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Thursday, September 21, 2017

शांतनु हत्याकांडः प्रधानमंत्री मोदी के नाम एक खुला खत

आदरणीय प्रधानमंत्री जी,

आप बेहद व्यस्त रहते हैं. आपको व्यस्त रहना चाहिए क्योंकि व्यस्त प्रधानमंत्री होने का सगुन देश के लिए अच्छा होता है. हम छोटे थे तो हमने एक और प्रधानमंत्री एचडी देवेगौड़ा के बारे में सुना था, और हमने अखबारों में पढ़ा था कि देवेगौड़ा कैबिनेट की बैठकों में झपकी लिया करते थे.

मोदी जी आप देवेगौड़ा नहीं हैं. आपने करीब 57 योजनाएं देश के लिए लागू की हैं. 2014 में जब चुनाव हो रहे थे तब पूरे देश के साथ मुझे भी उम्मीद थी कि आप देश के बदलने वाले कदम उठाएंगे. मुझे विकास, जीडीपी की वृद्धि दर, नोटबंदी, जनधन खातों और जीएसटी पर कुछ नहीं कहना है. मैं आपका ध्यान खींचना चाहता हूं पत्रकारों की हत्याओं की तरफ. त्रिपुरा के पत्रकार शांतनु भौमिक की हत्या हो गई है. नौजवान ही था. यह हत्या एक और पत्रकार की हत्या है.

वह नौजवान त्रिपुरा के एक लोकल चैनल का रिपोर्टर था. रिपोर्टर, जी हां, रिपोर्टर. वह संपादक नहीं था. वह किसी सरकार या पार्टी के लिए या उसके खिलाफ़ एजेंडा सेटर नहीं था. मुझे पता है कि शांतनु जैसों के लिए वामी आंदोलनकारी आंसू नहीं बहाएंगे, न फेसबुक पर अपनी डीपी बदलेंगे, न उसकी तस्वीर लेकर जंतर मंतर पर छाती पीटेंगे. कोई मोमबत्ती लेकर मार्च भी नहीं करेगा, क्योंकि वह किसी विचारधारा का प्रतिनिधित्व नहीं करता था. शांतनु की मौत पर किसी टीवी चैनल का स्क्रीन काला नहीं हुआ है.

लेकिन, यहीं आकर आपको ज़रा कदम बढ़ा देना होगा. प्रधानमंत्रीजी, आप तो लोकसभा में प्रवेश करने से पहले उसे मंदिर की तरह उसकी सीढ़ियों पर सिर नवाकर गए थे. लोकतंत्र का चौथा खंभा बुरी तरह हमलों से परेशान है. यह हमले पिछले तीन साल में कुछ ज्य़ादा हो गए हैं. 2014 और 2015 में 142 पत्रकारों पर हमले हुए हैं और यह राष्ट्रीय अपराध रेकॉर्ड्स ब्यूरो का आंकड़ा है.

2014 में पत्रकारों पर 114 घटनाएं हुई थीं उसमें 32 गिरफ्तारियां हुईं. यह आंकड़ा मेरा नहीं है, यह जानकारी गृह राज्यमंत्री हंसराज अहीर की दी हुई है. 1992 से लेकर आजतक पत्रकारों के काम के सीधे विरोध में 28 पत्रकारों की हत्या की जा चुकी है. यह आंकड़ा भी खामख्याली नहीं है. यह पत्रकारों की सुरक्षा के लिए बनी कमेटी की रिपोर्ट में कहा गया है.

एनसीआरबी का एक और आंकड़ा है जिसमें कहा गया है कि पिछले 3 साल में 165 लोगों को देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार किया गया है. जी नहीं, जम्मू-कश्मीर के पत्थरबाज या आतंकी होते तो मैं इस आंकड़े के पक्ष में खड़ा होता, इनमे ले 111 बिहार, झारखंड, हरियाणा और पंजाब से हैं.

ह्यूमन राइट्स वॉच (मैं इनके दुचित्तेपन से ऊब गया हूं) कहता है कि भारत में इस साल जून तक 20 दफा इंटरनेट बंद किया गया है. और प्रेस फ्रीडम सूचकांक में भारत 136वें पायदान पर है.

जिन 142 पत्रकारों पर हमले हुए हैं उस सिलसिले में अबतक एक भी आदमी गिरफ्तार नहीं हुआ है.

प्रधानमंत्री जी, आपके विकास और सुशासन के नाम पर जनता ने उमड़ कर वोट किया था. आप साबित कर दीजिए कि देश के करोड़ो लोगों का विश्वास मिथ्या नहीं था. मुझे आपके राजनीतिक फैसलों पर कुछ नहीं कहना है. लेकिन पत्रकारों पर हो रहे हमले विधि-व्यवस्था (हालांकि यह राज्य का विषय है) पर सवालिया निशान लगा रहे हैं. लेकिन 2014 के बाद से हमलों में आई तेजी से आपका नाम खराब हो रहा है. मुझे उम्मीद है कि आप पत्रकारों और चौथे खंभे के निचले स्तर पर काम करने वाले रिपोर्टर्स और मीडियाकर्मियों के लिए कल्याण और सुरक्षा का कोई कदम जरूर उठाएंगे.

प्रधानमंत्रीजी, शांतनु की हत्या पर कुछ कहिए, क्योंकि देश में जो थोड़ी बहुत पत्रकारिता बाक़ी हैं इन्हीं 'शांतनुओं' की बदौलत बची है.

एक पत्रकार



Monday, May 16, 2016

पानी का धंधा-पानी

जिस तरह से देश में पानी का संकट बढ़ता जा रहा है, वह खतरे की घंटी है। इससे पहले भी मैं इसी स्तंभ में कह चुका हूं कि पानी का आय़ात कोई बेहतर विकल्प नहीं है और हर इकोसिस्टम को अपने लिए पानी खुद बचाना चाहिए, और वहां रहने वाले लोगों को पानी की मात्रा के हिसाब से खुद को एडजस्ट करना चाहिए।

फिर भी, जिस तेज़ी से आबादी बढ़ी है और उसी तेज़ी से पानी कम हुआ। (क्योंकि हम ने पानी बचाना नहीं सीखा) जैसे दृश्य बोलीविया में, चिली में हैं वैसे ही भारत के मराठवाड़ा-बुंदेलखंड में। ट्रेन से कब तक पानी पहुंचाते रहेंगे आप?

