Showing posts with label नॉस्टेल्जिया. Show all posts
Showing posts with label नॉस्टेल्जिया. Show all posts

Saturday, April 21, 2012

अमलतास, गुलमोहर, कचनार


लोगों को घर की याद आती होगी, घरवालों की याद आती होगी। याद आती होगी दोस्तों की, जो कहीं न कहीं नून-तेल-लकड़ी के जुगाड़ में व्यस्त होंगे। किन्ही-किन्ही महानुभावों को अपनी प्रेमिका या प्रेमिकाओं की याद आती होगी। नियति ने हाल ही में बड़ा झटका दिया है...इन सारी यादों से मैं भी गुज़रा हूं लेकिन आज मुझे बेतरह याद आ रही है एक पेड़ की।


हमारे आंगन में एक पेड़ था, कटहल का।

उस पेड़ को मैंने ही लगाया था। तब लगाया था जब हमारा आंगन इतना सिकुड़ा नहीं था।

धुपुर में, और हमारे आसपास के इलाके में शरीफे और कटहलों के बहुत सारे पेड़ होते हैं। ये बात और है कि जितने शरीफों के पेड़ हैं लोग उतने शरीफ रहे नहीं। वहां उनके फलने-फूलने के बहुत सारे औज़ार हैं। बहरहाल, बरसात के दिन थे और हमारे किसी जानने वाले ने एक कटहल भिजवाया था, पका हुआ।

खूब सोंधी-सोंधी ख़ुशबू आ रही थी उसमें से। हमने उसके एक बीज को गमले में यो ही ऱोप दिया। स्कूल से आकर तकरीबन रोज ही हम उस रोपी जगह पर देखते कि शायद कहीं कोई कोई हरापन दिख जाए। बचपन से ही आशावादी रहा हूं।

क दिन जब बरसात धारासार हो रही थी, और हम भींगते हुए स्कूल से आए, तो  देखा कि गमले में एक करीब दो इंच ऊंचा हरा-सा, लौंडा-सा चंट अंकुर सीना तान कर खड़ा है। उसे शायद मेरा ही इंतजार था। दो नन्हें-नन्हें पत्ते..और एकदम तुनुक पतली हरी डंडी जो जमीन में जा गड़ी थी।

दसेक दिन बाद हमने उस थोड़े मज़बूत हो चुके अंकुर को सलीके से मिट्टी समेत उखाड़ कर ज़मीन में लगा दिया। छोटा-सा अंकुर नर्सरी से केजी में आ गया।  दाखिला कामयाब रहा था।

म सातवी में थे, पौधा नर्सरी में। उम्र में भी करीब ग्यारह साल का फ़र्क था। लेकिन पौधे को थोड़ी देखभाल मिली और थोड़ा गोबर वाला खाद कि बस..एक साल में ही वह मेरे घुटनों तक पहुंच गया। उस समय तक मैं उसके पत्ते भी गिनने लगा था। सूखी पत्तियों को कैंची से अलग कर देता। बिलकुल नए ललछौंह पत्तियों को किसी को छूने न देता।

सके अगल बगल से निकल रही शाखाओं को मैंने कुतर दिया, ताकि पेड़ सीधा बढ़े। और भाई साब, पेड़ ऐसा बढ़ा कि जब मैं दसवीं में पहुंचा वो मेरे सिर के ऊपर पहुंच गया। ग्यारहवीं में पढने अपने क़स्बेनुमा शहर से बाहर निकल गया। वापस आता था, तो पेड़ और तन गया होता था। मैं तो खैर लहीम-शहीम था लेकिन पेड़ गबरु जवान की तरह बढ़ा। फिर वह इतना मजबूत हो गया कि मैं उसकी डालियों पर चढ़ कर हवा से बातें करता।

कटहल का वो पेड़ फला भी, और खूब फला। खूब स्वादिष्ट।

मां ने पड़ोसियों को खूब भिजवाए, उपहार में।

लेकिन जब हम बढे, तो पेड़ के लिए जगह कम पड़ने लगी। मकान का विस्तार करने की बात की जा रही थी, लेकिन घर का आकार सिकुड़ने वाला था। कमरे बढ़ने वाले थे..आंगन का आंचल छोटा करके।

मेरे तमाम विरोधों के बावजूद मेरे दोस्त का सीना छलनी कर दिया गया। मैं नाराज होकर हॉस्टल वापस चला गया। लेकिन मेरे नाराज होने का तब भी किसी पर कोई असर नहीं पड़ा, आज भी नही पड़ता है।

रे पत्ते सझली चाची नाम की पड़ोसन ले गईं, अपनी बकरियों को खिलाने। लकड़ी से भैया ने खिड़की-दरवाजों के चौखट-पल्ले बनवा लिए। मेरा दोस्त आज भी मौजूद है अपने उस रुप में..मेरे घर में।

बहरहाल, उसी दिन मैंने प्रण लिया कि अपने इसी पेड़ दोस्त की याद में अपने शहर से सटी पहाड़ी को गोद लूंगा। उसे भी लोगों ने उजाड़ कर रख दिया है। उस पहाड़ी पर भटकटैया, धतूरे, नागफ़नी, और तमाम ऐसे पौधे लगाऊंगा जो अनाथ हैं। जिन्हे कोई नहीं पूछता। साथ ही वहां गुलमोहर भी होगा, अमलतास भी, कचनार भी, पलाश भी..सारे देशी पौधे। गुड़हल या अड़हुल, सदाबहार, हरसिंगार के जंगल भी होंगे।

सिर्फ फूलों के पेड़..फलों के नहीं। फलों के पेड़ों को लेकर स्वामित्व का झगड़ा खडा हो जाता है।

सोचा है एक वहां एक तालाब भी बनाऊं, जहां देशी कमलिनियां हों, जिसे लिलि कहते हैं।

पूरी पहाड़ी पर फल का सिर्फ एक पेड़ होगा...कटहल का...सबसे ऊंची जगह पर। जिसे कोई घर बनाने के लिए काट नहीं पाएगा।

Saturday, March 3, 2012

पढ़ाई-लिखाई, हाय रब्बा- 2

तिलक कला मध्य विद्यालय सरकारी स्कूल था। उस वक्त, जब हमने स्कूल की चौथी कक्षा में एडमिशन लिया था, सन् 87 का साल था। देश भर में कूखा पड़ा था। सर लोग अखबार बांचकर बताते थे कि कोई अल-नीनो का प्रभाव है। हमारे पल्ले कुछ नहीं पड़ता था। लेकिन उस अकाल के मद्देनजर सरकार ने यूनिसेफ की तरफ से दी जाने वाली दोपहर का भोजन किस्म की योजना चलाई थी।

हर दोपहर हमारे क्लास टीचर अशोक पत्रलेख पूरी कक्षा में हर बच्चे को कतार में खड़ा कर भिंगोया हुआ चना देते थे। हालांकि, ज्यादातर चना उनके घर में घुघनी ( बंगाली में छोले को घुघनी कहते हैं) बनाने के काम आता था।

स्कूल का अहाता बड़ा सा था जिसमें हम कब़ड्डी या रबर की गेंद से एक दूसरे को पीटने वाले क्रूर खेल बम-पार्टी खेला करते थे। हमारी पीठ पर गेंदो की दाग़ के निशान उभर आते। लेकिन वो दाग़ अच्छे थे। स्कूल के आहाते में यूकेलिप्टस के कई ऊंचे-मोटे पेड़ थे। जिनकी जड़ों के पास दो खोमचे वाले अपना खोमचा लगाते।

ये खोमचे वाले भुने चने को कई तरह से स्वादिष्ट बनाकर बेचते। उनके पास मटर के छोले होते, खसिया (आधा उबले चने को नमक मिर्च के साथ धूप में सुखाने के बाद बनाया गया खाद्य) फुचका, जिसे गुपचुप कहा जाता या बाद में जाना कि असली नाम गोलगप्पे हैं।

अमड़े का फूल


काले नमक के साथ खाया जाने वाला बेहद खट्टा नींबू होता। यह मुझे कत्तई  पसंद न था। खट्टा खाना मुझे आज भी नापसंद है।

अहाते में कई पेड़ अमड़े के भी थे। अमड़ा जिसे अंग्रेजी में वाइल्ड मैंगो या हॉग प्लम भी कहते हैं। हिंदी में इसको अम्बाडा कहते हैं।

मधुपुर में बांगला  भाषा के बहुत असर था, इसलिए हम इसे अमड़ा ही कहते। इसके फूल वसंत के शुरुआत में आते थे...इनके फूल भी हम कचर जाते। हल्का खट्टापन , हल्का मीठा पन...सोंधेपन के साथ।

अमडा जब फल जाता तो उसकी खट्टी और मीठी चटनी बनाई जाती। यह हमारे स्कूल के आसपास का खाद्य संग्रह था...डार्विन ने अगर शुरुआती मानवों को खाद्यसंग्राहक माना था तो हम उसे पूरी तरह सच साबित कर रहे थे।
फला हुआ अमड़ा


