Sunday, November 27, 2016

टिकाऊ विकास से बचेंगी भावी पीढ़ियां

टिकाऊ विकास से बचेंगी भावी पीढ़ियां, यह समझना ज़रूरी कि हम सारे संसाधन खुद ही खर्च कर देंगे या कुछ बचाकर भी रखेंगे। 
मंजीत ठाकुर



इस वक्त जब पूरी दुनिया में पर्यावरण को लेकर खास चिंताएं हैं, और हाल ही में दुनिया भर ने दिल्ली में फैले दमघोंटू धुएं का कहर देखा, एक दफा फिर से आबो-हवा की देखभाल और उसकी चिंताएं और उससे जुड़े कारोबार पर गौर करना बेहद महत्वपूर्ण लगने लगा है।

सबसे बड़ी बात कि हम लोग अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिए क्या संसाधन छोड़कर जाने वाले हैं? क्या हम उनको प्रदूषित पानी, बंजर ज़मीन और सांस न लेने लायक हवा की सौगात विरासत के रूप में देने वाले हैं? शायद इसीलिए जानकार टिकाऊ विकास या सतत विकास की बात करते हैं ताकि हम प्रकृति से जितना लें, उसे उतना ही वापस करें। आखिर, एक दिन जब धरती की कोख में समाया सारा कोयला, पेट्रोल और प्राकृतिक गैस का ख़ज़ाना खत्म हो जाएगा, तब ऊर्जा की हमारी ज़रूरतें कहां से पूरी होंगी? हम लोग क्लीन एनर्जी यानी स्वच्छ ऊर्जा तकनीकों में क्या हासिल कर पाएं हैं और वह तकनीकें आम जनता की जेब की ज़द में हैं भी या नहीं।

असल में, ऐसा नहीं है कि सरकारें कोशिश नहीं करती। दिक्कत हमारे विभिन्न मंत्रालयों (और विभागों, केन्द्र सरकार और राज्य सरकार के बीच नीतियों में समन्वय की कमी की है।

पिछले कई दशकों से आर्थिक विशेषज्ञ अर्थनीति-जिसे विचित्र रूप से एकआयामी दृष्टिकोण के बावजूद, विज्ञान कहा जाता है-की भाषाओं में गुड और बैड मनी की परिभाषाएं देते रहे हैं। ऐसे उद्योग, जो संसाधनों का दोहन करते हैं और आबो-हवा को प्रदूषित, लेकिन फायदे में चल रहे हैं, पैसा कमा रहे हैं, उन उद्योगों को लाभकारी उद्योग कहा जाता है, जबकि ऐसे काम जिसमें पर्यावरण और आम इंसान की सेहत का खयाल भी रखते हैं लेकिन कारोबार के नजरिए से जो पैसे नहीं बनाते, वह बैड इकॉनमी के तहत आते हैं। आह! इस नज़रिए से देहातों में अच्छी सड़कें बनाना, जाहिर है, अच्छा है और वनों को संरक्षित करना बुरी आर्थिकी है।

यानी व्यवस्था पिछले तीस बरसों में आर्थिक चश्में से ही हर काम को देखती आई है।

संविधान के तहत, भारत का हर नागरिक प्राकृतिक संसाधनों से मिलने वाले लाभों, खासकर पारिस्थितिकी-वन-ज़मीन और मिट्टी से जुड़ी चीज़ों के सामाजिक फायदों और सेवाओं में बराबर का हक़दार है।

संविधान प्रदत्त इस न्याय व्यवस्था की बुनियादी बात ही यह है कि कोई आर्थिक क्रियाकलाप कम-से-कम ऐसी ही हो जिससे कोई नुकसान न पहुंचे, और सामान्य तौर पर इस तरह से संपन्न की जानी चाहिए कि इससे किसी को नुकसान न पहुंचे, लोगों का जीवन-स्तर ऊपर उठे। ऐसी व्यवस्था यह तय करने के लिए बनाई गई थी कि समाज और अर्थव्यवस्था के हाशिए पर पड़े वंचित तबके को इसका अधिक फायदा मिले।

विकास की किसी भी गतिविधि की योजना ऐसी बननी चाहिए कि जल-जंगल-जमीन जैसे कुदरती संसाधन संरक्षित किए जा सकें और उनका इस्तेमाल इस तरह हो कि वह टिकाऊ विकास के खांचे में फिट बैठ सकें और उनको भावी पीढ़ियों के लिए बचाया जाए। इस योजना में यह भी तय किया जाना चाहिए कि इन गतिविधियों में काम करने वाले या उसके आसपास रहने वाले लोगों की जिंदगी से खिलवाड़ न हो।

टिकाऊ विकास विज्ञान अभी बहुत नया है, यह सोच और अवधारणा नई है फिर भी यह इतनी साफगोई से कई बातें बताता है जिनमें समाज में बराबरी की अवधारणा भी है। यह सरल उपाय सुझाता है। यह किसी भी समाज में महिलाओं की स्थिति, सभी लोगों के स्वास्थ्य, शिक्षा और औसत आयु जैसे मानकों की गणना करके समस्या के उपाय बताता है, जिसे जानकार गिनी कोएफिशिन्ट कहते हैं।

ऐसी चीजें जिनके दोबारा बनने में बहुत अधिक वक्त लगता है, मसलन जंगल, ज़मीन और मिट्टी जैसे कुदरती संसाधनों का अत्यधिक दोहन आने वाली पीढ़ियों के लिए कई विकल्प खत्म कर सकता है। इन पीढ़ियों को यह कुदरती संसाधन उन्हीं रूपों में चाहिए होंगे, जैसे कि हमें मिले थे। धरती पर आबादी के बढ़ते बोझ के बाद तो यह ऐसे भी ज़रूरी होगा।

हो सकता है कि आने वाली पीढ़ियों के साइंसदां हमारे इन कुदरती संसाधनों के खत्म होने का कोई तोड़ निकाल लें, लेकिन बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए इन संसाधनों को बहुत जरूरत होगी। जैसे कि जल चक्र के लिए जंगल चाहिए और पानी के साथ ही मिट्टी की ज़रूरत हमारे अनाजों के लिए हमेशा रहेगी। क्यों न हम अपनी भावी पीढ़ियों की ऊर्जा को किसी ज्यादा बेहतर काम के लिए बचाने पर जोर दें, और जल-जंगल-जमीन को खुद बचाने का बंदोबस्त करें, वह भी पुख्ता बंदोबस्त।


