Showing posts with label नज़रिया. Show all posts
Showing posts with label नज़रिया. Show all posts

Friday, February 9, 2018

किसानों से किया वादा पूरा नहीं कर पाएंगे मोदी!

भारत में जिस तरह अर्थव्यवस्था झटकों से उबरने की कोशिश कर रही है और जिस तरह कृषि की विकास दर भी गोते लगा रही थी, किसान अधिक उपजाने पर भी संकट में था और कम उपजाकर भी, ऐसे में खेती-किसानी की तुलना कुछ लोग ब्लू व्हेल गेम से करने लगे थे, जिसमें आखिर में आकर मौत ही हासिल होनी है.

ऐसे में, लग रहा था कि इकोनॉनोमिक सर्वे 2017-18 में इस पर गंभीरता से कुछ कहा जाएगा. लेकिन आर्थिक सर्वेक्षण के कुछ तथ्य प्रधानमंत्री मोदी के लिए चिंता का सबब होना चाहिए, जिसमें खेती पर जलवायु परिवर्तन के असर को रेखांकित करने की कोशिश की गई है.

बतौर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने साल 2022 तक किसानों की आमदनी दोगुनी करने का एक लक्ष्य तय किया. अब भारत में खेती से जुड़े तमाम कार्यक्रम और योजनाओं की रुख इसी तरफ मुड़ गया लगता है.

आर्थिक सर्वेक्षण "मध्यकालिक अवधि में खेती से होने वाली आमदनी 20 से 25 फीसदी तक घटने" की चेतावनी देता है. देश में खेती सबसे अधिक रोजगार देने वाला सेक्टर है और ऐसी चेतावनियां खेतिहरों की आमदनी दोगुनी करने के दिशा में कोशिशों पर पानी फेर सकती हैं.

आर्थिक सर्वे यह भी कहता है कि सरकार का खेतिहरों की मुश्किल दूर करने और उनकी आय को दोगुनी करने के लक्ष्य को पूरा करने के लिए लगातार फॉलो अप करना होगा, जिसमें किसानों तक विज्ञान और प्रौद्योगिकी पहुंचाने के लिए फैसलाकुन कोशिशें भी करनी होंगी. बिजली और उर्वरक पर दी जा रही सब्सिडी की जगह प्रत्यक्ष लाभ अंतरण के जरिए मदद पहुंचानी होगी.

आर्थिक सर्वेक्षण साफ करता है कि मौसम में तापमान में अत्याधिक उतार-चढ़ाव से किसानों की आमदनी में खरीफ की फसल के दौरान 4.3 फीसदी की कमी आई है, जबकि रबी की फसल के दौरान यह कमी 4.1 फीसदी रही है. जबकि ज्यादा बारिश ने आमदनी को क्रमशः 13.7 और 5.5 फीसदी कम कर दिया.

किसानों की आमदनी पर मौसम की मार असिंचित इलाकों में अधिक रही है. गौतरलब है कि देश के 60 फीसद रकबे में सिंचाई का जरिया महज बारिश ही है. आर्थिक सर्वे में कहा गया है, 'एक बार फिर, इन औसतों ने विविधता पर असर डाला. मौसम में बदलाव का असर असिंचित इलाकों में ज्यादा रहा.

अभी यह स्पष्ट नहीं कि कृषि राजस्व किस तरह मुड़ना चाहिए--एक तरफ तो उपज में कमी आई दूसरी तरफ, कम आपूर्ति से स्थानीय रूप से कीमतों में उछाल आई. ऐसे में नतीजे साफ तौर पर संकेत दे रहे हैं कि "आपूर्ति पर दुष्प्रभाव" ज्यादा जोरदार रहा है--उपज में कमी ने राजस्व को कम कर दिया.'

सर्वे के मुताबिक, इन सालों में जब तापमान औसत से एक डिग्री सेल्सियस अधिक रहा, वर्षा सिंचित जिलों में खरीफ के दौरान किसानों की आमदनी 6.2 फीसदी कमी हुई, जबकि रबी की फसल में यह कमी 6 फीसदी रही. इसी तरह, उन वर्षों में जब बरसात की मात्रा औसत से 100 मिलीमीटर कम रही, किसानों की आय में खरीफ के दौरान 15 फीसदी और रबी के दौरान 7 फीसदी की कमी दर्ज की गई है.

अनुमान है कि जलवायु परिवर्तन की वजह से किसानों की आमदनी में औसतन 15 से 18 फीसदी की कमी आई है. वर्षासिंचित इलाकों में यह औसत 20 से 25 फीसदी तक हो सकती है. यह तथ्य वाक़ई चिंताजनक हैं क्योंकि भारत में खेती से आय पहले ही काफी कम है.

इसका एक अर्थ यह भी हो सकता है कि सरकार का किसानों की आमदनी बढ़ाने का लक्ष्य भी अप्रासंगिक हो जाएगा. अगर सरकारी आंकड़ों में जलवायु परिवर्तन की वजह से हुए नुकसान को शामिल कर लिया जाए तो कहानी सिरे से बदल जाएगी.

सर्वे की चेतावनी और भी चिंताजनक है कि जलवायु परिवर्तन से होने वाला नुकसान असली असर से थोड़ा कम ही सामने आया है. आखिर भविष्य में तापमान बढ़ने की दुश्चिंता भरी भविष्यवाणियां भी हैं. नीति नियंताओं के लिए यह तथ्य उनके सिर का तापमान बढ़ाने वाला साबित हो सकता है.

Sunday, May 21, 2017

भावनाएं आहत होने की मूर्खता के पैमाने

सोशल मीडिया पर मूर्खता के तय पैमाने नहीं हैं। अगर मैं ऐसा कह रहा हूं तो इसके पीछे वैलिड रीज़न है। कई मिसालें है, लेकिन आज मिसाल दूंगा हालिया एक पोस्ट पर मचे हड़कंप की।

हड़कंप मचा है मुजफ्फरपुर नाउ नाम के एक फेसबुक ग्रुप पर। हड़कंप क्यों मचा और उसके बाद क्या हुआ उससे पहले ज़रूरी है कि अनु रॉय नाम की मुंबईवासी लेखिका का ओरिजिनल पोस्ट पढ़ा जाए।

अनु रॉय का ओरिजिनल पोस्टः

फेसबुक में एक ग्रुप पर लिखा अनु रॉय के पोस्ट का स्क्रीन शॉट


वो सारी लड़कियाँ चरित्रहीन होती हैं जो,

- शॉर्ट्स में घूमतीं हैं
- जिनके ब्रा का स्ट्रेप दिखता है
- जो सिगरेट पीती हैं नुक्कर पर खड़ी हो कर
- जो मंगलसूत्र टाँग कर नहीं घूमतीं
- जिनके पैरों में बिछुय्ये नहीं होते
- जो पिरीयड पर बात करती है खुले में
- जो शादी के बाद भी पुरुषों से बात करती है
-जिनके पुरुष मित्र शादी के बाद बनते है
- जो सिंदूर नहीं लगाती
- जो पति का फ़ोटो कलेजा से सटाये नहीं घूमतीं
- जो समाज के बनाए नियमों को तोड़ कुछ अलग करना चाहतीं हैं!


वो सबकी सब चरित्रहीन होती है! मुझे चरित्रहीन लड़कियाँ पसंद हैं क्यूँकि वो ज़िंदा हैं, सिर्फ़ साँस लेती चलती फिरती कठपुतलियाँ नहीं हैं। चरित्रहीनता से अगर तुम्हारा अस्तित्व है तो चरित्रहीन होने में कुछ ग़लत नहीं है। बाक़ी तो सीता को भी एक गँवार धोबी जज करता है और उसका पति छोड़ देता है उसे। और वही पति भगवान है! ख़ैर!

PS :- लिस्ट में कुछ रह गया हो तो बता देने कष्ट करें हम अप्डेट कर देंगे
----------------------------------------------------------------------

बहरहाल, लड़कियों के कपड़े पहनने पर मुजफ्फरपुर के लोगों के इस ग्रुप की भावनाएं आहत हो गईं। संभवतया लड़कियों का खुलकर बोलना इस ग्रुप के करीब एक लाख पैंसठ हजार लोगों को ठीक नहीं लगा। या यह भी हो सकता है, कि सीता पर उंगली उठाने वाले धोबी का गंवार कहना लोगों को पसंद नहीं आया। या राम पर उठा कोई भी सवाल ही नही जंचा लोगों को।

इस पोस्ट के बाद उस ग्रुप में अनु रॉय को दी जाने वाली धमकियां, निन्दात्मक टिप्पणियों, गाली-गलौज और इनबॉक्स में की जाने वाली अश्लील बातों से क्या साबित होता है? जो भी हो, लेकिन उस ग्रुप में कुछ लोगों ने कानूनी कार्रवाई की धकी दी तो ग्रुप के एडमिन ने पोस्ट डिलीट कर दी, पर मुझे नहीं लगता कि उस पोस्ट में ईशनिन्दा जैसा कुछ था। या राम के जिस काम पर उनके भक्त भी सवाल उठाते हैं, उस पर सवाल खड़ा किया जाना कहां से भावनाएं आहत करने वाला हो गया।

मैं एक बात और कहना चाहूंगा, उन मूर्खों से जो इस बात को राम का अपमान समझ बैठे। एक बार जरा मिथिला का दौरा कर आएं। राम मिथिला के जमाई हुए क्योंकि सीता से बियाहे गए। सो मिजाज़ के हिसाब से मिथिलावाले राम को अपने तरीके से बधाई देते हैं। लेकिन राम के लिए मिथिला के लोग आज भी उदासीन हैं।

रामचंद्र आज तक जवााब नहीं दे पाए कि वह सीता को अपनी मर्यादा पुरुषोत्तम वाली छवि की खातिर जीवन भर क्यों प्रताड़ित करते रहे। एक धोबी के बोल पर पत्नी को घर से निकाल दिया। यह भी नहीं सोचा कि वह आठ महीने की गर्भवती हैं, जबकि आठ महीने की गर्भवती स्त्री को लोग एहतियातन घर की चौखट से कदम बाहर नहीं करने देते। न कोई फरियाद का मौका दिया।

आज की तारीख में अगर यह सब होता तो भगवान् राम आज मिथिला के किसी कोर्ट में मुकदमे की हाजरी दे रहे होते। उन्हें खुद पर ही विश्वास नहीं था, जबकि वह एक बार खुद ही सीता की अग्नि-परीक्षा ले चुके थे।

यह तो रामचंद्र का खानदानी दोष है। पिता ने एक नौकरानी के कहने पर पुत्र को वनवास दे दिया और पुत्र ने एक धोबी के कहने पर वाइफ को। मिथिला के लोग, न तो अपनी बेटी की शादी विवाह-पंचमी के दिन करते हैं और ना ही बेटी को सीता जैसे भाग्य का आशीर्वाद देते हैं।

मिथिला के लोग विष्णु के इस अवतार के प्रति इतने उदासीन रहे कि मिथिला में रामायण 19वीं सदी के उत्तरार्ध में लिखा गया, जब चंदा झा विरचित रामायण को तत्कालीन दरभंगा नरेश लक्ष्मीश्वर सिंह ने छपवाया था। लेकिन इसका कारण धार्मिक कतई नहीं था। उस समय मैथिली को स्कूली शिक्षा का माध्यम बनाने के लिए अभियान चल रहा था। लेकिन मैथिली विरोधी हिंदी की लॉबी ने तर्क दिया कि जिस भाषा (मैथिली) में रामायण जैसे क्लासिक की रचना नहीं की गयी हो, उस भाषा को स्कूली शिक्षा का माध्यम कैसे बनाया जा सकता है।

यह भी कहा जाता है कि कृतिवास ओझा की रचित रामायण मैथिली में ही लिखी गयी थी लेकिन आम लोगों की उदासीनता की वजह से वह रामायण लोगों के चित्त पर नहीं चढ़ पायी फलतः कृतिवास बंगाल चले गए। एक समय था कि जब अयोध्या रामाश्रयी संप्रदाय और ऐसे ही अन्य संप्रदायों का आध्यात्मिक केंद्र हुआ करता था लेकिन जब बाबर ने राम मंदिर तोड़ा और दूसरे धर्मांध मुगल शासकों ने धार्मिक उत्पीड़न शुरू किया, तब इन धर्मावलंबियों ने सीता के जन्मस्थल मिथिला का रुख करना शुरू कर दिया। लेकिन राम और उनको पूजने वाले वैष्णव मत को मिथिला ने आत्मा से स्वीकार नहीं किया।

वैष्णव अपने माथे पर तीन लकीरनुमा तिलक लगाते हैं तो आज भी उन्हें मिथिला में उपहास में 111 एक सौ ग्यारह और राम फटाका वाला महात्मा कहा जाता है। वह गले में तुलसी की माला पहनते हैं तो लोग उन्हें उपहास में कंठमलिया बोलते हैं। वैष्णव गुरु जब कभी भी किसी को मत में दीक्षित करते हैं तो उस व्यक्ति के कान में कुछ मंत्र पढ़ते हैं। और मिथिला में उन वैष्णव गुरुओं को कनफुसकी बाबा बोलते हैं। कभी कोई मैथिल हुआ करते थे जो शायद राम के प्रति अपने आशक्ति की वजह से विष्णुपुरी नाम से जाने जाते थे जब उन्होंने संन्यास ग्रहण करने का विचार किया तो समाज के लोगों ने उन्हें समाज से ही बहिष्कृत कर दिया। योगी जी को अयोध्या में राम मंदिर जरूर बनवा देना चाहिए, काहे कि पता नहीं कब किस दिन कोई चोटाया हुआ मैथिल लव-कुश की तरफ से टाइटल केस कर दे। जो सीता से बियाहे गये, सो भगवान् हुए वरना कहलाते रामचंद्र वल्द दशरथ 
जय सीता माई रहेगा।
पिछले दो दशक की राजनीति ने राम को सांप्रदायिक बना दिया है वरना उस ग्रुप के अहमकों को पता होता कि पहले मुसलमान भी राम-राम कहकर अभिवादन किया करते थे। आपने अपनी हिन्दुत्ववादी आक्रामकता को जय श्री राम में बदल दिया है। 

अनु रॉय की इस पोस्ट पर टिप्पणी करने वाले ज्यादातर लोग अनपढ़ ही लगे  मुझे। साक्षरता के संदर्भ में नहीं, दिमागी परिपक्वता के संदर्भ में। इनमें से ज्यादातर ने रामचरित मानस या रामायण (इसके बारे में छोड़ ही दीजिए, यह संस्कृत में है) पढ़ा नहीं होगा। राम के बारे में इनका अधिकतम ज्ञान रामानंद सागर या बाद के चैनलों पर चलने वाले धार्मिक सीरियलों से आय़ा होगा। 

एक बात तय है, पहली बात कि सीता के चरित्र पर सवाल करने वाला धोबी गंवार नहीं था, गंवार तो वे लोग है जिनका मर्दवादी अहंकार शॉर्ट्स पहनने वाली लड़की के पोस्ट को स्वीकार नहीं कर पाया. आहत हुए इन लोगों में ज्यादातर लोग सुबह सुबह वॉट्सएप पर जीजा-साली के जोक शेयर करने वाले लोग हैं। 

अब ग्रुप के एडमिन ने एक माफीनामा भी पोस्ट किया है। सोशल मीडिया पर बढ़ती इस--मैं असहिष्णुता नहीं कहूंगा--अहमकपने, मूर्खता और नीचता ने एक बात साबित कर दिया है। उसकी मिसाल मैं एक छोटी सी कहानी से दूंगा, जो आपने पहले सुन रखी होगीः
पानी में भींगते-ठिठुरते बंदर को चिड़िया ने देखा तो कहा, बंदर भैया आप भी अपना घर क्यों नहीं बनाते। जवाब में बंदर ने चिड़िया का घोंसला उजाड़ दियाः बड़ी आई, मुझे उपदेश देने वाली. 

