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Sunday, October 9, 2022

शरद पूर्णिमा यानी कोजागरा में करिए लक्ष्मी पूजन, अपन अब पांचवी बड़ी अर्थव्यवस्था हैं

एकतरफ रूस-यूक्रेन युद्ध, दूसरी तरफ बढ़ती मुद्रास्फीति... आर्थिक हालात पूरी दुनिया में चिंताजनक हैं. लेकिन इस नामउम्मीदी के दौर में भी भारत एक चमकीले स्पॉट की तरह उम्मीद जगा रहा है. रविवार को शरद पूर्णिमा का दिन है. अगर आप धार्मिक हैं तो इस दिन देवी लक्ष्मी की पूजा करें. असल में, रविवार को शरद पूर्णिमा है. पूरे भारत में इस पूर्णिमा की अहमियत अलग है. आप चौंक गए होंगे कि देवी लक्ष्मी की पूजा तो दिवाली के दिन होती है, शरद पूर्णिमा को उनकी पूजा कैसे हो सकती है!

असल में, शरद पूर्णिमा के दिन इस लेख के जरिए हम देश के अलग-अलग हिस्सों में इस दिन प्रचलित कुछ सांस्कृतिक परंपराओं के बारे में बताने जा रहे हैं.

 

वैसे तो शरद पूर्णिमा की शाम को चांद के निहारने की रात मानी जाती है, क्योंकि इस रात चांद कुछ ज्यादा ही खिला-खिला नजर आता है. हो सकता है कि देश के अधिकतर हिस्सों में हो रही बारिश की वजह से आप चांद दा दीदार न कर पाएं. पर ऐसे ही मौकों के लिए एक शायर लाला मौजी राम मौजी ने लिखा हैः

दिल के आईने में थी तस्वीर-ए-यार,
जब जरा गरदन झुकाई देख ली

आपको गरदन झुकाने की नौबत नहीं आएगी, आप चाहें तो अपनी छत पर या आंगन में खड़े होकर गरदन उठाइए और चांद को निहारिए. आप चलेंगे तो चांद साथ चलेगा. आप भागेंगे तो चांद साथ भागेगा. इसी को तो कविताई में कहा है किसी नेः

'चलने पर चलता है सिर पर नभ का चन्दा.
थमने पर ठिठका है पाँव मिरगछौने का.'

कभी धान के खेतों में फूटती बालियों के बीच खड़े होकर चांद को निहारा है आपने? खेतिहर इलाकों में जाइए तो धान की बालियों से निकलती सुगंध से मतवाले हो जाइएगा. दूर-दूर तक छिटकी हुई चांदनी थी और अपूर्व शीतल शान्ति. बस यों कहिए कि 'जाने किस बात पे मैं चांदनी को भाता रहा, और बिना बात मुझे भाती रही चांदनी. 



मिथिला में नवविवाहित वर-वधू के लिए शरद पूर्णिमा का बड़ा महत्व है. चांदनी रात में गोबर से लिपे और अरिपन (अल्पना) से सजे आंगन में माता लक्ष्मी और इन्द्र के साथ कुबेर की पूजा और अतिथिय़ों का पान-मखान से सत्कार और वर-वधू की अक्ष-क्रीड़ा (जुआ खेलना) कोजागरा पर्व का विशेष आकर्षण है.

नव विवाहित जोड़ों के आनंद के लिए दोनो को कौड़ी से जुआ खेलाया जाता है. चूंकि वधू अपनी ससुराल में नई होती है, जहां वरपक्ष की स्त्रियां अधिक होती हैं, इसलिए मीठी बेइमानी कर वर को जिता भी दिया जाता है.

लक्ष्मी-पूजन के बाद नवविवाहित जोड़े पूरे टोले भर के लोगों को पान-मखान बांटते हैं. कोजागरा के भार (उपहार) के रूप में वधू के मायके से बोरों में भरकर मखाना आता है. मखाने मिथिलांचल के पोखरों में ही होते हैं, दुनिया में और कहीं नहीं. इनके पत्ते कमल के पत्तों की तरह गोल-गोल मगर कांटेदार होते हैं. उनकी जड़ में रुद्राक्ष की तरह गोल-गोल दानों के गुच्छे होते हैं. जिन्हें आग में तपाकर उसपर लाठी बरसाई जाती है. जिससे उन दानों के भीतर से मखाना निकलकर बाहर आ जाता है. 



मखाने निकालना बड़ी श्रमसाध्य प्रक्रिया है, जिसे मल्लाह लोग ही पूरा कर पाते हैं. शरद के चंद्रमा की इस भरपूर चांदनी का मजा सिर्फ मिथिलांचल में ही नहीं लिया जाता बल्कि मध्य प्रदेश, गुजरात, बंगाल और महाराष्ट्र में भी इस दिन लक्ष्मी की पूजा की जाती है. इन इलाकों में खीर के पात्र को रात भर चांदनी में रखकर सवेरे खाया जाता है. कहते हैं, शरद पूर्णिमा की रात में खुले आकाश के नीचे चांदी के पात्र में खीर रखने से उसमें अमृत का अंश आ जाता है.

असल में शरद पूर्णिमा या कोजागरी पूर्णिमा या कुआनर पूर्णिमा एक फसली उत्सव है. आसिन (आश्विन) के महीने में जब खेती-बाड़ी के सारे कामकाज खत्म हो जाते हैं, मॉनसून का बरसता दौरे-दौरा समाप्त हो जाता है, तब यह उत्सव आता है और इसे कौमुदी महोत्सव भी कहते हैं. कौमुदी का अर्थ चांदनी होता है. यह उत्सव गोपियों के साथ कृष्ण के रास का उत्सव है.

दंतकथाएं कहती हैं कि एक राजा अपने बुरे दिनों में दरिद्र हो गया और उसकी रानी ने जब कोजागरा की रात को जागकर लक्ष्मी पूजन किया तो राजा की समृद्धि लौट आई. कोजागरा की रात देवताओं के राजा इंद्र को भी पूजा जाता है.

अब कई लोगों का यह भी विश्वास है कि इन दिनों चांद धरती के ज्यादा नजदीक होता है और औषधियों के देवता चंद्र इन दिनों अपनी चांदनी में देह और आत्मा को शुद्ध करने वाले गुण भर देते हैं.


वेद कहता है कि चन्द्रमा का उद्भव विराट पुरुष के मन से हुआ, 'चन्द्रमा मनसो जात:, चक्षो: सूर्यो अजायत (पुरुषसूक्त). चन्द्रमा और सूर्य, इन्हीं दोनों से तो सृष्टि है. चन्द्रमा हमारे जीवन को कई रूपों में प्रभावित करता है. उसका सम्बन्ध पृथ्वी के जलतत्व से है. इसीलिए समुद्र में ज्वार-भाटा चन्द्रमा की कलाओं के अनुसार घटता-बढ़ता है. पूर्णिमा की रात समुद्र का ज्वार अपनी चरम सीमा पर रहता है.

