Thursday, April 28, 2016

सूखे की वजह है सूखती परंपराएं

अभी अखबार भरे पड़े हैं, सूखे से जुड़ी खबरों से। आज एक खबर देखी, मय फोटो के। खबर थीः झारखंड के कुछ इलाकों में लोग रेत ढोने वाले ट्रकों से रिसते हुए पानी को बाल्टियों में इकट्ठा कर रहे हैं।

खबरें हैं, और बड़ी हिट खबरें हैं कि सूखा प्रभावित क्षेत्रो में पानी ट्रेन के ज़रिए पहुंचाया जा रहा है। हम मानते हैं कि देश में सूखा बड़ा खतरनाक है। वैज्ञानिक इसका ठीकरा (जाहिर है, वैज्ञानिक तर्को और तथ्यों के साथ) पिछले साल अल नीनो और इस बार ला-नीना पर फोड़ रहे हैं।

मैं अल नीनो और ला-नीना की व्याख्या नहीं करूंगा। जरूरत भी नहीं। लेकिन देश में यह अकाल कोई पहली दफा तो नहीं आय़ा होगा! पानी की जरूरत पूरा करने के लिए हम हमेशा पानी के आयात पर ही क्यों निर्भर रहते हैं?

मित्रों, दुनिया में वॉटरशेड मैनेजमेंट भी एक चीज़ होती है। हिन्दी में इसे जलछाजन प्रबंधन कहते हैं। यह पानी जमा करने की तकनीक है। इस तकनीक में कुछ भी नासा की खोज नहीं है। बहुत मामूली तकनीक है कि किसी भी इलाके के सबसे ऊंचे बिन्दुओं के बीच का इलाका जलछाजन क्षेत्र कहलाता है और इस क्षेत्र में बरसे हुए पानी को जमा करके और उसी के हिसाब से उसको खर्चे करने की कोशिश करनी चाहिए। जलछाजन क्षेत्र में उपलब्ध पानी के ही हिसाब से फसलों का चयन भी करना चाहिए। यानी, यह तकनीक पानी को करीने से खर्च करने की भी बात बताता है।

अब जरा, फसलों के चयन की बात करते हैं। ज़रा बताइए तो, कम पानी के इलाको में धान उगाने की बुद्धि किसने दी थी? पंजाब जैसे कम पानी के इलाके में बासमती क्यों उगाया जाता है? जिस झारखंड के सूखे की बात मैंने बिलकुल शुरू में की है, वहां 170 सेंटीमीटर से अधिक बरसात होती है। कहां जाता है सारा का सारा पानी?

साफ है कि हम सारे पानी को यूं ही बह जाने देते हैं।

सूखे से बचाव के लिए, या खेतों और घरों तक पानी पहुंचाने के लिए बाध बनाकर नहर से पानी पहुंचाना फौरी फायदा दे सकता है। लेकिन, नहरों के किनारे मिट्टी में लवणता भी पैदा होती है। सिंचाई के लिए ट्यूबवैल से पानी खींचेंगे, तो भूमिगत जल का स्तर पाताल जा पहुंचता है। ज़मीन में दरारें फटती हैं। पंजाब, हरियाणा में ऐसी बहुतेरी जगहें हैं जहां जमीन में गहरी दरारें फट गई हैं।

बुंदेलखंड में तालाबों की बड़ी बहूमूल्य परंपरा रही थी, लेकिन आधुनिक होते समाज ने तालाब को पाटने में बड़ी तेजी दिखाई। मदन सागर, कीरत सागर जैसे बड़े तालाब कहां हैं आज बुंदेलखंड में। उनमे गाद भर गई है। गाद हमारे विचारों में भी है इसलिए हमने तालाबों को उनके हाल पर छोड़ दिया है।