लेकिन, इन खाद्यसंग्रहों के बीच पढाई अपने तरीके से चल रही थी...पढाई का तरीका कुछ वैसा ही था जैसा 19वीं सदी की शुरुआत में हुआ करता होगा।

आज की पोस्ट महज खाने पर। हम लोग हाथों में मध्यावकाश तक पढाई जाने वाली चार किताबें और कॉपियां लेकर स्कूल जाते। बस्ते का तो सवाल ही नहीं था। भोजनावकाश में दौड़कर घर जाते, खाना खाकर, वापस स्कूल लौटने की जल्दी होती।

हम जितनी जल्दी लौटते उतना ही वक्त हमें खेलने के लिए मिलता। लड़कियां इस खाली वक्त में पंचगोट्टा खेलतीं थी। पांच पत्थर के टुकड़े, हथेलियों में उंगलियों के बीच से बाहर निकालने का खास खेल, हम बम पार्टी या कबड्डी खेलते...क्रिकेट के लिए शाम का वक्त सुरक्षित रखा जाता।


--जारी

Tuesday, February 21, 2012

पढ़ाई लिखाई, हाय रब्बा

मेरे सुपुत्र का एडमिशन स्कूल में हो गया। यह एडमिशन का मिशन मेरे लिए कितना कष्टकारी रहा, वह सिर्फ मैं जानता हूं। इसलिए नहीं कि बेटे का दाखिला नहीं हो रहा था..बल्कि इसलिए क्योंकि एडमिशन से पहले इंटरव्यू की कवायद में मुझे फिर से उन अंग्रेजी कविताओं-राइम्स-की किताबें पढ़नीं पड़ी, जो हमारे टाइम्स (राइम्स से रिद्म मिलाने के गर्ज से, पढ़ें वक्त) में हमने कभी सुनी भी न थीं।

अंग्रेजी स्कूलों से निकले हमारे साथी जरुर -बा बा ब्लैक शीप, हम्प्टी-डम्प्टी और चब्बी चिक्स जानते होंगे, लेकिन बिहार और बाकी के राज्य सरकारों के स्टेट बोर्ड से निकले मित्र जरुर इस बात से सहमत होंगे कि घरेलू स्तर पर छोड़कर औपचारिक रुप से अंग्रेजी से मुठभेड़ छठी कक्षा में हुआ करती थी।

बहरहाल, शिक्षा के उस वक्त की  कमियों की ओर इशारा करना मेरा उद्देश्य नहीं। केजी के मेरे सुपुत्र की किताबों की कीमत ढाई से तीन हजार के आसपास रहने वाली है। मुझे कुछ-कुछ अंदाजा तो था लेकिन सिर्फ किताबों की कीमत इतनी रहने वाली है इस पर मैं श्योर नहीं था।

मुझे अपना वक्त याद आय़ा। जब मैं अपने ज़माने की -हालांकि हमारा ज़माना इतना पीछे नहीं है, सिर्फ अस्सी के दशक के मध्य के बरसों की बात है-की बात करता हूं तो मुझे लगता है कि हम न जाने कितनी दूर चले आए हैं। बहुत सी बातें एकदम से बदल गईं हैं। हालांकि, प्रायः सारे बदलाव सकारात्मक से लगते हैं। लेकिन पढाई के बारे में ऐसा ही कहना, कम से कम पढाई की लागत के बारे में...हम स्वागतयोग्य तो नहीं ही मान सकते।

मेरा पहला स्कूल सरस्वती शिशु मंदिर था। कस्बे के कई स्कूलों को आजमाने के बाद तब के दूसरे सबसे अच्छे स्कूल (संसाधनों के लिहाज से) शिशु मंदिर ही था। हमारे कस्बे का सबसे बेहतर स्कूल कॉर्मेल कॉन्वेंट माना जाता था...अंग्रेजी माध्यम का। पूरे कस्बे में इसमें बच्चे का दाखिला गौरव की बात मानी जाती है, हालांकि जिनके बच्चों का दाखिला इस स्कूल में नहीं हो पाता, वो यह कह कर खुद को दिलासा देते कि स्कूल नहीं पढ़ता बच्चे पढ़ते हैं। और इसकी तैयारी हम घर पर ही करवाएंगे अच्छे से।

तैयारी तो खैर क्या होती होगी। हमारा दाखिला सरस्वती शिशु मंदिर में हुआ, दाखिले की फीस थी 40 रुपये और मासिक शुल्क 15 रुपये। यह सन 84 की बात होगी। इसमें यूनिफॉर्म था। नीली पैंट सफेद शर्ट...लाल स्वेटर। बस्ता जरुरी था और टिफिन भी ले जाना होता, जो प्रधान जी के मूड के लिहाज से लंबे या छोटे वाले भोजन मंत्र के बाद खाया जाता। भोजन के पहले मंत्रो की इस अनिवार्यता ने ही नास्तिकता के बीज बो दिए थे। चार साल उसमें पढ़ने के बाद जब फीस बढ़कर 25 रुपये हो गया, और  तब घरवालों को लगा कि यह शुल्क ज्यादा है।

भैया की नौकरी लग चुकी थी लेकिन उनका वेतन उतना नहीं थी कि हमारे इस मंहगे पढ़ाई का खर्च उठा पाते। सरस्वती शिशु मंदिर से इस नास्तिक को निकाल कर तिलक विद्यालय में भर्ती कराया गया, जिसे राज्य सरकार चलाती थी और यह मशहूर था कि गांधी जी उस स्कूल में आए थे। गांधी जी की वजह से पूरे  कस्बे में यह स्कूल गांधी स्कूल भी कहा जाता। एडमिशन फीस 5 रुपये, और सालाना शुल्क 12 रुपये।

गांधी स्कलू की खासियत थी कि हम 10 बजे स्कूल में प्रार्थना करने के बाद, जो कि हमारे लिए बदमाशियों का सबसे टीआरपी वक्त होता था...सफाई के लिए मैदान में इकट्ठे होते थे। मैदान में पत्ते और कागज चुनने के बाद, क्लास के फर्श की सफाई का काम होता। लाल रंग के उस ब्रिटिश जमाने के फर्श पर ही बैठना होता था  इसलिए सफाई जरुरी थी। यह काम रोल नंबर के लिहाज से बंधा होता।

उस वक्त भी, जो शायद 1987  का साल था, किताबों की कीमत हमारी ज़द में हुआ करती थी। पांचवी क्लास में 6 रुपये 80 पैसे की विज्ञान की किताब सबसे मंहगी किताब की कीमत थी। बिहार टेक्स्टबुक पब्लिशिंग कॉरपोरेशन किताबें छापा करती थी, सबसे सस्ती थी संस्कृत की किताब और सबसे मंहगी विज्ञान की।

उसमें भी घरवालों की कोशिश रहती कि किसी पुराने छात्र से किताबें सेंकेंडहैंड दिलवा दी जाएँ। आधी कीमत पर। किताब कॉपियां हाथों में ले जाते. सस्ते पेन...बॉल पॉइंट में भी कई स्तर के...35 पैसे वाले मोटी लिखाई के बॉल पॉइंट रिफिल से लेकर 75 पैसे में पतले लिखे जाने वाले बॉल पॉइंट पेन तक।

स्याही का इस्तेमाल धीरे धीरे कम तो हो रहा था, लेकिन फैशन से बाहर नहीं हुआ था। उस वक्त बिहार सरकार द्वारा वित्त प्रदत्त सब्सिडी वाले कागजों से वैशाली नाम की कॉपियां आतीं थीं...जिन पर जिल्द चढा होता। अब हमारी गुरबत पर न हंसिएगा...वैशाली की कॉपी में नोट्स बनाना मेरे और मेरे दोस्तों का बड़ा ख्वाब हुआ करता। मध्यम मोटाई की कॉपी दो रुपये की आती थी...हमारी सारी बचत वही खरीदने में खर्च होती।

आज वैशाली में ही रहता हूं, बेटे के स्कूल में कंप्यूटरों की भरमार देखकर आया हूं, फीस की रकम देखी...पढाई मंहगी हो गई है या वक्त का तकाजा है...या लोग संपन्न हो गए है या पढाई सुधर गई है...कस्बे और शहर का अंतर....वही सोच रहा हूं। सरकारी स्कूलों में पड़कर और जिंदगी के ढेर सारे साल गरीबी में बिताकर हमने खोया है या पाया है...


