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Wednesday, January 8, 2020

नदीसूत्रः सोन से रूठी नर्मदा हमसे न रूठ जाए

लगातार होते रेत खनन, नदियों के पास ताबड़तोड़ कथित विकास परियोजनाओं और बांध बनाए जाने और इसके जलागम क्षेत्र में जंगल का अबाध कटाई ने नर्मदा को बहुत बीमार बना दिया है. पिछली गर्मियों में नर्मदा का जलस्तर तो इतना गिर गया था कि कोई पांव-पैदल भी नदी को पार कर सकता था. इस नदी को नदी-जोड़ परियोजना ने भी काफी नुक्सान पहुंचाया है

राजा मेखल ने तय किया था, उनकी बिटिया नर्मदा का ब्याह उसी से होगा जो गुलबकावली के दुर्लभ फूल लेकर आएगा. नर्मदा थी अनिंद्य सुंदरी. राजे-महाराजे, कुंवर-जमींदार सब थक गए, गुलबकावली का फूल खोज न पाए. पर एक था ऐसा बांका नौजवान, राजकुमार शोणभद्र. वह ले आया गुलबकावली का दुर्लभ पुष्प.

ब्याह तय हो गया. अब तक नर्मदा ने शोणबद्र के रूप-गुण और जांबाजी के बारे में बहुत कुछ सुन लिया था. मन ही मन चाहने लगी थी. शादी में कुछ दिन बाकी थे कि रहा न गया नर्मदा से. दासी जुहिला के हाथो शोणभद्र को संदेशा भिजवा ही दियाः एक बार मिल तो लो.

शोणभद्र ने भी नर्मदा को देखा तो था नहीं सो पहली मुलाकात में जुहिला को ही नर्मदा समझ बैठा. जुहिला की नीयत भी शोण को देखकर डोल गई. उसने सच छिपा लिया, कहा, मैं ही हूं नर्मदा.

दासी जुहिला के आने में देरी हुई तो नर्मदा खुद चल पड़ी शोणभद्र से मिलने. वह पहुंची तो देखती क्या है, जुहिला और शोणभद्र प्रेमपाश में हैं. अपमान और गुस्से से भरी नर्मदा वहां से उल्टी दिशा में चल पड़ी फिर कभी ना लौटने के लिए.

शोण ने बहुतेरी माफी मांगी पर नर्मदा ने धारा नहीं बदली. आज भी जयसिंहनगर में गांव बरहा के पास जुहिला नदी को दूषित नदी माना जाता है और सोन से इसका बाएं तट पर दशरथ घाट पर संगम होता है. वहीं नर्मदा उल्टी दिशा में बह रही होती है. अब भी शोण के प्रेम में, पर अकेली और कुंवारी...

वही नर्मदा एक बार फिर अकेली पड़ गई है.


नर्मदा की सूखती सहायक नदी का पाट फोटोः सोशल मीडिया

इस बार उसे शोणभद्र ने नहीं, उसकी अपनी संतानों, इंसानों ने धोखा दिया है. लगातार होते रेत खनन, नदियों के पास ताबड़तोड़ कथित विकास परियोजनाओं और बांध बनाए जाने और इसके जलागम क्षेत्र में जंगल का अबाध कटाई ने नर्मदा को बहुत बीमार बना दिया है. पिछली गर्मियों में नर्मदा का जलस्तर तो इतना गिर गया था कि कोई पांव-पैदल भी नदी को पार कर सकता था. इस नदी को नदी-जोड़ परियोजना ने भी काफी नुक्सान पहुंचाया है.

मध्य प्रदेश में जंगल का इलाका काफी सिकुड़ा है और आंकड़े इसकी तस्दीक भी करते हैं. 2017 की भारत सरकार का वन सर्वेक्षण की रिपोर्ट बताती है कि मध्य प्रदेश में 1991 में जंगल का इलाका 1,35,755 वर्ग किमी था जो 2011 में घटकर 77,700 वर्ग किमी रह गया. इसमें अगले चार साल में और कमी आई और 2015 में यह घटकर 77,462 वर्ग किमी हो गया. 2017 में सूबे में वन भूमि 77,414 वर्ग किमी रहा. जाहिर है, तेजी से खत्म होते जंगलों की वजह से नर्मदा के जलभर (एक्विफर) भरने वाले सोते खत्म होते चले जा रहे हैं.

2018 में नर्मदा कई जगहों पर सूख गई थी. नर्मदा प्रायद्वीपीय भारत की सबसे बड़ी नदियों मे से एक है और मध्य प्रदेश के अमरकंटक से निकलती है. इस नदी पर बने छह बड़े बांधों ने इसके जीवन पर संकट पैदा कर दिया है. छह ही क्यों, नर्मदा घाटी विकास परियोजना के तहत 30 बड़े और 135 मझोले बांध हैं.

वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टीट्यूट (डब्ल्यूआरआइ) की एक रिपोर्ट में इसे दुनिया की उन छह नदियों में रखा है जिसके सामने अस्तित्व का संकट आन खड़ा हुआ है. रिपोर्ट के मुताबिक, 2017 में तो इस नदी में जल का ऐसा संकट आ खड़ा हुआ था कि गुजरात सरकार ने सरदार सरोवर बांध से सिंचाई के लिए पानी लेने पर भी बंदिश लगा दी थी. जानकार बताते हैं, कि इस नदी के बेसिन पर बहुत अधिक दबाव बन रहा है और बढ़ती आबादी की विकासात्मक जरूरतें पूरी करने के लिहाज का नर्मदा का पानी कम पड़ता जा रहा है.

एसएएनडीआरपी वेबसाइट पर परिणीता दांडेकर लिखती हैं कि महेश्वर बांध पर उन्हें ऐसे लोग मिले जो कहते हैं कि अगर जमीन के बदले जमीन दी जाती है, मकान के बदले मकान, तो नदी के बदले नदी भी दी जानी चाहिए.

नर्मदा ही नहीं तमाम नदियों के अस्तित्व पर आए संकट का सीधा असर तो मछुआरा समुदाय पर पड़ता है. उन्हें कोई मुआवजा नहीं मिलता, कोई पुनर्वास नहीं होता, उनके लिए किसी पैकेज का प्रावधान नहीं. रोजगार नहीं.

नर्मदा पर बांध बनने के बाद से, दांडेकर लिखती हैं, कि उन्हें बताया गया कि मछली की कई नस्लें विलुप्ति के कगार पर पहुंच गई हैं. झींगे तो बचे ही नगीं. गेगवा, बाम (ईल) और महशीर की आबादी में खतरनाक तरीके से कमी आई है.