खेतों में आहर-पईन की व्यवस्था खत्म हो गई। तो भुगतिए। अब भी देर नहीं हुई है। तालाबों को फिर से जिंदा करने की जरूरत है। नए तालाब खोदने की जरूरत है, लेकिन ठेकेदार के मार्फत नहीं, गंवई तकनीक के ज़रिए। तालाब यानी जलागार, नेष्टा वाला तालाब। जैसलमेर के पास नौ तालाब एक सिलसिलेवार ढंग से बने हैं। यानी एक में पानी जरूरत से ज्यादा हो जाए तो नेष्टा, यानी निकास द्वार के जरिए पानी दूसरे तालाब में जाकर जमा हो।

असल में हमारे पुरखे, बूंद-बूंद पानी की कीमत समझते थे। तभी तो बिहार के लखीसराय के राजा को एक चतुर पंडित ने सूखे के दौरान चतुराई भरी सलाह दी थी। राजा अपनी रानी को अपरूप सुंदर बनाना चाहता था। पंडित ने कहा कि रानी साल में हर रोज अलग-अलग तालाब के पानी से नहाए तो उसके चेहरे की चमक हमेशा बरकरार रहेगी। आनन-फानन में राजा की आज्ञा आई, और लखीसराय के इलाके में तीन सौ पैंसठ तालाब खुद गए।

रानी ताउम्र सुंदर बनी रही कि नहीं पता नहीं। लेकिन उस इलाके को अकाल का कभी सामना नहीं करना पड़ा।

तो बात बड़ी सीधी है। अभी भी यह फैसला लिया जाए कि फसलों को पानी की उपलब्धता के आधार पर उगाया जाएगा। जिस इलाके मे पानी कम है वहां धान उगाने की जिद मत कीजिए। थोड़ी देर बाजार को भूलिए। वैसे भी, ज्वार-बाजरा उगाने और खाने में हेठी है क्या?

बरसात के पानी को इकट्ठा कीजिए। हर घर की छत से पानी बरबाद होता है बरसात में। छत के पानी को जमा कीजिए। अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है।

मंजीत ठाकुर

Friday, April 22, 2016

वाइ दिस कोलावरी दीदी?

पहली नज़र में देखिए तो ममता बनर्जी बौखलाहट में दिखाई देती हैं। उनकी सरकार के कई मंत्रियों पर और तृणमूल कांग्रेस के कई नेताओं पर भ्रष्टाचार के संगीन मामले हैं। शारदा चिट फंड घोटाले से लेकर नारद स्टिंग तक और कोलकाता में फ्लाई ओवर गिरने तक ममता बनर्जी को जवाब नहीं सूझ रहा है।

चुनावी मंचों से ममता बनर्जी न सिर्फ वाम मोर्चें के खिलाफ आग उगलती दिख रही हैं बल्कि वह अपने पुराने साथी बीजेपी के खिलाफ खासकर प्रधानमंत्री के खिलाफ कड़े तेवरों में बोल रही हैं। जबकि, बंगाल में ममता के खिलाफ बीजेपी बहुत ज्यादा कुछ कर पाएगी इसकी उम्मीद कम ही है। बल्कि बीजेपी की मिलने वाली संभावित बढ़त से ममता को उन सीटों पर फायदा ही होगा, जहां अल्पसंख्यक वोटों का ध्रुवीकरण वह अपने पक्ष में चाह रही हैं, और जहां उनकी पार्टी अभी भी कमजोर है। यह इलाके उत्तरी बंगाल के मुर्शिदाबाद, मालदा जैसे जिले हैं, और यह कांग्रेस का गढ़ है।

तो फिर सवाल तो बाजिव है कि वाई दिस कोलावरी दीदी?

