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Monday, March 14, 2022

राजनीतिः क्या केजरीवाल बगैर कांग्रेस वाकई मोदी के विकल्प बन सकते हैं?

आम आदमी पार्टी ने पंजाब में प्रचंड जीत दर्ज की है. और देश की गैर-भाजपा, गैर-कांग्रेसी एकमात्र पार्टी है जो एकाधिक राज्यों में सत्ता में है. जाहिर है, मेरे कई मित्रो ने भाजपा के खिलाफ 2024 के संभावित गठबंधन की धुरी के रूप में आप को देखना शुरू कर दिया है.

लेकिन, आप के लिए यह रास्ता आसान नहीं होगा.

1. गैर-भाजपा गठबंधन का कोई ढांचा तय नहीं है.

2. ममता और केसीआर विपक्ष की ओर से मुख्य खिलाड़ी बनने का दावा ठोंके हुए हैं.

3. विपक्षी खेमे में अभी भी एकमात्र राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस है और वह अपना रुतबा यूं ही नहीं छोड़ देगी.

4. आम आदमी पार्टी राज्य के लिहाज से महज 20 लोकसभा सीटों पर असरदार होगी. ममता के पास 42 सीटों का असर होगा. यहां तक कि राजस्थान और छत्तीसगढ़ (कांग्रेसनीत राज्य) में भी कुल मिलाकर 36 सीटें हैं.

5. आप अभी तक विधानसभा के प्रदर्शनों को लोकसभा जीतों में बदलने में नाकाम रही है. दिल्ली में अभी तक यह एक भी सीट नहीं जीत पाई है. पंजाब में भी 2014 के चार से गिरकर यह 2019 में एक पर आ गया.

6. गुजरात विधानसभा में प्रदर्शन पर निगाह रखनी होगी, वह भी तब अगर केजरीवाल गुजरात के दोतरफा मुकाबले को त्रिकोणीय बना पाएं. इस राज्य में दो दशकों से भाजपा एक भी विस या लोस चुनाव नहीं हारी है. कांग्रेस ने 2017 में मुकाबला कड़ा किया था पर 2019 में भाजपा कि किल में यह खरोंच तक नहीं लगा पाई थी.

7. 2024 के लोस चुनावों से पहले 10 राज्यों में विस चुनाव होने हैं—हिमाचल, कर्नाटक, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, राजस्थान, तेलंगाना, त्रिपुरा, मेघालय, नगालैंड और मिजोरम. इन ग्यारह राज्यों (गुजरात समेत) कुल 146 लोस सीटें हैं. इनमें से 121 पर

भाजपा काबिज है. इन सभी राज्यों में भाजपा के मुकाबिल सिर्फ कांग्रेस है.

8. गुजरात, हिमाचल, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान में 95 सीटें हैं. यहां सीधा मुकाबला कांग्रेस और भाजपा के बीच ही है.

9. कांग्रेस का चार राज्यों में शासन है—दो में यह सीधे सत्ता में है और दो में गठबंधन के जूनियर साझीदार के रूप में, लेकिन पार्टी 15 अन्य राज्यों में प्रमुख खिलाड़ी है. सात राज्यों—अरुणाचल, छत्तीसगढ़, गुजरात, हिमाचल, मध्य प्रदेश, राजस्थान और उत्तराखंड—में कांग्रेस और भाजपा के बीच सीधा मुकाबला है, इन राज्यों में लोस की 102 सीटें हैं. इन राज्यों मे अन्य क्षेत्रीय दलों की मौजूदगी तकरीबन नगण्य है ऐसे में कांग्रेस का प्रदर्शन खराब होगा तो भाजपा को नुक्सान पहुंचा सकने वाली अन्य ताकत दिखेगी भी नहीं. असल में इन राज्यों में कांग्रेस का बोदा प्रदर्शन ही भाजपा की शक्ति है.


 

10. पंजाब, असम, कर्नाटक, केरल, हरियाणा, महाराष्ट्र, झारखंड, गोवा, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम और नगालैंड में कांग्रेस निर्णायक भूमिका अदा कर सकती है. इन राज्यों में लोस की 155 सीटें हैं.

कांग्रेस से अलग कोई भी गठबंधन भाजपा विरोधी मतों के बिखराव का सबब बनेगा. याद रखिए, 2019 में कांग्रेस ने 403 सीटों पर चुनाव लड़ा था और 196 पर सेकेंड आई थी. भले ही जीती 52 हो.

