव्स ऐंड नैरेटिव्स फ्रॉम इंडिया

लेखकः डॉ. प्रसून चटर्जी

कीमतः ओपन एक्सेस (कीमत का उल्लेख नहीं)

प्रकाशकः स्प्रींगर ओपन

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Wednesday, January 22, 2020

पुस्तक समीक्षाः एक थे फूफा में उपन्यास होने की संभावना है

एक थे फूफा, एक फूफा का रसदार ब्यौरा है जो एकदम भदेस किरदार हैं, और अस्पष्ट से ब्यौरों के बीच उनके बचपन से लेकर उनके हैं से थे होने का सफर पूरा होता है. 32 पृष्ठों की इस किताब में उपन्यास होने की संभावना है


पुरातत्व विशेषज्ञ और संस्कृतिकर्मी कई दफा समाज की नब्ज पकड़ने वाला हो तो इसका असर उसकी भाषा पर पड़ना लाजिम सा लगता है. ऐसे ही हैं छत्तीसगढ़ के पुरातत्व विशेषज्ञ और संस्कृतिकर्मी राहुल कुमार सिंह. उनकी पतली सी कितबिया है एक थे फूफा, जो लंबी कहानी या रेखाचित्र सरीखी है और उसमें एक बढ़िया उपन्यास का शानदार कथ्य और शैली तो है ही, संभावना भी है.

बहुत मुमकिन है कि राहुल कुमार सिंह अपने पाठकों की नब्ज टटोल रहे हों.



राहुल कुमार सिंह की किताब एक थे फूफा का कवर
महज 32 पृष्ठों और 50 रुपए कीमत वाली यह किताब आप एक ही बैठक में खत्म कर देंगे. वजह इसका आकार नहीं है, वजह है फूफा का रसदार ब्यौरा. फूफा एकदम भदेस किरदार हैं, और अस्पष्ट से ब्यौरों के बीच उनके बचपन से लेकर उनके हैं से थे होने का सफर पूरा होता है. असल में किताब की पहली पंक्ति है, एक थे फूफा (और यही शीर्षक भी है) और साथ ही में यही किताब की आखिरी पंक्ति भी है.

गांवों-कस्बों से ताल्लुक रखने वाले पाठक फूफा जैसे किरदारों से मिले जरूर होंगे और जाहिर है, फूफा से उनका जुड़ाव भी पन्ना-दर-पन्ना बढ़ता जाएगा.

फूफा समझिए गांव के रसिक व्यक्ति हैं जो पंचायत में पंच की कुरसी पर बैठते हैं, आस-पड़ोस की खबर रखते हैं. बचपन से कुशाग्र रहे हैं और दादाजी के बाद जायदाद की साज-संभाल में सत्ता हस्तांतरण पिता को शामिल किए बिना खुद कूद कर ताज हथिया लेते हैं. उनके जगत फूफा होने में कहीं कोई संदेह नहीं.

उनके पास जिंदगी का खासा तजुर्बा है और वह इस कदर है कि बैठे-ठाले जीवंत किस्से गढ़कर 'सच की लय' में सुना दें.
पर फूफा का 'फू-फा' और 'फूं-फा' और इसी तरह के अन्य शाब्दिक खिलवाड़ रोचक है, जिस तरह फूफा का अपने अधिकारों के प्रति सचेत होना 'जागते रहो' फिल्मप देखकर और पारिवारिक मिल्कियत हाथ में लेना 'लैंडलार्ड' धोती पहनते हुए.

भाषा में रवानगी तो गजब है पर छत्तीसगढ़ी भाषा की वजह से आंचलिकता का यह पुट कुछ अधिक होने पर अखरता भी है. पर, छत्तीसगढ़ के पाठकों को इसमें रस मिलेगा, अपनत्व भी.

एक थे फूफा में बीड़ी (किताब में बिड़ी) का सविस्तार और सप्रसंग विवरण है और इतना बारीक है कि ऐसी मिसाल सिर्फ एक जगह और मिलती है, वह है ज्ञान चतुर्वेदी की बारामासी. पर वहां बुंदेलखंड का ब्यौरा है, यहां छत्तीसगढ़िया तहजीब का. पर, एक थे फूफा में बीड़ी को सजाने और इसको पीने की परंपरा का अगली पीढ़ी तक जाने का ब्यौरा वाकई कमाल है.

कहानी अमूमन एकरेखीय नहीं है. यह कई पाठकों को भटका सकता है पर रसरंजन के शौकीनों के लिए अलग किस्म का शिल्प का मजा साबित हो सकता है. कुल मिलाकरः गागर में सागर, जिसमें एक उपन्यास होने की पूरी संभावना है.

किताबः एक थे फूफा
लेखकः राहुल कुमार सिंह
कीमतः 50 रुपए
प्रकाशकः वैभव प्रकाशन

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Wednesday, November 6, 2019

सिनेमाई नाटकीयता से भरपूर है कुशल सिंह की किताब लौंडे शेर होते हैं

किताबों और कहानियों के शीर्षक इन दिनों ऐसे हैं कि आप सहज ही आकर्षित होकर किताबों की विंडो शॉपिंग के लिए तैयार हो जाएं. ऐसा लगता है कि हल्की हिंदी पढ़ने के शौकीन नौजवानों के लिए ही यह उपन्यासिका 'लौंडे शेर होते हैं' कुशल सिंह ने लिखी है. 


आप चाहे लाख हिंदी साहित्य का मर्सिया पढ़ दें, पर जिस तरह से किताबें बड़ी संख्या में प्रकाशित हो रही हैं और उनको एक हद तक पाठक भी मिल रहे हैं उससे लगता है कि मौजूदा दौर हिंदी किताबों के प्रकाशन और मार्केटिंग के लिहाज से स्वर्ण युग न भी हो, रजत युग तो जरूर है.

इसी कड़ी में लेखक कुशल सिंह की उपन्यासिका है, लौंडे शेर होते हैं. किताबों और कहानियों के शीर्षक इन दिनों ऐसे हैं कि आप सहज ही आकर्षित होकर किताबों की विंडो शॉपिंग के लिए तैयार हो जाएं. ऐसा लगता है कि हल्की हिंदी पढ़ने के शौकीन नौजवानों के लिए ही यह उपन्यासिका कुशल सिंह ने लिखी है. 

कुशल सिंह की उपन्यासिका लौंडे शेर होते हैं. फोटोः मंजीत ठाकुर


कुशल सिंह मूलतः इलाहाबाद (अब प्रयागराज) के हैं और स्नातक स्तर पर इन्होंने इंजीनियरिंग की पढ़ाई की है. कुशल सिंह की साम्यता सिर्फ इंजीनियरिंग तक ही चेतन भगत के साथ नहीं है, इसके बाद उनने प्रबंधन में परा-स्नातक यानी एमबीए भी किया है. हैरत नहीं कि कोल इंडिया में मार्केटिंग में नौकरी करने वाले कुशल सिंह ने बड़ी कुशलता से, किताब का शीर्षक रखने से लेकर, किताब का कंटेंट तय करने तक बाजार का खास खयाल रखा है. और यहां भी चेतन भगत के साथ उनकी खास साम्यता बरकरार रखती है.

असल में, इस दौर में, जब हिंदी साहित्य में कई नवतुरिए हिंदी का चेतन भगत बनने की जुगत में हैं, कुशल सिंह भी इस कुरसी के लिए मजबूत दावा पेश करते हैं. खासकर, जिस हिसाब उनकी यह किताब बिक रही है उससे तो यही लगता है.

इस उपन्यासिका की प्रस्तावना में कुशल सिंह साफ करते हैं, जो कि हालिया चलन के एकदम करीब भी है, कि इस उपन्यासिका में वर्णित कहानियों में कोई साहित्य नहीं है. यह विनम्रता है या पाठकों के लिए चेतावनी, यह तो कुशल खुद ही बता पाएंगे. पर वह अगली पंक्ति में यह भी साफ करते हैं कि इस उपन्यासिका में कोई विचार-विमर्श भी नहीं है. इसका एक अर्थ यह भी पकड़िए कि पढ़ते वक्त आपको खालिस किस्से ही पेश किए जाएंगे.

वे लिखते हैं, दुनिया में वैसे ही बहुत ग़म हैं, इसलिए मैंने आपके लिए हंसी के हल्के-फुल्के पल बुने हैं. प्रस्तावना इस बात और उम्मीद के साथ खत्म होती है कि शायद पाठकों के अंदर लौंडाई बची रही होगी.

किताब का ब्लर्ब कहता हैः क्या होगा जब कैरियर की चिंता में घुलते हुए लड़के प्रेम की पगडंडियों पर फिसलने लग जाएँ? क्या होगा जब डर के बावजूद वो भानगढ़ के किले में रात गुजारने जाएँ? क्या होगा जब एक अनप्लांड रोड ट्रिप एक डिजास्टर बन जाए? क्या होगा जब लड़कपन क्रिमिनल्स के हत्थे चढ़ जाए?

‘लौंडे शेर होते हैं’ ऐसे पांच दोस्तों की कहानी है जो कूल ड्यूड नहीं बल्कि सख्त लौंडे हैं. ये उन लोगों की कहानी है जो क्लास से लेकर जिंदगी की हर बेंच पर पीछे ही बैठ पाते हैं. ये उनके प्रेम की नहीं, उनके स्ट्रगल की नहीं, उनके उन एडवेंचर्स की दास्तान है जिनमें वे न चाहते हुए भी अक्सर उलझ जाते हैं. ये किताब आपको आपके लौंडाई के दिनों की याद दिलाएगी. इसका हर पन्ना आपको गुदगुदाते हुए, चिकोटी काटते हुए एक मजेदार जर्नी पर ले जाएगा.

सवाल यही है कि पांच सख्त लौंडो (यह शब्द आजकल काफी चलन में है, खासकर स्टैंडअप कॉमिडियन जाकिर खान के वीडियो पॉपुलर होने के बाद से) की इस कहानी में किस्सागोई कितनी है और उनके लड़कपन की कहानियों से आप खुद को कितना कनेक्ट कर पाते हैं.

ट्रेन में सफर करते वक्त समय काटने के लिहाज से अगर आप यह किताब पढ़ेंगे तो समय ठीक बीतेगा. लेकिन सावधान, इसमें साहित्य के मोती न खोजिएगा. बाज़दफा, इस उपन्यासिका में कहानी बी ग्रेड की फिल्मों सरीखी हो जाती है और इसका अंत भी उतना ही अति नाटकीय है. ऐसा लगता है कि लेखक कहानी को बस खत्म करने की फिराक में है.

