Friday, May 29, 2015

दो टूकः किसानों की कब्रगाह भी है कर्नाटक


कर्नाटक का गुलबर्गा ज़िला। छोटे से क़स्बे जाबार्गी में दो चुनावी रैलियों की अचानक याद आ गई मुझे। बीजेपी के जगदीश शेट्टार और कांग्रेस के राहुल गांधी। शेट्टार की रैली जाबार्गी में हुई थी, राहुल की वेल्लारी के हासनपेट में। दोनों की रैलियां खचाखच भरी है।

मैंने आसपास अपनी गहरी नज़र से देखा था, क्या यह भीड़ खरीदी हुई है? लोगों के चेहरे से कुछ पता नहीं लगता। शायद हां, या नहीं।

हर चेहरा पसीने से लिथड़ा है...किसी चेहरे पर कुछ नहीं लिखा है। दोनों ने जनता से वोट मांगी, भावनात्मक अपीलें की थीं, जनता ने जवाब हुंकारे से दिया था। लेकिन मैं जब देहात का दौरा करने लगा था तो एक अजीब सा निराशा भाव था हरतरफ।

अपने दौरे में उत्तरी कर्नाटक के जिस भी ज़िले में गया, चुनावी भागदौड़ के बीच हर जगह एक फुसफुसाहट चाय दुकानों पर सुनने को मिली। कन्नड़ समझ में नहीं आती थी, लेकिन स्वर-अनुतानों से पता चल जाता था कि खुशी की बातें तो हैं नहीं। कारवाड़, बीजापुर, गुलबर्गा, बीदर...हर तरफ सूखा था। किसानों की आत्महत्या के किस्से भी थे।

बीजापुर के एक गांव नंदीयाला गया। इस गांव में पिछले साल एक किसान लिंगप्पा ओनप्पा ने आत्महत्या की थी। उसके घर जाता हूं, दिखता है भविष्य की चिंता से लदा चेहरा। रेणुका लिंगप्पा का चेहरा। रेणुका लिंगप्पा की विधवा हैं। अब उनपर अपने तीन बच्चों समेत सात लोगों का परिवार पालने की जिम्मेदारी आन पड़ी है। पिछले बरस इनके पति लिंगप्पा ने कर्ज के भंवर में फंसकर और बार-बार के बैंक के तकाज़ों से आजिज आकर आत्महत्या का रास्ता चुन लिया।

लिंगप्पा ने खेती के काम के लिए स्थानीय साहूकारों और महाजनों और बैंक से कर्ज लिया था, लेकिन ये कर्ज लाइलाज मर्ज की तरह बढ़ता गया। बीजापुर के बासोअन्ना बागेबाड़ी में आत्महत्या कर चुके चार किसानों के नाम हमारे सामने आए। इस तालुके के मुल्लाला गांव शांतप्पा गुरप्पा ओगार पर महज 31 हजार रूपये का कर्ज था।

नंदीयाला वाले लिंगप्पा पर साहूकारों और बैंको का कुल कर्ज 8 लाख था। इंगलेश्वरा गांव के बसप्पा शिवप्पा इकन्नगुत्ती  और नागूर गांव के परमानंद श्रीशैल हरिजना को भी मौत की राह चुननी पड़ी।
पूरे बीजापुर जि़ले में 2012 अप्रैल से 2013 अप्रैल तक 13 किसानों ने आत्महत्या की राह पकड़ ली। पूरे कर्नाटक में यह आंकड़ा इस साल (साल 2013 में) 187 तो 2011 में 242 आत्महत्याओं का रहा था। 2013 में, बीदर में 14, हासन मे दस, चित्रदुर्ग में बारह किसानों ने आत्महत्याएं की हैं। गुलबर्गा, कोडागू, रामनगरम, बेलगाम कोलार, चामराजनगर, हवेरी जैसे जिलों से भी किसान आत्महत्याओं की खबरें के लिए कुख्यात हो चुके हैं।

खेती की बढ़ती लागत और उत्तरी कर्नाटक का सूखा किसानों की जान का दुश्मन बन गया है। पिछले वित्त वर्ष में कुल बोई गई फसलों का 16 फीसद अनियमित बारिश की भेंट चढ गया। और कर्नाटक सरकार ने सूबे के 28 जिलों के 157 तालुकों को सूखाग्रस्त घोषित कर दिया था। लेकिन राहत कार्यो में देरी ने समस्या को बढ़ाया ही।

