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Monday, March 14, 2022

राजनीतिः क्या केजरीवाल बगैर कांग्रेस वाकई मोदी के विकल्प बन सकते हैं?

आम आदमी पार्टी ने पंजाब में प्रचंड जीत दर्ज की है. और देश की गैर-भाजपा, गैर-कांग्रेसी एकमात्र पार्टी है जो एकाधिक राज्यों में सत्ता में है. जाहिर है, मेरे कई मित्रो ने भाजपा के खिलाफ 2024 के संभावित गठबंधन की धुरी के रूप में आप को देखना शुरू कर दिया है.

लेकिन, आप के लिए यह रास्ता आसान नहीं होगा.

1. गैर-भाजपा गठबंधन का कोई ढांचा तय नहीं है.

2. ममता और केसीआर विपक्ष की ओर से मुख्य खिलाड़ी बनने का दावा ठोंके हुए हैं.

3. विपक्षी खेमे में अभी भी एकमात्र राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस है और वह अपना रुतबा यूं ही नहीं छोड़ देगी.

4. आम आदमी पार्टी राज्य के लिहाज से महज 20 लोकसभा सीटों पर असरदार होगी. ममता के पास 42 सीटों का असर होगा. यहां तक कि राजस्थान और छत्तीसगढ़ (कांग्रेसनीत राज्य) में भी कुल मिलाकर 36 सीटें हैं.

5. आप अभी तक विधानसभा के प्रदर्शनों को लोकसभा जीतों में बदलने में नाकाम रही है. दिल्ली में अभी तक यह एक भी सीट नहीं जीत पाई है. पंजाब में भी 2014 के चार से गिरकर यह 2019 में एक पर आ गया.

6. गुजरात विधानसभा में प्रदर्शन पर निगाह रखनी होगी, वह भी तब अगर केजरीवाल गुजरात के दोतरफा मुकाबले को त्रिकोणीय बना पाएं. इस राज्य में दो दशकों से भाजपा एक भी विस या लोस चुनाव नहीं हारी है. कांग्रेस ने 2017 में मुकाबला कड़ा किया था पर 2019 में भाजपा कि किल में यह खरोंच तक नहीं लगा पाई थी.

7. 2024 के लोस चुनावों से पहले 10 राज्यों में विस चुनाव होने हैं—हिमाचल, कर्नाटक, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, राजस्थान, तेलंगाना, त्रिपुरा, मेघालय, नगालैंड और मिजोरम. इन ग्यारह राज्यों (गुजरात समेत) कुल 146 लोस सीटें हैं. इनमें से 121 पर

भाजपा काबिज है. इन सभी राज्यों में भाजपा के मुकाबिल सिर्फ कांग्रेस है.

8. गुजरात, हिमाचल, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान में 95 सीटें हैं. यहां सीधा मुकाबला कांग्रेस और भाजपा के बीच ही है.

9. कांग्रेस का चार राज्यों में शासन है—दो में यह सीधे सत्ता में है और दो में गठबंधन के जूनियर साझीदार के रूप में, लेकिन पार्टी 15 अन्य राज्यों में प्रमुख खिलाड़ी है. सात राज्यों—अरुणाचल, छत्तीसगढ़, गुजरात, हिमाचल, मध्य प्रदेश, राजस्थान और उत्तराखंड—में कांग्रेस और भाजपा के बीच सीधा मुकाबला है, इन राज्यों में लोस की 102 सीटें हैं. इन राज्यों मे अन्य क्षेत्रीय दलों की मौजूदगी तकरीबन नगण्य है ऐसे में कांग्रेस का प्रदर्शन खराब होगा तो भाजपा को नुक्सान पहुंचा सकने वाली अन्य ताकत दिखेगी भी नहीं. असल में इन राज्यों में कांग्रेस का बोदा प्रदर्शन ही भाजपा की शक्ति है.


 

10. पंजाब, असम, कर्नाटक, केरल, हरियाणा, महाराष्ट्र, झारखंड, गोवा, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम और नगालैंड में कांग्रेस निर्णायक भूमिका अदा कर सकती है. इन राज्यों में लोस की 155 सीटें हैं.