यह बात भी है कि आचार संहिता उल्लंघन मामले में ममता बनर्जी की मुश्किलें बढ़ती जा रही हैं। असल में, इस मुश्किल में फंसने के लिए ममता बनर्जी खुद ही जिम्मेवार हैं। मैं हर बार कहता हूं कि जिस एरोगेंस या अकड़फूं की वजह से पश्चिम बंगाल की जनता ने वाम मोर्चा को सत्ता से बेदखल कर दिया और सत्ता की चाबी तृणमूल कांग्रेस को सौंप दी, वही अकड़ अब तृणमूल कांग्रेस में भी दिखने लगी है।

असल में, आसनसोल की एक चुनावी रैली में ममता बनर्जी ने आसनसोल को ज़िला बनाने का वायदा कर दिया। यह सरासर आदर्श आचार संहिता के उल्लंघन का मामला था। जाहिर है, चुनाव आय़ोग फौरन हरकत में आया और एक नोटिस ममता बनर्जी को थमा दी।

लेकिन, इसके बाद सामने आय़ा ममता के वह बेपरवाह रवैया जो खलने वाला है। ममता को मिले नोटिस का जवाब पश्चिम बंगाल के मुख्य सचिव ने दिया था। अब आयोग ने जो नोटिस दिया था वह अखिल भारतीय तृणमूल कांग्रेस के अध्यक्ष को था न कि पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री को। लेकिन जवाब मुख्य सचिव ने दिया। सरकारी तंत्र पर सत्ताधारी दल के शिकंजे की यह एक अलग कहानी है।

संयोग से, ममता बनर्जी को जिस दिन नोटिस मिला वह पहला बैशाख था, यानी बंगाली नए साल का पहला दिन। ममता ने वीरभूम की रैली में बिफर कर कहा था कि मुझे नोटिस के बारे में पता चला। जो मैंने कहा, वह फिर कहूंगी। एक हजार बार कहूंगी। एक लाख बार कहूंगी। जो करना है कर लो। यदि कोई मेरे खिलाफ झूठी अफवाह फैलाएगा, तो मैं जवाब मांगूंगी।’

यह सरासर एक संवैधानिक संस्था पर प्रहार था और एक तरह से अवमानना भी। बहरहाल, चुनाव आयोग ने ममता बनर्जी की तरफ से पश्चिम बंगाल के मुख्य सचिव द्वारा दिए गए जवाब को खारिज कर दिया और कहा कि इस नोटिस का जवाब खुद ममता बनर्जी को देना चाहिए और इसके लिए आयोग ने आखिरी तारीख 22 अप्रैल की तय कर दी।

आयोग की चिट्ठी की भाषा कड़ी है और उसमें साफ लिखा है कि आचार संहिता उल्लंघन के मामले में नोटिस पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री को नहीं, बल्कि तृणमूल कांग्रेस की नेता ममता बनर्जी को दिया गया था, लिहाजा, इसका जवाब भी उन्हें ही देना चाहिए।

आयोग ने जोर दिया है कि अगर ममता इस नोटिस का जवाब 22 अप्रैल तक देने में नाकाम रहती हैं तो उसके बाद आयोग उनकी राय सुने बिना अपना फैसला ले सकता है।

इधर, आयोग ने ममता के नजदीकी माने जाने वाले और सत्ताधारी दल के पक्ष में पक्षपातपूर्ण रवैया अपनाने के आरोप में कोलकाता के पुलिस कमिश्नर राजीव कुमार को पहले ही हटा दिया।

ममता शाय़द इस बात से भी काफी नाराज़ चल रही हैं। नारद स्टिंग के मामले में भी ममता को बचाव में कुछ सूझ नहीं रहा और ऐसे में ममता यही कह रही हैं कि अगर यह स्टिंग चुनाव की प्रक्रिया से पहले आ गया होता तो शायद वह अपने उम्मीदवार बदल लेतीं।

तो क्या यह समझा जाए कि ममता बनर्जी बौखला गई हैं। लेकिन चालीस दिनों का मेरे अपने बंगाल प्रवास का अनुभव यही कह रहा है कि ममता—भले ही कुछ कम सीटों के साथ—सत्ता में वापसी कर रही हैं। तो उनकी बौखलाहट किस लिए? या यह उनके स्वभाव का हिस्सा बन चुका है?