पर कुशल सिंह ने शुरुआत की है तो हिंदी जगत में उनका स्वागत होना चाहिए. यह उनकी पहली किताब है. दिलचस्प होगा यह देखना कि अपनी अगली किताब में कुशल सिंह अपने सिनेमाई ड्रामे को अधिक मांजकर पेश करते हैं या फिर साहित्य में लेखकीय कौशल हासिल करने की कोशिश करते हैं.

किताबः लौंडे शेर होते हैं (उपन्यास)
लेखकः कुशल सिंह
प्रकाशनः हिंद युग्म
कीमतः 150 रु.

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Tuesday, October 29, 2019

चिरकुट दास चिन्गारीः नई हिंदी के अलहदा तेवर

वसीम अकरम का यह उपन्यास नई हिंदी को नए तेवर दे रही है. इसमें देशज शब्दों का धुआंधार और सटीक इस्तेमाल है जो नई हिंदी की बाकी बिरादरी से इस किताब को अलहदा जगह और ऊंचाई पर खड़ी करती है.

हम सबमें, कम से कम हिंदी पट्टी वालों के भीतर एक गांव जिंदा है. शहरी जिंदगी के भागमभाग में अगर हम सबसे अधिक कुछ छूटता और फिसलता-सा महसूस करते हैं तो वह है हमारा गांव, जिसे हम आगे बढ़ने के लिए कहीं पीछे छोड़ आए थे. पर, हम अपने गांव को अब भी वैसा ही देखना चाहते हैं जैसा हमने छोड़ा था. शहर में हम गांव को 'मिस' करते हैं और गांव जाकर जब उसको बदलता हुआ और शहरी ढब का होता हुआ देखते हैं तो फिर एक नई कसक लेकर लौटते हैं. वसीम अकरम के उपन्यास 'चिरकुट दास चिन्गारी' को पढ़ना इसी कसक को किताब की शक्ल में देखने सरीखा है. 
वसीम अकरम की किताब चिरकुट दास चिन्गारी. फोटोः मंजीत ठाकुर 
वसीम अकरम पेशे से पत्रकार हैं और मिजाज से लेखक, ऐसे में पत्रकारीय नजर और लेखकीय मुलायमियत के साथ उन्होंने जो उपन्यास लिखा है, वह आपको अंदर तक छूता है. मुझे यह कहने में गुरेज़ नहीं है कि 'चिरकुट दास चिन्गारी' पढ़ते समय मुझे यह कई दफा लगा कि उपन्यासकार डॉ. राही मासूम रजा के 'आधा गांव' के असर में है.

अकरम के उपन्यास में हर किरदार जिंदा नजर आता है. परिदृश्य सिरजने में, गांव की तस्वीर पन्नों पर उकेरने में अकरम सिनेमा देखने जैसा अनुभव देते हैं. इसमें कुछ गजब भी नहीं क्योंकि अकरम खुद फिल्मकार भी हैं. ऐसे में, आपको लगता है कि पन्नों पर लिखे अल्फाजों से माटी की खुशबू आ रही हो.

किरदार रचने में संवादों की गंवई शैली एकदम वैसी ही है, जैसे पात्र आपस में बोलते होंगे. असल में एक किरदार रचने के बाद हम उसे कॉलर पकड़कर नहीं चला सकते. किरदारों के नाम भी वैसे ही हैं, जैसे गांवों में होते हैं. मंगरुआ, अंड़वा, टंड़वा...आपको सब पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के गांवों के लोगों के नामों जैसे लगेंगे. और उनके मुंह से गालियों की बौछार, उनके अपने देशी तकियाकलामों के साथ. थोड़ी देर तक यह उपन्यास आपको इमली को गुड़ की भेली के साथ खाने का मजा देगा.

अपने लेखकीय में अकरम पहले ही आगाह करते हैं कि उपन्यास में भाषा के भदेस होने के साथ कुछ गालियां हैं, निवेदन है कि गालियों को वहां से हटाकर न पढ़ें नहीं तो उपन्यास की ज़बान कड़वी हो जाएगी. और फिर आप मानसिक रूप से घटिया गालियों के लिए तैयार हो जाते हैं. पर पन्नों में गालियां कब आती हैं, और आप संवादों के साथ उसको हजम कर जाते हैं, आपको पता भी नहीं चलता. इतने स्वाभाविक ढंग से गालियों को निकाल ले जाना, यह अकरम की कला है.

उपन्यास ‘चिरकुट दास चिन्गारी’ की भाषा बहुत ही सरल-सहज और गंवई शब्दावलियों से भरी हुई है. यही नहीं, वसीम अकरम ने कुछ ऐसे नए शब्द-शब्दावलियों के साथ कई मुहावरे भी रच डाले हैं. ‘सालियाना मुस्कान’, ‘यदि मान ल कि जदि’, ‘नवलंठ’, ‘पहेंटा-चहेटी’, ‘चिरिक दें कि पलपल दें’, ‘चुतरचहेंट’, ‘रामरस’, ‘परदाफ्फास’, ‘बलिस्टर’, ‘लतुम्मा एक्सप्रेस’, ‘फिगरायमान’, ‘इक्स’, ‘लौंडियास्टिक’, ‘गलती पर सिंघिया मांगुर हो जाना’, ‘कान्फीओवरडेंस’, ये सारे अल्फाज आपको गांवों की सैर पर लिए चलते हैं.

लेकिन, दिक्कत यह है कि उपन्यास में कोई एक केंद्रीय कथा नहीं है. एक गांव है जिसमें कई सारी जगहों पर कई कहानियां होती हैं, घटनाएं होती हैं. आप इससे थोड़ा विचलित हो सकते हैं. आखिर, कथा तत्व में खासकर उपन्यास में एक केंद्रीय पात्र और उसके आसपास सहायक पात्र होने चाहिए. कथा में केंद्रीय रूप से कॉन्फ्लिक्ट की कमी खलती है.

आंचलिकता भरी भाषा के लिए संवादों में आंचलिकता का प्रयोग दाल में हींग के छौंक की तरह होती है लेकिन अगर ज्यादा हींग में कम दाल डालें तो क्या उससे जायका आएगा? शुरु के पन्नों में अकरम अपने ही गढ़े कुछ शब्दों पर रीझे हुए लगते हैं और, मिसाल के तौर पर 'नवलंठ', उनका बारंबार इस्तेमाल करते हैं. इससे पाठक थोड़ा चिढ़ सकता है. दूसरी बात, कथाक्रम में संवादों के अलावा जब भी जरूरत से अधिक भदेस शब्दों का इस्तेमाल होता है वह भोजपुरी से अनजान या कम परिचित पाठकों के लिए बोझिल भी हो सकता है.

लेकिन, अकरम की यह किताब रोमन में अंग्रेजी शब्दों के इस्तेमाल वाली आजकल की नई हिंदी को नए तेवर दे रही है. नए तेवर इस अर्थ में कि इसमें देशज शब्दों का धुआंधार इस्तेमाल है जो नई हिंदी के बाकी बिरादरी से इस उपन्यास को अलहदा जगह और ऊंचाई पर खड़ी करती है. अब इंतजार अकरम की अगली किताब का होगा कि आखिर वह अपनी इस भाषा की चमक अपने अगले उपन्यास में बरकरार रखते हैं या नहीं.

किताबः चिरकुट दास चिन्गारी (उपन्यास)
लेखकः वसीम अकरम
प्रकाशकः हिंद युग्म प्रकाशन, दिल्ली
कीमतः 125 रुपये (पेपरबैक)

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Friday, October 18, 2019

मीडिया के नए चलन पर बारीक निगाह का दस्तावेज है साकेत सहाय की किताब

आज के दौर में पत्रकारिता के छात्र ही नहीं, मीडिया को नजदीक से जानने की इच्छा रखने वाले हर शख्स के लिए इस किताब को पढ़ना एक नई दृष्टि हासिल करने जैसा अनुभव होगा. 

यह मानी हुई बात है कि संस्कृति निर्माण की प्रक्रिया में भाषा की जितनी भूमिका रही है उतनी ही संचार माध्यमों की भी. बल्कि संचार माध्यम ही अब यह तय करने लगे हैं कि किसी भाषा का कलेवर क्या होगा? संस्कृति को लेकर तमाम बहसों और विमर्शों के बाद भी इस शब्द पर बायां या दाहिना हिस्सा अपने तरह की जिद करता है. पर यह सच है कि किसी जगह की तहजीब समाज में गुंथी होती है.

आज के दौर में जब पत्रकारिता समाज के प्रति मनुष्य की बड़ी जिम्मेवारी का एक स्तंभ तो मानी जाती है पर उसके विवेक पर कई दफा सवाल भी खड़े किए जाने लगे हैं, तब इस भाषा, संस्कृति और पत्रकारिता के बीच के नाजुक रिश्ते पर नजर डालना बेहद महत्वपूर्ण लगने लगा है. कहीं संस्कृति के लिए पत्रकारिता तो कहीं पत्रकारिता के लिए संस्कृति कार्य करती है. इन दोनों के स्वरूप निर्धारण में भाषा अपनी तरह से महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है. भारत के संदर्भ में इसे बखूबी समझा जा सकता है. आज यदि गिरमिटिया मजदूरों ने अपनी सशक्त पहचान अपने गंतव्य देशों में स्थापित की है तो इसमें उनकी सांस्कृतिक और भाषायी अभिरक्षा की निहित शक्ति ही काम करती दिखती है.

वैसे आज के दौर में पत्रकारिता का विलक्षण इलेक्ट्रॉनिक रूप कई दफा संस्कृति, भाषा और पत्रकारिता के इस घनिष्ठ संबंध को तोड़ते नजर आते है. इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों की व्यापक प्रगति और हर घर में उनकी पैठ का नतीजा यह हुआ है कि यह समाज के प्रत्येक पहलू को प्रभावित करने की स्थिति में है. टीवी के मनोरंजन और खबरों के आगे, साइबर या डिजिटल दुनिया में खबर, विज्ञापन, बहस-मुबाहिसे हर चीज हिंदुस्तानी सामाजिक परिवेश, अर्थव्यवस्था, संस्कृति, भाषा और यहां तक कि लोकतंत्र पर भी अपना असर डाल रहे हैं.