न्यूज वेबसाइट फर्स्टपोस्ट में प्रकाशित एक खबर में आइआइटी दिल्ली के शोध छात्र के हवाले से एक आंकड़ा दिया गया है जिसके मुताबिक, मध्य प्रदेश में नर्मदा की 41 सहायक नदियां अपने अस्तित्व के संकट से जूझ रही हैं.

शोणभद्र से रूठी नर्मदा का आंचल खनन और वनों की कटाई से तार-तार हो रहा है. डर है, मां रेवा कहीं अपनी संतानों से सदा के लिए न रूठ जाए.


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Thursday, November 15, 2018

राजनीतिक पार्टियों को आरटीआइ के दायरे में क्यों नहीं लाती सरकार?

अभी हाल ही में एक मीम आया था, जिसमें दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल लोगों से चंदा मांगते दिखते थे और बाद में वेलकम-2 का एक सीन और परेश रावल का एक संदे्श आता है. यह मीम अरविंद केजरीवाल की हंसी उड़ाने के लिए था. और कामयाब रहा था. 

पर आपको और हमें, सोचना चाहिए कि आखिर राजनीतिक दलों को चंदा कौन देता है, उनका खर्च कैसे चलता है? आपने कभी किसी पार्टी को चंदा दिया है? कितना दिया है? चुनावों पर उम्मीदवार और सियासी दल कितना खर्च करते है? जितना करते हैं उतना आपको बताते है और क्या वह चुनाव आयोग की तय सीमा के भीतर ही होता है? और अगर आपके पसंदीदा दल के प्रत्याशी तय स्तर से अधिक खर्च करते हैं (जो करते ही हैं) तो क्या वह भ्रष्टाचार में आएगा? प्रत्याशी जितनी रकम खर्च करते हैं वह चुनाव बाद उन्हें वापस कैसे मिलता है? और आपके मुहल्ले को नेता, जो दिन भर किसी नेता के आगे-पीछे घूमता रहता है उसके घर का खर्च कौन चलाता है?

अभी चार महीनों के बाद लोकसभा चुनाव होने वाले हैं. इन दिनों छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, राजस्थान जैसे राज्यों में चुनाव प्रक्रिया चल रही है. नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री बनने से पहले चुनावी वादा किया था, न खाऊंगा न खाने दूंगा. ऐसा नहीं कि सरकार ने शुचिता के दायरे में राजनीतिक दलों को लाने की कोशिश नहीं की, पर प्रयास नाकाफी रहे. सरकार के हालिया प्रयासों के बावजूद भारत में चुनावी चंदा अब भी अपारदर्शी और काले धन से जुड़ी कवायद बना हुआ है. इसकी वजह से चुनाव सुधारों की प्रक्रिया बेअसर दिखती है.

अभी आने वाले लोकसभा चुनाव में अनुमान लगाया जा रहा है कि 50 से 60 हजार करोड़ रुपये खर्च होंगे. यह खर्च 2014 में कोई 35,000 करोड़ रु. था. जबकि हाल के कर्नाटक विधानसभा चुनाव में 9.5 से 10 हजार करोड़ रु. खर्च हुआ. 2013 में कर्नाटक में हुए विधानसभा चुनाव में इसकी ठीक आधी रकम खर्च हुई थी. 

जरा ध्यान दीजिए कि राजनैतिक पार्टियां चंदा कैसे जुटाती हैं. आमतौर पर माना जाता है कि स्वैच्छिक दान, क्राउड फंडिंग (आपने कभी दिया? मैंने तो नहीं दिया) कूपन बेचना, पार्टी का साहित्य बेचना (उफ) सदस्यता अभियान (कितनी रकम लगती है पता कीजिए) और कॉर्पोरेट चंदे से पार्टियां पैसे जुटाती हैं. 

निर्वाचन आयोग के नियमों के मुताबिक, पार्टियां 2000 रु. से अधिक कैश नहीं ले सकतीं. इससे ज्यादा चंदे का ब्योरा रखना जरूरी है. ज्यादातर पार्टियां 2000 रु. से ऊपर की रकम को 2000 रु. में बांटकर नियम का मखौल उड़ाती हैं क्योंकि 2000 रु. तक के दानदाता का नाम बताना जरूरी नहीं होता. एक जरूरी बात है कि स्थानीय और ठेकेदार नकद और अन्य सुविधाएं सीधे प्रत्याशी को देते हैं न कि पार्टी को.

कंपनियां चुनावी बॉन्ड या चुनाव ट्रस्ट की मार्फत सीधे चंदा दे सकती हैं, दानदाता के लिए यह बताना जरूरी नहीं है चंदा कि पार्टी को दिया, पार्टियों के लिए भी किससे चंदा लिया यह जाहिर करना जरूरी नहीं है.

तो अब यह भी जान लीजिए कि सियासी दल पैसे को खर्च कहां करती हैं. दल, पार्टी और इंफ्रास्ट्रक्चर बनाने में, चुनावी रैली, खाना, परिवहन, और ठहरने में, कार्यकर्ताओं को तनख्वाह देने में, प्रिंट, डिजिटल और टीवी में विज्ञापन देने में खर्च करते हैं. चुनाव के दौरान प्रत्याशी नकद, सोना, शराब और अन्य चीजें भी बांटते हैं. मसलन फोन, टीवी. फ्रिज वगैरह. नया तरीका लोगों के मोबाइल रिचार्ज कराना और बिल भरना भी है. अब आप बताएं कि यह किसी एजेंसी की पकड़ में नहीं आएगा.

मोदी सरकार के उपाय

नरेंद्र मोदी सार्वजनिक जीवन में शुचिता का समर्थन करते रहे हों, पर उनकी सरकार के उपायो से भी यह शुचिता आई नहीं है. मसलन, सरकार ने पार्टियों द्वारा बेनामी नकद चंदे की सीमा पहले के 20,000 रु. से घटाकर 2,000 रु कर दी लेकिन नकद बेनामी चंदा लेने के लिए पार्टियों के लिए एक सीमा तय किए बगैर यह उपाय किसी काम का नहीं है.

पहले विदेशों से या विदेशी कंपनियों से चंदा लेना अपराध के दायरे में था. कांग्रेस और भाजपा दोनों पर विदेशों से धन लेने के आरोप थे. मोदी सरकार ने 1976 के विदेशी चंदा नियमन कानून में संशोधन कर दिया है जिससे राजनीतिक दलों के विदेशों से मिलने वाले चंदे का जायज बना दिया गया. यानी 1976 के बाद से राजनैतिक पार्टियों के चंदे की जांच नहीं की जा सकती. राजनैतिक दल अब विदेशी कंपनियों से चंदा ले पाएंगे. लेकिन क्या आपको नहीं लगता कि इससे दूसरे देश हमारे चुनावों में दखल देने लायक हो जाएंगे? 