Tuesday, November 22, 2016

मैं हमेशा नहीं रहूंगा

तुम साथ रहोगे न हमेशा?
नहीं, तुम हमेशा नहीं रहोगे।

सूरज, धरती, चांद, सितारे
और भी जो हैं जगमग सारे
और सपनों की भी होती है एक उम्र।

साइंसदां कहते हैं सूरज हो या कोई भी तारा,
या खुद अपनी ही धरती
सब एक महाविस्फोट से हुए थे पैदा
और सबकी उम्र होती है

हर चीज़ एक दिन फ़ना हो जानी है

एक दिन दहकता सूरज भी
गुल हो जाएगा
जब इसके अंदर इसको जलाने वाली गैसें चुक जाएंगी
तब यह भी
धरती के आकार के हीरे में बदल जाएगा

और जानती हो न तुम
हीरा होता है कितना कठोर,
कितना चमकदार,
कितना निर्मम-निष्ठुर
और हीरे को चमकने के लिए भी
चाहिए होती है दूसरों की रौशनी

हां,
यह मैं हमेशा नहीं रहूंगा
लेकिन न हवा रहेगी
न पानी होगा
न कुछ और बचेगा
सोचो की प्रोटोन तक को जिंदगी की मिली है तय मियाद

इस जीवन में कुछ भी शाश्वत नहीं है।

मैं भी तुम्हारे ईश्वर की तरह नश्वर ही हूं
मैं हमेशा नहीं रहूंगा।

मंजीत ठाकुर

Saturday, November 19, 2016

बेपानी सियासत में पानी की राजनीति

चुनावी वक्त में पानी की तरह रूपया ज़रूर बहाया जाता है लेकिन पानी को पानी की ही तरह बहाना मुद्दा है। ताजा विवाद पंजाब बनाम हरियाणा का है, जहां मसला सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले के बाद गहरा गया। शीर्ष अदालत ने पंजाब सरकार को बड़ा झटका देते हुए सतलज का पानी हरियाणा को देने का आदेश दिया था। लेकिन, गुरूवार यानी 17 नवंबर को उच्चतम न्यायालय पंजाब द्वारा सतलुज-यमुना संपर्क नहर के लिए भूमि पर यथास्थिति बनाए रखने के शीर्ष अदालत के अंतरिम आदेश का कथित उल्लंघन करने के मामले में हरियाणा की याचिका पर 21 नवंबर को सुनवाई के लिए सहमत हो गया।

अदालत के सामने हरियाणा सरकार के वकील ने इस याचिका का उल्लेख करते हुए इस पर तुरंत सुनवाई का अनुरोध किया था। हरियाणा का कहना था कि नहर परियोजना के निमित्त भूमि पर यथास्थिति बनाए रखने का पंजाब सरकार को निर्देश देने संबंधी ऊपरी अदालत के पहले के आदेश का हनन करने के प्रयास हो रहे हैं।

हाल ही में पंजाब सरकार ने इस परियोजना के निमित्त अधिग्रहीत भूमि को तत्काल प्रभाव से अधिसूचना के दायरे से बाहर करने और इसे मुफ्त में इसके मालिकों को लौटाने का फैसला किया था। राज्य सरकार का यह निर्णय काफी महत्वपूर्ण हो गया है क्योंकि न्यायमूर्ति दवे की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय पीठ ने पिछले सप्ताह पंजाब समझौता निरस्तीकरण, 2004 कानून को असंवैधानिक करार दिया था। इस कानून के जरिए ही पंजाब ने हरियाणा के साथ जल साझा करने संबंधी 1981 के समझौते को एकतरफा निरस्त कर दिया था।

शीर्ष अदालत ने राष्ट्रपति को भेजी अपनी राय में कहा था कि पंजाब समझौते को ‘एकतरफा’ निरस्त नहीं कर सकता है और न ही शीर्ष अदालत के निर्णय को ‘निष्प्रभावी’ बना सकता है।

वैसे, पंजाब और हरियाणा के बीच सतलुज यमुना के जल-बंटवारे को लेकर विवाद पचास साल से भी ज्यादा पुराना है। पंजाब सरकार का पक्ष है कि उनके सूबे में भूमिजल स्तर बेहद कम है। अगर पंजाब ने सतलुज-यमुना नहर के जरिए हरियाणा को पानी दिया तो पंजाब में पानी का संकट खड़ा हो जाएगा। वहीं हरियाणा सरकार सतलुज के पानी पर अपना दावा ठोंक रही है।

चुनावी वक्त में पानी ने पंजाब की राजनीति को गरमा दिया है। इस मुद्दे पर पंजाब के विधायकों और कुछ सांसदो ने इस्तीफे का दौर भी चला।

दरअसल, इस विवाद की शुरूआत तो सन् 1966 में पंजाब के पुनर्गठन के साथ ही हो गई थी। इसी साल हरियाणा राज्य का गठन हुआ था। लेकिन पंजाब और हरियाणा के बीच नदियों के पानी का बंटवारा तय नहीं हो पाया था।

उस वक्त, केन्द्र सरकार ने एक अधिसूचना जारी की थी, जिसके तहत कुल 7.2 एमएएफ (मिलियन एकड़ फीट) में से 3.5 एमएएफ पानी हरियाणा को दिया जाना था। इसी पानी को हरियाणा तक लाने के वास्ते सतलुज-यमुना नहर (एसवाईएल) बनाने का फैसला हुआ। इस नहर की कुल लम्बाई 212 किलोमीटर है।

हरियाणा को पानी की जरूरत थी, सो उसने अपने हिस्से की 91 किलोमीटर नहर तयशुदा वक्त में पूरी कर ली। लेकिन, पंजाब ने अपने हिस्से की 122 किमी लम्बी नहर का निर्माण को अभी तक लटकाए रखा है। यही नहीं, पंजाब ने इसी साल यानी 2016 के मार्च में नहर निर्माण के लिए अधिग्रहीत ज़मीनें किसानों को वापस करने का फैसला कर लिया। इसका एक मतलब यह भी है कि पंजाब ने हरियाणा को पानी न देने की अपनी नीयत साफ कर दी।