फिलहाल सवाल यह है कि सोशल मीडिया पर इन ट्रोल या साइबर बुलीज़ पर कैसे नकेल कसी जाए। अनु रॉय के पास एक विकल्प है कि वह धमकी देने वालों के खिलाफ साइबर क्राइम समेत एफआईआर दर्ज करवाएं, ताकि मुजफ्फरपुर के इन कथित आहत लोगों को दो चार बार मुंबई पुलिस का लाफा पड़े तो भावनाओं के साथ कनपटी भी आहत हो।

बहरहाल, ट्रोल करने वाले इन बंदरों के हाथ में सोशल मीडिया का टूल आ गया है,  और इन्हें अदरक का स्वाद तो बिलकुल पता नहीं। 

Friday, May 5, 2017

सूखे पर क्या सोचा है सरकार

आपका ध्यान ‘आप’ में ‘विश्वास’ के कायम रहने और अक्षय कुमार को राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिलने जैसे राष्ट्रीय महत्व के समाचारों से जरा हटे तो आपके लिए एक खबर यह भी है कि, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने पिछले हफ्ते तमिलनाडु सरकार को एक नोटिस दिया है। यह नोटिस पिछले एक महीने में किसानों की आत्महत्याओं की खबरों के बारे में है। खराब मॉनसून ने सूबे के ज्यादातर जिलों पर असर डाला है और इससे फसल खराब हुई है। लगातार दूसरे साल पड़े इस सूखे ने कई किसानों को आत्महत्या पर मजबूर किया है।

मानवाधिकार आयोग के इस स्वतः संज्ञान के बाद भेजे नोटिस में जिक्र है कि पिछले एक महीने में 106 किसानों ने तमिलनाडु में आत्महत्या की है। वैसे कर्नाटक और आंध्र प्रदेश में भी सूखा उतना ही भयावह संकट लेकर आया है। वैसे पनीरसेल्वम बनाम शशिकला बनाम पनालीसामी के सियासी चक्रव्यूह में फंसे तमिलनाडु में सरकार इस मुद्दे पर चुप है, और चारों तरफ से राज्य को सूखाग्रस्त घोषित किए जाने की मांग के जोर पकड़ने के बाद एक उच्चस्तरीय समिति गठित कर दी गई है।

सरकार के कान पर जूं तब रेंगी, जब मद्रास हाई कोर्ट ने चार हफ्ते के भीतर इस मसले पर हलफनामा दायर करने को कहा। अदालत ने सरकार से आत्महत्याएं रोकने के लिए कदम उठाने को भी कहा है, हालांकि यह कदम क्या होंगे यह कुछ स्पष्ट नहीं हो पाया है। अपनी तमिलनाडु यात्रा के दौरान, और कुछ रिपोर्ट्स देखने के बाद, मुझे लग रहा है कि सूखे की यह समस्या तिरूवरूर, नागापट्टनम्, विलुपुरम्, पुदुकोट्टाई, अरियालुर, कुडालोग और तंजावुर जिलों में अधिक भयावह है।

तमिलनाडु में उत्तर-पूर्वी मॉनसून से बारिश होती है, यानी अक्तूबर के महीने में, और यह बारिश ही सूबे की जीवनरेखा मानी जाती है। इस बारिश का मौसमी औसत करीब 437 मिलीमीटर है, लेकिन भारतीय मौसम विभाग के चेन्नई केन्द्र के आंकड़े बताते हैं कि पिछले मौसम, यानी 2016 के अक्तूबर के बाद से बारिश सिर्फ 166 मिलीमीटर हुई है।

उधर, कर्नाटक से सटे कावेरी डेल्टा इलाके में किसानो की गत बुरी है। यह इलाका अनाज का भंडार माना जाता है, लेकिन कुरवई (गरमी) की फसल पहले ही मारी जा चुकी है क्योंकि उस वक्त कर्नाटक ने कावेरी का पानी छोड़ने से मना कर दिया था, और शीतकालीन मॉनसून के नाकाम हो जाने के बाद संबा की फसल भी बरबाद हो गई है।

उधर, कर्नाटक में, दो बड़े जलाशय कृष्णराजा बांध और कबीनी, सूखने की कगार पर हैं। इनमें 4.4 टीएमसी फीट पानी ही बचा है। जानकारों के मुताबिक, 5.59 टीएमसी फीट के बाद पानी नहीं निकाला जा सकता क्योंकि ऐसा करने पर जलीय जीवों का अस्तित्व संकट में पड़ जाता है। कर्नाटक के बाकी के 12 बांधों में सिर्फ 20 फीसद पानी बचा है, और एक तरह से देखा जाए तो कायदे से पूरी गरमी का डेढ़ महीना काटना बाकी है। बंगलूरु में हर तीसरे दिन पानी की आपूर्ति बाधित हो रही है, तकरीबन हर रिहायशी कॉम्प्लेक्स पानी के टैंकरों से पानी खरीद रहा है। पानी के एक टैंकर की कीमत तकरीबन 700 से 750 रूपये तक है। पानी के यह टैंकर निजी बोर-वेल से भरे जा रहे हैं, लेकिन यह भी कब तक साथ देंगे यह जानना ज्यादा मुश्किल भरा सवाल नहीं है।

इसी के साथ आंध्र और तेलंगाना में कुछ सियासतदानों ने अनूठे, अजूबे और मूर्खतापूर्ण हरकते भी कीं, जो उनकी समझ में पानी बचाने की कवायद थी। इनमे से एक थी, लाखों रूपये खर्च करके एक बांध को थर्मोकोल से ढंकने की, ताकि पानी भाप बनकर न उड़ जाए। बांध के पानी को थर्मोकोल से ढंका भी गया, लेकिन अगली सुबह जब हवा जरा जोर की चली सारे थर्मोकोल बांध के एक किनारे आ लगे।

एक अन्य उपाय के तहत, बंगलुरू में वॉटर सप्लाई और सीवरेज बोर्ड ने और अधिक बोल-वेल ड्रिलिंग के आदेश भी दिए हैं। अब इसके लिए कितनी गहराई तक ड्रिलिंग करनी होगी, और कितना खोदना सही होगा, यह तो विशेषज्ञ ही बता पाएंगे। लेकिन इतनी बड़ी संख्या में बोर-वेल खोदने से आगे क्या असर पारिस्थितिकी पर पड़ेगा, वह अच्छा नहीं होगा, यह तो हम अभी बता देते हैं। वैसे अगर आप ऐसी खबरों में दिलचस्पी रखते हों, तो पिछली बारिश में बंगलुरू में बाढ़ जैसी स्थिति पैदा हो गई थी, और आज की तारीख में सूखे की है। सिर्फ बंगलुरू ही नहीं, हरे-भरे मैसूर और मांड्या में भी स्थिति कुछ ठीक नहीं है। कर्नाटक सरकार ने हालांकि अपने 176 में से 160 को सूखाग्रस्त घोषित कर दिया है लेकिन क्या सिर्फ इतना करना ही काफी होगा? किसानों ने खरीफ और रबी दोनों फसलें नहीं बोई हैं। कर्नाटक, आंध्र और तमिलनाडु के सरहदी इलाकों में यह स्थिति पिछले 42 सालों में सबसे भयावह है।

किसानों की आत्महत्या के मामले में कर्नाटक की स्थिति भी बेहद बुरी रही है और अनुमान है पिछले चार साल में करीब 1000 किसानों ने आत्महत्या की है।

इतना समझिए कि पिछले साल सामान्य मॉनसून होने (सिर्फ पूर्वी तमिलनाडु को छोड़कर जहां बरसात अक्तूबर में होती है) पर भी तमिलनाडु, आंध्र, केरल और कर्नाटक में पानी की यह कमी, सिर्फ बरसात की कमी नहीं है। केरल में इस बार का सूखा पिछले सौ सालों का सबसे भयानक सूखा है।

सवाल है कि किया क्या जाए। सूखे से निबटने का उपाय ट्रेन से पानी पहुंचाना या ज्यादा बोर-वेल खोदना नहीं है और थर्मोकोल से बांध ढंकना तो बहुत ही बेहूदा कदम है। इसके लिए एक ही सूत्र हैः पानी का कम इस्तेमाल, पानी का कई बार इस्तेमाल, और पानी को रीसाइकिल करना।

इसका उपाय है जलछाजन यानी वॉटरशेड मैनेजमेंट भी है और ग्रीन वॉटर का इस्तेमाल भी। पर उसके बारे में बाद में बात, अभी देखिए कि इस गहनतम सूखे पर मुख्यधारा के किसी चैनल या उत्तर भारत के किसी शहरी अखबार ने कुछ लिखा है क्या? नहीं न। वही तो, सूखा और किसान आत्महत्या खबर थोड़े न है, अलबत्ता एमसीडी चुनाव है।

मंजीत ठाकुर

Sunday, April 16, 2017

गायो को बचाइए न, प्लीज।

जब से उत्तर प्रदेश में अवैध बूचड़खानों पर, अवैध शब्द पर गौर कीजिए, बंदिश लगाई गई है, गाय एक बार फिर से सियासत के चौराहे पर बीचों-बीच आ खड़ी हुई है। अव्वल, सेकुलरवाद की रोटी खा रहे राजनीतिज्ञों को लगता है कि बूचड़खानों में सिर्फ गायें काटी जाती हैं। जनाब, उनमें बकरे भी काटे जाते हैं।

जो भी हो, केन्द्र में जब से नई सरकार बनी है, कुछ हिन्दू संगठन गाय को राष्ट्रीय पशु घोषित करने की मांग कर रहे हैं। कुछ संगठन, गांव-कस्बों-शहरों में गेरूए रंग से दीवारों पर लिख रहे हैं कि गाय मारने वालों को फांसी दी जाए।

ठीक है। यह सियासत की भाषा है। यह ऐसी ही रहेगी। गाय हिन्दुओं के लिए पवित्र पशु और माता समान है। लेकिन खेतिहर भारत के लिए गाय उससे भी ज्यादा ज़रूरी है और इसीलिए गोवंश को बचाना बेहद ज़रूरी है। यह भी बेहद जरूरी है कि जब दुनिया ऑर्गेनिक खेती की तरफ बढ़ रही है तो गो-आधारित खेती, यानी खेती में गोबर और गोमूत्र का प्रयोग करके ही उपज को बढ़ाया जा सकता है।

लेकिन, दुनिया में पवित्र जीवों समेत सभी जीवों के जान की कीमत बराबर है, और हम आत्मवत् सर्वभूतेषु की परंपरा मानने वाले देश से हैं, फिर भी मेरी निजी राय है कि इंसान की जान की कीमत थोड़ी ज्यादा कूती जानी चाहिए।

अमूमन गोरक्षा शब्द से गांधी जी का नाम जोड़ा जाता है। लेकिन, उसी दौर में ‘गौ-रक्षा’ के नाम पर कुछ सांप्रदायिक लोग गांधी की बातों का भी बेजा इस्तेमाल कर ले जाना चाहते थे। गांधी इससे बेखबर नहीं थे। 16 मार्च, 1921 को ऐसे लोगों के लिए ‘दुष्ट’ और ‘दुश्मन’ जैसे कठोर शब्दों का प्रयोग करते हुए ‘यंग इंडिया’ में उन्होंने लिखा, ‘अपनी यात्रा के दौरान मुझे बहुत से ऐसे हिंदुओं से मिलने का मौका मिला है, जो गौरक्षा के लिए जल्दी मचा रहे हैं। मैं उनका ध्यान एक घरेलू कहावत की ओर आकृष्ट करने की धृष्टता करूंगा, उतावला सो बावला. ...हिंदू जोर-जबर्दस्ती से यह काम नहीं करा सकते। हमें याद रखना चाहिए कि हिंदुओं और मुसलमानों के बीच बढ़ती हुई मित्रता को नष्ट करने वाली शक्तियां अभी तक सक्रिय हैं। दुष्ट लोग उस डोर को तोड़ डालने की पूरी कोशिश कर रहे हैं जिससे दोनों बंधे हुए हैं। हमें ‘दुश्मन’ के हाथों नहीं खेल जाना चाहिए।’

बहरहाल, गोरक्षा के नाम पर विभाजनकारी शक्तियां दोनों तरफ से सक्रिय हो गई हैं। लेकिन, गोरक्षा के नाम पर मरने-मिटने के लिए तैयार लोगों से एक सवालः गाय की रक्षा के लिए आपने और कौन-कौन से कदम उठाए हैं।

मिसाल के तौर पर, गायों और बैलों के लिए चारे की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए प्रशासन और गोरक्षा संगठनों ने क्या कदम उठाया है।

आप कभी बुंदेलखंड में चले जाएं। मध्य प्रदेश या उत्तर प्रदेश दोनों तरफ के बुंदेलखंड में कई साझा समस्याओं के साथ एक समस्या बहुत आम है, वह हैः अन्ना प्रथा का।

बुंदेलखंड यूं तो सदियों से कम बारिश का इलाका रहा है, लेकिन पिछले एक दशक से लगातार आ रहे सूखे ने अकाल जैसी परिस्थितियां पैदा कर दीं, तो लोगों के लिए अपने मवेशियों के लिए चारा जुटाना मुश्किल हो गया। ऐसे में छोटे और सीमांत किसान ही नहीं, मंझोले किसानों ने भी अपने घर के मवेशियों को बाहर निकाल दिया है। अब यह मवेशी सड़को पर छुट्टा घूमते हैं। आप उरई से लेकर इलाहाबाद किधर भी चलें जाएं, सड़को पर आवारा और चारे के लिए भटकते, गायों-बैलों से आपका सामना होकर ही रहेगा। हज़ारों की संख्या में भटकने वाले यह मवेशी खेतों में घुसकर फसल को भी चट कर जाते हैं।

पहले फसलों के वक्त इन मवेशियों को किसान वापस घर ले आते थे लेकिन बारिश और मौसम के बदलते मिजाज़ ने मवेशियों के अपने घर लौटने को दुश्वार बना दिया।

भारत में मवेशियों के लिए हरे चारे की करीब 35.6 फीसद कमी है, सूखे चारे की कमी 26 फीसद। देश के सिर्फ 5 फीसद खेती लायक ज़मीन पर चारा उगाया जाता है। आबादी के बढ़ते दवाब ने चरागाहो को भी सिकोड़ दिया है।

भारत, दूध का दुनिया भर में सबसे बड़ा उत्पादक है, लेकिन मवेशियों के लिए चारे की उपलब्धता यहां बहुत बड़ी चुनौती है। सवाल है कि क्या बुंदेलखंड में अन्ना प्रथा की वजह से मारे-मारे फिर रहे इन मवेशियों के लिए चारा कभी मिल भी पाएगा?