जारी

Wednesday, November 9, 2011

भूली-बिसरी चंद यादें

परसों शाम को अचानक पीयूष का फोन आया। फेसबुक, मोबाईल फोन, इंटरनेट ने दुनिया न जाने कितनी बदल दी है। पीयूष से पिछले आठ सालों से बात नहीं हुई थी। बचपन का दोस्त है मेरा। फोन आजकर बरेली में है।

बारहवीं तक विज्ञान पढ़ने के बाद एक तरफ मैं परिवार के मेरे डॉक्टर बनने के ख्वाब के झूले पर हिलकोरे ले रहा था, मेरा मन दूसरी और जा रहा था, वहीं पीयूष ने अपनी मां के सामने बिना लाग लपेट के अपना बात सामने रख दी थी। उसे चित्रकार बनना था। वह बन गया।

लखनऊ चला गया वो। मैं खेती बाड़ी पढ़ने लगा। यह बाद की बात है। उसके फोन ने मुझे अतीत की खिड़की पर खड़ा कर दिया है।

महज 30 की उम्र में स्साला यह अतीत क्यों खड़ा हो जाजा है मेरे सामने..? बचपन की कई चीजें एकसाथ साकार हो जा रही हैं।

उन दिनों जब हम नौजवान थे ( माशा अल्लाह जवान तो हम अब भी हैं, मेरे एक दोस्त ने कहा कि आप अपने लिए एक उम्र स्थिर कर लें, तो ताउम्र उसी उम्र का मिज़ाज बना रहता है, उन्हीं की सलाह पर हमने अपने लिए पहले 22 और बाद में संशोधित कर 26 की उम्र तय कर रखी है) उन दिनों गरमियों की लंबी छुट्टियों के साथ दुर्गा पूजा की छुट्टी भी होती थी, कॉलेज सीधे छठ की छुट्टियों के बाद खुलते थे।

यानी पहले 30- दिन की गरमी की छुट्टी फिर एक महीने क्लास और फिर 40 दिन छुट्टी। इन छुट्टियों का सदुपयोग होता। गरमी की दोपहर मैदान में क्रिकेट खेलने के लिए विकेट तैयार करने में इस्तेमाल में आता।

हमारे झारखंड में ज़मीन काफी कठोर हुआ करती है। तो विकेट बनाने के लिए हम उसे ईटों से घिसा करते थे। उसमें स्टंप्स आसानी से गाड़े नहीं जा सकते थे, हम उस जगह पर कई रावणों (खलनायक नहीं, आगे पढ़े) का इस्तेमाल करते।

स्टंप्स आसानी से गाड़े जा सकें, इसके लिए उस स्थान पर टीम के सदस्य मूत्र विसर्जन किया करते थे। देवघर में शिवगंगा के बारे में मान्यता है कि वह रावण के मूत्र से बना सरोवर है। इस मान्यता का इतना प्रैक्टिकल अप्रोच हम अपनाते थे लेकिन किसी ने हमें पुरस्कृत करने की कोई कोशिश तक नहीं की है। खैर...

मैदान में शीशम के कई पेड़ थे। हम फुनगियों तक चढ़ जाते। गिल्ली डंडा बनाने के लिए उपयुक्त शाखाओं की खोज की जाती। सारी दोपहर गिल्ली डंडे का खेल होता। सूरज थोड़ा तिरछा होता तो क्रिकेट शुरु किया जाता।

शाम को धूल-धूसरित हम घर पहुंचते। उसके बाद हमारे कड़क भाई साब हमारी कस के कुटाई करते। लेकिन उस पिटाई का भी अपना मजा था। मधुपुर बहुत याद आ रहा है।

दिल्ली में गाड़ियों की चिल्लपों के बीच छोटा-सा मधुपुर बहुत याद आ रहा है। दो साल हो गए मधुपुर जा नहीं पाया हूं। पहले मधुपुर का था, दिल्ली आ गया हूं, यहां का होने की कोशिश में कहीं का नहीं रहा..।



Sunday, October 17, 2010

रे रे मेघनाद..बचपन की दुर्गापूजा

...लक्ष्मण ने मेघनाद से गुर्रा कर कहा, रे रे मेघनाद..तुज्झे तो मौत आण परी है...गेरुए कपड़े में लिपटे लक्ष्मण को ऐसे चीखते देख मेघनाद को किसी ने मंच के कोने से एक तीर पकड़ा दिया। बाण के फलक पर एक फुलझड़ी जल रही थी। ...ये ले दुष्ट सौमित्र..कहते हुए फुलझड़ी वाला बाण मेघनाद ने लक्ष्मण की ओर छोड़ दिया। प्रत्यंचा ढीली होते ही, बाण जमीन चाट गया, लेकिन यह मान लिया गया कि शक्ति लक्ष्मण को लग चुकी है। मंच के कोने से एक शर्ट-पैंट पहने आयोजक आकर जलती फुलझडी उठा ले गया। मंच पर वानर के भेष में सजे बच्चों में हाहाकार मचा, अपनी पूंछ की फिक्र करते हनुमान ने लक्ष्मण को उठा लिया ओर यवनिका पतन हुआ।....यह सीन है अभी नवमी की रात को मंचित हो रहे राम लीला का।

जगह- वैशाली, गाजियाबाद

सामने लोगों की भीड़ थी। बगल के पंडाल में माता के जागरण का आयोजन हो रहा था। लेकिन इन्ही दृश्यों के साथ मेरे मन में मूर्तिमान हो उठे, मेरे बचपन के दिन।

मेरा मधुपुर...। मेरा मधुपुर, बंगाल से बहुत सटा है, और कभी बिहार का हिस्सा था आजकल झारखंड का है। लेकिन बिहार का भाग होते हुए भी मधुपुर की तहजीब पर बंगाल का असर ज्यादा था। हमारे यहां दुर्गापूजा की बहुत धूम हुआ करती थी।

षष्ठी से ही समां बंधने लगता था। दुर्गापूजा के लिए हम सभी, मेरे भाई बहन और मेरे मुहल्ले के दोस्त सभी, गुल्लक में पैसे इकट्टे करते थे। साल भर। हालांकि साल भर जमा करने का धैर्य मुझमें था नहीं, लेकिन काफी रोने -पीटने के बाद भैया और मां मुझे इतने तो दे ही देते थे कि मेला घूमने का खर्च निकल ही आता था। वो भी किंग साइज..।

हमारे घर से थोड़ी ही दूरी पर है एडवर्ड जॉर्ज हाई स्कूल । सुना है इसका नाम बदल दिया गया है, क्यों कि यह जॉर्ज पंचम के वक्त में खोला गया था और उन्ही के नाम पर था। बहरहाल, इसका अहाता काफी बड़ा था। तो तरुण समिति नाम की बंगालियों की संस्था चंदा वसूल कर इस पूजा का आयोजन करती थी।

हालांकि, पूजा पूरे मधुपुर में अब भी कई हुआ करते हैं , लेकिन मेले की जो धूम तरुण समिति वाले पूजा  में होती थी, वह किसी और पूजा समिति को नसीब नहीं।

वैसे वो मेला भी क्या था..उन दिनों जब कोक और पेप्सी पीने का चलन क़स्बे में उतना आम नही हुआ था, हमारे लिए मेले में कोक और पेप्सी, सेवेन-अप, स्प्राइट, सिट्रा, थम्ज-अप वगैरह पीने का अजेंडा सबसे ऊपर होता था। मैं शुरु से साइनस का मरीज रहा, तो घर में खूब धमाके से पीटा भी जाता, आइसक्रीम खाने और फिर ठंडा पीने की वजह से। लेकिन ..सुधर गए तो कैसे गुस्ताख़..।

मेले में खिलौने की दुकानों की खूब बहार हुआ करती। हमारे सबसे लोकप्रिय खिलौने थे, डुगडुगी। इसके दो प्रकार थे। पहले में मिट्टी की चकरी पर एक झिल्ली लगी होती और बांस की करची घुनाने पर तिगिर-तिरिग की आवाज निकलती। पूरे मेले में हम इस खिलौने से गंध मचाए रखते। अकेले हमीं क्यों..हमारे सारे दोस्त हमीं जैसे थे। दूसरा वाली खिलौना बेसिकली यही था लेकिन वह गाड़ी की शक्ल में था, बाकी चलने पर उससे भी ऐसी ही आवाज निकलती।

फोटोः मंजीत ठाकुर

 एक खिलौना था, जो बांस की खपच्ची और ताड़ के पत्ते से बनाया जाता। बांस की खपच्ची पर जोर दो, जो ताड़ के पत्ते से बने इंसान का पोश्चर बदल जाता। नाचने की मुद्रा में...माया ऐसे ही नचाती है इंसान को। माया महाठगिनी हम जानी..।

बाद में जाकर पिस्तौल हमारे लिए बहुत लोकप्रिय खिलौना साबित हुआ। हमारी सारी बचत इस खिलौने के लिए रील वाली गोली खरीदने में उड़ जाती।

एक और आकर्षण था, गोलगप्पों का। गोल गप्पे देश के बाकी हिस्सों में तो पानी बताशे, पानी पूरी वगैरह कहे जाते हैं , लेकिन बांगला में कहे जाते हैं फुचकाच और गुपचुप। फचका नाम के पीछे का इतिहास तो पता नही, लेकिन गुपचुप नाम इसलिए पड़ा होगा क्यों कि यह पूरे मुंह के साइज का होता है। मसालेदार पानी से भरा फुच्का लोग गुप्प से मुंह में लेते हैं और फिर चुप हो जाते हैं..संभवतः  इसी लिए गुपचुप नाम है।