नतीजतन, हरियाणा सुप्रीम कोर्ट पहुंचा। शीर्ष अदालत ने पंजाब को यथास्थिति बनाए रखने का निर्देश दिया। लेकिन अब इस मामले पर अन्तिम फैसला सुनाते हुए न्यायालय ने नहर का निर्माण को पूरा करने का फैसला सुना दिया है।

हालांकि इसी तरह के रोड़े अटकाए जाने के दौरान अदालत 1996 और 2004 में भी यही फैसला सुना चुकी है। इस दौरान कांग्रेस और अकाली दल भाजपा गठबन्धन की सरकारें पंजाब में रहीं, लेकिन नहर के निर्माण को किसी ने गति नहीं दी। मसलन एक तरह से न्यायालय के आदेश की अवमानना की स्थिति बनाई जाती रही।

ऐसा नहीं है कि इस मुद्दे को सुलझाने की कोशिशें नहीं हुईं। 31 दिसंबर, 1981 को केन्द्र सरकार ने पंजाब, हरियाणा और राजस्थान के मुख्यमंत्रियों की बैठक इसी मसले पर बुलाई थी। बैठक में रावी-व्यास नदियों में अतिरिक्त पानी की उपलब्धता का भी अध्ययन कराया गया।

इस समय पानी की उपलब्धता 158.50 लाख एमएएफ से बढ़कर 171.50 लाख एमएएफ हो गई थी। इसमें से 13.2 लाख एमएएफ अतिरिक्त पानी पंजाब को देने का प्रस्ताव मंजूर करते हुए तीनों राज्यों ने समझौता-पत्र पर हस्ताक्षर भी कर दिए थे। शर्त थी कि पंजाब सतलुज-यमुना लिंक नहर बनाएगा। काम को तेज़ी के लिए तब की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 8 अप्रैल, 1982 को पटियाला जिले के कपूरी गाँव के पास नहर की खुदाई का भूमि-पूजन भी किया। लेकिन तभी सन्त लोंगोवाल की अगुआई में अकाली दल ने नहर निर्माण के खिलाफ धर्म-युद्ध छेड़ दिया। नतीजतन पूरे पंजाब में इस नहर के खिलाफ एक आंदोलन जैसी स्थिति पैदा हो गई।

राजीव गांधी के प्रधानमंत्री बनने के बाद राजीव-लोंगोवाल समझौते पर हस्ताक्षर हुए। जिसकी शर्तों में अगस्त 1986 तक नहर का निर्माण पूरा करने पर सहमति बनी। साथ ही, सुप्रीम कोर्ट के जज की अध्यक्षता में प्राधिकरण गठित किया गया, जिसने साल 1987 में रावी-व्यास के अतिरिक्त पानी को पंजाब और हरियाणा दोनों ही राज्यों में बांटने का फैसला लिया। लेकिन यह फैसला भी ठंडे बस्ते में चला गया।

जब पंजाब के मुख्यमंत्री सुरजीत सिंह बरनाला था, तो उन्होंने राजीव-लोंगोवाल समझौते के तहत नहर का काम शुरू करवा दिया, लेकिन फिर पंजाब में उग्रवादियों ने नहर निर्माण में काम करने वाले 35 मजदूरों का नरसंहार कर दिया। बाद में नहर के दो इंजीनियरों की भी हत्या कर दी गई। इसके बाद काम रूक गया।

1990 में तत्कालीन मुख्यमंत्री हुकुम सिंह ने केन्द्र सरकार की मदद से नहर का अधूरा काम किसी केन्द्रीय एजेंसी से कराने की पहल की। सीमा सड़क संगठन को यह काम सौंपा भी गया, किन्तु शुरू नहीं हो पाया। मार्च 2016 में तो पंजाब ने सभी समझौतों को दरकिनार करते हुए नहर के लिये की गई 5376 एकड़ भूमि के अधिग्रहण को निरस्त करने का ही फैसला ले लिया।

लेकिन पंजाब में सियासी दल जिस तरह के रूख पर अड़े हैं, उससे यह कावेरी मसले की तरह के विवाद में बने रहने की ही आशंका है। लगता नहीं कि यह मुद्दा फौरी तौर पर सुलझ भी पाएगा।

एक बात साफ है कि आने वाले विधानसभा चुनाव में सियासतदानों की नज़रें सिर्फ वोटों पर ही हैं, समावेशी विकास में पंजाब और हरियाणा एक साथ नहीं आ सकते, यह बात भी स्पष्ट हो रही है।




मंजीत ठाकुर

Thursday, November 17, 2016

सोनम गुप्ता बेवफ़ा क्यों है...

जब इंसान के हाथ में नोट ही न हों, पता लगे कि आपके पास के 86 फीसद, अरे साहब वही 5 सौ और हजार वाले नोट, अब सब्जीवाले, चायवाले, कपड़ेवाले, धोबी, बढ़ई वगैरह-वगैरह नहीं लेंगे। आपको इस साल के खत्म होने से पहले अपने सारे ऐसे नोट बैंक में वापस धर देने हैं, उसके बदले नए कलदार निकारने हैं। आपके मोबाइल में देश से काला धन को जड़ से खत्म कर देने के देशभक्त संकल्प आ-जा रहे हैं, आप ऊर्जा से भरे हैं और प्रधानमंत्री के आदेशानुसार अपने पास पड़े चार हज़ार के बड़े नोटों को चिल्लर में बदलवाने बैंक जा रहे हैं। आपको उम्मीद है कि आप जाएंगे और बैंक मैनेजर फूलों के हार के साथ आपका स्वागत करेगा।