कांग्रेस से अलग कोई भी गठबंधन भाजपा विरोधी मतों के बिखराव का सबब बनेगा. याद रखिए, 2019 में कांग्रेस ने 403 सीटों पर चुनाव लड़ा था और 196 पर सेकेंड आई थी. भले ही जीती 52 हो.

इसलिए, मोदी का विकल्प बनने की केजरीवाल की महत्वाकांक्षा, कम से कम 2024 के लिए दूर की कौड़ी लगती है. हो सकता है केजरीवाल कदम दर कदम आगे बढ़ाएं, पर इसमें वक्त लगेगा. 2024 में वह ऐसा तभी कर पाएंगे अगर कांग्रेस उनको आगे करे. और कांग्रेस ऐसा क्यों करेगी?

Thursday, May 2, 2019

मोदी के बायोपिक पर बैन और अक्षय के साथ साक्षात्कार

अब इस बात में बहुत संदेह नहीं हो सकता कि इंदिरा गांधी के बाद नरेंद्र मोदी हमारी सबसे ताकतवर राजनैतिक शख्सियत हैं. थोड़ा और गहराई में जाएं तो यह कह सकते हैं कि वे अब तक के सबसे दबंग और आवेगपूर्ण नेता हैं. मारग्रेट थैचर के संदर्भ में आवेगपूर्ण नेता की परिभाषा एक ऐसे नेता की थी जो अपनी ही धारणा से चलता है और आम राय से जिसे कोई लेना-देना नहीं होता. इसके अलावा, मोदी हमारे सबसे अच्छे वक्ता भी हैं. आप पिछले पांच साल में संसद में उनके भाषणों में हाव-भाव और इशारों को लेकर या सवालों के जवाब सीधे न देने को लेकर बेशक शिकायत कर सकते हैं, लेकिन एक ऐसे वातावरण में वे बेहद वाचाल हो जाते हैं जो उनके पूरे नियंत्रण में हो. एक बार जब वे अपने श्रोता चुन लेते हैं तो अपने भाषण से ऐसा समां बांधते हैं कि हमने आज तक इस देश में नहीं देखा. वाजपेयी महान वक्ता थे, लेकिन वे हमेशा ऐसे नहीं होते थे. उन्होंने कभी भी अपने विचारों या फिर विचारधारा का प्रचार करने के लिए किसी बड़े मंच का इस्तेमाल नहीं किया.

पिछले पांच साल में हम बारंबार मोदी के इन गुणों से हम वाबस्ता हुए हैं. और, अक्षय कुमार के साथ मोदी के गैर-राजनीतिक और पारिवारिक किस्म के इंटरव्यू की आप चाहे जितनी छीछालेदर कर दें, आम की गुठलियों वाले सवाल पर विमर्श का पोटला खोल दें. पर सच यही है कि मोदी बुधवार को दिन पर स्क्रीन पर छाए रहे. गुरुवार को वाराणसी में रोड शो में उनका स्क्रीन पर छाया रहना तय था और शुक्रवार को वो नामांकन का परचा दाखिल करेंगे. 27 अप्रैल के शाम 5 बजे प्रचार बंद हो जाएगा, तो गौर करिए कि आखिर चर्चा में कौन रहा? चुनाव के इस गलाकाट दौर में मीडिया में स्क्रीन पर कब्जा कर लेना कितना अहम है?

आपको नहीं लगता कि मोदी की बायोपिक को चुनाव आयोग किसी संत के जीवन पर बनाई गई फिल्म करार दे, और फिल्म में मोदी को पूजनीय दिखाया गया है. ठीक है, यह आचार संहिता के दायरे में आता है. पर राहुल गांधी या सोनिया या शरद पवार की जीवन वृत्त पर कोई फिल्म बने तो उसमें क्या उनकी आलोचना होगी? बाल ठाकरे पर बनी फिल्म याद करिए, उनके विचारों को क्या उसमें जस्टिफाई करने की कोशिश नहीं की गई है? मुक्केबाज मेरी कॉम हो या पान सिंह तोमर जैसा डकैत, उनके जीवन को क्या फिल्मों ने ग्लोरीफाइ करने की कोशिश नहीं की है?