यह कैसा अभिशाप, चांद तक
सागर का मनुहार न पहुंचे,
नदी-तीर एकाकी चकवे का
क्रन्दन उस पार न पहुंचे.

समुद्र-मंथन के बाद महारत्न के रूप में एक साथ निकलने के कारण चन्द्रमा और लक्ष्मी भाई-बहन हुए. चूंकि संसार के पालनकर्ता विष्णु की पत्नी लक्ष्मी जगमाता हैं, इसलिए उनके भाई चन्द्रमा सबके मामा हैः चन्दा मामा.

शास्त्र कहता है कि लक्ष्मी अगर विष्णु के साथ आती हैं, तो उनका वाहन गरुड़ होता है. लेकिन जब अकेली आती हैं तो उनका वाहन उल्लू होता है. मिथिला में कोजागरा की रात की लक्ष्मी-पूजा में त्रिपुरसुन्दरी लक्ष्मी का युवती के रूप में सांगोपांग वर्णन करते हुए उनसे हमेशा अपने घर में रहने की विनती की जाती हैः

या सा पद्मासनस्था विपुलकटितटी पद्मपत्रायताक्षी
गंभीरावर्तनाभि: स्तनभरनमिता शुभ्रवस्त्रोत्तरीया।
लक्ष्मीर्दिव्यैर्गजेन्द्रै: मणिगणखचितै: स्नापिता हेमकुम्भै:
नित्यं सा पद्महस्ता वसतु मम गृहे सर्वमांगल्ययुक्ता॥

कभी पूजा विधि को गौर से देखिए तो समझ में आएगा कि सामान्य पूजा के बाद बाकी देवताओं को तो अपने-अपने स्थान पर चले जाने का अनुरोध किया जाता है (पूजितोऽसि प्रसीद, स्व स्थानं गच्छ), लेकिन लक्ष्मी को सभी अपने पास ही रहने का आग्रह करते हैं (मयि रमस्व).

कोजागरा की रात महाराष्ट्र का उत्सव थोड़ा अलग होता है. इसमें परिवार के सबसे बड़ी संतान को सम्मान दिया जाता है.

गुजरात में यह शरद पूनम है. जहां गरबा और डांडिया के साथ लोग इसे मनाते हैं. तो बंगाल के लिए यह कोजागरी लक्खी पूजो है. ओडिशा में यह शिव के पुत्र कार्तिकेय की पूजा का दिन है. इसलिए वहां इसे कुमार पूर्णिमा कहते हैं. कार्तिकेय ने इसी दिन तारकासुर के साथ युद्ध किया था.



ओडिशा की लड़कियां कार्तिकेय जैसा वर पाने के लिए पूजा करती हैं. क्योंकि कार्तिकेय या स्कंद—जिनको तमिलनाडु में मुरुगन कहते हैं—देवों में मोस्ट एलिजिबल बैचलर हैं. सबसे दिलेर, हैंडसम और खूबसूरत भी. लेकिन विचित्र है कि कार्तिकेय जैसा वर मांगने का दिन होने के बावजूद ओडिशा में इसका कोई कर्मकांड नहीं है. इसके बजाय सुबह में सूर्य की ही पूजा 'जान्हीओसा' होती है. शाम में चांद की पूजा होती है और उनके लिए खास भोग चंदा चकता बनता है. इसको घी, गुड़, केला, नारियल, अदरक, गन्ने, तालसज्जा, खीरा, मधु और दूध से बनाया है और फिर इसको कुला (पंखे) पर रखा जाता है. कोजागरा के दिन कटक से आगे केंद्रपाड़ा के तटीय इलाको में गजलक्ष्मी की पूजा भी होती है.

इलाके अलग-अलग है तरीके भी अलग, लेकिन पूजा लक्ष्मी की ही होती है.

हमलोग दुनिया की पांचवी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन चुके हैं. कोविड के दौर में -6.6 फीसद की नकारात्मक वृद्धि दर से उबरकर हमने 6-7 फीसद की वृद्धि दर से उम्मीदें जगा दी हैं. कोरोना के बाद हमारी रिकवरी की दर सबसे अधिक है. मुश्किल वक्त में भी हमारी ग्रोथ रेट बाकी देशों की तुलना में कम गिरी, तो उम्मीद में इससे अधिक और क्या चाहिए.

आज हजरत साहब की जयंती मिलाद-उल-नबी भी है. चांद देखिए और दुनिया भर के महापुरुषों को याद करिए. आध्यात्मिकता, सांसारिकता, व्यावहारिकता सबका मेल है शरद पूर्णिमा में.

Thursday, August 18, 2022

भारत की राष्ट्रीयता 'धर्म' और 'भाषा' से कहीं अधिक व्यापक है

मंजीत ठाकुर

मेरे एक अनन्य मित्र हैं विश्वदीपक. वह प्रखर पत्रकार हैं और राष्ट्र की अवधारणा पर उनकी अलग राय है.

विश्वदीपक ने सोशल मीडिया पर मेरे एक आलेख के जवाब में लिखा लिखा, “राष्ट्र की अवधारणा ही 19वीं-20वीं शताब्दी की है. इस पर नहीं जाऊंगा कि गायत्री मंत्र किसने रचा पर वैदिक काल को स्थापित हिंदू धर्म के खांचे में समेट लेना ठीक नहीं. इसका कोई आधार भी नहीं.”

वह बेहद पढ़े-लिखे पत्रकार हैं और ट्रोल्स और घुड़कीबाजी के दौर में वह तर्कों के साथ प्रस्तुत होते हैं.

विश्वदीपक समेत और बुद्धिजीवी मित्र वैदिक काल को स्थापित हिंदू धर्म के खांचे में समेट लेने से नाराज हैं. फिर भी, हिंदूपन को लेकर विश्वदीपक की अलग राय हो सकती है, रंगनाथ सिंह की अलग, सुशांत झा की अलग और मंजीत ठाकुर की एकदम अलहदा. वैसे ही, जैसे हिंदू धर्म को लेकर संघ, कांग्रेस, भाजपा, शिवसेना और बजरंग दल की अलग व्य़ाख्याएं रही हैं.

