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Monday, July 15, 2013

सुनो मृगांका:38: जलते हैं जिसके लिए, मेरी आंखो के दिए

पटना से झारखंड में अभिजीत का गृहनगर बहुत दूर नहीं।

ट्रेन की बजाय, भरत किस्कू ने ज़ोर दिया कि सड़क मार्ग से यात्रा की जाए। मृगांका अभिजीत के गांव गई थी तो सड़क के दोनों तरफ देखने का खयाल तक नहीं आया था दिल में।

अब तो भरत उसे दिखाता हुआ ले जाएगा। पटना से उसकी एसयूवी निकली भी न थी कि प्रशांत का फोन आ गया, भाभी, मैंने छुट्टी बढ़वा ली है। अभिजीत के पास अंकल जी भी हैं और चाची भी। उसके भैया-भाभी भी आ ही चुके हैं। क्यों न मैं चलूं आपके साथ। मैं भी देख लूंगा झारखंड।

मृगांका को भला क्या उज्र हो सकता था। उसके बैग में कुछ कपड़े थे, और दो छोटे वीडियो कैमरे, बैटरी, चार्जर, मेमरी कार्ड वगैरह। डायरी तो खैर थी ही...।

एनएच पर जब प्रशांत मिला तो उसके साथ थी एक हसीं सी लड़की भी। सांवला रंग, सुतवां नाक, नाक में सानिया मिर्जा-कट नथ, लहरदार बाल, भूरी-सी आंखो में चमक...उस वक्त तो इतना भर देख पाई मृगांका।
तय रहा कि पहले सड़क के किनारे नामचीन ब्रांड के रेस्तरां में पहले कॉफी पी जाए, आगे की बात बाद में तय करेंगे।

भाभी, ये हैं अनन्या। हमारे मेडिकल कॉलेज की बैचमेट. ये यहीं पटना में प्रैक्टिस करती हैं। फेसबुक पर बातें होती रहती थी, लेकिन यहां मुलाकात भी हो गई।

मृगांका ने नजरों से तौला। नः, बात इतनी ही नहीं है।

दी, मैं सोच रही थी कि कुछ दिन चलूं आपके साथ, बहुत सुना है मैंने। थोड़ा वक्त भी गुजर जाएगा मेरा।--अनन्या ने अपनी कोमल आवाज़ मे कहा।

अनन्या, हम पिकनिक पर नहीं जा रहे।

जी पता है, आप अपनी रिपोर्टिंग करते रहिएगा दी, मैं जरा गांवों में कुछ बच्चों का इलाज कर दिया करूंगी...अनन्या अनुनय कर रही थी।

मृगांका ने देखा, प्रशांत की नजरों में कुछ था। उसे लगा कि इन दोनों को एक दूसरे का साथ चाहिए, तो यही सही।

निर्णायक स्वर में उसने कहा, चलो।

अब भरत किस्कू ड्राइव कर रहा था, अनन्या प्रशांत पिछली सीट पर बैठे और अगली सीट पर बैठी मृगांका खोई नजरों से सामने काली सड़क को देखती रही, एकटक।

बगल के लेने से किस्कू ओवरटेक कर दे रहा था, बारिश शुरू हो गई थी, लेकिन बारिश में भींगते पेड़ भी पीछे छूटते जा रहे थे।

बारिश बहुत गहरे ज़ख्म़ देती है।

अभिजीत, बिना तुम्हारे कितनी बेरहम लग रही है ये बारिश। मन का कोई कोना सूखा नहीं लग रहा।अनन्या और प्रशांत दोनों थोड़ी देर के लिए खामोश बैठे रहे।

किस्कू गाड़ी तेज़ चला रहा था, लेकिन बारिश का व्यवधान था। वाइपर सपा-सप चल रहा थे। बारिश की मोटी बूंदें पायल जैसा संगीत बजा रही थीँ। बस वही आवाज़, इंजन की घरघराहट, पहिए के जोर से छपाक से उड़ता सड़कों पर जमा पानी...

किस्कू ने इस असहज-सी होती शांति को तोड़ने के लिए स्टीरियो चला दिया, तलत महमूद एकदम उदास होती आवाज़ में गा रहे थे, जलते हैं जिसके लिए, मेरी आंखों के दिए...

आवाज़ की उदासी मृगांका को तर करती गई। आंखों में उदासी के मंजर...कितना बेचारा लग रहा है वह अभिजीत...जिसकी बढ़ी हुई शेव वाली झलक पाने को वो बेताब रहा करती थी। जिसकी बदतमीज निगाहों को वह निहारा करती थी हरदम...जिसके आत्मविश्वास और उसूलों ने मृगांका के मन में उसके लिए प्रेम के साथ-साथ इज़्ज़त भी पैदा की थी।

अनन्या ने तोड़ा इस सन्नाटे को। हमलोग झारखंड में किधर चल रहे हैं।

अभिजीत सर के घर।

लेकिन, वहां तो कोई होगा नहीं, फिर..

फिर क्या, आप चलिए तो सही.भाभी जी, अभिजीत सर ने पता नहीं पैसा कितना कमाया, या नहीं कमाया। लेकिन इस इलाके के लोग मानते बहुत हैं अभिजीत सर को। वो इस इलाके में तब से आते रहे हैं जब उनकी किताब छपी भी नहीं थी। तब से, जब से आपसे जुड़े भी नहीं थे वो।

लाल मिट्टी के इस इलाके, साल-सागवान के इन जंगलों, पलाश के फूलों, ग्रेनाइट के इन काले पत्थरों...केंदू पत्तों, बेर, बेल, शरीफे के फलों, कितना प्रेम करते थे वो।

थे नहीं भरत, हैं। अभिजीत अभी भी प्रेम करता है इनसे।

हां, भाभी, वही। उसके सधे हुए हाथ स्टीयरिंग वील पर घूम रहे थे। उनकी गाड़ी बरही वाले रास्ते पर एनएच 2 पर आ गई थी। उधर से ही गिरिडीह...और पीरटांड प्रखंड। नक्सलियों का इलाका...

*

जमुई के पहले से ही मिट्टी का रंग बदलने लगा था। धूसर मिट्टी पहले हल्की पीली और फिर गहरी लाल हो गई। समतल मैदान में पहले छोटे टीले दिखे, और अब पहाड़ियां दिखने लगीं थी। इलाका पठारी था, मैदानी हरियाली की जगह थी तो हरियाली ही, लेकिन झाडि़यां ज्यादा थीं।

मिट्टी में कड़ापन आ गया था।

...अभिजीत भैया, इस इलाके का बारंबार दौरा करते थे। कुछ नहीं, बस कंधे पर टंगा एक झोला, एक डायरी, पेन। चाय के शौकीन। भूखे रहे तो, मूढ़ी (मुरमुरे) और चाय पर भी कोई दिक्कत नहीं...।

भरत किस्कू चालू था। सड़क संकरी हो गई। चौड़ी सड़क अब दसफुटिया प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना वाली सड़क में तब्दील हो गई थी।

..यहां की जनजाति संताल है। बाहरी लोगों ने उनका बहुत शोषण किया है। उनको दीकू कहते हैं ये। मैं भी संताल ही हूं...सरहुल , सोहराय मनाते हैं हम। साल की पूजा करते हैं, महुए की भी। प्रकृति पूजक हैं। लेकिन अंग्रेजों के वक्त जो शोषण शुरू हुआ, हमें जंगलों से भगाने का सिलसिला शुरू हुआ वो आज तक जारी है...भरत तैश में आ गया था।

सड़क और पतली हो गई। डामर वाली सड़क अब सीमेंट वाली सड़क में तब्दील हो गई थी। जिसपर गांव वालों ने हर पचास मीटर पर बंपर बना रखे थे। गाड़ी चलती कम हिचकोले ज्यादा खाने लगी थी।

हम पर और हमारे लोगों पर क्या बीती, हम क्या बताएं आपको ...बताएंगे कभी बाद में, लेकिन अभिजीत भैया ने बागी हो चुके सैकड़ों लोगों को एकतरह से नई जिंदगी भी दी और ऩया तरीका भी बताया जीने का...सिर्फ लड़ना-भिड़ना ही नहीं, जीना भी।

तो क्या अभिजीत नक्सल बन गया था? मृगांका पूछ बैठी।

गाड़ी ने हिचकोला खाया, सड़क एक तरफ मुड़ रही थी, गाड़ी दूसरी तरफ मुडकर कच्चे रास्ते पर आ गई थी। लाल मिट्टी का कीचड़ पहिए पर लग रहा था, कुछ गए हुए लोगों के निशां बने थे।

मृगांका को लगा, शायद उनमें एक निशान अभिजीत का भी हो।


...-जारी 




Saturday, April 20, 2013

सुनो! मृगांकाः 30: झल्ला की लब्दा फिरे...


आसमान बादलों से घिरा था, लेकिन धरती प्यासी थी। धरती की प्यास और अभिजीत की प्यास का पैमाना तकरीबन एक सा था।

हवा तेज़ चल रही थी...। काले मेघ, इन्ही हवाओं से टकरा कर दूर चले जाने वाले थे।

अचानक न जाने क्या सूझा अभिजीत को...अंदर जाकर, अपनी ह्विस्की की बोतल उठा लाया। शाम होने में अभी देर थी। दिन अभी ढला नहीं था। अभिजीत को हैरत हो रही थी, अपनी इस दशा पर। गांव में अपने मन का बहुत कुछ किया था उसने।

पहला पैग अंदर गया। अभिजीत का अपने मन पर से नियंत्रण हट गया। ऐसी ही नम हवा चल रही थी, जेएनयू के अहाते में गंगा ढाबा के आसपास कहीं किसी पत्थर पर बैठकर चाय सुड़कते  हुए अभिजीत ने मृगांका को फोन किया था।

याद वहीं।

दूसरा पैग बना, खतम हुआ। याद आया कि एक बार मृगांका ने पूछा था, मेरी कौन सी तस्वीर तुमको अच्छी लगती है....खटाके से अभिजीत ने उसको बांहो में भरते हुए कहा था, जिसमें तुम्हारे ब्रा के स्ट्रेप्स दिखते हैं।

झल्ला...मृगांका चीखी थी। छीः शर्म नहीं आती तुम्हें।
 अभिजीत ने बिना शरमाए कहा था, तुमसे क्या शरमाना।  मृगांका नक़ली ग़ुस्से से दांत पीसती रही और अभिजीत का गाल चुंबनों से भर दिया था...अभिजीत के गालों पर लिपस्टिक के दाग़...और अभिजीत ने बहुत देर तक चेहरा नहीं धोया था।

यादों का विस्तार होता रहा, पांच पैग के बाद, हिचकी आने लगी। गला सूखने लगा। लगा कि ब्लाडर फट जाएगा। वह घर के पीछे खेत की तरफ गया। गांव में उसे उस सुनसान खेत में पेशाब करने में मजा आता था। आसमान में बादल अभी भी थे ही, लेकिन बारिश की संभावना खतम हो गई थी।

कुछ सोचकर वह डगमगाते कदमों से अपनी बाइक की तरफ बढ़ा। कांपते हाथों से बाइक में चाबी डाली...नहीं डली। बेतरह लड़खड़ाते हुए, अभिजीत ने अपनी साइकिल को देखा...। गांव की सड़क पर, डगमगाती साइकिल खजौली की तरफ बढ चली।

कभी मृगांका ने कहा था उससे, मुझे साइकिल की सवारी नहीं कराओगे...। अभिजीत समझ गया था कि मृगांका मज़े ले रही है। मृगांका ने बहुत संजीदगी से कहा था कि उसे साइकिल की सवारी करनी है...लेकिन गांव में लड़कियां साइकिल चलाती हैं, नीतीश कुमार ने हर लड़की को साइकिल दिया है सरकार की तरफ से...लेकिन गांव की बहू चलाएगी?

अभिजीत इसी सोच में चल रहा था। कमला नदी की एक उपधारा उसके गांव से होकर गुजरती है...गरमियो में वह भी सूख जाती है। थोड़ा सा पानी बचा रहता है जिसमें भैंसे लोटमलोट किया करती है। अभिजीत उसी पुल पर से पार कर रहा था।

पूरे गांव की औरतें अभिजीत को इस तरह डगमग साइकिल चलाते हुए देखकर हंस-हंस कर दोहरी हुई जा रही थीं। कुछ ने तो हंसी छिपाने के लिए पल्लू मुंह में ठूंस लिया था...। वो अभिजीत की हालत पर नहीं, उसके साइकिल चलाने के अंदाज़ पर हंस रही थी। वरना अभिजीत तो उनके लिए एक ऐसा प्रतिष्ठित शख्स बन चुका था, जिसने गांव की जाती हुई रौनक को करीब-करीब लौटा दिया था।

गांव का हर विद्यार्थी उसका छात्र बन चुका था। स्कल से लेकर खेती तक, और नई तकनीकों से लेकर पोखरे में जलकुंभी की सफाई तक, पिछले दो महीने में अभिजीत ने मिशन की तरह काम किया था। सही रास्ते पर लेकर आने वाला अभिजीत आज खुद डगमग था।

खजौली पहुंच कर अभिजीत ने सीधे एसटीडी बूथ से प्रशांत का नंबर डायल किया। वह सोचकर कुछ आया था, सोचा उसने वही था...सीधे मृगांका से बात करेगा। लेकिन बूथ में घुसकर हिम्मत नहीं हुई।

हलो
हलो
प्रशांत...
अबे...अभिजीत। कैसा है बे।
ठीक हूं, तू बता
अच्छा है
और...सब
सब क्या, मां दिल्ली आकर मृगांका के घर पर टिक गई हैं। कहती हैं बेटा और बहू को साथ देखकर वापस जाएंगी, मृगांका भी बहुत परेशान है...
ओह...
...और तूने जरूर पी रखी होगी
नहीं
तुम्हारा आवाज से लग रहा है साले...सुन..एक बात  हो गई है
क्या
तुम्हारे पब्लिशर ने तुम्हारी नई किताब पर कुछ उल्टा लिख दिया है, फ्लैप पर।
क्या
लिखा है कि अभिजीत की आखिरी किताब है...
तो
लिखा है इसके बाद नहीं लिखेगा
हा, सही है
अबे नहीं यार। लौट आ।लौट आ ना यार...प्रशांत रो पड़ा। ...और सुन मैं मां को और मृगांका को गांव भेज रहा हूं..अब कोई बात नहीं सुनूंगा। बस

अबे सुन तो..