कांग्रेस को फिल्म का जवाब फिल्म से देना चाहिए था. बहरहाल, बायोपिक पर रोक मोदी को रोक नहीं पाई और अक्षय कुमार के साथ साक्षात्कार एक तरह से सवा घंटे का मोदी का बायोपिक ही तो था.

क्या वह इंटरव्यू देखकर आपको नहीं लगा कि लंबी दूरी तय करने वाला कोई चालक अपनी गाड़ी को संभालने की कोशिश कर रहा हो. इसमें कोई नया नुस्खा नहीं उछाला गया है. मोदी के चुनावी रैलियों पर ध्यान दें. अब वे पुराने नुस्खों, खासकर शौचालय, स्वच्छ भारत और मेक इन इंडिया के मामले में कुछ खास नहीं कहते. क्योंकि वह जानते हैं वोट इनसे नहीं मिलते. मोदी भारतीयों की नब्ज जानते हैं कि लोग आवेगों पर वोट करते हैं. ताकतवर नेता घटनाओं के आधार पर अपनी नीतियां तय नहीं करते और आवेगपूर्ण नेता दूसरों की उम्मीदों के हिसाब से नहीं चलते. इसकी बजाए, वे आपको चौंकाते हैं.

ताकतवर और आवेगपूर्ण नेता दूसरों को अपना मंच छीनने का मौका नहीं देते. अगर मोदी को दूसरे नेताओं का मंच छीनना था, तो बुधवार की सुबह साक्षात्कार रिलीज करवाकर उन्होंने वाकई मंच छीन ही लिया.

Friday, February 9, 2018

किसानों से किया वादा पूरा नहीं कर पाएंगे मोदी!

भारत में जिस तरह अर्थव्यवस्था झटकों से उबरने की कोशिश कर रही है और जिस तरह कृषि की विकास दर भी गोते लगा रही थी, किसान अधिक उपजाने पर भी संकट में था और कम उपजाकर भी, ऐसे में खेती-किसानी की तुलना कुछ लोग ब्लू व्हेल गेम से करने लगे थे, जिसमें आखिर में आकर मौत ही हासिल होनी है.

ऐसे में, लग रहा था कि इकोनॉनोमिक सर्वे 2017-18 में इस पर गंभीरता से कुछ कहा जाएगा. लेकिन आर्थिक सर्वेक्षण के कुछ तथ्य प्रधानमंत्री मोदी के लिए चिंता का सबब होना चाहिए, जिसमें खेती पर जलवायु परिवर्तन के असर को रेखांकित करने की कोशिश की गई है.

बतौर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने साल 2022 तक किसानों की आमदनी दोगुनी करने का एक लक्ष्य तय किया. अब भारत में खेती से जुड़े तमाम कार्यक्रम और योजनाओं की रुख इसी तरफ मुड़ गया लगता है.

आर्थिक सर्वेक्षण "मध्यकालिक अवधि में खेती से होने वाली आमदनी 20 से 25 फीसदी तक घटने" की चेतावनी देता है. देश में खेती सबसे अधिक रोजगार देने वाला सेक्टर है और ऐसी चेतावनियां खेतिहरों की आमदनी दोगुनी करने के दिशा में कोशिशों पर पानी फेर सकती हैं.

आर्थिक सर्वे यह भी कहता है कि सरकार का खेतिहरों की मुश्किल दूर करने और उनकी आय को दोगुनी करने के लक्ष्य को पूरा करने के लिए लगातार फॉलो अप करना होगा, जिसमें किसानों तक विज्ञान और प्रौद्योगिकी पहुंचाने के लिए फैसलाकुन कोशिशें भी करनी होंगी. बिजली और उर्वरक पर दी जा रही सब्सिडी की जगह प्रत्यक्ष लाभ अंतरण के जरिए मदद पहुंचानी होगी.

आर्थिक सर्वेक्षण साफ करता है कि मौसम में तापमान में अत्याधिक उतार-चढ़ाव से किसानों की आमदनी में खरीफ की फसल के दौरान 4.3 फीसदी की कमी आई है, जबकि रबी की फसल के दौरान यह कमी 4.1 फीसदी रही है. जबकि ज्यादा बारिश ने आमदनी को क्रमशः 13.7 और 5.5 फीसदी कम कर दिया.