अभी स्थिति यह है कि आजादी के समय सन् 1947 में 6042 क्यूबिक मीटर पानी हर व्यक्ति के हिस्से का था। यह मात्रा सन् 2011 में घटकर 1545 क्यूबिक मीटर रह गया। आज की तारीख में, 1495 क्यूबिक मीटर पानी हर व्यक्ति के हिस्सा का है।

विकसित हो रहे देशों के कतार में भारत ही दुनिया का एक ऐसा देश है जहां पानी के प्रबंधन का कोई विचार नहीं है। कम से कम ठोस विचार तो नहीं ही है। इस्तेमाल में लाए जा चुके 90 फीसदी पानी को नदियों में उड़ेल दिया जाता है। सीधे शब्दों में आप इसे शहरों का सीवेज और उद्योगो का अवशिष्ट मानिए। पर्यावरण को और खुद नदी को कितना नुकसान होता है यह अलग मामला है। फिर कोई सरकार गंगा और यमुना को बचाने की कोशिशों में जुट जाती है।

आंकड़े बताते हैं कि देश की बरसात का 65 फीसदी पानी समुद्र में चला जाता है। खेती, खेती के लिए सिंचाई, सिंचाई में अंधाधुंध उर्वरकों का इस्तेमाल, कीटनाशकों का छिड़काव यह सब मिलकर पीने लायक पानी को भी प्रदूषित कर देते हैं और उसे पीने लायक नहीं छोड़ते।

एक मिसाल है कानपुर का। गंगा नदी के ठीक किनारे, कानपुर में गंगा की डाउनस्ट्रीम में जाजमऊ से आगे शेखुपूर समेत दो दर्जन गांव ऐसे हैं जहां का पानी पीने लायक नहीं है।

पानी को लेकर भारत का रास्ता एक ऐसी दिशा में बढ़ रहा है, जहां खेती की अर्थव्यवस्था भी ढह जायेगी और थर्मल हो या हाइड्रो पावर सेक्टर भी बिजली पैदा करने लायक नहीं रह पाएगा।

लेकिन, ऐसा नहीं है कि इस घटके पानी से और खराब होते पानी से किसी को फायदा नहीं है। इस संकट में भी धंधा है। आप को एक विज्ञापन याद तो होगा, एक मशहूर कंपनी का ठंडा वैसी जगह पर भी मिलता है जिस वीराने में हैंडपंप तक नहीं। जी हां, हैंड पंप हो न हो, बोतलबंद पानी हर जगह मिल जाएगा। इसमें वैसे बोतलबंद पानी निर्माता भी हैं जो नल का पानी भरकर आपको उसी कीमत पर देते हैं जिस पर बड़ी कंपनियां। बहरहाल, वो मुद्दा अलग है और उनकी औकात कोयले की खदान से साइकिल पर कोयला लाद कर ले भागे मजदूरो से अधिक नहीं।

आज की तारीख में बोतलबंद पानी का कारोबार डेढ़ सौ अरब का है। पानी का संकट बरकरार रहा या और बढ़ा (उम्मीद है कि बढ़ेगा ही) तो यह रकम भी 200 अरब पार कर जाएगी।

भारत जैसे देश में पानी का संकट मुनाफे के धंधे में बदलता जा रहा है। आज की तारीख में यही विकास की अविरल धारा है।

साल 2002 में नैशनल वॉटर पॉलिसी में सरकार ने पानी को निजी क्षेत्र के लिये खोल दिया। इसके तहत जल संसाधन से जुड़े प्रोजेक्ट बनाने, उसके विकास और प्रबंधन में निजी क्षेत्र की भागीदारी का रास्ता खुला और उसके बाद पानी के बाज़ार में नफा कमाने की होड़ लग गई।

आज भी साढ़े सात करोड़ से ज्यादा लोगों को पीने का साफ पानी उपलब्ध ही नहीं है। विज्ञापन कहता है कि एक खास आरओ ही सबसे शुद्ध पानी देता है। लेकिन सच यह भी है बोतलबंद पानी में भी कीटनाशक मौजूद हैं। यह बात सेंटर फॉर साइंस एंड एन्वायरमेंट की रिसर्च में सामने आई है।

वैसे भी भारत में मानकों से किसी का कोई लेना-देना होता नहीं। सुना है जॉनसन बेबी पाउडर में भी कुछ भारी धातु मिले हैं। बोतलबंद पानी के मामवे में पिछले साल मुंबई में 19 ऐसी कंपनियों पर रोक लगाई गई थी। सूखे के बीच ही एक और कड़वा सच कि एक लीटर बोतलबंद पानी तैयार करने में पांच लीटर पानी खर्च होता है।

इसलिए सूखे पर रणनीति तैयार खुद अपने स्तर पर तैयार कीजिए। खुद आगे बढ़िए, अपने पड़ोसी और गांववालों को आगे लाइए।

नौकरशाह जब यह तय करते हैं कि वह अलां जगह ट्रेन से पानी भेजेंगे और फलां राज्य के नौकरशाह उसे लेने से मना कर देते हैं तो उस फैसले की घड़ी में उनके सामने बोतलबंद पानी ही होता है।



मंजीत ठाकुर

Sunday, January 10, 2016

शौचालय की निगहबानी भी ज़रूरी

हम सब तहेदिल से प्रधानमंत्री मोदी के स्वच्छ भारत अभियान के साथ हैं। इस अभियान के तहत घर-घर शौचालय बनवाकर खुले में शौच से मुक्ति के उपाय किए जा रहे हैं। स्वच्छता अभियान का मकसद ही है, मल की वजह से पैदा होने वाली बीमारियों से बचाव। मानव मल का संपर्क मानव से न हो, यह बेहद जरूरी है। इसलिए साल 2019 तक प्रधानमंत्री चाहते हैं कि देश को खुले में शौच से मुक्ति मिले। यह स्वच्छता अभियान के सबसे अहम उद्देश्यों में से एक है। लेकिन इसके साथ ही शौचालयों के प्रकार पर भी गंभीरता से विचार किए जाने की जरूरत है।

भारत में, अभी भी इस ओर कोई खास ध्यान नहीं दिया गया है कि मानव संपर्क में मल के आने से कई प्रकार की बीमारियां होती हैं। मालूम हो कि देश में 60 करोड़ लोग अभी भी खुले में शौच करते हैं। लेकिन समस्या सिर्फ शौचालय बनाने तक सीमित नहीं है। शौचालय किस तरह के बनें और उनमें सीवरेज कैसा हो इस पर भी गंभीरता से विचार करने की जरूरत है।

हाल में किया गया एक अध्ययन बताता है कि शौचालयों में बढञिया सीवरेज सिस्टम लगाना बेहद जरूरी है और इसमें पानी की सप्लाई पाईप से हो। हालांकि यह खर्चीला होता है लेकिन हमारी सेहत के लिए बहुत जरूरी है। खर्च कम करने के लिए भारत में शौचालयों के रूप में अमूमन लीच पिट्स या सैप्टिक टैंक (मल को वहीं नीचे टैंक बनाकर नालियों के ज़रिए बहाना, या उसे मिट्टी में रिसने के लिए छोड़ देना) ही लोकप्रिय है।

लेकिन इसकी वजह से मानव मल सीधे मिट्टी की उप-सतह में चला जाता है, और इससे उसके दूषित तत्व नजदीकी भूमिगत जल में पहुंच जाते हैं। इससे भूमिगत जल में रोगाणु या नाइट्रेट पदार्थों की मात्रा काफी बढ़ सकती है। हालांकि भूमिगत जल के दूषित होने और ऑन-साइट (सैप्टिक या जमीन में टंकी वाले) शौचालयों के बीच संबंध पर बहुत ज्यादा शोध नहीं हुए हैं।