किसानों की आत्महत्या कर्नाटक में नया मसला नहीं है। पिछले दस साल में 2886 किसानों ने अपनी जान दी है।

पिछले दशक में बारह ऐसे जिले हैं जिनमें सौ से ज्यादा किसान आत्महत्याएं हुई हैं, ये हैं. बीदर, 234 हासन 316, हवेरी 131, मांड्या 114, चिकमंगलूर 221, तुमकुर 146, बेलगाम 205, शिमोगा 170 दावनगेरे, 136, चित्रदुर्ग 205 गुलबर्गा 118, और बीजापुर 149

लेकिन, किसानों की आत्महत्याएं अब आम घटना की तरह ली जाने लगी हैं और विकास की अंधी दौड़ में हाशिए पर पड़े गरीब किसानों की जान की कीमत अखबार में सिंगल कॉलम की खबर से ज्यादा नही रही हैं।


उत्तरी कर्नाटक में पानी बड़ी समस्या है, खेतों के लिए भी और नेताओं के आंखों की भी। दोनों के लिए किसान मामूली हो गए हैं।

Tuesday, May 26, 2015

दो टूकः ताकि बहती रहे गंगा

नरेन्द्र मोदी की सरकार के एक साल पूरे हो रहे हैं और तमाम किस्म की योजनाओं के बीच मेरी दिलचस्पी खासतौर पर गंगा की सफाई से जुड़े नमामि गंगा मिशन पर है। दिलचस्पी इसलिए क्योंकि अव्वल तो पिछले साल इन्हीं दिनों मैं गंगा के किनारे सफाई को लेकर एक वृत्तचित्र की सीरीज़ के सिलसिले में सफ़र कर रहा था, दूसरे, नरेन्द्र मोदी ने चुनाव प्रचार के दौरान गंगा की सफाई को एक चुनावी मुद्दा बनाने में कामयाबी हासिल की थी।

गंगा सफाई में मेरी दिलचस्पी की तीसरी वजह है, कि इससे पहले गंगा को साफ करने की तमाम योजनाएं और परियोजनाएं नाकाम साबित हो चुकी हैं। केन्द्र और राज्य सरकारों की हजारो करोड़ की रकम गंगा के पानी में उस कथित एक्शन प्लान से जुड़े लोगों ने घुलनशील बना दी। पैसा खर्च हो गया, प्रदूषण 1986 में गंगा एक्शन प्लान शुरू होने के वक्त की स्तर से 2013 तक कम होने 
की बजाय बढ़ ही गया।

अब केन्द्रीय कैबिनेट ने 20 हज़ार करोड़ रूपये की राशि नमामि गंगा परियोजना के लिए मंजूर कर दी है। चार बटालियन ग्रीन टास्क फोर्स की बनाने पर सहमति हो गई है, जो गंगा में प्रदूषण पर नजर रखेगी।

लेकिन मेरा ख्याल है कि गंगा को साफ रखने का एक सरल उपाय है निर्मल गंगा के साथ अविरल गंगा की नीति पर कायम रहने का। हम सिर्फ प्रदूषण की ही बात क्यों करते हैं? हम गंगा को देश की बाकी नदियों की तरह भी नहीं मान सकते क्योंकि गंगा की स्वयंशुद्धि क्षमता दूसरी नदियों की तुलना में अधिक है।

अविरल गंगा सिर्फ आस्था की वजह से भी आवश्यक नहीं है। यह आवश्यक इसलिए भी है क्योंकि अविरलता से ही इसमें घुलनशील ऑक्सीजन (डीओ) और बायो-ऑक्सीजन केमिकल डिमांड (बीओडी) को कायम रखा जा सकता है।

टिहरी के पास भागीरथी पर बड़ा बांध है। यहां बांध के बाद करीब तीन किलोमीटर लंबी सुरंग में नदी का पानी गुजरता है। अब परियोजना से जुड़े इंजीनियरों के लिए सुरंग से गुजरती गंगा को अचंभा और अजूबा नहीं, उन्हें कोई नुकसान भी नजर नहीं आता। पानी तो खैर पानी है, सुरंग से होकर ही गुजरे तो क्या कमी आ जाएगी भला?