फोटोः मंजीत ठाकुर
विजयदशमी को हमारे यहां ग्रामीण, जनजातियों की भीड़ उमड़ पड़ती है। संताल लोग।  तीर-धनुष लेकर आते तो देखा है लेकिन बेवजह किसी पर चलाते नहीं देखा। वह भी आकर गुपचुप ही ज्यादा खाते।

हम लड़को में तो गुपचुप खाने का क्रेज उतना नहीं था, क्योंकि खट्टा हमें और हमारे दोस्तों को पसंद आता नही था। लेकिन गुपचुप दुकानों के आसपास लड़कियों की भीड़ रहती थी, तो अपनी माशूका से मिलने, उसे छू लेने, या उसके साथ दो बातें कर लेने के लिए गुपचुप दुकानें सर्वोत्तम थीं। क्यों कि यही वो जगह थी जहां परिवार उन्हें सहेलियों के साथ छोड़ देता था।

दोपहर में होता खिचड़ी का भोग। खिचड़ी का भोग मुझे आज भी याद है। सखु ए के पत्ते के दोने में दिया जाता। एक कोने में पायस पड़ी होता, बस उतना ही जितना सुहागन औरते सिंदूर का टीका लगाती हैं। कोंहड़े की सब्जी, आमतौर पर जिसे घर पर खाते वक्त उबकाई आ जाती थी, वही सब्जी प्रसाद के रुप में मिलती तो स्वर्गीय सा लगता। इसका रहस्य आजतक समझ नही पाया हूं।

लगता है कि एक बार फिर बचपन के दिनों में लौट जाऊं, गले खराब होने के डर से कोसों दूर, खूब आइसक्रीम खाऊं, बॉस छुट्टी नही देगा, टिकट वेटिंग है, सेलरी में इनक्रीमेंट नही हुआ है, मुद्रास्फीति बढ़ गई है, टमाटर 40 और गोभी 30 रुपये किलों के तनाव से मुक्त हो जाऊं।

एक बार फिर गुल्लक के पैसों से बलून खरीदने को मन मचल रहा है। मेरा समवयस्क भतीजा मेरे साथ है, बलून खरीदने पर मजाक बना देगा। यहां वैशाली में भी -गुपचुप- बिक रहा है, लेकिन कहता है अंकल मत खाओ एसिडिटी हो जाएगी। शीशे के बड़े -बड़े जारो में भरे गुपचुप मधुपुर में हैं..मुझे बुला रहे हैं।

Wednesday, September 9, 2009

बारिश के बहाने

आज दिल्ली का आसमान बेतरह काला है, रात, नहीं भोर में बरसात हुई थी। दफ्तर की ओर चला तो सड़कें गीली-गीली थी। ऐसे मानों किसी मां ने पैर छितरा कर रोते हुए चंट बेटे की कुटम्मस की हो, और उसके आंसू गालों पर अभी भी छितरे हों। बचपन में हम देखते थे कि आसमान हठात् काले रंग का हो जाता था। और बौछारें शुरु..। कमरे में बैठे हैं.. उजाला घटने लगा.. मां ने आदेश दिया.. आंगन से कपड़े उठा लाओं ... जबतक कपड़े उठाने गए.. तब तक तरबतर..। बड़ी बड़ी बूंदें.. ऐसी मानो किसी बंगालन कन्या के बड़े-बड़े नैन हों।

हमेशा मैंने बरसात को अपने भीतर महसूस किया है। उमड़-घुमड़ कर बरसते बादल आने से पहले ऐसी समां बांधते बस पूछिए मत...ताजी हवा कि गुनगुनती सिहराने वाली खुनक... दरअसल गरमी के बीच थोड़ी भी हवा की ठंडक मजेदार लगती है।

कई बार तो धूल भरी आंधी आती और बादलों के पीछे से झांकते सूरज महाराज की किरणें अजीब माहौल पैदा करती। अगर हम क्रिकेट खेल रहे होते तो चिल्लाते एक पैसा की लाई बजार में छितराई बरखा उधरे बिलाई... लेकिन कभी बरखा बिला जाती तो कभी हम जैसे नालायकों की दुआ में बिलकुल असर नहीं होता। ताबड़तोड़ बारिश शुरु हो जाती। हम भींगते हुए घर पहुचे नहीं कि मां ने उसी बारिश वाले अंदाज में हमें धोया नहीं।

बरसात होती तो हमारे घर के चारों तरफ जो खाली ज़मीन थी उसमें अरंडी वगैरह के झाड़ उग जाते॥ हमारे खेल के मैदान में घास की हरी चादर बिछ जाती। मैदान के एक किनारे पर पोखरा था, पोखरे में पानी लबालब भर जाता।

एक झाडी़, जिसका नाम पता नहीं उसमे पीले-पीले फूलों को देखकर मन खिल जाता। भटकटैया के फूल चूसते, मीठेपन का अहसास होता। बॉल बिरयिंग की गोलियों जैसे भटकटैया के फल जमा करना हमारे मनोरंजन का साधन होता। बरसात मे हम ड्रैगन फ्लाई पकड़ने उसके पीछे-पीछे घूमा करते। दूब की चादर पर लाल-लाल बीर बहूटियों को पकड़ लेते।

असली मज़ा तो तब आता, जब स्कूल जाने के वक्त जोरदार बारिश हो रही हो, सुबह से ही। माताजी, फिर भी नहीं मानती और छाता लेकर स्कूल के अंदर तक खदेड़ आतीं। बदले में हम वापसी में काले रंग के चमड़े के जूतों में मिट्टी लपेसकर लाल कर आते। गीले जूतों से अगले दिन स्कूल जाने की आशंका प्रायः खत्म हो जाती। लेकिन उसेक बाद घर आते ही जूतों की हालत देखकर माताजी उन्हीं जूतों से हमें दचककर कूटतीं।

हमारे मन में आज भी बरसात का मतलब जमकर बरसना होता है। दिल्ली में तो महज फुहारें होती है। बाद में जब हमने सिगरेट पीना शुरु किया तो चोरी छिपे बारिश होते हुए और अपने दोस्त की प्रेमिका के घर के सामने से भींगते हुए सिगरेट पीने का मज़ा ही कुछ और होता। हां, मीरा के घर के सामने हम सिगरेट को अपने होंठों में ले लेते। ताकि दोस्त की इमेज पर असर न पड़े।

हम लोग कई बार दूर गांव की तरफ निकल जाते थे। झारखंड का ये इलाका हरियाली के लिए मशहूर है, और उस हरियाली को मैं आज भी अपने अंदर जिंदा महसूस करता हूं। हरियाली तो दिल्ली में भी है लेकिन पता नहीं क्यों झारखंड की हरियाली में जो गंध थी, यहां महसूस नहीं हो पाती। झारखंड में इस वक्त पलाश के जंगल में पत्ते आ जाते हैं। और साल के पेड़ की हरियाली में अलग-अलग शेड्स आ जाते हैं।

तो बरसात के इन्हीं दिनों कई बार ओले भी पड़ते। कई बार तो ओले की बौछारों से सड़क कि किनारे और घास सफेद लगने लगा जाता। कहावत थी कि ओले खाने चाहिए फायदा होता है। उस फायदे की आड़ में हम खूब बऱफ के टुकड़े चुनते फिरते।

दिल्ली में ओले गिरे भी तो हम कभी चुनकर खा नहीं पाए। कभी सम्मान के नाम पर..कभी बड़ा हो गया हूं यह सोच कर। बारिश के नाम पर रोमांस के टुकड़े तो हमने खूब देखे, लेकिन कभी यह सोचा है कि बारिश में आसमान के आंसू गिरते हैं।?