लेकिन ताज़ा अध्ययनों से साबित हुआ है कि इन शौचालयों के आसपास के हैंडपंपों में 18 फीसद फैकल कोलीफॉर्म (जीवाणु) होते हैं और इनमें से 91 फीसद टॉयलेट के 10 मीटर के दायरे में होते हैं।

इस लिहाज़ से देखा जाए तो हमारे गांव में पीने के पानी के दूषित होने की बहुत बड़ी समस्या को हम नज़रअंदाज कर रहे हैं। साथ ही, हमारे कई ग्रामीण समुदाय हैं जो पीने के पानी के लिए भूमिगत जल पर ही निर्भर हैं। यही नहीं, शौचालयों की बनावट में कहीं लीकेज हो, या नालों में कहीं टूट-फूट हो तो उसका असर भी जल को दूषित कर सकता है। तो इसका उपाय क्या है।

हमें अपने समाज को शौचालयों से होने वाले जल-प्रदूषण के बारे में अधिक जागरूक करना होगा। साथ ही, घरेलू पानी को पीने से पहले ठीक से स्वच्छ बनाना होगा।

समाज में जल को दूषण-मुक्त बनाने के उपाय अपनाने होंगे, और जाहिर तौर पर यह उपाय सस्ते होने चाहिए। मिसाल के तौर पर, पानी को उबालना, या सौर ऊर्जा के जरिए पानी को रोगाणुमुक्त करना अच्छा उपाय हो सकता है क्योंकि भारतीय नौकरशाही और आमफहम परिस्थितियो में केन्द्रीकृत जलशोधन यानी गांव में टंकी लगाकर साफ पानी मुहैया कराना सफेद हाथी साबित हो सकता है। इनमें अमूमन कोई वीरू ही वसंती के लिए चढ़ सकता है, इनमें साफ तो क्या, पानी ही नहीं पाया जाता।

मजाक एक तरफ, लेकिन पानी को, खासतौर पर पीने वाले पानी को हर हालत में जीवाणुओं के संक्रमण से दूर रखा जाना चाहिए, खासकर शौचालय के ज़रिए होने वाले संक्रमण से। इसके लिए कोशिश की जानी जाहिए कि शौचालय की टंकी, उसकी नालियां एकदम दुरुस्त और चाक-चौबंद हों। फिलहाल, इस मामले में जागरूकता की खासी कमी है।

ड्रिलिंग इंडस्ट्री को अगर इस बारे में थोड़ा संवेदनशील बनाया जाए, तो यह भी एक उपाय हो सकता है।

लब्बोलुआब यह कि सिर्फ खुले में शौच बंद करना ही एकमात्र उपाय नहीं है। बंद टॉयलेट में शौच के बाद भी वह मल माटी के भीतर मौजूद पानी को संक्रमित न कर दे, इस पर नज़र बनाए रखना भी ज़रूरी है।

Wednesday, August 5, 2015

कलाम होने का मतलब

कलाम होने का मतलब क्या है? इस एक हस्ती का परिचय किन शब्दों में कराया जा सकता है...शायद एक वैज्ञानिक..देश के प्रथम व्यक्ति, चिंतक, प्रेरणादायी व्यक्तित्व...। 84 साल की उम्र कम नहीं होती। लेकिन अगर वह उम्र एपीजे अब्दुल कलाम की हो, क़त्तई अधिक नहीं मानी जा सकती।

कलाम साहब से बहुत कुछ सीखना शेष था।

देश के दक्षिणतम शहर रामेश्वरम में एक मुअज्जिन पिता के साए में पले बढ़े, अब्दुल पकिर कलाम बचपन से ही आध्यात्मिक वातावरण में पले बढ़े थे। कई दफा एपीजे कलाम ने लिखा, कि एक ही रौशनी है और हम सब उस लैंपशेड की सुराखें हैं।

रोशनी की वह सबसे बड़ी और रौशन सुराख आज खत्म हो गई। असल में, कलाम असफ़लता के बाद सफलता की अदम्य कहानी हैं। सफलता वो भी ऐसी...विराट्.!!

कलाम होने का मतलब होता है बच्चे-बच्चे की ज़बान पर जिस वैज्ञानिक का नाम हो। कलाम यानी मिसाइल मैन। कलाम यानी एयरोस्पेस तकनीक के बड़े जानकार। कलाम यानी बच्चों के प्यारे राष्ट्रपति। कलाम यानी सादगी और सरलता की प्रतिमूर्ति।

रामेश्वरम की पंचायत के प्राथमिक स्कूल में शुरू हुए उनके दीक्षा-संस्कार से लेकर शिलॉन्ग में आईआईएम में छात्रों के बीच आखिरी संबोधन तक...कलाम साहब ने जितना सीखा, उस ज्ञान को, उस विचार को आगे बढ़ाया।
कलाम...जिन्होंने नौजवान इंजीनियर के तौर पर, डॉ ब्रह्म प्रकाश और डॉ सतीश धवन,  के साथ काम किया। कलाम, जो हमेशा छात्रों से कहते कि नकारात्मक सोच किसी सफर में बीस बैग साथ लेकर चलने की तरह है। जो आपके सफर को दुश्वार बनाती है।

कलाम, जो एक दूसरे के विचारों और व्यक्तियों की क्षमता के प्रति सहिष्णुता की बात करते थे। कलाम होने का मतलब ही यही है, जो सबको शपथ दिलवाए कि हम अपनी प्रतिभा का उपयोग दुनिया को बेहतर बनाने में करें, कि हम अपना जीवन नैतिक और संतुलित रूप से जिएं।

कलाम का मतलब होता है लोगों को यह सिखाने वाला कि अकादमिक मेधाविता आईने से अलग नहीं होती। एक बार धूल हटा दो, आईना चमकने लगता है और परछाईं साफ होती है।
कलाम, वह, जो कहे कि हमारी चेतना ही हमारी नैतिकता की जन्मभूमि है। कलाम वह, जो कहे कि हमारी चेतना ही हमारी असली मित्र है।

कलाम का मतलब है, जो परमाणु परीक्षण के दौरान मेजर जनरल पृथ्वीराज के कूटनाम से काम करे और परीक्षण के विस्फोट से पहले जो यह बुदबुदाए कि  ‘ईश्वर की शक्ति विध्वंस नहीं करती, यह एक करती है।,’
कलाम का मतलब है वह ऋषि, जो सादगी से जिए, जो विज्ञान के सिद्धांतो पर न सिर्फ रक्षा में अपने देश को ताकतवर बनाए है बल्कि जो यह भी कहे कि नैनो-बायो-कॉग्नो तकनीकों का नवजात अभिसरण इस बात की गवाही है, कि प्रकृति सिर्फ सिरजती ही है।

कलाम वह हैं जो तरक्की के लिए एक ऐसे नज़रिए की जरूरत बताते हैं जो यह सुनिश्चित करे कि सामाजिक पिरामिड के निचले पायदान पर खड़े लोगों के लिए जीने की शर्तें भी सुधरेंगी और जो सामाजिक, राजनातिक और आर्थिक सरहदों से परे होंगी।