गोरक्षा के लिए तलवार उठाने वालों को इस तरफ भी सोचना चाहिए। अन्ना प्रथा के शिकार लाखों गाय-बैल बुंदेलखंड की सड़कों पर घूम रहे हैं, वह बोल नहीं सकते, वरना यह सवाल ज़रूर पूछते।


---मंजीत ठाकुर




Monday, April 10, 2017

बंगाल में बीजेपी की उर्वर होती ज़मीन

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव भारतीय जनता पार्टी ने शानदार प्रदर्शन किया, और पार्टी अब उन इलाकों में पैठ बनाना चाह रही है, जहां उसका प्रचार-प्रसार उतना ज्यादा नहीं है। उन राज्यों में केरल और पश्चिम बंगाल हैं। पिछले साल पश्चिम बंगाल में हुए विधानसभा चुनाव ने वोट प्रतिशत के हिसाब से अपना अच्छा प्रदर्शन किया। हालांकि, यह 2014 के लोकसभा चुनाव के वोट प्रतिशत से कम था, लेकिन 2011 के विधानसभा चुनावों से तकरीबन दोगुना था।

पश्चिम बंगाल के पंचायत चुनाव बीजेपी के लिए इसलिए भी महत्वपूर्ण हैं क्योंकि जिन दो लोकसभा सीटों पर बंगाल में बीजेपी ने जीत दर्ज की थी, अब उस आधार को बढ़ाना जरूरी है। 2014 के आम चुनाव में बीजेपी को मिली दो लोकसभा सीटें मूलरूप से उन इलाकों में है, जहां बंगलाभाषी जनता का बहुमत नहीं है। आसनसोल सीट में हिन्दी-भोजपुरी बोलने वाले गैर-बांगलाभाषी लोगों का वोट अधिक है, तो दूसरी सट दार्जिलिंग की है, जहां का समीकरण बाकी के बंगाल से अलहदा है।

पश्चिम बंगाल बीजेपी की राज्य इकाई ने पंचायत चुनावों के मद्देनजर उत्तर प्रदेश के अपने समकक्षों से सुझाव लेना शुरू कर दिया है। सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस की मुख्य प्रतिद्वंद्वी के तौर पर उभरने के लिए उसने त्रिस्तरीय रणनीति भी बनाई है।

बीजेपी यूपी में शानदार जीत के बाद बंगाल पर ध्यान केन्द्रित कर रही है, जहां ममता बनर्जी सरकार की मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति अपनी पराकाष्ठा पर पहुंच गई है। बीजेपी मुस्लिम तुष्टीकरण करके ध्रुवीकरण करने की अपनी नीति पर ही काम करेगी। दूसरी तरफ, तृणमूल कांग्रेस, बीजेपी की इस बढ़त को रोकने के लिए वामपंथी पार्टियों से भी हाथ मिला सकती हैं। वैसे, इस महाजोट (जिसमें कांग्रेस और तृणमूल तो स्वाभाविक रूप से होंगे) की संभावना दूर की कौड़ी है। लेकिन बीजेपी अपने जनाधार को बढ़ाने के लिए हरमुमकिन उपाय कर रही है।


वैसे भी, वाम के किले मे दरार के बाद बीजेपी के अंदरूनी रणनीतिकार तबके को लगने लगा है कि बंगाल में एक ऐसे राजनीति दल की आवश्यकता है जो तृणमूल को चुनौती दे सके। बंगाल में बीजेपी के पास फिलहाल कोई बड़ा चेहरा नहीं है। बाबुल सुप्रियो केन्द्र में मंत्री हैं, लेकिन जनाधार वाले नेता नहीं है। कम से कम आसनसोल के बाहर उनका असर अभी दिखता नहीं है। रूपा गांगुली ज़रूर उत्तर बंगाल में असर दिखा सकती हैं, और पार्टी के कैडर में उनकी स्वीकार्यता अगर बढ़ी तो वह स्वाभाविक नेतृत्व दे सकती हैं। राहुल सिन्हा और दिलीप घोष बंगाल बीजेपी के बड़े नेता तो हैं लेकिन असरहीन हैं।

इसलिए बंगाल में भी संभवतया उसी रणनीति पर काम किया जाएगा। यानी अगर दूसरे दलों के नेता भाजपा में शामिल होना चाहें तो पार्टी उनका स्वागत करेगी। राज्य इकाई
प्रशिक्षित और पूर्णकालिक कार्यकर्ताओं की एक फौज बना रही है, जो राज्य के प्रत्येक जिले में जा कर नरेंद्र मोदी सरकार की उपलब्धियों और तृणमूल सरकार के कुशासन के बारे में लोगों को बता सके।

बंगाल में बीजेपी अगर अपने इस नेताओं की कमी वाले संकट से निबट ले तो उसके लिए विस्तार की एक उर्वर ज़मीन तैयार है। उत्तर बंगाल में, जो कांग्रेस का पुराना और मजबूत गढ़ रहा है, तृणमूल ने सीटें तो जीती हैं, लेकिन वहां जड़ अभी भी कांग्रेस की ही जमी हुई है। दोनों ही पार्टियां अल्पसंख्यकों के वोटों के भरोसे चुनाव लड़ती हैं। हालांकि बहरामपुर हो या मुर्शिदाबाद, मालदा हो या रायगंज, मुस्लिम वोट वहां निर्णायक होता है। ऐसे में, समीकरण यही होगा कि मुस्लिम वोट, वाम मोर्चे (बड़े वामपंथी नेता मोहम्मद सलीम ने लोकसभा चुनाव उत्तर बंगाल से लड़ा था), कांग्रेस (क्यों कि उत्तर बंगाल की छह सीटें, एबीए गनी खान चौधरी और अधीर रंजन चौधरी समेट दीपा दासमुंशी के असर में है) और तृणमूल (उत्तर बंगाल में विधानसभा चुनाव में तूफानी प्रदर्शन किया) के बीच बंटेगा। बीजेपी, तुष्टीकरण और दंगों को मुद्दा बनाकर हिन्दुओं की पार्टी बनेगी। असल में, बंगाल में हाल के वर्षों में कुछ दंगे हुए हैं, मुख्यधारा की मीडिया ने भले ही इन दंगो को ठीक से कवरेज न दी हो, लेकिन यह बंगाल में बड़ा मुद्दा बना।

फिर, दुर्गा पूजा में ममता ने जिस तरह मूर्ति विसर्जन के वक्त खासी फजीहत कराई और फिर उन्ही दिनों उनकी नमाज पढ़ने वाली तस्वीर वायरल हुई, उससे लगता है कि बंगाल में ममता बनर्जी से नाराज हिन्दू वोट खिसककर बीजेपी की तरफ जाएगा। जाहिर है, अगर आने वाले वक्त में बीजेपी ने बंगाल में ठीक से होम वर्क किया तो पश्चिम बंगाल उसके लिए काफी उपजाऊ ज़मीन साबित होगी। देश की राजनीति में भी, 42 लोकसभा सीटें कम नहीं होती।



मंजीत ठाकुर


Thursday, March 30, 2017

अवैध खनन भी अवैध बूचड़खाना ही है।

उत्तर प्रदेश में खनन माफियाओं का तिलिस्म कभी कोई सरकार नहीं तोड़ पाई या यों कहें कि पिछले एक दशक में सियासी दलों के आकाओं ने जान-बूझकर इस ओर से अपनी आंखें बंद किए रखीं। खासकर बुंदेलखंड की बात करूं, तो इलाके में कोई पहाड़ी, कोई नदी नहीं बची जहां खनन का काम न चल रहा हो। ऊपरी तौर पर शायद तस्वीर बहुत गंभीर नहीं दिखेगी, लेकिन इसका असली खेल तब समझ में आता है, जब पता चलता है कि समूचा धंधा अब तक राजनेताओं के संरक्षण में फल-फूल रहा था।

हर रोज़ हजारो की संख्या में ट्रक बांदा और आसपास के इलाकों से नदियों से रेत लेकर निकलते हैं। जबकि रेत के खनन पर एनजीटी और इलाहाबाद हाई कोर्ट ने रोक लगा रखी है। यहां की केन, बागे और रंज नदियों से रेत निकालने का काम किया जा रहा है। बांदा के गांवों से हर रोज़ ट्रैक्टर के ज़रिए, रेत लाकर फिर बड़े ट्र्कों से दूरदराज को भेजा जाता है। हर रोज जिले से हजारों ट्रक रेत को बाहर ले जाने का काम करते हैं, वह भी प्रशासन की ठीक नाक के नीचे से।

पत्थरों के अवैध खनन के खिलाफ हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच में याचिका दायर कर चुके राजकुमार हों या नदियों में रेत के अवैध खनन के खिलाफ राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण (एनजीटी) का दरवाज़ा खटखटाने वाले ब्रजमोहन यादव, दोनों पर झूठे केस बनाए गए और उन पर जानलेवा हमले भी हुए हैं।

अब एनजीटी ने रेत के अवैध खनन को लेकर बांदा प्रशासन को नोटिस भेजा है। बुंदेलखंड में पिछले एक दशक में रेत का अवैध खनन का व्यापार काफी फला-फूला है और इसको किस कदर सियासी संरक्षण हासिल है यह बांदा के पुलिस सुपरिटेंडेंट आर के पांडे की डीएम को लिखी चिट्टी से भी साफ हो जाता है, जिसमें उन्होंने कांग्रेस के विधायक दलजीत सिंह और सपा नेता लाखन सिंह के नाम का उल्लेख किया है। जाहिर है, पिछले एक दशक में खनन माफिया के सिर्फ दल बदले हैं, काम नहीं बदला और इसका खामियाजा बुंदेलखंड के पर्यावरण के साथ-साथ सरकार के खज़ाने को भी भुगतना पड़ रहा है।

ऐसा नहीं है कि खनन माफियाओं पर नकेल कसने के लिए कानूनों की कमी हो, धन-बल के प्रभाव ने हर कानून की सीमाओं को छोटा कर दिया है। खनन माफिया नेताओं और अफसरों को पैसों से अपने पक्ष में कर लेते हैं और इसके अलावा प्रतिरोध में उठी आवाजों को बाहुबल से बंद कर देते हैं।

सीएजी रिपोर्ट कहती है कि उत्तर प्रदेश में करीब साढ़े चार सौ मामलों में जिलाधिकारियों ने एनओसी जारी की थी, लेकिन खनन का राजस्व नहीं दिया। इससे सरकार को करीब 238 करोड़ का नुकसान हुआ। इसकी बड़ी वजह है कि प्रदेश में बड़ी संख्या में बाहुबली कहीं न कहीं अवैध खनन के धंधें में लिप्त हैं। अतीक अहमद और मुख्तार अंसारी जैसे बड़े बाहुबलियों का नाम भी किसी न किसी रूप में इससे जुड़ा रहा है।

उल्लेखनीय है कि बुंदेलखंड के सभी जनपदों से सालाना बालू और पत्थर खनिज से 510 करोड़ रूपए राजस्व की वसूली होती है। सीएजी की रिपोर्ट 2011 पर नजर डाले तो 258 करोड़ रुपए सीधे राजस्व की चोरी की गई है। वहीं वन विभाग की लापरवाही से जारी की गई एनओसी के बल पर वर्ष 2009 से 2011 के मध्य जनपद महोबा, हमीरपुर, ललितपुर में परिवहन राजस्व वन विभाग को न दिए जाने के चलते सरकार को 3 अरब की राजस्व क्षति का ख़ामियाज़ा भुगतना पड़ा है।

एक लाइसेंसधारी आपूर्तिकर्ता राज्य को रॉयल्टी चुकाने के बाद ऊंची कीमत, करीब 20,000 रुपये प्रति डंपर के हिसाब से बालू बेचता है। इतना ही बालू एक गैरकानूनी आपूर्तिकर्ता 8000 रुपये में ट्रांसपोर्टरों को मुहैया कराता है, जो भवन निर्माताओं को 10,000 रुपये में बेचते हैं।

माफियाओं ने कभी मिर्जापुर-सोनभद्र में एक लाल पत्थर के पहाड़ को इस बेदर्दी से खोद डाला कि पूरा का पूरा पहाड़ ही ध्वस्त हो गया। ऐसे ही दृश्य आप बांदा के कुलपहाड़ और कबरई इलाके में देख सकते हैं। नदियों मे रेत के खनन से उसकी तली में गाद जमा हो जाती है और उसका प्रवाह बाधित होता है। बालू के अवैध खनन का मामला केवल अपराध से जुड़ा नहीं है. इससे न केवल सरकार को बड़े पैमाने पर राजस्व की हानि हो रही है, बल्कि पर्यावरण और जैव विविधता भी खतरे में हैं। पर्यावरणविद् मानते हैं कि अगर इसी तरह खनन होता रहा, तो नदी की मौत हो जाएगी और जैव विविधता भी नष्ट हो जाएगी। नदी में बालू फिल्टर की तरह काम करता है और इससे छन कर शुद्ध पानी भूमि में जाता है, लेकिन बालू के अवैध खनन से न केवल भू-जल स्तर घटता है बल्कि इसके प्रदूषित होने का खतरा भी बढ़ जाता है।

बुंदेलखंड में तो बेतवा नदी पर पूर्व में सत्ता में रही दोनों सियासी पार्टियों के कुछ नेताओं के गुर्गो ने कब्जा ही कर रखा है। यहां से निकली महीन और मोटी मोरंग की मांग पूरे देश में है। हैरत की बात है कि बाजार में चालीस हजार रुपये प्रति ट्रक बिकने वाली मोरंग का 60 प्रतिशत से अधिक हिस्सा खनन के समय ही इन गुर्गों द्वारा वसूल लिया जाता है।

बेतवा से मोरंग का अवैध खनन करने के बाद ट्रकों को माफिया के लोग सुरक्षित रूप से 50 से सौ किलोमीटर के दायरे तक पहुंचाने की जिम्मेदारी भी लेते हैं।

उत्तर प्रदेश में जिस तरह अवैध बूचड़खाने बंद हुए हैं अब रेत के इस अवैध खनन को भी रोकने की ज़रूरत है। आखिर, अवैध रूप से रेत और पत्थर निकालकर पहाड़ों और नदियों के बेमौत मारने की ही तो काम किया जा रहा है।

मंजीत ठाकुर

Saturday, March 18, 2017

कांग्रेस का अवसान

धराशायी होना एक शब्द है और इसका अगर मौजूदा परिप्रेक्ष्य में एक राजनीतिक अर्थ खोजा जाए, तो इस शब्द को चरितार्थ किया है, कांग्रेस और राहुल गांधी ने।

पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में चार में हार कांग्रेस के लिए कोई नई बात नहीं है। इस साल उत्तराखंड और मणिपुर में उसे अपनी सरकार गंवानी पड़ी है तो 403 विधानसभा वाले देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में उसके हाथ महज 7 सीटें आईं। एक के बाद एक लगातार हार से कांग्रेस नेताओं का धैर्य भी चुकने लगा है। कांग्रेसी भले राहुल गांधी की नेतृत्व क्षमता पर चुप हों, लेकिन वक्त आ गया ह कि सवाल उठाए जाएं।

राहुल गांधी 2013 में कांग्रेस के उपाध्यक्ष बने, तब से लेकर आजतक वह 24 चुनाव हार चुके हैं। जब वह उपाध्यक्ष बने थे तब देश में 13 राज्यों में कांग्रेस की सरकार थी। लेकिन आज स्थिति ये है कि पार्टी न तो लोकसभा में मुख्य विपक्षी दल बन पाई, और अधिकतर राज्यों में पार्टी सत्ता से बाहर हो चुकी है।

सियासी पार्टियों का अंत कैसे होता है? इसे समझने के लिए लंबे समय से धीरे-धीरे अंत की ओर बढ़ रही कांग्रेस पर निगाह डालने की जरूरत है। 1885 में स्थापित कांग्रेस आजादी के बाद से अभी तक महज तीन बार ही सत्ता से बाहर रही है। लेकिन, मौजूदा परिस्थितियों से साफ है कि यह पार्टी खत्म भले न हो, लेकिन राष्ट्रीय शक्ति के तौर निष्क्रिय जरूर हो रही है। कांग्रेस के पास अपने बुनियादी जनाधार वाले वोटरों के लिए के लिए भी स्पष्ट राजनीतिक संदेश नहीं है।

2009 के लोकसभा चुनाव में जब कांग्रेस 2004 के मुकाबले और ज्यादा मजबूत होकर सामने आई तो उसका ज्यादातर श्रेय राहुल गांधी को ही दिया गया। खासकर यूपी में कांग्रेस को 21 सीटें मिलीं तो प्रचारित किया गया कि यह राहुल गांधी का ही करिश्मा है। इसके बाद मनमोहन सिंह के मंत्रिमंडल का जब भी विस्तार हुआ, राहुल गांधी के मंत्री बनने के कयास लगाए गए। 2013 में तो खुद प्रधानमंत्री रहे मनमोहन सिंह ने यह कह दिया कि वो राहुल गांधी के नेतृत्व में काम करने को तैयार हैं।

लेकिन उसी वक्त से पासा पलटना शुरू हो गया कांग्रेस के खाते में हार के बाद हार लिखी जाने लगी।

2012 में कांग्रेस चार राज्यों में हारी। यूपी में महज 28 सीटें कांग्रेस जीत पाई तो पंजाब और गुजरात में सत्ता में वापसी की उम्मीद धूल-धूसरित हुई। गोवा भी हाथ से फिसल गया।

2013 में कांग्रेस को त्रिपुरा, नगालैंड, दिल्ली, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में कारारी हार मिली। मिजोरम और मेघालय को छोड़ दिया जाए तो उसके लिए खुशखबरी महज कर्नाटक से आई।