लेकिन चुनावी घमासान के बीच चुनाव आयोग के साथ इस तरह आमने सामने की लड़ाई में उतरी ममता लोकतंत्र के पर्व को खटास से भर रही हैं यह तय है।


मंजीत ठाकुर

Friday, April 15, 2016

बंगाल के वोटर की सेहत का मेडिकल बुलेटिन

मेरे एक दोस्त ने मुझसे पूछा, बंगाल के लोगों की सेहत कैसी है? तभी से मैं सोच रहा हूं कि बंगाल में किसकी सेहत के बारे में बयान किया जाए?

बंगाल में दो तरह के लोग हैं। एक वोटर है, दूसरा नेता है। इन वोटरों में कुछ कैडर हैं, कुछ गैर-कैडर समर्थक हैं। कुछ विरोधी हैं, सबकी सेहत का हाल तकरीबन एक जैसा है।

कैडर का क्या है, जिन कैडरों को वाम ने 34 साल तक पाला-पोसा, उनमें से बेहद प्रतिबद्ध को छोड़कर, बाकी लोग तृणमूल की तरफ मुड़ गए।

जहां तक वोटर का सवाल है, कुछ वोटर बम बना रहे, कुछ खा रहे हैं। पिचके हुए गाल, और पेट के साथ राजनीतिक प्रतिबद्धता बरकरार है। उन्हें लगातार कायदे से प्रशिक्षण दिया जा रहा है कि जीवन व्यर्थ है और उसे अपने पितृदल-मातृदल के लिए निछावर कर देना ही मानव जीवन का सही उपयोग है। सेहत सिर्फ नेताओं की सही है, सभी दल के नेता गोल-मटोल-ताजे-टटके घूम रहे हैं।

आम वोटर, भकुआय़ा हुआ देखता रहता है। वह अपनी झोंपड़ी पर किसी एक दल का या ज्यादा कमजोर हुआ तो सभी दल के झंडे लगा रहा है। स्वास्थ्य सबका ठीक है। बस, खून की कमी है क्योंकि बंगाल की राजनीति में उसे सड़कों पर बहाने की बड़ी गौरवपूर्ण परंपरा है। आज भी उस परंपरा को निभाया जा रहा है।

आम वोटर तब तक सही निशान पर उंगली नहीं लगा पाता, जब तक उसे कायदे से धमकाया न जाए। बंगाल में धमकी देना, राजनीति का पहला पाठ है। इसे सियासत के छुटभैय्ये अंजाम देते हैं, जो चुनाव प्रचार खत्म होने के बाद, अगले 48 घंटों में संपन्न किया जाता है। इसके तहत ज़मीनी पार्टी कार्यकर्ता घर-घर जाकर बाकायदा धमकी देने की रस्म पूरी करते हैं कि अलां पार्टी को बटन दबा देना, बिलकुल सुबह जाकर। इवीएम से बिलकुल सही पार्टी के पक्ष में ‘पीं’ निकलना चाहिए वरना तुम्हे ‘चीं’ बुलवा दिया जाएगा। इसके बाद कार्यकर्ता वोटर को प्यार से समझाता है कि वोट विरोधी पार्टी को देने पर हाथ भी काटे जा सकते हैं, और फिर इसके बाद वह बंगाल के विभिन्न इलाकों में हुए ऐसे महत्वपूर्ण और इतिहास में स्थान रखने वाले उदाहरण गिनाता है।

वोटर का ब्लड प्रेशर सामान्य हो जाता है। वह समझ जाता है कि राजनीतिक हिंसा की इस गौरवपूर्ण परंपरा और इतिहास में उसके हाथ काटे जाने को फुटनोट में भी जगह नहीं मिलेगी।

बंगाल वोटर की आंखें कमजोर हैं क्योंकि दूरदृष्टि-निकट दृष्टि के साथ विकट दृष्टि दोष भी है। याद्दाश्त समय के साथ कमजोर हो गई है, हिप्नोटिज़म का उचित इस्तेमाल किया जा रहा है। वोटरों की आंखों के सामने उन्हें याद दिलाया जा रहा है कि हमने उनके लिए क्या-क्या किया है, क्या-क्या किया जा सकता है।