शायद भारतीय चुनाव अभी तक विदेशी असरात से बचा रहा है, लेकिन चुनावों पर कॉर्पोरेट के असर से इनकार नहीं किया जा सकता. पार्टियों को ज्ञात स्रोतों से मिले चंदे में 2012 से 2016 के बीच कॉर्पोरेट चंदा कुल प्राप्त रकम का 89 फीसदी है.

मोदी सरकार ने 2017 में कॉर्पोरेट चंदे में कंपनी के तीन साल के फायदे के 7.5 फीसदी की सीमा को हटा दिया. कंपनी को अपने बही-खाते में इस चंदे का जिक्र करने की अनिवार्यता भी हटा दी गई.  हटाने से पार्टियों के लिए बोगस कंपनियों के जरिए काला धन लेना आसान हो जाएगा. लग तो ऐसा रहा है कि यह प्रावधान फर्जी कंपनियों के जरिए काले धन को खपाने का एक चोर दरवाजा है.

कुल मिलाकर राजनैतिक शुचिता को लेकर भाजपा से लेकर तमाम दलों में कोई दिलचस्पी नहीं है. इसको लेकर भी एक आंकड़ा है, 2016-17 में छह बड़ी राजनैतिक पार्टियों के कुल चुनावी चंदे का बेनामी स्रोतो से आया हिस्सा 46 फीसदी है. समझ में नहीं आता कि अगर सरकार वाक़ई पारदर्शिता लाना चाहती है तो सियासी दलों को आरटीआइ के दायरे में क्यों नहीं लाती?

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Monday, February 5, 2018

मध्य प्रदेश में किसानों बटाईदारों का भाजपाई वोट कैसे बचाएंगे शिवराज?

समर पर समर फतह करती जा रही भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) मध्य प्रदेश के नगर निकाय चुनाव के नतीजों के बाद शायद में कुछ कसमसाहट में आए. मध्य प्रदेश के नगर निकाय चुनावों में कांग्रेस ने भाजपा को कड़ी टक्कर दी है और मुकाबला बराबरी पर छूटा है. दोनों पार्टियों को 9-9 सीटें मिली हैं. एक सीट निर्दलीय के खाते में गई है.

भाजपा के लिए यह कोई अच्छी खबर नहीं है. खासकर चुनावी साल में.

इस सूबे में असंतोष की वजह क्या है? खासकर, किसानों के बीच गुस्से की वजह को जानना बेहद जरूरी है. पिछले कुछ साल में मध्य प्रदेश की छवि कृषि उत्पादन के क्षेत्र में बेहतर प्रदर्शन करने वाले सूबे की बनी है. यहां राज्य सरकार ने सिंचाई का रकबा बढ़ाने में भी जोरदार काम किया. फिर भी किसान दुखी और निराश क्यों है? पिछले साल जून के महीने से ही सूबे की किसान हितैषी छवि को धक्का लगना शुरू हुआ, जब मंदसौर में किसान आंदोलन पर उतर आए थे. पुलिस ने आंदोलनरत किसानों पर गोलीबारी भी की थी.

यह मानना गलत नहीं होगा कि भारत में खेती-बाड़ी अपने बुरे दौर से गुजर रही है और इसने ग्रामीण अर्थव्यवस्था को धक्का पहुंचाया है. जाहिर है, कृषि और किसानों की समस्या अब सियासत के केंद्र में है.

कृषि की इन समस्याओं की वजह से ही गुजरात विधानसभा चुनाव में भाजपा को ग्रामीण सीटों पर नुकसान उठाना पड़ा था. अब मध्य प्रदेश के निकाय चुनावों में औसत प्रदर्शन से भाजपा यह सोचने के लिए मजबूर होगी कि शिवराज सिंह चौहान के लगातार तीन बार के कार्यकाल से सत्ताविरोधी रुझान से निपटना एक चुनौती तो है ही, ग्रामीण अर्थव्यवस्था को लगे झटके के बाद ग्रामीण वोट संभाले रखना भी अहम है.

मध्य प्रदेश में करीब 72 फीसदी ग्रामीण वोट हैं. एक आंकड़ा बताता है कि 2014 के लोकसभा चुनाव में 49 फीसद से अधिक किसानों ने एनडीए को वोट दिया था. साथ ही, एक तिहाई भूमिहीन बटाईदारों का वोट भी एनडीए को ही मिला था.

इन्हीं वोटों के दम पर शिवराज सिंह चौहान पिछले दो चुनावों में सत्ता-विरोधी रुझान को थामने में कामयाब रहे थे. लेकिन उन्हें याद रखना होगा कि 230 सीटों वाली मध्य प्रदेश विधानसभा में से कम से कम 60-70 सीटें ऐसी थीं, जहां भाजपा ने थोड़े ही अंतर से जीत दर्ज की थी.

2013 के विधानसभा चुनाव के लिहाज से इलाकावार तरीके से अगर भाजपा और कांग्रेस के सीटों को देखें तो यह अंतर साफ दिख जाएगा, जहां भाजपा को मामूली बढ़त मिली थी. साथ ही यह भी साफ होगा कि उत्तरी मालवा कैसे भाजपा के मजबूत गढ़ के रूप में स्थापित हो गया था. 2013 में भाजपा को कुल 165, कांग्रेस को 58 और अन्य को 7 सीटें मिली थीं.

मध्य प्रदेश के चंबल इलाके में कुल 34 विधानसभा सीटें हैं जहां भाजपा ने 20 सीटें हासिल की थीं और कांग्रेस 12 सीटे लेकर आई थीं. लेकिन दोनों के वोट हिस्सेदारी में महज दो फीसदी का ही अंतर था. भाजपा को 37.9 फीसदी वोट मिले थे और कांग्रेस को 35.6 फीसदी.

विंध्य प्रदेश की 56 सीटों में से भाजपा को सीटें 36 सीटें और 39.1 फीसदी वोट मिले थे जबकि कांग्रेस कांग्रेस 18 सीटें और 33 फीसदी वोट हासिल करने में कामयाब रही थी.


महाकौशल इलाके में कुल 49 सीटें हैं. यहां वोट शेयर में दोनों पार्टियों में गहरा अंतर था. वोट शेयर में यह अंतर करीब दस फीसदी का था. यहां भाजपा ने 34 और कांग्रेस ने 14 सीटें जीती थीं.