2014 के लोकसभा चुनावों में तय था कि कांग्रेस हारेगी, लेकिन महज 44 सीट तक सिमट जाना हैरतअंगेज रिजल्ट था। फिर हरियाणा, महाराष्ट्र, झारखंड, जम्मू-कश्मीर में भी उसकी करारी हार हुई। 2015 में उसे असली झटका दिल्ली में मिला जहां उसे एक भी सीट नहीं मिली। 2016 भी कांग्रेस के लिए कोई अच्छी खबर लेकर नहीं आया। इस साल उसके हाथ से असम जैसा बड़ा राज्य चला गया। केरल में भी उसकी गठबंधन सरकार हार गई जबकि पश्चिम बंगाल में लेफ्ट के साथ चुनाव लड़ने के बावजूद उसका सूपड़ा साफ हो गया। हालांकि पुड्डुचेरी में उसकी सरकार बनी।

कांग्रेस का यह हश्र उसकी अपनी विचारधारा से विचलन की वजह से भी मानी जा सकती है। सेकुलर होने के एकमात्र गुणधर्म के अलावा राजीव गांधी के समय से ही कांग्रेस के पास कोई और बड़ा अजेंडा नहीं है और यही वजह है कि उसके जनादेश में धीरे-धीरे क्षरण आता गया है।

उत्तर भारत के बड़े हिस्से में वह स्थायी तौर पर विपक्ष में है। गुजरात में उसने तीन दशक से एक भी चुनाव नहीं जीता है। कई दूसरे बड़े राज्यों में, जहां बीजपी सत्ता में है या विपक्ष में है, वहां कांग्रेस चौथे या पांचवें स्थान पर है, यानी अप्रासंगिक है। वह जितना सोच रही है, उससे कहीं ज्यादा तेजी से दक्षिण में बीजेपी के हाथों अपनी जमीन हार रही है और हिंदुत्व तमिलनाडु और केरल में अनवरत आगे बढ़ रहा है।

कांग्रेस के क्षेत्रीय नेताओं ने काफी पहले इस पार्टी का अंत होते देख लिया था। उनमें से कुछ ने सफलतापूर्वक पार्टी को अपने कब्जे में लेकर अपनी जेबी पार्टियां खड़ी कर लीं। मिसाल के तौर पर, पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी। हालांकि, शरद पवार जैसे दूसरे नेता भी थे लेकिन वे कम कामयाब रहे। फिर भी, उनके पास अपनी पार्टी का कांग्रेस में फिर से विलय का सवाल भी नहीं उठता।

हाल के स्थानीय निकाय चुनाव में महाराष्ट्र में कांग्रेस की जो दुर्दशा हुई है, उसका कारण उम्मीदवारों को पार्टी की तरफ से वित्तीय सहायता नहीं देना है। यह एक खतरनाक संकेत है। कांग्रेस के पास राहुल गांधी या थोड़ी देर के लिए मान लें तो प्रियंका वाड्रा के अलावा कोई और चेहरा जनता के सामने पेश करने के लिए नहीं है। एक ही परिवार कितने दिनों तक करिश्मा दिखा पाएगी, यह बात सवालों के घेरे में है। उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री के तौर पर योगी आदित्यनाथ को आगे करके बीजेपी ने दूसरी पीढ़ी के नेताओं और संभवतया 2024 में केन्द्र में बीजेपी के अगले उम्मीदवारो को तैयाक करना शुरू कर दिया है।

कांग्रेस अभी भी सकते में है, और अभी रहेगी। कांग्रेस को राहुल गांधी से आगे सोचने की ज़रूरत है, इस काम में जितनी जल्दी वह करेगी, उतना जल्दी रिकवर कर पाएगी।




मंजीत ठाकुर

Saturday, March 11, 2017

यह लहर नहीं, सुनामी है

धराशायी होना अगर एक शब्द है, उसका चुनावी अर्थ यूपी चुनाव के नतीजों में यूपी के लड़के रहे। यूपी के लड़के यानी अखिलेश और राहुल गांधी। दोनों की मिली-जुली ताकत। यह ताकत फिसड्डी साबित हुई क्योंकि इन लड़कों को लोहा लेना था यूपी के लाडले से।

दूसरी तरफ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने साबित किया इस दफा यूपी में मोदी लहर नहीं थी, 2014 की लहर अब ताकतवर तूफान बन चुका है। कांग्रेस-सपा गठजोड़ की क्रिएटिव टीम ने अखिलेश-राहुल गठजोड़ को लेकर नारा बनायाः यूपी को ये साथ पसंद है। नतीजों के साथ नारा भी धूल-धूसरित हो गया, यह कहने की बात ही नहीं। यूपी के इन लड़को का ज़ोर इस बात पर था कि प्रधानमंत्री मोदी बाहरी हैं, और सपा-कांग्रेस गठबंधन दो कुनबों का नहीं, दो युवाओं का है।

इस गठजोड़ का पूरा फोकस यूथ वोटर पर था। 18 लाख लैपटॉप बांट चुके अखिलेश ने युवाओं को स्मार्टफोन देने का वादा किया। अखिलेश ने कहा भी, जितने युवाओं ने स्मार्टफोन के लिए रजिस्ट्रेशन कराए हैं, अगर वो सब भी वोट देंगे तो यूपी में समाजवादी पार्टी की सरकार बनेगी। मगर नतीजे बताते हैं, यूपी को ही नहीं, यूथ को भी ये साथ पसंद नहीं।

दूसरी तरफ, राहुल गांधी प्रधानमंत्री मोदी को यूपी के लिए बाहरी बताते वक्त भूल गए कि उनकी चुनाव फिल्मी डायलॉग से नहीं जीते जाते। कानून भारत के किसी भी नागरिक को देश में कहीं से भी चुनाव लड़ने की छूट देता है। आखिर इंदिरा गांधी ने चिकमंगलूर से चुनाव लड़ा था और इसके दो दशक बाद, 1990 में सोनिया गांधी ने भी बेल्लारी से चुनाव लड़ा था। ऐसे में मोदी को बाहरी बताने का प्रियंका और राहुल का दावा खोखला नज़र आया।

राहुल और अखिलेश ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी, चर्चा का केन्द्र बनने के लिए चाचा के साथ फ्रेंडली ड्रामाई फाइट भी किया, लखनऊ, इलाहाबाद, गोरखपु, आगरा कानपुर और वाराणसी में, बकौल अखिलेश ही, अच्छे लड़के राहुल के साथ रोड शो किए लेकिन इन सभी इलाकों में चाहे वह इलाहाबाद हो या आगरा, गोरखपुर हो या वाराणसी, रोड शो के बावजूद गठबंधन सड़क पर आ गया है।

राहुल गांधी ने रायबरेली का दो बार दौरा किया। अमेठी में अपना पूरा दिन प्रचार में बिताते हुए तीन रैलियां की। इस इलाके को जागीर समझते हुए और प्रियंका महज एक बार गईँ, सोनिया गांधी तो गई भी नहीं। खामियाजाः अमेठी में भाजपा जीती तो रायबरेली में कांग्रेस किसी तरह इज्जत बचा पाई।

इधर, प्रचार करते वक्त प्रधानमंत्री ने कहा कि उन्हें यूपी ने गोद लिया है, तो यूपी ने भी साबित किया कि मोदी सिर्फ गोद लिए हुए ही नहीं बल्कि यूपी के लाडले भी है। प्रधानमंत्री ने ताबड़तोड़ 23 रैलियों से बीजेपी के प्रचार को आक्रामक धार दी, जो जनता ने भी उतने ही प्यार से जवाब दिया, बीजेपी के खाते में करिश्माई 300 सीटों का आंक़ड़ा है।
मोदी लहर का जादू यह रहा कि उनके धुआंधार प्रचार ने 2014 की लहर को सुनामी और अंधड़ में बदल दिया। जिसमें बसपा तो खैर तिनके की तरह उड़ गई। कांग्रेस और सपा का सूपड़ा भी साफ हो गया. ऐसे में चुनाव के ऐन पहले जहां सपा-कांग्रेस गठबंधन को ओपिनियन पोल में बढ़त हासिल थी वहीं मोदी के चुनाव प्रचार शुरू करने के बाद माहौल बदलता गया. अंतिम दौर में तो पूर्वांचल की धुरी वाराणसी में पीएम नरेंद्र मोदी ने खुद आक्रामक प्रचार कर पूरी तरह से माहौल बीजेपी के पक्ष में कर दिया.

पूरा यूपी केसरिया रंग से सराबोर है। मोदी की अपील पर केसरिया होली के लिए जनता खुलकर मैदान में आ चुकी है। 2019 का सेमीफाइनल यूपी की जनता ने पीएम मोदी की झोली में डाल दिया है। ब्रांड मोदी भारतीय राजनीति का विश्वसनीय नाम साबित हुआ है। ये जीत इसलिए ही बड़ी नहीं है कि इसने 1991 में जीती गयी सीट के रिकॉर्ड तोड़े दिए। ये जीत इसलिए ऐतिहासिक है इसने इसने लोकसभा चुनाव में मिले वोट शेयर को भी मैच कर लिया है।

चुनाव के बाद जो प्रचंड मोदी लहर दिख रही है, वो पीएम मोदी की हर सभा में भी दिख रहा था लेकिन विरोधी मानने को तैयार नहीं थे। समाजवादी-और कांग्रेस पार्टी से तकरीबन 12 फीसदी वोट बीजेपी ने छीन लिए। बीएसपी से भी करीब 5 फीसदी वोट बीजेपी ने छीना है। पर, सबसे खास बात ये है कि पिछले चुनाव के मुकाबले बीजेपी ने अपना वोट लगभग दुगुना कर लिया है।

मोदी की लहर में विरोधी पार्टियां तिनके की तरह उड़ गईं हैं। सत्ताधारी समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के गठबंधन को करारा झटका लगा है। अखिलेश यादव और राहुल गांधी के तमाम दावों को भी जनता ने नकार दिया। इसी के साथ ये साफ हो गया कि जनता को ये साथ पसंद नहीं है। वहीं बीएसपी ने अपने जन्म के बाद से अब तक का सबसे खराब प्रदर्शन किया है।

लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने बड़े राजनीतिक पंडितों के आकलन को धता बताते हुए 80 में से 73 सीटें जीती थीं। अगर इसे विधानसभा सीटों में परिणत करते तो 43 प्रतिशत वोट के साथ सीटों की संख्या 337 होती। इस चुनाव में भी वोट प्रतिशत 43 प्रतिशत बरकरार रहा। यानी मोदी की लोकप्रियता अब भी कायम है।

यूपी चुनाव की जीत मोदी-शाह की जोड़ी की जीत मानी जा रही है। मोदी की लीडरशिप और अमित शाह के माइक्रो मैनेजमेंट ने इतनी बड़ी जीत दिलाई है। जाहिर है ये जीत दोनों के लिए मनोबल और ज्यादा बढ़ाने वाली साबित होगी। इन चुनावों में भी प्रचार का केंद्र बिंदु खुद पीएम मोदी ही रहे हैं। जाहिर है कि उसका क्रेडिट उन्हें ही मिलेगा।

मुख्तसर यही कि लड़के अभी तजुर्बे के लिहाज से कच्चे ही हैं, लाडले से भिड़ने के लिए सिर्फ हाथ मिलाना ही जरूरी नहीं। कारनामों की जगह काम करके भी दिखाना होता है।

मंजीत ठाकुर

Saturday, March 4, 2017

वोटबैंक का बंटवारा

उत्तर प्रदेश में अब बस आखिरी चरण की वोटिंग होनी बाक़ी है। बहुत कुछ हो गया, बहुत कुछ गुज़र गया। जुमलेबाज़ी, लफ्फाजी, वायदे, घोषणापत्र...सब कुछ हुआ। लेकिन सिर्फ भारत जैसे बड़े और अजूबे किस्म के किमियागरी वाले लोकतंत्र में ही मुमकिन है कि चुनाव घोषणा-पत्र में किए गए वादों की बजाय एक-दूसरे का खौफ दिखाकर जीते जाएं।

बिना किसी का पक्ष लिए कहूंगा कि यह (और पिछले कई चुनाव) मुद्दों (इस बार यूपी में मुद्दो की बात न कें) की बजाय किसी एक पार्टी को रोकने के नाम पर लड़े जा रहे हैं।

उत्तर प्रदेश में मुसलमानों के वोटों की चिंता कथिक सेकुलर पार्टियों को है। इन पार्टियों के नेता जब मुस्लिमों से मिलते हैं, तो आम वोटर उनसे यही पूछता है कि अल्पसंख्यक की शिक्षा, रोज़गार, तरक़्क़ी और सेहत के लिए, विकास की समस्याओं के हल के लिए उनके पास योजनाओं का क्या खाका है? नेता जी उंगली से वोटर को चुप कराते हैं और कहते हैं, चुप हो जाओ वरना बीजेपी आ जाएगी।

यह सच है कि सेकुलर कहे जाने वाली पार्टियों के पास अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा का नारा तो है, लेकिन उनका विकास कैसे होगा, इस बात का कोई ठोस रोडमैप नहीं है। यह नदारद है। जाहिर है, ठगा महसूस कर रहा मुसलमान अपने दुख-दर्द में शामिल छोटी पार्टियों पर भी भरोसा कर रहा है ।

इसका क्या मतलब है? इसका मतलब है कि बहुजन समाज पार्टी—जिनकी सुप्रीमो मायावती ने खुलेआम मुसलमानों से उनकी पार्टी को वोट देने का आह्वान किया—और समाजवादी पार्टी, जिनके नेता खुद को मुसलमानों का एकमात्र रहनुमा मानते हैं, का यह वोटबैंक या तो बंट रहा है, या खिसक रहा है। यह वोटबैंक मजलिस-ए-इत्तिहाद उल मुस्लिमीन और पीस पार्टी को भी वोट दे रहा है। जाहिर है, इन छोटी पार्टियों की वजह से और वोटबैंक में हिस्सा बंटाने से 11 मार्च को कई दिग्गजों का खेल खराब होगा। यकीनन होगा।

इन दोनों छोटी पार्टियों को ज्यादा सीटें हासिल नहीं होंगी, लेकिन खेल खराब होगा।

इन कथित सेकुलर पार्टियों की दिक्कत है कि नोटबंदी का मसला भी हाथ से फिसल गया। आम जनता में नोटबंदी कोई बहुत बड़ा मसला नहीं है। जबकि, सपा और बसपा दोनों को बुरी तरह यकीन था कि नोटबंदी वोटरों के सामने बहुत बड़ा मसला साबित होगा। ऐसे में इन दलों ने बाकी सारे मुद्दे ठंडे बस्ते में डालकर नोटंबदी को उछाला। उन्हें लगा कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने चुनाव के ऐन पहले, अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली है। कांग्रेस और सपा तो यही समझती रही कि उन्हें बैठे-बिठाए हाथों में लड्डू थमा दिया गया है। लेकिन, सच यह है कि बीजेपी अगर चुनाव हारेगी भी (क्योंकि चुनाव परिणाम अनिश्चित हैं) तो उसकी वजह नोटबंदी नहीं होगी।

नोटबंदी के बाद के दौर में, कांग्रेस के रणनीतिकार प्रशांत किशोर ने सेकुलर वोटों को इकट्ठा करने की रणनीति पर काम करना शुरू किया। मुस्लिम लीडरों क घास न डालने की सलाह उन्होंने अपने दल को दे दी। समाजवादी पार्टी की खुशफहमी की एक वजह यह भी रही कि उनके घरेलू सियासी ड्रामे पर समाजवादी पार्टी के अधिकांश कार्यकर्ता अखिलेश का साथ देते रहे, और उसे रणनीतिकारों ने उसे जनता का समर्थन मान लिया।

अब बात बसपा की। जिस वक्त में अखिलेश जनता के समर्थन की खुमारी में थे, मायावती ने नोटबंदी मुद्दे की व्यर्थता को भांप लिया था। उन्होंने नसीमुद्दीन सिद्दीकी को मुस्लिम उलेमा को साथ लाने के एकसूत्रीय काम पर लगा दिया। तो एक तरफ तो भारतीय जनता पार्टी के नेता नोटबंदी को अपनी उपलब्धि को तौर पर जनता के सामने ले जा रहे हैं। प्रधानमंत्री ने तकरीबन हर चुनावी रैली में, काले धन के खिलाफ नोटबंदी के इस कदम की सराहना की और मायावती और मुलायम के नोटबंदी पर रूख की खिल्ली उड़ाई वहीं, समाजवादी पार्टी मुस्लिम वोटों के विभाजन को रोक पाने में नाकाम रही है।