वोटर गजनी की तरह शॉर्ट टर्म मेमरी लॉस का शिकार हो गया है। उसे दो महीने पहले की बात याद नहीं रहती, यह बात सभी पार्टियों को पता है। सीपीएम को पता है, कांग्रेस के पास विकल्प नहीं है। डायनासोर बनने से अच्छा है, खुद को बदल लिया जाए। कांग्रेस जानती है कि वोटर को यह कत्तई याद नहीं होगा कि वर्धवान जिले में 1971 में साईंबाड़ी में सीपीएम के कैडरों ने उसके कार्यकर्ता के साथ क्या किया था।

असल में पार्टी को मजबूत बनाना हो तो ऐसे कारनामे करने होते हैं। साईं बाड़ी में कांग्रेस के एक कार्यकर्ता की हत्या कर उसके खून में भात सानकर उसकी मां को जबरन खिलाया गया था। क्रांति की राह में ऐसी वारदातें बहुत आम हैं।

ज़मीनी कार्यकर्ता रूठ भले जाए लेकिन सियासी खेल में एंडीजेन-एंडीबॉडी की तरह फ्रेंडली फाइट उर्फ दोस्ताना संघर्ष होते रहना चाहिए। ज़मीनी कार्यकर्ता का क्या है, वो तो झक मारकर आएगा ही।

बंगाल में वोटर को नेता-कार्यकर्ता सधे हुए डॉक्टर की तरह दवा लेने का नुस्खा समझाते हैं, हंसिया-हथौड़ा दिए चो कि फूल छाप? कोन फूल टा? एकला फूल ना जोड़ा फूल?

कुपोषण से ग्रस्त वोटर के पास दाल-रोटी की चिंता है, राइटर्स में ममता बैठें या बुद्धो बाबू, उसके लिए सब बराबर हैं। बंगाल के नेता के लिए वोटर महज सरदर्द के बराबर है। दिल्ली में बैठे पत्रकार अपनी बातचीत में कहते जरूर हैं, कि बंगाल का वोटर बहुत जागरूक है।

लेकिन सच यह है कि बंगाल का नेता बहुत जागरूक है और उससे भी अधिक जागरूक है वह कैडर, जो बंगाल में अधिक से अधिक वोटिंग को सुनिश्चित करता है अब इसमें कुछ मृतक वोटरों के भी वोट डल जाएं तो इस कार्यकर्ता का क्या कुसूर?


मंजीत ठाकुर

Saturday, April 9, 2016

बंगाल के उद्योगों को चाहिए पोरिबोर्तन

आसनसोल झारखंड की सरहद से लगा पश्चिम बंगाल का दूसरा सबसे बड़ा शहर है। रेलवे का बड़ा केन्द्र। पहले कभी इस इलाके में कोयले की बहुत सारी खदानें थीं, और कांच के सामान बनाने वाले कारखानों से लेकर इस इलाके में उद्योगो का जाल बिछा था।

लेकिन आसनसोल के पास कुल्टी में राहुल गांधी एक जनसभा को संबोधित करने वाले थे तो मेरी मुलाकात परचून की दुकान में काम करने वाले भास्कर घोष से हुई। भास्कर पहले आसनसोल औद्योगिक क्षेत्र के एक तापबिजली घर में कर्मचारी थे, लेकिन वाम मोर्चे के शासनकाल में बीमार चल रहा उद्योग ममता के शासन में आकर बंद हो गया और कारखाने में काम कर रहे डेढ़ सौ नियमित और करीब दो सौ ठेके पर काम करने वाले कर्मचारी बेरोजगार हो गए। अब ये लोग सड़क पर आ गए हैं।

