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Friday, April 26, 2019

क्या उपेंद्र कुशवाहा नाकाम मौसम विज्ञानी साबित होंगे?

भारतीय राजनीतिक पत्रकारिता के हालिया शब्दावलियों में एक शब्द ने आजकल आया राम, गया राम जैसे पद का स्थान ले लिया है और वह हैः मौसम वैज्ञानिक. जाहिरा तौर पर इस शब्द का इस्तेमाल रामविलास पासवान के लिए किया जाता है क्योंकि हवा के रुख को जितनी चतुराई से पासवान भांप जाते और इसी के मुताबिक आले पर दिया रख देते हैं, वैसी मिसाल कम ही है.

बिहार में कुशवाहा (पढ़ें, कोयरी, एक खेतिहर जाति) के स्वयंभू नेता उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी ने इस बार एनडीए का दामन छोड़कर महागठबंधन का पल्लू थाम लिया और उन्हें पांच सीटें मिल भी गईं. रालोसपा को इतनी अधिक सीटें मिलना एक तरह से साबित करता है कि कुशवाहा ने तेजस्वी से कड़ा मोलभाव किया होगा और तेजस्वी विपक्षी दलों के गठजोड़ को लेकर इतने बेचैन थे कि उन्होंने शर्तें मान भी लीं.

पर सियासी तौर पर शायद कुशवाहा ने थोड़ी अपरिपक्वता दिखा दी है. खासतौर पर तब, जब सीटें जीतना भी उतना ही महत्वपूर्ण हो. ज्यादा वक्त नहीं बीता जब समता पार्टी में नीतीश कुमार के बाद कुशवाहा नंबर दो की कुरसी पर काबिज थे. 2004 के लोकसभा चुनाव के बाद जब बिहार विधानसभा चुनाव में जनता दल यूनाइटेड, भाजपा से बड़ी पार्टी बनी थी तो नीतीश ने कुशवाहा को विपक्षी दल का नेता बनवा दिया था. उस वक्त कुशवाहा की राजनीतिक जमीन उतनी पुख्ता नहीं थी. कुशवाहा पहली बार साल 2000 में विधायक बने थे और पहली बार में ही वह विपक्षी दल के नेता बन बैठे. तब नीतीश कुमार ने कुशवाहा में शायद कोई सियासी समीकरण देख लिया था.

लेकिन, 2005 में राजद के खिलाफ बिहार में नीतीश की लहर चली तो उस लहर में भी एनडीए के उम्मीदवार रहे कुशवाहा चुनाव में खेत रहे.

इस घटना ने नीतीश को कुशवाहा से दूर कर दिया. उपेंद्र कुशवाहा मत्री बनना चाहते थे पर जदयू ने उनकी जगह संगठन में तय कर दिया. पर शायद यह कुशवाहा को अधिक भाया नहीं और 2006 में वह राकांपा में शामिल हो गए.

हाल में, एनडीए से अलग होने पर बंगला खाली करने पर कुशवाहा ने विरोध प्रदर्शन किया था और लाठी चार्ज में कुशवाहा को चोट भी आई थी. उनकी जख्मी हालत में तस्वीर सोशल मीडिया पर खूब देखी-दिखाई गई. पर कुशवाहा का यह पैंतरा पुराना है. 2005 में चुनाव हारने के बावूजद, कुशवाहा विरोधी दल के नेता के तौर पर मिले बंगले में तीन साल तक काबिज रहे थे और 2008 में उनसे जबरिया यह बंगला खाली करवाना पड़ा था. उस वक्त भी उनकी तब की पार्टी राकांपा ने बिहार में धरना-प्रदर्शन किया था. तब भी बंगला खाली करने को इन्होंने कोयरी समाज के अपमान से जोड़ दिया था.

पर, कुशवाहा के कामकाज से राकांपा प्रमुख शरद पवार कत्तई संतुष्ट नहीं थे और 2008 में पवार ने न सिर्फ कुशवाहार को पार्टी से बर्खास्त कर दिया बल्कि पार्टी की बिहार इकाई को ही भंग कर दिया. तब कुशवाहा ने अपनी नई पार्टी गठित की थी. नई पार्टी कुछ खास प्रदर्शन नहीं कर पाई और कुशवाहा राजनीतिक बियाबान में चले गए. 2010 के विधानसभा चुनावों में जद-यू के तब के अध्यक्ष और कभी नीतीश के प्रिय पात्र ललन सिंह और नीतीश में खटपट हुई और ललन सिंह ने पार्टी छोड़ दी. मौका भांपकर कुशवाहा नीतीश की छत्रछाया में लौट आए. पर 2012 में ललन सिंह की पार्टी में वापसी के साथ ही कुशवाहा ने न सिर्फ पार्टी छोड़ी और राज्यसभा से भी इस्तीफा दे दिया.

फिर अस्तित्व में आई राष्ट्रीय लोक समता पार्टी यानी रालोसपा. 2014 में जब नीतीश की भाजपा के साथ कुट्टी हो गई थी तब कुशवाहा ने एनडीए में जुड़ जाना बेहतर समझा. नरेंद्र मोदी की प्रचंड लहर में एनडीए ने रालोसपा को तीन सीटें दी और पार्टी तीनों जीत गई. हैरतअंगेज तौर पर सीतामढ़ी सीट से कुशवाहा ने अज्ञातकुलशील राम कुमार शर्मा को टिकट दिया जो एक गांव के मुखिया भर थे. आज भी यह रहस्य ही है कि कुशवाहा ने एक मुखिया को सीधे सांसदी का टिकट कैसे दे दिया.

2015 में विधानसभा चुनाव में सीट बंटवारे में काफी कलह के बाद कुशवाहा की पार्टी महज 2 सीटें ही जीत पाई. खुद अपने कुशवाहा समाज का वोट भी वे एनडीए में ट्रांसफर करा पाने में नाकाम रहे.