अरे हां, याद आया। एक बार उड़ीसा में महाचक्रवात आया था.. शायद ९७ में। हमारे शहर में सात दिनों तक लगातार बारिश होती रही। पहले दो दिन तो मजा आया, लेकिन बाद में लगातार बिजली गुल रहने, बाहर दोस्तों से नहीं मिल पाने और कई दूसरी वजह से बारिश बोझ लगने लग गई।

फिर भी, बारिश अपने चंद्रमुखी स्वरुप में बेहतर होती है। वह ज्वालामुखी न बने तो ही बेहतर।

Monday, June 15, 2009

सिनेमा से पहली मुलाकात-2


जब हम थोड़े और बड़े हुए तो उस काले परदे के आगे की दुनिया की खबर लेने की इच्छा बलवती होती गई। तब कर एक और सिनेमाघर शहर में बन गया। सिनेमाघर की पहली फिल्म थी- याराना। सन बयासी का साल था शायद। हम छोटे ही थे, लेकिन भाई के साथ फिल्म देखने के साथ गया। अमिताभ से पहला परिचय याराना के जरिए हुआ।




उस समय तक हमारे क़स्बे में वीडियों का आगाज़ नहीं हुआ था। बड़े भाई आसनसोल से आते तो बताते टीवी और वीडियो के बारे में। हॉल जैसा दिखता है या नहीं?? पता चला बित्ते भर के आदमी दिखते हैं, छोटा सा परदा होता है। निराश हो गया मैं । लेकिन घर पर भी लगा सकते हैं यह अहसास खुश कर गया।




बहरहाल, हमारे शहर में एक राजबाड़ी नाम की जगह है, जहां लड़कों ने आसनसोल से वीडियो लाकर फिल्में दिखाने का फैसला किया था। टिकट था - एक रुपया। औरतो के लिए फिल्म दिखाई जा रही थी-मासूम और एक और फिल्म थी दीवार। मम्मी और उनकी सहेलियां मासूम देखने गईँ। शाम में दीवार दिखाई जानी थी, बाद में जब हम और रतन भैया फिल्म देखकर लौट रहे थे। हम दोनों में विजय बनने के लिए झगड़ा हो गया। वह कहते रहे कि तुम छोटे हो कायदे से रवि तुम बनोगे, लेकिन रवि जैसा ईमानदार बनना मुझे सुहा नहीं रहा था। विजय की आँखों की आग अच्छी लगी और उस दिन के बाद से लगती ही रही।




उस दिन के बाद से फिल्मों का चस्का लग गया। आर्थिक कारणों से अहब मेरा दाखिला सरकारी स्कूल में करवा दिया गया। वजह-पिताजी का देहांत हो गया। घर में एक किस्म की संजीदगी आ गई थी। मम्मी, मां में बदल गई। उनके सरला, रानू और बाकी के उपन्यास पढ़ना छूट गया। बड़े भैया कमाने पर उतरे, मंझले भाई में पढाई का चस्का लगा। मुझे बेवजह ज्यादा प्यार मिलने लगा। घर के लोग सिनेमा से दूर होते गए। सबका बकाया मैं और बड़े भैया पूरा करने लगे।




सरकारी स्कूल से भाग कर सिनेमा देखने जाने लगा। लेकिन तीन घंटे तक स्कूल और घर से दूर रहने की हिम्मत नहीं थी। उन दिनों -८६ का साल था- मधुपुर के सिनेमाघरों में जबरदस्ती इंटरवल के बाद घुस आने वालों को रोकने के लिए एक नई तरकीब अपनाई गई थी। इंटरवल में बाहर निकलते वक्त गेटकीपर एक ताश के पत्ते का टुकडा़ देता था। अब हमने एक और दोस्त के साथ िस तरकीब का फायदा उठाया। इस तरीके में हम इंटरवल के पहले की फिल्म एक दिन और बाद का हिस्सा दूसरे दिन देख लेते थे।




गिरिडीह में सवेरा सिनेमा हो, या देवघर में भगवान टाकीज, मधुपुर में मधुमिता और सुमेर, आसनसोल में मनोज टाकीज, हर सिनेमाहॉल का पत्ता-पत्ता, बूटा-बूटा हमें पहचानने लगा. गेटकीपरों के साथ दोस्ती हो गई। फिल्म देखना एक जुनून बन गया। कई बार हमारे बड़े भाई ने सिनेमाहॉल में ही पकड़ कर दचककर कूटा। लेकिन हम पर असर पड़ा नहीं।





बाद में अपने अग्रीकल्चर कॉलेज के दिनों में या बाद में फिल्में पढाई के तनाव को दूर करने का साधन बन गईं। अमिताभ के तो हम दीवाने थे। शुरु में कोशिश भी की अंग्रेजी के उल्टे सात की तरह पट्टी बढा़ने की , लेकिन नाकामी ही हाथ लगी। बाद में शाहरुख ने अमिताभ को रिप्लेस करने की तरकीबें लगाईं, तो डीडीएलजे ने बहुत असर छोड़ा था हम पर। नकारात्मक भूमिकाओं को लेकर मै हमेशा से सकारात्मक रहा हूं। ऐसे में बाजीगर और डर वाले शाहरुख को हमने बहुत पसंद किया था। उसके हकलाने की कला, साजन में संजय के बैसाखी लेकर लंगड़ाने की अदा, अजय देवगन की तरह फूल और कांटे वाला सोशल एलियनेशन, .. सब पर हाथ आजमाया।




लेकिन दूरदर्शन की मेहरबानी से फिल्मों से हमारा रिश्ता और मजबूत ही हुआ। दूरदर्सन पर मेरी पहली फिल्म याद नहीं आ रहा साल लेकिन समझौता थी। गाना अब भी याद है समझौता गमो से कर लो..। फिर अमृत मंथन, अवतार, मिर्च-मसाला, पेस्टेंजी, आसमान से गिरा, बेनेगल निहलाणी की फिल्में देखने का शौक चर्राया।




लगा कि मिथुन के हिटलर,जल्लाद, और गोविंदा की कॉमिडी से इतर भी फिल्में हो सकती हैँ। तो हर तरह की फिल्में देखना शुरु से शौक में शामिल रहा। और दूरदर्शन की इसमें महती भूमिका रही। जिसने कला फिल्में देखने की आदत डाल दी. तो हर स्तर की हिंदी अंग्रेजी फिल्में देखते रहे। हां, डीडी की कृपा से ही ऋत्विक घटक और सत्यजित् रे की फिल्मों से परिचय हुआ। तो सिनेमा एक शगल न रह कर ज़रुरत में बदल गया।




बहुत बाद में २००७ में एफटीआईआई में फिल्म अप्रीशिएशन के लिए पहुंचा तो पता चला कि एक पढाई ऐसी भी होती है जिसमे पढाई के दौरान फिल्मे दिखाई जाती हैं। तो पूरे कोर्स को एंजाय किया। फिल्में देखने और फिल्मे पढ़ने की तमीज आई। विश्व सिनेमा से परिचय गाढा हुआ।





गोवा और ओसियान जैसे फिल्मोत्सवों में ईरानी, फ्रेंच और इस्रायली सिनेमा से दोस्ती हुई और सिनेमा का वायरस मुझे नई जिंदगी दे रहा हैं... मैं हर स्तर के फिल्मे जी रहा हूं, और गौरव है मुझे इस बात का कि दुनिया में सिनेमा एक कला और कारोबार के रुप में जिंदा है तो मेरे जैसे दर्शक की वजह से, जो एक ही साथ रेनुवां-फेलेनी और राय-घटक के साथ गोविंदा के सुख, और सांवरिया भी भी झेल सकता है।





Saturday, June 13, 2009

सिनेमा से पहली मुलाकात



अपने स्कूली दिनों में कायदे से बेवकूफ़ ही था। पढ़ने-लिखने से लेकर सामाजिक गतिविधियों तक में पिछली पांत का खिलाड़ी। क्रिकेट को छोड़ दें, तो बाकी किसी चीज़ में मेरी दिलचस्पी थी ही नहीं। बात तबकी है जब मैं महज सात-आठ साल का रहा होऊंगा।.. मेरे छोटे-से शहर मधुपुर में तब, दो ही सिनेमा हॉल थे, वैसे आज भी वही दो हैं।


लेकिन सिनेमा से पहली मुलाकात, याद नहीं कि कौन सी फिल्म थी वह- मम्मी के साथ हुई थी। मम्मी और कई पड़ोसिनें, मैटिनी शो में फिल्में देखने जाया करतीं। हम इतने छोटे रहे होंगे कि घर पर छोड़ा नहीं जा सकता होगा। तभी हमें मम्मी के साथ लगा दिया जाता होगा। बहनें भी साथ होतीं.. तो सिनेमा के बारे में जो पहली कच्ची याद है वह है हमारे शहर का मधुमिता सिनेमा..।


यह पहले रेलवे का यह गौदाम थी, थोड़ा बहुत नक्शा बदल कर इसे सिनेमा हॉल में तब्दील कर दिया था। ्ब इस हॉल को पुरनका हॉल कहा जाता है। महिलाओं के लिए बैठने का अलग बंदोबस्त था। आगे से काला पर्दा लटका रहता.. जो सिनेमा शुरु होने पर ही हटाया जाता। तो सिनेमा शुरु होने से पहले जो एँबियांस होता वह था औरतों के आपस में लड़ने, कचर-पचर करने, और बच्चों के रोने का समवेत स्वर।


लेडिज़ क्लास की गेटकीपर भी एक औरत ही थीं, मुझे याद है कुछ शशिकलानुमा थी। झगड़ालू, किसी से भी ना दबने वाली..। चूंकि हमारे मुह्ल्ले की औरतें प्रायः फिल्में देखनो को जाती तो सीट ठीक-ठाक मिल जाती। शोहदे भी उस वक्त कम ही हुआ करते होंगे, ( आखिरकार हम तब तक जवान जो नहीं हुए थे) तभी औरतों की भीड़ अच्छी हुआ करती थी।