अपनी किताब ‘इलेक्ट्रॉनिक मीडिया : भाषिक संस्कार एवं संस्कृति’ में डॉ. साकेत सहाय इन्हीं कुछ यक्ष प्रश्नों से जूझते नजर आते हैं. उनकी इस किताब को कोलकाता के मानव प्रकाशन ने प्रकाशित किया है. आज के दौर में पत्रकारिता के छात्र ही नहीं, मीडिया को नजदीक से जानने की इच्छा रखने वाले हर शख्स के लिए इस किताब को पढ़ना एक नई दृष्टि हासिल करने जैसा अनुभव होगा.

साकेत सहाय खुद प्रयोजनमूलक हिंदी के क्षेत्र में एक जाना-माना नाम हैं और वित्तीय, समकालिक और भाषायी विषयों पर लिखने के लिए जाने जाते हैं.

अपनी किताब की भूमिका में सहाय लिखते हैं, "मीडिया के नए चलन से एक नई संस्कृति का विकास हो रहा है. बाजार के दबाव में यह माध्यम जिस प्रकार से भाषा, साहित्य और संस्कृति की त्रिवेणी को मैला कर रहा है, वह हमारे लोकतंत्र व समाज के लिए अत्यंत घातक सिद्ध होगा."

सहाय की यह किताब भाषा, कला, बाजार, आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्य, सोशल मीडिया और समाज से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के नाभिनाल संबंध को गौर से देखती है और इस तथ्य को बखूबी रेखांकित करने का प्रयास करती है. इस किताब में सोशल और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की दशा-दिशा, भाषा, संस्कार की वजह से विकसित हो रही एक नई संस्कृति का सूक्ष्म और बारीक विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है.

किताबः इलेक्ट्रॉनिक मीडिया: भाषिक संस्कार एवं संस्कृति’
लेखकः डॉ. साकेत सहाय
प्रकाशकः मानव प्रकाशन, कोलकाता

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Tuesday, October 15, 2019

बारह किस्म की कहानियां

बारह चर्चित कहानियां बारह महिला रचनाकारों की कहानियां का संग्रह है. महिला विमर्श के साथ ही समाज की कहानियों को नए शिल्प और नए रूप में पेश करता यह संग्रह पठनीय है.

कोई कहानी संग्रह हो और उसमें बारह अगर-अलग शैली के रचनाकार हों तो मन अपने-आप खिंच जाता है कि बारह स्वरों को एक साथ पढ़ना अलग किस्म का अनुभव देगा. सुधा ओम ढींगरा और पंकज सुबीर के संपादन में बारह चर्चित कहानियां शायद पाठकों को ऐसे ही जायके देगा.

ये बारह कहानियां विभोम-स्वर के बारह अंकों में प्रकाशित हो चुकी कहानियां है और संयोग यह भी है कि इसमें सभी रचनाकार लेखिकाएं हैं. ऐसे में यह विचार भी आता है कि क्या यह सभी कहानियां एक स्वर या एक व्याकरण के आसपास ही लिखी गई होंगी? लेकिन इस जवाब ना में है.

बारह चर्चित कहानियां संग्रह. फोटोः मंजीत ठाकुर
इस कथा संग्रह की बारहों कहानियों के कथ्य और शिल्प में वैविध्य है. खासकर तौर पर, इनमें से कई रचनाकार प्रवासी भारतीय भी हैं तो भाषा और शिल्प के स्तर पर अलग रंग निखरता दिखता है. वैसे आप चाहें तो इस कथा संग्रह को बारह चर्चित कथाओं के स्थान पर बारह महिला कथाकारों की चर्चित कहानियां या फिर चर्चित लेखिकाओं की बारह चर्चित कहानियां भी मान सकते हैं.

इस संग्रह में आकांक्षा पारे, सुदर्शन प्रियदर्शिनी. पुष्पा सक्सेना, अचला नागर, डॉ. विभा खरे, पारुल सिंह. उर्मिला शिरीष, डॉ. हंसा दीप, अनिल प्रभा कुमार, हर्ष बाला शर्मा, अरुणा सब्बरवाल और नीरा त्यागी की रचनाएं हैं.

पहली ही कहानी आकांक्षा पारे की है. पेशे से पत्रकार पारे की कहानी में नए जमाने की किस्सागोई है. प्रेम को व्यक्त करना और अव्यक्त प्रेम, अपूरित आकांक्षाओं के साथ और फिर एक टीस का बना रह जाना. अगर आपने पलटते हुए भी पारे की कहानी का कुछ अंश पढ़ लिया तो बिना पूरा पढ़े नहीं छोड़ पाएंगे.

खाली हथेली में सुदर्शन प्रियदर्शनी नारियों के शोषण और दमन की बात को नए आयामों में स्वर देती हैं, तो नीरा त्यागी तलाक के तुरंत बाद समाज की प्रतिक्रिया और नायिका के नए बने संबंध में प्रेमी के मां के साथ उसके गरमाहट भरे रिश्तों की कई परते हैं. लेकिन कथ्य और शिल्प के मामले में अच्छा अनुभव महसूस होता है पारूल सिंह की कहानी ऑरेंज कलर का भूत पढ़ते हुए. नायिका का बीमार बच्चा और उसी बहाने मानसिक स्वास्थ्य को लेकर समाज के नजरिए पर तल्ख टिप्पणी के साथ ही पारूल कहानियों को कहने का नया संसार खोलती हैं.

इसी तरह तवे पर रखी रोटी डॉ. विभा खरे की कहानी है, जिसके केंद्र में एक प्रश्न हैः वह मुझे इंसान समझता या सिर्फ बीवी? इस संग्रह की तमाम कहानियों में हर कहानी की नायिका इतना इशारा तो करती है ही कि समाज हो या घर, अस्पताल हो या कार्यस्थल तवे पर रखी रोटी हर जगह जल रही है. इन बारह कहानियों में हरेक में स्त्री किरदार अपने तरीके से सवाल पूछ रही हैं. चाहे ये प्रश्न प्रेम से जुड़े हों या रिश्तों के.

बधाई सुधा ओम ढींगरा और बधाई पंकज सुबीर को, कि उन्होंने कथा चयन में सावधानी बरती है. हां, ये बात और है कि किताब का कवर कहानियों के कथ्य के लिहाज से मेल नहीं खाता. इसे और बेहतर बनाया जा सकता था. यह जमाने की मांग है.

किताबः बारह चर्चित कहानियां
विभोम-स्वर के बारह अंकों से
संपादकः सुधा ओम ढींगरा और पंकज सुबीर
शिवना प्रकाशन
कीमतः 200 रुपए

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Tuesday, October 1, 2019

जीवन के अद्भुत रहस्य खोलती है गौर गोपाल दास की किताब

आध्यात्मिक गुरु गौर गोपाल दास की किताब, जीवन के अद्भुत रहस्य जीवन जीने के तौर-तरीकों को सुधारने की बात करती है.


इस गेरुआ वस्त्र पहने आध्यात्मिक गुरु की भाव-भंगिमा ऊर्जा से भरी है. देहभाषा सकारात्मक है और वे मौजूदा जिंदगी से जुड़ी मिसालें देकर बात करते हैं. मसलन, खान-पान में सहजता के लिए गुरु गौर गोपाल दास गोलगप्पे का मिसाल देते हैं और बताते हैं कि उसे चम्मच से खाना असहज है. और फिर अपनी मिसाल देकर खिलखिलाकर हंसते हैं, तो साथ में सारे श्रोता भी हंसते है. बोलते समय उनके हाथ भी उनकी बात प्रेषित करने में मदद करते हैं और आवाज़ में नाटकीय उतार-चढ़ाव श्रोता को अपने साथ बहा ले जाती है.

खुद को लाइफ इंजीनियर बताने वाले इस्कॉन से जुड़े गौर गोपाल दास आज की तारीख में काफी ख्यात हो चुके हैं. पिछले दिनों वह अपनी किताब ‘जीवन के अद्भुत रहस्य’ के विमोचन के मौके पर दिल्ली के कॉन्स्टिट्यूशन क्लब में थे. और उनसे बातचीत करने के लिए मंच पर मशहूर अभिनेत्री दिव्या दत्ता थीं. 



आध्यात्मिक गुरु गौर गोपाल दास की किताब का कवर फोटो सौजन्यः पेंग्विन इंडिया

कभी इलेक्ट्रिकल इंजीनियर रहे दास ने लाइफ कोच बनने का फैसला क्यों किया? हंसते हुए गौर गोपाल दास कहते हैं, “जिस तरह जीवन में इलेक्ट्रिकल इंजीनियर की जरूरत होती है उसी तरह ह्यूमन इंजीनियर की भी जरूरत होती है. उसे हम कमतर नहीं मान सकते. इसलिए मैंने सोचा कि इंसानों में जो गड़बड़ियां हैं, उसे ठीक करने की कोशिश की जाए.”

गौर गोपाल दास ने कहा कि अक्सर कोई काम करने से पहले हम सोचते हैं कि दूसरा आदमी क्या सोचेगा, जबकि 90 फीसदी मामलों में ये गलत होता है. उन्होंने कहा कि हमने खुद को देखना बंद कर दिया है. हम अक्सर दूसरों के नजरिये से खुद को देखते हैं. यह बड़ी समस्या है. हम सोशल मीडिया पर 5000 दोस्तों के संग तो हैं, लेकिन वास्तविक जीवन में हमारा एक दोस्त नहीं होता. यह अकेलापन का सबसे बड़ा कारण है. लोग अकेले रहने से घबराते हैं क्योंकि वो एक ऐसा आईऩा है जिसमें खुद का अक्स दिखता है. उन्होंने कहा कि नौजवानों का अकेलापन कृत्रिम है, बुजुर्गों का अकेलापन वास्तविक.

गौर गोपाल दास अपनी बातचीत में श्रोताओं से सीधा संपर्क साधते हैं. वह अपने अनुभवों के साथ अध्यात्म को जोड़ते हैं. मसलन, अपने हालिया अमेरिका प्रवास के कुछ किस्सों को जीवन अनुभवों से जोड़ते हैं. गौर गोपाल दास के बारे में मशहूर अभिनेत्री दिव्या दत्ता कहती हैं, “मेरे लिए प्रभुजी एक ऐसे व्यक्तित्व की तरह रहे हैं जिनकी प्रेरक बातें हमेशा हमारे चेहरों पर खूबसूरत मुस्कान लाती है और जब आप उनको सुनते हैं तो जिंदगी और खूबसूरत हो जाती है.”