आपकी पत्नी आपसे, सरकार से, प्रधानमंत्री से नाराज़ है क्योंकि उनने आपके पर्स से, अपनी कमाई से, रक्षाबंधन और भैया-दूज में नेग में मिले पैसों को संभालकर और आपसे छिपाकर रखा था, क्योंकि महंगाई के इस दौर में आप कभी भी उनकी बचत पर बुरी दृष्टि फेर सकते थे। लेकिन आपकी पत्नी, मां, दादी का यह चोरअउका धन, या स्त्रीधन बैंक में वापस करना जरूरी हो गया।

बहरहाल, देश को बचाने की खातिर आम आदमी इतना त्याग तो कर ही सकता है। आप बैंक में पैसा जमा नहीं कर पा रहे। सुबह से कतार में खड़े आपकी हिम्मत दुपहरिया आते-आते जवाब दे जाती है। देशभक्ति की चाशनी की मिठास थोड़ी कम हो जाती है और चाय की दुकान पर एक दस रूपये के नोट पर एक धुंधली-सी लिखावट पर आपकी नज़र जाती हैः सोनम गुप्ता बेवफा है।

उसी वक्त आपके वॉट्स-एप, आपका ट्विटर, फेसबुक, अखबार, वेबसाइट्स हर जगह सोनम गुप्ता के बेवफा होने की बातें नुमायां होने लगती हैं।

हम सोचते रह जाते हैं यह मुई सोनम गुप्ता है कौन, और यह बेवफा क्यों है?

अब हिन्दुस्तान में लोगों को नोटों पर कुछ न कुछ लिखने की आदत है। हम उम्मीद करते हैं कि यह जो नोट हम खर्च कर रहे हैं वह कभी-न-कभी हम तक वापस आएगा। हम बड़े प्यार से उस पर अपना नाम लिख देते हैं। कुछ वैसे ही, जैसे पुरानी इमारतों, धरोहर साबित की जा चुकी चट्टानों और मंदिरों की दीवारों पर हम अपनी प्रेमिका, या मुहल्ले की उस लड़की का नाम लिख डालते हैं जिसे हम दिलो-जान या किडनी-गुरदे-फेफड़े से प्यार करते हैं, और कभी-कभार तो लड़की को इस बात का इल्म तक नहीं होता।

दिलजले आशिकों के ऐसे इजहारे-इश्क या भड़ास निकालने की अदा देश में बहुत पुरानी है। विदेशों में इसका चलन है या नहीं, और अगर है तो किस हद तक है, इस पर कोई विश्वसनीय सूचना नहीं है।

लेकिन नोटबंदी के इस दौर में मुझे पूरा यकीन हो गया कि हमारा देश ऐसे खुराफातियों से भरा हुआ है, जो मूल मुद्दे से ध्यान भटकाने के लिए कुछ भी कर सकते हैं। और इन कुछ भी कर गुजरने वालों ने सोनम गुप्ता की बेवफाई का क्या खूब सहारा लिया।

सोनम गुप्ता को बेवफा बताने वाले और फिर उसी की तरफ से –मैं नहीं बेवफा—की तर्ज़ पर दूसरे नोटों को सोशल मीडिया पर किसने उछाला? यह वही वर्ग है जो बाथरूम साहित्यकार है और जम्मू से कन्याकुमारी तक, हर जगह फैला है।

नोटों की बात छोड़िए, आपने हिन्दुस्तान के हर कोने में चल रही ट्रेनों के टॉयलेट, प्रतिष्ठित इलाकों की इमारतो की लिफ्ट, सीढ़ियों, दीवारों समेत हर सार्वजनिक प्रतिष्ठान के शौचालयों में लेखन करने वालों पर कभी गौर किया है?

भोपाल हो या गोहाटी, अपना देश अपनी माटी की तर्ज़ पर टॉयलेट साहित्यकार पूरे देश में फैले हैं। मैं उन लेखकों की बात कर रहा हूं, जो नींव की ईंट की तरह हैं। जो कहीं छपते तो नहीं, लेकिन ईश्वर की तरह हर जगह विद्यमान रहते हैं। सुलभ इंटरनैशनल से लेकर सड़क किनारे के पेशाबखाने तक, पैसेंजर गाड़ियों से लेकर राजधानी एक्सप्रेस तक, तमाम जगह इनके काम (पढ़ें, कारनामे) अपनी कामयाबी की कहानी चीख-चीखकर कह रहे हैं।

देश के ज्यादातर हिस्सों में ज्यों हि आप किसी टॉयलेट में घुसते हैं, अमूमन बदबू का तेज़ भभका आपके नथुनों को निस्तेज और संवेदनहीन कर देता है। फिर आप जब निबटने की प्रक्रिया में थोड़े रिलैक्स फील करते हैं, तो आप की नज़र अगल-बगल की गंदी या साफ-सुथरी दीवारों पर पड़ती है, वहां आपको गुमनाम शायरों की रचनाएं दिखेंगी (आप चाहें तो उसे अश्लील या महा-अश्लील मान सकते हैं)। कई चित्रकारों की भी शाश्वत पेंटिंग्स दिखेंगी।

कितना वक्त होता है! इन डेडिकेटेड लोगों के पास! कलम लेकर ही टॉयलेट तक जाने वाले लोग। जी करता है उनके डेडिकेशन पर सौ-सौ जान निसार जाऊं। इन लोगों के बायोलजी का नॉलेज भी शानदार होता है... तभी ये लोग दीवारों पर उसका प्रदर्शन भी करते हैं।

पहले माना जाता था कि ऐसा सस्ता और सुलभ साहित्य गरीब तबके के सस्ते लोगों का ही शगल है। इसे पटरी साहित्य का नाम भी दिया गया था। लेकिन बड़ी खुशी से कह रहा हूं आज कि इनका किसी खास आर्थिक वर्ग से कोई लेना-देना नहीं है। कोई वर्ग-सीमा नहीं है। अपना अश्लील सौंदर्यशास्त्र बखान करने की खुजली को जितना छोटे और निचले तबके के सिर मढ़ा जाता है, सच यही है कि उतनी ही खाज कथित एलीट क्लास को भी है।

तो जब तक अपने प्रेम के प्रकटन का यही पैसिव तरीका इस देश में रहेगा, दीवारों से लेकर नोटों तक कोई सोनम गुप्ता बेवफा होती रहेगी। मुहल्लों में जब तक प्रेम जीवित रहेगा, छींटाकशी भी, और इनकार भी, तब तक देश में सोनम गुप्ताएं बेवफा होती रहेंगी।




