Showing posts with label कर्नाटक. Show all posts
Showing posts with label कर्नाटक. Show all posts

Thursday, November 15, 2018

राजनीतिक पार्टियों को आरटीआइ के दायरे में क्यों नहीं लाती सरकार?

अभी हाल ही में एक मीम आया था, जिसमें दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल लोगों से चंदा मांगते दिखते थे और बाद में वेलकम-2 का एक सीन और परेश रावल का एक संदे्श आता है. यह मीम अरविंद केजरीवाल की हंसी उड़ाने के लिए था. और कामयाब रहा था. 

पर आपको और हमें, सोचना चाहिए कि आखिर राजनीतिक दलों को चंदा कौन देता है, उनका खर्च कैसे चलता है? आपने कभी किसी पार्टी को चंदा दिया है? कितना दिया है? चुनावों पर उम्मीदवार और सियासी दल कितना खर्च करते है? जितना करते हैं उतना आपको बताते है और क्या वह चुनाव आयोग की तय सीमा के भीतर ही होता है? और अगर आपके पसंदीदा दल के प्रत्याशी तय स्तर से अधिक खर्च करते हैं (जो करते ही हैं) तो क्या वह भ्रष्टाचार में आएगा? प्रत्याशी जितनी रकम खर्च करते हैं वह चुनाव बाद उन्हें वापस कैसे मिलता है? और आपके मुहल्ले को नेता, जो दिन भर किसी नेता के आगे-पीछे घूमता रहता है उसके घर का खर्च कौन चलाता है?

अभी चार महीनों के बाद लोकसभा चुनाव होने वाले हैं. इन दिनों छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, राजस्थान जैसे राज्यों में चुनाव प्रक्रिया चल रही है. नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री बनने से पहले चुनावी वादा किया था, न खाऊंगा न खाने दूंगा. ऐसा नहीं कि सरकार ने शुचिता के दायरे में राजनीतिक दलों को लाने की कोशिश नहीं की, पर प्रयास नाकाफी रहे. सरकार के हालिया प्रयासों के बावजूद भारत में चुनावी चंदा अब भी अपारदर्शी और काले धन से जुड़ी कवायद बना हुआ है. इसकी वजह से चुनाव सुधारों की प्रक्रिया बेअसर दिखती है.

अभी आने वाले लोकसभा चुनाव में अनुमान लगाया जा रहा है कि 50 से 60 हजार करोड़ रुपये खर्च होंगे. यह खर्च 2014 में कोई 35,000 करोड़ रु. था. जबकि हाल के कर्नाटक विधानसभा चुनाव में 9.5 से 10 हजार करोड़ रु. खर्च हुआ. 2013 में कर्नाटक में हुए विधानसभा चुनाव में इसकी ठीक आधी रकम खर्च हुई थी. 

जरा ध्यान दीजिए कि राजनैतिक पार्टियां चंदा कैसे जुटाती हैं. आमतौर पर माना जाता है कि स्वैच्छिक दान, क्राउड फंडिंग (आपने कभी दिया? मैंने तो नहीं दिया) कूपन बेचना, पार्टी का साहित्य बेचना (उफ) सदस्यता अभियान (कितनी रकम लगती है पता कीजिए) और कॉर्पोरेट चंदे से पार्टियां पैसे जुटाती हैं. 

निर्वाचन आयोग के नियमों के मुताबिक, पार्टियां 2000 रु. से अधिक कैश नहीं ले सकतीं. इससे ज्यादा चंदे का ब्योरा रखना जरूरी है. ज्यादातर पार्टियां 2000 रु. से ऊपर की रकम को 2000 रु. में बांटकर नियम का मखौल उड़ाती हैं क्योंकि 2000 रु. तक के दानदाता का नाम बताना जरूरी नहीं होता. एक जरूरी बात है कि स्थानीय और ठेकेदार नकद और अन्य सुविधाएं सीधे प्रत्याशी को देते हैं न कि पार्टी को.

कंपनियां चुनावी बॉन्ड या चुनाव ट्रस्ट की मार्फत सीधे चंदा दे सकती हैं, दानदाता के लिए यह बताना जरूरी नहीं है चंदा कि पार्टी को दिया, पार्टियों के लिए भी किससे चंदा लिया यह जाहिर करना जरूरी नहीं है.

तो अब यह भी जान लीजिए कि सियासी दल पैसे को खर्च कहां करती हैं. दल, पार्टी और इंफ्रास्ट्रक्चर बनाने में, चुनावी रैली, खाना, परिवहन, और ठहरने में, कार्यकर्ताओं को तनख्वाह देने में, प्रिंट, डिजिटल और टीवी में विज्ञापन देने में खर्च करते हैं. चुनाव के दौरान प्रत्याशी नकद, सोना, शराब और अन्य चीजें भी बांटते हैं. मसलन फोन, टीवी. फ्रिज वगैरह. नया तरीका लोगों के मोबाइल रिचार्ज कराना और बिल भरना भी है. अब आप बताएं कि यह किसी एजेंसी की पकड़ में नहीं आएगा.

मोदी सरकार के उपाय

नरेंद्र मोदी सार्वजनिक जीवन में शुचिता का समर्थन करते रहे हों, पर उनकी सरकार के उपायो से भी यह शुचिता आई नहीं है. मसलन, सरकार ने पार्टियों द्वारा बेनामी नकद चंदे की सीमा पहले के 20,000 रु. से घटाकर 2,000 रु कर दी लेकिन नकद बेनामी चंदा लेने के लिए पार्टियों के लिए एक सीमा तय किए बगैर यह उपाय किसी काम का नहीं है.

पहले विदेशों से या विदेशी कंपनियों से चंदा लेना अपराध के दायरे में था. कांग्रेस और भाजपा दोनों पर विदेशों से धन लेने के आरोप थे. मोदी सरकार ने 1976 के विदेशी चंदा नियमन कानून में संशोधन कर दिया है जिससे राजनीतिक दलों के विदेशों से मिलने वाले चंदे का जायज बना दिया गया. यानी 1976 के बाद से राजनैतिक पार्टियों के चंदे की जांच नहीं की जा सकती. राजनैतिक दल अब विदेशी कंपनियों से चंदा ले पाएंगे. लेकिन क्या आपको नहीं लगता कि इससे दूसरे देश हमारे चुनावों में दखल देने लायक हो जाएंगे? 

शायद भारतीय चुनाव अभी तक विदेशी असरात से बचा रहा है, लेकिन चुनावों पर कॉर्पोरेट के असर से इनकार नहीं किया जा सकता. पार्टियों को ज्ञात स्रोतों से मिले चंदे में 2012 से 2016 के बीच कॉर्पोरेट चंदा कुल प्राप्त रकम का 89 फीसदी है.

मोदी सरकार ने 2017 में कॉर्पोरेट चंदे में कंपनी के तीन साल के फायदे के 7.5 फीसदी की सीमा को हटा दिया. कंपनी को अपने बही-खाते में इस चंदे का जिक्र करने की अनिवार्यता भी हटा दी गई.  हटाने से पार्टियों के लिए बोगस कंपनियों के जरिए काला धन लेना आसान हो जाएगा. लग तो ऐसा रहा है कि यह प्रावधान फर्जी कंपनियों के जरिए काले धन को खपाने का एक चोर दरवाजा है.

कुल मिलाकर राजनैतिक शुचिता को लेकर भाजपा से लेकर तमाम दलों में कोई दिलचस्पी नहीं है. इसको लेकर भी एक आंकड़ा है, 2016-17 में छह बड़ी राजनैतिक पार्टियों के कुल चुनावी चंदे का बेनामी स्रोतो से आया हिस्सा 46 फीसदी है. समझ में नहीं आता कि अगर सरकार वाक़ई पारदर्शिता लाना चाहती है तो सियासी दलों को आरटीआइ के दायरे में क्यों नहीं लाती?

***

Wednesday, January 17, 2018

अब सबको चाहिए हिंदू वोट

नया साल सियासी दलों के लिए अपनी ताकत आजमाने का साल है. इस साल को सियासी दंगल का सेमीफाइनल भी कहा जा सकता है. गुजरात और हिमाचल के बाद राजनीतिक पार्टियां इस साल 8 राज्यों के चुनाव के लिए कमर कस रही हैं.

लेकिन, नया साल भूमिकाएं बदलने का साल भी है. गुजरात में कड़ी टक्कर दे चुकी कांग्रेस ही नहीं, बाकी की पार्टियां सॉफ्ट-हिंदुत्व का दामन थाम रही हैं. एक तरफ तो कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धरमैय्या ही हैं, जिन्होंने जनसभा में कहा कि वे हिंदू हैं. उन्होंने अपने नाम में राम के जुड़े होने का हवाला दिया और कहा कि सिर्फ भाजपा के लोग ही हिंदू नहीं हैं. अब कर्नाटक में मार्च में ही विधानसभा के चुनाव होने हैं. सूबे में करीब 85 फीसदी हिंदू वोटर हैं. इनमें से 20 फीसदी लोग लिंगायत हैं, जो भगवान शिव के उपासक हैं.