जाहिर है चाहे आप संबंधों में मजबूती तलाश रहे हों या अपनी वास्तविक क्षमता को जानने की कोशिश कर रहे हों या फिर इस पर विचार कर रहे हों कि दुनिया को क्या कुछ लौटाया जा सकता है, गौर गोपाल दास की ये किताब उसे समझाने की कोशिश करती है.

गौर गोपाल दास की किताब जीवन के अद्भुत रहस्य के बारे में पेंगुइन की लैंग्वेज पब्लिशिंग एडिटर वैशाली माथुर कहती हैं, ‘यह किताब जिस दिन से लॉन्च हुई है उसी दिन से बेस्टसेलर रही है. जल्दी ही यह किताब छह दूसरी भारतीय भाषाओं में भी उपलब्ध होगी."

गौर गोपाल दास की लिखी यह पहली किताब है, जिसमें उनके अपने जीवन अनुभवों का सार है. किताब की भाषा सरल है लेकिन कथ्य विचारोत्तेजक हैं. मोटे तौर पर यह किताब जीवन जीने के तौर-तरीकों की बात करती है.

गौर गोपाल दास ने पुणे के कॉलेज ऑफ इंजिनीयरिंग से इलेक्ट्रिकल इंजिनीयरिंग की पढ़ाई की और कुछ समय तक ह्यूलेट पैकर्ड में नौकरी की. उसके बाद उन्होंने मुम्बई के एक आश्रम में रहते हुए सन्यासी का जीवन जीना प्रारंभ किया जहां वह बाइस साल तक रहे और प्राचीन दर्शन और समकालीन मनोविज्ञान की आधुनिकता को समझने का प्रयास करते रहे. उसके बाद वह हजारों-लाखों लोगों के लिए लाइफ कोच बन गए. गौर गोपाल दास सन् 2005 से दुनिया भर की यात्राएं कर रहे हैं और कॉरपोरेट हस्तियों, विश्वविद्यालयों और धर्मादा संस्थानों के साथ अपने विचार साझा कर रहे हैं. सन् 2016 में जब वे इंटरनेट पर आए तो उनकी लोकप्रियता का मानो विस्फोट सा हो गया और सोशल मीडिया पर उनके वीडियो को करोड़ो लोगों ने देखा. गौर गोपाल दास को एमआइटी, पुणे की इंडियन स्टूडेंट पार्लियामेंट ने ‘आइडियल यंग स्प्रिचुअल गुरु’ की उपाधि दी है.

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Thursday, September 12, 2019

'नरेंद्र मोदी सेंसर्ड' फेक नैरेटिव को चुनौती देती काउंटर नैरेटिव की किताब है

पिछले सातेक साल में टीवी, रेडियो, बेवजगत और अखबारों में जितने नरेंद्र मोदी दिखे, सुने और पढ़े गए हैं उतनी जगह शायद ही किसी दूसरे नेता को दी गई होगी. ऐसे में अगर किसी किताब का शीर्षक नरेंद्र मोदी सेंसर्ड हो, तो चौंकाने वाला ही होगा. टीवी पत्रकार अशोक श्रीवास्तव की यह किताब ऐसे दौर में और अधिक दिलचस्प लग सकती है जब हाल ही में चुनाव आयोग ने डीडी न्यूज़ को विभिन्न दलों को दिए जा रहे एयर टाइम में गैर-बराबरी पर फटकार लगाई है. 

चुनाव का वक्त हो तो राजनीति या राजनेताओं से जुड़ी किताबों का प्रकाशन होना कोई नई बात नहीं. राजनीति और चुनाव से जुड़े कथित तौर पर रहस्योद्घाटन करने वाली किताबें दुकानों पर नमूदार होने लगती हैं. इस साल भी जनवरी से ही ऐसी कई किताबें दिखने और बिकने लगी हैं. पर किताब नरेंद्र मोदी से जुड़ी हो तो मामला खास हो जाता है.

इसमें शक नहीं कि पिछले सातेक साल में टीवी, रेडियो, बेवजगत और अखबारों में जितने नरेंद्र मोदी दिखे, सुने और पढ़े गए हैं उतनी जगह शायद ही किसी दूसरे नेता को दी गई होगी. ऐसे में अगर किसी किताब का शीर्षक नरेंद्र मोदी सेंसर्ड हो, तो मामला चौंकाने वाला ही होगा. इस किताब को लिखा है प्रसार भारती के चैनल और सरकार के अनाधिकारिक प्रतिनिधि टीवी चैनल डीडी न्यूज़ के वरिष्ठ एंकर अशोक श्रीवास्तव ने. श्रीवास्तव टीवी की दुनिया के जाने-माने नाम हैं और उनकी यह किताब नरेंद्र मोदी के खिलाफ गढ़े जा रहे कथित फेक नैरेटिव से दो-दो हाथ करती है. नरेंद्र मोदी सेंसर्ड का केंद्रीय विषय तो नरेंद्र मोदी का एक साक्षात्कार है, जिसे डीडी न्यूज़ के लिए अशोक श्रीवास्तव ने लिया था और उसमें डीडी प्रशासन ने कांट-छांट और कतर-ब्योंत की पूरी कोशिश की थी.

पर यह किताब ऐसे दौर में और अधिक दिलचस्प लग सकती है जब हाल ही में चुनाव आयोग ने डीडी न्यूज़ को विभिन्न दलों को दिए जा रहे एयर टाइम में गैर-बराबरी की बात पर फटकार लगाई है.



अशोक श्रीवास्तव की लिखी किताब नरेंद्र मोदी सेंसर्ड
बहरहाल, किताब को आप जैसे ही हाथ में लेते हैं शीर्षक में चस्पां सेंसर शब्द का मंतव्य स्पष्ट करने के लिए काले रंग का एक आवरण आपको दिखता है, जिस पर नरेंद्र मोदी की तस्वीर है. मोदी गौर से आपको ही देखते हुए प्रतीत होते हैं. शीर्षक में सेंसर्ड शब्द रोमन में लिखा है, जो खलता है.

इस किताब में श्रीवास्तव उन पत्रकारों-बुद्धिजीवियों को खुलेआम चुनौती देते दिखते हैं जो 2014 के बाद से मोदी राज में देश में अघोषित आपातकाल का आरोप लगाते रहे हैं और कहते हैं कि पत्रकारों को काम करने की आज़ादी नहीं है. श्रीवास्तव कहते हैं कि जो पत्रकार यह फेक नैरेटिव खड़ा कर रहे हैं वो पत्रकारिता नहीं, राजनीति कर रहे हैं. अपनी बात को साबित करने के क्रम में श्रीवास्तव कई दिलचस्प तथ्य पेश करते हैं.

वैसे, यह तय है कि पिछले लोकसभा चुनाव में डीडी पर प्रसारित होने और न होने के दोराहे पर खड़ा यह इंटरव्यू खासा विवादित रहा था. पर 22 अध्यायों में एक इंटरव्यू के इर्द-गिर्द घूमती हुई किताब कई जगहों पर दोहराव की शिकार है.

वैसे, यह जानी हुई बात है कि नरेन्द्र मोदी के इस इंटरव्यू को पहले गिरा देने की कोशिश हुई थी बाद में इंटरव्यू टेलिकास्ट तो हुआ लेकिन उसे बुरी तरह कांट-छांट दिया गया. यूपीए के दौर में डीडी न्यूज नरेन्द्र मोदी का इंटरव्यू प्रसारित करने पर क्यों मजबूर हुआ, श्रीवास्तव ने इसकी अंतर्गाथा इस किताब में लिखी है.

टीवी पत्रकारों के साथ एक दिक्कत यह हो जाती है कि प्रिंट में लिखते समय भी उनकी भाषा टीवी वाली ही रहती है. यह बात एक साथ ही अच्छी और बुरी दोनों है. भाषा की सरलता एक बात हो सकती है, लेकिन साथ ही कई बातों का टीवीनुमा दोहराव खिजाने वाला भी होता है.

इस किताब का पहला अध्याय, यह किताब क्यों...यह साबित करता है कि श्रीवास्तव खुद को कहां खड़ा करते हैं. वह कथित सेकुलर पत्रकारों का फेक नैरेटिव खड़ी करने के लिए उपहास उड़ाते हैं और फिर असहिष्णुता के आरोप में पुरस्कार वापस करने वाले साहित्यकारों को अवॉर्ड वापसी गैंग का नाम देते हैं. मॉब लिंचिंग के खिलाफ श्रीवास्तव लिंचिंग में मारे गए दो हिंदुओं चंपारण के मुकेश और दिल्ली के पंकज नारंग की मिसाल देते हैं. फिर उनके निशाने पर पुण्य प्रूसन वाजपेयी और आशुतोष आते हैं. श्रीवास्तव अरविंद केजरीवाल पर निशाने साधते हैं कि उन्होंने एक पत्रकार को नौकरी से निकलवा दिया था. लेकिन जहां भी वह किताब में अतिरिक्त हमलावर और आक्रामक दिखे हैं उन्होंने महिला पत्रकार या बुद्धिजीवी कहकर काम चला लिया है.

बहरहाल, बाद में किताब को लेकर प्रधानमंत्री की अनुमति वाले प्रकरण में श्रीवास्तव उनकी सदाशयता का हवाला भी देते हैं कि किताब का विषयवस्तु देखने से प्रधानमंत्री कार्यालय ने मना कर दिया. फिर यह किताब जिक्र करती है कि किस तरह उनके चैनल ने नरेंद्र मोदी के साक्षात्कार को लेकर अनमनापन दिखाया और किसतरह श्रीवास्तव ने बड़ी कठिनाई से इसे पूरा किया.