मंजीत ठाकुर

Saturday, November 12, 2016

ज़रूरी है धुएं की लकीर पीटना

दिल्ली में ज़हरीला कोहला हटने या छंटने के हफ्ते भर बाद मैं अगर इसकी बात करूं, तो आप ज़रूर सोचेंगे कि मैं सांप निकलने के बाद लकीर पीटने जैसा काम कर रहा हूं। लेकिन, यकीन मानिए, प्रदूषण एक ऐसी समस्या है, जिसमें चिड़िया के खेत चुग जाने जैसी कहावत सच भी है, लेकिन देर भी नहीं हुई है।

अब जरा गौर कीजिए, दिल्ली में दीवाली की रात के बाद, अगली सुबह से ही घना स्मॉग छाया रहा, लेकिन इस मुद्दे पर दिल्ली सरकार की कैबिनेट बैठक ठीक सातवें दिन हुई। दिल्ली सरकार जागी भी तब, जब अदालत, केन्द्रीय पर्यावरण मंत्रालय, दिल्ली के लेफ्टिनेंट जनरल और राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण ने उसे कसकर झाड़ लगाई।

यह ठीक है कि प्रदूषण के मसले पर दिल्ली सरकार अकेले कुछ नहीं कर सकती। न तो वह लोगों को पटाखे और आतिशबाज़ियों से रोक सकती है न पंजाब-हरियाणा से आने वाले पराली के धुएं को। लेकिन दिल्ली में—और देश के हर हिस्से में—दीवाली हर साल आती है, आतिशबाज़ियां हर साल होती है, पंजाब-हरियाणा के किसानों ने अपने खेतों में धान की फसल की खूंटियां या ठूंठ पहली बार नहीं जलाए थे, तो इस परिस्थिति में जो कदम केजरीवाल सरकार ने प्रदूषण भरे खतरनाक और ज़हरीले हफ्ते के बाद उठाने की घोषणा की, वह दीवाली से हफ्ते भर पहले भी कर सकती थी।

मिसाल के तौर पर, सरकार ने स्कूलों को बंद कर दिया। लेकिन, सरकार स्कूली बच्चों में पटाखे न चलाने की जागरूकता फैला सकती थी। दिल्ली सरकार ने कहा कि इलाके में निर्माण कार्य अगले पांच दिन तक बंद रहेंगे और तमाम डंपिंग ग्राउंड से निकलने वाले धुएं पर नज़र रखी जाएगी। यह कदम दीवाली से पहले उठाए जा सकते थे और सच तो यह है कि केजरीवाल ने इस प्रदूषण के लिए सिर्फ पड़ोसी राज्यों से आ रहे धुएं को जिम्मेदार बता दिया। जबकि उपग्रह की तस्वीरों ने साफ कर दिया कि दिल्ली में फैला जहरीले धुएं के महज बीस फीसद हिस्सा ही पड़ोसी राज्यों का है।

मुझसे एक दोस्त ने कहा कि सुबह-सुबह जो धुंध दिल्ली की फिज़ाओं में तैर रहा है वह असल में है क्या। असल में, कोहरा ज़मीन की सतह के आसपास तैर रहा एक तरह का बादल ही है। भौगोलिक परिभाषाओं के तहत देखें तो यह दो तरह से बनते हैं। अव्वल, जब गर्म हवा नम सतह के ऊपर से गुज़रती है तो कोहरा बनता है। ऐसा समुद्री किनारों के आसपास के इलाकों में होता है। दोयम, जब धरती की सतह यानी ज़मीन अचानक ठंडी हो जाए तो हवा में मौजूद नमी कोहरे में बदल जाती है। लेकिन इन दोनों ही परिस्थितियों के लिए हवा में आपेक्षिक आर्द्रता यानी हवा में मौजूद पानी या नमी, की मात्रा सौ होनी चाहिए। दिल्ली में यह दोनों ही परिस्थितिया मौजूद नहीं थी। लेकिन याद रखिए, एक तीसरी भी परिस्थिति है, जिसमें हवा में सौ फीसद नमी नहीं होने पर भी कोहरा बन सकता है और वह हैः हवा में धुआं, धूल, एयरोसोल, हाइड्रोकार्बन जैसी चीज़ों का बड़ी मात्रा में मौजूद होना। ऐसे में नमी इसके चारों तरफ जमा होकर पानी की महीन बूंदें बना लेती हैं और धुएं या धूल के चारों तरफ पानी की यह महीन बूंदे हमारी सेहत के लिए बेहद खतरनाक होती हैं। यही स्मॉग है।

इस स्मॉग के चपेट में लंबे समय तक रहने पर अल्पकालिक नुकसान यह है कि आपको आंखों में जलन हो सकती है, गले में खराश, जुकाम जैसा महसूस होना, आंख से लगातार आंसू आने लग सकते हैं। दमे और सांस की बीमारी से ग्रस्त लोगों के लिए स्मॉग बहुत पीड़ादायी भी है और खतरनाक भी। दीर्घकालिक रूप में यह स्मॉग कैंसर पैदा कर सकता है, मांओं की कोख में पल रहे भ्रूण को स्थायी रूप से नुकसान पहुंचा सकता है।

दीवाली के अगल दिन दिल्ली की हवा में पार्टिक्युलेय मटिरियल 2.5 (यानी हवा में घुले बेहद महीन कणों) की मात्रा 153 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर थी। विश्व स्वास्थ्य संगठन, डब्ल्यूएचओ, का सुरक्षित मानक 6 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर है। सोचिए, हम और आप दिल्ली की हवा में सांस लेते वक्त करीब 40 सिगरेट रोज़ फूंक रहे है। और हम-आप ही नहीं, आपकी नवजात बच्ची और अस्सी बरस के पिता भी।

वैसे भी, दिल्ली के मौकापरस्त व्यापारियों ने मास्क की कालाबाज़ारी भी शुरू कर दी। पांच रूपये के मास्क साठ रूपये तक बिके। ज्यादा कीमता वाली मास्क की बात ही क्या। कोई हैरत नहीं, कि कुछ लोग साफ हवा की पैकेजिंग शुरू कर दें।