दूसरी तरफ, गुजरात में राहुल गांधी के बाइस मंदिरों की पूजा-अर्चना खबरों में रही ही थी. इसका अर्थ यह है कि कांग्रेस अपनी हिंदुत्व विरोधी छवि को तोड़ने की जुगत में लगी है.

याद करिए, जब गो-वध के खिलाफ देश भर में भाजपाईयो ने हवा बनाई तो केरल में युवा कांग्रेस के कुछ कार्यकर्ताओं ने खुलेआम बछड़े का मांस बनाया और खाया था.

कांग्रेस के लिए यह नुकसानदेह था क्योंकि सेकुलर से सेकुलर हिंदू भी खुले तौर पर बीफ को लेकर कुछ ऐसा कहने से बचता है. यह बात और है कि भाजपा के अपने शासन वाले राज्यों में बीफ को लेकर अलग किस्म की रस्सा-कस्सी है.

असल में, अब सभी पार्टियों की नजर हिंदू वोटरों पर है. गुजरात में, भाजपा मोदी के करिश्मे के बूते सरकार और साख बचाने में कामयाब रही थी. लेकिन मानना होगा कि कांग्रेस ने सॉफ्ट हिंदुत्व अपनाकर कड़ी टक्कर दी. अब इस फॉर्मूले को आगे बढ़ाते हुए कांग्रेस गुजरात में148 राम मंदिरों में पूजा किट बांटने वाली है.

कोई भी दल, यहां तक कि खुद को काफी सेकुलर दिखाने और जताने वाली तृणमूल कांग्रेस भी इस आरोप से बाहर निकलना चाहती है.

पश्चिम बंगाल में पिछले कुछ महीनों में हुए सांप्रदायिक विवादों में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी पर मुसलमानों के पक्ष में खड़े होने के आरोप लग रहे हैं. दुर्गा पूजा और मुहर्रम के बीच विसर्जन को लेकर विवाद में आरोप लगा कि वह मुस्लिम तुष्टिकरण में जुटी हैं. अब मुकुल रॉय पार्टी छोड़कर भाजपा में जा चुके हैं तो ममता को अपने वोट बैंक साधने की याद आई है.

ऐसे में उन्होंने पहले तो गाय पालने वालों को गाय देने की योजना शुरू की और अब उनके करीब माने जाने वाले अनुब्रत मंडल ने वीरभूम जिले में ब्राह्मण सम्मेलन में आठ हजार ब्राह्रमणों की गीता बांटी. साथ में अलग उपहार भी थे. ममता भी इससे पहले खुद को हिंदू बता ही चुकी हैं.

असल में, इस कवायद के पीछे की वजह जानना कोई रॉकेट साइंस नहीं है. भाजपा ने मुकुल रॉय के पार्टी में आने के बाद से अभी से2019 के लोकसभा चुनाव की तैयारी शुरू कर दी है.

कोलकाता में भाजपा ने एक अल्पसंख्यक सम्मेलन किया था. इस सम्मेलन में अच्छी खासी भीड़ जुटी थी. पिछले तीन महीने में यह भाजपा दूसरा अल्पसंख्यक सम्मेलन था.


इसका मतलब है कि एक तरफ कथित सेकुलर पार्टियां हिंदू वोटरों को अपने पक्ष में करने के लिए बेचैन हैं तो दूसरी तरफ भाजपा इन वोटरों को अपना मानकर चल रही है और वह 2019 में अपनी मजबूती राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश के अलावा पश्चिम बंगाल जैसे इलाके में भी दिखाना चाह रही है.

आखिर, पश्चिम बंगाल में आज तक भाजपा ने 2 से अधिक लोकसभा सीटें नहीं जीती हैं. बंगाल में वाम मोर्चा बेहद कमजोर स्थिति में है और अगर ममता बनर्जी की टीएमसी कमजोर पड़ती है उस सत्ता-विरोधी रूझान को झपटने के लिए भाजपा खुद को दूसरे विकल्प के तौर पर तैयार करना चाहती है.

पश्चिम बंगाल भाजपा के दफ्तर में सोशल मीडिया के कमरे में पीछे फ्लैक्स बोर्ड पर लगा मिशन 148 हालांकि विधानसभा के लिए तय किया टारगेट है. जो अभी तो शायद दूर की कौड़ी लगे, लेकिन सियासत में कुछ भी अचंभा नहीं होता. आखिर, 2011 के विधानसभा चुनाव में पश्चिम बंगाल में भाजपा को महज 4.5 फीसदी वोट मिले थे. लेकिन लोकसभा में दो सीटों के साथ यह वोट शेयर बढ़कर 16फीसदी हो गया था. 2016 के विधानसभा में, फिर पिछले विधानसभा की तुलना में वोट शेयर बढ़ा था, लेकिन लोकसभा से थोड़ा कम था. यह आंकड़ों में बढोत्तरी और वाम दलों की सुस्ती भाजपा को चुस्ती से घेरेबंदी करने के लिए उत्साहित कर रही है.

बंगाल में भाजपा के पास ले-देकर ढाई चेहरे थे. रूपा गांगुली, दिलीप घोष और राहुल सिन्हा. बाबुल सुप्रियो जरूर आसनसोल से चुनाव जीते हैं लेकिन उनका जनाधार अपने लोकसभा क्षेत्र में भी कुछ खास नहीं है. अब मुकुल रॉय जैसे पुराने नेता को पाले में लाकर भाजपा के लिए राह आसान हुई न हो, लेकिन लड़ने के लिए अब उसके पास एक चेहरा जरूर है.

अब, बंगाल ही क्यों, देश भर में तीन तलाक जैसे मुद्दों पर उदारवादी मुस्लिमों का समर्थन पाकर भाजपा उत्साहित है. लेकिन लोकसभा चुनाव के मद्देनजर देश के पूर्वी, पश्चिमी और दक्षिणी इलाकों में छवियां बदलने के खेल की शुरुआत हो चुकी है.

इसके साथ ही शुरुआत हो चुकी है ध्रुवीकरण की भी. इसको आप चाहें तो भूमिकाएं बदलना कह लें, लेकिन उससे अधिक यह बस दूसरे के सुविधा के क्षेत्र में सेंधमारी ही है.

यह समीकरण अगर दस फीसदी भी कारगर होते हैं तो 2019 से पहले, इसी साल के चार बड़े राज्यों और चार छोटे सूबों के चुनावी दंगल के दांव बड़े हो जाएंगे.

Friday, May 5, 2017

सूखे पर क्या सोचा है सरकार

आपका ध्यान ‘आप’ में ‘विश्वास’ के कायम रहने और अक्षय कुमार को राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिलने जैसे राष्ट्रीय महत्व के समाचारों से जरा हटे तो आपके लिए एक खबर यह भी है कि, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने पिछले हफ्ते तमिलनाडु सरकार को एक नोटिस दिया है। यह नोटिस पिछले एक महीने में किसानों की आत्महत्याओं की खबरों के बारे में है। खराब मॉनसून ने सूबे के ज्यादातर जिलों पर असर डाला है और इससे फसल खराब हुई है। लगातार दूसरे साल पड़े इस सूखे ने कई किसानों को आत्महत्या पर मजबूर किया है।

मानवाधिकार आयोग के इस स्वतः संज्ञान के बाद भेजे नोटिस में जिक्र है कि पिछले एक महीने में 106 किसानों ने तमिलनाडु में आत्महत्या की है। वैसे कर्नाटक और आंध्र प्रदेश में भी सूखा उतना ही भयावह संकट लेकर आया है। वैसे पनीरसेल्वम बनाम शशिकला बनाम पनालीसामी के सियासी चक्रव्यूह में फंसे तमिलनाडु में सरकार इस मुद्दे पर चुप है, और चारों तरफ से राज्य को सूखाग्रस्त घोषित किए जाने की मांग के जोर पकड़ने के बाद एक उच्चस्तरीय समिति गठित कर दी गई है।

सरकार के कान पर जूं तब रेंगी, जब मद्रास हाई कोर्ट ने चार हफ्ते के भीतर इस मसले पर हलफनामा दायर करने को कहा। अदालत ने सरकार से आत्महत्याएं रोकने के लिए कदम उठाने को भी कहा है, हालांकि यह कदम क्या होंगे यह कुछ स्पष्ट नहीं हो पाया है। अपनी तमिलनाडु यात्रा के दौरान, और कुछ रिपोर्ट्स देखने के बाद, मुझे लग रहा है कि सूखे की यह समस्या तिरूवरूर, नागापट्टनम्, विलुपुरम्, पुदुकोट्टाई, अरियालुर, कुडालोग और तंजावुर जिलों में अधिक भयावह है।