हिंदू धर्म की सबने अलग व्याख्याएं की हैं. मिथिला के हिंदू धर्म की परंपराएं, तमिलनाडु के हिंदू धर्म से और तमिल हिंदू परंपराएं राजस्थानी हिंदू परंपराओं से अलग हैं. इन समाजों की स्थापित मान्यताएं और परंपराएं अलग हैं, फिर भी उनमें के प्रवाहित धारा एक है. और इसी वजह से तमिल, कन्नड़, मलयाली समाजों को अलग राष्ट्र नहीं कहा जा सकता. यह सारे समाज एक साझा प्रवाह के अंग हैं. यही प्रवाह वैदिक काल से लेकर आज के हिंदू धर्म में हैं. (कृपया कुरीतियों को इसमें न समेटें, सभी धर्मों में अपने हिसाब के कुरीतियां हैं और पर्याप्त हैं, वह मानव स्वभाव है)

बहरहाल, हिंदू धर्म की खासियत ही यही है कि यह सुप्रीम कोर्ट की निगाह में 'जीवन शैली' है और इसकी व्याख्या में आप हर तरह की छूट ले सकते हैं. हिंदू होते हुए आप नास्तिक, आस्तिक, शैव, शाक्त, वैष्णव 'कुछ भी' या 'कुछ भी नहीं' हो सकते हैं. आप मांस खा सकते हैं, मछली खा सकते हैं, देवी के सामने बलि प्रदान कर सकते हैं और शाकाहारी भी हो सकते हैं. यहां तक कि एक ही परिवार में एक व्यक्ति शाकाहारी और दूसरा मांसाहारी हो सकता है. बच्चे के ननिहाल में देवी के सामने बलि प्रदान हो सकता है और अपने घर में कुलदेवी को बलि की मनाही हो सकती है.

आपको मिली यही छूट हिंदू धर्म को एक साथ बेहद मजबूत, सहिष्णु और साथ ही सबसे अधिक कमजोर (आप ‘वलनरेबल’ पढ़ें) भी बनाता है.

कम ज्ञानी लोग कहते हैं (और ऐसा सभी धर्मों के उग्र लोग कहते हैं) कि उनका धर्म खतरे में है. धर्म कभी खतरे में नहीं हो सकता क्योंकि धर्म तो शाश्वत है (अपनी-अपनी पवित्र किताबों में आप इसके संदर्भ को देख सकते हैं). आप को एक साथ गर्व है कि हिंदू धर्म तो भैय्या, बहुत सहिष्णु है, यह वसुधैव कुटुंबकम का संदेश देता है. दूसरी तरफ, इसी धर्म के कुछ लोग उग्रता और कट्टरता के उन्माद में दूसरे धर्मों के लोगों को निशाना बनाते हैं. (कृपया यहां तुलना न लाएं, विवेचना सिर्फ हिंदू धर्म की कर रहा हूं. अन्य धर्मों की कट्टरता और उग्रता के स्वादानुसार इसी व्याख्या में चिपका लें.)

लेकिन, राष्ट्र के संदर्भ में एक दफा फिर से हमें याद रखना चाहिए कि अगर विद्वान साथी यह कह रहे हैं कि ‘राष्ट्र की अवधारणा ही 19वीं-20 शताब्दी की है’ तो हमें राष्ट्र को संकीर्ण परिभाषाओं की बजाए, उसके सांस्कृतिक संदर्भों में समझना चाहिए.

यह राष्ट्र, राष्ट्रवाद और राष्ट्रीयता के उस विचार जैसा नहीं है जो 1648 में जर्मनी के वेस्टफेलिया में 100 से अधिक यूरोपीय ताकतों के बीच हुए शांति समझौते से उपजा था. जिन दिनों हम गणितीय सूत्रों को सुलझाने में अनुपात के मुताबिक शहरों के नियोजन में व्यस्त थे यूरोपीय लोग तकरीबन बर्बर थे. मेरे एक मित्र सलीम सरमद ने उसका जवाब दिया कि ‘आप तुकाराम, कबीर को भूल गए.’

बेशक हिंदुस्तान के निर्माण में तुकाराम, कबीर, रसखान का योगदान अतुल्य है, पर वह तो बहुत बाद का मामला है. उस पर भी सही वक्त में आएंगे.

बहरहाल, यूरोप का इतिहास और उसकी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि भारतीय पृष्ठभूमि से अलहदा है. व्यक्तिवाद पर यूरोप के विचार भारतीय विचारों से अलग हैं. गुलाम मानसिकता के औपनिवेशिक किस्म के लोग हर भारतीय विचार और सिद्धांत, खोज और आविष्कार, परंपरा और आस्था को अविश्वास से देखते हैं और एक हद तक मखौल उड़ाते हैं.

यूरोपीय राष्ट्र की परिभाषाओं की बैक स्टोरी अलग है, भारत की अलग. वहां के इतिहास में अलग-अलग समयावधि में जो कुछ घटा, उसी का नतीजा है कि उनके लिहाज का ‘राष्ट्र-राज्य’ (नेशन स्टेट) और लोकतंत्र का उनका अपना संस्करण निकला, जिस पर भारतीय बौद्धिक लहालोट होते हैं.

भारत के इतिहास में यह तरीका नहीं रहा. यहां समाज, व्यक्ति या राज्य से अधिक शक्तिशाली इकाई रहा है. भारतीय समाज में हमेशा धर्मदंड राजदंड से अधिक शक्तिशाली रहा है. वरना, क्या वजह थी कि एक ऋषि किसी राजा से उसके दो बेटे मांगने आ जाता है और राजा भयभीत होकर, अपने दोनों बेटे ऋषि के साथ यज्ञों की सुरक्षा के लिए भेज देता है.

फिलहाल, कई जगहों से पढ़ने और सुनने के बाद हमारे वाले ‘राष्ट्र’ को ‘नेशन’ का पर्यायवाची मानना उचित नहीं जान पड़ता. दोनों शब्दों का इस्तेमाल एक ही मतलब में करना, दोनों के प्रति अन्याय होगा.

हमारा राष्ट्र ‘नेशन-स्टेट’ नहीं है बल्कि यह हमारी परंपराओं और विश्वासों की निरंतरता है. जो भी कुछ पढ़ा है उसमें मैं भी आर्यों के भारत आगमन के सिद्धांत को मानता रहा था, पर मोटे तौर पर मुझे इस पर शक होने लगा है. इस पर थोड़ा और गहरा अध्ययन करने के बाद ही मैं कुछ लिखूंगा. लेकिन मुझे लगता है कि हड़प्पा सभ्यता की जिस एक मिसाल से मैंने सांस्कृतिक और सभ्यतामूलक निरंतरता की बात की थी, उसको विस्तार देने की जरूरत है.