बिजलीघर के बंद होने की मुखालफत में कर्मचारी तीस महीने तक धरने पर बैठा रहा। वामपंथी कामगार यूनियनों से उनका साथ नहीं दिया। वजहः यह कारखाना बंद करने का आदेश तो उनकी सरकार ने ही दिया था। अब फैक्ट्री के ज्यादातर कर्मचारी सड़क पर आ गए। रोज़ी-रोटी की तलाश अधेड़ हो चुके लोगों के लिए आसान नहीं थी।

यह स्थिति सिर्फ आसनसोल के किसी भास्कर घोष या किसी चंदन चक्रवर्ती की ही नहीं हुई, बल्कि पूरे बंगाल में उद्योग बीमार हो गए, बंद हो गए।

आजादी के वक्त रोजजगार देने के मामले में बंगाल के उद्योग उस वक्त के बंबई यानी आज के गुजरात और महाराष्ट्र दोनों राज्यो के बराबर था। सन 60 के दशक तक बंगाल कारखानों के मामले में पूरे देश में अव्वल था। सन 1971 के आंकड़े बताते हैं कि नेट वैल्यू के लिहाज से यहां कारखाने पूरे देश के 14 फीसद थे और आज की तारीख में यह 4 फीसद से भी कम है। लोगों को रोजगार उपलब्ध कराने के मामले में सन 1971 का यह आंकड़ा 16 फीसद से 2012 में घटकर 6 फीसद हो गया।

पूरे औद्योगिक उत्पादन के लिहाज से बंगाल पिछले तीस साल में पचास फीसद की कमी आई है। सल् 1991 के बाद से भारत में हुए कुल विदेशी निवेश का महज 2 फीसद यहां आया है। एक अनुमान के मुताबिक बंगाल में स्टेट डोमेस्टिक प्रोडक्ट गुजरात के 28 फीसद की बनिस्बत महज 10 फीसद है। जाहिर है, तमाम दावों और न जाने कितने व्यापार मेलों के बाद भी ममता बनर्जी बंगाल के उद्योगों को धीमी मौत मरने से नहीं उबार पाई हैं।

वाम मोर्चे ने एक रिकॉर्ड ज़रूर बनाया हैः दुनिया में सबेस लंबे वक्त तक चलने वाली चुनी हुई कम्युनिस्ट सरकार चलाने का। लेकिन उनके खाते में एक और शर्मनाक रिकॉर्ड होगाः किसी सूबे में सबसे अधिक कारखाने बंद होने का। एक फलता-फूलता राज्य तबाही की कगार पर जा खड़ा हुआ और ओवरड्राफ्ट का शिकार हो गया।

साल 2011 के विधानसबा चुनावों के वक्त ममता बनर्जी ने वादा किया था कि वह सूबे में छोटे, लघु और मंझोले उद्योगो को तरज़ीह देकर औद्योगिक सूरतेहाल की शक्ल बदल देंगी। बंद उद्योगों को फिर से खोला जाएगा, इंजीनियरिंग, इस्पात, चाय और कपड़ा जैसे भारी उद्योग खोले जाएंगे।

पांच बरस बीत गए। इस बार के चुनावी मैनिफेस्टो में ममता के पास कहने के लिए कुछ आंकड़े हैं। अभी तक 2.26 लाख करोड़ के निवेश पर बात चल रही है और सवा दो लाख करोड़ की अन्य परियोजनाएं भी आ रही हैं। ममता ने 48 घंटो के भीतर 143 कारोबारी बैठकें कीं, और 68 सहमति पत्रो पर दस्तख़त किए। राज्य की 7 करोड़ आबादी को 2 रूपये किलो चावल दिया जा रहा है और बंगाल के किसानों की सालाना आमदनी 1.60 लाख रूपये है।