तमिलनाडु में उत्तर-पूर्वी मॉनसून से बारिश होती है, यानी अक्तूबर के महीने में, और यह बारिश ही सूबे की जीवनरेखा मानी जाती है। इस बारिश का मौसमी औसत करीब 437 मिलीमीटर है, लेकिन भारतीय मौसम विभाग के चेन्नई केन्द्र के आंकड़े बताते हैं कि पिछले मौसम, यानी 2016 के अक्तूबर के बाद से बारिश सिर्फ 166 मिलीमीटर हुई है।

उधर, कर्नाटक से सटे कावेरी डेल्टा इलाके में किसानो की गत बुरी है। यह इलाका अनाज का भंडार माना जाता है, लेकिन कुरवई (गरमी) की फसल पहले ही मारी जा चुकी है क्योंकि उस वक्त कर्नाटक ने कावेरी का पानी छोड़ने से मना कर दिया था, और शीतकालीन मॉनसून के नाकाम हो जाने के बाद संबा की फसल भी बरबाद हो गई है।

उधर, कर्नाटक में, दो बड़े जलाशय कृष्णराजा बांध और कबीनी, सूखने की कगार पर हैं। इनमें 4.4 टीएमसी फीट पानी ही बचा है। जानकारों के मुताबिक, 5.59 टीएमसी फीट के बाद पानी नहीं निकाला जा सकता क्योंकि ऐसा करने पर जलीय जीवों का अस्तित्व संकट में पड़ जाता है। कर्नाटक के बाकी के 12 बांधों में सिर्फ 20 फीसद पानी बचा है, और एक तरह से देखा जाए तो कायदे से पूरी गरमी का डेढ़ महीना काटना बाकी है। बंगलूरु में हर तीसरे दिन पानी की आपूर्ति बाधित हो रही है, तकरीबन हर रिहायशी कॉम्प्लेक्स पानी के टैंकरों से पानी खरीद रहा है। पानी के एक टैंकर की कीमत तकरीबन 700 से 750 रूपये तक है। पानी के यह टैंकर निजी बोर-वेल से भरे जा रहे हैं, लेकिन यह भी कब तक साथ देंगे यह जानना ज्यादा मुश्किल भरा सवाल नहीं है।

इसी के साथ आंध्र और तेलंगाना में कुछ सियासतदानों ने अनूठे, अजूबे और मूर्खतापूर्ण हरकते भी कीं, जो उनकी समझ में पानी बचाने की कवायद थी। इनमे से एक थी, लाखों रूपये खर्च करके एक बांध को थर्मोकोल से ढंकने की, ताकि पानी भाप बनकर न उड़ जाए। बांध के पानी को थर्मोकोल से ढंका भी गया, लेकिन अगली सुबह जब हवा जरा जोर की चली सारे थर्मोकोल बांध के एक किनारे आ लगे।

एक अन्य उपाय के तहत, बंगलुरू में वॉटर सप्लाई और सीवरेज बोर्ड ने और अधिक बोल-वेल ड्रिलिंग के आदेश भी दिए हैं। अब इसके लिए कितनी गहराई तक ड्रिलिंग करनी होगी, और कितना खोदना सही होगा, यह तो विशेषज्ञ ही बता पाएंगे। लेकिन इतनी बड़ी संख्या में बोर-वेल खोदने से आगे क्या असर पारिस्थितिकी पर पड़ेगा, वह अच्छा नहीं होगा, यह तो हम अभी बता देते हैं। वैसे अगर आप ऐसी खबरों में दिलचस्पी रखते हों, तो पिछली बारिश में बंगलुरू में बाढ़ जैसी स्थिति पैदा हो गई थी, और आज की तारीख में सूखे की है। सिर्फ बंगलुरू ही नहीं, हरे-भरे मैसूर और मांड्या में भी स्थिति कुछ ठीक नहीं है। कर्नाटक सरकार ने हालांकि अपने 176 में से 160 को सूखाग्रस्त घोषित कर दिया है लेकिन क्या सिर्फ इतना करना ही काफी होगा? किसानों ने खरीफ और रबी दोनों फसलें नहीं बोई हैं। कर्नाटक, आंध्र और तमिलनाडु के सरहदी इलाकों में यह स्थिति पिछले 42 सालों में सबसे भयावह है।

किसानों की आत्महत्या के मामले में कर्नाटक की स्थिति भी बेहद बुरी रही है और अनुमान है पिछले चार साल में करीब 1000 किसानों ने आत्महत्या की है।

इतना समझिए कि पिछले साल सामान्य मॉनसून होने (सिर्फ पूर्वी तमिलनाडु को छोड़कर जहां बरसात अक्तूबर में होती है) पर भी तमिलनाडु, आंध्र, केरल और कर्नाटक में पानी की यह कमी, सिर्फ बरसात की कमी नहीं है। केरल में इस बार का सूखा पिछले सौ सालों का सबसे भयानक सूखा है।

सवाल है कि किया क्या जाए। सूखे से निबटने का उपाय ट्रेन से पानी पहुंचाना या ज्यादा बोर-वेल खोदना नहीं है और थर्मोकोल से बांध ढंकना तो बहुत ही बेहूदा कदम है। इसके लिए एक ही सूत्र हैः पानी का कम इस्तेमाल, पानी का कई बार इस्तेमाल, और पानी को रीसाइकिल करना।

इसका उपाय है जलछाजन यानी वॉटरशेड मैनेजमेंट भी है और ग्रीन वॉटर का इस्तेमाल भी। पर उसके बारे में बाद में बात, अभी देखिए कि इस गहनतम सूखे पर मुख्यधारा के किसी चैनल या उत्तर भारत के किसी शहरी अखबार ने कुछ लिखा है क्या? नहीं न। वही तो, सूखा और किसान आत्महत्या खबर थोड़े न है, अलबत्ता एमसीडी चुनाव है।

मंजीत ठाकुर

Saturday, October 1, 2016

पानी पर गुत्थमगुत्था

पिछले कुछ हफ्तों में कावेरी और तमिलनाडु में कावेरी जल बंटवारे पर काफी घमासान दिखा था। बसों को जलाना अपने देश में विरोध प्रदर्शन का सबसे मुफीद तरीका है, सो बसें जलाईं गईं, सड़को पर टायर जलाए गए और हो-हल्ला हुआ।

इसके पीछे मसला क्या था? असल में, कर्नाटक और तमिलनाडु के बीच कावेरी नदी के पानी के बंटवारे को लेकर एक समझौता है। समझौते का इतिहास हालांकि बहुत पुराना है लेकिन पिछले दो दशकों में यही हुआ कि जल विवाद को सुलझाने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने 1990 में अंतर-राज्य जल विवाद अधिनियम के तहत एक पंचाट का गठन किया। साल 2007 में इस पंचाट ने जल विवाद पर पानी के बंटवारे से संबंधित अपनी आखिरी सिफारिश या फ़ैसला दिया। 2013 में केन्द्र द्वारा इसकी अधिसूचना जारी किए जाने के तीसरे वर्ष ही कर्नाटक के उस इलाके में, जहां से कावेरी अपना जल ग्रहण करती है सूखा पड़ गया।

इस साल कर्नाटक के कोडागू जिला, जहां से कावेरी अपना जल ग्रहण करती है, 33 फीसद कम बरसात हुई। नताजतन, कर्नाटक मे कावेरी के जलाशयों, केआरएस, काबिनी, हारंगी और हेमवती बांधों, में अपनी क्षमता से कम पानी मौजूद था। सामान्य तौर पर इस वक्त यह जलभंडार 216 टीएमसी फुट होता है, जबकि इस साल यह भंडार महज 115 फुट था।

कावेरी जल विवाद निपटारा पंचाट का फैसला था कि सामान्य बारिश वाले वर्ष में, कर्नाटक को तमिलनाडु के लिए 193 टीएमसी फीट पानी छोड़ देना चाहिए। जून में 10 टीएमसी फुट, 34 टीएमसी फुट जुलाई में, 50 टीएमसी फुट अगस्त में, 40 टीएमसी फुट सितंबर में और 22 टीएमसी फुट अक्तूबर में। जब कर्नाटक ने जुलाई और अगस्त में जरूरी पानी नहीं छोड़ा, तब तमिलनाडु ने इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया।

सुप्रीम कोर्ट ने 5 सितंबर को अपनी सुनवाई कर्नाटक को निर्देश दिया कि वह अगले 10 दिनों तक रोज़ 15 हजार क्यूसेक पानी छोड़ें। कर्नाटक ने इस निर्देश के खिलाफ अपील की, लेकिन तमिलनाडु के लिए पानी भी छोड़ दिया। लेकिन दोनों ही राज्यों में पानी के लिए विरोध-प्रदर्शनों को दौर शुरू हो गया।

वैसे, कावेरी के पानी में कर्नाटक का योगदान 462 टीएमसी फुट का होता है लेकिन उसे 270 टीएमसी फुट के इस्तेमाल करने का हक है। जबकि तमिलनाडु सिर्फ 227 टीएमसी फुट का योगदान करके 419 टीएमसी फुट का इस्तेमाल कर सकता है।

यह अजीब सा विभाजन इसलिए हुआ क्योंकि 1924 में जब कावेरी जल का पहला बंटवारा हुआ, उस वक्त तमिलनाडु कावेरी के 80 फीसद पानी का उपयोग कर रहा था। तमिलनाडु के किसानों को पहले उपयोग करने का फायदा मिला।

बहरहाल, पानी के लिए तीसरा विश्वयुद्ध लड़ा जाएगा इसके बारे में कई विद्वानों ने पहले ही आशंकाएं और भविष्यवाणियां कर रखी हैं। लेकिन इस युद्ध को टालने, या पानी पर झगड़ों को खत्म करने का क्या कोई उपाय नहीं हो सकता?