विचारक किस्म के लोगों से मेरा अनुरोध यही है कि जब हमारी लोक विरासत ईसा से भी कई हजार साल (ईसा से कम से कम आठ हजार साल) पुरानी है तो हम अपनी विरासत को संकुचित करके क्यों देख रहे हैं? हमारी परिभाषाएं वेस्टफेलिया संधि से क्यों उधार लिए हुए हैं? हमारी अपनी समस्याओं के समाधान का तरीका भी हमारा अपना होना चाहिए.

बाकी, जहां तक वामपंथ के विचारकों की बात है गोविंदाचार्य ने एक बार इंडिया टुडे के साथ साक्षात्कार में कहा था कि "आजादी के समय कम्युनिस्ट पार्टी आजादी के समय भारत में 17 अलग-अलग राष्ट्रीयता के अस्तित्व की बात करती थी. क्या आपको वाकई लगता है कि ऐसा ही था? कुछ लोग सन सैंतालीस के बाद के भारत को ही भारत मानते हैं और इसे एक राष्ट्र की निरंतरता की बजाए नवगठित देश मानते हैं."

पर उनकी इस परिभाषाओं में बहुत झोल हैं. कि अगर भारत था ही नहीं, तो भारत को भारत नाम मिला कैसे? क्या भारत नाम आनंद भवन में गढ़ा गया था? इसलिए मुझे लगता है कि भारत राष्ट्र विभिन्न संस्कृतियों का एक मिश्रण है और ऐसा राष्ट्र कभी यूरोपीय लोगों ने देखा नहीं था इसलिए उनकी परिभाषा के विचार बिंदु में भी नहीं आया होगा. मिसाल के तौर पर मेरे मित्र विश्वदीपक ने कभी 'डोंका' का मांस नहीं खाया होगा. विश्वदीपक का पहला प्रश्न मुझसे मिलते ही यही होगा कि आखिर ‘डोंका’ होता क्या है. इसलिए जो डोंका को जानता ही नहीं हो, उसका जायका कैसे जानेगा?

आपकी सूचना के लिए बता दूं कि मिथिला इलाके में धान के खेतों में सुनहरे रंग का घोंघा पाया जाता है, जिसका मांस काफी जायकेदार होता है.

अधिकतर विचारक अनजाने में या जानबूझकर स्मृतिलोप का शिकार होते हैं. उनकी शह का परिणाम है कि बामियान में बुद्ध की मूर्ति का विध्वंस करने वाले ध्वंस के बाद भी इन्हीं कथित उदारवादियों की तरफ से मासूमों की तरह पेश किए जाते हैं हैं.

भारत की निरंतरता बतौर राष्ट्र इसी में है कि इसने अपने मूल गुणसूत्रों को कमोबेश बनाए रखा है.

Tuesday, May 25, 2021

कौन था ताजमहल का असली वास्तुकार उस्ताद ईसा या उस्ताद अहमद लाहौरी!

मंजीत ठाकुर

राजीव जोसफ का एक नाटक है, गार्ड्स ऐट द ताज, जिसके एक दृश्य में बाबर और हुमायूं ताजमहल का उद्घाटन देख रहे होते हैं. हुमायूं इस शानदार मकबरे के निर्माण का श्रेय, जाहिर है, बादशाह शाहजहां को देते हैं, जबकि बाबर के हिसाब से इसका श्रेय वास्तुकार उस्ताद ईसा को जाना चाहिए.

रुकिए. इस लेख के पहले पैराग्राफ से आप यह न मान लें कि इतिहासकार उस्ताद ईसा को ही वास्तुकला के इस नगीने के निर्माण के पीछे की असली प्रतिभा मानते हैं. तो फिर कौन हैं वह, जिसने ताजमहल बनाया, जिसे शायर शकील बदायूंनी ने ‘मोहब्बत की निशानी’ बताया है तो साहिर लुधियानवी ने ‘ग़रीबों की मोहब्बत का मज़ाक़’ कहा है.

इल्म की दुनिया में आज किसी एक मुस्लिम वैज्ञानिक या विद्वान की बात न कर, हम कुछ ऐसे कलाकारों-वास्तुविदों का जिक्र करेंगे जो ताजमहल के निर्माण से जुड़े रहे. हालांकि, एक बात से सभी इतिहासकार एकमत हैं कि मुगल बादशाहों के दौर में, किसी चीज के दस्तावेजीकरण पर खुद मुगल बादशाहों की निगरानी होती थी. इसी वजह से, हमारे पास ताजमहल की निर्माण प्रक्रिया से जुड़े बेहद कम सुबूत हैं. लगभग दो सदियों तक, ताजमहल के निर्माण का श्रेय बादशाह शाहजहां को मिली दैवीय प्रेरणा को दिया जाता रहा. जाहिर है, इसके पीछे उनकी दिवंगत बीवी को समर्पण और प्यार की भावना भी थी. वैसे सचाई यह है कि शाहजहां के सपने को सच करने के वास्ते हजारों कलाकार और कारीगर पूरी लगन से इस काम में लगे हुए थे.

असल में, सन 1800 तक ब्रिटिशों ने हिंदुस्तान के तीन-चौथाई हिस्से पर नियंत्रण हासिल कर लिया था और ताजमहल की देखरेख का जिम्मा भी उनके पास आ गया था. अंग्रेजों ने जाहिर है, उसके बाद उसके विभिन्न हिस्सों की मरम्मत भी की.

इसी के दौरान उस्ताद ईसा का नाम फिजां में तैरने लगा. ताजमहल से जुड़ी कुछ पांडुलिपियां आगरा में मिलने लगीं और कहा गया कि फारसी में लिखे ये दस्तावेज 17वीं सदी की हैं और ताजमहल का मूल डिजाइन हैं. एक तुर्क उस्ताद ईसा का नाम, ताजमहल के वास्तुकार के तौर पर उछल गया. वैसे, अधिकतर इतिहासकार इन दस्तावेजों को स्थानीय ब्रिटिश मुखबिरों द्वारा उछाला गया मानते हैं.

वैसे, इतिहासकार मानते हैं कि उस्ताद ईसा का अस्तित्व जरूर रहा होगा, लेकिन वह महज नक़्शानवीस था, वास्तुकार नहीं. यानी, उस्ताद ईसा ने ज्यादा से ज्यादा ताजमहल की योजना को कागज पर उतारा होगा. हाल में हुए शोध बताते हैं कि ताजमहल का असली वास्तुकार फारस का वास्तुकार उस्ताद अहमद लाहौरी था, जो शाहजहां का दरबारी था.

ताजमहल पर शोध करने वाली अगुआ इतिहासकार एब्बा कोच ने लिखा है कि उस्ताद ईसा की कहानी काल्पनिक है और इसे ब्रिटिश अधिकारियों ने हाथो-हाथ लिया क्योंकि उन्हें यह साबित करना था कि ताजमहल असल में एक यूरोपियन ने बनवाया था. इससे वह एक मुगल इमारत पर अपने अलहदा तरीके से अपने स्वामित्व का दावा कर सकते थे.