यह बात सोलहो आने सच है कि गुजरात के मुख्यमंत्री रहते मोदी डीडी के मुख्य समाचार चैनल पर ब्लैक आउट कर दिए गए थे और उनकी खबर दिखाई ही नहीं जाती थी. पर लोकसभा चुनाव 2014 के समय दूसरे टीवी चैनलों की तरह डीडी पर भी उनकी रैलियों से महत्वपूर्ण हिस्से दिखाए जाते थे, यह भी उतना ही सच है. श्रीवास्तव ने अपनी किताब में मोदी के न दिखाए जाने का जिक्र किया है जो सच है पर वह डीडी के जनादेश जैसे चुनावी कार्यक्रम को भूल गए हैं, जिसमें मोदी के रैलियों पर रोजाना खबर बनती थी. श्रीवास्तव इस बात का जिक्र करना भूल गए कि 16 मई को मतगणना के दिन ठीक शाम 4 बजे मोदी पर आधे घंटे की डॉक्युमेंट्री प्रसारित हुई थी. डॉक्युमेंट्री बनने में काफी वक्त लगता है और जाहिर है डीडी न्यूज़ ने इसकी तैयारी पहले से कर रखी होगी. श्रीवास्तव को अपनी किताब में इन बातों का भी जिक्र करना चाहिए था कि सेंसरशिप के उस दौर में यह कैसे मुमकिन हुआ होगा.
श्रीवास्तव अपनी किताब में मोदी के साक्षात्कार के रुकने, कटने और काट-छांट के साथ प्रसारित होने के लिए तब के डीजी एस.एम. खान को दोषी ठहराते हैं. वह उनका नाम लेते हैं, (गौरतलब है कि मोदी सरकार आने के बाद खान को हाशिए पर डाल दिया गया और फिर वह रिटायर हो गए) पर सुविधाजनक तरीके से उन एडीजी या समाचार निदेशकों का नाम उजागर नहीं किया गया है जो छिपे तौर पर संदेशों के जरिए श्रीवास्तव के इंटरव्यू की तारीफ कर रहे थे और एक तरह से उनके साथ थे.

बहरहाल, डीडी न्यूज़ सरकारी अधिकारियों के हाथ का खिलौना और सरकार की कठपुतली है इसमें दो राय नहीं है. एनडीए, फिर यूपीए ने, और फिर मोदी सरकार ने अपनी तरह से इसका इस्तेमाल किया है. चुनाव से ऐन पहले समाचारवाचकों के पीछे स्क्रीन पर सरकारी योजनाओं के प्रचार का बैनर इसकी मिसाल है. यह प्रचार किस बेशर्मी से किया गया है इसका उदाहरण है कि एक बुलेटिन में समाचार वाचिका खबर तो पुलवामा हमले का पढ़ रही थी पर उसके पीछे स्क्रीन पर लगातार उज्ज्वला योजना का बैनर लगा हुआ था. ऐसा पूरे समय तक रहता था, हर बुलेटिन में, हर रोज.

बहरहाल, किताब का कलेवर ऊपर से अच्छा है पर भीतर पन्नों में प्रूफ की गलतियां उघड़कर सामने आती हैं. और चुनाव पूर्व दिलचस्प वाकयों को बदमजा कर जाती हैं. यहां तक कि किताब के पिछले आवरण पन्ने (ब्लर्ब) पर भी गलतियां जायका खराब करती हैं. ऐसा लगता है कि किताब को बहुत हड़बड़ी में लिखा और प्रकाशित किया गया हो. किताब किसी अच्छे संपादक की कैंची से होकर गुजरती तो कसावट के साथ आ सकती थी.

बेशक, इस किताब के जरिए अशोक श्रीवास्तव ने मोदी के इंटरव्यू के इर्द-गिर्द बुनकर एक दिलचस्प वाकया पेश किया है और वह फेक नेरेटिव के खिलाफ भी दिखाई देते हैं, पर साथ ही वह इस फेक नैरेटिव के बरअक्स एक काउंटर नैरेटिव भी खड़ी करने की कोशिश करते हैं, जो उतना ही एकपक्षीय है जितना मोदी-विरोधियों की बौद्धिक जुगाली.

किताबः नरेंद्र मोदी सेंसर्ड
लेखकः अशोक श्रीवास्तव
मूल्यः 300.00 रु.
प्रकाशकः अनिल प्रकाशन

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Monday, September 9, 2019

पुस्तक समीक्षाः सूखे पत्तों का राग मर्मस्पर्शी गिरहों को आहिस्ते से खोलता है.

गुरमीत बेदी का कथा संग्रह 'सूखे पत्तों का राग' में 14 कहानियां हैं. इस किताब कि कहानियां वर्तमान दौर में लिखी जा रही अधिकांश कहानियों से कुछ अलग एवं उम्दा हैं. कुछेक कहानियों को छोड़ दें तो, सभी कहानियों में लेखक ने पहाड़ों और पर्वतीय राज्य और शहरों का परिवेश बनाये रखा है. पहली कहानी पुल से लेकर आखिरी कहानी चिड़िया तक यह साफ झलकता है.

ज्वारभाटा कहानी में एक विधवा स्त्री के अपने मृत पति के लिए प्रेम का खूबसूरती से वर्णन किया गया है, वहीं पांचवी कहानी खिला रहेगा इंद्रधनुष में एक युवा जोड़े की मर्मस्पर्शी प्रेम कहानी है, जो किसी को भी भावुक कर सकती है.

नींद से बाहर में आज के समाज में सोशल मीडिया से मनुष्य के पारिवारिक जीवन में पड़ते प्रभाव का उल्लेख प्रभावी रुप से किया गया है. एक रात कहानी में एक पुत्र का मां के प्रति लगाव के बारे में तो, हवा में ठिठकी इबारत के माध्यम से समाज में होती बेमेल शादियों के बारे में जिक्र किया गया है.

सूखे पत्तों का राग कहानी में हेम सिंह का भोलापन हंसाता और गुदगुदाता तो है ही इसके साथ-साथ गरीबी में भी हार नहीं मानने की उसकी आदत पाठक के मानस पटल पर गहरा प्रभाव छोड़ती हैं. आखिरी कहानी चिड़िया एक अकेली लड़की की कहानी है जो एक सरकारी स्कूल में शिक्षिका है. अकेली लड़की के बारे में समाज क्या सोचता है इस बारे में कहानी अपने तरीके से बात कहती है. 

इस कहानी के माध्यम से जो सच सामने आता है वह दिल दहला देने के लिए काफी है.





सूखे पत्तों का राग किताब की कुछ कहानियों को छोड़ दें तो ज्यादातर कहानियां मर्मस्पर्शी हैं, जो भावुक करने के साथ-साथ मानस पटल पर एक गहरा असर डालती हैं. कहीं-कहीं इस किताब में मुद्रण की गलतियां भी हैं. कहानी पढ़ने में रुचि रखने वालों के लिए एक अच्छी किताब है. चूंकि गुरमीत बेदी की यह दूसरी ही किताब है फिर भी इस संग्रह की प्रतीक्षा बहुत दिनों से थी.

लेखक गुरमीत बेदी ने अपनी इस किताब में आसान भाषा का चयन किया है, जिससे किसी भी कहानी को समझने में किसी प्रकार कि मुश्किल नहीं होती है. यह हिंदी के पाठकों से इतर दूसरे भाषा-भाषियों तक पहुंच बना पाएगी.

किताबः सूखे पत्तों का राग
लेखकः गुरमीत बेदी
प्रकाशनः भावना प्रकाशन
मूल्यः 250 रुपए
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Monday, September 2, 2019

हिंदू होने का अर्थ: आस्था, नई दुनिया और उम्दा किताब

हिंदोल सेनगुप्ता की बेहद सामयिक और प्रासंगिक किताब, हिंदू होने का अर्थ हिंदूपन की बात करती है हिंदुत्व की नहीं. मौजूदा वक्त में जब धर्म पर बात करना, धर्म को लेकर अपनी बात रखना मुश्किल हो गया है, तब, खासकर हिंदू धर्म की बात करते ही मामला संजीदा होने लग जाता है. यह किताब निजी तजुर्बों की किताब है. 


नरेंद्र मोदी के दोबारा सत्ता के लिए चुने जाने के ठीक एक दिन बाद जब एक किताब देर से सही आपके हाथ आए, जिसका शीर्षक 'हिंदू होने का अर्थ' हो, तो उस ओर ध्यान जाना लाजिमी है. देश भर में जिस लहर के साथ मोदी जीतकर आए हैं, वैसे में कई लोग हिंदुत्व के और अधिक आक्रामक होने की आशंकाएं जाहिर कर रहे हैं. पर असल में हिंदोल सेनगुप्ता की यह किताब हिंदुत्व को नए नजरिए से देखने का कोण मुहैया कराती है.

एक भाव यह है कि हिंदुत्व सार्वभौमिकता का संदेश देता है. दूसरा भाव यह भी है कि हिंदुत्व एक प्रकार के उन्माद का नाम है जो मुसलमानों को निशाना बनाता है. ऐसा विरोधाभास अकारण नहीं है. फिर भी, मैं हिंदुत्व का अर्थ गुणात्मक पद के रूप में लगाता हूं. इसका मतलब ''हिंदुपन" है, हिंदू धर्म नहीं. हालांकि हिंदू धर्म उसमें शामिल है.
हिंदोल सेनगुप्ता की किताब हिंदू होने का अर्थ हिंदूपन को हिंदुत्व से अलग करती है

ऐसे में सेनगुप्ता की यह किताब बेहद प्रासंगिक किताब है, क्योंकि मौजूदा वक्त में धर्म पर बात करना, धर्म को लेकर अपनी बात रखना मुश्किल हो गया है. खासकर हिंदू धर्म की बात करते ही मामला संजीदा होने लग जाता है. किताब में कई सारे अध्याय हैं और सेनगुप्ता स्थापित करते हैं कि ईश्वरत्व सजीव और निर्जीव सबमें और सब ओर व्याप्त है, यह प्रज्ञा और आस्था का संगम है. मनुष्य प्रकृति का ही हिस्सा है, उसका विजेता नहीं क्योंकि संसार मानव के उपभोग के लिए ही नहीं रचा गया है (इसका अर्थ है कि सिर्फ मनुष्य ही नहीं, सभी जीवों और वनस्पतियों यहां तक कि भूमि, जलस्रोतों और वायुमंडल के भी अपने अधिकार हैं.)

हिंदोल का लेखन हिंदूपन के नए परिभाषाओं से रूबरू कराती है. किताब के कवर पर ही लिखा है 'प्राचीन आस्था, नई दुनिया और आप'. जाहिर है कि लेखक इतिहास की भूलभुलैया की बजाए मौजूदा वक्त में हिंदू धर्म और हिंदुत्व के वास्तविक मर्म को सहज-सरल तरीकों से बताने और जताने की कोशिश कर रहा है.