कलाम का मतलब होता है एक ऐसा वैज्ञानिक, जो अखबार बेचकर अपनी पढ़ाई के खर्च पूरे करे, और खुद अखबारों की सुर्खियों में आ जाए। जो मिट्टी के तेल के दियों के नीचे पढ़ाई करे, खुद रौशनी की लौ बन जाए।

कलाम का मतलब है एक ऐसा संत, जो देश को एक तयशुदा वक्त के अंदर विकासशील देश की सरहद से बाहर निकाल कर विकसित देश बनाने का विज़न पेश करे।

कलाम का मतलब है एक ऐसा अगुआ, जो छात्रों के दिमागों को जाज्वल्यमान बनाने के मिशन को लेकर चले। कलाम का मतलब है समाज का हर वह शख्स जो अपने लिए एक मिशन लेकर चलता है, और उस मिशन को पूरा करने में जुट जाता है। कलाम का मतलब है अप्प दीपो भवः यानी अपना दिया खुद बनो की प्रेरणा।

कलाम का मतलब है हम और आप। कलाम का अर्थ है खुद कलाम। कलाम मर नहीं सकते। कलाम मरा नहीं करते। 

Friday, July 31, 2015

बाहुबली का बल

सिनेमा के परदे पर अमर चित्रकथा। फिल्म बाहुबली से बचपन की यादें ताज़ा होने लगीं। मैंने इस फिल्म को देखने से पहले बाहुबली के बारे में कुछ पढ़ा नहीं था। किसी ने बताया आप बस सिनेमैटोग्रफी और ग्राफिक्स का मजा लीजिए। सिनैमैटोग्रफी हमने संतोष सिवान की अशोक में भी देखी थी, और साहब, क्या कायदे की सिनैमैटोग्रफी थी। जहां तक ग्राफिक्स (वीएफएक्स) का इस्तेमाल है, कायदे से इस्तेमाल की गई बाहुबली पहली भारतीय फिल्म है।
चित्रकथा के पात्र। वैसे ही दृश्य। आप एक राजकुमारी के साए का पीछा करते हुए नायक को देखते हैं, जिसके पीछे एक जलपर्वत है। पता नहीं किस चोटी से गिरता कौन सा अपार जलराशि वाला जलप्रपात है।

आप अपनी सीट में धंसे हैं। परदे पर आप विशालकाय शिवलिंग उठाए एक मर्दाने नायक को देखते हैं जिसके तड़कती नसों और जिसके हाथों की फड़कती मछलियां परदे पर स्पष्ट दिखती हैं। निर्देशक राजामौलि एक दफा फिर से मर्दानगी को परदे पर पारिभाषित करते हैं।

हमारा नायक जब तमाम किस्म की कलाबाज़ियां खाता हुआ जलप्रपात उर्फ जलपर्वत के ऊपर पहुंच जाता है, और आप भव्य दृश्यावलि में खो जाते हैं। युद्ध के दृश्य हो, या एक काल्पनिक शहर माहिष्मती का भव्य डिजाइन। सब कुछ भव्य। बड़ा। आप अपनी सीट से एक अलग कल्पनालोक में चले जाते हैं।

लेकिन तभी एक अजीब सा किस्सा होता है। मेरे खयाल से बदमजगी। नायक को हीरोईऩ उर्फ तमन्ना भाटिया मिलती है जो एक लड़ाका टुकड़ी की अगुआई कर रही होती है। वह दिलेर लड़की है और वीर भी।  (वीरांगना शब्द पर मुझे आपत्ति है) लेकिन इन्हीं पलों में हमारा नायक पता नहीं कैसे अकेले पानी में हाथ डाले नायिका के हाथों में चित्रकारी कर आता है।

अपने हाथों पर किसी अनदेखे अजनबी की यह हरकत, जाहिर है, उसे नागवार गुजरती है। वह जब उस अनजाने को पकड़ने के लिए पेड़ पर चढ़कर बाणसंधान करती है, तो नायक एक दफा फिर से उसपर एक सांप छोड़ देता है। नायिका स्तंभित रह जाती है। (गजब विरोधाभास है, या तो नायिका बहुत बहादुर थी या सांप से डर जाने वाली, दोनों नहीं हो सकता)

अब नायिका उस अजनबी की शिद्दत से तलाश करती है। लेकिन जब उनका आमना-सामना होता है, नायक अवंतिका (नायिका) को पकड़ लेता है। और इसके बाद एक उत्तेजक किस्म का नृत्य-सा होता है। अवंतिका की मर्जी के बगैर ही नायक उर्फ बाहुबली उसके बाल खोल देता है, उसके वीरों वाले कपड़े खोलकर उसे पारंपरिक भारतीय नारियों वाली पोशाक में ला देता है और फिर अवंतिका को यह अहसास होता है कि अरे, मैं तो सत्य ही नारी हूं।

यह सीन, दशकों बीत गए, भारतीय सिनेमा में नहीं बदला है। याद कीजिए फिल्म आवारा, वहां वकील नरगिस, आवारा राजू के पैरों में गिर जाती है। और यहां अवंतिका उस छेड़छाड़ करने वाले अनजाने बाहुबली की बांहों में। तो देवियों और सज्जनों, लड़की पटाने का यही खास तरीका है।

लड़की लड़के को देखते ही अपने जीवन भर के खास मकसद को भूल जाती है। जैसे ही वह महसूस करती है कि अरे वह तो नारी है, उसकी सारी वीरता जाती रहती है। पूरी दुश्मन टुकडी को अब तक धूल चटा चुकी नायिका अवंतिका को तीन-चार साधारण सैनिक पकड़ लेते हैं और बचाता कौन है? नायक।

तो प्यार के इस आक्रामक इजहार में, विरोध करने लायक बहुत सारी चीजें हैं। छिद्रान्वेषण नहीं, लेकिन मुझे कहने दीजिए कि इस मेगाहिट फिल्म की पहुंच देश के बहुत या अधिसंख्य लोगों तक होगी। और यकीन मानिए, किसी फिल्म का असर किसी किताब से कहीं अधिक जल्दी होता है।

किक में सलमान का जैक्लीन की स्कर्ट उठाना हो या किसी और हीरोईन की किसी और हीरो द्वारा तंग करके पटाया जाना, और अब बाहुबली में यह ताजा सीन, क्या किशोरों में यह संदेश नहीं जाएगा कि टीज़ करने से लड़कियां लड़कों को पसंद करने लगती हैं।

यह बात सिर्फ सिनेमा तक सीमित नहीं है। आजकल कलर्स चैनल पर ससुराल सिमर का और स्वरागिनी के मिक्स एपिसोड के बहुत चर्चे चल रहे हैं और आप में से कईयों ने इसे देखा भी होगा। आजकल इसके प्रोमों में एक डायन दिखाया जा रहा है।


घर-घर तक पहुंचने वाले धारावाहिकों में डायन-जोगन, भूत-प्रेत दिखाकर कैसा मनोरंजन हो रहा है? डायन के ज़रिए कौन-सा राज़ खुलने वाला है यह तो स्वरागिनी और ससुराल सिमर का के संयुक्त एपिसोड ही बताएंगे। लेकिन छोटे परदे पर इस प्रोमो (और न जाने कितने प्रोग्राम) और बड़े पर बाहुबली की मिसाल ने यह साबित कर दिया, कि वीएफएक्स बनाने में हम भले ही हॉलिवुड की थ्री हंड्रेड और अवतार जैसा चमत्कार कर दें, हमारी मानसिकता अभी भी वहीं है। वहीं की वहीं। 