बहरहाल, प्रदूषण दिल्ली का स्थायी चरित्र है। और दिल्ली का ही क्यों, लखनऊ, पटना, बंगलोर हो या बनारस, कानपुर, गाजियाबाद...प्रदूषण ने जीना मुश्किल कर दिया है। इससे निपटने के लिए ऑड-इवन जैसे शेखचिल्ली उपायों पर भरोसा करना ठीक नहीं।

दिल्ली की हवा में धूलकणों की मात्रा काफी ज्यादा होती है। इस पर रोक लगाना जरूरी है। दूसरी तरफ सार्वजनिक परिवहन को विकसित और विस्तारित किए बिना आप वाहनों से निकलने वाले हाइड्रोकार्बन पर रोक लगा नहीं सकते।

दिल्ली जैसे शहर में, जहां फ़ी आदमी एक कार होना, स्टेटस सिंबल हो, शान की बात हो और जहां एक कार में एक आदमी सफर करता हो, वहां वायु प्रदूषण पर रोक लगाना वाकई टेढ़ी खीर है।

पर्यावरण को बचाने के नाम पर हम अधिक पेड़ लगाने पर ध्यान केन्द्रित करते हैं। यकीन मानिए, यह छोटा उपाय है। अधिक हरियाली लेकिन छितराई हुई हरियाली से कुछ ज्यादा भला नहीं होगा। टोटल ग्रीन एरिया बढ़ने का फायदा उतना नहीं होगा। जंगल बचाने होंगे। जंगल ही जैव-विविधता का भंडार भी है और वन्य जीवों का रहवास भी।

दिल्ली हो या देश के बाकी शहर, हवा को बचाइए। अगली दीवाली के लिए, अगली पीढ़ियों के लिए। वरना, किसी को अच्छा नहीं लगेगा जब उसका बच्चा खांसता रहेगा और स्कूल जाने के लिए घऱ से चेहरे पर मास्क लगाकर निकलेगा।

मंजीत ठाकुर

Thursday, November 10, 2016

मंगल ठाकुर की मैथिली कविताः दो

आबहु आऊ अहां अशेष,
बड़ सहलहुं अछि आब कलेष,
मेटल ठोप, बहल दृग अंजन
नहिं आओल अछि किछु संदेश।

बीतल दिन बीतल ऋतु चारि
अंकुर निकसल धरती फारि
पुलकित सब कुंठित हम छी
बाटि तकैत गेल फाटि कुहेस।

स्नेहसिक्त लोचन स्वामी के
आलिंगन दुनू प्राणी के
नयन कलश में भरल अश्रु-जल
पुलकित मन अर्पण प्राणेश।

मूल मैथिली कविताः मंगल ठाकुर

हिन्दी अनुवादः मंजीत ठाकुर

अब आ जाओ मेरे अशेष
सहा न जाए विरह क्लेश
मिटी बिन्दी और बह गए अंजन
मिला न कुछ तेरा संदेश।

बीते दिन, बीते ऋतु चार
हरियाई धरती भी अपार
पुलकित सब, मुझे विरह-विषाद
बाट देखती रहा न शेष।

स्नेहसिक्त लोचन वाले तुम
आलिंगन लोगे कब, सुन तुम
नयन कलश में भरे अश्रु-जल
पुलकित मन अर्पण प्राणेश।








Saturday, November 5, 2016

चीन की चुनौती से निपटने के लिए नेपाल है जरूरी

अठारह साल बाद भारत के किसी राष्ट्रपति की यह नेपाल यात्रा थी। 2 से 4 नवंबर तक हुई यह यात्रा इस मायने में भी महत्वपूर्ण है क्योंकि चीन ने रणनीतिक तौर पर भारत को घेरने के लिए नेपाल की बिला शर्त मदद करनी र उस पर शिकंजा कसने की तैयारियां शुरू कर दी थीं। इसके बाद, भारतीय मूल के लोगों, जिन्हें नेपाल में मधेसी कहा जाता है, उनमें भी एक बेचैनी का आलाम था क्योंकि नेपाल के मौजूदा संविधान में मधेसियों के हितों की अनदेखी की गई थी।

लेकिन राष्ट्रपति की यह यात्रा किसी समझौते या नई परियोजना के लिए नहीं थी। बल्कि, यह तो राजनीतिक और कामकाजी स्तरों पर नेपाल के साथ भारत के सघन संवाद के विस्तार का एक रूप माना जाना चाहिए।

वैसे भी राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के नेपाल के लोगों और वहां के राजनीतिक नेताओं के साथ लंबे समय से संबंध रहे हैं और वह ऐसे व्यक्ति हैं जिन्होंने नेपाल में लोकतांत्रिक प्रक्रिया के विकास में रक्षा मंत्री, वित्त मंत्री और विदेश मंत्री वगैरह पदो पर रहते हुए भारत की तरफ से अहम भूमिका निभाई है।

बहरहाल, काठमांडू में साल 2104 में हुए सार्क सम्मलेन में द्विपक्षीय बातचीत में भारत और नेपाल ने व्यापार, आर्थिक, कनेक्टिविटी, जनसंपर्क और पर्यटन के क्षेत्र में सहयोग बढ़ाने के लिए कई नए समझौते किए हुए हैं और राष्ट्रपति का यह दौरा उन संधियों और समझौतों को लागू करने, और परियोजनाओं को तेज़ रफ्तार देने की कोशिश है। भारत की कोशिश है कि जिन संधियों पर पहले हस्ताक्षर हुए हैं, उन्हें वाकई लागू किया जाए।

हालांकि, आपको याद होगा नेपाल के नए संविधान के लागू होने बाद भारत की सरहद को मधेसियों ने विरोध-स्वरूप बंद कर दिया था। असल में, नेपाल के इससे पहले के प्रधानमंत्री के पी ओली की झुकाव चीन की तरफ ज्यादा था। लेकिन, सत्ता परिवर्तन में पुष्प कुमार दहल ‘प्रचंड’ के प्रधानमंत्री बनने के बाद से नेपाल की विदेश नीति में यू-टर्न आया है और वहां पहले की तरह पूर्ववत भारत की ओर झुकाव दिख रहा है। बीते दिनों दहल की भारत यात्रा से दोनों देशों में बर्फ गलनी शुरू हुई।