नोटबंदी की वजह से जनता को जो परेशानी हुई थी, अब वह पुरानी बात हो गई और अब उनके सामने कुर्ते की फटी जेब से उंगलियां बाहर निकालकर दिखाने से जनता के ठहाके हासिल किए जा सकते हैं, वोट नहीं।

फिर अखिलेश यादव और उनकी टीम ने, मायावती को अपने युद्ध में निशाने पर रखा ही नहीं। लेकिन यकीन मानिए उत्तर प्रदेश में फैसला कुछ अनोखा भी आ सकता है। यह अनोखा चुनावी नतीजा, कुछ भी हो सकता है, त्रिशंकु विधानसभा भी। तब, मायावती और बीजेपी साथ आ जाएं तो क्या ताज्जुब! आखिर, सियासत गुंजाइश से ही शुरू होती है।


Sunday, February 26, 2017

चुनावी दलबदल में नारेबाज़ों की मुश्किल

उत्तर प्रदेश में बस पांचवे चरण की वोटिंग होनी है। चुनाव में ज़बानी जमा-खर्च और लफ्फाजियों के साथ नारों का होना जरूरी होता है। सिर्फ ज़रूरी नहीं, बहुत ज़रूरी।

इस बार चुनाव में घूमते वक्त कई नारे कान में पड़े। अश्वमेध का घोड़ा है, मोदीजी ने छोड़ा है। जिसका जलवा कायम है, उसका नाम मुलायम है। भ्रष्टाचार मिटाना है, राहुल ने यह ठाना है। जीत गया भई जीत गया, शेर हमारा जीत गया। कांशीराम का मिशन अधूरा, मायावती करेंगी पूरा।

इस बार उत्तर प्रदेश के चुनावी बुखार में मौसम ने साथ दिया। वरना, गरमियों में होते तो हालत पतली होती। उम्मीदवारों की भी, वोटरों की भी और हम जैसे चुनाव कवर करने वाले पत्रकारों की भी। लेकिन, इसी मुद्दे पर एक पानवाले की राय अलग थी, न सरदी, न गरमी, चुनाव में हर मौसम गुलाबी लगता है।

लेकिन इस बार नारों में कुछ गड़बड़ हो गई। गड़बड़ की वजहः वह लोग बहुत मुश्किल में थे जिनके नेता ने हाल ही में दल बदल लिया था। वह नारे लगाने में वह बार-बार अटक रहे थे। बीच-बीच में पुराने दल का नारा जुबां पर आता और अगले ही पल उसे सुधारते।

सियासी दल कोई भी हो, हवा चाहे किसी की बहे, बुंदेलखंड में एक दर्जन नेता ऐसे हैं, जहां वे खड़े होते हैं राजनीति वहीं से शुरू होती है। बुंदेलखंड की राजनीति में गहरी पैठ बनाने वाले तमाम नेताओं ने यह साबित कर दिया है कि वह खुद में एक दल हैं। दल बदलकर दंगल लड़कर सियासी सूरमा आज बुंदेलखंड की राजनीति में दस्तक दे रहे हैं। सक्रिय राजनीति में आने के बाद इन नेताओ ने पीछे मुड़कर नहीं देखा है।

सियासी पार्टियां कभी इनकी राह में रोड़ा बनीं, तो उनसे भी किनारा करने में गुरेज नहीं किया। हालांकि इस काम मे हर किसी को कामयाबी नहीं मिली, फिर भी आगे के चुनाव में पार्टियां इनसे किनारा नहीं कर सकीं।

ऐसे कई सियासी दिग्गज हैं जो दो से ज्यादा पार्टियां बदल चुके हैं। अरिमर्दन सिंह, सिद्धगोपाल साहू, आरके सिंह पटेल, अशोक सिंह चंदेल, विवेक कुमार सिंह कई बार पार्टियां बदलने के बाद भी राजनीति में मौजूदगी दर्ज करा रहे हैं।

2017 के विधानसभा चुनाव में कई दिग्गजों की साख दांव पर है। कांग्रेस छोड़कर सपा में आए सिद्धगोपाल साहू 2012 में चुनाव हार गए। अबकी सपा ने उन्हें फिर से प्रत्याशी बनाया। जनता दल से राजनीति की शुरूआत करने वाले अरिदमन सिंह सपा में रह चुके हैं। 2007 में वह बसपा में भी रह चुके हैं। 2012 में वह कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़े थे। इस बार बसपा से महोबा सदर के प्रत्याशी हैं।

राकेश गोस्वामी बसपा से विधायक थे। 2012 में उनको टिकट नहीं मिला, इस बार भाजपा के प्रत्याशी हैं।

झांसी के मऊरानीपुर से परागीलाल पहले भाजपा से विधायक थे। वहां टिकट कटा तो बसपा से टिकट ले लिया। बिहारी लाल पहले कांग्रेस के विधायक थे और इस बार भाजपा के टिकट पर लड़ रहे हैं।

हमीरपुर सीट पर अशोक कुमार चंदेल जनता दल से विधायक रह चुके हैं। बाद में बसपा जॉइन की। एक बार निर्दलीय विधायक भी रह चुके हैं। इस बार भाजपा ने हमीरपुर सदर से प्रत्याशी बनाया है। राठ के विधायक गयादीन अनुरागी भाजपा और बसपा से गुजरते हुए पिछले विधानसभा में कांग्रेस में गए और जीते। इसबार फिर से कांग्रेस के टिकट पर किस्मत आजमा रहे हैं।

बांदा में विवेक सिंह 1996 में लोकतांत्रिक कांग्रेस से विधायक थे। 2002 में बीजेपी के टिकट पर लड़े और हार गए। 2007 और 12 में कांग्रेस के टिकट पर लड़कर जीते। इस बार भी कांग्रेस प्रत्याशी हैं। बबेरू के विधायक पहले बसपा में थे। फिर सपा में आए तो पिछला चुनाव जीता, इस बार भी मैदान में हैं।

मानिकपुर विधानसभा के चुनाव मैदान में उतरे आर के सिंह पटेल कई पार्टियां आजमा चुके हैं। वह बसपा से विधायक और सपा से सांसद रह चुके हैं। एक बार फिर 2014 में बसपा के टिकट पर लोकसभा चुनाव लड़ा था।

चुनावी व्यंजन में नारों का तड़का लगाना बहुत ज़रूरी होता है, लेकिन इस दल-बदल ने नारेबाज़ों का कम मुश्किल कर दिया है।

फिलहाल तो दलबदलू नेताओं के लिए एक मशहूर कवि की यह पंक्तियां—

पहले हवा का रुख़ देखना है

फिर यह तय करना है किस आले पर दिया रखना है।



मंजीत ठाकुर

Monday, February 13, 2017

बुंदेलखंड में ग्लैमरस डाकू और सियासत

एक फिल्म थी पान सिंह तोमर जिसमें पान सिंह कहता है कि चंबल में डकैत नहीं होते, बाग़ी होते हैं। लेकिन चुनावों के मद्देनज़र अगर चित्रकूट इलाके में इन डकैतों की सियासी चहलकदमी देखें तो कहा जा सकता है कि इस इलाके में डकैत नहीं, सियासत में घुसने की तमन्ना भी होती है।

यह बात और है कि खुद ददुआ ने अपने परिवार को और बाद में ठोकिया ने भी अपने परिवार को सियासत की राह दिखाई और दोनों ही इस इलाके के नामी और इनामी डकैत रहे हैं।

चित्रकूट और आसपास के इलाके में पिछले तीन दशकों से डकैतों का राजनीति में प्रभाव रहा है। ददुआ यही कोई चार दशक पहले जरायम के पेशे में उतरा था और उसने इस इलाके में काफी आतंक मचाया था।

साल 1977-78 के आसपास अपने आंतक का राज कायम किया और सियासत में हर कोई उसके असर को अपने पक्ष में करना चाहता था। उसका राजनीति में इतना दखल था कि ग्राम प्रधान से लेकर सांसद तक, हर कोई चुनाव जीतने के लिए उसका आशीर्वाद चाहता था।

सबसे पहले कम्युनिस्ट पार्टी के रामसजीवन सिंह पटेल ने ददुआ के सहयोग से विधानसभा का चुनाव जीता था, पहले उनकी सीट कर्वी हुआ करती थी, बाद में चित्रकूट सीट हो गई। अगले दो चुनाव तक ददुआ की मदद कम्युनिस्ट पार्टी को मिलती रही।

उधर ददुआ ने मानिकपुर सीट पर दद्दू प्रसाद को मदद दी और वह लगातार तीन बार विधायक रहे। वह बीएसपी के थे।

1993 में कर्वी सीट पर आर के पटेल बीएसपी ने ददुआ का सहयोग लिया। इनका राजनीति में उदय तो हुआ लेकिन पहला चुनाव हार गए थे। 1996 से दो बार लगातार विधायक रहे, लेकिन उस समय ददुआ का नारा थाः वोट पड़ेगा हाथी पर, नहीं तो गोली खाओ छाती पर।

साल 2007 में भी इस सीट से बीएसपी ही जीती, लेकिन बीएसपी से टिकट मिला था दिनेश प्रसाद मिश्र को, जो ददुआ के सफाए के नारे पर वोट मांगने पहुंचे और चुनाव जीत भी गए। 2007 के चुनाव के बाद ददुआ पुलिस मुठभेड़ में मारा गया। उनसे पहले कर्वी सीट पर जीत रहे आर के पटेल तब तक समाजवादी पार्टी में शामिल हो गए थे और चुनाव हार गए। 2009 में पटेल ने लोकसभा का चुनाव सपा के टिकट पर जीता, लेकिन तब तक ददुआ मारा जा चुका था।

ददुआ के बाद इलाके में एक नए डकैत ठोकिया का आंतक कायम हो चुका था और सियासत में भी उसकी चलती बढ़ गई। ठोकिया ने अपने परिवार के लोगों को सियासत में उतारा और ज्यादातर अपने सजातीय उम्मीदवारों का ही समर्थन किया। उसने इस मामले में कभी बसपा को तो कभी सपा को समर्थन किया।

इलाके के तीन बड़े नेताओ आर के पटेल, रामसजीवन पटेल और दद्दू प्रसाद पर ददुआ को संरक्षण देने का मुकदमे भी दर्ज हुए थे।

आज की तारीख में यानी 2017 के यूपी विधानसभा चुनाव में ददुआ के समर्थने में जीतने वाले विगत के सारे प्रत्याशी जो कभी बसपा में थे, आज चार विभिन्न दलों से मैदान में है। सभी एक दूसरे के खिलाफ ताल ठोंक रहे हैं।

इनमें से दो, आर के पटेल और दद्दू प्रसाद बसपा के सरकार में मंत्री भी रह चुके हैँ। इलाके में आतंक का पर्याय बन चुका ठोकिया 2008 में बसपा के शासनकाल में ही मार गिराय गया, लेकिन तब तक इलाके में नया डकैत बबली उभर चुका था। ददुआ, ठोकिया, रागिया, गुड्डा और बबली और गुप्पा ये सभी इस इलाके में सियासत में खासी दखल देते रहे हैं।

जब से उत्तर प्रदेश में विधानसभा के चुनाव का बिगुल बजा, तभी से चित्रकूट और उसके आस-पास के क्षेत्रों में डकैतों ने अपनी चहलकदमी बढ़ा दी है। ददुआ, ठोकिया, बलखडिया और रागीया जैसे कुख्यात दस्यु सरगनाओं के खात्मे के बावजूद चुनाव में अपनी हनक दिखाने को लेकर चित्रकूट के कई इलाकों पर इनामी डकैतों में भी स्पर्धा है।

चित्रकूट जिले के चार इनामी सरगनाओं में बबली कोल, गोपा यादव, गौरी यादव और ललित पटेल ने अपने-अपने उम्मीदवारों को जिताने के लिए फतवे देने शुरू कर दिए हैं। मानिकपुर मऊ के जंगलों में इनका आना-जाना बढ़ गया है।

इलाके के लोगों का कहना है कि डकैतों ने पहले तो समझा-बुझाकर वोटरों को अपने-अपने प्रत्याशी को जिताने की बात कही है। कुछ ने धमकी भरे शब्दों का प्रयोग भी शुरू कर दिया है। ग्रामीणों के अनुसार बबुली, गौरी यादव, गोपा यादव और ललित पटेल गिरोह के बदमाश गांवों के चक्कर काट रहे है।

चित्रकूट की दोनों विधानसभाओं में लड़ने वालों में एक तरफ कुख्यात डकैत ददुआ का पुत्र वीर सिंह पटेल समाजवादी पार्टी से कर्वी विधानसभा क्षेत्र से प्रत्याशी है। वहीं मऊ मानिकपुर विधानसभा से डकैतों का संरक्षण लेने के आरोपी रहे दद्दू प्रसाद, आर के सिंह पटेल, चंद्रभान सिंह पटेल चुनाव मैदान में हैं।

ठीक है, कि कभी पान सिंह तोमर में इरफान ने कहा था कि बीहड़ में बाग़ी होते हैं और डकैत तो संसद में होते हैं और हम सब को यह बात नागवार गुज़री थी, लेकिन कम से कम इतना तो कहा ही जा सकता है कि बाग़ी भले ही चित्रकूट के जंगल में हो लेकिन यूपी विधानसभा के कई सदस्य उनकी मदद लेकर ही विधायकी पाते हैं।

Sunday, February 5, 2017

चंदे पर फंदा

एक संस्था है असोसिएशन ऑफ डिमोक्रेटिक राइट्स यानी एडीआर और दूसरी संस्था है, नैशनल इलेक्शन वॉच। यह दोनों ही संस्थाएं भारत में राजनीतिक दलों और नेताओं की दौलत वगैरह का ब्योरा वक्त-वक्त पर पेश करती रहती हैं और चुनावों में काले धन के इस्तेमाल और भ्रष्टाचार पर भी उनकी निगाह रहती है। इन दोनों संस्थाओं ने 2004 से 2015 के बीच भारत में सियासी दलों को मिलने वाले चंदे के स्रोतों का व्यापक विश्लेषण किया है। इस विश्लेषण से तमाम सुबूत मिलते हैं कि अब सियासी दलों को मिलने वाले चंदे पर लगाम लगाने या कहिए कि उसमें पारदर्शिता लाने के लिए सख्त कानून की ज़रूरत है।

अब, इस बार के बजट में केन्द्र सरकार ने दो हज़ार से अधिक नकद चंदे पर रोक लगा दी है, तो इसे इसी वित्तीय गड़बड़ियों पर रोक की दिशा में एक कदम माना जाना चाहिए। कुछ लोग दलील देंगे कि सियासी दल ऐसी बंदिशों का तोड़ निकाल लेंगे, लेकिन इस बात से एक बेहतर कानून या नियम की ज़रूरत को कम नहीं किया जा सकता।

बजट में इस बात के उल्लेख से एक बात तो साफ है कि केन्द्र सरकार चुनावी प्रक्रिया को साफदामन बनाने के चुनाव आयोग के सुझावों पर अमल के लिए कदम उठा रही है।

ऐसे कदम इसलिए भी ज़रूरी हैं कि अगर सियासी दलों को मिले चुनावी चंदो की बात की जाए, तो एडीआर के ही मुताबिक, पिछले एक दशक में देश के राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दलों को तककरीबन 11,367 करोड़ रूपये चंदे के रूप में हासिल हुए हैं। लेकिन इस राशि में से करीब 7,833 करोड़ की रकम अज्ञात स्रोतों से मिली है। अज्ञात स्रोतों से राशि हासिल करने में कांग्रेस सबसे आगे रही है और उसे करीब 3,323 करोड़ रूपये इन अज्ञात स्रोतों ने दिए। यह भी गौरतलब है कि पिछले एक दशक में (यानी एडीआर के अध्ययन की अवधि में) कांग्रेसनीत यूपीए ही सत्ता में थी।