प्रशांत ने सुनने से पहले फोन रख दिया। अभिजीत का आधा नशा उतर गया...लेकिन मृगांका एक ऐसा नशा थी जो ताउम्र उस पर तारी थी। मानिजुआना से भी गजब का नशा...वह थोड़ा डरा हुआ था, तोड़ा खुश। वह चाहता भी तो ता मृगांका को जीभर देख पाए।








Tuesday, January 1, 2013

सुनो मृगांकाः28: सिर्फ तुम

अभिजीत उगना के साथ मधुबनी तक गया था। रास्ते भर वह सोचता रहा। पिछले कुछ वक्त से कुछ उसे कोंचता रहा था।

गांव के तालाब सूखे थे। जिनमें थोड़ा-बहुत पानी था भी, उनमें सेवार और जलकुंभियां अंटी थीं। अभिजीत को जब तब तेज़ बुखार आ जाया करता। रात को सोता, तो अंदर ही अंदर उसे लगता कि पता नहीं अगली सुबर उठ भी पाऊंगा या नहीं।

ऐसी ही किसी अलसाई रात, जब कानों में मच्छरों का मद्धम संगीत बज रहा था। उसे लगा कि भैंसे के गले की घंटियां बज उठी हों। काली-सी छाया उसे सामने दिख रही थी। शायद यमराज हो।

अभिजीत को अपनी मौत का कोई ग़म न था। बल्कि उसे तो इंतजार था...इस वक्त-बेवक्त के दर्द से छुटकारा तो मिले। लेकिन हर वक्त मृगांका का साया उसके हर काम पर रहता।

रास्ते पर लकड़ियों का गठ्ठर ढोकर लाती हुई लड़की उसे मृगांका लगती, तो कभी चूल्हे सुलगाती हुई लड़की, कभी मछली पकड़ती हुई लड़की। उसे लगा था कि शायद उसके प्रेम का विस्तार हो रहा है, और शायद एक क़र्ज-सा था उस पर। प्रेम का अर्थ सिर्फ पाना ही नहीं होता।

मृगांका, मजलूमों की खबरें करती थी, उनके दुख साझा करती थी...उसे याद आया। अपनी पहली रिपोर्टंग में मृगांका एक स्लम ही गई थी। उस  स्लम में, राजस्थान के गांव में, जहां बिजली तक न थी।

अभिजीत ने तय किया, वह मृगांका के रास्ते पर चले तो भी प्रेम की राह पर ही होगा। प्रेम की कई परिभाषाएं है। नए अर्थ हैं प्रेम के, कई और अर्थ हैं जिनका खुलासा होना बाकी था।

गांव की तस्वीर बदलनी है, उसके अंदर स्वदेस का मोहन भार्गव जागने लगा था। उगना ने लोटे में हैंडपंप का ताजा पानी रख दिया था। प्लेट में प्याज टमाटर खीर हरी मिर्च, तीखी वाली।

पहले पैग के साथ ही अभिजीत योजनाओं पर विचार करने लगा था। गांव की हर लड़की को वह शिक्षा देगा, उनकी पढाई का खयाल रखेगा। गांव के हर वंचित लड़के-लड़की के लिए....। प्रेम विस्तार पा रहा था।

अभिजीत के पास वक्त बहुत कम था, इस बात का एहसास खुद उसे भी था।

चार पैग के बाद अभिजीत को याद आने लगा...कैसे मुंबई जाने के लिए मृगांका का रिज़डर्वेशन राजधानी एक्सप्रेस में कन्फर्म नहीं हो पाया था, तो वह किसी साधारण ट्रेन में चढ़ गई थी। पश्चिम एक्सप्रेस थी शायद।

मृगांका पहली बार दूसरे दर्जे में सफर कर रही थी। ट्रेन की तमाम गंधों और आवाजों से उसका पहला परिचय था...वो भी वेटिंग में किसी और के बर्थ पर।

सफ़र में जितना कष्ट मृगांका को हुआ था उतना ही कष्ट अभिजीत को हुआ था, दिल्ली में। रास्ते में कई दफा हाल चाल लेने की कोशिश की। जितऩी दफा, फोन कनेक्ट नहीं हा पाता, उसके दिल की धड़कनें तेज हो जातीं।

मृगांका, मुंबई पहुंच गई थी। लेकिन अभिजीत को देश के मर्दों के मिजा़ज पता थे। ट्रेन तो खैर सुरक्षित क्या होते, देश की सड़के भी सुरक्षित नहीं। न बस, न कार, न घर तो सड़क।

अभिजीत, निढाल था। मृगांका उसके वजूद पर छाई हुई थी। हमेशा की तरह।

कमरे के एक किनारे उन किताबों का ढेर था, जो गांव के बच्चों के लिए खरीद कर लाया था। कुछ कपड़े भी थे, कुछ खाने के सामान भी थे। कल से स्कूल शुरु करने वाला है।

सोच रहा है कल प्रशांत से बात करे। और मृगांका से....उसने आंखें बंद कर मुस्कुराती हुई मृगांका की तस्वीर को दिलो-दिमाग़ में बसाया।

दिमाग़ के काले परदे पर एक तेजस्वी सा चेहरा पसर गया। अचानक, अभिजीत को अपने बचपन के दिन याद आने लगे, सारे दृश्य....स्कूल, कॉलेज, अपना शहर, ्पना गांव, सारे टीचर, मृगांका से मुलाकात....सुना था उसने मौत आने लगती है तो पूरा अतीत घूम जाता है आंखों के सामने।

नहीं, मुझे अभी नहीं मरना। कुछ कर के जाना है। इसी मौत की तलाश में वह दर दर भटक आया है, और जब मौत आई है तो वह मोहलत मांगना चाहता है। उसका हाथ अपने गरदन की तिल पर चला गया, मृगांका इस तिल को बहुत बार चूम चुकी है...बहुत बार मृगांका ने इस गरदन पर अपना प्यार बिखेरा है।

आज अभिजीत खुद बिखर रहा है तो मृगांका कहां होगी?


....जारी

Monday, December 3, 2012

सुनो ! मृगांका :27: साक़ी शराब ला, कि तबियत उदास है...

अभिजीत की बांहो का घेरा कसता जा रहा था...मृगांका नींद के आगोश में डूबती चली गई। डूबती चली गई। इतनी गहरी और आश्वस्तिदायक नींद थी कि लगा मृगांका इतनी अच्छी नींद में पिछले दो साल से सोई ही न थी।

सुबह नींद से जगी तो कपैटड़े संभलाते हुए मृगांका ने देखा, अपनी देर तक सोने की आदत के विपरीत अभिजीत उठकर बिस्तर से बाहर था।

वह बाहर आई...देखा लॉन में बैठकर अभिजीत की मां और मम्मी चाय की घूटें ले रहे हैं।

मम्मा अभि कहां है, मां जी, उठ गया वो?

अभिजीत और उसकी मम्मी की आंखों में सवाल उभर आए...

बेटा, सपना देखा था कोई?


उधर, गांव में  क़िस्सा खत्म नहीं हुआ था, लेकिन बैठक खत्म होने को आई। गांव से जुड़ी कुछ समस्याओं को लेकर अभिजीत गांव का दौरा करना चाह रहा था। लेकिन अगले दिन न तो मुखिया जी खाली थे न ही महंत जी। महंत जी ने कहा, आपके साथ उगना चला जाएगा. इस पूरे इलाके का चप्पा-चप्पा इसको पता है।

अगले दिन अलसभोर में ही उगना ने अभिजीत को जगा दिया।

दोनों साथ निकल पड़े थे। पैदल ही।

चलते-चलते  बहुत देर हो गई। उगना भी चुप था और अभिजीत भी। अभिजीत कच्चे रास्ते की मैदे सी बारीक धूल को देखता चल रहा था। कुछ ही देर में उसे भूख लग आई।

अपने रिपोर्टिंग के दिनो में उसने भूख पर काबू पाने के नायाब तरीके खोज निकाले थे। लेकिन, मृगांका..वो ऊंचे दरज़े के खानदान की थी। उसे हाइज़ीन और सेहत से जुड़ी साफ-सफाई का बहुत ध्यान रहता था।

याद आया उसे दो दिनो केलिए मृगांका बाहर गयी थी। बात तब की है जब अखबार छोड़कर उसने एक बड़े से खबरिया चैनल में नौकरी कर ली थी।

इस नई नौकरी के लिए अभिजीत ने बहुत जोर दिया था। गोकि मृगांका अखबार में नौकरी करते हुए अभिजीत से रोज ब रोज़ मिलने का वो मौका छोड़ना नहीं चाहती थी। अभिजीत की इच्छा थी कि मृगांका उसे एंकरिंग करती दिखाई दे।

मृगांका को अभिजीत की बात माननी ही पड़ी थी। लेकिन, दो दिनों के लिए बाहर गई मृगांका के लिए मुसीबत खड़ी हो गई। मृगांका बाहर न तो खा सकती थी न ही कुछ निवाला उसके हलक के नीचे गया।

दो दिनों तक सांस अटकी रही थी अभिजीत की भी...। कितनी बार कहा था मृगांका को, बैग में ड्राइ फ्रूट्स रखा करो, चॉकलेट रखा करो। लेकिन वो भी अपनी जगह जिद्दी ही थी।

अल्लसुबह घर से निकली मृगांका उस दिन देर रात गेस्टहाउस पहुंची थी, दिन भर की भूखी। अभिजीत ने सोचा था कि जब तक मृग खुद खाकर उसके बता नहीं देगी कि उसने खा लिया है, तब तक वह भी नही खाएगा...लेकिन ऐसा हो नहीं पाया था।

क्यों न हो पाया था. ये बड़ी हंसी वाली बात है। उस दिन असल में खाया तो सच में अभिजीत ने कुछ तो सही में नही, लेकिन पीने से खुद को रोक नहीं पाया था। पीने के साथ कुछ चबेना तो चाहिए ही था.....इसलिए जब तक मृगांका नहीं खाएगा वाला प्रण अधूरा रह गया था। सिगरेट की छल्लों वाले धुएं में उसे मृगांका का चेहरा दिखता रहा था रात भर।

उगना आगे आगे चल रहा था। उसके पैर पतले-पतले थे। चलते समय ऐड़ियां पैरों की बनिस्बत आसपास गिरती थीं...बिलकुल दुबला...। सिर के बाल भूरे, कुपोषण का शिकार।

पढ़ना जानते हो उगना...अभिजीत ने बातचीत का सूत्र पकडा.
नहीं।
पढ़ते क्यों नहीं..
पढने जाएंगे तो छोटी बहन का पेट कैसे भरेगा।

अभिजीत निरुत्तर रह गया। अच्चा तुमको वो उगना वाली कहानी याद है?

हां, सुनोगे क्या
सुनाओ

एक दिन महाकवि विद्यापति कहीं जा रहे थे, रास्ते में उनको प्यास लगी, यहां तक की कहानी तो आप जानते ही हैं। अभिजीत ने हामी भरी।

तो कवि विद्यापति ने उगना से कहा कि कहीं से पानी लेकर आओ। आसपास कहीं कोई कुआं नहीं, न को ई तालाब....चारों तरफ सूखा...

अभिजीत ने देखा, चारों तरफ सूखे खेत थे। धान की कटाई के बाद पौधों की ठूंठें थीं...। खेत की जमीन में दरारें पड़ी थीं।

उगना पानी पिलाओंगे।

हां मालिक।

उगना पानी लेने चला गया।

थोड़ी देर बाद लौटा तो लोटे में पानी था। अभिजीत ने पानी पिया, आठ सौ साल पहले महाकवि विद्यापति ने भी पानी पिया था। अभिजीत ने देखा, पानी एक दम साफ निर्मल और स्वच्छ था..उसे याद आया गंगोत्री गया था वो, अपनी बुलेट पर। पीछे थी मृगांका...तो गोमुख के पास गंगा का पानी भी इतना ही निर्मल था।

पानी कहां से लाए हो उगना। अभिजीत ने पूछा, इक्कीसवीं सदी में, विद्यापति ने पूछा था ग्यारहवीं सदी में।


...जारी





 

Friday, November 30, 2012

सुनो! मृगांका:27: तारे सब बबुना, धरती बबुनिया

अभिजीत खिड़की से कूद कर आया था, उसने कहा था कहा चोरी से मिलने का मज़ा हमेशा मीठा होता है।

अचानक मृगांका को लगा कि उसकी गरदन के पीछे किसी ने हल्का किस किया है। एक दम हल्का। कुछ ऐसा ही स्पर्श था, जैसे अभिजीत करता था। वह लेटी ही रही। फिर अचानक हाथ सरकता हुआ उसके कमर के इर्द-गिर्द लिपट गया। वह चिहुंकी, वह पलटी तो  देखा....

अरे, अभिजीत तुम?

अभिजीत की आंखों में शरारत नाच उठी थी। उसने देखा, मृगांका ने बहुत गहरे रंग की लिपस्टिक लगाई थी..लापरवाही से पहनी एक टी शर्ट...शायद हल्के पीले रंग का।

अभिजीत ने कहा, सरसों का फूल लग रही हो।

श्शशश....तुम्हारी मां आई है।
कहां
मेरी मां के कमरे में सो रही होंगी...या शायद गपें मार रही होंगी....लेकिन तुम्हें नहीं पता, अभि...मां तुमसे कितना प्यार करती हैं। तुमको हमेशा लगता रहा कि वो तुमसे प्यार नहीं करतीं...तुम हमेशा कहते रहे कि मां को अचार के मर्तबान मुझसे ज्यादा प्यारे हैं...तुम हमेशा अकेलेपन की शिकायत करते रहे...अभि...मां बहुत दुखी थीं...अभि...

और तुम मृग...

जवाब नहीं दिया मृगांका ने। बस फफक पड़ी।

कमरे में इस रुलाई से कोई भारी पन नहीं आय़ा था। मृगांका जारी रही, अभि, पता है तुम्हारे बिना मैं कितनी अधूरी थी। कहां चले गए थे, क्यों चले गए थे...तुमसे कभी कुछ नहीं कहा...तुमसे हमेशा कहा तुम अपनी तमाम अच्छाईयों और बुराईयों के साथ मेरे हो...फिर क्यों चले गए थे बिना बताए....