बहरहाल, फिल्म के दौरान बच्चों की चिल्ल-पों, दूध की मांग, उल्टी और पैखाने के बीच हमारे अंदर सिनेमा के वायरस घर करते गए। हमने मम्मी के साथ जय बाबा अमरनाथ, धर्मकांटा, संपूर्ण रामायण, जय बजरंगबली, मदर इंडिया जैसी फिल्में देखी। रामायण की एक फिल्म में रावण के गरज कर - मैं लंकेश हूं कहने का अंदाज़ मुझे भा गया। और घर में अपने भाईयों और दोस्तों के बीच मैं खुद को लंकेश कहता था।

मेरे पुराने दोस्त और रिश्तेदार अब भी लंकेश कहते हैं। वैसे लंकेश का चरित्र अब भी मुझे मोहित करता है, और इसी चरित्र की तरह का दूसरा प्रभावी चरित्र मुझे मोगंबो का लगा। लेकिन तब तक मैं थोड़ा बड़ा हो गया था। और मानने लगा था कि अच्छी नायिकाओं का सात पाने के लिए अच्छा और मासूम दिखने वाला अनिल कपूर या गुस्सैल अमित बनना ज्यादा अहम है।

to be cont...

Wednesday, April 1, 2009

जिंदगी की तमाम हसरतें..(जो पूरी नहीं हुईं)

मेरे जीवन में दो चीज़े बड़ी प्रॉमिनेंट रहीं हैं, मैं थियेटर में आगे और कक्षा में पीछे बैठना ही पसंद करता हूं। लोगों को थोड़ा स्ट्रेंज लग सकता है, लेकिन है ये सच ही। वजह ये कि दोनों ही जगह पर एक्शन होता है। कक्षा में आगे बैठने वाले विद्यार्थी चुपचाप एकटक मास्साब के मुखमंडल को निहारा करते थे। हमारा इन चीज़ों में कोई भरोसा नहीं था। मैं और हमारे चार साथी साइंस की क्लास के सिवा हर क्लास में पिछली बेंचों पर बैठते थे।

मजा़ आता था। पिछली बेंच पर बैठकर हम आपस में इशारों में बातें करते। संस्कृत की किताब में भर कर इंद्रसभा और दफा ३०२ पढ़ते। दफा ३०२ में वैसे तो अपराध कथाएं होती थीं लेकिन हम खासतौर पर उन एकाध पैराग्राफ पर ध्यान जमाते जो ज़रा अश्लील होती थीँ। लेकिन वह अश्लीलता भी उतनी ही थोड़ी-सी थी, जितनी हमारे संस्कृत माटसा-ब की मूंछे।

माटसा-ब की मूछें नाक के पास तो दस-बारह बालों वाली होती थी, लेकिन होठों के कोर तक पहुंचते-पहुंचते उसकी आबादी वैसे ही घट जाती जैसे कि जर्मनी में इंसानों की घट रही है।

होठ जहां खत्म होते हैं वहा उनकी मूंछ में महज एक बाल बच पाता था. साइबेरिया निष्कासित सोवियत नागरिक-सा, या फिर किसी शापित एकांतवासी गंधर्व सरीखा। राजकुमार स्टाइल में मूंछें, करीने से तराशी हुई.। बहरहाल, बात महज उन मास्साब की नहीं, यूं ही याद आ गए तो लिख दिया।

बात मैं अपनी जिंदगी में प्रॉमिनेंट चीजों की कर रहा था। पता नहीं क्यों मुझे वह चीजे ही पसंद आती हैं, जो दूसरे के लिए पसंदीदा नहीं होती। मैंने जीवन में जो चाहा, अबी तक मिला नहीं, चाहा कि दुनिया से अंग्रेजी और संस्कृत जैसे विषयों के व्याकरण मटियामेट हो जाएं.. नहीं हुए। थकहार कर कामचलाऊ अंग्रेजी सीखी। संस्कृत से तौबा ही कर ली। आगे पढ़ने की ज़रुरत ही नहीं थी।

मन में जबरदस्त इच्छा थी, लंबा होने की। किशोरावस्था में क्रेज़ था, ६ फुट २ इंच लंबा होने का। लंबाई का यह ग़ैर-सरकारी मानक अमिताभ ने तय कर दिया था। हम उसमें भी पीचे छूट गए, लंबाई ५ फुट १० इंच पर जाकर टिक गई। चाहते थे कि लड़कियों से बात करें लेकिन उस ज़माने में हमारी शकल इस कदर बेवकूफाना थी और हम इस कदर लिद्दड़ थे कि लड़कियां हमसे दूर भागती थीँ।

क्रिकेटर बनने की हसरत तो एक क्रिकेट बॉल के दाम सुनने के बाद ही पूरे हो गए। एक्टर बनने का विचार मन में भी नही आया। हां, फिल्मों में पार्श्व गायक हम ज़रुर बनना चाहते थे लेकिन उसमें कुछ बुनियादी दिक्कतें थीं। ऐसा नहीं कि गाना नहीं आता था। बस सुर-ताल थोड़े कमजो़र थे। ईमानदारी से कहें तो थोड़े नहीं बहुत कमजो़र थे। बस हमें पता नहीं चलता था कि कमजोर हैँ। हम उधर गाना शुरु करते, उधर कौए पेड़ से उड़ जाते।


बहरहाल, हसरतें खत्म नहीं हुई हैं। दुनिया भर घूमने की इच्छा है। अब इच्छा है कि सही मायनेमें अच्छा इंसना बनूं लेकिन हालात-ये हालात ही हैं जो फिल्मों में भी नायको को प्रति-नायक बना देते हैं- बनने नहीं दे रहे। बस मुंह में ऊंगली डालकर लोग झूठ-सच बुलवा रहे हैं।

Wednesday, March 25, 2009

कुटाई के किस्से-स्वेटर पेड़ पर, हम नीचे

स्कूल से लौटते वक्त रास्ते में एक बागीचा पड़ता था। लड़कियों के स्कूल का पिछला हिस्सा था वह। किसी जज साहब की कोठी थी जो बाद में जज साहब ने मरने के वक्त स्कूल के लिए दान कर दी थी। अंग्रेजो़ के ज़माने में। सो, पिछवाड़े में बेल, बेर, आम, जामुन और कटहल, शरीफे के बहुत सारे पेड़ थे। शीशम, सागवान और बेतरह झाडियां भी।

स्कूल का कुछ हिस्सा खंडहर भी था। बहरहाल, उन्हीं पेड़ो में एक-दो काग़ज़ी बेल भी थे। यानी ऐसे बेल जो कच्चे होने पर भी मीठे लगते और उनके बीज भी कम होते। बीजों में गोंद भी कम होता।

स्कूल आने के दौरान किसी एक दिन की बाद है। जनवरी या फरवरी का महीना था। बेल अपने कच्चेपन मे ही थे। अपने दोस्तों के साथ हम चढ़ गए पेड़ पर। बेल का मजा लिया और पेड़ से उतरने लगे। लेकिन थोड़ी जल्दी में थे। आधी दूर उतरने के बाद लगा, नीचे कूदना ही ठीक रहेगा। बस, हम कूद गए। कमी ये रह गई कि हमारे स्वेटर का हत्था बेस के कांटे में उलझ गया । भाई साहब फिर क्या रहा, स्वेटर का हाथ ऊपर, हम नीचे।

लेकिन इतना होने पर भी, हमने धीरज नहीं खोया। घर पहुंचे.. स्वेटर छिपा दिया। लेकिन अगले दिन फिर स्कूल जाना था, दीदी को स्वेटर मिल नहीं पा रहा था। बिना स्वेटर ही हम स्कूल गए। लेकिन जनाब दिन थे हमारे खराब। दीदी उसी रास्ते से वापस आ रही थीं, हमें स्कूल छोड़कर कि बस उन्हें पेड़ पर टंगा हमारे स्वेटर का हत्था दिख गया। फिर तो शाम को जो हमारी कुटाई हुई कि बस कलेजा मुंह को आ जाएगा आपका। इसीलिए तफशील नहीं दे रहा। कुटाई के किस्से ऐसे ही याद आते रहे तो फिर सुनाऊंगा।

Tuesday, March 24, 2009

नॉस्टेल्जिया- वेद प्रकाश शर्मा का कोख का मोती

वेद प्रकाश शर्मा का नाम लुगदी साहित्य के पढाकूओं के लिए ऐसे ही होगा जैसे हिंदी वालों के लिए तुलसी या सूर या कबीर। लेकिन अगर कोई तुलसी के मानस की बजाय विनय पत्रिका को बड़ा माने तो? जी हां, हमारे लिए तो वेद प्रकाश शर्मा के वर्दी वाला गुंडा से बड़ी याद उसके कम फेमस उपन्यास कोख का मोती की है।