इसलिए, मोदी का विकल्प बनने की केजरीवाल की महत्वाकांक्षा, कम से कम 2024 के लिए दूर की कौड़ी लगती है. हो सकता है केजरीवाल कदम दर कदम आगे बढ़ाएं, पर इसमें वक्त लगेगा. 2024 में वह ऐसा तभी कर पाएंगे अगर कांग्रेस उनको आगे करे. और कांग्रेस ऐसा क्यों करेगी?

Friday, September 2, 2016

सियासत है काजर की कोठरी

बहुत दिन नहीं बीते हैं, जब रामलीला मैदान में तिरंगा लहराते हुए अरविन्द केजरीवाल इकट्ठी भीड़ को कहते थेः सारे नेता चोर हैं। नेताओं से उकताई हुई भीड़, तब ज़ोर से तालियां बजाती थी। अभी आम आदमी पार्टी के विधायकों पर, संसदीय सचिव मामले से लेकर सेक्स सीडी और छेड़खानी के मामले चल रहे हैं, जनता एक बार फिर ताली बजा रही है। ताली बजाना जनता का काम है। सियासत में शूर्पनखा की नाक कटे या किसी और की, जनता ताली बजाती है।

फिर अन्ना आंदोलन के मूलधन को चुनावी खाते में डालकर केजरीवाल ने बड़ी जुगत से इसका ब्याज दिल्ली में उठाया और शायद पंजाब और बाकी जगहों पर भी उठा ही लेते। राजनीति को कीचड़ मानकर उसमें कूदकर तंत्र बदलने का सपना (अगर कोई हो) केजरीवाल ने अगर 2012 में देखा तो उसके पीछे राजनीतिक भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना आंदोलन का दबाव था।

जनता को जोश था तो बिना तजुर्बो वालों को सिर्फ केजरीवाल के नाम पर जिताते चले गए। बंपर बहुमत दिया। इसीलिए सवाल सिर्फ इतना नहीं कि केजरीवाल के तीन मंत्री तीन ऐसे मामलो में फंसे हैं, जो आंदोलन में शामिल किसी के लिये भी शर्मनाक हों। सवाल तो यह है कि तोमर हो या असीम अहमद खान या फिर संदीप कुमार, इन्होंने अन्ना आंदोलन के न तो कोई भूमिका निभाई, ना ही केजरीवाल के राजनीति में कूदने से पहले कोई राजनीतिक संघर्ष किया।

सियासत का साफ करने का दावा, और सभी नेता चोर है के नारे पर सवार आम आदमी पार्टी के पांच विधायक नौंवी पास हैं तो 5 विधायक दसवीं पास। शुरू में ही कानून मंत्री बने जितेन्द्र तोमर तो कानून की फर्जी डिग्री के मामले में ही फंस गये।

तो क्या यह मान लिया जाए आम आदमी पार्टी ने सियासत को उसी तर्ज पर अपनाया जो बाक़ी की पार्टियों के लिए भी मुफीद रही है। मसलन, लोकसभा में 182 सांसद, देश भर की विधानसभाओं में 1258 विधायक और तमाम राज्यों में 33 फीसदी मंत्री दागदार है। तो साथी लोग तर्क देते हैं, ऐसे में केजरीवाल के 11 विधायक दाग़दार हुए तो क्या?

सवाल यह भी नहीं है कि जिस सेक्स सीडी में संदीप कुमार दिख रहे हैं वह गैर-कानूनी है या सिर्फ अनैतिक। संदीप के साथ सीडी में दिखने वाली महिला ने कोई शिकायत नहीं की है, संदीप कुमार की पत्नी ने कोई शिकायत नहीं की है तो मामला कहीं से भी कानूनी नहीं है। कई लोग इस बात को लेकर मीडिया को कोस रहे हैं कि सबके शयनकक्षों में झांकने का हक़ कैसे ही मीडिया को। ठीक है।

लेकिन इसी के बरअक्स सवाल तो यह भी है कि जिन आदर्शों के साथ आम आदमी पार्टी बनाई गई, गठन के वक्त जो सोच थी, उम्मीदें थीं, वह सब इतनी जल्दी कैसे और क्यों मटियामेट होने लगी?