लेकिन यकीन मानिए, कमी आ जाती है। ऑक्सीजन की। विज्ञान की सामान्य जानकारी रखने वाला शख्स भी बता सकता है कि किसी भी जल में ऑक्सीजन घुलने के महज दो माध्यम होते हैं। पहला, वातावरण की हवा से उसके संपर्क से ऑक्सीजन पानी में घुलता है। दूसरा, पानी में मौजूद हरित पादपों के प्रकाश संश्लेषण प्रक्रिया से। अब प्रकाश संश्लेषण तभी मुमकिन है जब सूर्य की रोशनी मौजूद हो। अंधेरी सुरंग में न तो सूरज की रौशनी जाती है न ही बाहरी हवा से पानी का संपर्क होता है। ऐसे में गंगा के पानी में ऑक्सीजन घुले भी तो कैसे। इसलिए गंगा को अविरल बनाने का तर्क सही लगता है।

गंगा को निर्मल बनाने में सभी लोग एक सुर में इसमें डाले जाने वाले पूजा के निर्माल्य और चिता जलाकर अस्थियों के प्रवाहित किए जाने को भी दोषी ठहराते हैं। यह बात भी एक हद तक सही है। सिर्फ बनारस में ही, सालाना 33 हजार मुर्दे फूंके जाते हैं और 300 टन अधजला मांस गंगा में प्रवाहित किया जाता है। पूरे देश में अंदाजन, 373 करोड़ लीटर अवशिष्ट सीवेज बिना ट्रीट किए सीधे गंगा में प्रवाहित होता है।

गंगा को साफ करने के बड़ा महत्वपूर्ण कदम उद्योगों के अपशिष्ट को गंगा में गिरने से रोकने का होगा। जब तक, उत्तर काशी से लेकर गंगा सागर तक किसी भी उद्योग का एक लीटर अपशिष्ट गंगा में गिरता है, चिता जलाने या पूजा के निर्माल्य को गंगा में डालने से रोकना अनैतिक होगा। पहले उद्योगों और शहरो का मलजल गिरना बंद हो, बाकी के काम खुद ब खुद रुक जाएंगे।


Friday, May 8, 2015

दो-टूक : भूकंप का कूटनीतिक अखाड़ा

पिछले कुछ दिनों से सोशल मीडिया पर इंडियन मीडिया गो-बैक ट्रेंड कर रहा था। भीषण भूकंप के बाद जिस तरह से भारत नेपाल के पक्ष में आकर खड़ा हुआ और तुरंत मदद मुहैया कराई, उसके बाद नेपाल से ऐसी प्रतिक्रिया की उम्मीद नहीं थी। भारतीय मीडिया की तेज़ी और कई दफा फर्जीवाड़े की हद तक जाकर चीजों को सनसनीखेज़ बनाने की आदत की वजह से मीडिया पर लगे ऐसे आरोपों में फौरी तौर पर दम नजर भी आता है। लेकिन असल में चीजें और तथ्य इतने सीधे और सरल नहीं हैं।

वर्तमान स्थिति यह है कि नेपाल ने विदेशी राहत व बचाव एजेंसियों को नेपाल से बाहर जाने को कह दिया है। नेपाल के पास न तो आपदा प्रबंधन की तकनीकी दक्षता है न ही संसाधन ऐसे में खुद नेपाल बिना विदेशी मदद के बचाव तो क्या राहत का काम भी चला पाएगा इसमें घना संदेह है। वहां भूकंप से 30 लाख की आबादी प्रभावित हुई है और तीन लाख से अधिक घरों को नुकसान पहुंचा है।
इस तथ्य के बावजूद की मीडिया की अतिरंजना भरी रिपोर्टिंग के बावजूद कई इलाकों में राहत और बचाव पहुंच पाया तो इसके पीछे मीडिया की रिपोर्ट्स ही थीं।

मैं कुछ अन्य तथ्य यहां सामने रखने की कोशिश कर रहा हूं। शायद इससे तथ्यों का एक पैटर्न हासिल होगा, और एक दूसरे किस्म की राय कायम की जा सकेगी।

पहली बात तो यह कि नेपाल में सेना की छवि कुछ अच्छी नहीं रह गई थी। साल 2006 में संघर्ष के बाद से नेपाली सेना को जरूर लगा होगा कि आपदा के इस वक्त में वह अपनी छवि सुधार सकता है। लेकिन राहत के काम में भारत के एनडीआरएफ को मिल रही वाह-वाही इसमें रोड़ा साबित हो सकती थी।

आखिरकार, भारत ने नेपाल को 95 टन खाने के पैकेट और राशन, 94 टन पानी, 7.5 टन दवाएं, 15 टन मेडिकल सप्लाई, 1.10 लाख कंबल, 8730 टेंट जैसे सामान मुहैया कराए थे।