उत्तरी मालवा में कुल 63 और जनजातीय मालवा इलाके में 28 सीटें हैं. इन दोनों इलाकों में भाजपा को क्रमशः 51.8 और 45.8 फीसदी वोट मिले थे. उत्तरी मालवा में भाजपा ने दबदबा कायम करते हुए 55 सीटें जीत ली थीं और कांग्रेस को महज 7 सीटों पर समेट दिया. कांग्रेस को वोट भी 37.8 फीसदी मिले. जनजातीय मालवा में भाजपा को 20 सीटें मिली थीं और कांग्रेस यहां भी सिर्फ 7 सीट ही जीत पाई थी. लेकिन उसे वोट करीब 40 फीसदी मिले थे.

लेकिन इस बार शिवराज सिंह चौहान के लिए चुनौती ज्यादा कठिन है क्योंकि ग्रामीण मध्य प्रदेश का बड़ा तबका उनसे नाराज है. खासकर, जिस सीमांत भूमिहीन किसान और छोटी जोत वाले किसानों ने भाजपा को वोट दिया था, वह उससे बिदके हुए लग रहे हैं.

असल में, मध्य प्रदेश के किसानों की आमदनी कम बारिश और बदलते मौसम की वजह से खराब होती फसलों की वजह से पिछले दो सालों से कम होती गई है. उनकी हालत 2013-14 से ही खराब होनी शुरू हुई है जब खेती का जीडीपी सिकुड़कर 1.14 फीसदी रह गया और उसके अगले साल यह बढ़कर 4.6 फीसदी तो हुआ लेकिन फिर 2015-16 में घटकर 1.7 फीसदी ही रह गया. अब आंकड़ों में एक जादुई उछाल दिखा, जब 2016-17 के आंकड़ों ने इस वृद्धि को 22 फीसदी से अधिक बता दिया.

इसके पीछे सामान्य वजह थी कि एक साल पहले के खराब उत्पादन के बाद बंपर उपज ने वृद्धि के आंकड़े को आसमान तक पहुंचा दिया. लेकिन नोटबंदी और फिर जीएसटी ने उपज की कीमतों को धराशायी कर दिया. ऐसे में किसान चाहते हैं कि सरकार उनकी लागत का डेढ़ गुना कीमत दिलवाने का आश्वासन दे और उनके सारे कर्ज माफ कर दिए जाएं.

हालांकि, शिवराज सिंह चौहान इस गुस्से को थामने के लिए कोशिश कर रहे हैं और उन्होंने मुख्यमंत्री भावांतर भुगतान योजना शुरू की है, जिसके तहत बादजार में उपज बेच पाने में नाकाम किसानों को सीधे सरकार मूल्य देगी. फिर भी किसान असंतुष्ट हैं और ऐसे मौके पर, जब चुनाव को बहुत ज्यादा वक्त नहीं बचा है, भाजपा को अपनी रणनीति को अलग नजरिए के साथ तैयार करना होगा.

आखिर कांग्रेसमुक्त भारत का सपना देखने वाली भाजपा के लिए शिवराज समस्यामुक्त मध्य प्रदेश तो बनाना ही चाहेंगे.

Sunday, January 14, 2018

ये जो देश है मेरा

मित्रों, मेरी किताब 'ये जो देश है मेरा' छपकर आ गई है. यह किताब  पांच लंबी रिपोर्ताज का संकलन है. मेरी यह किताब मेरी लंबी यात्राओं का परिणाम है.इनमें बुंदेलखंड, नियामगिरि, सतभाया, कूनो-पालपुर और जंगल महल जैसे हाशिए के इलाकों की कहानियां हैं.

बुंदेलों की धरती बुंदेलखंड को अपनी प्यास बुझाने लायक पानी हासिल हो पाएगा या दशकों लंबा सूखा हमेशा के लिए आत्महत्याओं और पलायन के अंतहीन सिलसिले में बदल जाएगा? 

मध्य प्रदेश के कूनो-पालपुर के जंगलों के सरहदी इलाके में बसा टिकटोली गांव डेढ़ दशक में दोबारा जमीन से उखड़ेगा या बच जाएगा? उड़ीसा का नियामगिरि पहाड़ अपनी उपासक जनजातियों के बीच ही रहेगा या अल्युमिनियम की चादरों में ढल कर मिसाइलों और बमबार जहाजों के रूप में देशों की जंग की भट्ठी में झोंक दिया जाएगा? 
उड़ीसा का ही सतभाया गांव अपनी जादुई कहानियों के साथ समुद्र की गोद में दफ्न हो जाएगा, या उससे पहले ही उसे बचा लिया जाएगा? मैंने इन्ही सवालों के जवाब खोजने की कोशिश की है. कोशिश की है कि इसे दिलचस्प तरीके से लोककथाओं के सूत्र में पिरोकर आप तक पहुंचाया जाए.

आप इसे पढ़कर फीडबैक देंगे तो मेरा उत्साहवर्धन होगा.

दिल्ली के विश्व पुस्तक मेला में किताब के साथ प्रवीण कुमार झा

Wednesday, January 18, 2017

सिंचाई के लिए अतीत की नाकामी से सबक

अभी ग्वालियर-धौलपुर-भरतपुर इलाके में घूम रहा हूं। देश में पिछले दो साल मॉनसून की कमी वाले साल रहे हैं और इस साल की अच्छी बारिश ने रबी फसलों की बुआई में जोरदार बढ़ोत्तरी दिखाई है। लेकिन यह मानना होगा कि देश में खेती का ज्यादातर हिस्सा अभी भी इंद्र देवता के भरोसे हैं। देश में कुल बोए रकबे का आधा से अधिक वर्षा-आधारित पानी पर निर्भर है। ऐसे में हर खेत तक पानी पहुंचाने में सरकार को बहुत कुछ उद्योग करने की जरूरत है।

देश में सूखा अभी भी किसानों के लिए बुरे सपने जैसा है और गलत वक्त पर हुई बारिश भी खेती के लिए नुकसानदेह ही साबित होती है। सही वक्त पर बारिश न होने से फसल बेकार हो जाती है। ऐसे में केन्द्र सरकार ने साल 2015 में प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना की शुरूआत की ताकि प्रधानमंत्री के नारे को अमली जामा पहनाया जा सके जिसमें वह हर बूंद से अधिक फसल की बात कहते हैं। साथ ही, इस लघु सिंचाई योजना की लागत 50 हज़ार करोड़ रूपये की रखी गई। ऐसी योजना से अनुमान है कि खेती से जुड़े जोखिम को कम किया जा सके।