बहरहाल, उस्ताद अहमद लाहौरी, जिनको अहमद मीमार भी कहा जाता था, उनके हिस्से दिल्ली के लाल किले का डिजाइन बनाने का श्रेय भी है.

बहरहाल, लाहौर में एक कब्र है जिसके रखवाले यह दावा करते हैं कि वह ताजमहल के डिजाइनर की है. यह दावा है कि इतावली विद्वान गेरोनिमो वेरोनियो जो कि वेनिस का रहने वाला था, और जिसे शाहजहां ने लाहौर किले में कैद रखा था, उसे 1640 में मृत्युदंड दिया गया. हालांकि, यह दावा कि ताजमहल का काम पूरा होने के बाद शाहजहां ने वेरोनियो को कत्ल करवा दिया, बाद में इतिहासकारों ने गलत बताया.

असल में, इस बात के पक्के और लिखित सुबूत मौजूद हैं कि पुर्तगाली ईसाई पादरी फादर जोसेफ डि कास्त्रो ने बादशाह के आदेश पर वेरोनियो का कत्ल किया था क्योंकि बादशाह नहीं चाहते थे कि कोई हिंदू या मुस्लिम एक ईसाई को मृत्युदंड दे. तथ्य यह है कि वेरोनियो से जुड़ा पूरा किस्सा लाहौर में ही हुआ था इसलिए ब्रिटिशों ने ताजमहल के वास्तु पर इतालवी दावा चढ़ा दिया. वेरोनियो लागौर के तहसील बाजार की एक हवेली में रहता था.

इतिहासकारों की राय है कि ताजमहल के शुरुआती नक्शे बेशक लाहौर में ही तैयार किए गए थे और उन्हें तैयार करने वाले उस्ताद अहमद लाहौरी ही थे. वह वजीर खान मस्जिद के पास पुरानी कोतवाली के पास एक घर में रहकर काम करते थे. उस काम में उनके साथ थे तुर्की के वास्तुकार इस्माइल एफेंदी, जिन्होंने गुंबद और गोलार्ध का ही डिजाइन बनाया था.

एक बार यह काम पूरा हो जाने के बाद उस्ताद अहमद ने अपने दोस्त कासिम खान को बुलाया जो लाहौर के ही थे और जो टकसाली में रहते थे. कासिम खान को गुंबदों पर चढ़ाने के लिए सोने के कंगूरे बनाने थे. इसलिए, ताजमहल के डिजाइन का काम विशेषज्ञों की मिलीजुली कोशिश मानी जानी चाहिए. आखिर में जो नक्शा खींचा गया उसे एक तुर्क और निष्णात नक्शानवीस उस्ताद ईसा और उस्ताद अहमद लाहौरी ने अंजाम दिया.

वैसे, वेरोनियो को लेकर आधिकारिक दरबारी दस्तावेज यही कहते हैं कि उसे मौत की सजा ताजमहल के डिजाइन को लेकर नहीं दी गई थी बल्कि उसकी वजह कुछ और ही थी. वह एक मशहूर सुनार और गहनों का डिजाइनर था. लेकिन दिक्कत यह थी कि वह सम्राट के परिवार के लिए आभूषण डिजाइन करते समय सोना चोरी कर लेता था. उस पर बहुत सारे बहुमूल्य रत्न और एक बेहद बड़ा हीरा चुराने का भी आरोप था. उसके घर से सारे गहने बरामद हुए थे और उसे मौत की सजा सुनाई गई थी. मुगल दस्तावेज बताते हैं कि उसे शहर के लाहौरी गेट से दो कोस दूर एक जगह पर दफनाया गया था.

असल में, वेरोनियो के नाम का दावा इस लिए भी कमजोर पड़ता है क्योंकि उस्ताद अहमद लाहौरी ने ताजमहल का डिजाइन तय करने के लिए दुनिया भर के विशेषज्ञ जुटाए थे. लाहौर के अपने दोस्त कासिम खान, जो गुंबद का स्वर्णिम कंगूरा डिजाइन कर रहे थे, उन्होंने दिल्ली से चिरंजी लाल को बुलवाया जो उस जमाने के मशहूर मौजेक पैटर्न डिजाइनर थे.

ईरान के शिराज से खुशनबीसी (कैलिग्राफी) के उस्ताद अमानत खान को बुलाया गया. पत्थर काटने के महारथी आमिर अली को बलोचिस्तान से बुलाया गया. तुर्की के उस्ताद ईसा और उस्ताद अहमद तो खैर मुख्य वास्तुकार थे ही. इनके अलावा मुल्तान के मोहम्मद हनीफ संगमरमर के टाइल्स बनाने में बेजोड़ थे. दिल्ली के मुकरीमत खान और शिराज के मीर अब्दुल करीम इस कामकाज के मुख्य पर्यवेक्षक और प्रशासक थे.

इस काम के लिए किस कलाकार और कारीगर को कितना पैसा मिला यह भी जानना बेहद दिलचस्प होगा. मुख्य नक्शानवीस मास्टर ईसा को एक हजार रुपया दिया गया था, आज के हिसाब से उनको 333 तोला सोना या 13.3 करोड़ रुपए दिए गए थे. उस्ताद इस्माइल खान रूमी, जो कि गुंबद बनाने के विशेषज्ञ थे, उन्हें 500 रुपए दिए गए थे. समरकंज के मोहम्मद शरीफ को, जो शिखर बनाने के लिए आए थे, उन्हें 500 रुपए, लाहौर के कासिम खान को 295 रुपए, कांधार के मोहम्मद हनीफ, जो मुख्य राजमिस्त्री थे, को 1000 रुपए, मुल्तान के मोहम्मद सईद को, जो विशेषज्ञ राजमिस्त्री थे को 590 रुपए, और एक अन्य उस्ताद राजमिस्त्री मुल्तान के अबू तोरा को 500 रुपए दिए गए थे.

शिराज के कैलिग्राफर अमानत खान को 1000 रुपए और एक अन्य कैलिग्राफर, बगदाद के मोहम्मद खान को 500 रुपए अदा किए गए थे. सीरियो के रौशन खान को 300 रुपए दिए गए.

चिरंगी लाल, मुन्नू लाल और छोटू लाल के जड़ाऊ काम करने वाले परिवार को 800, 380 और 200 रुपए दिए गए थे. इस पैमाने पर खासा भुगतान यह बताता है कि किस स्तर के कौशल की जरूरत इस काम में रही होगी.