अब जबकि, कुशवाहा को पांच सीटें मिल चुकी हैं और उन पर उनकी ही पार्टी के नेता टिकट बेचने तक का आरोप लगा चुके हैं...यह देखना वाकई दिलचस्प होगा कि क्या उपेंद्र कुशवाहा ने सीटों की संख्या बढ़ाने के लालच में जीतने लायक सीटें छोड़ दी हैं?

सियासी हवा का रुख भांपने में माहिर पासवान एनडीए में ही बने हुए हैं और ओपिनियन पोल भी जो आंकड़े दे रहे हैं वह बिहार में महागठबंधन के लिए बहुत उत्साहजनक तस्वीर पेश नहीं कर रही. खुद रालोसपा तीनेक सीटें जीत भी जाए और खुदा न खास्ता केंद्र में एनडीए सरकार ही बनी तो फिर उपेंद्र कुशवाहा 23 मई के बाद क्या करेंगे?



Friday, July 28, 2017

बिहारः क्या शरद पर आएगा वसंत?

नीतीश के पाला बदलने और आनन-फानन में शपथ-ग्रहण करके भाजपा के साथ सरकार बना लेने पर कुछ सवाल उठने लाजिमी है. पहला स्वाभाविक सवाल तो यही उठता है कि आखिर नीतीश प्रधानमंत्री द्वारा किए गए डीएनए वाले बिहारी अस्मिता पर चोट से आहत थे वह फिर से भाजपा की शरण में क्यों आ गए. सवाल है कि आखिर भाजपा ने नीतीश को अपने पाले में क्यों करना चाहा? क्या 2019 के लोकसभा में उसे बिहार में आधार खिसकने का इतना डर था? तीसरा सवाल है कि आखिर नीतीश के विरोधी माने जाने वाले और महागठबंधन से बाहर निकलने की मुखालफत करने वाले शरद यादव का क्या होगा?

चूंकि मोदी युग के उदय के बाद मोदी-शाह के अश्वमेघ यज्ञ में सिर्फ बिहार और दिल्ली विधानचुनाव ही असली कांटे साबित हुए हैं और बिहार का झटका ज्यादा बड़ा था जिसमें भारत की पिछड़ी जातियों के दो बड़े नेता शामिल थे और मंडल से जुड़े हुए थे. ऐसे में बिहार में मोदी की सत्ता स्वीकार्यता का एक विशेष अर्थ है और मोदी की सर्व-व्यापकता की तस्वीर बिना बिहार में एनडीए की सत्ता के पूरी नहीं होती थी. ऐसे में ये जरूरी था कि नीतीश कुमार को अपने पाले में लाया जाए और जिसके लिए वे तनिक-तनिक तैयार भी दिखने का संकेत कर रहे थे.

साथ ही ऑपरेशन बिहार इसलिए भी हड़बड़ी में जरूरी था क्योंकि लालू और नीतीश में जो मतभेद हो रहे थे, उसके बाद राजनीतिक गलियारों में ये कानाफूसी थी कि लालू, जद-यू के कुछ विधायकों पर भी निशाना साधने की तैयारी में थी. इसीलिए आनन-फानन में नीतीश ने इस्तीफा दिया और अगले दिन सुबह-सुबह फिर से शपथ ले ली!

नीतीश कुमार के पाला बदलने के सवाल के कुछ बेहद सामान्य उत्तर हैं, उनमें से एक है नीतीश भ्रष्टाचार के खिलाफ खड़े होने वाली अपनी चट्टानी छवि को नई ऊंचाईयों पर ले जाना चाहते थे. लेकिन यह हिमशैल का सिर्फ दिखने वाला सिरा है. असल में इसकी भीतरी वजहे और भी हैं. सूत्रों के हवाले से खबर है कि लालू प्रसाद ने नीतीश का तख्तापलट करने की तैयारी कर ली थी. इसके साथ ही जेडी-यू में टूट भी हो जाती. जाहिर है, नीतीश ज्यादा तेज निकले और उन्होंने ब्रह्मास्त्र चला दिया. नीतीश कुमार महागठबंधन में मुख्यमंत्री तो थे लेकिन उनकी हैसियत 80 के मुकाबले 71 विधायकों के साथ जूनियर पार्टनर की ही थी. भाजपा के साथ अब नीतीश पहले की तरह बड़े भैया हो जाएंगे.

हालांकि, बिहार भाजपा में हर कोई नए गठजोड़ से खुश नहीं है लेकिन सुशील मोदी एक बार फिर उप-मुख्यमंत्री बनकर प्रसन्नचित्त होंगे. दूसरी बात, उत्तर प्रदेश में भाजपा की प्रचंड जीत को नीतीश ने कायदे से पढ़ लिया है. यूपी में भाजपा को उन पार्टियों ने भी वोट दिया है जिसे समाज में दुर्बल जातियां कहा जाता है. बिहार में नीतीश भी उन्हीं जातियों का प्रतिनिधित्व करते हैं. अगर 2019 में भाजपा यूपी की तरह बिहार में भी उन जातियों को अपने पाले में कर लेती तो नीतीश के पास जमापूंजी क्या रह जाती? क और वजह तेजस्वी यादव भी रहे. नहीं, उन पर लगे भ्रष्टाचार के आरोप नहीं. नीतीश तेजी से सीखते तेजस्वी को पैर जमाते देख रहे थे और उनको विवादित करके छोटा कर देना भी एक मकसद रहा होगा.