अभिजीत ने अपने दोनों हाथों में बस मृगांका का चेहरा पकड़ रखा था। मृगांका के गरम आंसू उसकी हथेलियों की कोर भिंगो रहे थे।

बाहर आसमान में चौदहवीं का चांद पूरे शबाब पर था। बादल का कोई आवारा टुकड़ा कहीं दूर तलक न था। साहिर लुधियानवी से लेकर गुलज़ार और जालेद अख्तर से लेकर सर्वेश्वरदयाल सक्सेना तक की,तमाम बड़े और शानदार कवियों की कविताएं एक साथ साकार हो रही थीं।

हवा में नमी थी। मौसम गरम था। अभिजीत के सीने को मृगांका भिगोए जा रही थी।

कमरे में बत्ती मद्धिम जल रही थी। मृगांका के घर के टैरेस पर कई पौधे थे, जिनको अभिजीत के कदमों की आहट की पहचान थी। हर पत्ते को अभिजीत को छुअन की याद थी। अभिजीत की आदत थी, किसी भी पेड़ के पत्तों को छूकर देखना, मृगांका के टैरेस की लता को, उसके हरेपन को अभिजीत की छुअन याद थी...।

दोनों टैरेस पर आ गए थे। तीन साल विरह के, तीन साल दूरियों के, शिकायतों के...कितना कुछ कहना है मृगांका को...कितनी सारी शिकायतें करनी है अभिजीत से...कितना पीटना है उसे उस तकिए से, जिससे मारने से वाकई बहुत चोट आती है। क्या करे मृगांका...रुठ जाए?

नहीं, कितना रोई है अभि के लिए, रूठेगी नहीं। तकिए से पीटेगी उसको...लाख मिन्नतें करे, इस वक्त चाय बनाकर नहीं देगी।

सुबह होते ही मां के सामने खड़ा कर देगी इसे...मां के सामने, जिनने कितने प्यार से सर फेरा था उसके सर पर। अभि के भाई-भाभी को भी अपने दल में कर लेगी, फिर देखेंगे अभिजीत को,....मृगांका न जाने क्या सोच रही थी। अभिजीत की बांहो का घेरा कसता जा रहा था।

...जारी


 

Thursday, November 22, 2012

सुनो ! मृगांका :26: अब मुझको भी हो दीदार मेरा

मृगांका और प्रशांत जब ड्रॉइंग रूम में आए तो देखा सोफे पर एक महिला बैठी हैं। गौर वर्ण, हिमालय की बर्फ सी धवल केशराशि, भौंहे भी सफेद हो चलीं थीं, सफेद तांत (सूती) साड़ी में लिपटीं महिला...। मृगांका को देखते ही उठ खड़ी हुईं।

प्रशांत ने मिलवाया, भाभी, अभिजीत की मां हैं ये..

जानती हूं...मृगांका मिली नहीं थी कभी अभिजीत की मां से। लेकिन तस्वीरों के जरिए पहचानती थी। मृगांका ने पैर छू लिए। बुजुर्ग महिला ने सिर पर हाथ फेर कर पता नहीं क्या आशीर्वाद दिया, लेकिन उसके ठीक बाद आंखों की कोर से मोतियां झिलमिलाने लगीं।,

बेटा अभि कहां है?

मृगांका चुप रही। प्रशांत ही बोला, चाचीजी, अभिजीत को लेकर ही हम भी परेशान हैं।

तुम क्यों परेशान हो, तुम तो साथ रहते थे, तुम्हें भी नहीं पता? अभिजीत की मां ने एक वक्र दृष्टि प्रशांत पर डाली, तो वह सकपका गया। लेकिन मृगांका से मुखातिब होते ही मां की आवाज़ में मुलायमियत आ गई।

बेटा तुम्हें तो पता होगा...दो महीने पहले घर आया था अभिजीत...अपनी सारी जमापूंजी हमें सौंप गया। बैंक-बैलेंस, फ्लैट की चाबी...उस वक्त तक तो मैं अपने धर्म-कर्म में ऐसी लीन थी, कि कभी याद ही नहीं रहा कि बेटे की तरफ, जवान बेटे की तरफ भी ध्यान देना मेरा धर्म ही है...पता नहीं कहां चला गया। न फोन मिलता है ना कुछ...

प्रशांत को लगा वह यहां से नहीं हटा, तो कलेजा फट जाएगा। मृगांका के पिताजी और प्रशांत किनारे जाकर खड़े हो गए। मृगांका, मां को अपने कमरे में ले गई।

रात के खाने के बाद जब अभिजीत का मां और मृगांका की मां अपने-अपने हिस्से की बातें करने लॉन में चले गए, तो मृगांका बिस्तर पर औंधी मुंह लेटी रही...और पता नहीं कब तक लेटी रही।

...फिर चांद निकल आया और कहीं से उड़ता आया एक बादल का टुकडा

औंधी मुंह ही लेटी थी मृगांका...चांद को चारों ओर से उस मेघ ने घेर रखा था...समझ लीजिए उजाला था भी नहीं भी...सन्नाटा-सा पसरा था। और दिल्ली में तो ससुरे झींगुर भी नहीं बोलते। एकदम चुप्पी...। मृगांका के घर से थोड़ी दूर सड़क पर कुछ अंतराल पर किसी बिगड़ैल रईसज़ादे की कोई कार सर्र से निकल जाती थी.

अचानक, मृगांका को खिड़की पर कोई आहट हुई।

मृगांका ने नजरअंदाज़ कर दिया। उसने अपनी खिड़की में ग्रिल नहीं लगा रखा था...और अभी खिडकी को दोनों पट खुले थे।

उसे याद आया, पापा-मम्मी से मिलने के बाद अभिजीत खिड़की के रास्ते ही मिलने आया था उससे। वेंलेटाईन डे था वो...रात 12 बजे मिलना जरूरी था..और उस समय तक पापा-मम्मी से उतना खुल नहीं पाई थी कि रात के 12 बजे अभिजीत से मिल ले।

अभिजीत खिड़की से कूद कर आया था, उसने कहा था कहा चोरी से मिलने का मज़ा हमेशा मीठा होता है।

अचानक मृगांका को लगा कि उसकी गरदन के पीछे किसी ने हल्का किस किया है। एक दम हल्का। कुछ ऐसा ही स्पर्श था, जैसे अभिजीत करता था। वह लेटी ही रही। फिर अचानक हाथ सरकता हुआ उसके कमर के इर्द-गिर्द लिपट गया। वह चिहुंकी, वह पलटी तो  देखा....

अरे, अभिजीत तुम?


...जारी

Tuesday, November 13, 2012

सुनो ! मृगांका :25: हमारा यार है हम में

मुखिया जी उगना का किस्सा सुनाने लगे। अभिजीत का ध्यान कहीं और ही था।

अभिजीत को पता था, मृगांका उसकी बारीक-से-बारीक आदत पर गहरी निगाह रखती थी। कई दफा तो दफ्तर में ही उसे मेसेज करके चेतावनी भी दे देती थी। ...अभि, बाथरूम से निकलने के बाद क्या मॉइश्चेराजर नहीं लगाया पैरों में...देखो अपने पैर, सफेद-सफेद हो रहे हैं।...अभिजीत की नजर तब अपने पैरों पर पड़ती।

अभिजीत ने दादा-परदादाओं ने कभी भी म़ॉइश्चेराइज़र का नाम तक न सुना था। क़स्बाई माहौल से निकले अभिजीत ने हमेशा जाड़ो में सरसों का तेल चुपड़ने के बाद ठंडे पानी से स्नान करना सीखा था। उसके लिए ये सब चोंचले थे। लेकिन, इसी में कई दफा लापरवाही  हो जाती, तो मृगांका तकरीबन डंडा लिए खड़ी होती थी।

...तो अभिजीत बाबू, उगना जो थे, दरअसल वो शिव थे। महाकवि विद्यापति थे बहुत बड़े शिवभक्त। और शिव को भी पता था कि कितने बड़े भक्त हैं। तो भक्त को चाहिए भगवान और भगवान को भी तो आसरा है बस भक्त का ही। भक्त के बिना भगवान अधूरा और अधूरा है भक्त भगवान के बिना।....

अभिजीत को दुनिया में बहुत-सी चीजों के साथ अपनी लिखावट से भी चिढ़ थी। उसकी लिखावट अपने पिता के लच्छेदार अक्षरों और मां की लहरदार लिखावट के बीच कहीं अटकी-हुई सी लगती थी। अभिजीत को अपने पिता जैसा हस्तलेख चाहिए था।

...तो एक दिन क्या हुआ कि भगवान शिव खुद एक हलवाहे लड़के के रूप में विद्यापति के यहां नौकरी-खबासी में आ गए। विद्यापति को कुछ पता ही नहीं। भगवान से ऐसे काम लेने लगे जैसे वो भगवान न हों, कोई सच के खबास हो। खेतों में काम करवाते, निराई-गुड़ाई, भांग पिसवाते-छनवाते, हाथ-पैर दबवाते.....

कहानी कह रहे मुखिया ने उगना को कहानी के बीच में ही हड़काया, ससुर, पैर मालिश करता रह।

मृगांका ने ही अभि का भी ध्यान उन बिंदुओं की तरफ दिलाया था। अनुस्वार की तरफ। जिसे बजाय बिंदी के अभिजीत गोले की तरह लगाया करता और उन की तरफ जिसकी पूंछ अभिजीत तकरीबन लंगूर की पूंछ की तरह कलात्मक तरीके से खींच दिया करता था।

याद आ रहा है उसे एक लंबे दौरे के बाद दिल्ली वापस लौटने के बाद मृगांका से मिलने का। आसपास का माहौल दीवाली की तैयारियों में जुटा था...बिजली की झालरें जगमगाने लगीं थीं। मृगांका उसे देखती रही थी, फिर वो हंसने लगी--हैरानी और खुशी भरी हंसी--जब वो हंस चुकी तो उसने अपना हाथ अभिजीत के हाथों पर रख दिया था।

'मैंने तुम्हें मिस किया," उसने कहा। तुम वापस आए, अच्छा लग रहा है।

अभिजीत उसके चेहरे को गौर से देखता रहा था। बहुत गौर से। मृगांका के बाएं हाथ पर कलाई से थोड़ा ऊपर एक तिल है। लेकिन, काजल लगाने की वजह से मृगांका की आंखे कुछ ज्यादा ही नुकीली थीं। कुछ ज्यादा ही...।

"चलो जाओ, हम बात नहीं करेंगे आपसे ।'' मृगांका अभिजीत के देखने के इस गहरेपन से लजा टाइप गई थी।

अभिजीत अपनी उंगलियां उसकी उंगलियों में फंसा लेना चाहता था, मगर उसने अपना हाथ संयत रखा, मानो थोड़ी सी हरकत सारे जुड़ाव के तार बिखेर न दे।

सप्तपर्णी पेड़ के नीचे बैठकर मृगांका ने अभिजीत के लिए बैक-टू-बैक दो कप चाय मंगाई थी। आज सिगरेट पीने की भी छूट थी। अभिजीत को दो कप चाय एक साथ पीने की आदत थी और यह मृगांका के बहुत खुश होने का सुबूत था कि उसने दो कप चाय अभिजीत के लिए मंगवाई थी।

चाय खत्म होने तक, अंधियारा घिर आया था। सड़क पर गाड़ियों की चहल-पहल अब ट्रैफिक के शोर में बदल गई थी। "चलो, ' उसने अभिजीत को उठाते हुए कहा था, 'जब तुम वहां की बातें करते हो ना, जहां से तुम आए हो, तो मुझे बहुत अच्छा लगता है, तुम्हारा शहर, वहां की मिट्टी...वहां के लोग, तुम्हारा बचपन..." उसने अपनी बांहे अभिजीत की बांहों में पिरोते हुए कहा, "तुम एकदम जी उठते हो।" 

मृगांका ने कार का दरवाजा खोला था और तकरीबन अभिजीत के कंधे पर सिर टिकाते हुए ही गाड़ी स्टार्ट की थी। अभिजीत पेशोपेश में था कि मृगांका की हिदायतों के बावजूद उसने अपने फ्लैट का जो कचरा किया हुआ था, उसे देखकर मृगांका उसे उधेड़ देनेवाली थी।

...तो ऐसा हुआ अभिजीत बाबू, भक्त भगवान के यहां नौकरी कर रहे। एक दिन विद्यापति महोदय को जाना पड़ा राज दरबार...बाईस कोस का रास्ता...उगना साथ में खबास। रास्ते में लग गई विद्यापति को प्यास...न खाना न पानी...करें तो करें क्या, रे उगना देख पानी कहां...मारे प्यास के गला सूख जाता है। विद्यापति कवि जहां ठौर पाया बैठ गए.....

अभिजीत को फ्लैट पर जाने से पहले अपने कलेजे की धड़कन साफ-साफ सुनाई दे रही थी। धक्-धक्।

कमरे में जाकर मृगांका ने  न किताबों की ढेर पर नजर डाला, न बिखरे अखबारों पर।  अभि, एक गिलास पानी देना जरा...

सुनो अभि। मृगांका ने उसे अपने पास बुलाया। अभिजीत पास गया। मृगांका ने आंखों में आंखे डालकर कहा, पता है तुम्हारी गरदन पर एक गहरा तिल है।....अभिजीत का हाथ अपने तिल पर चला गया....मृगांका ने पलक झपकाए बिना कहा, मैं इसे किस करना चाहती हूं.....अभिजीत के मन में एक साथ कई भाव आए। उसने अपने हाथों में मृगांका को समेट लिया।

मृगांका ने अपने होंठ अभिजीत की गरदन पर रख दिए। होंठ जैसे जलते अंगारे।

... धूप क्या थी जलता अँगारा ता अभिजीत बाबू, विद्यापति तो धम्म से बैठ गए। पता नहीं, उगना कहां से एक लोटा पानी ले आया था। ठंडा, शीतल, निर्मल.....