इस किताब में सेनगुप्ता के निजी तजुर्बे हैं और नए जमाने की सोच भी है. किताब बनारस के मंदिरों से लेकर जटिल विषयों तक सहजता से बताती है. किताब का पहला अध्याय है हिंदुओं के बारे में कैसे लिखा जाए? यह सवाल बेहद मौजूं है और ऐसा लगता है कि इस प्रश्न ने खुद सेनगुप्ता को काफी परेशान किया होगा. दूसरा अध्याय पूछता है हिंदू कौन है और तीसरा, क्या चीज है जो आपको हिंदू बनाती है. ये ऐसे बुनियादी सवाल हैं जो घोर आक्रामक और बेचैन हिंदुत्व के झंडाबरदारों और आंख मूंदकर हिंदू शब्द से ही घृणा करने वालों के लिए ही हैं और उन्हें जरूर पढ़ना चाहिए.

पर इस किताब का सातवां अध्याय वाकई थोड़े कम रिसर्च के आधार पर लिखा गया है पर जो मेरा पसंदीदा विषय है, जिसका शीर्षक है क्या हिंदू होने का अर्थ आपका शाकाहारी होना है? जो लोग इस आधार पर हिंदूपन को पारिभाषित करते हैं वो सिरे से गलत हैं. पर इस अध्याय में सेनगुप्ता पूरी तरह चूक गए हैं. वह मांसाहार के बाद सीधे गोवध पर आते हैं और उन्हें लगता है कि मांसाहार का अर्थ महज गोमांस भक्षण ही है. मछली खाना भी मांसाहार है और हिंदू जीवन शैली का हिस्सा है यह शायद सेनगुप्ता भूल गए हैं. दूसरी तरफ, बंगाल, असम बिहार जैसे इलाके हैं जहां मांसाहार, खासकर मछली खाने का रिवाज है. तो अगर सेनगुप्ता इनकी तरफ थोड़ा इशारा कर पाते तो किताब गहरी बन जाती.

फिर भी, हिंदू धर्म पर व्यापक और अलग नजरिए वाले इस काम के लिए सेनगुप्ता वाकई बधाई के हकदार हैं. वो भी बिना किसी अनावश्यक टीका-टिप्पणी के वैज्ञानिक तथ्यों के साथ अपनी बात कह जाते हैं. मदन सोनी ने किताब में ऊंचे दरजे का अनुवाद किया है.

किताबः हिंदू होने का अर्थः प्राचीन आस्था, नई दुनिया और आप
पृष्ठ संख्याः 182
कीमतः 250 रुपए
प्रकाशकः मंजुल पब्लिशिंग हाउस

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Friday, July 27, 2018

नीलोत्पल मृणाल का उपन्यास डार्क हॉर्स साहित्य के लोकतंत्रीकरण का सुबूत है

डार्क हॉर्स उपन्यास में आपको वही धारा नजर आएगी जो यूपी 65 या बनारस टॉकीज या मुसाफिर कैफे में दिखाई दी थी. असल में चेतन भगत की लोकप्रियता ने हिंदी में नए रचनाकारों की एक पौध शुरू की है और नीलोत्पल मृणाल सृजनाशीलता की बेचैनी को कागज पर उड़ेलते दिखते हैं.
डार्क हॉर्सः एक अनकही दास्तां


पहली बात कि हिंदी में नई पीढ़ी के रचनाकारों ने अपनी मौजूदगी दर्ज करानी शुरू की है. उनमें दिव्य प्रकाश दूबे से लेकर निखिल सचान तक और सत्या व्यास से लेकर अजीत भारती तक हैं. इसी पीढ़ी ने नई हिंदी का शिगूफा भी छोड़ा है. पर अभी तो यह पारिभाषित नहीं हो पाया है कि नई हिंदी क्या है? बहरहाल, डार्क हॉर्स नीलोत्पल मृणाल की पहली कृति और पहला उपन्यास है.


इस उपन्यास में आपको वही धारा नजर आएगी जो यूपी 65, बनारस टॉकीज या मुसाफिर कैफे जैसे उपन्यासों में दिखाई दी थी. असल में चेतन भगत की लोकप्रियता ने हिंदी में नए रचनाकारों की एक पौध शुरू की है और नीलोत्पल मृणाल सृजनाशीलता की बेचैनी को कागज पर उड़ेलते दिखते हैं. यह पीढ़ी खम ठोंक रही है कि हिंदी अब मठाधीशों की जागीर नहीं है और इसलिए लोग बिना आलोचकों की परवाह किए, मनमर्जी का लिख रहे हैं और छप रहे हैं. यह साहित्य के लोकतांत्रिकरण का दौर है.


अपनी भूमिका में ही मृणाल लिखते हैं कि उन्होंने उपन्यास के रूप में कोई साहित्य नहीं रचा है. अच्छा! क्या यह आलोचकों की नजर से बचने के लिए दिया गया बयान है या एक विनम्र दावा? बहरहाल, इस कृति को साहित्य अकादेमी युवा पुरस्कार मिल चुका है. इस लिहाज से यह कहा जा सकता है कि लेखक ने इस कृति को वाकई साहित्य माना होगा और उसे इस पुरस्कार के लिए नामित भी किया होगा. तो भूमिका और पुरस्कार मिलाकर एक संभ्रम की स्थिति है. काहे कि, अगर यह उपन्यास, बकौल लेखक, साहित्य नहीं है, तो उन्हें यह पुरस्कार लेने से इनकार कर देना चाहिए था.


इस उपन्यास को शैली या कथ्य के लिहाज से परखा नहीं जा सकता. कई दफा पढ़ते हुए आपको इसमें मौजूदा धारा के बनारस केंद्रित आधा दर्जन उपन्यासों की झलक दिखेगी, संवादों में क्षितिज रॉय के उपन्यास गंदी बात का अक्स दिखेगा. पर अगर आपने या आपके परिवार में किसी ने कभी पटना, इलाहाबाद, दिल्ली के नॉर्थ या साउथ कैंपस में विजयनगर, मुखर्जी नगर और कटवारिया सराय में कभी सिविल सेवा की तैयारी की होगी, तो यह उपन्यास एक दफा आपको जरूर पढ़ना चाहिए.


उपन्यास के 95 फीसदी पन्नों में अभ्यर्थियों के नाकामियों का दास्तान है. और नायक के, यानी डार्क हॉर्स की लंतरानियों का भी. पर उसके संघर्ष को बिना दिखाए डेढ़ पैराग्राफ में निपटाकर मृणाल ने सीधे उसे सफल घोषित कर दिया. यहां शैलीगत जर्क दिखाई देता है.


पर, सिविल सेवा अभ्यर्थियों के मानसिकता और मनोविज्ञान को मृणाल ने करीने से पकड़ा है. उपन्यास में एक संवाद है, ‘जेतना दिन में लोग एमए-पीएचडी करेगा, हौंक के पढ़ दिया तो ओतना दिन में तो आईएसे बन जाएगा.’ यह संवाद समझिए अभ्य़र्थियों के मनोविज्ञान को पकड़ता है, जो साल-दर-साल किस तरह तैयारियों में जुटे रहते हैं.


डार्क हॉर्स में अभ्यर्थियों के ऊंचे और खूबसूरत ख्वाब हैं, जिम्मेदारियों का जिक्र है. ठसक है. परिवार और गांव में अपनी इज्जतअफजाई और अगली कई पीढ़ियों का उद्धार कर देने का उत्साह है. मुखर्जी नगर को उकेरते हुए मृणाल एकदम ईमानदार तस्वीर पेश करते हैं. मानो आप एक खिड़की पर बैठकर सारे किरदारों और दृश्यों को सामने साकार होते देख रहे हों. पर साथ ही, इसमें एक फिल्मी और बॉलीवुडीय नाटकीयता भी है. उसी नाटकीयता में गांव से आए चाचा भी हैं, जो दिल्ली दिखाने की जिद करते हैं. उसी में गरीबी भी है, गांव की बिकती हुई जमीन भी है. कई दफा हो जाने वाला नवयुवकीय प्रेम भी है. पर उपन्यास में उस तनावपूर्ण क्लाइमेक्स की कमी है, जो एक कृति को बेहतर बनाती है. अगर आपने हाल-फिलहाल के हिंदी उपन्यासों को उचटती निगाह से भी पढ़ा हो तो आपको नए किस्म के किरदार बमुश्किल ही मिलेंगे. आपको बनारस केंद्रित उपन्यासों के ही पात्र दिखेंगे, बस लगेगा कि थियेटर में पीछे का सेट बदल दिया गया हो. कैनवास बदल गया है किरदार बस अलग कपड़ों में नजर आते हैं. हो सकता है हमारे युग का सत्य यही हो.


वैसे, मृणाल की तारीफ इस बात में है कि उन्होंने अपने किरदारों को कॉलर पकड़ कर नहीं चलाया है. उनके पात्र जब जो चाहा, बोलते है. शायद इसलिए मृणाल अपनी रचना को साहित्य के दर्जे में नहीं रखते. हालांकि, साहित्य में शुचिता जैसी चीजें बेमानी हैं (गोकि साहित्य समाज का दर्पण होता है) पर, किरदारों में विभिन्नता, उनके भावात्मक यात्रा में आरोह-अवरोह में वैविध्य की उम्मीद तो की ही जा सकती है.



कुल मिलाकर उपन्यास पठनीय तो है, बिकाऊ भी. पर कथ्य के लिहाज से औसत है. मृणाल संभावनाएं जगाने वाले लेखक हैं, इसलिए दिलचस्प होगा कि वह अगली दफा कैसी कहानी लेकर आते हैं.


किताबः डार्क हॉर्सः एक अनकही दास्ताँ... (उपन्यास)


लेखकः नीलोत्पल मृणाल


प्रकाशकः हिन्द युग्म


कीमतः 175 रु. पेपरबैक


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Tuesday, March 13, 2018

'ये जो देश है मेरा' पर विनय कुमार की प्रतिक्रिया

मूलतः विस्थापन और वंचित इलाकों के विकास को केंद्र में रखकर लिखी गई मेरी किताब 'ये जो देश है मेरा', पर मेरे मित्र और अच्छे कथाकार विनय कुमार ने अपनी प्रतिक्रिया फेसबुक पर लिखी है, आप सबके साथ साझा करने का लालच नहीं रोक पा रहा. उन्हीं के शब्दः

जब से इस पुस्तक 'ये जो देश है मेरा' के बारे में पता चला था, तब से इसे पढ़ने की तीव्र इच्छा थी. और पिछले हफ्ते जब यह पुस्तक मिली तो जैसे जैसे समय मिला, इसको पढ़ता गया. 