हो सकता है। मैं हमेशा से पानी के आयात को खत्म या बेहद कम करने के पक्ष में रहा हूं। पूरे भारत में रेगिस्तानी इलाकों को छोड़ दें, तो कोई भी इलाका ऐसा नहीं है जहां पीने या इस्तेमाल के लायक पानी नहीं बरसता हो। यह बात और है कि हम लोग उस बारिश के पानी को रोकते नहीं, उसको बचाकर नहीं रखते र हमारी बारिश बर्षा आधारित ही है, लेकिन बर्षा से कम, बरसात आधारित ज्यादा है।

तमिलनाडु की औसत वार्षिक वर्षा करीब 95 सेमी है तो कर्नाटक की करीब 124 सेमी। इसकी एक वजह है कि तमिलनाडु में दक्षिण-पश्चिमी मॉनसून से बरसात नहीं होती, बल्कि उसके पूर्वी तट पर तब बरसात होती है, जिसे हम मॉनसून की वापसी कहते हैं।

फिर भी, जलछाजन योजनाओं के ज़रिए पानी की बचत की जा सकती है। तालाबों की तमिलनाडु में पुरानी परंपरा रही है, उसको पुनर्जीवित करके और ज्यादा पानी खर्च करने वाली फसलों की जगह कम पानी वाली फसलों का चयन करके पानी की बचत की जा सकती है।

पानी के किफायती इस्तेमाल करके भी पानी के आयात को कम किया जा सकता है। जलछाजन योजना में आसपास के दो सबसे ऊंची जगहों के बीच की जगह को वॉटरशेड एरिया या जलछाजन क्षेत्र कहा जाता है। यह इलाका 50 हेक्टेयर से लेकर 50 हजार हेक्टेयर के बीच के आकार का हो सकता है।

इसमें चैक-डैम, छोटी बंधियां और सड़को के, खेतों के किनारे नाले बनाकर बरसात के पानी को सही जगह रोका जाता है। और वॉटरशेड इलाके में पानी की उपलब्धता के आधार पर बोई जाने वाली फसलों का चयन किया जाता है।

बूंद सिंचाई और स्प्रिंकल सिंचाई के जरिए भी पानी की बचत की जा सकती है।

लेकिन पानी की बचत से अधिक ज़रूरी है कि पानी के लिए खून न बहाया जाए।

दोनों राज्यों के नेताओं को अपने अहंकार को तिलांजलि देकर और बरसात की मकी वाले वर्षों में पानी के बंटवारे का कोई फॉर्मूला निकालेना होगा। पिछले नौ वर्षों से कम मॉनसून के वक्त पानी के बंटवारे का कोई फॉर्मूला नहीं निकाला जा सका है। कावेरी पंचाट ने अपना आखिरी फैसला 5 फरवरी, 2007 को सुनाया था, तब से अब तक कोई सर्वानुमति नहीं हुई है कि मॉनसून खराब रहने पर पानी का बंटवारा कैसे किया जाएगा।

अकाल में मिलकर चलना जरूरी होता है, वरना अकेले पड़ जाने पर नुकसान अधिक होता है, खतरा भी।

मंजीत ठाकुर

Friday, February 6, 2015

किसानो की क़ब्रगाह भी है कर्नाटक

कर्नाटक का गुलबर्गा ज़िला। छोटे से क़स्बे जाबार्गी के बाजार में हूं। असल में बाज़ार से थोड़ी दूर है यह जगह। सड़कों के किनारे बीजेपी के निवर्तमान मुख्यमंत्री (चुनाव के वक्त के मुख्यमंत्री) और मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार लिंगायत नेता जगदीश शेट्टार की रैली है।

सूरज ढल रहा है, लेकिन गरमी बरक़रार है। जगदीश शेट्टर मंच पर हैं, सड़कों पर धूल उड़ रही है, रैली खचाखच भरी है। आसपास अपनी गहरी नज़र से देखता हूं, क्या यह भीड़ खरीदी हुई है? लोगों के चेहरे से कुछ पता नहीं लगता।

हर चेहरा पसीने से लिथड़ा है...किसी चेहरे पर कुछ नहीं लिखा है। सौम्य जगदीश शेट्टर मंच से कन्नड़ में कुछ कहते हैं, (बाद में पता चला, वो कह रहे थे एक लिंगायत को वोट देंगे ना आप?) जनता की तरफ से समवेत आवाज़ आती है। आवाज नहीं, हुंकार।

स्थान परिवर्तन। जगहः बेल्लारी जिला, हासनपेट, राहुल गांधी की रैली। बांहे चढ़ाते हुए राहुल हिंदी में भाषण दे रहे हैं। पूछते हैं, घूसखोर और बेईमान येदुयरप्पा और उनकी पार्टी (चुनाव से पहले की) बीजेपी को हराएंगे ना आप? जनता फिर हुंकार भरती है। कुछ वैसे ही, जैसे जगदीश शेट्टार की रैली में हुंकार भरी थी।

यहां भी लोगों के चेहरे पर उदासीनता थी। लेकिन हेलिकॉप्टर की आवाज ने एक उत्तेजना तो फैलाई ही थी।

इस दौरे में उत्तरी कर्नाटक के जिस भी ज़िले में गया, चुनावी भागदौड़ के बीच हर जगह एक फुसफुसाहट चाय दुकानों पर सुनने को मिली। कन्नड़ समझ में नहीं आती थी, लेकिन स्वर-अनुतानों से पता चल जाता था कि खुशी की बातें तो हैं नहीं।
जबार्गी में जगदीश शेट्टार की रैली में हुंकारा भरती जनता फोटोः मंजीत ठाकुर
कारवाड़, बीजापुर, गुलबर्गा, बीदर...हर तरफ सूखा था। किसानों की आत्महत्या के किस्से भी थे।

बीजापुर के एक गांव नंदीयाला गया। इस गांव में पिछले साल एक किसान लिंगप्पा ओनप्पा ने आत्महत्या की थी। उसके घर जाता हूं, दिखता है भविष्य की चिंता से लदा चेहरा। रेणुका लिंगप्पा का चेहरा। रेणुका लिंगप्पा की विधवा हैं। अब उनपर अपने तीन बच्चों समेत सात लोगों का परिवार पालने की जिम्मेदारी आन पड़ी है। पिछले बरस इनके पति लिंगप्पा ने कर्ज के भंवर में फंसकर और बार-बार के बैंक के तकाज़ों से आजिज आकर आत्महत्या का रास्ता चुन लिया।

लिंगप्पा ने खेती के काम के लिए स्थानीय साहूकारों और महाजनों और बैंक से कर्ज लिया था, लेकिन ये कर्ज लाइलाज मर्ज की तरह बढ़ता गया। बीजापुर के बासोअन्ना बागेबाड़ी में आत्महत्या कर चुके चार किसानों के नाम हमारे सामने आए। इस तालुके के मुल्लाला गांव शांतप्पा गुरप्पा ओगार पर महज 31 हजार रूपये का कर्ज था।

नंदीयाला वाले लिंगप्पा पर साहूकारों और बैंको का कुल कर्ज 8 लाख था। इंगलेश्वरा गांव के बसप्पा शिवप्पा इकन्नगुत्ती  और नागूर गांव के परमानंद श्रीशैल हरिजना को भी मौत की राह चुननी पड़ी।
पूरे बीजापुर जि़ले में 2012 अप्रैल से 2013 अप्रैल तक 13 किसानों ने आत्महत्या की राह पकड़ ली। पूरे कर्नाटक में यह आंकड़ा इस साल (साल 2013 में) 187 तो 2011 में 242 आत्महत्याओं का रहा था। 2013 में, बीदर में 14, हासन मे दस, चित्रदुर्ग में बारह किसानों ने आत्महत्याएं की हैं। गुलबर्गा, कोडागू, रामनगरम, बेलगाम कोलार, चामराजनगर, हवेरी जैसे जिलों से भी किसान आत्महत्याओं की खबरें के लिए कुख्यात हो चुके हैं।