ठंडा, शीतल, निर्मल....जलते अंगारों से होंठो की छुअन ने अभिजीत के मन में आग लगाने की बजाय कुछ ऐसे ही भाव पैदा किए थे। लेकिन इन भावों के पीछे एक ज्वार-भाटा भी था। मृगांका ने बिस्तर पर लेटकर आंखें बंदकर लीं, अपनी कोहनियों के सहारे लेट गई, भरोसे से भरी नन्हीं बच्ची जैसी...।

लेकिन अभिजीत का ब्लैडर फटने के करीब आ चुका था। टॉयलेट की तरफ दौड़ने से पहले उसने मृग से कहा था, मृग एक मिनट...और जब तक यूरिनल से निबटकर वह आया था...वो गहरी नींद सो चुकी थी।

मृगांका...अभिजीत ने पुकारा। कोई जवाब नहीं। अभिजीत को समझ में नहीं आया कि आखिर वह करे तो क्या करे। आखिरकार, लाइट बंद करने से पहले वह थोड़ा हिचकिचाया भी...। पर्दे खुले थे, सड़क की रौशनी अंदर आ रही थी और उसी रौशनी में अभिजीत मृगांका के सीने के उतार-चढाव देखता रहा।

फिर, अभि ने उसे एक चादर ओढ़ा दी और अपने लिए फर्श पर एक तकिया उछाल लिया।  अभिजीत थका तो था, लेकिन नामालूम वजहों से ख्वाबों में डूबने के लिए उसे एक लंबा इंतजार करना पड़ा। सुबह वह तब भी नहीं जगा था, जो उसे बाद में मालूम हुआ कि , मृगांका ने जाने से पहले अभिजीत के माथे को चूम लिया था।

अभिजीत जब जगा तो पड़ोसी के यहां कबीर का निरगुन तेज आवाज में बज रहा था...

हमन है इश्क़ मस्ताना, हमन को होशियारी क्या....

जो बिछुड़े हैं पियारे से, भटकते दर-ब-दर फिरते,
हमारा यार है हम में हमन को इंतजारी क्या ?

न पल बिछुड़े पिया हमसे न हम बिछड़े पियारे से,
उन्हीं से नेह लागी है, हमन को बेकरारी क्या ?


....जारी

Monday, November 12, 2012

सुनो ! मृगांका :24: यार ही मेरा कपड़ा-लत्ता, यार ही मेरा गैणा

 अभिजीत पानी पीकर हैरत में था...उसने गौर से देखा...इस लड़के उगना को उसने कहीं देखा है। उसे लगा कि शायद उसका भ्रम हो... ये भ्रम नहीं था। ये तो वही लड़का है जो महंत जी की कुट्टी (कुटी) में खबास (नौकर) है... अरे हां, इसे तो स्कूल पर मिडडे मील वाली भीड़ में भी देखा था।

भैंसवार छौंड़े (भैंस चराने वाले लड़के) के पीछे-पीछे जाता हुआ अभिजीत पाकड़ के पेड़ के पास पहुंच गया। वह अभिजीत की तरफ मुड़ा।

" हय मालिक, आप इहां हैं.." उसने लगभग हैरत से पूछा।
"क्यों...?"
" अरे,  ऊधर आपको महंजी (महंतजी) खोज रहे थे और उधर मड़र काका भी..।" अपनी बात पूरी करने के बाद लड़का अपने वराहतुल्य दांतो को होंठों से ढंकने की पूरी कोशिश करने लगा। लेकिन अभिजीत ने  देखा कि दांत होंठों के बीच से यूं उग आते हैं मानो बादलों को चीरकर सूरज भगवान निकल आए हों। अभिजीत पेशोपेश में पड़ गया, किधर जाए...

उसने शायद अभिजीत की असमंजस को भांप लिया, " अरे कोई बात नहीं है। महंजी पूजा पर बैठ गए होंगे, ऊ आपको सायद मुक्खे झा से मिलवाने वाले हैं।...अभी तो आप मड़र कक्का के डेरा पर चलिए।"

अभिजीत को भी लगा कि मड़र के घर ही चलना चाहिए। लड़का देह से कमज़ोर था। दोनों टांगे टिटहिरी जैसी, पतली। कदम ज़मीन पर ऐसे गिरते की दोनों एडियां आपस में टकरा जातीं। चलने का अंदाज़ अजीबोगरीब.. कदम बढाते ही वही हाथ आगे जाता, जो पैर आगे बढ़ रहा होता। काला खटखट। बिबाइयां फटे पैर, टूटी चप्पल। चप्पल के टूटे फीते को आलपिन से जोड़ा गया था।

" नाम क्या है तुम्हारा..?" अभिजीत ने पूछा। हालांकि नाम उसे पता ही था, फिर भी बातचीत के क्रम को आगे बढाने के लिए सवाला पूछा गया था।

" मेरा नाम.. ? वह चिंहुका। "... उगना.."  उसने ऐसे बताया मानो नाम बताना नहीं चाह रहा हो। "..उगना.." अभिजीत  ने दुहराया। हिंदी में उगना उदित होना होता है, मैथिली में दुलारा..।

" घर में कौन है उगना.." अभिजीत के स्वर में थोड़ा दुलार आ गया था।

" एक ठो बहिन है उसका नाम है आसाबरी.. एक ठो कुतवा (कुत्ता) है और बरद (बैल)"...कुतवा हमरे मीत (मित्र) भैरव का है।

" .. और मां-बाप.." अभिजीत ने ये सवाल ना मालूम क्यों पूछ डाला। " मां-बाप .. बहुत पहिले मर गए.. खजौली टिशन के पास जूता-चप्पल ठीक करने का दुकान था।"

बातें शायद और भी आगे चलतीं, लेकिन तब तक मड़र का घर आ गया था। अभिजीत  ने देखा, उनकी बूढी मां बांस से बने दरवाजे के पास खड़ी थी। मड़र भी आ चुका था।

" माई ने आज बगिया बनाया है, इसलिए आपको खिलाने के बारे में सोच रही थी। उसको लग रहा था कि पता नहीं सहर-बजार के आदमी हैं।... बढिया लगेगा कि नहीं, लेकिन हम तो जानते हैं आपको। हम बोले उगना से कि जाओ बुला लो सर को... आज गांव का बेंजन (व्यंजन) भी आपको खिला ही दें।"

वैसे रात में गांव की तरकारी का स्वाद अभिजीत पा चुका था और ईमानदारी से कही जाए तो इसका जायका उसे शहर के खाने से वाकई अच्छा लगा था।

अभिजीत,  मड़र और उगना के साथ बैठा ही था कि मड़र ने उगना को कोई इशारा किया। उगना उठकर आंगन में खड़ा हो गया। एक औरत, आधा पल्लू सर पर ढांके, कुछ इस तरह  कि परदा है भी और नहीं भी के अंदाज़ में..एक पीतल की थाली में सात-आठ इडली जैसी चीज़ रख गई। सफेद पकवान से भाप उठ रही थी और साथ में एक सोंधी सुगंध भी।

वह औरत मड़र की बीवी नहीं था। मड़र की मां शायद अभिजीत के सवालिया निगाहों को पहचान गई। बोली,--" ये बिसुआ (मड़र) की भावज है। मेरा दूसरा बेटा है न लखिन्दर, उसकी बहू।"

इतना परिचय काफी नही था। मड़र के बेटे, जीवछ ने और विस्तार से बताया,-" मेरे कक्का बंबई गए हैं। कमाने के लिए।"... जीवछ ने उस पकवान में दांत काटते हुए बताया कि बंबई में समुद्र है, हमारे महंजी पोखर (महंत जी वाले पोखरे) से बहुत बड़ा। इतना बड़ा कि उसमें सौ पोखर अंट जाएंगे। और ये भी उसके कक्का का नाम बाला लखिंदर है और काकी का नाम है बिहुला।

अभिजीत  को लगा कि इस पकवान के साथ कोई चटनी भी होनी चाहिए, लेकिन जीवछ ने ऐसे ही दांतों से काटकर खाने का इशारा किया। जैसे ही अभिजीत  ने दांत से पकवान में काटा, उसकी पूरी गाल गुड़ के सोंधे मीठेपन से भर गई।

ऐसा एक बार तब हुआ था, जब मृगांका के बहुत जोर देने पर उसने पित्सा खाया था। दांत से काटकर। खूब लोटपोट होकर हंसी थी मृगांका...खैर...।

उसे ख्याल आया कि उगना अभी नहीं खा रहा है। अभिजीत ने उसे बुलाया, वह हिचकिचा रहा था। मड़र समझ गया।

बिसेसर के घर से बगिया खाकर, अभिजीत फिर से मुखिया जी के घर की ओर गया। शाम गहराने लगी थी...घरो में लालटेने जल गई थी। बिहार में बदले हुए परिदृश्य में गांवों में बिजली के खंभे तो लग गए थे, लेकिन उन खंभों से लटके तार निष्प्राण थे।

मुखिया जी ने जोरदार स्वागत किया। अभिजीत ने देखा, उगना वहीं मुंह लटकाए खड़ा था, अभिजीत से पहले ही पहुंच चुका था वो...।

मुखिया जी ने हांक लगाई, रे उगना पानी ला रे।

...उगना से याद आया अभिजीत बाबू, उगना की कहानी आपने सुनी या नहीं..। अभिजीत ने इनकार में सर हिला दिया। ले भला, चलिए सुनाते हैं...। मुखिया जी ने हथेली पर मसले जा रहे खैनी को चुटकी बनाकर निचले होठों के बीच सुरक्षित पहुंचा दिया, और दास्तानगोई शुरु हो गई।

दिल्ली, मृगांका का घर

कमरा सूना तो था, लेकिन अब बेजान नहीं था। मृगांका ने कुछ आलमारियां खोल रखी थीं, प्रशांत अवाक् सा देख रहा था। सब आलमारियों में अभिजीत की लिखी किताबों की कई प्रतियां थी। कुछ पर अभिजीत के हस्ताक्षर भी थे, जो उसने खुद मृगांका को भेंट किए थे।

प्रशांत अभिजीत का बहुत नजदीती दोस्त था।

प्रशांत, तुम्हें पता है, अभिजीत की लिखावट में क्या खास होता था? मृगांका ने लगभग रूंधी हुआ आवाज में पूछा था।

प्रशांत और अभिजीत तबसे दोस्त थे, जब अभिजीत दिल्ली आया ही था। युगों पुरानी दोस्ती, साथ खाना और साथ पीना। लेकिन लिखावट...। अभिजीत का हस्तलेख पहतान सकता था प्रशांत लेकिन...लिखावट में क्या खास था।

मृगांका ने एक पुरानी पतली-सी किताब निकाली, आखिरी पेज पर एक शेर लिखा था...प्रशांत बेवकूफ की तरह उस लिखावट को देखता रह गया...लिखावट तो अभिजीत की ही है लेकिन इसमें खास क्या है। वह चुप ही रहा।

देखो गौर से, अभिजीत बिंदियों की जगह बड़ा-सा गोला बनाता है। और वह र कैसे लिखता है...मृगांका और न जाने क्या-क्या ब्योरा देती रही। हर बारीक ब्योरा प्रशांत के मन में, अपराधबोध भरता गया।

मृगांका भाभी, मुझे माफ कर दो।

प्लीज प्रशांत, भाभी भी कह रहे हो, और तुमने मुझे अंधेरे में रखा। कहां गुम हो गया है तुम्हारा भाई और तु्म एक फोन नहीं कर सकते थे।

मैं बाहर चला गया था, मेरे पीछे पता नहीं...

चुप रहो,.....मृगांका कुछ और कहने ही वाली थी कि अचानक उसके पिताजी कमरे में आए। बेटा, देखो ड्राइंगरूम में...अभिजीत की मां तुमसे मिलने आईं है।

अभिजीत की मां? मृगांका और प्रशांत दोनों के लिए हैरत की बात थी। दोनों ड्राइंग रूम की तरफ दौड़ पड़े।

जारी.....


Sunday, November 4, 2012

सुनो ! मृगांका:23 : नैना भीतर आव तू, नैन झांप तोहे लेउं

अब तक आपने पढ़ाः- (अभिजीत गांव में अपने घर में लेटा है। वह अपने तेज बुखार के दौरे से उबरने की कोशिश कर रहा है। सपने में वह पता नहीं किन-किन जगहों के दौर कर आता है। उसे याद आता है कि किस तरह वह मृगांका के हवेलीनुमा घर पर गया था, और उसके माता-पिता से मिला था। उसे याद आता है कि मृगांका के पिता ने उसे अपना भरपूर आशीर्वाद दिया था और मां ने नेह भरा हाथ फिराया था। एक प्रेम कहानी की इससे बेहतर शुरुआत क्या हो सकती थी भला...) अब आगे पढिए...

बड़े घरों के दिल हमेशा संकरे नहीं होते। जैसा कि अपनी मार्क्सवादी विचार के तहत अभिजीत सोचा करता था। कहानी की यह शुरुआत तो बड़ी शानदार थी...फिर चूक कहां हुई..।

अभिजीत की नींद खुल गई, आँधी के आसार बन रहे थे...।


आंधी तो ख़ैर क्या कहें, अभिजीत के लिए यह तूफ़ान से कम न था। उसने मिचमिचाते हुए आंखें खोली...भीतर जाकर चापाकल (हैंडपंप) चलाकर मुंह धोया...पानी बेहद ठंडा था। गांव की यही खासियत उसे बहुत सुकून देती है। जल्दी ही उसने स्टोव पर चाय का पानी चढ़ा दिया।

अभिजीत ने हमेशा, यही कहा था-टी इज़ कूल इन समर एंड वॉर्म इन विंटर।

पतीली में चाय का पानी खौल रहा था। अभिजीत यादों में डूब गया। अभिजीत की यादों का सिलसिला, उसकी यादों का तानाबाना सिर्फ और सिर्फ मृगांका के आसपास बुना हुआ था। एक बार उसने कॉल किया था, मृगांका बातें करते-करते खांस रही थी। अभिजीत ने उसे कहा कि वो चाय पिए, अदरक की या फिर तेजपत्ते की।

मृगांका हंसने लगी। अभिजीत को अपनी भूल मालूम हुई, मृगांका ने बताया था उसे कि वो चाय नहीं पीती। बस कभी कभार पीती है। चाय का पानी खौल ही रहा था। पूरे फ्रेम में महज चाय की पतीली। अभिजीत को उसमें भी मृगांका का ही चेहरा दिखता है।

उसी बातचीत में अभिजीत ने किसी तरह मनाया था मृगांका को कि वो काली मिर्च और घी ले, तो खांसी रुक जाएगी। अभिजीत को लगा कि वो ये बातें, इतनी छोटी बातें, किसी को बताएगा, तो लोग उसे दीवाना कहेंगे।

तभी दरवाजे पर आहट हुई। बिसेसर था।

अरे बिसेसर बाबू आओ
अभिजीत भैया, आपको महंत जी बुलाए हैं, मुखिया जी से मिलवाने के लिए बुला रहे हैं। दुर्गाथान(दुर्गा स्थान) पर।

चलो, पहले चाय पी लेते हैं। पिओगे?
अरे बाबू, आप बनाएंगे चाय
क्यों हम नहीं बना सकते, हमारे हाथ की चाय पियोगे , तो बाकी चाय भूल जाओगे, हम चाय बहुत अच्छा बनाते हैं, ये तो मृग भी कहती है...