किसानों की आमदनी पर मौसम की मार असिंचित इलाकों में अधिक रही है. गौतरलब है कि देश के 60 फीसद रकबे में सिंचाई का जरिया महज बारिश ही है. आर्थिक सर्वे में कहा गया है, 'एक बार फिर, इन औसतों ने विविधता पर असर डाला. मौसम में बदलाव का असर असिंचित इलाकों में ज्यादा रहा.

अभी यह स्पष्ट नहीं कि कृषि राजस्व किस तरह मुड़ना चाहिए--एक तरफ तो उपज में कमी आई दूसरी तरफ, कम आपूर्ति से स्थानीय रूप से कीमतों में उछाल आई. ऐसे में नतीजे साफ तौर पर संकेत दे रहे हैं कि "आपूर्ति पर दुष्प्रभाव" ज्यादा जोरदार रहा है--उपज में कमी ने राजस्व को कम कर दिया.'

सर्वे के मुताबिक, इन सालों में जब तापमान औसत से एक डिग्री सेल्सियस अधिक रहा, वर्षा सिंचित जिलों में खरीफ के दौरान किसानों की आमदनी 6.2 फीसदी कमी हुई, जबकि रबी की फसल में यह कमी 6 फीसदी रही. इसी तरह, उन वर्षों में जब बरसात की मात्रा औसत से 100 मिलीमीटर कम रही, किसानों की आय में खरीफ के दौरान 15 फीसदी और रबी के दौरान 7 फीसदी की कमी दर्ज की गई है.

अनुमान है कि जलवायु परिवर्तन की वजह से किसानों की आमदनी में औसतन 15 से 18 फीसदी की कमी आई है. वर्षासिंचित इलाकों में यह औसत 20 से 25 फीसदी तक हो सकती है. यह तथ्य वाक़ई चिंताजनक हैं क्योंकि भारत में खेती से आय पहले ही काफी कम है.

इसका एक अर्थ यह भी हो सकता है कि सरकार का किसानों की आमदनी बढ़ाने का लक्ष्य भी अप्रासंगिक हो जाएगा. अगर सरकारी आंकड़ों में जलवायु परिवर्तन की वजह से हुए नुकसान को शामिल कर लिया जाए तो कहानी सिरे से बदल जाएगी.

सर्वे की चेतावनी और भी चिंताजनक है कि जलवायु परिवर्तन से होने वाला नुकसान असली असर से थोड़ा कम ही सामने आया है. आखिर भविष्य में तापमान बढ़ने की दुश्चिंता भरी भविष्यवाणियां भी हैं. नीति नियंताओं के लिए यह तथ्य उनके सिर का तापमान बढ़ाने वाला साबित हो सकता है.

Wednesday, December 20, 2017

भाजपा के हाथों से खिसक रही गांव की जमीन

गुजरात के चुनाव नतीजों को लेकर न जाने कितनी बातें कहीं जाएंगी. लेकिन नतीजों का रणनीतिक विश्लेषण अभी भी प्रासंगिक होगा क्योंकि अगले साल चार बड़े राज्यों में चुनाव होने हैं और लोकसभा चुनावों में महज अठारह महीने बाकी हैं. इस निगाह से देखें तो गुजरात के ग्रामीण इलाकों में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को झटका खाना पड़ा है और उसमें भी सौराष्ट्र क्षेत्र उसके लिए दुःस्वप्न सरीखा ही रहा.

मिसाल के लिए, उत्तरी गुजरात के ग्रामीण इलाकों में जहां 2012 में मोदी की रैलियों के दौरान भारी-भरकम भीड़ जमा हुई थी वहां पार्टी ने बेहतर प्रदर्शन नहीं किया. गुजरात में करीब दो साल पहले दिसंबर में हुए जिला पंचायत चुनाव में कांग्रेस ने 31 में से 23 सीटों पर भाजपा को शिकस्त दी.