Saturday, July 4, 2015

पहले इंसान को स्मार्ट बनाया जाए


यह शीर्षक मैंने बतर्ज़ किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए लिखा है। मैं पैरोडी में यकीन रखता हूं। गानों की पैरोडी पर चुनावी नारे लिख लिए जाते हैं और विचारों की पैरोडी पर विचार। जिस वक्त मैं यह स्तंभ लिख रहा हूं, चालीस साल पहले यही वक्त रहा होगा, रात के 11 बज 20 मिनट का जब, इंदिरा गांधी के निजी सचिव आर के धवन प्रधानमंत्री की वह चिट्ठी लेकर राष्ट्रपति फख़रूद्दीन अली अहमद के पास पहुंचे थे, और उसी चिट्ठी में देश में आपातकाल लगाने की सिफ़ारिश थी।

बहरहाल, चालीस साल बाद इसी दिन एक और प्रधानमंत्री ने कुछ ऐलान किए हैं। इनमे से एक है हर बेघर परिवार को घर मुहैया कराने की। प्रधानमंत्री इसे सरकार का दायित्व मानते हैं और इस जरूरत को पूरा करने के लिए आने वाले सालों में शहरों में दो करोड़ आवास बनाए जाने की योजना को अमलीजामा पहनाया जाना है।

इसके साथ ही शहरी विकास मंत्रालय के स्मार्ट सिटी, अटल शहरी विकास परियोजना और साल 2022 तक सबके लिए आवास योजना की शुरूआत भी हो गई है।

सुबह में एक तरफ प्रधानमंत्री इन तीन परियोजनाओं की शुरुआत की, उधर, निवेशकों उत्साहित हो उठे। उधर घोषणा हुई इधर, जोरदार लिवाली की बदौलत शेयर बाजार जून महीने के उच्चतम स्तर पर बंद हुआ।

प्रधानमंत्री मोदी ने शहरों और गांवों को एक दूसरे का पूरक बनने की सलाह भी दी और कहा कि शहरों के गंदे जल को शुद्ध कर यदि इसे गांवों को लौटा दिया जाए तो इससे फसलों की सिंचाई की जा सकेगी जिससे अच्छी पैदावार होगी।

इससे पैदा होने वाली जैविक सब्जियों को शहरों के लोग सस्ते दर पर खरीद सकते हैं। मोदी ने कहा कि ऐसा देखा गया है कि शहरों के आसपास के गांवों में सब्जियों की खेती अधिक होती है यदि थोड़ा सा बदलाव लाया जाए तो दोनों जगहों के लोगों को लाभ मिल सकता है।

चलिए विचार के तौर पर यह काफी अच्छे हैं। लेकिन स्मार्ट शहर बनाने से पहले क्या इंसान को स्मार्ट बनाना बेहतर विकल्प नहीं है? मैं गाज़ियाबाद के वैशाली में रहता हूं। दिल्ली से सटा हुआ है। लेकिन टूटी-फूटी सड़के, सड़कों पर फैली गंदगी, भरे और उफनते हुए नाले, बदबू फैलाते हुए गाजीपुर का लैंडफिल...इन सबको आप ठीक कर सकते हैं। लेकिन किसी शनीचर या रविवार की शाम आप इस पत्रकारबहुल रिहाइशी इलाके का दौरा करेंगे तो पाएंगे कि यहां तीन लेन की सड़क में एक लेन पर ट्रैफिक सरक रहा होता है, बाकी में लोगों ने अपनी कार पार्क की होती है। इन कार पार्क करने वाले महानुभावों में वह पत्रकार भी होते हैं, जो अपने चैनलो पर इस दुरवस्था पर चीखते हुए पाए जाते हैं।

मुख्तसर यह कि, शहर को स्मार्ट बनाने से पहले यहां रहने वाले लोगों को सिविक सेंस सिखाना होगा। इसके लिए एक अलग आंदोलन और अभियान की जरूरत पड़े तो वह भी कर लेना चाहिए।
अब जरा मैं उन बातों पर ध्यान दिलाना चाहता हूं जो शहरों के गंदे पानी को साफ करके खेती में इस्तेमाल किए जाने से जुड़ी हैं। सुनने में यह बात बेहद उम्दा है, लेकिन इसके सही तरीके से क्रियान्वयन पर मुझे शक है। कानपुर इसकी मिसाल है। कानपुर के शहर के तरल अपशिष्ट को, जो करीब 430 एमएलडी (मिलियन लीटर) रोजाना है, उपचारित करके खेती के लिए दिया जाता है।
लेकिन कानपुर के नजदीक शेखपुर जैसे डेढ़ दर्जन गांवों में देखा जाए तो इसी उपचारित पानी में मौजूद कैडमियम, लेड और सीसा जैसे भारी धातुओं ने सब्जियों के जरिए आहार श्रृंखला में जगह बना ली है। यह भारी धातु भूमिगत जल में भी चला गया है और लोगों में त्वचा के कैंसर से लेकर तमाम किस्म के रोग पैदा कर रहा है।

हम शहरों को स्मार्ट बना रहे हैं। बनाना चाहिए। आखिर शहरों में रहने वाले लोगों को सुविधाएं तो मिलनी ही चाहिए। लेकिन शहरों में जो नियोजन होगा, जो निर्माण होगा उससे क्या शहर का मिज़ाज तय होगा? क्या देश के सारे शहर एक जैसे मकानों वाले नहीं हो जाएंगे? क्या सरकारी योजनाओं के नक्शे पर तैयार हो रहे सारे शहर एक जैसे नहीं दिखेंगे? जोधपुर, बंगलुरू और मुजफ्फरपुर में क्या अंतर रह जाएगा?

अभी ही किसी शहर में चले जाइए, बने हुए सारे मकान अपने स्थानीय जरूरतों की बजाय एक जैसी शैली में बन रहे हैं। बड़े पैमाने पर मकान बनाने के दौरान दोहराव की इस वास्तु शैली से हमें बचना होगा।

उस स्मार्ट शहर में रहने वाले लोग भी स्मार्ट हो, इसकी तैयारी कर लें, तो आने वाले शहर आज के शहरों की तरह अनियोजित नहीं होंगे।


Tuesday, June 30, 2015

कमज़ोर मॉनसून से क्या हिम्मत हार दें?