ऐसे में, नेपाली सियासी तबके को भी अपने राजनीतिक भविष्य की चिंता रही होगी। उन्हे जरूर लगा होगा कि सारी मदद विदेशी एजेंसियां ही कर देगीं, तो संविधान तैयार होने के बाद के चुनाव में उन्हें कौन पूछेगा। खासकर, भारतीय मीडिया में नेपाल के प्रधानमंत्री के नेपाल में हूटिंग और प्रभावित स्थल पर नहीं पहुंचने देने के मामले की रिपोर्टिंग के बाद यह ट्रेंड अलग एंगल से देखने की मांग करता है।

ट्विटर पर ट्रेंड कर रहा इंडियन मीडिया गो-बैक की ट्रेंडिंग पैटर्न पर ध्यान दिया जाए, तो साफ है कि यह मुंबई, हैदराबाद, कोलकाता जैसे भारतीय शहरों से ट्रेंड कर रहा था न कि नेपाल से। भारतीय मुख्यधारा मीडिया और सोशल मीडिया में पाकिस्तान द्वारा आपूर्ति किए गए खाद्य राहत सामग्री में मसाला बीफ भेजे जाने की रिपोर्टिंग से पाकिस्तान की छवि खराब हुई। नेपाल में बहुसंख्यक आबादी हिन्दू है और उनकी धाराम्कि भावनाएं आहत करने के आरोप के बाद पाकिस्तान की छवि को धक्का लगा था।

वैसे, आपको याद होगा कि नेपाल ने ताईवान से यह कहते हुए मदद लेने से इनकार कर दिया था कि वह अपने निकट पड़ोसियों से मदद को प्राथमिकता देगा। यहां यह ध्यातव्य है कि नेपाल ने जापान से मदद को इनकार नहीं किया, जबकि टोकियो काठमांड के मुकाबले ताइपेई से डेढ़ हजार किलोमीटर आगे है। ताईवान की चीन से ठनी रहती है और इस मसले पर चीनी कूटनयिक कोण को खारिज़ नहीं किया जा सकता।

इसीतरह, सबसे पहले मदद पहुंचाकर भारत ने नेपाल में जो बढ़त हासिल की थी, उसे भी चीन पचा नहीं पा रहा होगा। इसलिए, यह मुमकिन लगता है कि भारत के खिलाफ, और तदनुसार, भारतीय मीडिया के खिलाफ हवा बांधने में चीन और पाकिस्तान के गुटों का हाथ रहा होगा।

बहरहाल, भारतीय मीडिया ही क्यों तमाम विदेशी राहत एजेंसियां भी नेपाल से लौट रही हैं। अब नेपाल अपनी त्रासदी के साथ अकेला है, शायद आत्मचिंतन करने के लिए। आखिर, कूटनीतिक अखाड़े में उसके सामने मदद को दो मजबूत हाथ हैः भारत और चीन का। नेपाल किसका हाथ थामेगा, इस सवाल का जवाब ही दक्षिण एशिया में शांति के नए समीकरण तय करेगा।

मंजीत ठाकुर



Tuesday, May 5, 2015

दो-टूकः आपदा का प्रबंधन कब सीखेंगे हम?


अंग्रेजी में एक कहावत है, प्रीवेंशन इज बेटर देन क्योर। आप आपदा प्रबंधन के मसले पर क्योर के बदले रिहैबिलिटेशन शब्द का आसानी से इस्तेमाल कर सकते हैं। आपदा प्रबंधन के मसले पर रेस्पांस , रिलीफ और रिहैबिलिटेशन जैसे शब्दों का इस्तेमाल होता है, लेकिन कहीं भी सावधानी (प्रीवेंशन) का ज़िक्र तक नहीं किया जाता। जाहिर है, यह बदलाव जागरुकता और शिक्षा के जरिए ही आयेगा।

अब बात हालिया भूकम्प की। हिमालय महाद्वीपीय विस्थापन की परिघटना की वजह से बना है और यह प्रक्रिया अब भी जारी है। इसी वजह से पूरा हिमालयी क्षेत्र भू-स्खलन और भूकम्प प्रभावित माना जाता है।

इसके साथ ही, जलवायु परिवर्तन की वजह से बारिश के पैटर्न में भी बदलाव आया है। यानी अब मूसलाधार बारिश की घटनाएं (बादल फटना) पहले से ज्यादा हो रही हैं। इससे भू-स्खलन की आशंका बढ़ जाती है।