दूसरी तरफ, भाजपा के लिए 2019 से भी फौरी जरूरत थी गुजरात के चुनाव. भाजपा गुजरात विधानसभा को खोने नहीं देने के लिए कितनी बेताब है इसका अंदाजा हालिया महीनों में वहां बढ़ गए प्रधानमंत्री के दौरों से लग जाता है. गुजरात में भाजपा के वोट बैंक रहे पटेल पार्टी से नाराज चल रहे हैं और सड़कों पर सरकार के खिलाफ पटेलों की उमड़ी भीड़ भाजपा के लिए अनिष्टसूचक प्रतीत हो रही थी. गलियारों में चर्चा थी कि हार्दिक पटेल के सिर पर नीतीश कुमार का हाथ था. अब यह महज संयोग नहीं होगा कि नीतीश कुमार उन्हीं कुर्मियों के नेता हैं, जिसे गुजरात में पटेल कहा जाता है. भाजपा को उम्मीद है कि इससे गुजरात में पटेलों के विरोध को एक हद तक साधा जा सकेगा. इस बात को भी संयोग नहीं माना जा सकता है कि राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवार (और अब राष्ट्रपति) रामनाथ कोविंद कोली जाति के हैं, जिसकी तादाद गुजरात में करीब 18 फीसदी है. नीतीश के साथ कोविंद के मीठे संबंध रहे हैं.

अब बच रहे शरद यादव. शरद यादव के बारे में बिना हील-हुज्जत के यह माना जा सकता है कि वह अपने सियासी करियर के आखिरी दौर से गुजर रहे हैं. हालांकि शरद महागठबंधन तोड़ने की मुखालफत कर रहे थे लेकिन उनके राजनीतिक जीवन में वसंत तभी आएगा जब वह भाजपा के साथ जद-यू के इस गठजोड़ को मान लेंगे. जद-यू के अंदरूनी सूत्रों का मानना है कि केंद्र सरकार में शरद यादव के लिए कबीना मंत्री के पद का प्रस्ताव है और शरद इसके लिए सहमत भी हैं.

वैसे राजनीतिक पंडित इस बात के कयास लगा रहे हैं कि जद-यू के 18 मुस्लिम और यादव विधायक टूट के लिए तैयार हैं. लेकिन वैधानिक टूट के लिए 24 विधायकों का होना जरूरी है. अगर यह टूट हुई और कुछ न्य विधायकों को जोड़कर लालू सरकार बनाने का दावा भी करें तो भी शरद यादव को राज्यसभा सीट गंवानी पड़ेगी. उनको दोबारा राज्यसभा में भेजना कठिन होगा. आरजेडी ने मायावती को राज्य सभा में भेजने का वचन पहले ही दे दिया है. ऐसे में बस एक और नाम ख्याल में आता है ममता बनर्जी का, जो मायावती को राज्य सभा भेजने पर हामी भर सकती हैं. लेकिन यह गणित सियासी खामख्याली भी हो सकती है, क्योंकि विश्वस्त सूत्र दावा कर रहे हैं कि शरद जल्दी ही कैबिनेट मंत्री के रूप में शपथ ले सकते हैं. दूसरी तरफ, आरजेडी के कई विधायक तेजस्वी का इस्तीफा चाहते थे और इस टूट से नाराज होकर उन्होंने गुरुवार की बैठक में मौजूद रहना मुनासिब नहीं समझा. एक और कोण कांग्रेस का है और अगर जेडी-यू में कोई टूट होती है तो कांग्रेस में भी तोड़-फोड़ होगी. अभी भाजपा 2019 की तरफ देख रही है तो नीतीश की नजर उससे आगे 2020 (बिहार विधानसभा चुनाव) पर भी होगी. कुल मिलाकर मामला दिलचस्प है, कुछ-कुछ अंकगणित और ज्यामिति के मिले-जुले समीकरण जैसा.

मंजीत ठाकुर

Tuesday, September 29, 2015

परिवार, जाति, और बिपाशा और टीवी पर दिखती टल्ली लड़की

मैं अब अमूमन टीवी पर खबरें देखने की जहमत नहीं उठाता। खासकर निजी चैनलों पर। खबरों का मुहावरा सिर्फ डीडी के पास रह गया है। लेकिन आदत है जो जल्दी जाती नहीं। आदतन टीवी खोला, इस उम्मीद में कि टीवी पर कुछ खबरें देख लूं।

मुझे हैरत नहीं, गुस्सा आया कि अमूमन हर चैनल पर एक ही पट्टी चल रही थी, अगले आधे घंटे बाद नशे में टल्ली लड़की का थाने में हंगामा। विजुअल इम्पैक्ट रहा होगा कुछ उस खबर में। मुंबई देहरादून हर जगह लड़की का नशे में होना खबर बन गया।

टीवी पत्रकारिता में खबर का बिकाऊ होना एक बड़ी शर्त हो गई है। वैसे हैरत होनी नहीं चाहिए। जिस देश में, पैर की बिवाईयां सूखे खेतों में पड़ी दरारों से अधिक महत्वपूर्ण हो, जिस देश में सिर में डैंड्रफ की समस्या किसानों की आत्महत्या से अधिक अहम हो, जहां गोरेपन की क्रीम को महिला के आत्मविश्वास के लिए जरूरी माना जाता हो और जहां एक लड़के-लड़की के रिश्ते की नींव डियोडरेंट की खुशबू हो, वहां नशे में टल्ली लड़की का हेडलाइन होना बनता ही है।

अब इस विषय पर ज्यादा टिप्पणी की जाए तो भी टीवी पर खबरों का कुछ होने वाला नहीं है। बुधवार को नीतीश कुमार भी प्रेस कॉन्फ्रेंस में दिखे। अठारह-उन्नीस साल बाद नीतीश को पता चला कि बीजेपी आरएसएस के कहने पर चलती है। नीतीश की दिक्कत है कि विकास पुरूष वाला उनका तमगा उनसे छिन गया है और वह हवा-हवाई मुद्दे उछालने की कोशिश कर रहे हैं।