बजट में प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना के आवंटन को मिला दें तो पिछले साल ही रकम को दोगुना कर दिया गया। लेकिन सवाल सिर्फ बज़ट में आवंटन बढ़ाने से ही नहीं होगा। अतीत के आंकड़ों पर नज़र डालें, तो मेरी इस बात को बल मिलेगा। साल 1991 से 2007 के बीच भारत ने सार्वजनिक नहर तंत्र में 2.55 लाख करोड़ रूपये का निवेश किया। यह मौजूदा प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना के निवेश से पांच गुना ज्यादा की राशि थी। लेकिन इतनी बड़े निवेश के बाद भी, देश में नहरों से सिंचित क्षेत्र में 38 लाख हेक्टेयर कम हो गया।

करीब 50 से 90 फीसद की सब्सिडी वाले दौर में भी माइक्रो सिंचाई वाले क्षेत्र का रकबा कुल रकबे का 5 फीसद भी नहीं हो पाया। जाहिर है, हमें इस योजना को लागू करने में अतीत की गलतियों से सबक लेना होगा।

ग्वालियर के जिस इलाके में मैं घूम रहा हूं, वहां पानी की पर्याप्त कमी है। मैंने इधर से भरतपुर की तरफ का रूख किया, वहां भी नहरें बनी हुई तो हैं। भरतपुर के दीग तहसील में तो 1982 में नहरें खुद गई थीं, लेकिन बिन पानी के नहरों का क्या काम?

सिंचाई के मामले में मध्य प्रदेश में काम अच्छा हुआ दिखता है। नहरों के मामले में मध्य प्रदेश ने उपलब्धिपूर्ण काम किया है और वह दिखता भी है। डबरा-भीतरवाड़ इलाके में खेतों में गेहूं और सरसों की लहलहाती फसलें नहर सिंचाई की कामयाबी का हरभरा सुबूत हैं।

मध्य प्रदेश ने सन् 2003 से 2014 के बीच अपने नहर सिंचित क्षेत्रों में करीब 20 लाख हेक्टेयर का इजाफा किया है। साल 2000 में मध्य प्रदेश में कुल सिंचित इलाका 4.14 मिलियन हेक्टेयर था जो 2014 में 8.55 मिलियन हेक्टेयर हो गया है। इस बढोत्तरी के लिए सूबे को करीब 2000 करोड़ रूपये का निवेश करना पड़ा, लेकिन इसका फल ज़मीन पर दिखता है। सिंचाई के संसाधनों के बेहतर प्रबंधन ने भी राज्य में चमत्कारिक परिणाम दिए हैं।

भरतपुर के इलाके में किसानो की शिकायत है कि पानी पहले उनके नहरों तक नहीं पहुंचता था, हालांकि पिछले छह महीने से पानी आना शुरू हुआ तो अगल बगल के कुओं में पानी आ गया। दीग में ज़िला प्रशासन ने वॉटरशेड प्रबंधन की शुरूआत की है, क्योंकि पानी आयात करके लोगों तक पहुंचाना खर्चीला भी है और हरियाणा पानी देने में अड़ंगेबाज़ी पर उतारू है।

जो भी हो, हर खेत तक पानी पहुंचाने के बड़े यज्ञ में, आखिरी खेत तक पानी पहुंचाना लक्ष्य होना चाहिए। इसके लिए प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना बाकी की योजनाओं की ही तरह मुफीद तो है, लेकिन इसके लिए नाकाम योजनाओं के अतीत से सबक सीखना बेहद जरूरी है।



मंजीत ठाकुर





Sunday, January 24, 2016

वन वनवासी विस्थापितः भाग दो

शेर न चीते, गांवों को लगे पलीते

कूनो-पालपुर में सहरिया जनजाति की व्यथा का एक कोण और है। भारत से विलुप्त हो चुके चीतों का। कूनो-पालपुर में चीतों को फिर से बसाने के लिए प्रोजेक्ट चीता शुरू किया गया, हालांकि इस बात को लेकर काफी संशय है कि चीतों का आना जंगल की बाकी जीवों की नस्लों पर क्या असर डालेगा। लेकिन इंसानों पर असर पड़ चुका है।

इस कोण की शुरूआत होती है दो राज्यों के बीच के एक मसले से। आज से डेढ़ दशक पहले कूनो अभयारण्‍य में गीर के शेरों को बसाने के सवाल पर केंद्र और गुजरात सरकार आपस में भिड़ गए थे। मध्‍य प्रदेश सरकार ने अभयारण्‍य में बसे 28 गांवों के 1650 परिवारों को अगले आठ साल में जंगल से खदेड़ दिया। सूबे की सरकार को उम्मीद थी कि उनकी जमीन पर शेर रहेंगे, इंसान नहीं। लेकिन 12 सितंबर 2008 को गुजरात ने साफ कर दिया कि वह अपने शेर किसी और को नहीं देगा। मध्‍य प्रदेश ने गुजरात का सख्‍त रुख देखकर कूनो में अफ्रीकी चीतों को बसाने की योजना बनाई।

बहरहाल, इस कश्‍मकश में 28 गांवों के वे सहरिया परिवार उलझकर रह गए हैं, जिन्‍हें शेर लाने के नाम पर 12 साल पहले जंगल से निकालकर बाहर फेंक दिया गया था। शेर तो नहीं आए,अलबत्‍ता विस्‍थापन के शिकार गावों में लोगों का जीना मुहाल हो गया है।

असल में, चीते भारत से सन् 1952 में ही विलुप्त हो गए थे। उसके बाद के सवा छह दशक के बाद देश न जाने कितना आगे बढ़ गया है। जीडीपी में 66,400 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हो चुकी है। आबादी 35 करोड़ से बढ़कर सवा अरब हो चुकी है। वन क्षेत्र कागज पर उतना ही है लेकिन असल में इसका 40 फीसद पहचान में नहीं आता कि जंगल ही है या कुछ और। इंसानों और वन्य जीवों के बीच संघर्ष के विजुअलल्स टीवी स्क्रीन पर खबर बन चुकी हैं। फिर भी, चीतों को नए सिरे से देश में बसाने की योजना को हम घोर आशावादिता ही कह सकते हैं।

आजादी के छह दशक बाद भी पर्यावरण और वन पर हमारे बजट का 0.40 फीसद हिस्सा ही खर्च होता है इसमें वन्य जीवन भी शामिल है। इसका मतलब है कि 15 अहम नस्लों और करीब 650 संरक्षित क्षेत्रों के के लिए 800 करोड़ रूपया ही उपलब्ध है। क्या आपको पता है कि असम से बाहर एक मात्र जगह गैंडे सिर्फ पश्चिम बंगाल में पाए जाते हैं और वहां के गैंडो को बचाने के लिए महज 44 लाख रूपये आवंटित किए जाते हैं। चलिए सुस्त गैंडों को बचाने की बजाय हम तेज-चुस्त चीतों पर दांव लगाना चाहते हैं, और उसके लिए 300 करोड़ रूपये खर्च करने को तैयार हैं।