हालांकि, स्थानीय लोगों में इस परिवर्तन को भांपने की, या कहें पूर्वाभास की प्रवृत्ति विकसित हो गई है, फिर भी भूकम्प का मसला इससे अलहदा ही होता है। वैसे भी, साल 2013 के जून जैसी घटनाओं में स्थानीय प्रेक्षण का पूर्वाभास मॉडल भी नाकाम हो गया था।

केदारनाथ की घटना या नवंबर 2011 के सिक्किम भूकम्प की घटनाओं से आपदा प्रबंधन के मामले में क्या हमने कोई सीख ली हैजैसा मैंने पहले भी कहा कि आपदा प्रबंधन के मसले पर हमने एहतियाती उपायों को जरा भी तवज्जो नहीं दी है।

नियंत्रक और महालेखापरीक्षक (कैग) की साल 2012 की खामियों की तरफ गंभीर इशारे करती है जिसमें राष्ट्रीय  कार्यकारी समिति की बैठक न होने, आपदा प्रबंधन के लिए राष्ट्रीय योजना की कमी, राज्यों के आपदा प्रबंधन कोष के कुप्रबंधन, खर्च के बावजूद समुचित संचार तंत्र की कमी, और प्रशिक्षण तथा क्षमता निर्माण जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे शामिल हैं।

कैग की रिपोर्ट साफ कहती है कि आपदा प्रबंधन की स्थिति हिमालयी राज्यों में मैदानी राज्यों की तुलना में बदतर है। उत्तराखंड में राज्य और जिला अथॉरिटी तकरीबन नकारा हैं इस राज्य में, जिला आपदा प्रबंधन प्राधिकरणों की अब तक महज दो बैठकें ही हो पायी हैं। (अप्रैल, मई 2011 में)। 
ध्यातव्य है कि इन प्राधिकरणों का गठन 2007 में हुआ था और इस तरह उनके गठन को आठ साल पूरे हो चुके हैं। इस काम के लिए फंड की कमी एक बडी समस्या है। यानी, कोई अधिकारी प्रबंधन को चुस्त- दुरुस्त करना भी चाहे को नहीं कर पाएगा, क्योंकि वैसे भी आभाव उसके कदम रोक देंगे।

लेकिन, अतीत से सबक लेतें हुए नई शुरूआत करने का यही सही वक्त है। आखिर, देश ने कमर कसकर पोलियो को तो खत्म कर ही दिया है। इसी मिसाल को ध्यान में रखना बेहतर होगा।
अपने सबसे तेजी के दौर में देश भर में 1.5 लाख बच्चे सालाना पोलियो से प्रभावित थे, जबकि हिमालयी राज्यों में हर साल 2 लाख लोग आपदाग्रस्त होते हैं।

नेपाल भूकम्प में भारत सरकार ने त्वरित कार्रवायी कर एनडीआरएफ की टीम जिस तरह काठमांडू भेजी, वह प्रशंसनीय है। अब वक्त है आपदा-प्रबंधन में सावधानीको भी शामिल करने का।

एक और जीवनरक्षक अभियान चलाना जरूरी है, जो आपदा संभावित लोगों की जिंदगी बचायेगा।

Friday, May 1, 2015

दो टूकः वाम से दूर अवाम


भूमि अधिग्रहण पर तकरार के बीच वतनवापसी के बाद राहुल गांधी ने बड़े जोर का भाषण दिया। कायदे से यह भाषण किसान-मजदूरों की हिमायत करने का दावा करने वाली पार्टी को देना चाहिए था, लेकिन सीपीएम जैसी आधी सदी पुरानी पार्टी—जिसने हफ्ते भर पहले ही अपना नया सेनापति चुना हो—का मर्सिया पढ़े जाने से ज्यादा बदतर क्या होगा? लेकिन यही वक्त है, जब सीपीएम को अपने वजूद के औचित्य की तरफ गौर करते हुए अपनी रणनीतियों की पुनर्समीक्षा करनी होगी।

हालांकि, यह स्तंभकार इस छोटे लेख में सीपीएम को राष्ट्रीय पार्टी के रूप में पुनर्जीवित करने की सलाह नहीं दे सकता, लेकिन सिर्फ दशक भर में धराशायी हो रही पार्टी को अभी दवा और दुआ दोनों की जरूरत जान पड़ती है।