इस बीच, खबरों के नाम पर बिहार में महागठबंधन, एनडीए और कथित तीसरे मोर्चे ने अपने प्रायः सारे उम्मीदवारों के नामों की सूची जारी की। टिकट पाने वालों की बल्ले-बल्ले हुई है, बेटिकट कभी प्रेस वार्ता में ही रोए-चीखे-चिल्लाए। बिहार की जनता दम साधे हुई है।

जनता दम साधे देख रही है कि बिहार में एक बार फिर परिवार का दबदबा है। लालू के दोनों बेटे, तेजस्वी और तेजप्रताप टिकट पा गए हैं। यह बात भी कोई हैरत वाली नहीं है। पप्पू यादव इसी वजह से लालू से नाराज़ हुए थे। लालू ने दो टूक कह ही दिया था, उनके बेटे चुनाव नहीं लड़ेंगे तो क्या भैंस चराएंगे।

लेकिन सिर्फ आरजेडी ही नहीं, वंशवाद की बेल एनडीए के घटक दलों लोजपा और हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा में भी काफी हरी है। और उतनी ही ताकतवर यह जेडीयू और कांग्रेस तक है।

लगभग सारी पार्टियों में कार्यकर्ताओं की हैसियत तो कौड़ी के तीन की ही है। इन कार्यकर्ताओ ने पहले बाप के लिए बैनर पोस्टर लगाए अब बेटे और बेटियों के लिए लगाएंगे।

एलजेपी में 3 प्रत्याशी तो पासवान परिवार के ही हैं। रामविलास पासवान के छोटे भाई पशुपति पारस, अलौली से और सांसद रामचंद्र पासवान के बेटे प्रिंस की कल्याणपुर सुरक्षित सीट से चुनाव मैदान में उतर रहे हैं। सहरसा जिले की सोनबरसा सुरक्षित सीट से सरिता पासवान को टिकट मिला है वो रामविलास की रिश्ते में बहू लगती हैं। इस सूची में इस लेख के छपने तक संभवतया कुछ दामाद भी जुड़ जाएं। लोजपा के पूर्व सांसद सूरजभाऩ के साले रमेश सिंह को विभूतिपुर से टिकट मिला है। खगड़िया से लोजपा सांसद महबूब अली कैसर ने अपनी पुश्तैनी सिमरी बख्तियारपुर की सीट पर बेटे यूसुफ को उतारा है।

हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा यानी हम के प्रमुख जीतन राम मांझी के बेटे संतोष और पिता पुत्र शकुनी चौधरी और उनके बेटे राजेश उर्फ रोहित भी उम्मीदवार हैं। चकाई और जमुई सीट पर पेंच हैं। दोनों सीटों पर नरेंद्र सिंह के दो बेटे बीजेपी के टिकट पर चुनाव लड़ेंगे। मांझी ने अपनी ओर से पांच उम्मीदवारों की लिस्ट बीजेपी को भेजी है उसमें इन दोनों के नाम हैं।

बीजेपी में ब्रह्मपुर सीट से सीपी ठाकुर हों या नंदकिशोर यादव, चंद्रमोहन राय हों या हुकुमदेव नारायण यादव या फिर जनार्दन सिंह सिग्रीवाल सब अपने बेटों के लिए जीतोड़ कोशिशों में लगे हैं।

महागठबंधन में लालू परिवार के अलावा आरजेडी सांसद जयप्रकाश नारायण यादव के भाई विजय प्रकाश को जमुई से आरजेड़ी का टिकट मिला है। बरबीघा सीट से पूर्व सांसद राजो सिंह के पोते सुदर्शन को टिकट दिया गया है।

वंशवाद तो खैर अब बिहार की राजनीति में आम बात है लेकिन चिंता की बात यही है कि चुनाव अभी भी जाति के आधार पर ही लड़ा जा रहा है। कोई मुद्दा उछालने की बात करे, तो बिजली-पानी-सड़क यानी बिपाशा ही चुनावी मुद्दा है। जनता बुनियादी मसलों के लिए वोट देने का मन बना भी रही हो, लेकिन नेताओं के लिए परिवार ज्यादा अहम है। शायद उनके मन में यही बात रही हो कि परिवार ठीक करो, तो दुनिया ठीक हो जाएगी। उधर, इंतजार इस बात का भी है टीवी वाले नशे में धुत्त किसी और लड़की का वीडियो खोज निकालें, चुनाव के बीच जनता का रसरंजन भी तो होते रहना चाहिए। इंशाअल्लाह।

Saturday, September 12, 2015

बिहार का विकास एक साजिश है

देखिए, सीधी बात नो बकवास। बिहार को विकास का लालच दिया जा रहा है। लालच बुरी बलाय। पहले तो एक मुख्यमंत्री भये, जिनने सुशासन बाबू का तमगा हासिल किया। उनने जंगल राज के खिलाफ जंग लड़ी। जीते। दस साल मुख्यमंत्री हुए। बिहार का विकास करने की बात कही। अब कह रहे हमको एक टर्म और दीजिए, तब विकास करेंगे।

विकास न भया, डायनासोर का अंडा हो गया।

एक हैं लालू प्रसाद। खुद्दे सीएम रहे, बीवी को भी बनाया। अब बेटी या बेटा में से किसी को बनाना चाह रहे हैं। बेटा को ही बनाना चाह रहे होंगे। उन्ही के राज में पटना हाई कोर्ट ने बिहार के शासन को जंगल राज कहा था।

उनके दौर की बहुत कहानियां हैं जनता के मन में। भूले नै होंगे लोग। नीतीश के दौर की बहुत कहानियां है। उधर प्रधानमंत्री आए तो उनने भी विकास की बात कहकर पता नहीं कितने लाख रूपये बिहार को देने की बात कह डाली। हम अभी तक सही-सही अंदाजा नहीं लगा पाएं है कि कितने जीरो होते हैं सवा लाख करोड़ रूपये में।

बात सौ टके की एक कि आखिर विकास इतना जरूरी ही क्यों है। क्या देश के विकसित राज्यों में लोग ज्यादा सुखी हैं?