तालुक चुनाव में भी भाजपा के मुकाबले कांग्रेस को अच्छी खासी सीटें मिलीं थीं. इन दोनों चुनाव के नतीजों को 2017 के नतीजों के मिला दें तो ग्रामीण गुजरात में भाजपा की खिसक चुकी जमीन का मसला सच साबित होता है. गुजरात के गांव भाजपा के लिए चुनौती बने और कांग्रेस के लिए गुजरात में वापसी बल्कि यह कहें कि पैर जमाने के मौके के तौर पर आए, और कांग्रेस एक हद तक उसमें कामयाब भी रही.

हालांकि भाजपा ने पूरी कोशिश की थी कि ग्रामीण इलाके में उसका वोट बैंक नहीं टूटे, यदि किसी वजह से इन्हें टूटने से नहीं बचाया जा सके तो कम से कम वोटरों को कांग्रेस की तरफ एकजुट होने से तो रोका ही जाए. भाजपा की यह रणनीति ही बयान कर रही थी कि पार्टी रक्षात्मक मुद्रा में है. आखिर, जीएसटी, गन्ना और मूंगफली के मूल्यों को आखिर पलों में समर्थन देना ऐसा ही कदम था. जरा इलाकावार देखिएः

सौराष्ट्र इलाके में कुल 54 विधानसभा सीटें हैं. 2012 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने यहां 35 सीटें हासिल की थीं, लेकिन इस बार उसे 23 सीटों से संतोष करना पड़ा. पूरे राज्य में सौराष्ट्र ही एकमात्र क्षेत्र रहा जहां भाजपा-कांग्रेस के बीच सीट शेयर का अंतर सकारात्मक से नकारात्मक की तरफ गया. तो इस बदलाव का क्या अर्थ है? क्या सिर्फ भौगोलिक विभाजन या इसके कोई आर्थिक संकेत भी हैं?

निश्चय ही, आर्थिक कारक अधिक मजबूत कारण बने. अब यह बात हर किसी को पता है कि गुजरात के गांवों में भाजपा के जनाधार को चोट पहुंची है. अगर क्षेत्रवार बात करें तो हर क्षेत्र के ग्रामीण इलाकों में मतदाता भाजपा से नाराज दिखा है.

उत्तर गुजरात में करीब 90 फीसदी सीटें ग्रामीण इलाके की हैं, जबकि दक्षिण गुजरात में सिर्फ 50 फीसदी. सौराष्ट्र में 75 फीसदी और मध्य गुजरात में ग्रामीण सीटों की संख्या 63 फीसदी है. जैसी कि उम्मीद थी कांग्रेस ने उत्तर गुजरात और सौराष्ट्र क्षेत्र में भाजपा पर सीटों की संख्या के मामले में बढ़त बना ली. इन दोनों इलाकों में कांग्रेस को क्रमशः 53.1 और 55.56 फीसदी सीटें हासिल हुईं.

दोनों पार्टियों के प्रदर्शन में क्षेत्रवार अंतर की वजहें सीटों की प्रकृति में छिपी हैं. कुछ नहीं, एक आसान सा आंकड़ा स्थिति स्पष्ट कर देता है. राज्य स्तर पर दोनों पार्टियों के बीच सीट शेयरिंग में करीब 12 फीसदी का फासला है. लेकिन इसी आंकड़े को इलाकावार देखें तो इसमें काफी उतार-चढाव भी है. शहरी और ग्रामीण सीटों पर अलग-अलग विश्लेषित करने पर इस अंतर में पर्याप्त कमी आती है.

क्षेत्रवार सीटों का अंतर ग्रामीण इलाकों में कम और शहरी इलाकों में अधिक है. इसका मतलब यह हुआ कि ग्रामीण गुजरात में भाजपा के खिलाफ असंतोष अधिक मुखर था. 2012 में ऐसा नहीं था. ग्रामीण इलाकों में भी भाजपा का प्रदर्शन सौराष्ट्र में कांग्रेस के प्रदर्शन से बेहतर था. तब उसे सौराष्ट्र की 40 ग्रामीण सीटों में से 24 और दक्षिण गुजरात में 15 में से 9 सीटें हासिल हुई थीं. तो इस बार क्या बदल गया?