यह तो पहले से ही मालूम था कि 'ये जो देश है मेरा' न तो उपन्यास है और न ही कोई दिलचस्प कहानी संग्रह, लेकिन एक रिपोर्ताज भी आपको इतना प्रभावित करती है और अगर दूसरे शब्दों में कहें तो पढ़ने के बाद इतना विचलित कर देती है तो इसका मतलब साफ है, लेखक अपनी बात को उसी शिद्दत से कहने में सफल है, जितनी शिद्दत से उसने इसे रचा है. 

पांच खंडों वाली इस किताब 'ये जो देश है मेरा' को पढ़ना एक अलग हिंदुस्तान से रूबरू होना है जिससे आम मध्यमवर्गीय और उच्चवर्गीय जनमानस बड़ी आसानी से अपना मुंह फेर लेता है. 

आज के तथाकथित विकसित हिंदुस्तानी समाज के एक ऐसे वर्ग के बारे में यह किताब 'ये जो देश है मेरा' न सिर्फ बताती है बल्कि पूरी ईमानदारी से हमें उन लोगों और उन क्षेत्रों से परिचित भी कराती है, जिसके विकास के नाम पर आज भी राजनीतिज्ञ अपनी दुकान चला रहे हैं और जिन्हें सरकारी तंत्र भी बड़ी आसानी से भुला देता है. और अगर यह लोग अपनी जायज मांगों के लिए आंदोलन करते हैं तो उसे बड़ी आसानी से नक्सली आंदोलन बताकर बेरहमी से कुचल दिया जाता है.
ये जो देश है मेरा


'ये जो देश है मेरा' किताब का पहला खंड ही पानी की कमी का ऐसा भयावह चित्र प्रस्तुत करता है कि दिल भविष्य के आसन्न संकट को लेकर कांप उठता है. 'ये जो देश है मेरा' के पांचों खंड अलग अलग भौगोलिक क्षेत्रों के बारे मे तथाकथित विकास का भयावह पहलू दिखाते हैं जिनके बारे मे कुछ करना तो दूर, सरकार सोचना भी गंवारा नहीं करती. 

कहीं कहीं किताब थोड़ी बोझिल भी हो जाती है लेकिन तथ्यों की ऐसी पड़ताल पढ़कर लेखक की मेहनत के बारे मे अंदाजा हो जाता है. 

कुल मिलाकर 'ये जो देश है मेरा' हर गंभीर पाठक के लिए पठनीय और संग्रहणीय किताब है जिसके लिए श्री मंजीत ठाकुर बधाई के पात्र हैं.

Wednesday, March 7, 2018

एक पाठक की नज़र से "ये जो देश है मेरा"

मेरी किताब, ये जो देश है मेरा पर समीक्षात्मक टिप्पणी लिखी है, मेरे अनुज सदृश रामकृपाल झा ने, 

एक सामान्य पाठक जब किसी क़िताब को पढ़ना शुरू करता है और पढ़ते हुए उसे ख़त्म करता है, इन 3-4 घंटे के दौरान वह लेखक द्वारा प्रस्तुत कथा, कथानक और कथ्य में अपने आप को खोजते हुए लगातार जुड़े रहने का यत्न करता है। अगर लेखक अपनी प्रस्तुति से पाठक को इन 3-4 घंटे तक जोड़ने में सफल रहता है तो क़िताब सफल मानी जाती है । (इस विचार पर मतभिन्नता हो सकती है )

"ये जो देश है मेरा" कोई कहानी , उपन्यास या उपन्यासिका नहीं है। यह किताब भुखमरी, विस्थापन और सूखे के दंश को झेलते हुए उन लाचार किसान, आदिवासियों और विस्थापितों के दर्द को समेटे हुए आंकड़ों और भावनाओं की एक रिपोर्ट है, (रिपोर्ताज) जिसे पढ़ते हुए आप कई मर्तबा भावुक होंगे और शायद झुंझला जाएंगें।

पांच हिस्से में लिखी गई यह रिपोर्ट शुरुआत में अपनी कसावट, बेहतर आंकड़े और सुंदर शब्द संयोजन के साथ सामने आती है। बुंदेलखंड के सूखे से जूझते हुए किसान, किसान के परिवार और उससे होती हुई आत्महत्या के आंकड़े हृदयविदारक हैं।

पढ़ते हुए यह एहसास होने लगता है कि खेती जुआ समान ही तो है। किसान बैंकों से कर्ज लेते हैं, कर्ज के पैसे से बीज बोते हैं, फ़सल उग आती है और फिर सूखा पड़ जाता है। स्थिति अब भयावह हो जाती है। ना खाने को पैसे बचते हैं ना कर्ज़ चुकाने को! बाकी जो शेष बच जाता है वो फांसी का फंदा होता है जिसे किसान किसी शर्त पर ठुकरा नहीं सकता है।

कई मामले में राज्य सरकारों ने इसे गृह क्लेश का भी कारण बताया है ।

मेरे समझ से गाँव में रहने वाले लोगों में गृह क्लेश के ज्यादातर मामलों का अगर पोस्टमार्टम किया जाए तो यह निष्कर्ष सहज ही निकाला जा सकता है कि ग़रीबी गृह क्लेश का प्रमुख कारण है ।

जब एक माँ, अपने नई ब्याही बेटी और दामाद का अपने घर में स्वागत कुल जमा एक किलो अनाज से करती है और यह रिपोर्ट आप पढ़ रहे होते हैं तब आपके अंदर कुछ चटक रहा होता है जिसे केवल आप महसूस करते हैं ।

रिपोर्टर की रिपोर्ट आगे बढ़ती है जहाँ,
जब एक जवान बेटी अपने शादी में होने वाले खर्चे के लिए अपने पिता द्वारा लिए जाने वाले संभावित कर्ज और परिणामस्वरूप उत्पन्न होने वाले विभीषिका से चिंतित होकर (पिताजी को आत्महत्या ) एक दिन चुपचाप डाई (बालों में लगाया जाने वाला रसायन) पीकर मरने की कोशिश करती है और पूरा तंत्र कुछ नहीं कर पाता है। ये सब पढ़ते हुए आप भन्नाकर रह जाते हैं !

लोग आत्महत्या कैसे कर लेते हैं एक आध की बात हो तो ठीक है पर मुआमला जब दहाई नहीं सैंकड़ों में हो तो विषय चिंताजनक और ध्यान देने योग्य होती है ।

मैंने घास की रोटियों पर न्यूज़ चैनलों की कई बार रिपोर्टिंग देखी है किंतु इस विषय को गौर से पढ़ते हुए यह सोचना बेईमानी लगती है कि हम जो पढ़ रहे हैं वो सिर्फ सच है,सच के सिवा कुछ भी नहीं है ।

यह सच है की सूखे के इस प्रेत को यूँ ही नहीं आना पड़ा है। लोगों ने प्रकृति और पर्यावरण का अनुचित दोहन करते हुए ढ़ोल और मृदंग की थाप पर इसे आमंत्रण दिया है जो अब ब्रह्मपिशाच सा बन गया है ।

हालांकि लेखक ने यह जिक्र नहीं किया है आखिर कैन और बेतवा नदी के किनारे बसे इस क्षेत्र में रहने वाले लोगों ने कभी इन दोनों नदियों पर बांध बनाने को लेकर कोई मांग क्यों नहीं उठाई है जिससे किसानों को सूखे की समस्या से थोड़ी बहुत निजात मिल जाती / हुई होगी।

8000 कूनो पालपुर वनवासी के विस्थापन के साथ क़िताब का मध्य भाग में  थोड़ी ढीली हो जाती है इसके ये मायने नहीं है कि आंकड़े ग़लत और उलूल जुलूल हो जाते हैं। लेखक अपनी भावनाओं को हम जैसे पाठकों के सामने लाने में थोड़े से चूक गए हैं।

पर जैसे ही ये रिपोर्ट नियामगिरी के पहाड़ों और उनके असली हकदारों के बीच पहुंचती है आप जंगल के हरियाली और प्रकृति के बीच कहीं खो से जाते हैं। यहाँ सब कुछ वास्तविक है। महिलाओं और पुरुषों के फ़ैशन भी समानान्तर हैं। 

शहरीकरण के दौर से जूझती एक संभ्रांत महिला और नियामगिरि की एक आदिवासी महिला के बीच लेखक द्वारा की गई ईमानदार तुलना आपको भाव-विभोर कर देती है। एक आदिवासी कन्या की मुस्कुराहट उसके धंसे गालों में से सफ़ेद झांकते दांत मिलियन डॉलर वाली स्माईल की मिथक को सत्यापित करने वाली रिपोर्ट आपके चेहरे पर मुस्कुराहट की एक लकीर सी छोड़ देती है।

ग्रीन हाउस गैसों के प्रभाव से समुद्री जल स्तर के बढ़ने से डूब रहे तटीय प्रदेश की कहानी है सतभाया। समुद्र गाँव को लगातार डुबाए जा रहा है और साथ में डूब रही है लोगों की भावनाएँ। लोग बाग मजबूर हैं विस्थापन के लिए। घर छोड़कर चले जाना कितना कष्टदायक होता है यह बताते हुए सतभाया के विस्थापित भावुक हो जाते हैं ।

खैर !