खेती की बढ़ती लागत और उत्तरी कर्नाटक का सूखा किसानों की जान का दुश्मन बन गया है। पिछले वित्त वर्ष में कुल बोई गई फसलों का 16 फीसद अनियमित बारिश की भेंट चढ गया। और कर्नाटक सरकार ने सूबे के 28 जिलों के 157 तालुकों को सूखाग्रस्त घोषित कर दिया था। लेकिन राहत कार्यो में देरी ने समस्या को बढ़ाया ही।

किसानों की आत्महत्या कर्नाटक में नया मसला नहीं है। पिछले दस साल में 2886 किसानों ने अपनी जान दी है।

पिछले दशक में बारह ऐसे जिले हैं जिनमें सौ से ज्यादा किसान आत्महत्याएं हुई हैं, ये हैं. बीदर, 234 हासन 316, हवेरी 131, मांड्या 114, चिकमंगलूर 221, तुमकुर 146, बेलगाम 205, शिमोगा 170 दावनगेरे, 136, चित्रदुर्ग 205 गुलबर्गा 118, और बीजापुर 149

लेकिन, किसानों की आत्महत्याएं अब आम घटना की तरह ली जाने लगी हैं और विकास की अंधी दौड़ में हाशिए पर पड़े गरीब किसानों की जान की कीमत अखबार में सिंगल कॉलम की खबर से ज्यादा नही रही हैं।


कर्नाटक दौरे में यह इलाका, अब मुझे परेशान करने लगा है। गरमी तो झेल लेगा कोई, लेकिन समस्याओं की यह तपिश नहीं झेली जाती। 

Wednesday, January 28, 2015

आवारापनः कर्नाटक में ग्रोथ की अकथ कथा

अभी तो बंगलोर के उस लाल बाग का जिक्र, जहां हम भरी दोपहरी में गए थे।

गरम धूप चेहरे पर तीखी किरचों की तरह लग रही थी, लेकिन गरमी के बावजूद कुछ फूल अपने अंदाज में मुस्कुरा रहे थे।

इस गरमी में भी कुछ लोग लाल बाग में घूम रहे थे, जाहिर है वो हम जैसे दीवाने तो नहीं थे कि बिना छतरी और टोपी के घूमें। वैसे हमारे कैमरा सहायक टोपी लगाए हुए थे, लेकिन यह जरूरी भी था, सीधी धूप उनके खल्वाट सर पर पड़ती तो मस्तिष्क गरम हो सकता है।

पूरे बाग़ में माहौल पारिवारिक ही था, दिल्ली के लोदी गार्डन या बुद्ध जयंती पार्क या कोलकाता के विक्टोरिया मेमोरियल से अलहदा।थोड़ा सूरज तिरछा हुआ, वक्त के साथ, तो बादलों को मौका मिल गया। तालाब जैसी बेकार की चीजें और गुलमोहर जैसे रोज मुलाकात होने वाले पेड़ों और बांस की झुरमुटों को देखकर हमें लगा कि अब हमें बैठ जाना चाहिए।

एक पहाड़ी जैसा है, उस पर कोई मंदिर बना है। जाहिर है, हमारे काम का न था। पत्थर पर बैठे तो लगा कि पिछवाड़ा रोटी की तरह सिंक गया हो, आखिर पत्थर तवे की तरह गरम भी थे। बहरहाल, हम बंगलोर में बहुत तो घूम नहीं पाए, क्योंकि वक्त काफी कम था। लेकिन, हवाखोरी कर ही ली थी।

गुलबर्गा में मेरी बालकनी में झांकता इमली के पत्ते शिकायत कर रहे हैं। कहां गुलबर्गा कहां बंगलोर। मैं डांटने की मुद्रा में हूं, मैं क्या करूं...दिल्ली तक बात नहीं पहुंचती तो मैं क्या करूं...ये कहानी तुम्हारी ही नहीं है, झारखंड, बुंदेलखंड, जंगल महल, दंतेवाड़ा, अबूझमाड़, मेवात, कालाहांडी...विकास की खाई हर जगह मौजूद है।
कर्नाटक के जबार्गी के पास एक जनजातीय महिला। फोटोः मंजीत ठाकुर
इमली का पेड़ आशाभरी निगाहों से देख रहा है। मैं कहता हूं, मैं महज क़िस्साग़ो हूं, कहानी कह दूंगा, इसके असरात पर मेरा क्या मेरे बाप का भी बस नहीं।


भाप भरी गरमी से पेड़ भी हलकान है..मैं भी। उफ़् गुलबर्गा।

गरमी झेलता हुआ, गुलबर्गा में अपनी बालकनी से डूबते सूरज को देखता हूं। गुलबर्गा में डूबता हुआ सूरज भी दहकता हुआ लगता है।

दिल्ली से बंगलुरु को चले थे, तो मन में कर्नाटक के विकास की एक तस्वीर थी। कर्नाटक का मतलब ही बंगलुरू था।

लेकिन बंगलुरू ही पूरा कर्नाटक नहीं है। बंगलुरू का तो मौसम भी पूरे कर्नाटक से अलहदा है और विकास की गाथा भी।

कर्नाटक के विकास को हमेशा एक मिसाल के तौर पर पेश किया जाता है लेकिन विकास की अंतर्गाथा कुछ और ही है। उत्तरी कर्नाटक के जबर्गी और गुलबर्गा के इलाको में पीने का पानी एक बड़ी समस्या है। इस तस्वीर की तस्दीक करते हैं सूखे हुए खेत, जिनका अनंत विस्तार देखने को मिलता है।
उत्तरी कर्नाटक में साल में ज्यादातर वक्त सूखी रहती हैं नदियां फोटोः मंजीत ठाकुर
कपास की फसल पिछले दो साल से खराब हो रही है, क्योंकि दो साल से बारिश ने साथ नहीं दिया। अब तो आस पास के इलाके के लोगों को पीने के पानी के लिए मशक्कत करनी होती है।

लोग छोटे ठेलों पर प्लास्टिक के रंग-बिरंगे मटके लेकर आते हैं। कोई पांच किलोमीटर ले जा रहा है पानी ढोकर, तो कोई सात किलोमीटर, एक बंधु ने तो मोपेड ही खरीद ली है पानी ढोने के लिए ।

पूरा उत्तरी कर्नाटक, खासकर हैदराबाद-कर्नाटक के इलाके में सूखी नदियां और सूखी नहरें सूखे की कहानी कह रही हैं।
पानी का रोना फोटोः मंजीत ठाकुर
नलों के किनारे लगे प्लास्टिक के घड़ों की कहानी भी अजीब है, प्लास्टिक युग में मोबाइल तो उपलब्ध है लेकिन पीने का पानी मयस्सर नहीं। लोगबाग तालाब का पानी पीने पर मजबूर हैं, यह पानी भी तभी आता है जब बिजली हो। बिजली का भी अजीब रोना है, जो दोपहर बाद डेढ़ घंटे के लिए आती है और अलसुबह डेढ़ घंटे के लिए।

दरअसल, लोगों ने तालाब में पानी का मोटर लगवा रखा है। हैंडपंप खराब हैं तो कम से कम तालाब का पानी तो मिले। भूमिगत जल तो न जाने कब पाताल जा छुपा है।

बिजली आती नहीं तो मोटर कैसे चले। ऐसे में दोपहर से ही, मटके नलों के किनारे जमा होने शुरू हो जाते हैं। उस दुपहरिया में जब छांव को भी छांव की जरूरत थी।
किसी दल के घोषणापत्र में नहीं था पानी का वादा फोटोः मंजीत ठाकुर
चुनाव का वक्त था, जब हम वहां थे। कर्नाटक में सरकार बनाने के लिए स्थायित्व एक अजेंडा था, लेकिन उत्तरी कर्नाटक के गांवों में पीने का पानी मुहैया कराना किसी पार्टी के घोषणापत्र में नहीं था।
जाहिर है कर्नाटक की विकास गाथा की पटकथा में कहीं न कहीं भारी झोल है।

हम पसीनायित हैं...लेकिन हम पानी खरीद कर पी रहे हैं। लेकिन गांववाले...चुनावी दौरे-दौरा में पता नहीं क्या-क्या सब्ज़बाग़ थे...जिक्र नहीं था तो किसानों के लिए सिंचाई के पानी का, न पीने के पानी का।

Tuesday, January 27, 2015

आवारापनः बंगलोर से गुलबर्गा, कुछ तस्वीरें

बंगलोर का लाल बाग, यह है मेरा वाला एंगल फोटोः मंजीत ठाकुर

लाल बाग, बंगलुरू के किसी कोने में खिला था यह फूल, पत्रकार की नज़र तो पड़नी ही थी। फोटोः मंजीत ठाकुर

बंगलुरू से चित्रदुर्ग की तरफ बढ़े, तो मिले सुपारियों के ऐसे झुरमुट, ये समां, समां है ये....फोटोः मंजीत ठाकुर