नेपाल के साथ भारत की डिप्लोमेसी नए सिरे से परवान चढ़ने लगी है। नेपाली राजनीति में चीन की तरफ का झुकाव थोड़ा कम हुआ है। चीन के साथ संबंधों के मद्देनजर भारत अब अपने इस पड़ोसी देश को नए रणनीतिक साझीदार के तौर पर विकसित करने में जुट रहा है।

नेपाल में तीन नई रेल लाइन बिछाने, नए सड़क संपर्क विकसित करने के साथ ही सीमा सुरक्षा का साझा मेकेनिज्म विकसित करने और सैन्य सुरक्षा बढ़ाने पर दोनों देश मसविदा तैयार करने में जुटे हैं।

नेपाल ने अपनी ओर से भारत द्वारा फंडिंग की जा रही उन परियोजनाओं की फेहरिस्त सौंपी है, जो नेपाल के अंदरूनी राजनीतिक हालात के चलते ठंडे बस्ते में चले गए थे। वहां के पूर्व प्रधानमंत्री केपी ओली के दौर में नेपाल का झुकाव चीन की तरफ हो गया था। तब चीन ने अपने यहां से काठमांडो तक रेल नेटवर्क बनाने की परियोजना शुरू की थी।

अब ‘भारत-नेपाल संयुक्त आयोग’ की बैठक के मंच से भारत चार महत्त्वपूर्ण योजनाओं पर काम कर रहा है। बड़ी परियोजना रेल नेटवर्क की है। कोलकाता बंदरगाह से नेपाल के औद्योगिक हब बीरगंज के लिए सिंगल लाइन है, जिस पर मालगाड़ी चलती है। उसे विकसित कर पैसेंजर ट्रेन चलाने लायक बनाने का प्रस्ताव है। नई रेल लाइन नेपाल के बिराटनगर तक बिछाई जा रही है, जिसमें भारत की तरफ का काम पूरा हो चुका है। आगे के लिए नेपाल सरकार को अनुमति देना है। तीसरी रेल लाइन परियोजना का प्रस्ताव है- नेपाल के काकरभिट्टा सीमा से लेकर बंगाल के पानीटंकी इलाके तक।

इसके अलाबा नेपाल में 945 किलोमीटर की ईस्ट-वेस्ट रेल लाइन बिछाने की परियोजना का प्रस्ताव है, जिसके लिए राइट्स समेत तमाम भारतीय एजंसियां अपना शुरुआती काम निपटा चुकी हैं। भारत द्वारा प्रस्तावित बीबीआइएन (भूटान-बांग्लादेश-इंडिया-नेपाल) देशों में रेल और सड़क नेटवर्क के विस्तार के लिए नेपाल में इन योजनाओं को जरूरी माना जा रहा है। विदेश मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी के अनुसार, हमारा पूरा ध्यान रेल नेटवर्क की ओर है।

भारत की तरफ से सड़क संपर्क, सीमा-पार संपर्क बढ़ाने, सुरक्षा मामलों, सीमा पर सतर्कता, पेट्रोलियम पाइप लाइन बिछाने और नेपाल में भारतीय फंडिंग वाली 4800 मेगावाट की पनबिजली परियोजना के साथ ही कई ऐसे प्रस्तावों पर बातचीत का एजंडा है, जिसकी नेपाल को बेहद जरूरत है। इस एजंडे में महाकाली संधि को लागू करने का मेकेनिज्म विकसित करने का विषय है, जिसके तहत दोनों देशों के बीच जल बंटवारे का फार्मूला तैयार किया जाना है। विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता विकास स्परूप के अनुसार, ‘राजनयिक स्तर पर कोशिश है कि सभी प्रस्तावों पर तेजी से काम हो।’

सुस्ता और कालापानी इलाके में इंटीग्रेटेड चेक पोस्ट बनाने और साझा पेट्रोलिंग का प्रस्ताव भारत ने दिया, जिसे मान लिया गया है। इसकी घोषणा खुद राष्ट्रपति ने की।

लेकिन इस मामले में सबसे अहम रहा, नेपाली छात्रों को आईआईटी में पढ़ने की सुविधा की घोषणा और इसकी प्रवेश परीक्षा अब काठमांडू में भी होगी। जाहिर है भारत ने नेपाल को साथ रखने के लिए उसे सौगातों से लाद दिया है। इसमें भूकंप के दौरान ध्वस्त हुए घरों के निर्माण के लिए 6800 करोड़ की मदद भी शामिल है।

लेकिन भारतीय कूटनयिकों के चेहरे पर खुशी तब दिखी, जब पाकिस्तान का नाम लिए बगैर राष्ट्रपति ने अपने भाषण में कहा कि जिन देशों ने अपनी नीति का हिस्सा आतंकवाद को बना लिया हैं उन्हें अलग-थलग किया जाना जरूरी है। नेपाल के साथ खुली सरहद से आंतकवाद आने का खतरा हमेशा बना रहता है। ऐसे में नेपाल के उप-प्रधानमंत्री, प्रधानमंत्री समेत तमाम लोगों ने जब कहा कि नेपाल की धरती का इस्तेमाल भारत के खिलाफ नहीं होने दिया जाएगा, तो इसे भारत की कामयाबी माना जाना चाहिए।

वैसे भी, भारतीय बंदरगाहों से आने वाले दूसरे देशों के सामानों समेत भारत के कारोबार को भी जोड़ दें तो नेपाल का 96 फीसद सामान प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से भारत से आता है। ऐसे में नेपाल के लिए भारत अपरिहार्य है और चीन की चुनौती के मद्देनजर नेपाल भारत के लिए।

दोनों साथ चलें, तो दोनो का फायदा है।







Tuesday, November 1, 2016

मौत से मुलाकात का वाकया

वाकया पिछले साल का है। बिहार में चुनाव का दौरे-दौरा था और हम उसी तरह हम भी इलाके में घूम रहे थे। पिछले साल 30 अक्तूबर को दीवाली नहीं थी। दशहरे के बाद का मौसम था..।