मानिए हमारी बात, बिहार को विकसित होने देने या विकास के रस्ते पर जबरिया ठेलने की कोय जरूरत नहीं है। चल रहा है अपना टकदुम-टकदुम। चलता ही रहेगा। दिल्ली, चंडीगढ़, मुंबई जिस जगह पहले पहुंचेगा, पटना-मुजफ्फरपुर-भागलपुर बाद में पहुंच लेगा।

हम तो सबके भले की सोचते हैं। आखिर लोग गरीबी कहां देखने जाएंगे अगर बिहार से भी गरीबी खत्म हो जाएगी? टूटी हुई सडकें कहां मिलेंगी अगर पटना से लेकर गया तक सारी सडकें चकाचक-चमाचम बन जाएंगी।

बाढ़ में हलकान लोग देखने के लिए असम मत भेजिए। बिहार में बाढ़ पर्यटन उर्फ फ्लड टूरिज़म की अपार संभावनाएं हैं। सड़क-घर-गली-मुहल्ल-रेल लाईन पर पानी। बढ़ता पानी-चढ़ता पानी। मचान पर लटककर बैठे लोग। रेल लाईन से उकडूं बैठकर हगते हुए कतारबद्ध लोग। आप क्या यह नहीं चाहते कि देश में टूरिज़म का विकास हो? पॉवर्टी टूरिज़म?

तो सुनिए, बिहार भी विकसित हो जाएगा तो कुपोषण और गाल धंसे लोगों की तस्वीर उतारने कहां जाएंगे लोग? सोमालिया? घोर अन्याय है यह तो। देश में बिहार हो, तो सोमालिया क्यों जाएंगे आप? बेवजह पासपोर्ट वगैरह का झंझट। बस आपको इतना करना है कि किसी भी बिहार जाने वाली ट्रेन में लटक सकने की कूव्वत हो, तो लटक लीजिए वरना फ्लाइट से पटना उतरिए और शहर से दूर किसी गांव में पहुंचिए।

कुपोषण के शिकार लोगों की एक नहीं सौ तस्वीरें मिलेंगी आपको। गृहयुद्ध कवर करना है? हुतू-तुत्सी जनजातियों के लिए इथयोपिया क्यों....गया की तरफ निकलिए। चाहे तो भोजपुर की तरफ निकल लें।

बिहार के लोग कच्ची सड़क, अंधेरे, गंदगी को एन्जॉय करते हैं और यह बात सत्ताधारी जानते हैं। आज से नहीं दशकों से जानते हैं। लेकिन इस बात का आतमगेयान सबसे पहले जगन्नाथ मिश्र को हुआ था, लालू ने इस बात की नब्ज पकड़ ली और यह भी तथ्य स्थापित किया कि तरक्की वगैरह से बिहारियों का दम घटने लगता है। और सड़क पुल वगैरह बनाना भी बेफजूल की बातें हैं। लालू काल में ही यह बात सत्तावर्ग ने स्थापित कर दी, जिनको विकास, शिक्षा वगैरह की बहुत चुल्ल मची हो, वह दिल्ली पुणे, मुंबई की तरफ निकलें। वहीं पढ़ें लिखे, नौकरी करें। बिहार आकर क्या अल्हुआ उखाड़ेंगे या कोदो बोएंगे?

नीतीश ने भी शुरू-शुरू में रोड-वोड बनाकर बिहार का सत्यानाश करना चाहा। तब जाकर उनको इल्म हुआ कि चुनाव-फुनाव विकास वगैरह के घटिया कामों से नहीं जाति के शाश्वत तरीके से जीते जाते हैं। और नतीजा सबके सामने है।

असल में, यह नया नेता वर्ग बिहार का विकास करके सबको बरगलाना चाहता है। यह चाहता है कि बिहार के बच्चे लालटेन की रोशनी की बजाय बिजली में पढ़ा करें। ताकि उस टाइम टीवी भी चले और वह पढ़ नहीं पाएं। यह बिहारी प्रतिभा को कुंद करने का एक तरीका है। सोचिए, बिजली नहीं होगी तो टीवी चलेगी? टीवी जैसे भ्रमित करने वाले माध्यम नहीं होगे तो बच्चे मन लगाकर पढ़ेंगे भी।

बताइए तो सही, हर साल बाढ़ न आए, हर साल मिथिला इलाके में, झोंपड़ों की शक्ल में बने घर बह न जाएं, तो बिहार की छवि का क्या होगा? दांत चियारे हुए दयनीय दशा में लोग...हाथ फैलाए हुए लोग। कभी राज ठाकरे तो कभी उल्फा के हाथों लतियाए जाते लोग...कभी दिल्ली में बिहारी की गाली सुनने वाले और उस पर मुस्कुराकर अपमान पी जाने वाले लोग...विकास हो जाएगा तो इनका क्या होगा?