गुलबर्गा का क़िला, जैसे ढल रहा है सूरज वैसे ही ढल रही है इस क़िले की खूबसूरती भी फोटोः मंजीत ठाकुर

Saturday, January 24, 2015

आवारापनः उफ़! गुलबर्गा

रात गहरा गई है। नीम के पत्तों में गरम हवा सरसरा रही है। मैं काले कोलतार की सड़क पर घूम रहा हूं, अमलतास की पीली पंखुड़ियां पैरों के नीचे कभी-कभी कराह उठती हैं...चांद टेढ़े मुंह के साथ आसमान के कोने में ठिनक रहा है। हवा चल रही है, आसमान में बादल भी हैं...लेकिन आज दिन में गेस्ट हाउस का अटेंडेंट कह रहा था, ये गुलबर्गा है जनाब...गरमी में यहां पत्थर चटकते हैं।

जी हां, ये गुलबर्गा है।

लोगों की बोली में हैदराबादी पुट है। इलाका भी हैदराबाद-कर्नाटक ही कहा जाता है। वही इलाका, जिसके बारे में मैंने गूगल पर छानबीन बहुत की थी, दिल्ली से चलने से पहले...लेकिन ज्यादा कुछ हाथ नहीं आया था।

दिल्ली से चला था तो महीना अप्रैल का था, दिल्ली में गरमी दस्तक दे ही रही थी। कर्नाटक में चुनावी गरमाहट बढ़ गई थी। मुझे चुनाव कवर करना था।

हमने अपना प्यारा लाल गमछा साथ ले लिया था। दोस्त कहते हैं ये एक स्टाइल स्टेटमेंट बन सकता है। हमें स्टाइल से ज्यादा परवाह है अपने आप को उस कड़क धूप से बचने की, जो यहां इस मौसम में पागल कर देने की हद कर तीखी है।

19 अप्रैल की सुबह को हम बंगलोर स्टेशन उतरे तो लगातार दो रात एक दिन के सफ़र ने रीढ़ की हड्डियों पर असर डाल दिया था। बदन का जोड़-जोड़ और पोर-पोर पिरा रहा था।

बंगलोर की सुबह बहुत प्यारी होती है। शायद शामें भी होती हों...हम शाम तक रुके नहीं। फेसबुक पर हमने स्टेटस डाला भी था, कोई मित्र हों तो मिलें...कई एक मित्र असमर्थ थे, एक अभिनय जी ने शाम की चाय का न्योता दिया था....लेकिन उनकी चाय हमारी नसीब में नहीं थी।

दोपहर तीन बजे तक हम बंगलोर से चल चुके थे। आगे भाषा की समस्या आऩे वाली थी...लेकिन हमारा ड्राइवर मणि अच्छा दुभाषिया है। जब वो हंसता है, तो ठहाके में एक खिलखिलाहट होती है। उसके दांत चमकते हैं। उसका हंसना अच्छा लगता है।

रास्ते में बनवारी जी इसरार करते हैं कि कर्नाटक आए तो स्थानीयता का पुट तभी आएगा, जब हम स्थानीय भोजन पर ध्यान दें। नारियल का पानी कर्नाटक में होने की पुष्टि करता है...मैं पके कटहलों की तरफ ध्यान दिलाता हूं। कैमरा सहायक, विनोद बिहार से हैं। उनको कटहल का स्वाद पता है।

बनवारी जी ने भी कटहल लिया है। कटहल की मीठी-मादक गंध...मुझे बचपन याद आ गया। मेरा मधुपुर...सड़क के किनारे नारियल गुल्मों की छटा है, सूरज का रंग बदल रहा है। लेकिन मंजिल दूर है...साढ़े पांच सौ किलोमीटर, भारतीय सड़कों पर। ठठ्ठा नहीं है सफ़र।

लेकिन दक्षिण कर्नाटक हो या उत्तर, सड़कों की हालत नब्बे फीसद तक सही है। अस्सी की रफ़्तार सामान्य है...। रास्ते में आता है, पहाड़ियों की कतार है, शिखरों पर पवनचक्कियों का घूमना जारी है। चित्रदुर्ग हवा की ताकत से पैदा हुई बिजली से रौशन है...रौशनी की कतारें पीछे छूट जाती हैं...

रौशनी की कतार यहां नीचे भी है, गेस्ट हाउस के सुनसान अहाते में...मेरी बालकनी से इमली का एक पेड़ सटा हुआ है। पेड़ पर नई पत्तियों की बहार है, जिनका रंग अभी ललछौंह ही है। मेरे आंगन के सामने मधुपुर में भी इमली का पेड़ था...पोखरे और हमारे घर की दीवार के बीच।

हमको बताया जाता था कि इमली के पेड़ पर भूत हुआ करते हैं, कभी दिखा नहीं। यहां गेस्ट हाउस के अहाते में नागराज का एक छुटका-सा मंदिर नुमा चबूतरा है। सुना है, अहाते में सांप भी बहुत है।
लेकिन इमली के उस पेड़ को हौले से छूकर दुलराता हूं...लगता है अपने ही घर में हूं,। मेरा मधुपुर गुलबर्गा पहुच गया है। मेरा मन उड़ता है, बादलों के साथ। आसमान में बादल हैं, चांद के लुका छिपी जारी है।

गुलबर्गा जिस दिन पहुंचा था, सुबह थी। सुबह में तो कहीं का मौसम बड़ा प्यारा होता है। दिल्ली का भी। सुबह-सुबह पहुंचे और जिस रास्ते से पहुंचे उसके किनारे पेड़ लगे हुए थे। हरियाली थी थोड़ी...

हरियाली और खूबसूरती में बंगलोर ज्यादा बेहतर है। कर्नाटक में जैसे-जैसे उत्तर की तरफ जाएंगे, हरियाली भी कम होती जाती है और संपन्नता भी। उत्तरी कर्नाटक सूखे से त्रस्त होता है। लेकिन वो किस्सा फिर कभी।

आवारापनः किष्किन्धा से बहमनों की धरती की ओर

उस वक्त हम गुलबर्गा में थे। कर्नाटक का हैदराबाद की तरफ वाला इलाका। हंपी से उत्तर। मेरे कमरे में बालकनी है, सामने एक इमली का पेड़। 

मौसम बेहद गर्मी का था। इमली का पेड़ झुलस रहा था...गरमी में। दिल्ली में भी गरमी रही होगी।...झुलसाने वाली तो नहीं...लेकिन उत्तराखंड की बाढ़ के बाद बारिश से सहमे हुए लोगों के बीच उमस की मार है। 


गुलबर्गा की गरमी अजीब है। पत्थर भी चटक जाते हैं। लेकिन फारसी में तो गुल का मतलब है "फूल" और "बर्ग" का मतलब है पत्ता। जाहिर है, जमाना रहा होगा जब गुलबर्गा विलासिता भरे जीवन का केन्द्र रहा ही होगा। 

हमारे गेस्ट हाउस के नजदीक ही है गुलबर्गा का किला...14वीं सदी का। मजबूत रहा होगा किला। लेकिन कई दशकों तक उपेक्षित रहे इस किल में अब कई घर बस गए हैं। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के अधीन  होने के बावजूद किले के भीतर अवैध अतिक्रमण है। और किले की हालत का तो कहना ही क्या।

हालांकि कुछ हिस्सों में हालत में सुधार है वो भी सिर्फ एएसआई के कारण। 

वैसे गुलबर्गा की कहानी तो 13वी और 14वीं सदी तक पीछे ले जाती है। दक्कन के इस इलाके में जब बहमनी सल्तनत का प्रभुत्व हुआ। इससे पहले यह इलाका हिंदू राजाओं के अधीन था। इस सूखाग्रस्त इलाके को बहमनी सुल्तानों ने खूबसूरत महलों, किलेबंदियों और सरकारी इमारतों से भर दिया।

आज के गुलबर्गा में भी वही मध्यकालीन किले, अस्तबल, टूट-फूट रहे मकबरे, बड़े दरबार और प्राचीन मंदिर हैं। 

किले के भीतर का जामा मस्जिद की खासियत इसका विशाल गुंबद है। इसके चारों तरफ छोटे-छोटे गुंबद भी हैं। इसका निर्माण सन 1367 में स्पेनी वास्तुविद् ने किया था जिसमें मेहराबदार प्रवेशद्वार है। बताया जाता है कि ऐसी ही कलाकृति स्पेन में कार्दोवा के मकबरे की भी है। 

गुलबर्गा अब किलों, दरबारों और मकबरों को विरासत के रूप में देखता है। मुसलमान आबादी में एक नवाबी ठसक है...लेकिन गांव की आबादी जूझ रही है। रोज़ रोज़ की लड़ाई है, पानी की, खाने की...