अब हम उस मशहूर किंवदंती की बात करते हैं कि शाहजहां ने ताजमहल का काम पूरा होने के बाद उस्ताद अहमद लाहौरी की आंखें निकलवा दीं और हाथ कटवा दिए थे, ताकि वह दोबारा ऐसा कोई डिजाइन न बनवा सकें. लेकिन, इस बात में कोई दम नहीं है. उनके परिवार के पाकिस्तान में दस्तावेज यह साबित करते हैं कि उस्ताद अहमद लाहौरी की मौत प्राकृतिक तरीके से हुई थी.

सचाई यह है कि उस्ताद अहमद काम पूरा होने के बाद लाहौर लौट गए थे जहां उनके बेटों ने निर्माण कार्य का शानदार कारोबार खड़ा कर लिया था. उनकी मौत के वक्त उनकी बहुत प्रतिष्ठा थी.

Tuesday, May 18, 2021

अल बीरूनी एक मुस्लिम वैज्ञानिक, जो एक हमलावर के साथ हिंदुस्तान आए थे

इल्म की दुनिया में आज बात एक ऐसे विद्वान और वैज्ञानिक की, जिसका एक रिश्ता हिंदुस्तान से भी रहा है. इस्लामिक दुनिया ही नहीं, बल्कि दुनियाभर के महान वैज्ञानिकों में शुमार होने वाले अल-बीरूनी उस दौर में हुए थे, जो असल में पूर्वी इस्लामी दुनिया में राजनैतिक उथलपुथल भरा समय था. इनसाइक्लेपेडिया ब्रिटानिका के मुताबिक, अल-बीरूनी का जन्म 4 सितंबर 973 ईस्वी में आज के उज्बेकिस्तान के खुरासान प्रांत में ख्वारिज़्म में हुआ था. और इस तरह से वह एक और महान वैज्ञानिक अल-ख़्वारिज़्मी के इलाके के ही थे. अल-बीरूनी आज के गजनी, अफगानिस्तान में 1052 में हुई थी जिसे उस वक्त गज़ना कहा जाता था.

अल-बीरूनी सिर्फ वैज्ञानिक ही नहीं थे. बल्कि यह कहना चाहिए कि वह क्या नहीं थे. वह गणितज्ञ, खगोलशास्त्री, एंथ्रोग्राफिस्ट (नृवंशविद), मानवविज्ञानी, इतिहासकार और भूगोलज्ञ थे.

अल-बीरूनी ने छह अलग-अलग शासकों के मातहत काम किया था और उनमें से अधिकतर शासक लड़ाकू प्रवृत्ति के थे और उनका अंत भी युद्ध में या हिंसा की वजह से हुआ था. पर, इन हिंसक घटनाओं के केंद्र में रहने के बाद भी अल-बीरूनी अपनी बहुमुखी प्रतिभा को निखारने में कामयाब रहे.

अल-बीरूनी का जन्म आमू दरिया के दूसरी तरफ ख्वारिज़्म में हुआ था, और उनकी शिक्षा-दीक्षा ख्वारिज़्म-शाह अमीर अबू नस्र मंसूर इब्न इराक ने करवाई थी, जो वहां के राजपरिवार का सदस्य था और संभवतया वह अल-बीरूनी का संरक्षक भी था. असल में, कुछ विद्वानों की राय है कि इस शहजादे ने अपने गणित के कुछ काम अल-बीरूनी को पढ़ाने के लिए तैयार किए थे और कई दफा उसे अल-बीरूनी का काम मान लिया जाता है.

अल-बीरूनी की निजी जिंदगी के बारे में बहुत कम ज्ञात है, पर एक मध्यकालीन किताब में एक जगह उनके खुद के हवाले से कहा गया है कि अल-बीरूनी को अपने पिता के बारे में पता नहीं था.

ऐसा लगता है कि ख्वारिज़्म के शहजादे का संरक्षण अल-बीरूनी के ज्यादा वक्त तक हासिल नहीं रहा और उस शहजादे के एक सहयोगी ने बगावत करके उसकी हत्या कर दी. इससे ख्वारिज्म में एक गृहयुद्ध शुरू हो गया (996-998 ईस्वी) और इसकी वजह से अल-बीरूनी को ख्वारिज़्म छोढ़कर भागना पड़ा और अब उन्हें समानिद वंश के शासकों के यहां शरण लेनी पड़ी. यह खानदान आजकल के पूर्वी ईरान और अफगानिस्तान के ज्यादातर हिस्से पर शासन करता था.

समानिदों की राजधानी बुखारा में अल-बीरूनी के शरण लेने के कुछ ही समय बाद, एक दूसरे स्थानीय लेकिन राज्यच्युत शासक वंश क़ाबूस इब्न वोशमगीर ने भी अपना राजपाट पाने के लिए समानिदों से मदद मांगी. ऐसा लगता है कि समानिदों ने उनको मदद दी क्योंकि इसके बाद अल-बीरूनी अपना विवरण काबूस शासकों के साथ कैस्पियन सागर के पास शहर गुरगान से लिखते हैं. काबूसों के दरबार में ही अल-बीरूनी की मुलाकात एक अन्य दार्शनिक-वैज्ञानिक इब्न-सीना से हुई और उनके बीच दार्शनिक विचारों के आदान-प्रदान हुए. अल-बीरूनी ने अपनी किताब अल-अथर अल-बाकिया एन अल-कुरुन अल-खालिया (प्राचीन राष्ट्रों का क्रम) कुबूस को ही समर्पित है.

कुछ वक्त तक तो अल-बीरूनी लगातार यात्रा करते रहे—या कहें कि युद्ध से भागते रहे और लगातार संरक्षकों की तलाश करते रहे—और उसके बाद समानिदों का पूरा इलाका सुबुक्तगीन के क्रूर बेटे महमूद के कब्जे में आ गया.

998 में महमूद ने गजना पर कब्जा करके उसके राजधानी हना लिया और अल-बीरूनी और इब्न सीना दोनों के अपने दरबार में नौकरी करने का आदेश दिया. इब्न सीना तो किसी तरह निकल भागे लेकिन अल-बीरूनी भाग नहीं पाए और वह गजना में अपने आखिरी दिनों तक काम करते रहे, जब वह महमूद गजवनी के साथ भारत पर हमले में सेना के साथ आए थे. अल-बीरूनी बेशक, एक निर्दयी हत्यारे के अनमने मेहमान थे फिर भी उन्होंने अपनी यात्राओं को शानदार तरीके से कलमबद्ध किया. और उन्होंने हिंदुस्तान के बारे में जो सूक्ष्म ब्योरे दिए उससे वह वैज्ञानिक के साथ-साथ नृवंशविद्, मानवविज्ञानी और भारतीय मामलों के महान इतिहासकार भी मान गए.