मौसम विभाग ने लगातार दूसरे साल भी औसत से कम बारिश की भविष्यवाणी की है। ऐसा दो बार लगातार सिर्फ 28 साल पहले हुआ था। सोलह साल के बाद ऐसा होगा कि देश को सबसे अधिक खाद्यान्न पैदा करके देने वाले दो राज्य पंजाब और हरियाणा में सबसे कम बारिश होने वाली है। इन निराशाजनक आंकड़ों में फंसने की बजाय मैं कुछ उम्मीद से भरी बातें करना चाहता हूं।

प्रधानमंत्री मॉनसून में इस कमी को एक मौके के रूप में लेने की बात कह गए हैं और कहा है कि सूखाग्रस्त इलाकों में माइक्रोसिंचाई योजनाओं का विकास किया जाना चाहिए। दशकों से सिर्फ सरकारें बदलती रही हैं और अब तक हर सरकार गांवों में सिंचाई के लिए एक असरदार और विस्तृत तंत्र बना पाने में नाकाम रही हैं।

हमारे पास आज सिंचाई के नाम पर जो सुविधा है वह बस दशकों पुरानी सिंचाई व्यवस्था का हिस्सा भर है। मौजूदा नहरें कई दशक पुरानी हैं और इनमें गाद की समस्या के साथ-साथ पानी का काफी नुकसान भी होता है।

विख्यात पर्यावरणविद् अनुपम मिश्र ने एक किताब लिखी है, आज भी खरे हैं तालाब। वह किताब पढ़ें तो आप आसानी से समझ जाएंगे कि तालाबों, पोखरों, कुओं जैसे पारंपरिक जलसंग्रह साधनों को जिन्दा करना ही सबसे मुफीद है।

चावल, गेहूं और मोटे अनाजों को एफसीआई के गोदामों से बाहर निकालने की जरूरत है। देश के वैज्ञानिक पहले ही सूखाप्रतिरोधी बीजों का विकास कर चुके हैं, अब इन्हें सस्ती दरों पर किसानों को दिए जाने की जरूरत है। फिलहाल, जन-धन योजना में जो पंद्रह करोड़ खाते खोलने का दावा सरकार कर रही है, अब उस खाते के सही इस्तेमाल का वक्त आ गया है। सरकार किसानों के लिए राहत सीधे इन्ही खातों में डाल दे, तो बात बन जाए।

कमज़ोर मॉनसून की भविष्यवाणी पर हालांकि लोग शक कर रहे है और मौसम की भविष्यवाणी करने वाली एक निजी वेबसाईट का जिक्र कर रहे हैं जो अल नीनो वर्ष होने के बावजूद दावा कर रही है कि इस साल 102 फीसद बरसात होगी। मेरा मन है कि ऐसा ही है। भारतीय मौसम विभाग 88 फीसद की बात कर रहा है।

लेकिन मॉनसून कमजोर हो तो भी मेरे खयाल में पांच ऐसी बातें हैं जो उम्मीदें बनाए रखने के लिए उजाले की आस सरीखी है। पहली तो यही कि मौसम की भविष्यवाणियां बाज़दफ़ा ग़लत भी साबित हो जाती हैं। ऐसा साल 2006, 2007, 2011 और 2013 में हो चुका है। दूसरी, उत्तर और पश्चिम के ऐसे इलाकों में ठीक-ठाक बरसात की भविष्यवाणी की गई है जहां अनाज की बढ़िया पैदावार होती है, और जहां पिछले साल बारिश खराब हुई थी। यानी, उत्तर-पश्चिम का इलाका जहां पिछली बार 79 फीसद बारिश हुई थी वहां इस बार 85 फीसद होने की उम्मीद है। मध्य भारत में 90 के मुकाबले 90 फीसद, पूर्वोत्तर में 88 फीसद के मुकाबले 90 फीसद, दक्षिण भारत में 93 फीसद के मुकाबले 92 फीसद बरसात की भविष्यवाणी है।

उम्मीद की तीसरी वजह है कि खाद्यान्न की पैदावार पर असर सिर्फ तभी पड़ता है जब बारिश बेहद कम हो। साल 2009 और 2014 ही ऐसा साल रहे हैं जब क्रमशः सामान्य से 21.8 फीसद और 12 फीसद कम बारिश की वजह से खाद्यान्न की पैदावार पर असर पड़ा था।

चौथी वजह यह है कि जाड़े में हुई ठीक-ठाक बारिश की वजह से देश के जलाशयों में 43.14 बिलियन क्यूबिक मीटर पानी है। यह पिछले दस वर्षों के औसत का 136 फीसद है। तो पानी की कमी नहीं होगी यह भरोसा है।

पांचवी और आखिरी वजह यही कि मॉनसून में देरीकेरल तट पर यह देर से पहुंचा हैका मतलब यह नहीं कि सूखा पड़ेगा ही। साल 2005 में मॉनसून 7 जून को शुरू हुआ था, बारिश महज 1.3 फीसद कम हुई थी। साल 2009 में 25 मई को ही केरल तट से मॉनसून टकराया था, बारिश 21.8 फीसद कम हुई थी।


मुख़्तसर यह कि बारिश का कम होना, या मॉनसून का केरल तट पर कम आना, यह चिंता का विषय तो है लेकिन इस चुनौती को हम मौके में बदल पाए, तो देश की माली हालत के साथ-साथ किसानों के लिए भी राहत की बात होगी।


Tuesday, June 9, 2015

भूख का भूगोल

चलिए, एक चीज में हमने चीन को भी पीछे छोड़ दिया। जनसंख्या की बात नहीं कर रहा, क्योंकि मौजूदा दर से बढ़ते रहे तो भी हम 2030 में ही चीन को पीछे छोड़ पाएंगे। विकास दर की बात भी नहीं कर रहा क्योंकि इसके आधार वर्ष में मामूली फेरबदल से आंकड़े उलट जाते हैं।

मैं भूख की बात कर रहा हूं। हमारे महान भारतवर्ष में भुखमरी के शिकार लोगों की संख्या दुनिया में सबसे अधिक है। यह आंकड़े संयुक्त राष्ट्र खाद्य और कृषि संगठन ने अपनी रिपोर्ट द स्टेट ऑफ फूड इनसिक्युरिटी इन द वर्ल्ड 2015 में जारी किए हैं। इस रिपोर्ट में विश्व भुखमरी सूचकांक भी जारी किया गया है, जिसमें 79 देशों के आंकड़े लिए गए हैं। निराशा इस बात की है कि भारत को इसमें 65वां स्थान दिया गया है। हमसे कहीं कम विकसित देश पाकिस्तान 57वें और श्रीलंका 37वें पायदान पर हैं। यानी इस मामले में पाकिस्तान और श्रीलंका हमसे बेहतर हैं।

संयुक्त राष्ट्र की भूख संबंधी सालाना रपट के अनुसार दुनिया में सबसे अधिक 19.4 करोड़ लोग भारत में भुखमरी के शिकार हैं। इसी रिपोर्ट में कहा गया है कि दुनिया भर में भुखमरी के शिकार लोगों की गिनती कम हुई है। नब्बे के दशक में, 1990 से 1992 के बीच दुनिया भर में यह संख्या एक अरब थी और 2015 में यह संख्या घटकर 79.5 करोड़ रह गई है।

हालांकि, भारत में भी तब से अबतक भूखे पेट सोने वालों की संख्या में गिरावट आई है। 1990-92 में भारत में यह संख्या 21.01 करोड़ थी, जो 2014-15 में घटकर 19.46 करोड़ रह गई। लेकिन विकास की रफ्चार के मद्देनज़र और समावेशी विकास के ढोल-तमाशे के बीच भुखमरी के शिकार इतनी बड़ी आबादी का होना ही नीतियों को पुनर्भाषित करने की जरूरत की तरफ इशारा करता है।