इस इलाके की इन कहानियों और तस्वीरों को अगली पोस्ट में शेयर करूंगा। 

Tuesday, December 17, 2013

हंपी का माल्यवंत रघुनाथ मंदिरः कुछ तस्वीरें

माल्यवन्त रघुनाथ मंदिर का शिखर

मंदिर का प्रवेश-द्वार

अहाते के अंदर से प्रवेश-द्वार की छवि

कुछ यूं दिखता है अहाते से मंदिर का चबूतरा

नीम की छांव में मंदिर परिसर

रघुनाथ मंदिर के चबूतरे से पूर्वी द्वार का दृश्य

गर्भगृह में प्रस्थापित रघुनाथ, कमलेश्वरी, लक्ष्मण और हनुमान, सभी फोटोः मंजीत ठाकुर


Saturday, November 23, 2013

किष्किन्धा कांडः दूसरी किस्त

तथा स बालिनं हत्वा सुग्रीवमभिषच्य च वसन् माल्यवतः पृष्ठे रामो लक्ष्मणब्रवीत्', वाल्मीकि. किष्किंधा पर्व 27,1। एतद् गिरेमल्यिवतः पुरस्तादाविर्भवत्यम्बर लेखिश्रृंगम्, नवं पयो यत्र घनैर्मया च त्वद्धिप्रयोगाश्रु समं विसृष्टम्', रघुवंश 13,26।
 
यानी यही वह पर्वत माल्यवंत है जिसपर राम रूके थे। उत्सुकता बढ़ गई थी। सामने ऋष्यमूक भी दिख रहा था। बनवारी लाल जी अभिभूत हुए जा रहे थे। अगर राम को भगवान न भी मानें, सिर्फ एक दिलेर इंसान भी मान लें, तो भी इन सभी किताबों में वर्णित जुगराफिये का कायल हुआ जा रहा था।



माल्यवन्त रघुनाथ मंदिर। भई, क्या ही खूबसूरत पत्थर...उनके बीच झुलसती गरमी में उठती दाह..। ज़मीन पर गरमी की वजह से जो तरंगे उठ रही थीं, वो दिख सी रही थीं। परछाईयां हिल रही थी। तकरीबन डेढ़ हज़ार साल पुरानी मंदिर की उस भव्य इमारत में घुसा तो सबसे पहले साए की खोज की हमने। 


कैमरे पर खटाखट तस्वीरें लिए जा रहा था मैं। स्टिल कैमरा घुमाने में कोई लफड़ा नहीं था। मंदिर के गोपुर से भीतर गया तो एक प्रशस्त आंगन था। ऐन सामने मंदिर...मंदिर में स्पीकर पर बजता रामधुन। लेकिन थोड़ा अलग सा। 


गौर किया तो हमारे उत्तर भारत की तरह मानस पाठ नहीं था। 


ठीक सामने तुलसी का पौधा, हरा। तुलसी के पौधे पर उसके मंजर (फूल) लगे थे। ऐसी तुलसी बड़ी गजब की दिखती है। मुख्य मंदिर के बाईं तरफ नीम का पेड़ था। फूलों के कुछ पौधे थे जो गरमी से हलकान हो  रहे थे। मौसमी फूलों की जगह स्थायी किस्म के फूलों को तरजीह मिली थी। जिनको पानी-वानी, देख-रेख की ज्यादा चिंता नहीं रहती। 


मंदिर का चबूतरा चार सीढियों ऊपर था। माथे पर तिलक-त्रिपुंड रचाए दो नौजवान पुजारी रामायण पाठ में लीन थे। शायद दोपहर की वजह से, या शायद गरमी  की वजह से, शायद प्यास से, या उनको नींद सी आ रही थी, या फिर भूख लग आई थी, कतिपय कारणों से पाठ का स्वर धीमा था।

पुजारियों के सुर में ऊब या झल्लाहट थी। पता नही क्यों। पता नहीं शिकायत राम से ही, इत्ती दूर क्यों आ गए थे पहाड़ पे? 

बहरहाल, मंदिर के अंदर हम गए तो हम ही तीन लोग सैलानी के रूप में थे। मैं, कैमरामैन बनवारी जी और कैमरा सहायक विनोद। माल्यवन्त रघुनाथ मंदिर में दक्षिण भारतीय स्थापत्य की सारी विशेषताएं हैं। मंदिर में बहुत सारे खंभे हैं। और पुजारी ने अचानक हमारे लिए गर्भगृह का पट भी खोल दिया। 

हमने कहा, दोपहर में पट कैसे खोला तो बुजुर्ग मुख्य पुजारी का कहना था कि आप इतनी दूर से आए हैं राम के लिए तो राम का कर्तव्य है कि आपके लिए दोपहर में जगे। मैं मुस्कुरा उठा...बहरहाल, मैं उस गर्भगृह में मूर्ति देखना चाहता था। 

बुजुर्ग पुजारी ने बताया कि माल्यवन्त रघुनाथ मंदिर में न जाने कितने वर्षों से अखंड वाल्मीकी रामायण का पाठ होता है। मंदिर के गर्भगृह में राम, सीता, लक्ष्मण और हनुमान की मूर्तियां हैं। इन मूर्तियों की खासियत है कि इनमें राम बुद्ध की तरह भूमि स्पर्श योग मुद्रा में हैं, यानी उनका बायां हाथ भूमि को स्पर्श कर रहा है। दूसरा नाभि स्थल को। सीता यहां कमलेश्वरी के रूप में हैं। 

कमला लक्ष्मी को कहा जाता है। सीता के चार हाथ हैं, जिनमें लक्ष्मी की तरह कमल वगैरह हैं। लक्ष्मण भी यहां धनुषबाण के स्थान पर आशीर्वाद की मुद्रा में हैं। यह आश्चर्यजनक था। मैंने इससे पहले कहीं, लक्ष्मण को बैठे हुए और इस तरह आशीर्वाद की मुद्रा में नही देखा था।

ये तीनों मूर्तियां काले ग्रेनाइट की बनी थीं। मूर्तियों के  बदन पर पर्याप्त, बल्कि पर्याप्त से भी ज्यादा जेवरात थे। माल्यवन्त रघुनाथ मंदिर का गर्भगृह एक ही पत्थर को काटकर बनाया गया है। इसी पत्थर में उभार कर उकेरे गए हैं, हनुमान। माल्यवन्त रघुनाथ मंदिर के इस एकाश्म गुहा में हनुमान राम दरबार की तरह विनीत भाव में तो हैं, लेकिन वह अपने हाथ से सीता की चूड़ामणि देते दिखाए गए हैं। 

पुजारी जी ने कहा कि प्राचीन मंदिर में सिर्फ हनुमान राम और लक्ष्मण थे। लेकिन बाद में सीता को प्रतिष्ठित किया गया। और एकाश्म मंदिर के ऊपर विशाल माल्यवन्त मंदिर का निर्माण करीब डेढ़ हज़ार साल पहले सन् 650 ईस्वी के आसपास पल्लव राजा नरसिंह वर्मन् प्रथम ने करवाया। 

बहरहाल,  जब रामायण पाठ कर रहे पुजारियों की शिफ्ट बदली, तो पाठ करके उठे पुजारी से मैंने बात करनी चाही। पहले तो नाम जानकर ही हैरत हुई, और बात करने में उच्चारण का लहज़ा। युवा पुजारी की मूंछें अभी कायदे से उगी भी नहीं थी, नाम था मधुसूदन शास्त्री। मैंने चौंककर कहा कि कहां के हो, तो उसने बिहार का नाम लिया। पता चला, साहब बेगूसराय के हैं। 

वाल्मीकी जी को गर्व होता होगा, बेगूसराय के युवा कर्नाट्क की किष्किंधा में रामायण पाठ कर रहे हैं। माल्यवन्त रघुनाथ मंदिर में बातें करने पर पता चला कि युवा पुजारियों का एक समूह तिरूपति ट्रस्ट की देखरेख में मंदिरों की देखभाल और पूजा पाठ करता है। ये सभी पुजारी  तिरूपति से प्रशिक्षित थे। 

तभी हमें मुख्य पुजारी ने बातचीत का न्यौता दिया। बातों-बातों में यह भी पता चला कि रामनवमी को छोड़कर माल्यवन्त रघुनाथ मंदिर में लोगों का आना इक्का-दुक्का ही होता है। हम जैसा कोई आवारा सैलानी ही उधर आ निकलता है। लेकिन रामनवमी में काफी भीड़ होती है।

हमने पूछा कि आपका खाना खर्चा कैसे चलता है, तो मुख्य पुजारी ने कहा कि घरबार तो है नहीं, रूपया पैसा क्यों चाहिए। बाकी बचा, मंदिर की देखभाल,तो वह एएसआई के जिम्मे है। ऐतिहासिक इमारत वाला हिस्सा। और जो मंदिर वाला सामान्य हिस्सा है, वहां के पूजा पाठ प्रसाद के खर्चे अगल बगल के किसान खुद साल में एक बार दे जाते हैं अनाज-दालें वगैरह।