ज़मीनी हक़ीक़त कुछ और है। कुल मिला कर पांच लाख करोड़ की परियोजनाएं और विनेश हवा में हैं और उनके कागज़ों पर कोई काम नहीं हुआ है। कारोबारी बैठकें चाहे कितनी कर लें लेकिन उनका नतीजा सिफर रहा है। 2 रूपये किलो चावल पर 27 रूपये की सब्सिडी केन्द्र सरकार देती है और यह चावल जरूरतमंदो तक पहुंचने से पहले कहीं शून्य में विलीन हो जाता है। ममता के दावे के हिसाब से बंगाल का किसान भारत का सबसे अमीर किसान है लेकिन वीरभूम-बांकुड़ा-वर्धवान से प्रायः किसान आत्महत्याओं की खबरें आती रहती हैं।

ममता ने वाम को बेदखल करके सत्ता हासिल की थी तो आम लोगों को उम्मीद जगी थी उनसे। इस बार ममता बनर्जी की वापसी राइटर्स बिल्डिंग में तय है। लेकिन कोई उनको बताए कि आंकड़ों की हवाबाज़ी और ज़मीन सच्चाई में ज़मीन आसमान का फर्क है।

बंद होते उद्योग आंकड़ों से नहीं, निवेश से शुरू होंगे और तब ही किसी चंदन चक्रवर्ती और किसी भास्कर घोष के घर का चूल्हा दोनों वक्त जला करेगा। आमीन

मंजीत ठाकुर

Tuesday, April 5, 2016

ममता का ‘पोरिबोर्तन’

पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी एक लहर लेकर आईं। यह लहर 2009 के लोकसभा के वक्त से आनी शुरू हुई थी, और ममता बनर्जी ने इसको पोरिबोर्तन (परिवर्तन) का नाम दिया था।

आज से पांच साल पहले ममता बनर्जी ने वाममोर्चे को सत्ता से बेदखल कर दिया और उनका परिवर्तन चक्र पूरा हुआ लेकिन उनके स्वभाव में एक परिवर्तन आ गया। प्रधानमंत्री ने इस बार खड्गपुर में चुनाव रैली की, तो ममता के स्वभाव में आए इस परिवर्तन को ओर इशारा भी किया और हमला भी।

आज हम और आप ममता को किस रूप में देखें? जनाधार वाली मजबूत नेता या गरीबों की मसीहा? दयालु और तीखे तेवर वाली नेता या दबंग और तानाशाह? जो खुद तो ईमानदार है लेकिन जिसके पार्टी के नेता शारदा से लेकर नारदा तक भ्रष्टाचार के कीचड़ में लिथड़े हैं?

लेकिन यह बात माननी होगी कि ममता बनर्जी की कुछ खासियतें भी हैं। ग्रामीण इलाकों में उनकी जबरदस्त पकड़ है। सत्ता में आने से पहले वाम मोर्चे की खिलाफ आंदोलनों की उन्होंने झड़ी लगा दी थी और चाहे नंदी ग्राम हो या सिंगूर, तापसी मलिक हत्याकांड हो या सड़को पर कैडरों की लड़ाई, ममता ने हर बार आंदोलन की अगुआई की थी और अपने आंदोलन से जुड़े छोटे से छोटे कार्यकर्ता को वह न सिर्फ नाम से जानती थीं, बल्कि उनको निजी तौर पर एसएमएस करके उनका हालचाल भी पूछा करतीं।

ममता ने खुद को आम आदमी की आवाज़ बना कर पेश किया। उनकी यह छवि इसलिए भी बनी क्योंकि पश्चिम बंगाल के वाम नेताओं में 34 साल की सत्ता ने एक खास किस्म की अकड़ ला दी थी और एक एरोगेंस भी।

ऐसे में जंगल महल इलाके में या फिर दार्जीलिंग के पहाड़ो में जब वाम मोर्चे के खिलाफ आंदोलन शुरू हुए तो उनको दीदी ने कभी मौन तो कभी मुखर समर्थन दिया। नतीजाः पहाड़ और जंगल दोनों ही ममता के गढ़ बन गए।