अपनी भाषा, संस्कृति और स्मिता पर गर्व करना एक साजिश का हिस्सा है। और विकास उस साजिश का केन्द्र बिन्दु है। प्लीज बिहार का विकास मत करिए। वह अपने कद्दू-करेला में खुश है।



Thursday, September 10, 2015

वोटबैंक की बाज़ी और ओवैसी का इक्का

पिछले कुछ दिनों में दो ऐसी घटनाएं हुई हैं, जिनका सीधे तौर पर आपस में कोई संबंध नहीं है, लेकिन बिहार में चुनावी बिगुल का सुर ज्यों-ज्यों शोर में बदलता जाएगा, इन दो घटनाओं का आपसी रिश्ता भी शीशे की तरह साफ होता जाएगा।

पहली घटना है, रजिस्ट्रार जनरल एंड सेन्सस कमिश्नर के धार्मिक आधार पर जनसंख्या के आंकड़े जारी किया जाना और दूसरी है बिहार के किशनगंज में ओवैसी की रैली।

आबादी वाली बात पहले। जारी किए गए आंकड़ों के मुताबिक, पिछले एक दशक में (2001-11) हिन्दुओं की आबादी 0.7 फीसद कम हुई है और मुसलमानों की 0.8 फीसद कम हुई है। इसतरह भारत की कुल आबादी के 78.8 फीसद हिन्दू और 14.2 फीसद मुसलमान हैं। आबादी की दशकीय वृद्धि दर हिन्दुओं में 16.8 फीसद और मुसलमानों में 24.6 फीसद है।

दूसरी तरफ, बिहार की चुनावी फिज़ां में अब डीएनए, पैकेज, जंगलराज की वापसी जैसे जुमले उछल रहे हैं। इस सबके बीच एमआईएम नेता ओवैसी भी डार्क हॉर्स बनने की तैयारी कर रहे हैं। सीधे तौर पर इसका नुकसान नीतीश-लालू गठबंधन को उठाना पड़ेगा। लालू का वोट बैंक माई यानी मुसलमान और यादव का रहा है। साल 2004 तक उनका यह समीकरण कारगर रहा था। लेकिन इस दफा कनफुसकियां हैं कि बीजेपी 60 से अधिक यादवों को टिकट देने वाली है, और ऐसा अगर सच साबित हो तो हैरत की बात नहीं होगी।

प्रधानमंत्री मोदी भी अपनी रैलियां उस इलाके में कर रहे हैं जहां बीजेपी की स्थिति कमज़ोर रही थी। पटना की 14 में से 6 और सहरसा की 18 में से केवल एक सीट बीजेपी के पास है। मगध में 26 में 8, भोजपुर में 22 में 10 और दरभंगा में तो 37 में से सिर्फ 10 सीट ही बीजेपी के पास है। मोदी की अगली रैली भागलपुर में है और यह क्षेत्र बीजेपी के वरिष्ठ नेता और प्रमुख मुस्लिम चेहरा मोहम्मद शाहनवाज हुसैन का है जहां बारह विधानसभा सीटों में से बीजेपी के पास केवल 4 हैं।

लालू के साथ हाथ मिलाने से पहले नीतीश ने यही उम्मीद की होगी कि आरजेडी-जेडीयू गठजोड़ से यादव और मुस्लिम वोटबैंक को एकजुट किया जा सकेगा। लेकिन एक तरफ बीजेपी, यादव उम्मीदवारों के जरिए यादव वोटबैंक में फूट डालने की तैयारी में लगी है, वहीं दूसरी तरफ ओवैसी ने बिहार चुनाव के जरिए राष्ट्रीय राजनीति में एंट्री की खबर देकर इनकी परेशानी को और बढ़ा दिया है। हालांकि बिहार में ओवैसी की पार्टी कितनी सीटों पर लड़ेगी यह अभी तय नहीं हो पाया है, लेकिन पार्टी मुस्लिमबहुल क्षेत्र में 20 से 25 उम्मीदवारों को उतार सकती है।

पूरे बिहार में 16 फीसद से अधिक मुसलमान वोटर हैं जबकि सीमांचल के किशनगंज में 70, अररिया में 42, कटिहार में 41 और पूर्णिया में 20 फीसद वोटर मुस्लिम हैं। इनकी यह संख्या यहां के चुनावी गणित में उलटफेर करती आई है। लोकसभा चुनाव में इन सीटों पर बीजेपी बुरी तरह हारी थी। ऐसे में यहां अगर ओवैसी अपने उम्मीदवार उतारते हैं, तो फिर लालू-नीतीश के वोट बैंक में सेंध लगना तय है।

पहले तो नीतीश कुमार ने ही उनके माई में से एम यानी मुस्लिम और वाई यानी यादव को दोफाड़ कर दिया था। 2009 और 2010 के विधानसभा चुनावों में मुस्लिम वोटरों ने जेडी-यू का दामन थाम लिया था।

इसके साथ ही अगर लोकसभा के चुनाव में एनडीए का रिपोर्ट कार्ड देखें, तो 19 फीसद यादवों ने एनडीए को वोट दिया था। और अब अगर लालू से छिटका हुआ मुस्लिम मतदाता ओवैसी में अपना रहनुमा देखता है तो यह न सिर्फ बीजेपी की ताकत को अजेय करेगा, बल्कि आरजेडी-जेडीयू के मजबूत दिखते किले को ताश का महल बना देगा।

ओवैसी सिर्फ वोट ही नहीं काटेंगे। ओवैसी की छवि हिन्दुओं के पूज्य राम और सीता को लेकर उलजलूल बकने वाले की भी रहेगी। अब, जब जनगणना के आंकड़ों में यह बात आ गई है कि मुस्लिमों की आबादी हिन्दुओं के मुकाबले ज्यादा तेजी से बढ़ रही है तो इस बात को बीजेपी चुनाव में शर्तिया मुद्दा बनाएगी। और हां, यूट्यूब पर ओवैसी का वह ज़हरीला भाषण अभी भी पड़ा हुआ है, तकनीकी प्रचार में महारत हासिल की हुई बीजेपी उसको भी दिखाएगी। यानी, बिहार की राजनीति में ध्रुवीकरण का खेल अभी बाकी है।