हालांकि भारत ने अपनी आबादी में खाने से महरूम लोगों की संख्या घटाने में महत्वपूर्ण कोशिशें की हैं लेकिन संयुक्त राष्ट्र की इस रिपोर्ट के मुताबिक अब भी और कोशिशों की जरूरत है। रिपोर्ट में उम्मीद जताई गई है कि भारत के अनेक सामाजिक कार्यक्रम भूख और गरीबी के खिलाफ जिहाद छेड़े रहेंगे।

लेकिन गौर करने बात है कि इन पचीस सालों में चीन ने अपनी आबादी में से भुखमरी के शिकार लोगों की गिनती में उल्लेखनीय कमी की है। 1990-92 में चीन में यह संख्या 28.9 करोड़ थी जो अब घटकर 13.38 करोड़ रह गई है। एफएओ की निगरानी दायरे में आने वाले 129 देशों में से 72 देशों ने गरीबी उन्मूलन के बारे में सहस्राब्दि विकास लक्ष्यों को हासिल कर लिया है।

विश्व भुखमरी सूचकांक में अफ्रीकी देशों में सुधार आया है और भूख पर काबू पाने में अफ्रीकी देशों ने एशियाई देशों की तुलना में कहीं अधिक कामयाबी हासिल की है। लेकिन इरीट्रिया और बुरूंडी जैसे देशों में स्थिति अभी भी चिंताजनक है और वहां खाने की किल्लत और कुपोषण जैसी स्थितियां बनी हुई हैं।

एक तरफ तो हम भारत की मजबूत आर्थिक स्थिति के बारे में विश्व भर में कशीदे काढ़ रहे हैं लेकिन सच यह भी है कि हम विश्व भुखमरी सूचकांक में पिछड़कर फिसलते जा रहे हैं। 1996 से 2001 के बीच स्थितियों में कुछ सुधार देखने को मिला था लेकिन अब स्थिति वापस वहीं पहुंच गई जहां 1996 में थी।

इस मसले पर मुझे ज्यादा कुछ नहीं कहना है, मैं बस दो घटनाओं को याद कर रहा हूं। पंजाब विधानसभा चुनाव कवर करने के दौरान मैंने देखा था जालंधर में आलू उत्पादक किसानों ने अपनी फसल सड़को पर फेंक दी थी। दूसरे, मुझे यूपी के ललितपुर जिले के पवा गांव की बदोलन बाई याद आ रही है, जिसका पति 2011 में भुखमरी का शिकार होकर चल बसा था, और अपने दोनों हाथ ऊपर उठाकर उसने कहा थाः सब राजकाज होत दुनिया मा, बस हमरे सुध ना लैहे कोय।

राजकाज चलता ही रहता है, लेकिन जनता-जनार्दन की ऐसी हाय बहुत भारी पड़ती है। मायावती गवाह हैं।


Saturday, June 6, 2015

दो टूकः सबसे कठिन किसानी रामा...

किसानों के लिए दूरदर्शन ने अपना एक खास चैनल शुरू कर दिया है। डीडी किसान। यह काम सिर्फ दूरदर्शन ही कर सकता है। किसान खुद बाज़ार नहीं है। भोंडे से भोंडे गीत-संगीत, कार्टून, फिल्म सबके लिए बाजार है, किसान के लिए नहीं है। किसानों के उत्पादों के लिए भी नहीं।

प्रसार भारती पर बाज़ार का ऐसा कोई दबाव नहीं है। लिहाजा किसानों के लिए चौबीस घंटे का चैनल खुल गया। उम्मीद है कि किसानों के लिए बना यह चैनल कृषि दर्शन के दर्शन को नई ऊंचाई तक ले जाएगा, और नई तकनीक के साथ उनके मनबहलाव का साधन भी मुहैया कराएगा।

देश की जीडीपी में किसान का हिस्सा घट रहा है। गांव की गोरी और किसान फिल्मों में हमेशा रूमानी तरीके से पेश किए जाते रहे हैं। असल स्थिति इसके उलट है।

बेमौसम बारिश के बाद छह सप्ताहों में उत्तर प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान, पंजाब, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र के 150 से ज्यादा किसान आत्महत्या कर चुके हैं। हद तो यह है कि राज्य सरकारें अब भी सच्चाई से मुंह मोड़ने की कोशिश कर रही हैं। वे यह मानने को तैयार नहीं हैं कि इन घटनाओं का कारण कृषि क्षेत्र में लंबे समय से चली आ रही समस्याएं हैं। आपको याद होगा, इसी स्तंभ में मैंने बंगाल में किसान आत्महत्याओं पर ममता की बयानबाज़ी का मसला उठाया था। ममता ने मरने वाले किसानों को धनपति बताया था।

किसानों की आत्महत्या कोई ताजा मामला नहीं है। पिछले 20 वर्षों में करीब तीन लाख किसान आत्महत्या कर चुके हैं। हर साल औसतन 14 से 15 हजार किसान अपनी जान ले रहे हैं, जबकि देश में हर घंटे में दो किसानों की मौत हो रही है। आत्महत्या करने वाले ये किसान राजनीतिक तंत्र तक अपनी आवाज पहुंचाने की कोशिश कर रहे थे,लेकिन उनकी मौतें भी संवेदनहीन हो चुकी व्यवस्था को तंद्रा से जगा नहीं सकी हैं।

मेरे खयाल से खेती से लगातार कम होती आमदनी आत्महत्याओ की बड़ी वजह है। साल 2014 की एनएसएसओ रिपोर्ट के अनुसार खेती के कामों से एक किसान परिवार को हर महीने केवल 3,078 रुपए की आमदनी होती है। मनरेगा जैसे गैर-कृषि कार्यों में लगने के बाद भी उनकी औसत मासिक आमदनी 6 हजार रुपए प्रतिमाह होती है। हैरत नहीं कि देश के 58 फीसदी किसान भूखे पेट सोने को मजबूर हैं तो 76 फीसदी रोजगार का विकल्प मिलने पर खेती छोड़ने को तैयार हैं।

साल 1970 में गेहूं का न्यूनतम समर्थन मूल्य 76 रुपए प्रति क्विंटल था। आज यह 1450 रुपए प्रति क्विंटल है यानी बीते 45 वर्षों में इसमें करीब 19 गुना वृद्धि हुई है। इससे किसानों की बढ़ी आमदनी की तुलना दूसरे तबकों के वेतन में हुए इजाफे से करें। इन वर्षों में केंद्र सरकार के कर्मचारियों की तनख्वाह 110 से 120 गुना, स्कूल शिक्षकों की 280 से 320 गुना और कॉलेज शिक्षकों की 150 से 170 गुना बढ़ी है। इस दौरान स्कूल फीस और इलाज के खर्चों में 200 से 300 गुना और शहरों में मकान का किराया 350 गुना तक बढ़ गया है।