अल-बीरूनी के काम की फेहरिस्त बनाना इतिहासकारों के लिए इसलिए भी आसान रहा क्योंकि अल-बीरूनी ने खुद अपने कामों की ऐसी एक सूची तब तैयार कर दी थी, जब वह 60 साल के थे. हालांकि, अल-बीरूनी सत्तर से अधिक सालों तक जीवित रहे, ऐसे में उनके बाद के कुछ काम इस सूची में शामिल नहीं हैं, फिर भी यह सूची पर्याप्त है. इस सूची और बाद में खोजे गए कामों को मिलाकर, इतिहासकारों के मुताबिक (इनसाक्लोपेडिया ब्रिटानिका) अल-बीरूनी ने कुल 146 किताबें लिखी हैं, इनमें से हर करीबन 90 पन्नों की है. उनमें से आधी तो खगोलशास्त्र और गणित पर हैं. पर उनमें से 22 ही मिल पाई हैं और उनमें भी आधी ही प्रकाशित हो पाई हैं.

भारतीय संस्कृति पर उनका काम हिंदुस्तान पर किसी भी ब्योरे में सबसे बढ़िया माना जाता है. इसका शीर्षक, तहकीक मा लिल-हिंद मिन माकुलाह माक्बूला फी अल अक्ल आ मारदुर्लाः (तहकीक-ए-हिंद). इस किताब में हर वह चीज दर्ज है जो अल-बीरूनी हिंदुस्तान के बारे में जुटा पाए थे. इसमे हिंदुस्तान का विज्ञान, धर्म, साहित्य और इसके रीति-रिवाजों का वर्णन है.

उनका ऐसा ही महत्वपूर्ण काम ‘अल-क़ानून अल-मसूदी’ है, जो महमूद गजनवी के बेटे मसूद को समर्पित है, जिसमें अल-बीरूनी ने टॉलेमी के ‘अलमगस्त’ जैसे उस वक्त उलपब्ध स्रोतों से सभी खगोलीय ज्ञान एकत्र किए और उनको उस वक्त के ज्ञान के लिहाज से अद्यतन भी किया. हालांकि, इसके हरेक अध्याय में अल-बीरूनी का योगदान रेखांकित किया जा सकता है. मसलन, तीसरे स्तर के समीकरणों को हल करने के लिए अल-बीरूनी ने नए बीजगणितीय तकनीकों का प्रतिपादन किया था. उन्होंने सौर भूउच्च (सोलर अपोजी) की गति और अग्रगमन (परसेशन) की गति के बीच एक बारीक अंतर स्थापित किया. उन्होंने खगोलीय नतीजे हासिल करने के आसान तरीके भी ढूंढे.

उस वक्त के लिहाज से उनका काम, अल-तहफीम ली-आवैल सिनात अल-तंजीन (खगोलविज्ञान के सूत्र) आज भी सबसे बेहतरीन काम माना जाता है. शहरों के बीच की दूरी को सटीक तरीके से मापने की विधि गणितीय भूगोल मे अल-बीरूनी का अद्वीतय योगदान है. उन्होंने गणित पर सवाल उठाने वाले उलेमाओं को गजना से काबे की ओर दिशा और दूरी मापने में गणित के इस्तेमाल से चुप करा दिया.

अल-बीरूनी ने पहाड़ों के बनने पर सवाल खड़े किए और जीवाश्मों के जरिए यह साबित किया कि धरती किसी वक्त पानी के अंदर रही होगी. उन्होंने इस बात को किताब-उल-हिंद के जरिए भी उठाया है.

इनकी किताब इस्तियाब अल-वुजूह अल-मुमकिनाह फी सनात अल-अस्तूरलाब (एक्जॉस्टिव बुक ऑन एस्ट्रोलेब्स) में धरती की गतियों की संभावनाओं पर बात की गई है.

अल-बीरूनी बेशक अपने दौर के सबसे बहुमुखी प्रतिभावान व्यक्तियों में से थे.

Thursday, October 5, 2017

अर्थव्यवस्था की ढलान के दिनों में कोजागरा की रात लक्ष्मी पूजा


(यह लेख आइचौक डॉट कॉम में प्रकाशित हो चुका है)


आइए कि लक्ष्मी की पूजा करें. गुरुवार की रात शरद पूर्णिमा को लक्ष्मी को पूजना जरूरी है.

आप चाहें तो अपनी छत पर या आंगन में खड़े होकर चांद की निहारिए. आप चलेंगे तो चांद चलेगा, आप भागेंगे तो चांद साथ भागेगा, इसी को तो कविताई में कहा है किसी नेः

'चलने पर चलता है सिर पर नभ का चन्दा.
थमने पर ठिठका है पाँव मिरगछौने का.

कभी धान के खेतों में फूटती बालियों के बीच खड़े होकर चांद को निहारा है आपने? खेतिहर इलाकों में जाइए तो धान की बालियों से निकलती सुगंध से मतवाले हो जाइएगा. दूर-दूर तक छिटकी हुई चाँदनी थी और अपूर्व शीतल शान्ति. बस यों कहिए कि 'जाने किस बात पे मैं चाँदनी को भाता रहा, और बिना बात मुझे भाती रही चाँदनी.

मिथिला में नवविवाहित वर-वधू के लिए शरद पूर्णिमा का बड़ा महत्व है. चांदनी रात में गोबर से लिपे और अरिपन (अल्पना) से सजे आंगन में माता लक्ष्मी और इन्द्र के साथ कुबेर की पूजा और अतिथिय़ों का पान-मखान से सत्कार और वर-वधू की अक्ष-क्रीड़ा (जुआ खेलना) कोजागरा पर्व का विशेष आकर्षण है.

नव विवाहित जोड़ों के आनंद के लिए दोनो को कौड़ी से जुआ खेलाया जाता है. चूंकि वधू अपनी ससुराल में नई होती है, जहां वरपक्ष की स्त्रियां अधिक होती हैं, इसलिए मीठी बेइमानी कर वर को जिता भी दिया जाता है.

लक्ष्मी-पूजन के बाद नवविवाहित जोड़े पूरे टोले भर के लोगों को पान-मखान बांटते हैं. कोजागरा के भार (उपहार) के रूप में वधू के मायके से बोरों में भरकर मखाना आता है. मखाने मिथिलांचल के पोखरों में ही होते हैं. दुनिया में और कहीं नहीं. इनके पत्ते कमल के पत्तों की तरह गोल-गोल मगर काँटेदार होते हैं. उनकी जड़ में रुद्राक्ष की तरह गोल-गोल दानों के गुच्छे होते हैं, जिन्हें आग में तपाकर उसपर लाठी बरसाई जाती है, जिससे उन दानों के भीतर से मखाना निकलकर बाहर आ जाता है. बड़ी श्रमसाध्य प्रक्रिया है, जिसे मल्लाह लोग ही पूरा कर पाते हैं.