2014 के लोकसभा चुनाव नतीजों ने हालांकि कई सियासी समीकरण भोथरे कर दिए और चुनावी भूगोल की नई कंटूर रेखाएं खींच दीं। तो यह जानना दिलचस्प होगा कि 2004 में अपनी सबसे बड़ी जीत दर्ज करने वाली पार्टी क्यों 2014 में शर्मनाक हार झेलती है।

यकीनन यह उस पार्टी का प्रदर्शन नहीं है जिसे 1964 में ए के गोपालन, ईएमएस नम्बूदिरीपाद, टी नागीरेड्डी, प्रमोद दासगुप्ता, हरे कृष्ण कोनार और  ज्योति बसु के हरावल दस्ते ने वर्ग संघर्ष को अमली जामा पहनाने के लिए भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से अलग करके बनाया था।

पिछले लोकसभा चुनाव में सीपीएम ने 90 सीटों पर चुनाव लड़कर महज 9 सीटों पर जीत हासिल की। देशभर में पार्टी को महज 3.2 फीसद वोट ही मिले। स्थापना के बाद से सीपीएम को मिला यह सबसे कम वोट है। 

वाम के तीन किलों में से एक बंगाल के भद्रलोक पत्रकार एक कहावत कहा करते थे, वाम को अगर बंगाल में कोई हरा सकता है तो वह खुद वाम ही है। एकतरह से वाम की लंबी जीत के सिलसिलों में ही उसकी हार की वजहें छिपी हैं।

1977 के बाद से बंगाल में वाम मोर्चे ने अपना एक शानदार तंत्र खड़ा कर लिया था। पार्टी ने अपना सामाजिक आधार औद्योगिक सर्वहारा से आगे बढ़ाते हुए उसे भूमिहीन मज़दूरों, छोटे किसानों और सीमांत किसानों तक फैलाया। इस समीकरण में वाममोर्चे ने वर्ग को भी जोड़ा और दलितों और मुस्लिमों का वोटबैंक उसके साथ आ जुड़ा। इस वोटबैंक की वजह से ही वाम की हेजिमनी 2006 के विधानसभा चुनाव तक बरकरार रही।

पार्टी को राज्य में 2009 के आम चुनावों में 33.1 फीसदी, 2011 के विधानसभा चुनावों में 30 फीसदी और 2014 के आम चुनावों में मात्र 22.7 फीसदी वोट मिले। यानी सिर्फ बंगाल की बात करें तो भी पार्टी की राजनीतिक ढलान साफ दिखती है।

पिछले एक दशक में आए इस ढलान की फौरी वजह कभी लेफ्ट फ्रंट के घटक दलों में आई दरार, तो कभी नंदीग्राम की घटनाओं के लगातार विरोध के बाद धीरे-धीरे बुद्धिजीवियों का एक तबके के गोलबंद होकर वाम के खिलाफ़ खड़े होने को माना गया। बंगाल के गांवों में भी-जो कि वाम का एकमुश्त वोट रहा है- वाम के खिलाफ़ सुगबुगाहट शुरू हो गई थी।

उधर, केरल में पार्टी करिश्माई नेता वीएस अच्युतानंदन और राज्य सचिव पी विजयन के बीच दो धडों में बंटी हुई है। उनकी इस दशक भर से चली आ रही खींचतान से पार्टी का हाल बेहाल है। वाम के लिए एकमात्र उम्मीद की किरण त्रिपुरा है, जहां माणिक सरकार ने अपना दबदबा कायम रखा है।
वाम के खिलाफ यह जनादेश फौरी भावनाओं की अभिव्यक्ति मात्र नहीं है, एक हद तक उसके लिए वाम की ठसक भरी राजनीति ज़िम्मेदार है। यकीनन, वाम को मिला यह आखिरी जनादेश नहीं है और यह चुनाव भी आखिरी नहीं था, लेकिन अब सीपीएम को नया सेनापति मिला है तो उसे यह जरूर याद रखना चाहिए कि उसके जनाधार में छीजन इसलिए ही आई थी क्योंकि वह अपने वैचारिक ज़मीन की बजाय प्रयोगों पर अधिक ध्यान देने लगी थी। वैसे भी पार्टी ने कई रणनीतिक और ऐतिहासिक भूलें की हैं, अब उनको ज़मीनी स्तर पर पार्टी का ढांचा दोबारा खड़ा करना होगा।