कुछ जीवविज्ञानियों और भूतपूर्व नौकरशाहों को चीते लाने का यह विचार अभूतपूर्व लगा था। उस दौरान जयराम रमेश वन और पर्यावरण मंत्री थे और उनको यह बहुत भाया था। इसलिए परियोजना पास हो गई। प्रोजेक्ट टाइगर के तहत चीता कार्यक्रम के लिए 50 करोड़ रूपये मंजूर कर दिए गए।

लेकिन सवाल है कि आखिर इस परियोजना की जरूरत ही क्या थी। चीते के रहने के लिए घास भूमि होनी चाहिए और उन्हें छोटे शिकार की जरूरत होती है। लेकिन जिन्हें कूनो पालपुर में घासभूमि कहा जा रहा है असल में वह वह खाली ज़मीन है जो गुजरात के शेरों के लिए जगह बनाने के वास्ते 24 गांवों को खाली करवा कर बनाया गया है।

बहरहाल, अगर कूनों में चीते आएंगे तो यहां शेर बसाने की सरकार की योजना का क्या होगा?शेर और चीते एक साथ नहीं रह सकते। इसी तरह, कूनो में आए चीते तो उनका क्या होगा क्योंकि बगल में रणथंबौर है जहां पहले से बाघों का बसेरा है।

विस्‍थापन के बाद कूनो अभयारण्‍य के दायरे में आने वाले 24 गांवों के विस्‍थापित सहरिया अब केवल राशन के 35 किलो गेहूं-चावल पर निर्भर हैं। उनकी खेती चौपट है, क्‍योंकि जंगल की उपजाऊ जमीन के बदले उन्‍हें जो जमीन दी गई, वो बंजर है।

मकान बनाने के लिए 36 हजार रुपए के अलावा प्रत्‍येक विस्‍थापित परिवार के लिए एक लाख रुपए का वित्‍तीय पैकेज भी शामिल किया गया था। लेकिन इसमें कृषि भूमि, सामुदायिक सुविधाओं, चारागाह, जलाऊ लकड़ी के लिए जगह का विकास और घरेलू सामान के परिवहन का खर्च भी जोड़ दिया गया। आज ये सुविधाएं जमीन पर कहीं नजर नहीं आतीं।

वन विभाग ने विस्‍थापितों को जो जमीनें दिखाईं, वे मौजूदा कब्‍जे वाली जमीनों से अलग थीं। दुर्रेड़ी, खजूरीखुर्द, बर्रेड़, पहड़ी और चकपारोंद में बांटी गई ज्यादातर जमीन असिंचित और बंजर हैं। उन्‍हें इससे सालभर में बमुश्‍किल एक ही फसल मिल पाती है।

विस्‍थापितों के खेतों में खोदे गए 85 फीसदी कुएं अब सूख चुके हैं। कुछ कुएं कपिल धारा के तहत भी खोदे गए, जो सालभर भी नहीं चल सके। कागज़ों पर दर्ज़ है कि विस्‍थापित कुओं से खेतों की सिंचाई कर रहे हैं, उनके खेत भरपूर फसल से लहलहा रहे हैं। जबकि गांव में पीने के लिए पानी भी दूर से लाना पड़ता है।

सहरिया लोग जनजातियों में भी सबसे ज्यादा कुपोषित हैं, साथ ही इस समुदाय में साक्षरता भी सबसे कम है। भारत में सभी जनजातीय समुदायों में साक्षरता का प्रतिशत 41.2 प्रतिशत है,जबकि सहरिया में यह महज 28.7 फीसद है।

शेर या चीते या बाघों के लिए योजनाएं हैं, उन्हें बचाना भी जरूरी है। लेकिन नौकरशाही (इन्हीं के जिम्मे तो सब कुछ है) थोड़ा संवेदनशील होकर सोचे तो सहरिया जैसे वंचित समुदायों की जीवन नष्ट होने से बचाया जा सकता है। अपनी जमीन और भाषा से वंचित इस समुदाय के खत्म होते जाने का जिम्मा किसके सर पर है? शेर, चीतों और बाघों से यह सवाल नहीं पूछा जा सकता। और सत्ता के पास जवाब नहीं है।

Thursday, August 13, 2015

विकास की रफ्तार से कुचले जाते लोग

इस बार के स्तंभ में कायदे से मुझे कांग्रेस सांसदो के लोकसभा से निलंबन पर या फिर एक आतंकवादी को दी गई फांसी पर टिप्पणी करनी चाहिए। लेकिन यह ऐसे मसले हैं जिनपर न जाने कितनी चर्चा हो गई है। इसलिए मैं इस दफा इस स्तंभ में ऐसा मसला उठा रहा हूं जो वाक़ई अभी तक नक्कारखाने में तूती सरीखी ही है।

मसला भी ऐसा है जिसमें कोई ग्लैमर नहीं। कोई राजनीतिक दल इसे चुनावी घोषणापत्र में भी जगह नहीं देगा, क्योंकि इससे वोट बटोरे जाने की उम्मीद भी नहीं है।

मध्य प्रदेश के घने जंगलों के बीच बसा पन्‍ना का एक गांव है उमरावन। पन्‍ना जिले के देवनगर ग्राम पंचायत के तहत इस गांव में अप्रैल 2014 के सर्वे के मुताबिक 102 पुरुष, 137 महिलाएं और 43 बच्‍चे (0-6 साल के हैं)।

गांव के लोग पास की पत्‍थर खदानों में सौ-दो सौ रुपये रोजाना की मजदूरी या फिर जंगल से सूखी लकड़ियां बटोरकर बाजार में बेचकर किसी तरह गुजारा कर रहे हैं।

यह गांव एनडीएमसी की पन्‍ना डायमंड माइंस के अंतर्गत आता है। अब चूंकि सुप्रीम कोर्ट ने एनडीएमसी को पहले पन्‍ना टाइगर रिजर्व में अपनी खदान बंद करने को कहा, लेकिन फिर उसे जारी रखने की अनुमति भी दे दी। लेकिन जिला प्रशासन अब उमरावन गांव के लोगों को वहां से हटाना चाहता है। यानी खदान चल सकती है, पर गांव के लोग नहीं रह सकते।