जब हम नवीं क्लास में पहुंचे, तो हमारी भाभी की बड़ी बहन का लड़का किट्टू भी हमारे साथ रहने आ गया। वजह- भागलपुर में उसकी संगति गलत हो गई थी। हालांकि वह बदमाशियों में रहता था चुनांचे उसका आईक्यू मेरे से कई गुना ज्यादा था। और हिंदी, संस्कृत और इतिहास में मुझे जब चाहे ट्यूशन पढ़ा सकता था। मैथ्स और साइंस में मेरे ठीक-ठाक मार्क्स आते। तो सिंबायसिस जैसा हो गया दोनों में, आर्ट्स वो और साइंस मैं..।

हमारे घर के बाहरी हिस्से में एक कमरा एक स्टूडेंट को किराए पर दिया गया था। दिलीप.. पढ़ने में मुझसे भी ज्यादा लिद्दड़। भुसकोल..। हमसे एक दरजा आगे पढ़ता।

बहरहाल, बड़े भाई साहब हमतीनों को कुछ होमवर्क देकर सुबह देवघर चले जाते और सीधे रात ८ बजे ही वापस आते। अब मैं और किट्टू जल्दी-जल्दी काम पूरा कर लेते शाम को और अपने क्रिस-क्रॉस ौर गपशप में मशगूल हो जाते। भाई साहब आते तो देखते कि उनके दो स्टूडेंट पढाई छोड़ किन्ही और ही गतिविधियों में संलग्न है। तो भाई साहब हमें दचक कर कूटते। दिलीप बचा रहा जाता। कैसे? वह भी बडा़ मज़ेदार है।

दिलीप साहब,-मुझे याद है वो जाड़े के दिन थे- किरोसिन लैंप के सामने पालीथी मार कर बैठते थे। दोनों हथेलियां गालों पर टिका कर नागरिक शास्त्र की किताब में परिवार अध्याय निकाल कर बैठते। याद रहे नागरिक शास्त्र की किताब मे यह पहला ही अध्याय था। दिलीप आराम से बैठे-बैठे सो जाता। लेकिन दिलीप की नींद बड़ी कच्ची थी। जैसे ही किसी के आने का खटका होता, वह अपनी बड़ी-बड़ी आंखें खोलकर सीधे किताब पर ताकने लगता। भाई साहब को लगता कि कि दिलीप पढ़ रहा है, वह बच जाता। मारे जाते हम.. फड़कर भी भाई साहब की बेदर्द छड़ियों का निशाना बनते।

इन्ही हालातों से आजिज़ आकर एक दिन हम दोनों ने तय किया कि इस लौंडे का भेद खोल दिया जाए। लौंडा सोता हुआ पकड़ा जाए. रंगे हाथ। लेकिन कैसे? इसका हल मेरे पास था। किट्टू को उपन्यास पढ़ने की लत थी। किराए पर वह हर किस्म की किताबें लाता। उन दिनों वह कोख का मोती पढ़ रहा था।

तो उन्ही दिनों में, किसी बेहद सुहानी शाम.. जब हम लोग अपनी पढाई पूरी कर चुके थे और हमारा मन किसी शैतानी की ओर हमें प्रेरित कर रहा था। हमने अपने मन को मारा.. मैं संस्कृत में और किट्टू गणित में सिर धुनने लगे। दिलीप जी बेखबर सो रहे। उसके सोने के बाद मैं चुपके से उठा और किट्टू की कोख का मोती उठा लाया। नागरिक शास्त्र की किताब दिलीप की पहुंच से बहुत दूर कोने में छिप गई। उपन्यास उसके सामने आन पड़ा। खुला हुआ। केशव पंडित के कारनामे जहां थे, एक्शन वाले।

भाई साहब आए। हमें पढ़ता देख संतुष्ट हुए। दिलीप के किताब पर नज़र पड़ी तो कहा, क्या पढ़ रहे हो। देखा, वेद प्रकाश शर्मा का उपन्यास- कोख का मोती। मार पड़नी शुरु ही हुई थी कि दिलीप ने कहा, किताब वह नहीं फड़ रहा था, हमदोनों में से किसी ने रख दी है। अब जनाब उसके बाद तो बेभाव की पड़ी हजरत को। मजा़ आ गया।

अगले तीन-चार दिन तक वह हम दोनों से बोला तक नहीं, लेकिन बाद में मौन टूटा। और अपने कारनामों में हमें भी शामिल करने की बात माना, तो समझौता हो गया।

Monday, March 23, 2009

आपबीती- जब सर ने कहा, सीताराम भजो


बहुत पहले की बात है मैं तब आठवीं में पढ़ता था। शनिवार का दिन, पहले दो पीरियड पढाई और बाकी के दो पीरियड सांस्कृतिक कार्.क्रम के लिए। पहले दो पीरियड्स से पहले योग या व्यायाम की कक्षा होती थी। ब्रजनारायण झा थे ड्रिल मास्टर। सुबह उठकर ड्रिल बेहद बेकार लगता था। लेकिन पढाई के बाद सांस्कृतिक कार्यक्रम वाले हिस्से में हमारी मौज होती थी। करीब ढाई हज़ार बच्चों का सरकारी स्कूल और उनपर १४ टीचर,स दो क्लर्क थे। इनके जिम्मे भी थी हमारी पढाई।


लेकिन इसकी शिकायत नहीं, क्योंकि किरानी के रुप में काम कर रहे दोनों सर हमारे लिए बहुत कुछ करते थे और हमारे रिटायरमेंट की उम्र तक पहुंच गए मास्टरों से ज्यादा जानते थे। बस पदनाम उनका शिक्षक नहीं था। बहरहाल, दो किरानियों में से एक सुबल चंद्र सिंह थे जिनकी जोरदार आवाज़ कमजोर बच्चों की पैंट गीली कराने के लिए काफी थी।


सांस्कृतिक कार्यक्रम वाले हिस्से में हम लोग-हम पांच लड़के- बिलकुल पीछे बैठकर क्रिस-क्रॉस या ऐसा ही कुछ खेलते थे। या दोपहर छुट्टी के बाद क्रिकेट मैच की योजना में व्यस्त होते। हम पांच गाने-बजाने के मामले में साफ फिसड्डी थे। बहरहाल, एक दिन ऐसे ही दिन, सांस्कृतिक कार्यक्रम के दौरान माइक से मेरे नाम का ऐलान हुआ। बकौल सुबल चंद्र सिंह, मंजीत ठाकुर एक गाना सुनाने वाले थे।
ऐलान मैंने सुना ही नहीं। हम ऐसे एलानों पर ध्यान ही कब देते थे। बाद में, अगल-बगल बैठे साथियों ने बताया कि हमारे नाम की घोषणा हो रही है, तो फिर भारी कदमों से हम उधर चले जो मंच जैसा कुछ था।

माइक के पास पहुंचे, तो सर की कड़कदार आवाज सुनाई दी- गाओ( एक बात और बताना भूल गया- हमारे स्कूल के ठीक पास लड़कियों का भी स्कूल था। उसकी छत से लड़कियां ये सांस्कृतिक आयोजन देखने को लटकी रहती थीं।)


अब तो हमारे लिए दोहरी समस्या हो गई। अपने स्कूल के साथ-साथ लड़कियों के स्कूल में अपमान का भय। अपने स्कूल में तो हम मैनेज कर लेते, लेकिन लड़कियों के सामने हम सर उठा चल पाते क्या अगले दिन से? कितना बड़ा सवाल था..?

बहरहाल, हमने मरियल आवाज़ में सर को जवाब दिया- सर हमें गाना नहीं आता।

सर ने रहम खाकर आदेश दिया- हिंदी की कोई कविता सुना दो।

भाईयों, हिंदी कविता का तो ये हाल था कि परीक्षा की रात हम आठ पंक्तियां याद कर शुद्ध-शुद्ध लिखने का अभ्यास कर लेते थे और अगले दिन एद्जाम हॉल में वोमिट कर आते थे। बस... । आज तो हद हो गई.. कविता सुनानी थी। परीक्षा का वक्त नही था, लेकिन उसे सुनाना था सस्वर। सुर और स्वर के मामले में हम आज तक बेसुरे ही ठहरे। तब तो बात ही कुछ और थी। लड़कियों के सामने, खासकर उनमें से कई हमें अच्छी लगती थीं।

सर, याद नही हैं..। हम मिनमिनाए

सर ने ऊपर से नीचे हमें घूर कर देखा। हम सिहर गए।


हनुमान चालीसा याद है? चलो वही सुनाओ,

हमने देखा मेरे दोस्त गंभीर हो चले हैं। सुबल सर बेतरह कूटकर पीटने के लिए समूचे मधुपुर में मशहूर थे। गार्जियन अपने बच्चों को उनकी छत्रछाया में डालकर निश्चिंत हो लेते थे कि अब वह सही हाथों में हैं। सुबल सर के हाथ बहुत सही थे। बिलकुल सही, उनके हाथों से सखुए की संटी हृदय तक घाव करती। अंग्रेजी में जिसे बट .या हिंदी में जो नितंब हैं, सर के सामने डर से सूख जात थी।