वहीं, अज्ञात स्रोतों से बीजेपी को 2126 करोड़ रूपये हासिल हुए। यह उस पार्टी की कुल आमदनी का करीब 64 फीसद थी। सिर्फ यही दल नहीं, वामपंथी पार्टियों और ईमानदारी के मुद्दे पर चुनावी चौसर खेल रही आम आदमी पार्टी को भी चंदे में अज्ञात स्रोतो से मिली राशि ही सबसे अधिक रही है। उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी को करीब 766 करोड़ चंदे में मिले और इसका 95 फीसद हिस्सा अज्ञात स्रोतों से मिला।

अब बात बसपा की, जिसने नोटबंदी के दौरान यह स्पष्ट कर दिया था कि उसे कभी 20 हजार से अधिक कोई रकम नकद चंदे के रूप में नहीं मिला। यानी उसकी तो तकरीबन सौ फीसद आय अज्ञात स्रोतो से ही रही। ज़रा आंकड़ो पर गौर करिए, बसपा की आमदनी 2004 में 5 करोड़ रूपये थी जो आज की तारीख में 112 करोड़ है। आमदनी में यह इजाफा तकरीबन दो हजार प्रतिशत का है।

चुनाव आय़ोग अब इस छूट के दुरूपयगो पर लगाम लगाने की कोशिश कर रहा है तो इसे स्वागतयोग्य इसलिए भी माना जाना चाहिए क्योंकि अब तक अगर किसी ने 20 हज़ार रूपये से कम का चंदा दिया हो तो उसका नाम गुप्त रखा जा सकता था।

अब इसी वजह से सियासी दल के खाते मोटे होते जाते हैं लेकिन किसने उन्हें यह रकम दी, इसका कोई पता ही नहीं चल पाता। 2014-15 के एडीआर के आंकड़ो ने स्पष्ट किया है भारत के राजनीतिक दलों की आमदनी का करीब 71 फीसद तो इन्ही अज्ञात स्रोतो से हासिल हुआ है।

जो लोग बेनामी रूप से चंदा देते हैं उसके बारे में यह अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है कि उन लोगों की यह कमाई या बचत काली कमाई का ही हिस्सा रही होगी। ऐसे में, चुनावी प्रक्रिया में इस काले पैसे को आने का एक लूपहोल बचा हुआ ही दिखता है।

इस छेद को बंद करने के बाद ही चुनावी प्रक्रिया को साफ-सुथरा बनाने की कोशिश को नख-दांत मिलेंगे। असल में, मज़ा तो तब आए, जब ईमानदारी को चुनावी मुद्दा बनाने वाली पार्टियां सबसे पहले चुनावी चंदे में मिली रकमों को नाम के साथ अखबारों या अपने साइट पर प्रकाशित करे।

नकद चुनावी चंदे को 2 हजार रूपये तक सीमित करके केन्द्र सरकार ने एक उम्मीद को नया जन्म दिया है। यह काम ठीक से चला, तो बात ऐसी है कि फिर दूर तलक जाएगी।

Tuesday, January 24, 2017

उज्जवल करती उज्जवला

जब हम गांव की बात करते हैं तो जेहन में एक तस्वीर ज़रूर घूम जाती है, शाम के वक्त हवा में घुलता और हर घर से उठने वाला चौके का धुआं। एक तस्वीर और कौंधती है, वह है चूल्हा फूंकती औरतें।

बात गांव की करें, और साथ में अनुसूचित जाति या जनजाति के गांवों की करें तो स्थिति और बदतर हो सकती है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पिछले साल के मई महीने में इस स्थिति को सुधारने के लिए एक योजना शुरू की थी, नाम था उज्जवला योजना। योजना में देश के गरीब घरों तक गैस कनेक्शन देने की बात कही गई थी। शायद इससे प्रदूषण पर भी लगाम लगाई जा सकती है लेकिन बड़ा फायदा यही गिनाया गया कि घर में चूल्हा फूंकने वाली औरते हर रोज़ धुएं की उतनी ही मात्रा फेंफड़े में लेती हैं, जो 40 सिगरेट के बराबर होती है।

चूल्हे के धुएं में कार्बन मोनोक्साइड, सल्फर और तमाम ऐसी गैसे होती हैं, जिनको ज़हरीली गैस कहा जाता है। निजी तौर पर मैं मानता हूं कि कोई योजना तभी कामयाब मानी जा सकती है, जब उसका फायदा समाज के सबसे वंचित तबके को मिले। उज्जवला योजना की कामयाबी को ग्राउंड लेवल पर जांचने हम मध्य प्रदेश-राजस्थान की सरहद पर शिवपुरी पहुंचे थे। यह इलाका सहरिया जनजाति का है, जो पहले जंगलों के भीतर थे और विस्थापित होकर अब नए बसाए गांवों में या फिर इधर-उधर अस्थायी ठिकाना बनाकर रह रहे हैं।

मध्य प्रदेश घाटीगांव के ऐसे ही एक अस्थायी पुरवे में मेरी मुलाकात हुई थी रज्जोबाई से। रज्जोबाई अमले को देखते ही डर गई, लेकिन जब हमने उनसे गैस चूल्हा दिखाने को कहा तो फिर उनका डर धीरे-धीरे कम हुआ। यह बात और है कि उस वक्त उनके पास गैस चूल्हे पर उबालने के लिए कुछ नहीं था, लेकिन उस सहरिया बस्ती में रज्जोबाई समेत तकरीबन सभी के पास गैस कनेक्शन पहुंच चुका था। योजना में बीपीएल परिवारों को गैस कनेक्शन और पहली बार भरा हुआ सिलिंडर मुफ्त मिलता है।

असल में, इस योजना के तहत तीन साल के भीतर गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले कुल 5 करोड़ परिवारों को गैस कनेक्शन दिए जाने वाले थे। इसके तहत पहले साल डेढ़ करोड़, दूसरे साल डेढ़ करोड़ और तीसरे साल दो करोड़ गैस कनेक्शन बांटे जाने का लक्ष्य तय किय़ा गया था। लेकिन योजना की कामयाबी यही है कि अभी तक यानी लागू होने के नौ महीने के भीतर ही करीब 1 करोड़ 70 लाख कनेक्शन वितरित कर दिए गए हैं।

लेकिन, इस योजना को लागू कराने में कुछ ज़मीनी स्तर की परेशानियां भी हैं। योजना के तहत, दिए जा रहे कनेक्शन साल 2011 की सामाजिक-आर्थिक जनगणना पर आधारित हैं और उनमें लाभार्थियों के पूरे पते नहीं है। ऐसे में लाभार्थी को खोज निकालना मुश्किल काम है। यह कठिनाई जनजातीय इलाकों में बढ़ जाती है जहां विस्थापन जीवन का स्थायी भाव बन गया है।

वैसे भी इस योजना की कामयाबी देश की भी ज़रूरत है क्योंकि देश के कुल 24 करोड़ घरो में से 10 करोड़ घर अब भी ऐसे हैं जो जलावन क लिए लकड़ी, कोयले, गोयठे या उपलों पर निर्भर हैं।

मुझे इस योजना की कामयाबी पर हैरत इसलिए भी हुई क्योंकि इस के तहत बांटे जाने वाले गैस सिलिंडर वही होने थे जो प्रधानमंत्री के गिव-अप स्कीम के तहत अमीर लोगों की सब्सिडी वाले सिलिंडर के तौर पर एजेंसियों को वापस मिलने वाले थे। याद कीजिए, साल 2014 का लोकसभा चुनाव, कांग्रेस ने अपने घोषणा-पत्र में सब्सिडी वाले 9 सिलिंडरों की जगह 12 सिलिंडर देने का वायदा जनता से किया था। लेकिन केन्द्र सरकार ने इसके उलट लोगों से सब्सिडी छोड़ने की अपील की। हर चीज़ मुफ्त पाने को ललायित भारतीयों में से डेढ़ करोड़ लोगों ने अगर प्रधानमंत्री की अपील पर रसोई गैस की सब्सिडी छोड़ दी, तो हैरत तो होनी ही है।

अब, पहले 9 महीने में इस योजना ने अपना लक्ष्य पूरा कर लिया है तो बारी पूर्वोत्तर राज्यों की है जहां सिर्फ असम से ही एक 1.74 लाख गैस कनेक्शन के आवेदन आ चुके हैं।

उज्जवला योजना में फिलहाल तो वोट बैंक की सियासत दिखती नहीं है। गांव के गरीबों के घर में गैस चूल्हे की नीली लौ जलने लगी है यह संतोष की बात है। अब यह सवाल तो बिलकुल अलहदा है न कि उस पर पकेगा क्या?


मंजीत ठाकुर

Wednesday, January 18, 2017

सिंचाई के लिए अतीत की नाकामी से सबक

अभी ग्वालियर-धौलपुर-भरतपुर इलाके में घूम रहा हूं। देश में पिछले दो साल मॉनसून की कमी वाले साल रहे हैं और इस साल की अच्छी बारिश ने रबी फसलों की बुआई में जोरदार बढ़ोत्तरी दिखाई है। लेकिन यह मानना होगा कि देश में खेती का ज्यादातर हिस्सा अभी भी इंद्र देवता के भरोसे हैं। देश में कुल बोए रकबे का आधा से अधिक वर्षा-आधारित पानी पर निर्भर है। ऐसे में हर खेत तक पानी पहुंचाने में सरकार को बहुत कुछ उद्योग करने की जरूरत है।

देश में सूखा अभी भी किसानों के लिए बुरे सपने जैसा है और गलत वक्त पर हुई बारिश भी खेती के लिए नुकसानदेह ही साबित होती है। सही वक्त पर बारिश न होने से फसल बेकार हो जाती है। ऐसे में केन्द्र सरकार ने साल 2015 में प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना की शुरूआत की ताकि प्रधानमंत्री के नारे को अमली जामा पहनाया जा सके जिसमें वह हर बूंद से अधिक फसल की बात कहते हैं। साथ ही, इस लघु सिंचाई योजना की लागत 50 हज़ार करोड़ रूपये की रखी गई। ऐसी योजना से अनुमान है कि खेती से जुड़े जोखिम को कम किया जा सके।

बजट में प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना के आवंटन को मिला दें तो पिछले साल ही रकम को दोगुना कर दिया गया। लेकिन सवाल सिर्फ बज़ट में आवंटन बढ़ाने से ही नहीं होगा। अतीत के आंकड़ों पर नज़र डालें, तो मेरी इस बात को बल मिलेगा। साल 1991 से 2007 के बीच भारत ने सार्वजनिक नहर तंत्र में 2.55 लाख करोड़ रूपये का निवेश किया। यह मौजूदा प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना के निवेश से पांच गुना ज्यादा की राशि थी। लेकिन इतनी बड़े निवेश के बाद भी, देश में नहरों से सिंचित क्षेत्र में 38 लाख हेक्टेयर कम हो गया।

करीब 50 से 90 फीसद की सब्सिडी वाले दौर में भी माइक्रो सिंचाई वाले क्षेत्र का रकबा कुल रकबे का 5 फीसद भी नहीं हो पाया। जाहिर है, हमें इस योजना को लागू करने में अतीत की गलतियों से सबक लेना होगा।

ग्वालियर के जिस इलाके में मैं घूम रहा हूं, वहां पानी की पर्याप्त कमी है। मैंने इधर से भरतपुर की तरफ का रूख किया, वहां भी नहरें बनी हुई तो हैं। भरतपुर के दीग तहसील में तो 1982 में नहरें खुद गई थीं, लेकिन बिन पानी के नहरों का क्या काम?

सिंचाई के मामले में मध्य प्रदेश में काम अच्छा हुआ दिखता है। नहरों के मामले में मध्य प्रदेश ने उपलब्धिपूर्ण काम किया है और वह दिखता भी है। डबरा-भीतरवाड़ इलाके में खेतों में गेहूं और सरसों की लहलहाती फसलें नहर सिंचाई की कामयाबी का हरभरा सुबूत हैं।

मध्य प्रदेश ने सन् 2003 से 2014 के बीच अपने नहर सिंचित क्षेत्रों में करीब 20 लाख हेक्टेयर का इजाफा किया है। साल 2000 में मध्य प्रदेश में कुल सिंचित इलाका 4.14 मिलियन हेक्टेयर था जो 2014 में 8.55 मिलियन हेक्टेयर हो गया है। इस बढोत्तरी के लिए सूबे को करीब 2000 करोड़ रूपये का निवेश करना पड़ा, लेकिन इसका फल ज़मीन पर दिखता है। सिंचाई के संसाधनों के बेहतर प्रबंधन ने भी राज्य में चमत्कारिक परिणाम दिए हैं।

भरतपुर के इलाके में किसानो की शिकायत है कि पानी पहले उनके नहरों तक नहीं पहुंचता था, हालांकि पिछले छह महीने से पानी आना शुरू हुआ तो अगल बगल के कुओं में पानी आ गया। दीग में ज़िला प्रशासन ने वॉटरशेड प्रबंधन की शुरूआत की है, क्योंकि पानी आयात करके लोगों तक पहुंचाना खर्चीला भी है और हरियाणा पानी देने में अड़ंगेबाज़ी पर उतारू है।

जो भी हो, हर खेत तक पानी पहुंचाने के बड़े यज्ञ में, आखिरी खेत तक पानी पहुंचाना लक्ष्य होना चाहिए। इसके लिए प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना बाकी की योजनाओं की ही तरह मुफीद तो है, लेकिन इसके लिए नाकाम योजनाओं के अतीत से सबक सीखना बेहद जरूरी है।



मंजीत ठाकुर





Monday, January 16, 2017

सही वक़्त पर सही फ़ैसले का नाम धोनी

यह बात और है कि हम भारतीय पर्याप्त नाशुक़रे हैं और अपने नायकों को तभी तक याद रखते हैं जब तक उनमें चमक रहती है। लेकिन कुछ ग़लती तो हमारे इन नायकों की भी रही ही है। सौरभ गांगुली हों या कपिल देव या फिर कोई भी और मिसाल ले लीजिए, उन्होंने तब तक संन्यास की घोषणा नहीं की, जब तक उनका करिअर घिसता रहा।

लेकिन, धोनी तो अपवादों की मिसाल हैं।

याद कीजिए कि साल 2014 में बीच श्रृंखला में धोनी ने टेस्ट की कप्तानी और टेस्ट मैचों से संन्यास की घोषणा की थी। टी-20 और एकदिवसीय मैचों की कप्तानी छोड़ने का ऐलान भी उसी बेसाख़्ता अंदाज़ में हुआ है।

ऐसा नहीं है कि लोगों ने कप्तानी छोड़ने के उनके इस फ़ैसले के कयास नहीं लगाए थे, लेकिन तटस्थ होकर कहें तो धोनी का फ़ैसला बिलकुल सही वक़्त पर आया है।

इस वक्त जब बल्ले से भी और कप्तानी में भी विराट कोहली जगमगा रहे हैं, धोनी ने खेल के सभी फ़ॉर्मेट में कप्तानी उनके हवाले करके अपनी निस्पृहता का सूबूत भी दिया और सटीक फ़ैसले लेने की अपनी क्षमता का भी। अभी कोहली शानदार रंगत में हैं और उनके फ़ैसले भी सही साबित हो रहे हैं। विराट कोहली की कप्तानी में भारत की जीत का प्रतिशत 63 फीसद से अधिक का है। 18 मैचों से भारत अजेय रहा है और बल्ले से भी विराट ने अच्छे हाथ दिखाए हैं। वह तीन दोहरा शतक बनाने वाले भारत के एकमात्र कप्तान भी हैं।

विराट कोहली ने सचिन तेंदुलकर और उनसे पहले से चले आ रहे उस विचार और आशंका को भी खत्म कर दिया है कि कप्तानी का भार निजी प्रदर्शन पर असर डालता है। हालांकि, कैप्टन कूल धोनी के कप्तानी का अंदाज़ दूसरा था और विराट का अलहदा। विराट आक्रामक कप्तानी करते हैं और धोनी चतुर लोमड़ी की तरह मौके का फायदा उठाते थे, दांव लगाते थे।