मधुबनी में रजनीश के झा से मुलाकात के बाद, और उनके घर में शानदार भोजन के बाद हमने रात दरभंगे में बिताई  और हम सहरसा-अररिया में महादलितों पर आधे घंटे कि स्पेशल स्टोरी के लिए निकल पड़े थे। तारीख थी 30 अक्तूबर की। 

दिन भर शूट करने के बाद हम और आगे निकलते गए। कोसी के कछारों की तरफ...लेकिन शाम 4 बजे ही बूंदा-बांदी शुरू हो गई और अंधेरा छा गया। अब कैमरा नाकाम हो जाने वाला था। अंधेरे में कुछ शूट करना मुमकिन नहीं था। 

फिर हम वापस लौट चले। 

हमें पूर्णिया जाना था क्योंकि 1 नवंबर को पूर्णिया में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की रैली थी। और वहां से खबरों का पुलिन्दा गिरने की उम्मीद की जा रही थी। बिहार के इस इलाके में आखिरी चरण में मतदान होना था और यह निर्णायक भी था। 

बहरहाल, पूर्णिया का फोरलेन ट्रैक पकड़ने से पहले हम स्टेट हाईवे पर चल रहे थे, और अररिया के पास सात बज गए थे। स्टेट हाईवे बना तो अच्छा है और वाकई अच्छा बना है लेकिन सड़को के किनार साइनेज़ नहीं लगे हैं। यानी आप अगर रात में चल रहे हैं तो आपको क़त्तई गुमान नहीं होगा कि आगे मोड़ है या है भी तो कितना है। अस्तु।

तो साहब, रात के घुप्प अंधेरे में गाड़ी में हम चार लोग थे। मैं, कैमरामैन आरके, कैमरा असिस्टेंट श्रीनिवास और ड्राइवर तिवारी। गाड़ी की स्पीड सत्तर से थोड़ी ऊपर ही। मैं अगली सीट पर बैठना पसंद करता हूं तो नज़र चली ही जाती है स्पीडोमीटर पर।

अब अगले तीन सेकेन्ड की कहानी सुनिएः 

चले जा रहे थे कि अचानक, ड्राइवर ने स्टीयरिंग घुमानी शुरू की, मैंने देखा सामने सड़की में मोड़ है। कितना मोड़ है यह अंदाज़ा नहीं। स्पीड में गाड़ी घूमती ही जा रही थी कि अचानक सामने से ट्रक की हेडलाइट से पता चला कि मोड़ और भी हैं। ट्रक से बचने के लिए ड्राइवर ने स्टीयरिंग को हल्की-सी जुंबिश दी, अपनी तरफ काटा। बस फिर क्या था, गाड़ी कोलतार से नीचे उतरी। कोलतार और मिट्टी में करीब एक फुट का अंतर था। मेरे पैरों के नीचे वाला पहिया नीचे झुका कि बस गाड़ी फिसल गई और ऊपर सड़क से नीचे पंद्र फुट गड्ढे में जा गिरी। 

और सिर्फ गिरी क्यों...एक के बाद एक चार पलटे खाए। मेरी आंखें खुली हुई थीं। स्थिति की नज़ाकत को देखते हुए मैंने विंडो के ऊपर वाले हैंडल को मजबूती से पकड़ लिया और पैर आगे जमा दिए। मुझे लगा कि मैं भी गाड़ी की बॉडी का हिस्सा बन गया हूं। गाड़ी के साथ ही सारी मूवमेंट, बाकी शरीर को गाड़ी से साथ जकड़ दिया। सांस ऊपर की ऊपर, नीचे की नीचे...।

चार बार पलटने के बाद पांचवी बार में गाड़ी की छत नीचे और पहिए ऊपर। 

तीन सेंकेन्ड पूरे। 




मुझे भान हुआ कि मैं एक उलटी हुई गाड़ी में हूं और इंजन अब भी चालू है तो सामने वाली खिड़की के टूटे हुए कांच के रास्ते बाहर आया। कैमरामैन आरके और श्रीनिवास बाहर निकाले। ड्राइवर फंसा हुआ था, उसे भी हमलोगों ने निकाला। 



तब तक ग्रामीणों की भीड़ आ गई थी। मुझे आशंका थी कि गाड़ी में से धुआं निकल रहा है कहीं आग न लग जाए। तो हमने पहले तो सबको किनारे किया। फिर जब आग की आशंका कम हुई तो सबने अपने सामान ढूढे। एक ग्रामीण ने मुझे बताया कि सब सामान इकट्ठा कर लो, नहीं तो लोग ऐसे हैं कि चुरा ले जाएंगे। ऐसा पहले भी कई बार हुआ है। 


मैं ने खुद को हिला-डुलाकर देखा। मैं सही सलामत था, कंधे पर चोट आई थी जो अब भी बरकरार है। श्रीनिवास की पसलियों चोट थी जो बाद में दिल्ली आकर पता लगा कि फ्रैक्चर था। 

आरके सही सलामत है। उसकी शादी कुछ ही महीनों बाद थी और मुझे उसकी चिंता अधिक थी। 

थोड़े आपे में आए तो हमने अपनी दूसरी टीमों को फोन किया। दफ्तर को बताया सारी अस्पताल में कटी। पूर्णिया में। वहां से विनय तिवारी गाड़ी लेकर आए थे। हमे ले जाने के लिए। हमारा ड्राइवर भी सही सलामत था। 

शुक्र यह रहा कि चोट किसी को बहुत ज्यादा नहीं आई। वरना मौके पर पहुंचे दारोगा ने हमें बताया कि इसी मोड़ पर 28 एक्सीडेंट हो चुके हैं दो साल में। और अभी तक यहां दुर्घटना में कोई नहीं बचा था। 

हम बच गए। 

और सच कहूं तो मुझे लगा था कि किसी ने मुझे गोद में उठा लिया है। अगले दिन भाई गिरीन्द्रनाथ आए थे। मिलने के लिए। बहुत सारी बातें बताईं उन्होंने मुझे, उसका किस्सा फिर कभी।