Monday, August 24, 2015

बिहार की लॉटरी

लोकसभा चुनाव देश में एक लहर का चुनाव था। उस चुनाव की गर्द साफ होने से पहले कुछ राज्यों में भी चुनाव हुए और कमोबेश बीजेपी ने ही जीत दर्ज की। लेकिन बिहार का मामला झारखंड या हरियाणा या महाराष्ट्र से अलहदा है।

अलहदा इसलिए है क्योंकि नीतीश कुमार प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के एकमात्र सियासी प्रतिद्वंद्वी बने हुए हैं। नीतीश कुमार ने हालांकि अपनी सेकुलर छवि के लिए जमी-जमाई विकास पुरुष की छवि का त्याग कर दिया। अब यह इमेज प्रधानमंत्री के साथ जाकर जुड़ गई है।

मीडिया इस चुनाव को युद्ध से कम कवरेज नहीं दे रहा और असल में नीतीश के लिए यह सियासी जीवन-मरण का प्रश्न है। लालू इस लड़ाई में तीसरा कोण बन गए हैं।

बहरहाल, प्रधानमंत्री मोदी ने बिहार पर पूरा ध्यान केन्द्रित कर रखा है। बिहार में चार रैलियों में मोदी ने विकास का ही नारा दिया है। उन्होंने बिहार के लिए आर्थिक पैकेज के लिए एक सस्पेंस बनाकर रखा था और मुजफ्फरपुर या गया की रैलियों की बजाय पारे को चढ़ने देने का इंतजार किया।

लेकिन लंबे इंतजार के बाद बिहार को आखिरकार विशेष आर्थिक पैकेज मिल ही गया। कुप्रबंध, कुप्रशासन और नजरअंदाजी की वजह से बिहार में सड़को, पुलों और बाकी बुनियादी ढांचे पर नीतीश काल से पहले शायद ही कोई काम हुआ था। बिहार में एनडीए वाली नीतीश की सरकार बनी तबतक केन्द्र में कांग्रेस सरकार आ चुकी थी और बिहार को वह समर्थन नहीं मिला था, जिसकी उसे जरूरत थी।

अब प्रधानमंत्री ने आरा की रैली में 1.25 लाख करोड़ के बिहार पैकेज का ऐलान किया है। साथ ही यह भी साफ किया कि इस पैकेज में 40 हज़ार करोड़ के बिजली संयत्र के मिले पैकेज शामिल नहीं है।

वैसे बिहार को जो मिला है उनमें से कुछ की घोषणा बजट में पहले ही की जा चुकी है और कुछ ऐसी हैं जो सौ टका नई हैं। इस सवा लाख करोड़ में से 54,713 करोड़ रूपये राष्ट्रीय राजमार्ग बनाने में खर्च होंगे। ग्रामीण विकास का एक बड़ा हिस्सा है प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना और उसके लिए 13,820 करोड़ रूपये हैं। यानी पूरे पैकेज का तकरीबन आधा हिस्सा सड़क संपर्क बहाल करने पर है।

वैसे इस पैकेज की खास बात है कि इसमें रूपये की कानी कौड़ी भी राज्य सरकार अपनी मर्जी से खर्च नहीं कर सकती। आमतौर पर राज्यों को सीधे पैसा दिया जाए तो वहां की सरकार उसे लोकलुभावन कार्यों पर खर्च करना पसंद करती हैं, न कि दीर्घकालिक ढांचे खड़े करने में। कुछ ऐसा ही मसला ऐन चुनाव के वक्त तेलंगाना राज्य के गठन का फैसला भी था।

अब सवाल है कि प्रधानमंत्री ने अगर बिहार के लिए पैकेज दिया है तो क्या सियासी रूप से सटीक यह कदम नैतिक रूप से सही नहीं है? जनता की याद्दाश्त कमजोर होती है। तो कांग्रेसनीत पहले यूपीए की सरकार ने किसानों के लिए चुनावों से ऐन पहले करीब 70 हजार करोड़ रूपये की किसान ऋण माफी योजना चलाई थी। असली किसानों को कितना फायदा मिला था यह तो किसान ही जानें, लेकिन यूपीए ने सत्ता में वापसी की थी।

वैसे नीतीश कुमार के लिए बुरी खबर है कि असद्दुदीन ओवैसी की मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन पार्टी आने वाले बिहार विधानसभा चुनाव में 25 सीटों पर अपने उमीदवार खड़े कर सकती है। बस अब औपचारिक घोषणा करना बाक़ी है। 16 अगस्त को किशनगंज में ओवैसी का भाषण इस तरफ एक ठोस क़दम था।

अभी तो स्थिति यह है कि बिहार में हर बड़े शहर में सभी मुख्य चौर चौराहों की होर्डिंगों पर नीतीश कुमार टंगे हुए हैं। बीजेपी स्टेशनों पर अपने होर्डिंग लगाकर काम चला रही है।

सवाल यह है कि क्या ‘बिहार में बहार हो, नीतीशे कुमार हो’ का प्रशांत किशोर का गढ़ा हुआ नारा चल पाएगा या लोकसभा चुनाव में मोदी लहर का सक्रिय साझीदार बना बिहार इस दफा फिर से उसे दोहराएगा।

फिलहाल बिहार की जनता सवा लाख करोड़ में लगने वाले शून्य गिन रही है।

Sunday, August 23, 2015

बिहारी अस्मिता का डीएनए

बिहार के चुनाव में इस बार किसिम-किसिम की बातें सुनी जा रही हैं। वैसे हमेशा से सुनी जाती हैं। लेकिन जिस राज्य में राजनीति लोगों को घलुए में मिलती है, उसमें मुद्दों को ज़मीन से हवा की तरफ कैसे मोड़ दिया जाता है, इस बार का चुनाव उसकी मिसाल है। बरसो पहले बीजेपी-जदयू गठजोड़ ने लालू के जंगल राज के खिलाफ नीतीश के विकास पुरुष की छवि गढ़ी थी। तब बिहार के लोग लालू-राबड़ी राज से दिक हो चुके थे और नीतीश कुमार में उनको अपना तारणहार नज़र आया था।