पन्‍ना टाइगर रिजर्व की अपनी मुआवजा व्‍यवस्‍था है। इसके तहत 10 लाख रुपए का एकमुश्‍त पैकेज दिया जाता है। जमीन के बदले जमीन की कोई मांग उन्‍हें मंजूर नहीं होती, क्‍योंकि इस प्रक्रिया में कई पेंच हैं। एक तो जमीन नहीं है, दूसरे पुनर्वास का पूरा कानून इसमें लागू होता है, जो कि राज्‍य सरकार की आदर्श पुनर्वास नीति भी है। पुनर्वास को लेकर राजनीति भी होती है, इसलिए प्रशासन और वन विभाग हमेशा यही चाहता रहा है कि किसी तरह मामला एकमुश्‍त पैकेज देकर निपट जाए।

उमरावन गांव के लोगों के लिए भी वन विभाग से 10 लाख रुपए प्रति व्‍यक्‍ति (परिवार में 18 साल से ज्‍यादा के विधवा और तलाकशुदा लोग भी हो सकते हैं) मुआवजा तय किया है। दो माह पहले गांव में सुबह साढ़े पांच बजे जन-सुनवाई हुई। गांव के लोगों के साथ दूसरे गांव के भी लोग थे। जमीन या मुआवजा राशि, इन दो सवालों पर राय मांगी गई। चूंकि मुआवजा राशि के पक्ष में हाथ उठाने वाले 4 लोग अधिक थे, लिहाजा कलेक्‍टर ने उनके ही पक्ष में फैसला लिया।

जनसुनवाई में कुछ ऐसे परिवार भी थे, जो चार पीढ़ियों से वहां रह रहे हैं। वे गांव नहीं छोड़ना चाहते, लेकिन बहुमत मुआवजा लेकर गांव छोड़ने के पक्ष में है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, गांव में तकरीबन सभी परिवारों के पास खेती की जमीन है। गांव के 71 परिवारों में से 14 के पास वनाधिकार कानून के पट्टे भी हैं।

पत्‍थर खदानों में काम करने वाले गांव के कई पुरुष सिलिकोसिस बीमारी से पीड़ित हैं। गांव के 14-15 साल के बच्‍चे सुबह पांच बजे से खदानों में काम करने पहुंच जाते हैं। 30 साल की उम्र तक पहुंचते उन्‍हें सिलिकोसिस बीमारी घेर लेती है। बाद में वे 15-20 साल और जी पाते हैं।

गांव में पांचवीं तक एक स्‍कूल और मिनी आंगनबाड़ी है। गांव की राशन दुकान छह किमी दूर बड़ौड़ में है, जो माह में केवल दो दिन ही खुलती है। अब कलेक्‍टर ने सभी विस्‍थापितों के बैंक खाते में मुआवजा राशि जमा कर दी है, लेकिन सभी लोगों के पास बैंक खाते भी नहीं हैं। गांव का बिजली कनेक्‍शन काट दिया है, ताकि वे गांव छोड़ने पर मजबूर हो जाएं।

गांव वालों को वन विभाग के मुआवजे पर यकीन नहीं है, क्‍योंकि अब तक उनके मवेशियों को टाइगर रिजर्व से जितना नुकसान हुआ, उसका एक पैसा भी नहीं मिला है। दूसरी तरफ वन विभाग आए दिन जंगल से सूखी लकड़ियां लाने वाली महिलाओं को पकड़कर उनसे 1500 से 5000 रुपए तक वसूलता है।

मेरे जेहन में दो तीन सवाल हैं। अव्वल, अगर खदान को सशर्त अनुमति दी जा सकती है तो क्या गांववालों का विस्थापन अपरिहार्य है? दोयम, जन-सुनवाई सुबह साढ़े पांच बजे क्यों हुई? तीसरी बात, ज़मीन पर वनाधिकार के पट्टों की सुनवाई कैसे होगी?

बाघ और जंगल जरूरी हैं, लेकिन जड़ से उखाड़े जा रहे लोगों के भविष्य का ध्यान रखा जाना जरूरी है। बात, इतनी सी है कि विकास की रफ़्तार में कहीं कोई तबका कुचल न दिया जाए।




Saturday, June 16, 2012

जंगल, बारिश, सम्मोहन और भूलभुलैया

मध्य प्रदेश के जिस इलाके में हूं, जंगल अपने शबाब पर है। इलाका अर्ध-शुष्क है। राजस्थान नजदीक है। यहां के जंगल भूगोल की भाषा में उष्णकटिबंधीय पर्णपाती वनों में आते हैं। जब हम जंगलों से मिलने गए तो ज्यादातर पेड़ों ने अश्लील तरीके से कपड़े उतार रखे थे।

नहीं, अश्लील नहीं। शायद, वनवासी ऐसे ही रहते हैं। कूनो पालपुर के जंगल ठूंठ से खड़े हैं। एक अदद बारिश का इंतजार था उनको।


कूनो पालपुर के जंगल में, फोटोः नीलेश कालभोर

जमीन पथरीली है। खेती अनाथ है।

हम श्योपुर और शिवपुरी के बीच में हैं। सुना है रणथंबौर से टी-38 नाम का बाघ टहलता हुआ इधर आ गया है। कूनो नदी के आसपास होगा, हम उसकी एक झलक पाने को बेताब हैं। वन अधिकारी बता रहे हैं कि जंगल में तेंदुए हैं, भालू हैं, लकड़बग्घे हैं...सांभर, चीतल और मृग खानदान के सारे जानवर हैं (बारहसिंघे को छोड़कर) हमें शाकाहारी जानवर तो खूब मिले लेकिन मांसाहारी जानवर दिखे नहीं थे। (वो दिल्ली शिफ्ट हो गए हैं ऐसा मुझे एक गाइड ने बताया, हालांकि ये बात उसने हमें मुस्कुराते हुए  कही...अलबत्ता बात एक हद तक सही थी)

हमें एक तेंदुआ शिकार करता हुआ दिख गया। 47 डिग्री सेल्सियस के तापमान में गले में लाल गमछा लपेट कर और उबला हुआ पानी घूंटो में भरते हम कुछ और जीव देख लेने की उम्मीद में थे तभी हमें पहले एक सियार दिखा। सियार के किनारे एक गिद्ध भी दिखा।

गिद्ध भी विलुप्तप्राय जीवों की श्रेणी में है। बचपन में हमने बहुत देखे थे, लेकिन अब यहां उसे देखना सुकूनबख्श था। अचानक झाडि़यो में एक हिरन के छौने के पीछे हमने तेंदुआ भी देख लिया। कैमरे कि क्लिक अनवरत चलने लगी। शटर  की आवाज़ के सिवा कोई और आवाज़ नहीं।