लेकिन सत्ता में आए परिवर्तन ने ममता के स्वभाव में भी बदलाव कर दिया। ममता बनर्जी की खासियत रही है, उनका आवेगपूर्ण स्वभाव। इसी आवेग में वह प्रेम भरा रवैया भी है जो वह अपने लोगों के साथ करती हैं। अपनी टेबल पर बिछे मुरी-चनाचूर में से आपको एक मुट्ठी उठाकर खाने का न्योता देना, ममता के लिए ही मुमकिन है। लेकिन इसके साथ ही कुछ और विशेषण भी उनके साथ आ लगे हैं, वह अब बेहद अधियानकत्व भरी नेत्री हो गई हैं तो साथ ही स्वेच्छाचारी और निरंकुश भी। 

बंगाल में जो बुद्धिजीवी ममता के समर्थन में थे, उनमें से ज्यादातर लोग आज उनसे दूर हो चुके हैं। चाहे उनमें कौशिक सेन हो या कबीर सुमन। अरूणाभ घोष जैसे उनके साथी कांग्रेस में चले गए।

इस बार ममता अपने दम पर चुनाव लड़ रह हैं। तृणमूल कांग्रेस में दूसरी कतार का कोई नेता नहीं। इसकी दो वजहे हैं- अव्वल तो यही कि ममता के सामने कोई दूसरा क़द्दावर नेता खड़े होने की हिम्मत नहीं जुटा सकता, दोयम, उनके कैबिनेट के ज्यादातर लोग नारद स्टिंग में कैमरे के सामने नकद लेते पकड़े गए हैं। दागी नेताओ पर जनता कितना भरोसा करोगी, यह कहा नहीं जा सकता। इसलिए ममता बनर्जी हर चुनावी रैली मे यही कह रही हैं कि जनता यही माने कि सूबे के सभी 294 सीटों पर ममता बनर्जी खुद चुनाव लड़ रही हैं।

इधर, अगर तृणमूल कांग्रेस के चरित्र में भी पिछले पांच साल में बदलाव आ गया है। अगर साल 2011 के तृणमूल के घोषणापत्र को देखें तो उसके मुखपृष्ठ पर पार्टी का चुनाव निशान है। इस दफे यह स्थान ममता के मुस्कुराते हुए चेहरे ने ले लिया है।

ममता बनर्जी अब लार्जर दैन पार्टी, लार्जर दैन लाइफ हो गई हैं।

भवानीपुर में भले ही ममता बनर्जी से लोहा लेने के लिए नेताजी सुभाषचंद्र बोस के परपोते चंद्र कुमार बोस और कांग्रेस की तरफ से दीपा दासमुंशी मैदान में हों, लेकिन जिधर देखिए पोस्टरों-बैनरों पर सिर्फ ममता ही ममता हैं।

नारदा स्टिंग पर ममता कुछ नहीं बोल रहीं। जिस तीखे सुर में ममता बनर्जी एक सांस में विपक्ष को गरियाती रही है, जिस सुर में ममता बनर्जी ने 2005 में लोकसभा में विधेयक फाड़कर स्पीकर की तरफ उछाल दिया था वह बाग़ी तेवर अब आधिनायकत्व की तरफ बढ़ गया है।

मालदा में बच्चों की मौतें हो रही है। नवजात शिशुओं के लिए स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया नहीं करा पाईं, सिंगूर ममता के लिए दुखती रग है। जिस सिंगूर के मुद्दे को उछाल कर ममता बनर्जी सत्ता तक पहुंची, उसे वह सुलझा नहीं पाईं।

बंगाल में थका-हारा वाम मोर्चा और उससे भी अधिक थका हुआ कांग्रेस प्रतिष्ठा की लड़ाई भले ही लड़ रहा हो, लेकिन ममता अति आत्मविश्वास से भरी है।

बंगाल के अवाम ने वाम को उसके एरोगेंस की वजह से नकार दिया था। वाम की वापसी की सूरत भी नहीं दिखती। लेकिन हैरत नहीं होगी कि खाली जगह को बीजेपी भरना शुरू कर दे। हेकड़ी का जवाब जनता के पास ही होता है, ममता को याद रखना चाहिए।

मंजीत ठाकुर