गुजरात में सौराष्ट्र का इलाका कपास उत्पादक क्षेत्र है. 2012 के बाद से कपास की कीमतें औंदे मुंह गिरी हैं. शायद दक्षिण गुजरात के किसानों को सौराष्ट्र के किसानों जैसी मुश्किल का सामना नहीं करना पड़ा हो क्योंकि वहां, कपास नहीं गन्ना प्रमुख फसल है. गन्ने के फसल की कीमत मूंगफली या कपास की तरह धड़ाम नहीं हुई थी. ऐसे में दक्षिण गुजरात में कांग्रेस और भाजपा के बीच ग्रामीण इलाकों में मुकाबला बराबरी पर छूटा है.

खैर, गुजरात में तो हाथी भी निकल गया और उसकी पूंछ भी, लेकिन भाजपा के सामने बड़ी चुनौती होगी राजस्थान और मध्य प्रदेश में अपनी सत्ता बचाए रखना. आखिर, गांवों के अपने छीजते जनाधार को बचाए रखन पाने में अगर भाजपा नाकाम रही तो 2019 में अपने बूते बहुमत में आऩा टेढ़ी खीर साबित होगा.



Tuesday, December 19, 2017

क्या शेर का क़द वाक़ई एक बिलान छोटा हो गया है?

गुजरात विधानसभा में भाजपा की सरकार बन गई है. 22 साल से गुजरात में सत्ता से दूर कांग्रेस फिर से विपक्ष में बैठेगी. लेकिन गुजरात के चुनाव ने साफ कर दिया है कि कांग्रेस अध्यक्ष बने राहुल गांधी हार कर बाजीगर बने या न बने हों, लेकिन मोदी की लहर की दहक कहीं न कहीं कमजोर हुई है.

मेरी इस बात से कुछ लोग इत्तफाक नहीं रखेंगे और कहेंगे कि जीत तो आखिर जीत होती है.

लेकिन, गुजरात मोदी का है. पार्ट टाइम मुख्यमंत्री बनने से लेकर 2014 में लोकसभा में प्रचंड बहुमत पाने तक मोदी एक लहर थे. मुझे याद है एक दफा गुजरात में नीलोफर नाम के तूफान आऩे का खतरा था और तब राजकोट में मुझे एक चाय की दुकान पर किसी ने कहा थाः कोई तूफान नहीं आएगा, क्योंकि यहां का तूफान तो दिल्ली चला गया.

उस चायवाले का यह बयान कहता था कि गुजरात का आम आदमी मोदी पर किस कदर गर्व करता था. उस जगह पर मोदी की भाजपा अगर 115 के पुराने (2012 चुनाव) के आसन से नीचे खिसकती है तो इसको गुजरात के शेर के कद का एक बिलान कम होना ही मानिए.

ज़रा वोट प्रतिशत की तरफ ही ध्यान दीजिए. एग्जिट पोल के परिणाम यही बता रहे थे कि राहुल गांधी की मेहनत गुजरात में कांग्रेस का वोट प्रतिशत बढ़ाने वाली है. नतीजों से भी साफ है कि टीम राहुल ने समाज के सभी वर्गों को साथ लाकर न केवल पार्टी का वोट बैंक और वोट शेयर बढ़ाया है बल्कि गुजरात विकास के मॉडल को भी सवालों के घेरे में खड़ा किया है.  

खासकर गांवों में तो कांग्रेस ने अपना वोट शेयर और सीटें दोनों में ही इजाफा किया है. गांवों से खिसकते जनाधार और गांव और शहर के अलग मिजाज़ से वोट करने के क्या सियासी मायने हैं और उसके क्या नतीजे होंगे, वह एक अलग विमर्श की विषय वस्तु है.

पिछले विधानसभा में भाजपा को 47.85 फीसदी, कांग्रेस को 38.93 फीसदी और अन्य को 13 फीसदी वोट मिले थे. यानी कांग्रेस भाजपा से महज 9 फीसदी वोटों से पीछे थी. 2017 के एग्जिट पोल के मुताबिक बीजेपी को 47 फीसदी वोट मिलने की संभावना है जबकि कांग्रेस को 42 फीसदी वोट की. अभी तक के आंकड़ों के मुताबिक कांग्रेस को 41.4 फीसदी वोट मिले हैं. हार के बावजूद कांग्रेस के वोट शेयर में भाजपा की तुलना में बढोत्तरी हुई है. हालांकि वोट शेयर भाजपा का भी बढ़ा है लेकिन पिछले चुनाव की तुलना में सीटें कम हो रही हैं.