विश्राम शाला में कंप्यूटर भी था। मुझे हैरत में पड़ा देखकर मुख्य पुजारी ने कहा था, हिसाब किताब साफ रखने के लिए। एक पैसे की बेईमानी बर्दाश्त नहीं। देश भर में बाबाओं की करतूत ऐसी घिनौनी हो चुकी है,कि पुजारी की ऐसी बातों का सहसा भरोसा नहीं हो पा रहा था।

हमने जाने की इजाज़त मांगी तो बुजुर्गवार पुजारी ने कहा प्रसाद पाते जाओ(खाना खाने का न्यौता था जनाब)। अब आदतन कहें या जन्मना ब्राह्मण होने की वजह से, हम प्रसाद पाने या कुछ भी खाने में कभी संकोच नहीं करते। हम प्रसाद पाने के लिए बैठे, तो भूख, गरमी..या शुद्धता जो भी कारक सबसे प्रबल हो, हमने जो स्वाद पाया उसका जिक्र किया नहीं जा सकता। बस एक ही शब्द हैः दिव्य।

दाल में नमक कम थी, तो छोटू पुजारी जी रामरस ले आए, जो नमक का सधुक्कड़ी नाम है। ऐसी ही कई चीज़े, जिनका नाम सधुक्कड़ी था, पर स्वाद वही था, बिहार के हमारे गांव का। कर्नाटक में घूमते-घूमते नारियल के तेल में पकी सब्जी, और खट्टी सब्जी, रसम खाते-खाते खाना हमारे लिए एक रस्म भर रह गया था। यहां खाने में भात था, दाल थी, लौकी आलू की तरकारी थी, हरी मिर्च थी, और आम का अचार...मित्रो, ऐसा अदुभत स्वाद था कि हमें लगा हमने बरसों से कुछ खाया ही नहीं।

खाने के बाद हमारे जाने की बारी आई, तो मिष्टान्न का प्रबंध भी था...आगे जाने के लिए मुट्ठी भर मेवा भी...सबके हाथों में। मंदिर में खिले पीले कनेर, नीम की फर-फर पत्तियों, कोने के कुएं, माल्यवन्त रघुनाथ मंदिर के खंभो...इन सबकी परछाईं को मैंने जी भर कर देख लिया. इनकी परछाई में हमने दो घंटे बिताए थे। पता नहीं अब कब मुलाकात हो।

इनकी तस्वीरें अलग से पोस्ट में साझा करूंगा। 

माल्यवन्त रघुनाथ मंदिर के बाद हमारी मंजिल थी, हम्पी। जहां विजयनगर के खंडहर हमारा इंतजार कर रहे थे। बाहर का तापमान कोई 46 डिग्री सेल्सियस के आसपास था। लेकिन तारकोल की उबलती सड़के पर गाड़ी भागी जा रही थी-सर्रर्रर्रर्र....।

जारी...।

Wednesday, October 30, 2013

आवारेपन का रोज़नामचाः किष्किन्धा कांड!!

कर्नाटक विधानसभा चुनाव के दौरान किसी जगह टिककर रहने का मौका नहीं मिला। बीजापुर, गुलबर्गा वगैरह में सूखे और किसानों की आत्महत्या की ख़बरें कर चुका था, मन और तन दोनों क्लांत हो चुके थे।

हॉसपेट थोड़ा दक्षिण है गुलबर्गा से। बेल्लारी ज़िले में। अरे वही बेल्लारी ज़िला, अवैध खनन और रेड्डी बंधुओं के लिए आप उत्तर भारत में जानते होंगे। हॉसपेट में हमें राहुल गांधी और जगदीश शेट्टर की रैलियां कवर करनी थी। मेरा लालच कुछ और था। मैं विजयनगर साम्राज्य के खंडहर देखना चाहता था।

हंपी, यानी वह जगह जहां विजयनगर साम्राज्य के अवशेष है, हॉसपेट से महज सोलह किलोमीटर दूर है। राहुल की रैली के बाद शेट्टार की रैली थी, और जगदीश शेट्टार की रैली सुबह-सुबह निपट गई थी। अपने ऑफिस के काम से फारिग होने के बाद हम विजयनगर के भग्नावशेष देखने चल दिए थे।

चाय की दुकानपर किसी दोस्ताना से स्थानीय शख्स ने बताया, कि अगर असल में विजयनगर की झलक देखना चाहते हो तो सीधे हंपी पर धावा मत बोल दो। दोपहर की तेज़ धूप में चाय का आस्वाद लेते हुए हम स्थानीय ज्ञान भी लेते रहे, चाय का भी। क्योंकि चाय का तो क्या है, टी इज़ कूल इन समर....एंड वॉर्म इऩ विंटर।

हंपी जाने के रास्ते में किसी पहाड़ी पर भग्नावशेष फोटोः मंजीत

तो कर्नाटक में होसपेट में उस दिन तकरीबन 46 डिग्री सेल्सियस तापमान था। खाल झुलसी जाती थी, चाय ने पसीने की बूंदों का आमंत्रित कर खाल को सुरक्षा कवच दिया।

उन मित्र ने यह भी बताया कि आप इधर आए हैं तो रीछों की एक सेंचुरी भी देखते जाएँ। लेकिन तपते दोपहर में जब हम दोर्जे में स्थित उस सेंचुरी गए तो वन संरक्षकों ने बताया कि अव्वल तो गेट से अंदर जाने को नहीं मिलेगा। जाने भी दिया तो कुछ दिखेगा नहीं, क्योंकि रीछ दोपहर को आराम करते हैं। इसलिए इधर सुबह को आने का।

 हम सुबह की योजना बनाकर खाली हाथ, खाली आंख लौट चले।
सड़क किनारे बोर्ड दिखा तो रूक गए थे हम

बहरहाल, जब उस अपरिचित मित्र के बताए अनुसार हम पचीस किलोमीटर के दायरे में घूमने निकले, तो सड़क के किनारे कई ऐसी खंडहर देखने को मिले, जो हमने किताबों में देखे थे। विजयनगर मार्का अवशेष।

हर जगह गाड़ी रोकी जाती, हम उतर कर फोटो उतारते। फिर गाड़ी आगे बढ़ती।

अचानक एक जगह मेरी नजर गई, तेज़ धूप में सड़क के किनारे बोर्ड लगा था--माल्यवन्त रघुनाथ मंदिर। मंदिरो में मेरी दिलचस्पी तभी होती है जब वहां भीड़ हो। हमारे कैमरामैन बनवारी लाल का नज़रिया अलग है, बुजुर्ग हो चले हैं। पुण्य कमाने का कोई मौका नहीं छोड़ते।

हमारी गाड़ी चढाई पर चल दी। एक बोर्ड और लगा था, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण का था। बोर्ड में लिखा था कि मान्यता के अनुसार, रामायण में वर्णित किष्किन्धा यही था....
सामने रहा सुग्रीव के छिपने का ठौर ऋष्यमूक फोटोः मंजीत
मंदिर अभी कुछ दूर था। रास्ते में एक प्रवेश द्वार टाइप का बन रहा था। वहां एक बुजुर्गवार भी मिले जो एएसआई की तरफ से उस मंदिर का प्रवेश द्वार बनवा रहे थे।


मैंने उनसे पूछा कि यह कौन सी जगह है तो उनने बताया कि यह इलाका है किष्किन्धा का। और आप जिस जगह पर खड़े हैं वह है माल्यवान या प्रस्रवण गिरि। किष्किन्धा के राजा बालि को मार कर राम ने इसी पर्वत पर वर्षाकाल के चार महीने बिताए थे। मैंने पूछा, तब तो ऋष्यमूक भी होगा?

बुजुर्गवार ने तर्जनी सामने कर दी। सामने पत्थरों के आधिक्य वाला पर्वत था, जिसकी ऊंचाई तो बहुत अधिक नहीं थी, लेकिन वह वही पर्वत था जिसका वर्णन वाल्मीकी रामायण और रघुवंश में है।
माल्यवन्त रघुनाथ मंदिर का गोपुर फोटो- मंजीत ठाकुर


'तथा स बालिनं हत्वा सुग्रीवमभिषच्य च वसन् माल्यवतः पृष्ठे रामो लक्ष्मणब्रवीत्', वाल्मीकि. किष्किंधा पर्व 27,1।

एतद् गिरेमल्यिवतः पुरस्तादाविर्भवत्यम्बर लेखिश्रृंगम्, नवं पयो यत्र घनैर्मया च त्वद्धिप्रयोगाश्रु समं विसृष्टम्', रघुवंश 13,26।

यानी यही वह पर्वत माल्यवंत है जिसपर राम रूके थे। उत्सुकता बढ़ गई थी। सामने ऋष्यमूक भी दिख रहा था। बनवारी लाल जी अभिभूत हुए जा रहे थे। अगर राम को भगवान न भी मानें, सिर्फ एक दिलेर इंसान बी मान लें, तो भी इन सभी किताबों में वर्णित जुगराफिये का कायल हुआ जा रहा था।



जारी।