हम सब बहुत खुश थे। सिर्फ एक बाघ को खोज पाना, वो भी 348 वर्ग किलोमीटर में फैले जंगल में...नामुमकिन है। हम तेंदुआ देखकर ही खुश थे। हां, जैसे-जैसे शाम होती गई...मृग परिवार हमें ज्यादा दिखे। मैदान में। गायें भी बहुत थीं, लगा इन गायों को यहां के भावी राजाओं (सिंहों) के भोजन के लिए ही पालपोस कर बड़ा किया गया है।

हम श्योपुर से कूनो की तरफ बढ ही रहे थे कि रास्ते में बूंदा-बांदी ने स्वागत किया। धीरे-धीरे बारिश जोर पकड़ती गई।

लगा विधवा जंगल की मांग किसी ने भर दी। लगा कि जिंदगी लौट आई। लगा कि अपने साजन के इंतजार में सूनी आंखों से निहारते जंगल का सजन लौट आया और उसने हुमक कर जंगल को आलिंगन में कल लिया हो।

मेरे मित्र नीलेश जी को कविता सूझने लगी। मेरे मन में अब भी पथरीला जंगल बसा था। उसका भी एक अग सौंदर्य है। बारिश से अघाए जंगल और जून की तपती-कड़क धूप में तने हुए जंगल के एटीट्यूड में अतर होगा ना। मुझे एटीट्यूड वाला जंगल पसंद आय़ा।

लड़ता हुआ जंगल, सहता हुआ जंगल अच्छा होता है।

बारिश गुजर गई तो एक अन्य मित्र अश्विनी कुमार बालोठिया स्थानीय हैं, श्योपुर के। उनने कहा चलिए आपको डूब दिखा आते हैं। डूब में वो पत्थर के पिजरे हैं जहां सिधिया खानदान के राजा बाघों को कैद करके रखते थे।

कराल से ऐन पहले वो जंगल में बाईँ ओर मुड़ गए, कहा कोई 7 किलोमीटर आगे जाकर पीएमजीएसवाई वाली सड़क पर बाईं ओर मुड़ना है, वहीं तीन किलोमीटर आगे है डूब।

अब क्या बताएं, सात किलोमीटर तो क्या सत्रह किलोमीटर बाद भी कोई सड़क वहां से नहीं निकली। बाईं ओर कोई कट ही नहीं मिला। बहरहाल, कुछ और आगे जाकर जब कट नहीं मिला तो निराशा होने लगी। अश्विनी जी की हिम्मत टूट गई। उनने कहा कि चलो आगे से सी दे कराल ही निकल लेते हैं..वहां से टिकटोली चलेंगे।

टिकटोली में हमें कुछ काम था। बादल छाए थे, और बारिश हमारा पीछा कर रही थी। नीलेश जी कविताई मूड में थे। यह प्रकरण उनको अभी मजेदार ही लग रहा था।

गाड़ी के म्युजिक सिस्टम में सीडी लगातार सुर अलापे हुई थी। अचानक हनुमान चालीसा आ गया उस सीडी में...हमने कहा ये वक्त हनुमान चालीसा पढ़ने का तो कत्तई नहीं है। अगला गाना, झूम बराबर झूम शराबी (कव्वाली) था। शब्द कह रहे थे...आजा अंगूर की बेटी से मुहब्बत कर लें, शेक साहब की नसीहत

लेकिन जिस कराल से जाकर हमें टिकटोली जाना था वह कराल ही नहीं आया। आगे जाकर सड़क खत्म हो गई, कच्चा रास्ता शुरु हो गया। एक घर के बुजुर्गवार से पूछा गया कराल जाने का रास्ता...अब तक अश्विनी जी का आत्मविश्वास खलास हो चुका था। एक दम्मे बुझ से गए।

हम रास्ता भटक गए थे। करीब बीस किलोमीटर तक हमें कच्चे रास्ते पर भटकते हुए हो गए। मैंने हतोत्साहित हो रहे लोगों का उत्साह बढ़ाने की कोशिश की। उनका कहना था कि हनुमान चालीसा का निरादर करने से ऐसा हुआ है।

ड्राइवर से कहा मैंने, हनुमान चालीसा चला लो फिर से, और गाड़ी खड़ी कर लो, रास्ता मिल जाएगा? ड्राइवर मुस्कुरा उठा। मुझे उसके मुंह पर यही मुस्कुराहट चाहिए थी। दरअसल, वो इलाका किडनैपिंग के इलाके के रूप से मशहूर है, और तेंदुए और जंगली जानवरों का भी डर है। मित्रों को टी-38 (बाघ) का भी खौफ था।

गाड़ी बदस्तूर चलने लगी। रास्ता गीला-सा था, डर था कि कहीं पहिए न फंस जाएं कीचड़ में। एक बार तो पूरी गाड़ी पत्थर पर कुछ इस तरह उछली की लगा हम हवा में तैर रहे हैं। मैं इस स्थिति का पूरा आनंद ले रहा था और अश्विनी और नीलेश के चेहरे पर उड़ती हवाइयों का भी।

नीलेश की कविता कपूर होकर हवा गई थी, और वो लगातार हंसने की कोशिश कर रहा था...खिसियानी हंसी थी वो...उस पर मेरा बदतमीज ठहाका गूंजता। हम दोनों की इस हंसी से सबसे ज्यादा शर्मसार अश्विनी बालोठिया हो रहे थे।

आखिरकार, फिक्र को धुएं में उड़ाते हुए हमें आखिरकार तीस किलोमीटर कच्चे रास्ते, यानी जंगल के बीच रास्ता खोजते और साढ़े तीन घंटे खर्च करने के बाद रास्ता मिल ही गया। सूरज अब भी बादलों की बीच छिपा था। खुद को बीयप ग्रिल्स से कम नहीं समझ रहा था।

झूबराबर झूम शराबी गाने ने हिम्मत दी, माहौल हल्का बनाए रखा। बीच में एक बार सौमित्र भाई के इसरार करने पर हनुमान चालीसा भी बजाया गया था। अब जंगल से सही सलामत लौटने के लिए या तो आप ड्राइवर को धन्यवाद दें, या फिर मेरे झूम बराबर झूम शराबी वाले गाने को श्रेय दें, या फिर हनुमान चालीसा के महात्म्य को...आप पर है।

मैंने तो इस खो जाने का खूब मजा लिया, लगा जंगल से प्यार हो गया है. जंगल ने सम्मोहित कर लिया। एक ऐसी जगह भी देखी जो इस सूखेपन के बीच हरेपन की मिसाल थी, जहां से आपको प्यार हो सकता है।

सम्मोहन की सी स्थिति में हूं। जंगल का ये सपना न टूटे।