इस गुजरात को जीतने के लिए मोदी को अपने पसंदीदा विकास के मुद्दे से बेपटरी होना पड़ा. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह भी अधिकांश चुनावी रैलियों में विकास की बजाय राहुल गांधी पर निजी हमले करते रहे. इसकी बजाय राहुल ने सायास अपनी छवि मृदुभाषी युवा की बनाई. जाहिर है, उनकी टीम ने राहुल की छवि गढ़ने पर बहुत मेहनत की क्योंकि पिछले चुनावों में कीचड़ राहुल पर उछलकर उनकी छवि खराब की गई थी.

इस तमाम मेहनत के बावजूद अमित शाह 150 सीटों के अपने लक्ष्य से काफी दूर ही रुक गए.

जबकि गुजरात में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हर रैली में इस चुनाव को खुद से जोड़ा और खुद ही जिताने की अपील की. नरेंद्र मोदी ने गुजरात में कुल 36 रैलियां की थी. अपनी रैलियों में मोदी ने नोटबंदी, जीएसटी, पाटीदार, दलित हर मुद्दे पर आक्रामक रुख अपनाया और सरकार पर लगे आरोपों का बचाव तो किया ही सख्ती से जवाब भी दिया.

गुजरात का चुनाव शुरू तो हुआ था विकास के नारों के साथ, लेकिन जाति में दुष्चक्र में फंस गया, मणिशंकर अय्यर के नीच वाले बयान को भाजपाई ले उड़े. माफीनामे और राहुल गांधी की सफाई के बावजूद प्रधानमंत्री ने इसे गुजराती अस्मिता से जोड़ दिया. जाहिर है, भाजपा के करीब सौ सीटों में इस भावना के रसायन ने बखूबी काम किया.

गुजरात जीतने के लिए मोदी को पाकिस्तान को भी बीच में घसीटना पड़ा. इस आरोप में प्रधानमंत्री ने डॉ मनमोहन सिंह से लेकर बहुत सारे नेताओं को लपेट लिया. यह और बात है कि ऐसे आरोप किसी चुनावी मंच से लगाने चाहिए या नहीं, खासकर देश के सबसे जिम्मेदार पद पर बैठे करिश्माई नेता से, लेकिन नतीजों में कुछ हिस्सा तो पाकिस्तान का भी ठहरा.

चुनाव प्रचार में कांग्रेस सॉफ्ट हिंदुत्व का दामन थामना चाह रही थी. अब भाजपा को उसी के टर्निंग विकेट पर हराना मुश्किल था. फिर उसमें मंदिर यात्राओं के दौरान राहुल का नाम किस रजिस्टर में दर्ज है यह भी खूब उछला. फिर राहुल के 'जनेऊधारी' होने के बयान भी आए. इसे कुछ यूं समझ लीजिए कि कांग्रेस की तेज़ गेंदबाजी से बचने के लिए भाजपा ने विकेट की घास साफ करवा दी.

फिर राम मंदिर के मुददे पर कपिल सिब्बल की बयानबाजी और पाटीदार आंदोलन की लहर को थामने की कांग्रेस की कोशिश में बाकी जातियों के खिसक जाने को वजहें बताई जा सकती हैं. लेकिन पटेल वोटों के बिखराव को भाजपा ने दोनों हाथों से समेटा. पटेल फैक्टर वाले 37 में से करीब 20 सीटों पर भाजपा जीत रही है.

लेकिन, फिर सवाल वही घूमकर आता है. क्या गुजरात चुनाव ने ठोस मुद्दे को घुमा-घुमाकर अमूर्त मसलों (हिंदुत्व, जनेऊ वगैरह) पर लाकर, निजी हमले करके. पाकिस्तान को बीच में लाने की जो मजबूरी भाजपा को दिखानी पड़ी, उससे यह नहीं लगता कि नरेंद्र मोदी की ताकतवर दहाड़ने वाले नेता का करिश्मा कहीं चुक तो नहीं गया!

क्या शेर का क़द वाक़ई एक बिलान छोटा हो गया है?

मंजीत ठाकुर