शरद के चंद्रमा की इस भरपूर चांदनी का मजा सिर्फ मिथिलांचल में ही नहीं लिया जाता बल्कि मध्य प्रदेश, गुजरात, बंगाल और महाराष्ट्र में भी इस दिन लक्ष्मी की पूजा की जाती है. इन इलाकों में खीर के पात्र को रात भर चांदनी में रखकर सबेरे खाया जाता है. कहते हैं, शरद पूर्णिमा की रात में खुले आकाश के नीचे चांदी के पात्र में खीर रखने से उसमें अमृत का अंश आ जाता है.

असल में शरद पूर्णिमा या कोजारगी पूर्णिमा या कुआनर पूर्णिमा एक फसली उत्सव है. आसिन (आश्विन) के महीने में जब खेती-बाड़ी के सारे कामकाज खत्म हो जाते हैं, मॉनसून का बरसता दौरे-दौरा समाप्त हो जाता है, तब यह उत्सव आता है और इसे कौमुदी महोत्सव भी कहते हैं. कौमुदी का अर्थ चांदनी होता है. यह उत्सव गोपियों के साथ कृष्ण के रास का उत्सव है.

दंतकथाएं कहती हैं कि एक राजा अपने बुरे दिनों में दरिद्र हो गया और उसकी रानी ने जब कोजागरा की रात को जागकर लक्ष्मी पूजन किया तो राजा की समृद्धि लौट आई. कोजागरा की रात देवताओं के राजा इंद्र को भी पूजा जाता है.

अब कई लोगों का यह भी विश्वास है कि इन दिनों चांद धरती के ज्यादा नजदीक होता है और औषधियों के देवता चंद्र इन दिनों अपनी चांदनी में देह और आत्मा को शुद्ध करने वाले गुण भर देते हैं.

वेद कहता है कि चन्द्रमा का उद्भव विराट पुरुष के मन से हुआ -'चन्द्रमा मनसो जात:, चक्षो: सूर्यो अजायत (पुरुषसूक्त). चन्द्रमा और सूर्य, इन्हीं दोनो से तो सृष्टि है. चन्द्रमा हमारे जीवन को कई रूपों में प्रभावित करता है. उसका सम्बन्ध पृथ्वी के जलतत्व से है. इसीलिए समुद्र में ज्वार-भाटा चन्द्रमा की कलाओं के अनुसार घटता-बढ़ता है. पूर्णिमा की रात समुद्र का ज्वार अपनी चरम सीमा पर रहता है.

यह कैसा अभिशाप, चांद तक
सागर का मनुहार न पहुंचे,
नदी-तीर एकाकी चकवे का
क्रन्दन उस पार न पहुंचे.

समुद्र-मंथन के बाद महारत्न के रूप में एक साथ निकलने के कारण चन्द्रमा और लक्ष्मी भाई-बहन हुए. चूंकि संसार के पालनकर्ता विष्णु की पत्नी लक्ष्मी जगन्माता हैं, इसलिए उनके भाई चन्द्रमा सबके मामा हैः चन्दा मामा. शास्त्र कहता है कि लक्ष्मी अगर विष्णु के साथ आती हैं, तो उनका वाहन गरुड़ होता है, लेकिन जब अकेली आती हैं तो उनका वाहन उल्लू होता है. मिथिला में कोजागरा की रात की लक्ष्मी-पूजा में त्रिपुरसुन्दरी लक्ष्मी का युवती के रूप में सांगोपांग वर्णन करते हुए उनसे हमेशा अपने घर में रहने की विनती की जाती हैः

या सा पद्मासनस्था विपुलकटितटी पद्मपत्रायताक्षी
गंभीरावर्तनाभि: स्तनभरनमिता शुभ्रवस्त्रोत्तरीया।
लक्ष्मीर्दिव्यैर्गजेन्द्रै: मणिगणखचितै: स्नापिता हेमकुम्भै:
नित्यं सा पद्महस्ता वसतु मम गृहे सर्वमांगल्ययुक्ता॥

कभी पूजा विधि को गौर से देखिए तो समझ में आएगा कि सामान्य पूजा के बाद बाकी देवताओं को तो अपने-अपने स्थान पर चले जाने का अनुरोध किया जाता है (पूजितोऽसि प्रसीद, स्व स्थानं गच्छ), लेकिन लक्ष्मी को सभी अपने पास ही रहने का आग्रह करते हैं (मयि रमस्व).

कोजागरा की रात महाराष्ट्र का उत्सव थोड़ा अलग होता है. इसमें परिवार के सबसे बड़ी संतान को सम्मान दिया जाता है.

गुजरात में यह शरद पूनम है, जहां गरबा और डांडिया के साथ लोग इसे मनाते हैं., तो बंगाल के लिए यह कोजागरी लक्खी पूजो है. ओडिशा में यह शिव के पुत्र कार्तिकेय की पूजा का दिन है. इसलिए वहां इसे कुमार पूर्णिमा कहते हैं. कार्तिकेय ने इसी दिन तारकासुर के साथ युद्ध किया था. ओडिशा की लड़कियां कार्तिकेय जैसा वर पाने के लिए पूजा करती हैं, क्योंकि कार्तिकेय या स्कंद (जिनको तमिलनाडु में मुरुगन कहते हैं) देवों में मोस्ट एलिजिबल बैचलर हैं. सबसे दिलेर, हैंडसम और खूबसूरत भी. लेकिन विचित्र है कि कार्तिकेय जैसा वर मांगने का दिन होने के बावजूद ओडिशा में इसका कोई कर्मकांड नहीं है. इसकी बजाय सुबह में सूर्य की ही पूजा 'जान्हीओसा' होती है. शाम में चांद की पूजा होती है और उनके लिए खास भोग चंदा चकता बनता है. इसको घी, गुड़, केला, नारियल, अदरक, गन्ने, तालसज्जा, खीरा, मधु और दूध से बनाया है और फिर इसको कुला (पंखे) पर रखा जाता है.

कोजागरा के दिन कटक से आगे केंद्रपाड़ा के तटीय इलाको में गजलक्ष्मी की पूजा भी होती है.

इलाके अलग-अलग है तरीके भी अलग, लेकिन पूजा लक्ष्मी की ही होती है. जीएसटी और नोटबंदी से हलकान देश में पूरे देश को कोजागरा मनाना चाहिए, क्या पता जीडीपी की विकास दर संभल ही जाए.