कौन मृग बाबू...

अरे कोई नहीं, ऐसे ही...लो चाय पिओ।

थोड़ी देर बाद दोनों दुर्गा स्थान पहुंच चुके थे। अभिजीत के घर से फर्लांग भर दूर है दुर्गाथान। वहां एक स्कूल है, तालाब है, मंदिर है, और चौक पर कुछ दुकानें हैं। मंदिर के अहाते में, बारामदे पर मुखिया जी और महंत जी समेत कई लोगों की चौपाल-सी बैठी थी।

आइए, अभिजीत बाबू। परिचय करा दें आपका, इन सबों के। भाईयों,ये हैं अभिजीत बाबू...हमारे ही गांव के हैं, दिल्ली में रहते हैं...कल ही आए हैं। पारस्परिक अभिवादनों का आदान-प्रदान हुआ।

मुखिया जी ने आवाज़ दी, अरे उगना, पानी पिलाओ बाबू को...।
अभिजीत को यह नाम सुना-सुना सा लगा। उगना ये नाम कहां सुना है? मुखिया जी ने बताया अरे, अभिजीत जी अपने गांव से थोड़ा दूर है ना उगना महादेव का मंदिर। रेलवे का हॉल्ट भी है, भवानीपुर के पास। वहीं सुना होगा...कहानी सुनी है आपने उगना की?

अभिजीत ने इनकार में सिर हिला दिया।

महंत जी ने कहानी सुनानी शुरु कर दी, 'बहुत पहले विद्यापति ठाकुर नाम के बड़े शिवभक्त कवि हुए थे..आपको तो पता ही होगा?' इस बार अभिजीत ने सहमति में सिर हिला दिया।

'विद्यापति को मैथिल कोकिल भी कहते हैं। उनकी पदावलियां हिंदी और मैथिली साहित्य की धरोहर मानी जाती हैं, और उनको जायसी, तुलसी, सूर के बराबर माना जाता है। भगवान शिव को भी विद्यापति से बड़ा प्रेम था। अपने भक्त के साथ रहने के लिए ईश्वर भी धरती पर उतर आए, और चरवाहे के रूप में उनके खेतों में काम करने लगे। खेतों में हल चलाते...विद्यापति की सेवा करते। उधर, विद्यापति शिव तांडव स्त्रोत का पाठ करते, शिव की पूजा करते, मैथिली में रचनाएं रचते, महाराजा के दरबार भी जाते, लेकिन इस बात से बिलकुल अनजान कि उनका चरवाहा भगवान शिव ही हैं। पता है चरवाहे के रूप में रह रहे भगवान का नाम क्या था? '

अभिजीत ने फिर इनकार में सिर हिलाया।

उगना, उगना नाम था शिव का।

अरे उगना पानी लाया रे। मुखिया जी ने जोर से गरज कर आवाज़ लगाई। उगना पानी भरा लोटा लेकर हाजिर हो गया। उफ़, कितना ठंडा और मीठा पानी था। अभिजीत को दिल्ली के जीवन के तमाम आरओ वाले और बोतलबंद मिनरल वॉटर की बोतलो का पानी फीका लगा था।

उसने फिर आवाज़ लगाई, उगना!

उधर, दिल्ली में;

मृगांका अस्पताल में थी, आरएमएल में पता नहीं किसकी झलक देखकर उसे लगा कि प्रशांत है। कल शाम ही ब्लास्ट के फुटेज़ में पता नहीं क्यों उसे अभिजीत का चेहरा नज़र आया था। आज उसे प्रशांत का चेहरा दिख गया। उसने सर झटकना चाहा। लेकिन उसे लगा मेडिकल सुपरिटेंडेंट से पूछ लेने में हर्ज़ ही क्या है।

मेडिकल सुपरिटेंडेट ने बताया कि उसके यहां एक डॉक्टर है तो प्रशांत नाम का, लेकिन वह धमाके के बारे में कुछ बता नहीं पाएगा। मृगांका को इससे को ई मतलब नहीं था। उसने डॉक्टर से कहा कि प्रशांत उसका परिचित है और उसकी बहुत दिनों से उसकी मुलाकात नहीं हो पाई है, उसका मिलना जरूरी है।

पता नहीं क्यों, मृगांका को आभास हो रहा था कि हो न हो वह प्रशांत ही था...और अब गुत्थी का एक सिरा तो पकड़ में आएगा।

सच में वह प्रशांत ही था। उसने एक झलक में ही मृगांका को देख लिया था, उसकी निगाहों से बचने केलिए ही वह किनारे से निकल गया था। वॉर्ड बॉय ने जाकर प्रशांत को बताया कि उसे दासगुप्ता जी याद कर रहे हैं और साथ में एक टीवी में काम करने वाली लड़की भी है।

अब प्रशांत के सामने कोई चारा न था।

मेडिकल सुपरिटेंडेट के केबिन का परदा हटने से पहले तक प्रशांत का दिल ज़ोरो से धड़क रहा था। उसे बिलकुल भी अंदाज़ा नहीं था कि वह मृगांका को क्या जवाब देगा।

परदा हटा। लगा कैमरा लॉन्ग शॉट से सीधे जैप़ ट्रैक होता हुआ प्रशांत के चेहरे पर टिक गया, तकरीबन हवाईयां उड़ती हुईं।

कट टू मृगांका। 

हैरत भरी आंखो का एक्सट्रीम क्लोज अप। सिनेमैटिक साइलेंस। कोई जवाब नहीं, कोई सवाल नहीं। लेकिन मृगांका को रुंधी हुआ आंखों में एक हज़ार सवाल थे। प्रशांत की झुकी हुई निगाहें निरुत्तर थीं।

मौन तोड़ा दासगुप्ता जी ने। अरे मृगांका जी यही है हमारा प्रशांत, दिल का डॉक्टर है। हहहह। चलिए आप लोग बात करिए...हम जरा राउंड लगा कर आते हैं।

दासगुप्ता जी निकल गए। प्रशांत ने बस इतना कहा, घर चल कर बात करें।

चलो। मृगांका ने कहा।

गाड़ी गेट से निकली, फ्रेम से बाहर हो गई। सन्नाटा-सा पसरा रहा।




Tuesday, October 30, 2012

सुनो ! मृगांका:22: कौन ठगवा नगरिया लूटल हो

अभिजीत दालान पर लेटा हुआ था। चौकी (तख्त) पर। सर के ऊपर खपरैल की छत थी। सामने सांप की जीभ की तरह सड़क दो हिस्सों में बंटी थी। उसके दालान के आगे, आम का पेड़ था। छांहदार। दालान और सड़क के बीच एक चौड़ा-सा आंगन।

गरमी के मौसम...हवा बिलकुल बंद थी। कुछ माहौल ऐसा था मानो भरी देग खदबदा रही हो। पसीने छूट रहे थे। बिसेसर खजौली गया है। रिक्शा लेकर। अभिजीत की पेट में हल्की जलन अब भी थी।

खाने के बाद मन कर  रहा था, हल्की नींद ले। कई झोंके आए भी। बेचैन मन कभी मुज़फ़्फरनगर घूम आया, कभी फैज़ाबाद, कभी मेरठ में होता तो पल भर बाद ही, खान मार्किट के चक्कर काट रहा होता...कभी साकेत तो कभी कहीं और...।

उसे याद है एक बार वह कभी किसी सिलसिले में गया था, फैज़ाबाद से उसने कॉल किया था मृगांका को। तुम्हारे शहर में हूं...।

फैज़ाबाद....। अयोध्या। अवध। वह खुद मिथिला का था। वाह, इस बार सीता अयोध्या से थी, और राम...? उसे आजीवन ईश्वर से वैर रहा था। नहीं, वो राम नहीं था। फिर भी, परंपरा के हिसाब से, लड़का इसबार मिथिला से था, और कन्या कोसल से।

अभिजीत पेट के बल लेट गया। यह उसका पसंदीदा पोस्चर है।

मृगांका के पूर्वजों के राजमहलनुमा हवेलिया थीं...हवेलीनुमा मकान तो उनके दिल्ली में भी थे। मृगांका ने उसे एक बार अपने घर पर खाने के लिए बुलाया था। दोपहर भर अभिजीत यही तय करता रह गया था कि क्या पहनकर जाए।

आखिरकार, उसके लिए पोशाक प्रशांत ने तय की थी।

अभिजीत को पता था कि मृगांका का परिवार रईस है, और वह कुछ ऐसी लिबास पहनना चाहता था कि उनके बीच ऑड मैन आउट न लगे। हालांकि, इस मामले में थोड़ा अक्खड़ था अभिजीत। लेकिन यह जगह अक्खड़पन दिखाने की नहीं थी। यहां नफ़ासत तो चाहिए थी, लेकिन भड़कीला नहीं होना था वह सब।

अभिजीत के पास एक सूट था जरूर, लेकिन वह सालों पुराना था, और पहने जाने की बाट जोहता हुआ थक थका गया था। आखिरकार, प्रशांत ने सलाह दी। आजमाया हुआ नुस्खा काम आया। एक कलफ़दार सूती कुरते और जींस का बाना धारण किया था अभिजीत ने।

मृगांका का परिवार एक शानदार हवेलीनुमा मकान में रहता था। किसी सिक्योरिटी फर्म के गार्ड ने चेहरे पर बेहद नागवार गुजरने वाले भाव ओढ़ रखे थे। मानो अभिजीत के आने का उसको जरा भी परवाह न हो। लेकिन अभिजीत ने भी उतने ही ठसक  से--कुछ ऐसा जताते हुए कि उसे इस बात का बहुत बुरा लगा है--अपने आने का मकसद बताया।

इसके बाद तो शायद उस सिक्योरिटी गार्ड के पंख लग गए। झटपट दरवाजा खुल गया।

मृगांका ने मुस्कुराते हुए अभिजीत का स्वागत किया। उसकी रंगत दमक रही थी। अभिजीत को भरोसा ही नहीं हो रहा था कि आखिर कोई इतना खूबसूरत हो भी कैसे सकता है।

वाउ, बहुत अच्छे लग रहे हो। मृगांका ने कुरते का छोर पकड़ते हुए कहा था।

हालांकि, वो हमेशा की तरह सलवार-कुरते-दुपट्टे में नहीं थी, और उसके बाल बेतरतीबी से बंधे थे और उसने जिस तरह से टीशर्ट पहनी थी, अभिजीत को नहीं लगा कि इस मौके के लिए कपड़े चुनने को लेकर वह ज्यादा परेशान हुई होगी।

वह हाथ पकड़ कर खींचती हुई अभिजीत को ले जाने लगी, यह कहते हुए वह उसे कुछ दिखाना चाहती है। अभिजीत भी खिंचता हुआ उसके पीछे चला गया। कमरा क्या था, बस किताबें, एक गुलाबी रंग का-जी हां गुलाबी- लैपटॉप, अभिजीत ने गौर से देखा आज मृग ने बहुत गहरे लाल रंग की लिपस्टिक भी लगाई थी। कपड़े सलीके से तह किए हुए थे, कुछ बिखरे भी थे...किताबे ज्यादा थीं...कुछ इसतरह मानों उनकी मृगांका के साथ दोस्ती हो।

अभिजीत को लगा कि यह कमरा जिंदा है, इसमें जिंदगी समाई हो।

अभिजीत ने अचानक एक कॉपी-सी उठा ली। डायरीनुमा कॉपी। मृग हंसने लगी..मत पढ़ो। कुछ कविताएं हैं...मैं दीवानी-सी हो रही हूं आजकल....कविताएं लिखने की जी करता है। पहले कभी नहीं हुआ था ऐसा....