पांच रिपोर्टों को समेटे यह रिपोर्ताज देश की मुख्यधारा को छोड़ उन लोगों की कहानी है जो जल, जंगल और जमीन से जुड़े रहना चाहते हैं और ताउम्र किसी भी कीमत पर अपने जंगल देवता को छोड़ना पसंद नहीं करते हैं । सरकारें इन्हें मुआवजा तो देती है पर इनके बेहतरी के लिए क्या करती है यह सरकार ही जानती है। कुल मिलाकर यह रिपोर्ताज़ भावनओं और मजबूरियों से बुनी एक स्वेटर है जिसे पहनकर आप भावविभोर हो जाएंगे ।


Sunday, February 11, 2018

ये जो देश है मेरा की गौरव झा की समीक्षा

आज सुबह ही यह किताब पढ़कर खत्म की, तो सोचा दो-चार लाइनें लिख दी जाएं इस किताब के बारे में, जिसे हमारे मामा ने लिखा है। यह देश के जमीनी हकीकत की कहानियां हैं, जो उन्हें पत्रकारिता के दौरान अनेक जगह में किये गए यात्राओं से मिली हैं। उन जानकारियों, अनुभवों को उन्होंने बहुत रिसर्च के बाद किताब की शक्ल दी है।

इस किताब में भारत के पांच हिस्सों और वहां के लोगों का दर्द ए हाल बयां किया गया है। बुंदेलखंड (मध्य प्रदेश/उत्तरप्रदेश) के लोग पानी की कमी से जूझ रहे हैं, कूनो पालपुर (मध्य प्रदेश) के सहरिया जनजाति पर अभ्यारण्य की वजह से  विस्थापन का खतरा मंडरा रहा है, नियामगिरि (ओडिशा) के डंगरिया-कोंध जनजाति पर बॉक्साइट खनन के लिए विस्थापन का खतरा मंडरा रहा है, सतभाया पंचायत (ओडिशा) के लोगों को बढ़ते समंदर का खतरा परेशान किये हुए है, लालगढ़ (पश्चिम बंगाल) के लोगों को नक्सलियों-पुलिस-राजनीतिक पार्टी के कैडर का खतरा हमेशा परेशान करता रहता है।

आपको पढ़कर यह भी पता चलेगा कि ऐसा नही है कि इन परेशानियों के निपटारे के लिए सरकारों ने प्रयास नही किये। ढेरों प्रयास किये गए और किये जा रहे हैं। बजट आवंटित किए जा रहे हैं, स्थानीय लोग भी प्रयास कर रहे हैं। पर एक चीज की कमी हर जगह दिख रही है वह है उन योजनाओं के क्रियान्वयन में कमी, लापरवाही, लूट-खसोट, अनियमितता।

उन जगहों के इतिहास, भूगोल, वर्तमान और भविष्य के बारे में काफी विस्तार से चर्चा की गई है।

आमलोगों से बातचीत करके उनकी समस्या को सामने रखने का बेहतरीन प्रयास आपको किताब में दिखेगा। हर इलाके के परेशानियों को आंकड़ों सहित दर्शाने के कारण उसे समझना आसान हुआ है, कई बारीक जानकारियां मिलेंगी आपको उन जगहों के बारे में, परिस्थिति के बारे में इस किताब को पढ़कर।

साथ में यह भी पता चलता है कि लेखक ने इसके लिए कितनी मेहनत की होगी।

एक बार जब आप किताब पढ़ना शुरू कीजियेगा तो आपको उन क्षेत्रों के बारे में जानने की इच्छा इतनी बढ़ जाएगी कि बिना खत्म किये किताब छोड़ना मुश्किल होगा। आपके भी जेहन में ये सवाल आएगा कि विकास के मायने सबके लिए एक ही पैमाने से तय किये जा सकते हैं क्या??

बेहतरीन किताब को लिखने के लिए मामा जी को बधाई। जय हो,शुभ हो।

Saturday, February 3, 2018

ये जो देश है मेरा किताब बिंदु छिब्बर की समीक्षा

शिवपुरी में एक स्कूल की प्रिंसिपल और पढ़ाकू बिंदु छिब्बर ने ये जो देश है मेरा की समीक्षा लिखी है, उसको यहां शेयर करने से रोक नहीं पायाः


Manjit Thakur' s book ' Ye jo desh hai mera' for me, broke a spell of 'books bought but not read / finished' lately.

It is a non-fiction account of a few rural-tribal pockets and the sufferings and agony that lead to the poor going destitute or committing suicides.
The book is basically a study of five troubled areas. There are the poor landless farmers of bundelkhand, wrestling with the parched land, failing crops and indebtedness. Second are the tribals Seheriya, displaced from their native land and resources for an outlandish sanctuary.
The third chapter highlights the fascinating Dangariya-kondh tribes of Niyamgiri, who locked horns with Vedanta, the company that wanted to exploit for bauxite their sacred mountain Niyamgiri! Their united action through gram-sabhas proved their vehement stand against dacoity in the name of development! The pristine greenery of kalahandi belies their long combat against starvation. When land is over-exploited and forests are brutally razed, an entire local civilisation is put to death.
The fourth part of the book is about the sinking lands of coastal Orissa..a place called Satbhaya. The land rich in bio-diversity, mangroves, crocodile and breeding place of Ridley turtles is being gradually gobbled by the hungry sea. Some experts blame global warming,coastal erosion and building of artificial ports. Infertility of soil affected crops, caused poverty and malnutrition and resulted in a reluctant exodus.
The last chapter depicts the trials and tribulations of ethnic group called Santhals in lalgarh, West bengal. Struggling for livelihood, they were caught in the deathtrap of the administration, fear of naxalites and manipulating Marxist communists and predatory capitalists. Fear prevailed over the green haven abundant in natural resource but notorious for violence, starvation and despair.
The book is easy-to-read and replete with official statistics that assert its trustworthiness and anecdotes that move you to compassion.
In our democratic set-up, regional imbalances, corruption and apathy in the system, lack of far-sightedness and injustice are rampant. It would not be patriotic but foolish to deny it. It is an impartial, thought-provoking account of the challenges before the nation and more sensitivity is required to overcome them. 

I applaud the efforts ofManjit Thakur and recommend the book highly especially to the many idealistic youngsters I can see desirous of making a difference.


Tuesday, November 5, 2013

किताबः द लास्ट लिबरल एंड अदर एसेज़



किताबः द लास्ट लिबरल एंड अदर एसेज़

भारत और दुनिया के विभिन्न हिस्सों में उदारवाद की तलाश कैसे करेंगे। रामचंद्र गुहा कि किताब द लास्ट लिबरल एंड अदर एसेज़ के निबंध आपको जानी-मानी हस्तियों से  लेकर फुटपाथ पर लगने वाली पुरानी किताबों की दुकान तक से परिचित करवाती है। अपने अपने तरीक़ों से धर्निरपेक्षता, उदारवाद, ईमानदारी और सामाजिक प्रतिबद्धता की मिसाल बने लोगों के जीवन पर रौशनी डाली गई है। लेकिन, सिर्फ प्रस्तावना को छोड़ दें, जिसमें नेहरू पर रामचंद्र गुहा का पक्षपात झलकता है तो बाकी के निबंध निर्द्वन्द्व होकर लिखे गए हैं।

किताब दो हिस्सों में है, पहला हिस्सा है लोग और जगहें। इसमें सेवाग्राम का जिक्र भी है और राजगोपालाचारी का भी। राजगोपालाचारी के बारे में लिखते समय रामचंद्र गुहा ने उनके परमाणु बम के बारे में विचारों को हवाला दिया है। निश्चित तौर पर एटम बम को लेकर सोचने वाले और उस पर भारतीय रूख को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पेश करने वाले राजाजी पहले प्रामाणिक नेता थे। राजाजी एटम बम के विरोध में सेमिनारों में हिस्सा लेने अमेरिका गए, जहां उनकी मुलाकात राष्ट्रपति जॉन एफ केनेडी से भी होनी थी। वक्त मिला था 25 मिनट का। लेकिन केनेडी राजाजी से इस कदर प्रभावित हुए कि एक घंटे से ज्यादा वक्त तक बातें होती रहीं।


बाद में जेनेवा में संयुक्त राष्ट्र संघ निशस्र्तीकरण परिषद् में राजा जी के बारे में अमेरिकी प्रतिनिधमंडल के एक सदस्य ने वी शिवाराव से कहा कि निशस्त्रीकरण पर भारत का पक्ष रखने के लिए आप इस शख्स को जेनेवा क्यों नहीं भेजते? शिवाराव ने इस बाबत नेहरू को खत भी लिखा। लेकिन तब तक नेहरू और राजाजी के संबंध खराब हो चुके थे, और नेहरू ने राजाजी को जेनेवा नहीं भेजा।

चिपको के प्रणेता चंडी प्रसाद भट्ट पर भी बढ़िया जानकारी परक लेख है। लेकिन बंगाली भद्रलोकः देशी मुरगी विलायती बोल खटकता है। वी पी कोईराला पर लिखे गए लेख में कोईराला पर दिया गया ब्योरा कम है। लेख पढ़ने के बाद पूरी संतुष्टि नहीं हो पाती।

किताब का आखिरी निबंध महात्मा गांधी की मार्क्सशीटें हैं। इसमें गुहा स्थापित करते हैं कि स्कूलों में हासिल किए गए बढ़िया अंक मेधाविता का परिचायक नहीं होते। मिसाल उन्होंने कई दिए हैं, मुझे मशहूर वैज्ञानिक आइन्स्टीन का याद आ रहा है। कि वह नौ साल की उम्र में बोलना सीख पाए थे। कि, वह डिप्लोमा हासिल नहीं कर पाए थे। कि म्युनिख में वह ल्योपॉल्ड जिम्नेजियम में पिछड़ गए थे। रामचंद्र गुहा इसी तरह मैट्रिक परीक्षा में गांधी के मार्क्सशीट का हवाला देते हैं, जिसमें कुल 40 फीसद अंक गांधी को हासिल हुए थे।

इस लेख के बाद मुझे गुहा की मार्क्सशीट देखने की जरूरत महसूस हो रही है, और लग रहा है कि वह भी मेरे, गांधी और आइंस्टीन की कतार के ही हैं।

बहरहाल, इस किताब को पेंग्विन ने छापा है और इसका हिंदी अनुवाद आख़री उदारवादी और अन्य निबंध नाम से मनीष शांडिल्य ने किया है। अनुवाद बाकी जगहों ठीक है लेकिन वर्तनी की अशुद्धियां खटकती हैं। मिसाल के तौर पर वीपी कोईराला के भाई मातृका प्रसाद कोईराला को माितृका लिखा गया है।

किताब 291 पृष्ठो की है, पेपरबैक संस्करण का मूल्य 399 रूपये मात्र है। खरीद कर न पढ़ने की इच्छा रखते हों तो किसी लाइब्रेरी से हासिल करें। किताब अच्छी है।