सत्ता आती है तो सबसे पहले सच्चे मित्र छूट जाते हैं और मित्रों को आप दुश्मन मानते हैं यह तो केजरीवाल ने भी साबित किया। विचारक योगेन्द्र यादव और सहायक प्रशांत भूषण को बाहर का रास्ता दिखाकर चमचों की फौज़ खड़ी करके केजरीवाल ने आगे की राह को खाई की तरफ मोड़ दिया।

संदीप कुमार प्रकरण को महज सेक्स सीडी पर मत रोकिए। इसको एक राजनीतिक घटना की तरह भी देखिए। जिस ओमप्रकाश ने सीडी उपलब्ध कराई है, वह है कौन? वह संदीप कुमार से चुनाव में हारे पूर्व-विधायक जयकिशन का साथी है। कथित तौर पर सरकारी ज़मीन पर कब्जा करके कोयले का कारोबार करता है और उसने संदीप कुमार पर पैसे मांगने और धमकाने के आरोप भी लगाए थे।

अचानक उसके पास मंत्री की अश्लील सीडी कहां से आ गई? आखिर अनजान शख्स ने ओमप्रकाश को ही सीडी और फोटोग्राफ वाला लिफाफा क्यों दिया और कैसे खुद को कोयला कारोबारी बताने वाला शख्स अचानक ही कांग्रेस का नेता बन गया?

देखिए, सियासत काजर की कोठरी है। सीडी में संदीप थे यह तय रहा, तभी तो केजरीवाल ने अपने मंत्रिमंडल से उनको बाहर का रास्ता दिखाया। लेकिन संदीप ने दलित कार्ड खेला, जो एक हद तक हास्यास्पद ही है। लेकिन यह न कहिए कि निजी मामले को राजनीतिक रंग दिया जा रहा है, शयनकक्ष की सियासत हो रही है।

मोदी के सूट पर ही कितना तंज कसा था मनीष सिसोदिया ने और केजरीवाल ने! मनीष सिसोदिया ने नरेन्द्र मोदी की विदेश नीति पर तंजभरा ट्वीट किया थाः झूला झुलाने, बिरयानी खिलाने और 10-10 लाख के सूट पहनकर दिखाने से दुनिया में कूटनीति नहीं चलती।

कपड़े पहनने और खाने पर सियासत की शुरूआत आपने की थी, तो कपड़े उतारने पर भी सियासत होगी ही। मानता हूं कि संदीप कुमार की सेक्स सीडी का मामला अभी तक गैर-कानूनी नहीं है, लेकिन सियासत में लगे लोगों को जनता साफ-सुथरा पसंद करती है।

वरना कितने सिंघवियों, राघवों और तिवारियों ने बहुत कुछ किया है, आज भी उनकी राजनीति चमक रही है। संदीप की भी चमक जाएगी। और मोरल? सियासत में मोरल नाम का कोई ग्राउंड नहीं है।


मंजीत ठाकुर

Monday, January 27, 2014

केजरीवाल के नाम एक आम आदमी का खत

केजरीवाल जी,

नमस्कार, प्रिय नहीं लिख रहा हूं क्योंकि आप मेरे प्रिय नहीं है। आदरणीय तो मैं बहुत कम लोगों को मानता हूं। पता नहीं, मेरा लिखा आप पढ़ेंगे या नहीं, पढ़े भी क्यों, आप दिल्ली के मुख्यमंत्री ठहरे, और कई आम आदमियों के खास नेता बन चुके हैं।

मैं आम आदमी हूं। लेकिन न आम आदमी पार्टी का सदस्य नहीं। न कभी इच्छा जाहिर की बनने की, न कभी बनूंगा। मैं राजनीति के पचड़े में पडूंगा ही नहीं, आम आदमी राजनीति नहीं करता। मेरे लिए दो वक्त की रोटी जुटाना ज्यादा अहम है। मेरे लिए गैस का महंगा होता जाना ज्यादा मुश्किलें खड़ी कर रहा है।

मैं सिर पर टोरी नहीं लगाता। न टोपी पहनता हूं न पहनाता हूं। जन लोकपाल के लिए अन्ना के आंदोलन के बाद राजनीति के इस नव-टोपीवाद में टोपी निर्माता कौन रहा, ठेका किसको दिया गया, पता नहीं आपने इसका ब्योरा दिया या नहीं, लेकिन मैं जाड़े में बंदरटोपी भी नहीं पहनता...सफेद टोपी तो खैर पहनता ही क्यों। सत्तर के दशक के आखिर और अस्सी के दशक के पूर्वार्ध में सिनेमा वालो ने सफेद टोपी वाले नेताओं के खलनायक की तरह पेश किया। मेरे मन में परेश रावल वाली वो छोकरी फिल्म अब भी छपी हुई है। वो छोकरी में परेश रावल नेतागीरी के लिए अपनी बेटी तक को दांव पर लगा देता है।