इस साल भी गेहूं का समर्थन मूल्य 50 रुपए प्रति क्विंटल बढ़ाया गया है, जिससे खाद्यान्न की कीमतें नियंत्रित रहें। धान के मूल्य में भी इतना ही इजाफा किया गया है, जो पिछले साल के मुकाबले 3.2 फीसदी ज्यादा है। इसी बीच केंद्रीय कर्मचारियों को महंगाई भत्ते की दूसरी किस्त भी मिल गई, जो पहले से 6 फीसदी ज्यादा है। उन्हें जल्दी ही सातवें वेतन आयोग के अनुरूप वेतन और भत्ते भी मिलने लगेंगे। इसमें सबसे निचले स्तर पर काम करने वाले कर्मचारी का वेतन भी 26 हजार रुपए महीने करने की मांग हो रही है।

फसलों का समर्थन मूल्य बढ़ाने से खाद्यान्न की कीमतें बढ़ सकती हैं, लेकिन इसके लिए ज्यादा चिंतित होने की भी जरूरत नहीं है। खेती से होने वाली आमदनी में इजाफा नहीं हुआ तो किसानों के लिए कोई उम्मीद नहीं हो सकती। उत्पादकता बढ़ाने या सिंचाई के साधनों का बेहतर इस्तेमाल करने की सलाह देने से खास फायदा नहीं, क्योंकि ये सब तो नई तकनीकों को बेचने के तरीके भी हो सकते हैं।

आसान और कम ब्याज पर ऋण की सुविधाएं बढ़ाने से भी किसान कर्ज के दुष्चक्र से बाहर नहीं निकल सकते। किसान को कर्ज नहीं, आमदनी चाहिए।


Friday, May 29, 2015

दो टूकः किसानों की कब्रगाह भी है कर्नाटक


कर्नाटक का गुलबर्गा ज़िला। छोटे से क़स्बे जाबार्गी में दो चुनावी रैलियों की अचानक याद आ गई मुझे। बीजेपी के जगदीश शेट्टार और कांग्रेस के राहुल गांधी। शेट्टार की रैली जाबार्गी में हुई थी, राहुल की वेल्लारी के हासनपेट में। दोनों की रैलियां खचाखच भरी है।

मैंने आसपास अपनी गहरी नज़र से देखा था, क्या यह भीड़ खरीदी हुई है? लोगों के चेहरे से कुछ पता नहीं लगता। शायद हां, या नहीं।

हर चेहरा पसीने से लिथड़ा है...किसी चेहरे पर कुछ नहीं लिखा है। दोनों ने जनता से वोट मांगी, भावनात्मक अपीलें की थीं, जनता ने जवाब हुंकारे से दिया था। लेकिन मैं जब देहात का दौरा करने लगा था तो एक अजीब सा निराशा भाव था हरतरफ।

अपने दौरे में उत्तरी कर्नाटक के जिस भी ज़िले में गया, चुनावी भागदौड़ के बीच हर जगह एक फुसफुसाहट चाय दुकानों पर सुनने को मिली। कन्नड़ समझ में नहीं आती थी, लेकिन स्वर-अनुतानों से पता चल जाता था कि खुशी की बातें तो हैं नहीं। कारवाड़, बीजापुर, गुलबर्गा, बीदर...हर तरफ सूखा था। किसानों की आत्महत्या के किस्से भी थे।

बीजापुर के एक गांव नंदीयाला गया। इस गांव में पिछले साल एक किसान लिंगप्पा ओनप्पा ने आत्महत्या की थी। उसके घर जाता हूं, दिखता है भविष्य की चिंता से लदा चेहरा। रेणुका लिंगप्पा का चेहरा। रेणुका लिंगप्पा की विधवा हैं। अब उनपर अपने तीन बच्चों समेत सात लोगों का परिवार पालने की जिम्मेदारी आन पड़ी है। पिछले बरस इनके पति लिंगप्पा ने कर्ज के भंवर में फंसकर और बार-बार के बैंक के तकाज़ों से आजिज आकर आत्महत्या का रास्ता चुन लिया।

लिंगप्पा ने खेती के काम के लिए स्थानीय साहूकारों और महाजनों और बैंक से कर्ज लिया था, लेकिन ये कर्ज लाइलाज मर्ज की तरह बढ़ता गया। बीजापुर के बासोअन्ना बागेबाड़ी में आत्महत्या कर चुके चार किसानों के नाम हमारे सामने आए। इस तालुके के मुल्लाला गांव शांतप्पा गुरप्पा ओगार पर महज 31 हजार रूपये का कर्ज था।

नंदीयाला वाले लिंगप्पा पर साहूकारों और बैंको का कुल कर्ज 8 लाख था। इंगलेश्वरा गांव के बसप्पा शिवप्पा इकन्नगुत्ती  और नागूर गांव के परमानंद श्रीशैल हरिजना को भी मौत की राह चुननी पड़ी।
पूरे बीजापुर जि़ले में 2012 अप्रैल से 2013 अप्रैल तक 13 किसानों ने आत्महत्या की राह पकड़ ली। पूरे कर्नाटक में यह आंकड़ा इस साल (साल 2013 में) 187 तो 2011 में 242 आत्महत्याओं का रहा था। 2013 में, बीदर में 14, हासन मे दस, चित्रदुर्ग में बारह किसानों ने आत्महत्याएं की हैं। गुलबर्गा, कोडागू, रामनगरम, बेलगाम कोलार, चामराजनगर, हवेरी जैसे जिलों से भी किसान आत्महत्याओं की खबरें के लिए कुख्यात हो चुके हैं।

खेती की बढ़ती लागत और उत्तरी कर्नाटक का सूखा किसानों की जान का दुश्मन बन गया है। पिछले वित्त वर्ष में कुल बोई गई फसलों का 16 फीसद अनियमित बारिश की भेंट चढ गया। और कर्नाटक सरकार ने सूबे के 28 जिलों के 157 तालुकों को सूखाग्रस्त घोषित कर दिया था। लेकिन राहत कार्यो में देरी ने समस्या को बढ़ाया ही।

किसानों की आत्महत्या कर्नाटक में नया मसला नहीं है। पिछले दस साल में 2886 किसानों ने अपनी जान दी है।

पिछले दशक में बारह ऐसे जिले हैं जिनमें सौ से ज्यादा किसान आत्महत्याएं हुई हैं, ये हैं. बीदर, 234 हासन 316, हवेरी 131, मांड्या 114, चिकमंगलूर 221, तुमकुर 146, बेलगाम 205, शिमोगा 170 दावनगेरे, 136, चित्रदुर्ग 205 गुलबर्गा 118, और बीजापुर 149

लेकिन, किसानों की आत्महत्याएं अब आम घटना की तरह ली जाने लगी हैं और विकास की अंधी दौड़ में हाशिए पर पड़े गरीब किसानों की जान की कीमत अखबार में सिंगल कॉलम की खबर से ज्यादा नही रही हैं।


उत्तरी कर्नाटक में पानी बड़ी समस्या है, खेतों के लिए भी और नेताओं के आंखों की भी। दोनों के लिए किसान मामूली हो गए हैं।