अभि ने कहा, मुबारक हो।

फिर मृगांका अभिजीत को अपने रूफ टैरेस पर ले गई। जहां किसिम-किसम के पौधे थे, तुलसी समेत। तुलसी चौरा पर सांझ का दिया जल रहा था। पौधों में पानी दिया जा चुका था...गमलों की माटी से सोंधी खुशबू आ रही थी।

उसने वहीं पर अभिजीत को अपने पापा-मम्मी से मिलवाया। दीदी भी आई हुई थीं। मृगांका के पिता ने अभिजीत का हाथ थाम कर हौले से हलो कहा। मम्मी ने अभिजीत की तरफ ही देखते हुए मृगांका से कहा-वेरी नाइस।

मृगांका के पिता कामयाब बिजनेसमैन थे। अभिजीत किताबें लिखने वाला लिक्खाड़। लेकिन केमिस्ट्री सेट हो गई थी। मृगांका के पापा भी किताबों के शौकीन थे, जब वो दिल्ली आकर बसे थे तो उनने भी जिंदगी शून्य से शुरु की थी। बातों बातों में मृगांका की बड़ी बहन ने बता दिया कि अभिजीत की सभी प्रकाशित किताबें घर के सबी लोगों ने पढ़ रखी हैं, उसका साप्ताहिक कॉलम भी पापा को पसंद है...और अभिजीत जैसे सेल्फमेड मैन को पापा बहुत पसंद करते हैं।

पापा जी चुपचाप खा रहे थे, मु्स्कुराते हुए।

बड़ी बहन ने ये भी बताया कि अभिजीत के जीवन के बारे में भी सबको सब कुछ पता है...। खाने के बाद निकलते वक्त अभिजीत पापा के कदमों पर झुक गया था...पापा ने भी तकरीबन आलिंगन में भरते हुए उसे सौ का एक नोट दिया था। 'बेटे इतनी ही रकम मेरे पास थी, जब मैं दिल्ली आया था, इसे नेग समझ...'अभिजीत अभिभूत हो गया।

बड़े घरों के दिल हमेशा संकरे नहीं होते। जैसा कि अपनी मार्क्सवादी विचार के तहत अभिजीत सोचा करता था। कहानी की यह शुरुआत तो बड़ी शानदार थी...फिर चूक कहां हुई..।

अभिजीत की नींद खुल गई, आँधी के आसार बन रहे थे...।



...जारी

Friday, October 26, 2012

सुनो ! मृगांका: 21: सहर

...सुनो मैंने तुम्हें सपने में देखा था।

झूठ..।

क़सम से।

नहीं..। नहीं बोलने की मृगांका की अदा गजब थी। अभिजीत अगर कोई शहंशाह होता तो इस अदा पर मोतियों की बौछार कर देता।

..अच्छा तो फिर बताओ, सपने में मैने क्या किया...। फिर शरारती मुस्कुराहट। अभिजीत मौन रह गया। उसके भदेस संस्कार उसे वह सब बताने से रोक रहे थे। लेकिन, अभिजीत जानता था वह कोई फ्रायडियन सपना नहीं था। उसमें शारीरिक उड़ाने नहीं थी...सच तो यह था कि जिसतरह दारू पीकर अभिजीत गुमसुम हो जाता था, वैसे ही सपने में भी चुप्पा ही था।

अभिजीत को लगा था, कि वह हवाई जहाज में उड़ रहा है। और उसे किसी ने वहां से फेंक दिया हो। मानो वह स्काई डाइविंग कर रहा हो।

ऊंचाइयों से गिरना तकलीफदेह होता है। सपनों का टूटना, उससे भी ज्यादा।

सीन चेंज, पता नहीं कहां, पता नहीं कौन से वक्त, पता नहीं किस तरह

अभिजीत इंतजार कर रहा है। मृगांका ने मिलने का वायदा किया है। जनपथ सीसीडी। एक घंटा लेट। आम तौर पर अभिजीत मृगांका के आए बगैर कॉफी नहीं पीता। सो, वायदे पर डटते हुए सात सिगरेंटे पी जा चुकी हैं। अकेले खाली बैठे देखकर, और सिगरेटें फूंकते देख, अगल बगल की मेज पर बैठे जोड़ो को यकीन हो गया, इसकी जोड़ीदार आई नहीं अभी तक।

घंटा भर बाद, जोड़ीदार आई। सोलमेट।

अभिजीत के पसंदीदा कपड़ो में आई थी, सो अभिजीत ने बिना भौं टेढ़ी किए, उसका मुस्कुराहट से स्वागत किया। उसके होंठ, उसके गाल, उसके बाल...अभिजीत को लगा, दुनिया को ठेंगे पर रखकर अपने हाथों में रख ले।

उसी दिन मृगांका ने उसे किस किया था। किस का ये किस्सा छप गया था अभिजीत के दिलोदिमाग में।

वह दृश्य, वो अहसास, वो खुशबू..अभिजीत के दिमाग को उजाले में रखते हैं। अभिजीत महकता रहता है इससे...अंधियारा गहराने लगा था।

अंधियारे से उजाले फूटने लगे...अभिजीत ने आंखे खोली तो यही उजाला चौंधिया गया उसको।

उसने देखा सामने लोगों की भीड़ जमा थी, महंत जी और गांव के बहुत से लोग। क्या हो गया था बाबू साहब आपको. महंत जी ने पूछा।

कुछ नहीं।

मिर्गी वगैरह है क्या। गांव के किसी नौजवान ने पूछा।
नहीं बस यूं ही चक्कर सा आ गया था।

अच्छा, अब ठीक तो हैं, तो बताइए, सबको यहां बुलाया क्यों है?

दिल्ली, सुबह साढे नौ बजे, राम मनोहर लोहिया अस्पताल

मृगांका रात भर सो नहीं पाई थी।  रात भर वो आंख उसे परेशान करती रही। क्या हुआ अभिजीत को..कहां है अभिजीत। नहीं, वो अभिजीत नहीं हो सकता। ड्राइव करती हुई वो सीधे अस्पताल के गेट के पास गाड़ी पार्क करती हुई अंदर को भागी।

 मेडिकल सुपरिटेंडेंट उसका पहचान का था। डॉक्साब, मुझे मरने वालो की सूची चाहिए। 

वो तो आपके रिपोर्टर को दे चुके है, सारे चैनल वालों को थोड़ी ही देर पहले दिया है। डॉक्टर ने जवाब दिया।

क्या मैं सबके चेहरे देख सकती हूं, घायलों से मिल सकती हूं।

हां, हां क्यों नहीं। लेकिन बुरी तरह क्षतिग्रस्त चेहरे..हम इजाज़त नहीं देंगे। थोड़ी ही देर में उनका पोस्टमार्टम भी तो होगा। 

नहीं, मुझे सही-सलामत लोग ही दिखाएं। प्लीज...

लाशों की इस भीड़ में उसने देखा...वो नहीं था। वो आंखे, जो अभिजीत-सी थीं, किसी और अभागे की थी। मृगांका को थोड़ी राहत मिली। बाहर आकर वो अहाते के पेड़ से बाई तरफ शीतल पेयों की दुकान की तरफ गई...उसे बड़ी जोर की प्यास लग आई थी।

अचानक उसे लगा उसने किसी जाने-पहचाने चेहरे को देखा था....वह चिल्लाई.

प्रशांत...।।


....जारी







Tuesday, August 28, 2012

सुनो ! मृगांका:20 : हादसों की ज़द पे हैं तो मुस्कुराना छोड़ दें?

अब तक आपने पढ़ाः अभिजीत अपने सारे बैंक-बैलेंस वगैरह अपने रिश्तेदारों के नाम करके गांव लौट रहा होता है। खजली स्टेशन पर उसने रिक्शा पकड़ा, और जब घर गया तो पता चला गांव के बंद मकान की चाबी उसके पास नहीं..फिर वह रिक्शेवाले के ही घर पर रुकता है। रिक्शेवाले के घर पर सुबह उठकर अभिजीत गांव के पोखरे तक जाता है और महंत जी के घर के पास जाता है-मंजीत)
 
बिसेसर ने झुककर खाली चौकी को ही दंडवत् किया। 

उसे झुककर प्रणाम करता देख, अभिजीत के मन में एक अजीब सी भावना जगी। संभवतः उसके मन के किसी कोने में मृगांका की याद हो आई थी, और वह याद कुछ ऐसी थी कि उसका रोम-रोम मुस्कुरा उठा था। 

हादसों की ज़द पे है तो मुस्कुराना छोड़ दें
ज़लज़लों के ख़ौफ़ से क्या घर बनाना छोड़ दें,

तुमने मेरे घर न आने की कसम खाई तो है
आंसुओं से भी कहो आंखों में आना छोड़ दें.

बारिशें दीवार धो देने की आदी हैं तो क्या
हम इसी डर से तेरा चेहरा बनाना छोड़ दें! 

थोड़ी देर बाद अंदर से महंत जी आ गए। बिसेसर ने एक बार फिर से प्रणाम किया, शिष्टाचारवश अभिजीत के हाथ भी जुड़ गए। अभिजीत ने देखा महंत जी अब भी बहुत तेजस्वी व्यक्तित्व के स्वामी थे। 
 
अभिजीत ने हमेशा धार्मिक कर्मकांडो की खिल्ली उड़ाई थी, अपने जीवन में। हमेशा ईश्वर के अस्तित्व को चुनौती दी थी। मंदिर देखकर उसे याद आया। 
 
किसी असाइनमेंट पर निकलने का वक्त था। अगले अलसभोर की कोई फ्लाइट थी, मृगांका ने उसे मिलने के लिए खान मार्केट बुलाया था। कैफे कॉफी डे में जब अभिजीत उससे मिलने के लिए पहुंचा, तब तक करीब एक घंटे इंतजार कर चुकी मृगांका का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंच गया था। वैसे अगर कहावत में आठवें या नवें आसमान का ज़िक्र होता तो शायद गुस्सा भी वहां पहुंच गया होता। 
 
मृग, कॉफी?
नहीं पीनी कॉफी-वॉफी, पियो अपने दोस्त प्रशांत के साथ।
अरे ये क्या
दरअसल, प्रशांत, अभिजीत का खास दोस्त था। दोनों भयंकर दारूबाज़। लेकिन खासियत ये कि दोनों में से कोई कभी भी दारू का ग़ुलाम न था, न ही पी के कभी बहके दोनों, न किसी से गाली गलौज की। बल्कि, पीने के बाद दोनों के दोनों, शांत, संयत, सुशील और शिष्ट हो जाते थे। अभिजीत की सृजनात्मकता तत्वसेवन के बाद चरम पर आ जाती थी। खैर..ये तो किस्सा और है लेकिन फिलहाल प्रशांत के साथ लेट होने की वजह से मृगांका बहुत गरम थी।
 
बेहद मान-मनौव्वल के बाद मृगांका थोड़ी नरम पड़ी। लेकिन यह थोड़ी सच में थोड़ी ही थी। कैफे में सौ लोगों की मौजूदगी में कान पकड़ कर माफी मांगने के बाद ही अभिजीत छूट पाया था। साथ में, उस शाम की बातचीत में मृगांका ने जगत्, ईश्वर, ब्रह्म और चर अचर जैसे विषयों पर एक लंबा व्याख्यान दिया था। जबकि उस रोज अभिजीत की इच्छा मृगांका को अपने बांहों में समेट लेने की थी।

उसे लग रहा था कि मृगांका इतनी निष्ठुर कैसे हो सकती है। लेकिन सयाने अभिजीत ने देख लिया कि इन बातों से उसकी झुंझलाहट का वह पूरा मजा ले  रही है और अपनी ट्रेड मार्क होंठ दबा कर मुस्कुराने का कोई मौका नहीं छोड़ रही। बातों ही बातों में मृगांका की उंगलियां अपने ही केश की लटों से खिलवाड़ करने लग जातीं।

सीसीडी की सीढ़ियों से उतरते वक़्त अभिजीत ने उसकी कलाई पकड़ ली थी। सुनो, मृगांका...

हां, कहो अभि...
 
कुछ गिफ्ट लाना चाहता हूं तुम्हारे लिए...अभिजीत ने उसे और अपनी तरफ खींचते हुए कहा।
तो कुछ ऐसा लाना जिसकी तुमसे मुझे उम्मीद भी न हो।
 
जरूर, कुछ ऐसा लाऊंगा जिसकी तुम उम्मीद भी नहीं करती होओगी...कहकर अभिजीत ने हल्के से उसके गालों पर चुंबन ले लिया। मृगांका उसे परे धकेलती हुई सीढियों से नीचे ले गई। बहुत बड़े गधे हो तुम...पब्लिक प्लेस है ये।
 
जस्ट फॉरगेट द पास्ट। 
 
अभिजीत की आंखों में पूरा पानी भर गया। एक गलत समीकरण...और पूरा जीवन तहस-नहस। न सिर्फ उसका बल्कि मृगांका का भी। क्या लग रहा होगा...क्या कर रही होगी मृगांका। 

महंत जी के साथ चलता हुआ अभिजीत गांव की सड़क पर आ गया। कच्चा रास्ता...कभी धूप कभी छांव का सा माहौल था। माहौल में ऊमस थी। 

दोनों एक तालाब के मुहार पर खड़े हो गए। गांव के लोग इस भीड भी कहते हैं। उसी भीड़ पर एक स्कूल है और स्कूल के दूसरे तरफ चौक है। ऐसे चौक परंपरानुसार हर गांव में होते हैं। चौक की दुकानों पर जरुरत के कुछ सामान बिस्कुट, हवा-मिठाई और दालमोठ वगैरह मिल जाते हैं। चौक है तो चाय की दुकाने है और चाय है तो पान कैसे नहीं।

चाय और पान की इन दुकानों में विश्वस्तर की राजनीति पर चर्चा होती है। साथ ही यह गृह कलह निवारण केंद्र भी है। यहां स्थानीय राजनीति और ऐसे ही कई दूसरे शगल पूरे किए जाते हैं। 

गांव में पुस्तकालय भी है। गांव में एकाध पढे-लिखे बचे लोग और पढाकू बच्चे वहां पढ़ने जाते हैं-ऐसी मान्यता है। पढ़ने कौन जाता है, कब जाता है और क्या पढ़ता है, यह शोध का विषय है। हां, कुछ बच्चे ज़रुर कांख में लोटपोट, नंदन और चंपक जैसी पत्रिकाएं लेकर निकलते हैं। कुछ तो गुलशन नंदा और वेदप्रकाश शर्मा के शौकीन हैं। आजकल रीमा भारती और केशव पंडित का क्रेज़ है.. जैनेन्द्र और प्रेमचंद की कहानियां पाठ्य पुस्तकों में ही ठीक लगती हैं। कोई इस पर ध्यान नहीं देता।


उसी पोखरे के किनारे एक मंदिर भी था, शिव का। अभिजीत को याद आया, ऐसे ही महाकाल के मंदिर का प्रसाद उसने अपने फोटोग्रफर के जरिए मंगवाया था। महाकाल के मंदिर के सामने मार्केट में  खड़े होकर वह सिगरेट फूंकता रहा। फोटोग्रफर थोड़ा अधेड़ था, इतना तो था ही कि मंदिर जाने के विचार मन में आने लगें (अभिजीत के हिसाब से)....वापस आकर उसने बताया कि महाकाल का जो प्रसाद लिया है वो चार-पांच दिन में खराब हो सकता है।

अभिजीत के लिए इस घटना की कोई  अहमियत नहीं थी, लेकिन बात मृगांका से जुड़ी थी। वापस लौटकर उसने मृगांका से कहा था, तुम्हारे लिए प्रसाद लाया हूं।

मृगांका चौंकी थीं...अच्छा, तुमने की पूजा?

पूजा तो नहीं की, प्रसाद लाया हूं लेकिन...