सिर्फ हम भारतीय ही नहीं, पूरी दुनिया धोनी की कप्तानी सूझबूझ की कायल रही है। लेकिन सिर्फ कप्तानी के दम पर आप टीम में हमेशा नहीं बने रह सकते। धोनी की पहचान बना हेलिकॉप्टर शॉट खो गया है। मैच फिनिशर की उनकी विश्व-प्रसिद्ध पहचान भी संकच में है। वनडे मैचों में धोनी की रनों की रफ्तार भी साल-दर-साल धीमी पड़ती गई है। धोनी ने 2012 में करीब 65 की औसत से बल्लेबाज़ी की थी जो अब 2016 में करीब-करीब 29 के आसपास है। टी-20 में धोनी का औसत करीब 47 है।

यह औसत धोनी की हैसियत के आसपास भी नहीं ठहरता। इसी के बरअक्स विराट कोहली ने वनडे में 92 और टी-20 में 106 की औसत से रन कूटे हैं। यानी, विराट अपने सबसे बेहतरीन दौर में हैं और धोनी की करिअर ढल रहा है।

सबसे अच्छी बात वैसे यह है कि धोनी ने सिर्फ कप्तानी छोड़ी है और अभी संन्यास नहीं लिया है। उनमें कम से कम दो साल का क्रिकेट बचा हुआ है, और अब जब वह विपक्षी टीमों के खिलाफ रणनीतियां बनाने के दवाब से दूर रहेंगे तो शायद हमें वह धोनी वापस मिल जाए जिसका बल्ला, बल्ला नहीं तोप था, और जिसकी धमक से गेंदबाज़ों के पसीने छूट जाते थे।

पैरलल छक्के, और शानदार चौकों (हेलिकॉप्टर शॉट तो बहुत चर्चा में हैं, तो वह तो उम्मीदों की लिस्ट में है ही) की बरसात एक बार फिर शुरू हो, यह दर्शक भी चाहेंगे और खुद धोनी भी।

धोनी की शख्सियत का कमाल है कि आठ साल तक भारतीय क्रिकेट के शीर्ष पर रहने, कप्तानी करने और साथी खिलाडियों को डांटने-डपटने से परहेज़ नहीं करने वाले कैप्टन कूल अपने से जूनियर खिलाड़ी के मातहत खेलने को तैयार हैं।

वक्त के साथ, नायक बदल जाते हैं, बस ईश्वर नहीं बदलते। सचिन की जगह कोई नहीं ले सकता, लेकिन धोनी ने सचिन का नायकों वाला रुतबा हासिल कर लिया था। यह ताज अब कोहली के सिर है। अच्छी बात यह कि इसे धोनी ने जल्दी मान लिया।



मंजीत ठाकुर

Sunday, January 1, 2017

रबी की बुआई पर नहीं नोटबंदी का असर

8 नवंबर को काले धन और भ्रष्टाचार पर रोक लगाने के वास्ते जब केन्द्र सरकार ने 500 और एक हज़ार रूपये के नोट को चलन से बाहर करने का फ़ैसला किया तो दो तरह की प्रतिक्रियाएं सामने आई थीं, एक तो वह, जो नोटबंदी के समर्थन में थीं। दूसरी प्रतिक्रियाः आलोचनात्मक कम और निंदात्मक ज्यादा थी। इसमें सियासी तबके के अलावा एक धड़ा ऐसा भी था जो मीडिया का हिस्सा है और प्रधानमंत्री मोदी के हर काम में नुक्स निकालने के लिए छिद्रान्वेषण की हद तक जाता है।

इसी मीडिया ने कहा कि गांवों में किसानो को बहुत दिक्कत होगी और इसका असर खेती पर भी बहुत होगा।

बहरहाल, मैंने पंजाब का दौरा किया था क्योंकि धनी और बड़े किसानों के इस सूबे में खेती पर असर देखना ज्यादा दिलचस्प र महत्वपूर्ण था क्योंकि यही राज्य हमारे अनाज भंडार में अहम तरीके से इजाफ़ा भी करता है। उस दौरान जब नोटबंदी के असर को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करते हुए अरण्य-रोदन किया जा रहा था, पंजाब में तकरीबन 90 फीसद किसानों ने रबी की बुआई कर ली थी।

जब ज़रा इन आंकड़ो पर गौर फरमाइएः मौजूदा रबी सीज़न में देश में गेहूं का रकबा पिछले साल इसी अवधि के मुकाबले आठ फीसद बढ़ गया है। यानी इस बार रबी की बुआई में गेहूं का हिस्सा 292.39 लाख हेक्टेयर है। जबकि दलहन का रकबा 13 फीसद बढ़कर 148.11 लाख हेक्टेयेर हो गया है।

इस बढ़त की एक वजह गेहूं और दलहन के समर्थन मूल्य में बढ़ोत्तरी को भी माना जा सकता है कि इसी की वजह से इस रबके को बढ़ाने में मदद मिली है। वैसे, धान और मोटे अनाज पिछले साल की तुलना में अभी पीछे ही हैं।

केन्द्र सरकार के मुताबिक, राज्यों से मिली प्राथमिक जानकारी के अनुसार, देश में 30 दिसंबर तक कुल 582.87 लाख हेक्टेयर रबी की फसल की बुआई हुई है, जबकि पिछले साल इसी अवधि के दौरान 545.46 लाख हैक्टेयर में रबी की फसलें बोई गई थीं।

इस समीक्षा अवधि के दौरान देश में तिलहन का रकबा भी बढ़ा है। पिछेल साल यह 71.83 लाख हेक्टेयर था जबकि इस दफा 79.48 लाख हेक्टेयर हो गया है।

रबी सीजन में सबसे ज्यादा पैदा होने वाले दलहन चने की बात करें तो 28 दिसंबर तक देशभर में 94.92 लाख हेक्टेयर में बुआई दर्ज की गई है जो इस अवधि तक अब तक की सबसे ज्यादा बुआई है, पिछले साल इस दौरान देशभर में 82.88 लाख हेक्टेयर में चने की खेती हुई थी। इस दौरान, देश में औसतन 85.03 लाख हेक्टेयर में चने की बुआई होती है और पूरे सीजन के दौरान करीब 88.37 लाख हेक्टेयर में फसल लगती है।

चने के बाद दूसरे नंबर पर ज्यादा पैदा होने वाले दलहन मसूर की बुआई पिछले सारे रिकॉर्ड तोड़ चुकी है, आंकड़ों के मुताबिक, 28 दिसंबर तक देशभर में 16.07 लाख हेक्टेयर में मसूर की खेती दर्ज की गई है जो अब तक किसी भी साल हुई बुआई में सबसे अधिक है। पिछले साल इस दौरान देश में 13.51 लाख हेक्टेयर में बुआई हुई थी। वैसे, औसतन पूरे सीजन के दौरान 14.79 लाख हेक्टेयर में मसूर की बुआई होती है।

कुल मिलाकर कहा जाए, नोटबंदी का असर कम से कम रबी की बुआई पर नहीं दिखा है। केन्द्र सरकार ने रबी की बुआई के जो लक्ष्य तय किए हैं, वह अच्छी बारिश और समर्थन मूल्य में बढ़ोत्तरी की वजह से पूरे होते दिख रहे हैं। कुदरत साथ दे रही तो फायदा किसानों और आम लोगों का होना चाहिए। अच्छी खेती से शेयर बाजारो में भी तेज़ी रहेगी। लेकिन मुझे ज्यादा चिंता उन लोगों की है जिन्होंने नोटबंदी की वजह से रबी की बुआई की मर्सिया पढ़ा था।

मंजीत ठाकुर

Friday, December 23, 2016

क्या सिद्धू फुंके हुए कारतूस हैं?

ठहाकों के सरदार नवजोत सिंह सिद्धू अब कांग्रेस का दामन थामेंगे। उनकी पत्नी डॉ. नवजोत कौर सिद्धू और हॉकी खिलाड़ी और सिद्धू के साथी परगट सिंह पहले ही कांग्रेस में शामिल हो चुकी हैं।

इसका मतलब यह हुआ कि नवजोत सिंह सिद्धू कांग्रेस के टिकट पर विधानसभा चुनाव लड़ेंगे और वह सीट अमृतसर-पूर्व की सीट भी हो सकती है, जहां से निवर्तमान विधायक उनकी पत्नी डॉ. नवजोत कौर रही हैं।

बीजेपी से दूरी बनाने की जो भई वजहें खुद सिद्धू गिनाएं और या फिर आम आदमी पार्टी और कांग्रेस से पींगे बढ़ाने के पीछे उनकी मंशा क्या है यह साफ करें, लेकिन यह जानना बेहद दिलचस्प होगा कि आखिर पंजाब की राजनीति में सिद्धू को क्या ताकत हासिल है? आखिर, पंजाब में कांग्रेस के खेवनहार कैप्टन अमरिन्दर सिंह क्यों पहले सिद्धू के कांग्रेस में आने से नाखुश थे और अब क्यों उन्होंने सिद्धू के आने की खबरों का स्वागत किया है। (गुरूवार को सिद्धू की पत्नी कांग्रेस में जाने की खबरों की पुष्टि कर चुकी हैं)

नवजोत सिंह सिद्धू को अरुण जेटली ही राजनीति में लेकर आए थे। साल 2014 के लोकसभा चुनाव में अमृतसर के सांसद नवजोत सिंह सिद्धू की जगह बीजेपी ने अरुण जेटली को वहां से उम्मीदवार बनाया। गुस्साए सिद्धू ने जेटली के लिए चुनाव प्रचार नहीं किया। हालांकि, इसी साल अप्रैल में बीजेपी ने सिद्धू को राज्यसभा की सदस्यता दी, लेकिन सिद्धू बजाय राज्यसभा जाने के एक कॉमिडी शो में सिंहासन पर बैठकर ठहाके लगाते और शेरो-शायरी करते देखे गए।

बहरहाल, ऐसा लग गया था कि यह क्रिकेटर विधानसभा चुनाव से पहले कुछ तो करेगा और पंजाब की राजनीति में उबाल आया तो सत्ताविरोधी लहर की और आम आदमी पार्टी की संभावनाओं के मद्देनज़र सिद्धू का नाम भी आप से जोड़ा जाने लगा। हालांकि, न तो आप ने और न कभी सिद्धू ने इसके बारे में किसी अंतिम फ़ैसले पर टिप्पणी की।

फिर सिद्धू ने 18 जुलाई को राज्यसभा की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया। उनकी पत्नी और अमृतसर से विधायक नवजोत कौर सिद्धू ने भी इस्तीफ़ा दे दिया। यानी तस्वीर साफ होने लगी थी।

आम आदमी पार्टी में शामिल होने को लेकर बात यहां तक गई कि दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के साथ उनकी कई बैठकें भी हुईं, लेकिन बात किसी नतीजे पर नहीं पहुंच पाई।

कहा जाता है कि सिद्धू आप से अपने लिए, पत्नी और अपने कुछ लोगों के लिए विधानसभा चुनाव की टिकट मांग रहे थे. लेकिन आप का संविधान एक ही परिवार के दो लोगों को टिकट देने से रोकता है।

इसके बाद उन्होंने पूर्व हॉकी खिलाड़ी परगट सिंह और लुधियान के दो विधायक भाइयों के साथ 'आवाज़-ए-पंजाब' के नाम से एक राजनीतिक मंच बनाया।

उनका कहना था कि उनका मंच चुनाव में उन लोगों का साथ देगा जो पंजाब के लिए कुछ अच्छा करना चाह रहे हैं. लेकिन उन्होंने उन लोगों का नाम नहीं बताया जिनका वो साथ देना चाहते हैं. इस तरह उन्होंने अपने विकल्पों को खुला रखा।

बाद में 'आवाज़-ए-पंजाब' में सिद्धू के साथ आए लुधियाना के दोनों विधायकों ने आप में शामिल होने का फ़ैसला किया।

सवाल यह है कि आखिर नवजोत सिंह सिद्धू में ऐसा क्या ख़ास है कि आप हो या कांग्रेस उनके आने से खुश है और अपना हाथ ऊपर मान रही है। असल में, इसकी एकमात्र वजह है सिद्धू की पृष्ठभूमि क्रिकेटर की होना और यही वजह है कि सिद्धू भी अपने मशहूर ‘खड़काओ’ की तर्ज पर मंजीरा छाप होकर निकल लिए हैं। अब यह उनका अति-आत्मविश्वास ही है कि उन्हें लगता है कि वह बेहद कामयाब या करिश्माई शख्सियत हैं और पंजाब की राजनीति के लिए अपरिहार्य हैं।

वैसे, सिद्धू ने गोटी बड़े करीने से खेली है और इस बार चुनाव में उनने पंजाबी बनाम बाहरी का दांव चल दिया है। ठीक बिहार विधानसभा चुनाव की तरह और अगर यह दांव सही पड़ गया तो मूलतः हरियाणा के केजरीवाल को नुकसान हो जाएगा।

बहरहाल, सिद्धू को जब बीजेपी में खास तवज्जो नहीं मिली तो आप के ज़रिए उन्होंने सीएम की कुरसी पर निशाना साधने की कोशिश की और अब कम से कम इतना ज़रूर चाहते हैं कि वह किंग नहीं तो कम से कम किंगमेकर की भूमिका में ज़रूर रहें।

पंजाब की राजनीति पर नज़र रखने वालों का मानना है कि जिस समय नवजोत सिंह सिद्धू की आम आदमी पार्टी से बातचीत चल रही थी, उस समय अगर वो आप में शामिल हो गए होते तो शायद उन्हें बड़ी सफलता मिलती।

लेकिन जिस तरीके से पिछले तीन-चार महीने में सिद्धू और उनकी पत्नी नवजोत कौर अलग-अलग पार्टियों से बातचीत में मशगूल दिखाई दीं, तो लोगों में यही संदेश गया कि वे लोग सियासी मोल-भाव में व्यस्त हैं। जाहिर है, इससे उनकी चमक कम हुई है।

वैसे भी, सिद्धू के लिए इससे भयभीत होने की ज़रूरत नहीं। पंजाब की पार्ट-टाइम पॉलिटिक्स तो किसी भी स्टूडियो से हो सकती है।



मंजीत ठाकुर

Thursday, December 22, 2016

गांवों की बात कौन करेगा

लोगों से एक खचाखच भरे ऑडिटोरियम में कभी शीलू राजपूत दमदार आवाज़ में आल्हा गूंजता है, फिर एक मदरसे की लड़कियां क़ुरान की आयतों को अपना मासूम स्वर देती है, ओर फिर गूंजती है वेदमंत्रो की आवाज़। लोगों के चेहरे विस्मित हैं। इन प्रतिभाओं में एक बात समान थी। यह सभी लोग गांव के थे। ठेठ गांवों के। जिनके लिए मुख्यधारा के मीडिया के पास ज़रा भी वक्त नहीं।

तो जब मुख्यधारा का मीडिया बहसों और खबरें तानने की जुगत में लगा रहता है, उस दौर में गांव की घटनाएं, नकारात्मक और सकारात्मक दोनों खबरें हाशिए पर पड़ी रह जाती हैं।

खबर दिल्ली की होंगी, या फिर बड़े शहरों की और बहुत हुआ तो दिल्ली जैसे शहरों के सौ किलोमीटर के दायरे में घटने वाली घटनाएं कवर कर ली जाती हैं। क्या वजह है?

चलिए, हम मुख्यधारा के मीडिया की आलोचना करने की बजाय यह देखें कि इस दिशा में कौन काम कर रहा है। निश्चित ही, यह नज़ारा देखने के लिए आपको स्वयं फेस्टिवल में मौजूद होना होता।

अपनी अकड़, अपने तेवरों और अपनी खूबियों-खामियों के साथ गांव इस अखबार में मौजूद है। गांव के लोगो के लिए भले ही सरकार ने रर्बन मिशन शुरू किया है, यानी गंवई इलाको में शहरी सुविधाएं उपलब्ध करने का। केन्द्र सरकार ही नहीं, देश के हर राज्य में गांवों के लिए और गांव के लोगों के लिए योजनाएं बनती हैं। कभी पीने के पानी के लिए, कभी सिंचाई के लिए, कभी रोजगार के लिए तो खेती के लिए...लेकिन उन योजनाओं के लागू करने में हुई देरी या मान लीजिए कामयाबी ही, उनकी खबर को कौन छापता-दिखाता है?