बेटी से याद आया, चुनाव के पहले, आपने डीडी के लिए अनुज यादव को दिए इंटरव्यू में कहा था, आप किसी से समर्थन नहीं लेंगे। आपने अपने बच्चों की कसम भी खाई थी, लेकिन आपने समर्थन भी लिया, सरकार भी बनाई। तर्क तो आपके पास होंगे ही।

केजरी जी, बड़ी उम्मीद थी आप से। आप भी वही निकले। नागार्जुन बेतरह याद आ रहे हैं, लिखा था बाबा ने, सौंवी बरसी मना रहें हैं तीनो बंदर बापू के, बापू को ही बना रहे हैं, तीनों बंदर बापू के।

शुरू शुरू में आपको देखता था, तो प्रभावित हुए बिना ही आपकी तुलना फिल्म नायक के अनिल कपूर से करता था। मुझे तो यकीन ही नहीं था कि आप की पार्टी को 28 सीटें मिल जाएंगी...हमको तो लगा कि पांच सीटें भी मिल जाएं तो जय सिया राम। काहे कि आम आदमी हूं, असली वाला आम आदमी...पार्टी वाला नहीं... दिन भर इसी जुगाड़ में लगा रहता हूं कि किधर से काटूं, किधर जोड़ूं...कि महीने के आखिर तक चाल जाए।

जनाब, आपने एक महीने गुजार दिए। आंदोलन के सिवा कुछ किया नहीं। सास-बहू सीरियलों के विज्ञापनों के बीच वक्त चुराकर जब भी टीवी पर खबर देखता हूं, आपके धरने, बिन्नी के धरने, और अक्खड़ सोमनाथ भारती के सिवा कुछ सुनता नहीं।

सच सच बताइएगा, आपको यकीन था कि आप सीएम बन जाएंगे दिल्ली के। आपकी बजाय कोई दूसरी सरकार होती और आप दस विधायकों के साथ विपक्ष में होते तो सरकार की धज्जियां बिखरने में कितना वक्त लगता आपको।

कांग्रेस या बीजेपी की सरकार के मंत्री भारती की तरह काम करते तो आपका धरनास्थल क्या रेल भवन ही होता क्या?

देखिए केजरी साहब, दिल्ली का सीएम बनने से पहले आपको क्या सचमुच इल्म नहीं था कि दिल्ली के मुख्यमंत्री के पास क्या अधिकार हैं? अब आपसे कोई शिकायत नहीं है, क्योंकि हमें नेताओं से कोई उम्मीद ही नहीं रहती है। लेकिन गुरु आपने तो पहले मोर्च पर सारी बारूद खत्म कर दी है...।

लेकिन इतना साफ हो गया है कि आपमें और बाकी पार्टियों में राजनीति करने के तरीकों के अलावा कोई अंतर नहीं...साधन अलग-अलग हैं साध्य वहीः सत्ता। वरना पानी 666 लीटर मुफ्त करने के अलावा कोई और जमीनी काम बताइए मालिक।

अकबर इलाहाबादी लिख गए हैं, हंगामा ये वोट का फ़क़त है, मतलूब हरेक से दस्तख़त है
.........पांव का होश अब फ़िक्र न सर की, वोट की धुन में बन गए फिरकी.....।

केजरी जी, आखिरी में इतना ही कह रहा हूं, जंतर-मंतर पर भीड़ से किनारे खड़ा था मैं, लेकिन आपके साथ था। रामलीला मैदान में, भीड़ के आखिर में, तिरंगा लहराता हुआ आदमी मैं ही था, अन्ना ने जब अनशन तोड़ा था...तो मेरी आंखों में आंसू आ गए थे, और आवाज़ भर्रा गई थी। लेकिन, आप वहां से चलकर, विवादों के घेरे में आ गए।

हमने उम्मीद की थी कि आप भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई के जिस युद्धपोत पर सवार होकर सचिवालय तक पहुंचे, वहां से आप कुछ ठोस लेकर आएंगे...लेकिन सुना है एक लाख शिकायतें आ गईं, आपने कुछ करने की बजाय धरने पर बैठना मुनासिब समझा।

ठीक है, कोई बात नहीं, आप धरने पर बैठिए, आपको यही मुनासिब लगता है। लोकसभा का चुनाव आ रहा है, हम वही करेंगे जो हमें मुनासिब लगता है।


आपके घोषणा-पत्र का पहला अक्षर, और आपके काम की आखिरी प्राथमिकता,

एक आम आदमी