ठीक है, मैं ले लूंगी। कल आ जाना आईएऩए...दिल्ली हाट। ठीक पांच बजे शाम को। आजकल छुट्टी पर चल रही हूं...दीदी-जीजा आए हैं।

ओके

लेकिन अगले सात दिनों तक पांच नहीं बजा, रोज़ अभिजीत जाकर दिल्ली हाट पर खड़ा होता रहा, लेकिन कभी मृगांका आई नहीं। हर रोज़ अपने उस काले बैग को उठाए अभिजीत दफ्तर चला जाता, जिसमें प्रसाद भरा था। शाम को जाकर वह प्रसाद फिर से फ्रिज की शरण में रख दिया जाता। लेकिन भले ही भगवान् का हो, लेकिन उस प्रसाद का भी एक जीवन था, और जिसका जीवन होता है उसकी मृत्यु भी होती है।

प्रसाद आखिरकार सड़ गया। अभिजीत ने उसे कूड़े के हवाले कर दिया।

आठवें दिन मृगांका का फोन आया तो घर में चहलकदमी करते हुए अभिजीत ने उसे प्रसाद के खराब होने की बात बताई। मृगांका ने पूछा, फैंक दिया तुमने..?

नहीं, नहीं मृगांका फेंकता कैसे...खा लिया मिठाई समझ कर खा लिया।

महंत जी के साथ चलते -चलते अचानक अभिजीत को पेट में आग का तेज़ गोला बनता महसूस हुआ...लगा कि मौत नजदीक है। वह सड़क पर गिर पड़ा।


 
 

Wednesday, August 22, 2012

सुनो ! मृगांका: 19: है इश्क़ सलामत मेरा


अब तक आपने पढ़ाः अभिजीत अपने सारे बैंक-बैलेंस वगैरह अपने रिश्तेदारों के नाम करके गांव लौट रहा होता है। खजली स्टेशन पर उसने रिक्शा पकड़ा, और जब घर गया तो पता चला गांव के बंद मकान की चाबी उसके पास नहीं..फिर वह रिक्शेवाले के ही घर पर रुकता है।-मंजीत)

फिर सुबह हुई...

कंधे झिंझोड़ने से वह जाग गया। 'सुनो ...टुम डाग डाओ.. ' बिसेसर की छोटी बच्ची ने उसे
झिंझोडा़ था।

इहां पर टुमारा टाय रखा है( यहां पर तुम्हारी चाय रखी है) पी लो रे...बच्ची ने कपड़े के बाजू से अपनी बहती नाक पोंछने की नाकाम कोशिश की। अभिजीत ने लेटे-लेटे ही ग्लास उठा लिया। सफर की थकान अब भी तारी थी। स्टील की ग्लास में चाय तकरीबन पूरा ही भरा था।

"तुम्हारे बाबूजी कहां हैं..?" अभिजीत ने पूछा।

"खेट गए हैं...."

अभिजीत ने हैरत से देखा। सुबह अभी पूरी तरह से हुई भी न थी। लेकिन हवा में चूल्हा चलने की खुशबू तिर रही थी। जहां दालान पर वह लेटा था, वहां से सड़क तक दिखाई नहीं दे रही थी।

पूरा दृश्य ऐसा दिख रहा था मानो एक चित्रकार का सारा सफेद रंग कैनवास पर गिर गया हो और उसे ठीक करने के वास्ते उसने पेंसिल से लकीरें खींच दी हों।

"इतनी सुबह में 'खेट' क्यों गए हैं?"  अभिजीत ने लड़की के तुतलाते उच्चारण में बात करने की कोशिश की। उस यह उच्चारण भला लगने लगा था। "अरे, दीसा करने गए हैं रे.." कहकर लड़की खिलखिला पड़ी। वह अपने भाई से यह बताने में मशगूल हो गई कि शहर से आए आदमी को यह पता ही नहीं कि आदमी भोर में 'खेट' में 'दीसा' करने जाता है। लड़का ज्यादा चंट था। उसने अभिजीत को बताया कि दिशा करना या खेत जाने का मतलब सुबह-सुबह खेत में फसल
देखने जाने जैसी बेहद प्रतिबद्ध भकलोलबाजी और बेहूदगी नहीं बल्कि बेहद कूथकर संपन्न की जाने वाली निष्कासन क्रिया है।

"ऐ.." लड़की ने फिर टोका।

"हूं.."

"टुम टाय पीने से पहले मूं नहीं धोटा है क्या..?" लड़की ने दातुन की ओर इशारा किया। लड़की ने अभिजीत को दातुन दिया। दातुन करते-करते ही अभिजीत ने लड़की की तरफ देखा। उस बच्ची को देखते ही उसे अचानक मृगांका याद आ गई।

बेहद प्यार के पलों में उसके लिए ऐेसे ही चाय लाकर मृगांका ने पूछा था--ए अपने कितने बच्चे होगे।

कितने होने चाहिएं मृग? अभिजीत ने मु्सकुरा कर कहा था।
 कम से कम नौ। 
तुम्हें नहीं लगता कि देश की आबादी पहले से ही ज्यादा है।
अरे नहीं, हमारे सारे नेताओं को तो बच्चे पैदा करने की छूट है, हमें भी मिलनी चाहिए। मृगांका एकदम से बचकाने लाड़ से बोली थी।

लेकिन नौ? 
हां, नौ। आठ प्लांड और एक अनप्लांड।
अनप्लांड अभिजीत सुनकर हंसते-हंसते बेहाल हो गया। मृगांका भी अचानक शर्मा-सी गई। दातुन अभिजीत के मुंह से रखा था। स्थिर। 
ऐ इसको खाएगा क्या, चबाके कूची बनाओ ना, तभी ना दातुन करेगा। बिसेसर की बेटी उसे वापस वर्तमान में ले आई।

और वह दातुन को चबाकर कूची बनाने का काम कर ही रहा था कि मड़र अवतरित हुआ। अभिजीत ने उससे दिशा संपन्न करने की जगह पूछी तो मड़र ठठाकर हंस पड़ा, और खेतों की ओर उसे ले चला।

बिसेसर उसे उन खेतों की ओर ले चला, जो पोखरे के पास थे। सुबह-सुबह की इस अत्यावश्यक क्रिया से निपट कर अभिजीत कुछ और कहता तभी बिसेसर ने खुद कहा कि अब दोनों यहां के महंत के पास चलने वाले हैं, जो काशी हिंदू विश्विद्यालय में काफी पुराने ज़माने में पड़कर आए हैं और उनको ज़माने की हर बात पता है। इस गांव का इतिहास, भूगोल सब कुछ .. महंत जी हाथ की रेखाएं देखकर लोगों का भूत-भविष्य बतादेते हैं। बहुत पढे-लिखे हैं. महंतजी। 


अभिजीत को जो बात पता चली वह हे कि महंत जी गांव के मठ जिसे 'कुट्टी' भी कहा जाता है-के मालिक हैं। 'कुट्टी' यानी भव्य मंदिर के तहत पचासों बीघे ज़मीन है। उनका सारा प्रबंध खुद महंत जी करते हैं..इतनी उम्र होने पर भी महंत जी सक्रिय हैं।

"मठ कहां हैं.."

"यहीं पोखरे के मोहार (किनारे) पर मंदिर है.. इस पोखरे को महंतजी का पोखर..महंजी पोखर कहा
जाता है.. वहीं है।" मड़र ने इशारा किया। दोनो महंत जी के पोखरे की तरफ़ बढ़ चले। विशाल पोखरा... लेकिन ऐसा लगा रहा था कि साद भर रही है पोखरे में। किनारे बने हुए घाट को छोड़ दें, तो एक किनारा जलकुंभियों से अंटा था। सेवार और काई ..एक हिस्से में पुरैन (कमल) के फूल खिले थे.. जितने फूल नहीं उससे कहीं ज्यादा झाड़-झंखाड़।

वहां जाकर बिसेसर ने उसे बताना शुरु किया, ये जो पेड़ देख रहे हैं मालिक, पाकड का..ये हमारे ग्राम देवता हैं, भैरव बाबा। इसके चारों तरफ जो मैदान है पहले बहुत बड़ा था अब थोड़ा सिकुड़ गया है। भैरव बाबा से जो मनौती मांगिएगा, पूरा हो जाता है। हमरी दो-दो लड़कियां हो गईं, तो हमारी मां ने सोंगर कबूल किया। तब हमारा बचवा पैदा हुआ..।

सोंगर.. 
हां सोंगर माने लोहे का छड़ जैसा चीज़.. यहां यही चढाया जाता है भैरव बाबा को। साथ में कुछ परसाद भी चढ़ा दीजिए। गांव के लोग की हर मानता(मन्नत) पूरी करते हैं और रोग-सोक, मरनी-हरनी और दुख-दलिद्दर से दूर रखते हैं. सबको..
 
अच्छा.. अबिजीत को मड़र के अगाध विश्वास पर आश्चर्य हो रहा था। मड़र चालू रहा,
यहां से पश्चिम जो रेलवे लाईन है वो उत्तर की तरफ खजौली होते हुए जयनगर तक चला जाता है। दक्खिन में मधुबनी-दरभंगा तक। एक वक्त था जब इस लाईन पर जानकी एक्सप्रैस जैसी ट्रेन कोयले के इंजन से चलती थी। ...धुआं उड़ाती ट्रेन शुरु में तो सबके लिए मजा़ का चीज था लेकिन बाद में वह घड़ी का काम करने लगा। नौबजिया, दसबजिया और चरबजिया जैसे नाम पड़ गए रेलगाडियों के..। लोग बाग अपने काम रेल के आने-जाने के वक्त से तय करते थे। जैसे कि शाम में झाड़ा फीरना यानी दिशा-मैदान से फारिग होना चार बजे शाम की ट्रेन यानी चरभजिया से तय होता।

पाठकों को बता दें कि जिस रेलवे लाईन का ज़िक्र बिसेसर मड़र कर रहे हैं, उन दिनों यहां छोटी लाईन थी। खजौली, मधुबनी या दरभंगा-जयनगर जाने वाले वोग, छात्र, कुंजड़िनें(सब्जी वाली) मयसामान के, बिना टिकट, बड़ी सहूलियत से, गंतव्य तक बेरोकटोक जाते थे।

भारतीय रेल की छोड़ दें, दुनिया भर के किसी टीटीई की क्या मज़ाल की छात्रों और कुंजड़िनों से टिकट मांगने की गुस्ताखी कर दे। अगर किसी ने यह हिमाकत कर भी दी तो सब्ज़ी के टोकरों से भरे डब्बे में कुंजडि़नें मुमुनाना, भुनभुनाना और झगड़ा करने लगतीं। भुनभुनाहट सोलो यानी एकल शुरु होता और ड्युएट होते हुए कोरस पर ख़त्म होता। इस झगड़े में शाइस्तगी या पाकीज़गी जैसी बेहूदा चीजे सिरे से नदारद होतीं। होनी भी चाहिए।

झगड़े के इस महाप्रकरण में ऐसे शब्द होते जिन्हें महज असंसदीय कहना उनकी महत्ता को अपमानित करने जैसा होगा। टीटीई महोदय को भगिनीभंजक, मातृ-उत्पीड़क आदि कहना तो आम बात थी। यहां से शुरु कर कुंजड़िनें आहिस्ता-आहिस्ता उसके सात पुश्तों का उद्धार करती हुई  टीटीई के परिवार की तमाम स्त्रियों का संपर्क किसी अनजान क़िस्म के जानवर या अपने किसी प्रिय व्यक्ति से करवा देतीं। शब्द ऐसे जिन्हें सुनकर कानों में ख़ून उतर आए।

और छात्रों की बात... वे बेहद शरीफ हुआ करते हैं। उन पर कोई तोहमत लगाया ही नहीं जा सकता। वे चुपचाप कुंजड़िन- टीटीई कांड को स्थितप्रज्ञ भाव से देखते रहते हैं। एकबार ज्योहिं कुजडिनों का अध्याय समाप्त हुआ, वे अपनी पर उतरते हैं। 

इस इलाके में नोंक-झोंक में एक खास गाली (बेटी से जुड़ा).. सबकी जुबान पर आम है। इसे आपसी प्यार का

प्रतीक माना जाता है। मित्र या बाप से प्यार के स्तर पर इस पावन शब्द की वही महिमा है जो प्रेमी-प्रेमिका के बीच ताजमहल की है। सोटीटीई महोदय अगर छात्रो के हत्थे चढ़ गए तो ये पहले उनकी पुत्री अथवा भगिनी(बहन) से शब्दों के ज़रिए रिश्ता गांठते हैं और फिर दो-एक लप्पड़ रसीदकर छोड़ देते हैं कि आज तुमने टिकट मांगने की हिमाकत कर ली सो कर ली,. आगे से ऐसा कुकर्म नहीं होना चाहिए। कम शब्दों में यह रेल लाईन टीटीई के संक्रमण से मुक्त बेटिकट लोगों के स्वस्थ
विचरण का क्षेत्र था। 

उसी बेटिकट यात्रियों के अभयारण्य के रेलवे लाईन की पटरी के किनारे पड़े हर पत्थर से गांव वाले वाकिफ हो चुके हैं। नीचे उतरती पगडंडी के दोनों और मूंज की झाड़ से और नीचे पहले खेत हुआ करते थे, जिनमें गाव के लोग मूंग-मटर उगाया करते। पता नहीं किस अधिकारी के भेजे में कहां से दूरंदेशी की बात आ गई और उन्होंने वहां जंगल उगाने का फरमान जारी कर दिया। रेलवे या वन अधिकरी जो भी अपराधी हों, लेकिन उन्होंने पता नहीं यूकेलिप्टस बोया या गुलमोहर.. फिलहाल वहां बबूल का जंगल खड़ा है। 

इस इलाके के लिए न तो यूकेलिप्टस मुफीद है और ना ही गुलमोहर। यूकेलिप्टस तो पर्यावरण का समझें कि आतंकवादी ही है, ज़मीन को बंजर बनाने के लिए बेहतरीन विकल्प। जमीन की नमी चूसने उसकी जड़े पाताल तक जाती है और उसके पत्ते गिरकर अगल-बगल की मिट्टी को बंजर बना देती हैं। गुलमोहर भी ऐसा फूल कि.. न जानवरों के चारे लायक पत्ता , न लकड़ी का जलावन। तो समझिए कि गांव कि किस्मत अच्छी थी कि न गुलमोहर पनप पाया न यूकेलिप्टस.. पनपा तो क्या... बबूल। लेकिन गांववालों की इतनी अच्छी किस्मत कहां। अब गांववाले सांझढ़ले निबटने के लिए उसी जंगल में जाते हैं, लेकिन लहुलुहान होकर वापस आते हैं।