इस बार युद्ध में आमना-सामना मोदी और नीतीश का है। लालू सपोर्टिंग रोल में हैं। इस बार लालू को सपोर्टिंग रोल में कुछ अच्छा रिजल्ट नहीं मिला तो उनके लिए अगले कुछ साल के लिए परिदृश्य से गायब हो जाने का ख़तरा है।

तो विकास पुरुष नीतीश कुमार की मजबूती विकास का नारा था और उनके लिए यह जाति से ऊपर जगह रखता था। लेकिन, कुरमी-कोइरी उनका भी वोटबैंक था, और फिर उनका महादलित प्रयोग भी था, जिसमें बीजेपी सेंध लगाने की जुगत में है और सामाजिक अभियांत्रिकी का बारीक समीकरण भी नीतीश ने ही भिड़ाया था।

वही नीतीश इस दफा, सब कुछ छोड़छाड़ कर डीएनए सैंपल एकत्र कर रहे हैं। वह केन्द्र को 50 लाख डीएनए सैम्पल की बजाय नाखून और बाल लिफाफे में भिजवा रहे हैं।

नीतीश कुमार ने इस बार की लड़ाई में समझिए ब्रह्मास्त्र छोड़ा है, और वह है बिहारी अस्मिता का। डीएनए सैंपल भिजवाना उसी लड़ाई की घेराबंदी है। लेकिन इस अस्मिता अभियान की कई समस्याएं है। पहली तो यही कि उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और बिहार जैसे सूबे खुद को हिन्दुस्तान मानते हैं और ऐसे सूबों में अस्मिता का सवाल गौण हो जाता है।

दिल्ली में बिहार के लोगों को बिहारी कहा जाता है और तकरीबन गाली की तरह इस्तेमाल किया जाता है। लेकिन वहां अस्मिता का सवाल ही खड़ा नहीं होता। बिहार में सांस्कृतिक और भाषायी अस्मिता पर कभी बात नहीं होती। ऐसा मान लेना मुश्किल है कि बिहार में मिथिला के अलग राज्य (भाषायी आधार पर) के लिए कोई जबरदस्त आंदोलन कभी जड़ें जमा सकेगा।

आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु या कर्नाटक में भाषायी अस्मिता की तगड़ी पहचान है। लेकिन वहां अब चुनाव भाषा या अस्मिता के सवाल पर नहीं लड़े जाते। महाराष्ट्र में महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना है, जो शिव सेना की कार्बन कॉपी बनने के जुगाड़ में थी। अस्मिता के प्रश्न पर तेलुगुदेशम, या असम गण परिषद् सत्ता में आई थी। लेकिन शिवसेना के शक्ति अर्जन या बाकी के सत्ता में आने के दशक से लेकर अब तक गंगा में काफी पानी बह गया है तो एक सीधा सवाल बनता है कि अस्मिता का प्रश्न अब इन राज्यों से बिहार की तरफ कैसे आ गया।

नीतीश कुमार के खिलाफ बिहार में एक तो सत्ता-विरोधी लहर है ही और हर सत्तारूढ़ पार्टी को इसे झेलना ही होता है। लेकिन वोटों के बिखराव को रोकने के लिए जिसतरह उन्होंने अपने ही धुर विरोधी के साथ कदमताल किया है। गठजोड़ बनाना सामान्य बात है लेकिन फिर ट्विटर पर उनका बयान कि उन्होंने ज़हर पिया है, शायद उनके पक्ष में नहीं रहा। नीतीश के उस बयान को नरेन्द्र मोदी ले उड़े, और गया की रैली में तो उन्होंने मज़ाकिया लहजे में पूछा भी कि आखिर इनमें भुजंग प्रसाद कौन है और चंदन कुमार कौन?

जाहिर है, मोदी विकास के अपने उन सपने के वायदों पर कायम हैं जो उन्होंने बिहार की जनता को लोकसभा चुनाव के दौरान दिए थे। वह कहते भी है कि चुनाव की वजह से हम घोषणा नहीं कर सकते। यानी उनके पत्ते अभी खुले नहीं हैं। लेकिन आंकड़ों में सटीक रहने वाले मोदी बीमारू राज्यों में बिहार की गिनती करते हुए यह भूल गए कि पिछले कुछ साल में बिहार की वृद्धि दर बेहद शानदार रही थी। राष्ट्रीय औसत से काफी बेहतर। लेकिन भावनात्मक मुद्दे उछालने का जो आरोप कभी बीजेपी पर लगता था, वह इस बार जेडी-यू पर लग रहा है।

मोदी ने कहा था लोकतंत्र नीतीश के डीएनए में नहीं है। नीतीश ने उसमें से सिर्फ डीएनए को उठाया। अब वह इस मसले को दलितो-महादलितों को कैसे समझाएंगे? शायद इस तरह कि, केन्द्र से आकर एक प्रधानमंत्री ने बिहारियों को गाली दी है।

लेकिन, नीतीश को पता होगा ही कि बिहारियों को गाली सुनने की आदत है। दिल्ली, मुंबई, कोलकाता में मजूरी कर रहे बिहारियों का अपमान होता रहा है, और 2005 से जब से नीतीश कुमार बिहार के मुख्यमंत्री रहे, उन्होंने बिहार की अस्मिता का सवाल कभी नहीं उठाया था। शक तो जाहिर है होगा ही।