मुख्यधारा की मीडिया पर गांव तभी आता है, जब कोई कुदरती आपदा हो, या कोई बड़ी घटना हो जाए। लेकिन अमूमन किसान आत्महत्याओं जैसी बड़ी और त्रासद घटनाएं भी बगैर नोटिस के रह जाती हैं। दिल्ली से या बड़े शहरों से गांव रिपोर्टिंग करने वाले लोग आखिर खबर क्या ढूंढते हैं और क्या छापते हैं। और ग्रामीण विकास की रिपोर्ट के लिए मंत्रालय की पहलों, खामियों और कामयाबियों पर रिपोर्टें दिल्ली या राज्यों की राजधानियों में बैठकर छाप दी जाती हैं।

गांव का मतलब इनमें से ज्यादातर मीडियावालों के बीच खेती-बाड़ी ही है। समस्या है, लेकिन क्या गांव के लोग सिर्फ खेती ही करते हैं?

अगर दूरदर्शन को छोड़ दें, तो मुख्यधारा की मीडिया से या सिनेमा से ओरिजिनल गांव गायब था और इसी परिदृश्य में गांव कनेक्शन ने अपनी अभिनव शुरूआत की थी। गांव कनेक्शन के इस सार्थक पहल, जिसकी नकल अब कई मीडिया हाउस कर रहे हैं, के बारे में आज इसलिए चर्चा क्योंकि मेरा यह स्तंभ मेरा सौवां स्तंभ है और हाल ही में स्वयं फेस्टिवल में हिस्सा लेने के बाद मैं यूपी के चौदह जिलों में आयोजित स्वयं फेस्टिवल की कामयाबी से आश्चर्य-मिश्रित सुख से आह्लादित भी हूं।

ऐसे में, गांव की कहानियां सबके सामने आ रही हैं, सरकार इस अखबार में छपी खबरों को संज्ञान लेकर गांव के लोगों की समस्याओं का निपटारा कर रही है। गांव कनेक्शन इस अर्थ में एक अखबार होने के साथ, जो गांव के लोगों को गांव-जवार और दुनिया-जहान की खबरें देता है, उनकी समस्या को सही दरवाज़े तक पहुंचाने के उम्मीद के केन्द्र के रूप में उभरा है।

वक्त की रेखा में चार साल कुछ नहीं होता, खासकर अगर वह कोई अखबार हो।

कई दशक पुराने पीत और प्रेत-पत्रकारिता करने वाले अखबारों को ठीक है कि अपने लीक पर चलते रहना चाहिए, क्योंकि इसके पीछे उनकी व्यावसायिक मजबूरियां भी होंगी, लेकिन अपनी सामग्री में अगर वह दस फीसद भी गांव कनेक्शन के स्तर की खबरें शामिल कर सकें, तो यह उन अखबारों की विश्वसनीयता में इजाफा तो करेगा ही, गांव के लोगों को भी आबादी के हिसाब से अपना प्रतिनिधित्व मीडिया में मिलेगा।

फिलहाल तो, जिस जुनून और जज्बे के साथ, जिस ईमानदारी के साथ पत्रकारिता करके गांव कनेक्शन ने चार साल में चार कदम शिखर की तरफ बढ़ाए हैं, मुझे लगता है दूसरे अखबारों के लिए प्रेरणा-स्रोत बना रहेगा।





मंजीत ठाकुर

Saturday, December 10, 2016

भ्रमित विपक्ष का मतिभ्रम

संसद में विपक्ष के हंगामे और गतिरोध पर आखिरकार राष्ट्रपति को भी बोलना ही पड़ा। अमूमन राष्ट्रपति ऐसी परिस्थितियों में सार्वजनिक रूप से कुछ नहीं कहते, लेकिन जिस तरह से संसद की गतिविधि थम सी गई थी, और विपक्ष अपनी मांग पर अड़ गया था, उससे लगा था कि यह पूरा सत्र बर्बाद ही न चला जाए।

लेकिन नोटबंदी के मुद्दे पर संसद में लगातार हो रहे हंगामे से एक बार फिर से संसदीय लोकतंत्र में सत्तापक्ष और विपक्ष की भूमिका को लेकर बहस शुरू हो गई है। वैसे माना यह जाता है कि संसद को सुचारू रूप से चलाने की जिम्मेदारी सत्तापक्ष की होती है। यह बात भी बहसतलब है, और इसको बदलने को लेकर भी विवाद हो सकते हैं, लेकिन यह तय है कि मजबूत लोकतंत्र के लिए सत्ता पक्ष के साथ-साथ मजबूत और रचनात्मक विपक्ष का होना जरूरी है। यानी, लोकतंत्र के लिए ज़रूरी है कि विपक्ष वैसा हो जो सरकार की रचनात्मक आलोचना करे, जनहित से जुड़े मुद्दों पर सवाल करे, बहस शुरू करे। अपने लोकतंत्र ने पिछले सत्तर साल में विपक्ष की इस भूमिका को कई दफा देखा है। आपातकाल के दौरान एकजुट विपक्ष ने इंदिरा गांधी जैसी मजबूत नेता को अपने इरादों पर पुनर्विचार करने के लिए बाध्य कर दिआ था।

राजीव गांधी के शासनकाल में जब बोफोर्स जैसा बड़ा घोटाला उजागर हुआ था तब विश्वनाथ प्रताप सिंह ने कांग्रेस छोड़ दी थी और फिर पूरे देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ एक माहौल बनाया था। यह बात और है कि उस वक्त लोकसभा चुनाव के में उनको जनादेश नहीं मिला और जनता दल बहुमत से दूर रह गया था। उस वक्त भी विपक्ष ने अपनी जिम्मेदारी समझी थी और जनता की इच्छा का सम्मान करते हुए राजीव गांधी को सत्ता से दूर रखने के लिए विश्वनाथ प्रताप सिंह की अगुआई में राष्ट्रीय मोर्चे की सरकार बनी थी। सन 1977 में जनता पार्टीके नाकाम प्रयोग के बाद राष्ट्रीय मोर्चे का यह प्रयोग नायाब था। विश्वनाथ प्रताप सिंह को लेफ्ट पार्टियों के साथ भारतीय जनता पार्टी का भी समर्थन मिला था। ऐसी कई मिसालें हमारे संसदीय लोकतंत्र ने पेश की हैं।

विपक्ष की सबसे बड़ी भूमिका होती है कि वह सरकार की गलत लग रही नीतियों के खिलाफ जनमानस तैयार करे। नीतियों के सही या गलत होने की बात, पूरी इनकी व्याख्या पर निर्भर है साथ ही, किसी भी नीति पर बहस करके उसके व्यापक असर की समीक्षा करना भी विपक्ष का काम है। सरकार के फैसलों और नीतियों को संशोधित करना विपक्ष का ही काम है।

जो भी हो, कमजोर या बंटा हुआ विपक्ष सत्तासीन दल के लिए चाहे जितना मुफीद हो लोकतंत्र के लिए बेहद खतरनाक होता है। खासकर, विपक्ष जब अपनी मुखालफत की नीतियों पर ही एक राय नहीं है। ऐसा ही कुछ अभी नोटबदली के मामले पर भी दिख रहा है। लगभग सारे विपक्षी दल सरकार के इस फैसले के क्रियान्वयन की कमियों के खिलाफ हैं लेकिन सभी अपनी-अपनी डफली लेकर अपना-अपना राग अलाप रहे हैं। बंटा हुआ विपक्ष संसद से लेकर सड़क तक दिखाई दे रहा है। आप को भारत बंद के मसले पर वाम दल और ममता, कांग्रेस और सपा-बसपा के अलग सुर तो याद ही होंगे। विपक्षी दलों के विरोध के चलते संसद का कामकाज ठप है लेकिन इससे कुछ रचनात्मक निकलता दिखाई नहीं दे रहा है।

असल में, आज की तारीख में उस धुरी की कमी है, जिसके चारों तरफ विपक्ष एकजुट हुआ करता है। इन दिनों कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ज्यादा सक्रिय नहीं हैं, और राहुल गांधी उस धुरी के रूप में उभरने में ज़रूरत से अधिक वक्त ले रहे हैं, जिस पर सभी दलों को भरोसा हो कि वो नेतृत्व दे सकता है।

इंदिरा गांधी ने जब आपातकाल लागू किया था, तब देश में छात्र आंदोलन शबाब पर था और कहा गया कि जयप्रकाश नारायण (जेपी) ने जिस तरह सरकार के खिलाफ माहौल तैयार किया, उसी से घबराकर इमरजेंसी लगाई गई। फिर पूरा विपक्ष जेपी के आसपास इकट्ठा हुआ और आपातकाल के हुए चुनाव में कांग्रेस ढेर कर दी गई थी।

उसके बाद कभी विश्वनाथ प्रताप सिंह ने सभी दलों में अपनी साख की वजह से एक भरोसा पैदा किया, तो कभी हरकिशन सिंह सुरजीत इस धुरी के रूप में उभरे। इस वक्त वैसा कोई नेता दिखाई नहीं दे रहा है जो विपक्षी दलों के लिए एक छाते की तरह उभर पाए, और जिसकी शख्सियत पर तमाम दलों को भरोसा हो।

राहुल गांधी नेता के तौर पर अभी भी नौसिखिए लगते हैं, और उनमें अभी वो बात पैदा नहीं हो पाई है कि ममता बनर्जी, नीतीश कुमार, नवीन पटनायक, अरविंद केजरीवाल जैसे नेता उनका नेतृत्व ना भी स्वीकार करें तो कम से कम उनकी बात तो मानें। बीजेपी इस मौके को बखूबी भुना रही है। हर मौके पर विपक्ष की कमजोरियां खुलकर सामने आ रही हैं। जनता में यह संदेश जा रहा है कि सरकार के अच्छे कामों में विपक्ष की बेफालतू अड़ंगेबाज़ी हो रही है। मैंने पंजाब से लेकर यूपी के गांवो तक देखा, लोग यही कह रहे हैं कि विपक्ष नोटबदली का सिर्फ विरोध के लिए विरोध कर रहा है।

वैसे, अंतरराष्ट्रीय निवेश और बाज़ार के लिए मजबूत सरकारें बढ़िया मानी जाती हैं। इस लिहाज़ से तो सब ठीक है। लेकिन मजबूत सरकार का मतलब कमजोर और बिखरा हुआ विपक्ष नहीं होता। सदन में स्पीकर की वेल के सामने आकर हूटिंग करना और कामकाज रोकना भले ही, विपक्ष की रणनीति का हिस्सा हो, लेकिन हर रणनीति कामयाब सिय़ासी पैंतरा ही हो, यह भी सही नहीं है। विपक्ष को अपने जिद पर फिर से विचार करना चाहिए।

मंजीत ठाकुर

Saturday, December 3, 2016

थोड़ी चिंता खाद की भी कीजिए

अपने देश की खेती-बाड़ी में जो बढ़ोत्तरी हुई है, जो हरित क्रांति हुई है उसमें बड़ा योगदान रासायनिक उर्वरकों का है। हम लाख कहें कि हमें अपने खेतों में रासायनकि खाद कम डालने चाहिए-क्योंकि इसके दुष्परिणाम हमें मिलने लगे हैं—फिर भी, पिछले पचास साल में हमारी उत्पादकता को बढ़ाने में इनका योगदान बेहद महत्वपूर्ण रहा है। लेकिन, अभी भी प्रमुख फसलों के प्रति हेक्टेयर उपज में हम अपने पड़ोसियों से काफी पीछे हैं। मसलन, भारत में चीन के मुकाबले तकरीबन दोगुना खेती लायक ज़मीन है, लेकिन चीन के कुल अनाज उत्पादन का हम महज 55 फीसद ही उगा पाते हैं। इसका मतलब है उत्पादन के मामले में हम अभी अपने शिखर पर नहीं पहुंच पाए हैं।

इसी के साथ एक और मसला है जिसपर ध्यान दिया जाना ज़रूरी है, वह है कि क्या हम रासायनिक खादों का समुचित इस्तेमाल करते हैं? आज की तारीख़ में भारत रासायनिक खादों की खपत करने वाला दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा देश है। लेकिन देश के उत्पादन में मदद करने वाला यह उद्योग आज कराह रहा है।

देश में नियंत्रित रासायनिक खादों की कीमते साल 2002-03 के बाद से संशोधित नहीं की गई हैं। पिछले वित्त वर्ष में सरकार पर उर्वरक कंपनियों का बकाया करीब 43 हज़ार करोड़ रूपये था। लेकिन इस बार अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में प्राकृतिक गैस की कीमतों में कमी की वजह से आज की तारीख में इस उद्योग का करीब 30 बज़ार करोड़ रूपये सरकार पर बकाया है, जो मार्च में वित्त वर्ष खत्म होने तक करीब 40 हजार करोड़ तक चला जाएगा।

यूरिया खाद की कीमतें और सब्सिडी अभी भी डेढ़ दशक पुराने हैं। हालांकि, साल 2014 के अप्रैल से यूरिया के प्रति टन पर 350 रूपये की बढ़ोत्तरी की गई थी। लेकिन यह वृद्धि सिर्फ वेतन, अनुबंधित मजदूरों, विक्रय के खर्च और मरम्मत जैसे कामों के मद में की गई थी। जाहिर है, लागत पर इसका असर नहीं होना था। इस नीति के तहत, न्यूनतम कीमत 2300 रूपये प्रति टन स्थिर किया गया। लेकिन इसके तहत अभी तक कंपनियों को भुगतान नहीं किया गया है।

साल 2015 में नई यूरिया नीति भी सामने आई। इसमें फॉर्म्युला लाया गया कि ऊर्जा के खर्च और तय कीमतों के मद में ही पुनर्भुगतान किया जाएगा। बहरहाल, साल 2015-16 में यूरिया का 40 लाख टन अतिरिक्त उत्पादन किया गया। देश में यूरिया की कमी नहीं हुई। यह बड़ी खबर थी। लेकिन कंपनियों के अधिकारी अब शिकायत कर रहे हैं कि अपनी क्षमता के सौ फीसद से अधिक किए गए उत्पादन पर उन्हें प्रति टन महज 1285 रूपये का भुगतान किया गया।

अब उर्वरक कंपनियां सरकार के सामने अपनी मांग लेकर जा रही हैं कि वह उर्वरक सेक्टर में सब्सिडी को जीएसटी से अलग रखे। क्योंकि अगर सब्सिडी को जीएसटी से अलग नहीं रखा जाएगा तो इससे कीमतें बढ़ानी पड़ेगी। यानी, 5-6 फीसद से अधिक की जीएसटी की दर से उर्वरकों की उत्पादन लागत बढ़ जाएगी, जिसे बाद में या तो सरकार को या फिर किसानों को वहन करना होगा।

उर्वरक कंपनियां सरकार द्वारा दिए जाने वाले प्रत्यक्ष लाभ अंतरण (डीबीटी) पर भी एतराज़ जता रहे हैं। कंपनियों के आला अधिकारी कह रहे हैं कि रासायनिक खादों में दिए जाने वाले सब्सिडी को कंपनियों के ज़रिए ही दिया जाए क्योंकि घरेलू गैस की तरह सीधे किसानों के बैंक खातों में दिया जाने वाला लाभ कामयाब नहीं हो पाएगा।

बहरहाल, आने वाले वक्त में, जब किसान नकदी की समस्या से जूझ रहा है और खेतों में आलू की फसल को खरीदार नहीं मिल रहे हैं, इन उर्वरक कंपनियों की मांग रासायनिक खादों की कीमत में इजाफा कर सकते हैं। ऐसे में इन कंपनियों की नज़र उस सब्सिडी पर है जो वह किसानों के नहीं अपने खातों में डलवाना चाहते हैं। अगर सरकार कंपनियों की मांग मानकर डेढ़ दशक पुरानी कीमतों को संशोधित करती है तो खाद की कीमत भी बढ़ सकती है, ऐसे में देश में खेती की लागत एक दफा फिर से बढ़ सकती है।

जो भी हो, किसानों तक निर्बाध रूप से उर्वरकों को पहुंचाने के लिए सरकार कदम तो जरूर उठाएगी। यूरिया की समुचित पर्याप्तता सुनिश्चित करके पिछले बरस एक सकारात्मक कदम दिखा था। कीमतें स्थिर रहें तो किसानों के हिस्से में ज्यादा आएगा।


मंजीत ठाकुर