बबूल के उस जंगल के बाद कई खत्ते है, ये खत्ते सड़क बनाने के दौरान किए गए गड्ढे हैं,जिनमें बरसात में पानी भर जाता है। यए पानी मार्च के अंत तक भरा ही रहता है।

बबूल के जंगलों के रास्ेते जाने वाली पगडंडी भैरवथान के पास सड़क मे मिल जाती है। कोने पर कदंब का पेड़ सीना ताने खड़ा है। कदंब के इसी पेड़ की जड़ में बभनटोली के कुलदीपक अल सुबह या दोपहर को या जब भी सहूलियत हो-- मलत्याग की क्रिया सादर संपन्न करते हैं। कदंब का पेड़ यूं तो बरसात में ही फलता फूलता है।  बभनटोली के बच्चों के पीले-पीले गू थोड़ा गीला होकर फैल जाते हैं। घास में पड़े उन पाखानों पर नारंगी-पीले रंग के कदंब के फल और पुराने पत्ते गिरते रहते हैं। 

हरी-हरी घास पर बेलबूटों के समान यत्र-तत्र छितरे गू एक टुकड़े...।   अहा...कैसा मनोरम दृश्य होता है। सूर याद आते हैं- हरित बांस की बांसुरी। ठीक उसी गू-गडि़या के बगल से सड़क गुजरती है, जो उत्तर की तरफ जाकर पीपल के नीचे से गुजरती हुई रेलवे लाईन पार करती है और आगे सांप की जीभ की तरह दो फांक हो जाती है। उत्तर की तऱफ खजौली..और दूसरा सिरा कलुआही की ओर। लक्ष्मीपुर गांव भी सड़क का पीछा करता हुआ थोड़ी दूर तक चलता है  और फिर ठिठक जाता है।

यह गांव भी अनेकता में एकता के पांचवी क्लास के  बच्चों के निबंध की तरह विभिन्न जातियों और समुदायों का बना तो है, लेकिन यहां अनेकता के बावजूद एकता नहीं है। एकता भी होती है, पर कुछ खास मुद्दों पर..। आमतौर पर लोग आपस में लड़ते रहते हैं, विभिन्न मुद्दों पर। लडाई-झगड़े के मसले पर जाति कभी आड़े नहीं आती.. हर आदमी एक-दूसरे से लड़ने को आजाद है। जाति के भीतर लड़े, जाति से बाहर लड़े, फिरी (फ्री) है बिलकुल फिरी।

अभिजीत और बिसेसर मड़र शौचक्रिया से निबटकर और पोखरे में ही मिट्टी से लोटे को मांजकर पवित्र कर लेने के बाद कुट्टी की तरफ बढ़े। वहां एक नौकर महंत जी की चौकी पर कुश की आसनी बिछा रहा था।

बिसेसर ने खाली चौकी को ही दंडवत् किया।



 जारी.....

Thursday, July 26, 2012

सुनो ! मृगांका:18: इत्ता लंबा सफ़र...?

रिक्शा आगे बढ़ता रहा... अंततः गांव की सरहद आ गई, लोहे की बनी पुलिया.. जिस पर कोलतार कई जगह से चिटक गया था। रिक्शा उसपर चढ़ गया। पीपल के उस पेड़ को पार करते हुए जिसके नीचे पहले कुछ नहीं था, और बचपन में अभिजीत को लगता था कि यहां इस पेड़ पर भूत रहते हैं...वहां हनुमान की मूर्ति जैसा एक पत्थर विराजमान् था। चारों तरफ ईंटों से घेराव कर दिया गया था। रिक्शा, कोलतार की सड़क से होता हुआ उसके घर के पास पहुंचा। 

अभिजीत ने रिक्शेवाले को पैसे दिए और अपने घर के दालान के पास बने टीन के दरवाजे पर लगे ताले को खोलने के लिए चाबी निकालनी चाही। चाबी गुम हो गई थी।

अपना बैग पीठ से उतार भी नहीं पाया था कि उसे हैरान होकर सड़क पर वापस आ जाना पड़ा। रिक्शावाला सड़क के किनारे लघुशंका कर रहा था...क्या हुआ बाबू साहेब?
अरे चाबी गुम हो गई है...। अभिजीत ने लगभग मुस्कुराते हुए ये बात कही।

उसके घर के पास ही पाकड़ का बेहद विशाल पेड़ है। गांव वाले मानते हैं कि उस पेड़ पर बाबा भैरव का निवास है। एक दम मोटा-सा पेड़। जिसको देखते ही अभिजीत को धर्म की अनुभूति हो न हो, एक वैसे प्यार का अनुभव जरूर होता है, जो लोगों को एपने दादाजी से होता होगा।

अभिजीत ने देखा उसी पेड़ से अचानक हजारों जुगनू उड़ गए। अभिजीत मुस्कुराया। कुदरत ने उसका स्वागत ऐसे किया। वाह पाकड़ बाबा। आदमियों ने पहचानने से इनकार कर दिया, लेकिन आप नहीं भूले।

रिक्शेवाले ने उसे अपने घर चलने का प्रस्ताव दिया। अभिजीत के पास उसका प्रस्ताव मानने के सिवा और कोई चारा था भी नहीं। गांव आधी रात बीतते न बीतते गांव में लोग एक नींद सोकर लघुशंका के के लिए जागते हैं। उस अधरतिया में रिक्शावाला मड़र उसे लेकर कहां-कहां घूमता?...सो अजनबी को भी उसकी मेहमाननवाजी मंजूर करनी पड़ी।

सिगरेट के भाईचारे के बाद इतना मामला तो बनता ही था। उधर, अभि भी सोच रहा था कि आज की रात किसी तरह कट जाए तो कल समूचे गांव का चक्कर लगाया जाए। कोई न कोई अपना पहचान वाला तो मिल ही जाएगी। आख़िरकार, उसकी उम्र छत्तीस साल के आसपास है और पचीस साल को एक युग भी मान लें तो ये पूरी अवधि एक युग से भी ज्यादा है।

अभिजीत को लगा कि उसकी पूरी जिंदगी पर एक काला परदा लगा दिया गया है। कुछ इस तरह
कि अंधेरी रात में  वह कोलतार की सड़क पर चल रहा हो और एकमात्र उजाला सामने से आ
रही तेज़ हैडलाईट जैसी रौशनी हो, जिससे उसकी चौंधिया गई हो।
 
 
मड़र का घर। घर क्या था, मड़ई (झोंपड़ी) थी। सड़क से कुछ दूर हटकर गलियों को पारकर उसका घर था। कच्ची नालियां सड़क को आड़े-तिरछे 'बाइसेक्ट' करती थीं। इसका पता तभी चल पाया जब रिक्शे के पहिए नाली में अचानक गहरे धंसे और पैडल के ज़ोर से गली में सूखी ज़मीन पर चढ़ भी गए। इस क्षणांश की प्रक्रिया में अभिजीत के पिछवाड़े बड़ी तेज़ पीड़ा हुई। दरअसल, ऐसी पीड़ाएं और भी तेज़ साबित होती हैं जब बिना बताए, सहसा, बगैर चेतावनी के, यक-ब-यक आती हैं और आपको आश्चर्यचकित, हैरान और दर्द में डूबा छोड़ जाती हैं।

पहिए के ऊधम से पैदा हुआ दर्द इतना तेज़ और मार्मिक था कि अभिजीत के मुंह से कराह-सी निकल पड़ी। लेकिन रिक्शे की खड़खडा़हट में मड़र तक नहीं पहुंची।

 गली के दोनों तरफ़ झोंपड़ियों में घुप्प अंधेरा था। फिर एक घर नज़र आया, जिसमें लालटेन की रौशनी दम तोड़ रही थी। शीशे के चारों तरफ़ कालिमा इस क़दर चाई थी कि अंधेरा मिटने की बजाय और ज़्यादा भयावह लग रहा था। कुल मिलाकर लालटेन मड़र की बचत पर चपत था और बेकार ही केरोसिन पी रहा था। थोड़ी खाली ज़मीन और ऐसी ही जगह जिसके दो तरफ़ टाट लगे थे। यहां टाट का मतलब पटसन नहीं.. बल्कि बांस के फट्टे के फ्रेम में पुआल, मूंज, या अरहर की सूखी टहनियां घुसेड़कर बनाई गई दीवार या प्लाईवुड जैसी चीज़ है। लालटेन भी जल तो खैर क्या रहा था.. आखिरी सांसे ले रहा था।

मड़र की मां अपने पोते-पोतियों को कथरी में लिपटाए थी। मुमकिन है कि आवाज़ सुनते ही मड़र की मां ने अपनी बहू को आवाज़ दी हो। क्योंकि जबतक मड़र उस खलिहाननुमा जगह पर रिक्शे में चेन और ताला बंद करता, गृहथनी (गृहस्थिन) बांस से बने फट्टक (फाटक) पर आकर खड़ी हो गई।

मड़र ने बीवी को आवाज़ लगाई.. पईन..(पानी)। बीवी को शायद उसकी मांग का अंदाज़ा थी.. उसने अल्यूमिनियम का एक लोटा बढ़ा दिया। "...आज घर मे पाहुन आए हैं, एक लोटा पईन औरो लाओ..खाने का जुगाड़ करो..सहरी लोग हैं रोटी जरी लरम (नरम) बनाना.." मड़र ने आदेशात्मक लहजे में बीवी से कहा। पत्नी सिर हिला कर चली गई।

ग़रीब आदमी के घर में पाहुन...उधर बिसेसर मड़र बच्चों को दुलारते हुए पूछ रहा था कि आज उन्होंने दाई (दादी) से कौन-सा किस्सा सुना.। बच्चे बड़े इतराते हुए बता रहे थे, कि आज दाई तिलिया-चवलिया की कहानी सुना रही थी। लड़की ने इतरा के पूछा, सुनाऊं...?

बिसेसर की सहमित पर उसने बताना शुरु किया कि एक सुंदर लड़की की सौतेली मां ने डाह में आकर उसे तिल की कोठी यानी कोठार में बंद कर दिया और अपनी बेटी को इस उम्मीद में कि वह गोरी और सुंदर दिखेगी चावल की कोठी में बंद कर दिया। लेकिन तिल की कोठी वाली लड़की खूब सुंदर निकल गई और तिलोत्तमा नाम से या तिलिया नाम से मशहूर हुई।

चावल को कोठी में बंद लड़की चावल की तरह पीली पड़ गई। तिलिया की शादी एक राजकुमार से हो गई...

अभिजीत को लगा ऐसी कहानियों में हर नायिका राजकुमार से ही क्यों ब्याही जाती है। उधर, मड़र के लड़के ने उसके पैरों से लिपटते हुए अपनी बड़ी बहन की शिकायत की कि दीदिया ने घूर में पकाए गए आलुओं का बड़ा हिस्सा खुद ही साफ़ कर दिया और उसको कम दिया। मड़र ने  उसे दिलासा दिया कि वह अगली सुबह दीदिया को खूब पीटेगा और दिन का खाना भी नहीं देगा।

जब तक दोनों कल (चापाकलः हैंडपंप) पर जाकर नहा आए..मड़र की लड़की वहीं थालियां सजा गई।  अभिजीत ने हाथ-पैर धोते वक्त महसूस किया कि पानी हवा की बनिस्बत ज्यादा ठंढी है।
ओस है... हवा में तरावट है, लोगों के व्यवहार में भी। ठंडे पानी से नहाते वक्त पता नहीं क्यों इस गरमी में भी उसे थरथराहट हो आई थीष। खाने के लिए दोनों एक साथ पटिया यानी चटाई पर
बैठे.. पुआल की रस्सी बांटकर उसे चटाई की शक्ल दी गई थी।

गेहूं की मोटी रोटी...गोभी की सब्जी..एक अलग तरह का स्वाद। थोड़े मौन के बाद सन्नाटा टूटा। मड़र ही बोला," जिंदगी ही बदल गई है सर। पहले हमलोगों को मड़ुए की रोटी और भात भी मुश्किल से ही मिल पाता था। गेहूं की सोहाड़ी (रोटी)दोनों जून खना भी मुश्किल था। सोहाड़ी का चलन इधर से शुरु हुआ है..पहले दोनों टाईम भात खाते थे मोटके चावल उसना भात..मज़दूरी करते थे बाबू लोगों के खेत में...अकाल पड़े तो मालिक भी भूखे..हम भी। हमारी हालत ज्यादा खराब होती। हमलोग दोनों टाईम मंड़सटका (चावल में ज्यादा पानी देकर पकाना और पानी ओसाना नहीं) खाते..खुद्दी (टूटे चावल) भी मुश्किल से मिलता। फिर रिक्शा चलाने चले गए कलकत्ता..। कुछ पैसा जोड़ के आए, तो मजूरी छोड़के खेत बटाई पर लिए। रिक्शा भी चलाते हैं, बटाई का काम भी करते हैं।

खाना खत्म हो गया। अभिजीत की सिगरेट जलती रही, मड़र खैनी ठोककर होंठों में दबाता रहा। थूक-थूक कर लघु सिंचाई परियोजना की तरह उसने आसपास की ज़मीन गीली कर दी।

उधर, खटोले पर केथरी में लिपटी दाई बच्चों के सुलाने में लग गई। सांझे-सकारे बच्चे सो तो जाते हैं, गिल्ली-डंडा और गोली खेल कर लौटे धूल-धूसरित बच्चे लालटेन जलाकर पढ़ने के लिए बैठते तो हैं, लेकिन संभवतः पढ़ना कोई बहुत रुचिकर काम नहीं हैं और यह एक शाश्वत सत्य है। सो, प्रायः हर शहर और गांव के बच्चे संध्याकाल में सो जाते हैं या सोने का उपक्रम करने लग जाते हैं। लेकिन
वही बच्चे जो खाना भी ऊंघते-ऊंघते ही टूंगते हैं खाने के बाद तरोताजा़ हो उठते हैं। खिले हुए गुलाब की तरह..फिर उनके मुख से खरंटन गोल-गोल गप्प निकलते हैं।

मड़र पटिया में एक ओर लुढ़क गया, उसके नाक बजने की आवाज़ आने लगी। चांद की रौशनी पीली पड़ने लगी। अंधेरा बढ़ता जा रहा था। अंधेरा... अभिजीत ने सोचा, ये मेरी जिंदगी के अंधेरे से ज्यादा काला नहीं।

क्रमशः