- हम शुरु हुए, श्रीगुरु चरन सरोज रज, निजमन मुकुरी सुधार, बरनौं रघुवर बिमल जस, जो दायक फल चारि......िसके बाद क्या, हलक सूख गया।


बामन का बच्चा होकर हनुमान चालीसा तक याद नहीं.. गदहा.. मूर्ख, उल्लू, पटपट, टमटम टमाटर.. .ये उनकी ऐसी गालियां थी, जिसके बाद छडियों के झंझावात की आशंका होती थीं।
लेकिन भाग्य... छडियों को मौका नहीं मिला.. सर ने आदेश देकर हमारे सभी साथियों को मंच तक बुलाया। पांचों को एक लाईन में बिटाकर कहा, चलो सीताराम-सीताराम ही भजो, जैसा अष्टयाम में भजते हैं।


अगले सात-आठ मिनट तक सीताराम के भजने के बाद हमारी जान छूटी। लोग हंसते रहे। हम कटत रहे। लेकिन हमें सबक मिल गया। अगले ही दिन पांचों दोस्तों ने कॉमन मिनमम प्रोग्राम तैयार किया। सभी ने एक -एक कविता याद कर ली। एक दोस्त ने तीन-चार फिल्मी गीत याद कर लिए। हम सुर में लिद्दड़ हैं, तो पंद्रह-सतरह साफ-सुथरे चुटकुले और एक दोस्त ने इकबाल वाला सारे जहां से अच्छा हिंगोस्तां हमारा पूरा गाना रट लिया।


हमें जलील कर हमारे पर कतरने वाले सर बूढे हो चले हैं। उनकी सेवा के कुछ ही दिन बचे हैं। आजकल बच्चे बताते हैं कि अब सर बिलकुल नहीं मारते। कहते हैं, पेंशन प्लान कर रहा हूं।

Wednesday, September 17, 2008

बेटो के लिए पर्व-जितिया


अभी कल भाभियां गप्प कर रही थीं, जितिया पर्व के बारे में॥। जितिया बिहार और यूपी में पुत्रवती महिलाओं के बीच लोकप्रिय त्योहार (उपवास) है। मान्यता है कि जिस भी औरत के बेटे हों, उसे यह त्योहार करना चाहिए और िस उपवास के करने से बेटों की उम्र लंबी होती है।


उपवास के बाद एक राजा जीमूतवाहन की कथा भी सुनी जाती है, और भारतीय श्रुति परंपरा के हिसाब से गलत भी नहीं है । हां, पितृसत्तात्मक समाज का एक उदाहरण ये त्योहार भी है। लेकिन मेरे खयाल से महिला विमर्श वालों ने और महिला के अधिकारों के अलंबरदारों ने बहुत कुछ लिखा होगा इस पर।
इस त्योहार पर मैं जो सोच रहा हूं और जो लिख रहा हूं और जो मुझे याद आ रहा है वह थोड़ा अलग है। सोच ये रहा हूं कि जितिया त्योहार के पीछे इतिहास क्या हो सकता है?

मुझे लगता है कि सौ-दो सौ बरस या उससे भी पहले मृत्युदर बेहद ज्यादा थी। अकाल, बाढ और महामारी जैसी बीमारियां बहुत थीं। लडाईयां भी होती रहती थीं, ऐसे में लोगों की औसत उम्र बहुत नहीं होती थी। ३५- या ज्यादा-ज्यादा ४०। ऐसे में पंडितो ने घबराई मांओं को यह त्योहार सुझाया होगा। बाप बेटे के लिए उपवास क्यो नहीं करता यह अलग और अहम सवाल है। शायद कमाऊ इंसान के लिए ज्यादा उपवास वगैरह करना ठीक न माना जाता हो।


दूसरे, जितिया त्योहार मेरे लिए एक अलग याद लेकर आता है। परिवार में छोटा होने का फायदा हमेशा मुझे मिलता रहा। बहनों ने भी कभी इस बात की शिकायत नहीं कि मां उनकी लंबी उम्र के लिए कोई व्रत या उपवास क्यो नही करती। जितिया उपवास शुरु होने से पहले मां हमें अल्लसुबह उठा देतीं। बहनें जबरन मुंह धुलवाकर थाली में चिउडा-दही परोस देतीं। मैथिली में इस प्रक्रिया को ओँठगन कहा जाता है।


लंबे उपवास से पहले महिलाओं को भारी बोजन करवा देने का रिवाज था। मुमकिन है कि मां अकेले खा लेना मुनासिब न समझती हों। लेकिन यह इस त्योहार का अभिन्न अंग हो जाता था, कि मां सुबह-सुबह लिंग विभेद किए बिना सभी बच्चों को उत्कृष्ट किस्म का खाना खिला देतीं।


तो जनाब हम भी सारा भोजन उदरस्थ करके बिना कुछ बोले पुनः लंबी तान देते। भरा पेट होने की वजह से ९ बजे या फिर दस बजे तक ही जगते। सुबह-सुबह तर माल उडाने का जो मज़ा था, वह आज भी याद आता है। फिर मां जिस दिन यानी तकरीबन डेढ दिन बाद जब व्रत तोड़तीं, एक बार हमारे लिए महाभोज होता।


मन कर रहा है कि जितिया से पहले मां के पास घर चला जाऊं, लेकिन बॉस ने छुट्टी देने से मना कर दिया है।

Tuesday, July 29, 2008

इश्क और बरसात के दिन

बरसात के दिन खूब नॉस्टेल्जिक करते हैं मुझे। दिल्ली में तो रिमझिम होती है।
मकान बचपन के दिन में हम देखते थे कि आसमान हठात् काले रंग का हो जाता था। और बौछारें शुरु..। कमरे में बैठे हैं.. उजाला घटने लगा.. मां ने आदेश दिया.. आंगन से कपड़े उठा लाओं जबतक कपड़े उठाने गए.. तब तक तरबतर..। बड़ी बड़ी बूंदें.. ऐसी मानो किसी बंगालन कन्या के बड़े-बड़े नैन हों।


बरसात होती तो हमारे घर के चारों तरफ जो खाली ज़मीन थी उसमें अरंडी वगैरह के झाड़ उग जाती॥ हरी चादर बिछ जाती। हमारे पैतृक गांव से बाढ़ की खबर आती। मकान बह जाते, क्यों कि फूस से बने होते थे। मकान क्या होते थे, झोंपड़ियां हुआ करती थीं, बांस के फट्टों को बांधकर उनमें अरहर की सूखी टहनियां कोंचकर मिट्टी से लीप दिया जात। हो गई दीवार तैयार, तो ऐसे मकान के लिए क्या रोना।


गांव में हमारे मकान को उंचे टीले की तरह मिट्टी भरकर बनाया गया बाद में। फिर बरसात में बाढ़ आने के बाद आंगन तक पानी आता तो सही लेकिन घर नहीं गिरता। नीचे उतरते ही बड़ा मैदान, जिसके बीचों-बीच पाकड़ का बड़ा-सा पेड़ है। लोग कहते हैं कि उसमें शिव के गण भैरव का निवास है। भैरव बाबा॥। उनका चबूतरा भी बचा रहता। कमर तक पानी..हमारे चचेरे भाई मछलियां ढूंढते।


उस भैरव बाबा के उस आंगन से घर के आंगन के लिए चढ़ाई करते वक्त हम चढाई पर फिसलन से धड़ाके से गिरते थे। कई लोगों ने बगटुट भागने के दौरान खुद को दंतहीन पाया।

बहरहाल, मधुपुर, झारखंड का क़स्बा है, जहां हम पिताजी के निधन के बाद भी रहते रहे। लाल मिट्टी का शहर.. बरसने के फौरन बाद पानी गायब.. कहां जाए पता ही नहीं। सड़क उँची-नीची। पत्थरों भरी। वहां बंगाल का बहुत प्रभाव था। लड़कियों के जिस स्कूल के पीछे हम खेलने जाते वहां घास की चादर बिछ जाती। एक झाडी़, जिसका नाम पता नहीं उसमे पीले-पीले फूलों को देखकर मन खिल जाता। भटकटैया के फूल चूसते, मीठेपन का अहसास होता। दूब की चादर पर लाल-लाल बीर बहूटियों को पकड़ लेते। हथेलियों पर लाल बीर बहूटियो को देखकर हम आपस में बातें करते कि यही रेशम के कीड़े हैं। लेकिन बाद में पता चला कि रेशम के कीड़े अलग होते हैं। दरअसल बीर बहूटियों के थोरेक्स बड़े मखमली होते थे तो हमारी जुगाड़ तकनीक ने उसे रेशम का कीड़ा मान लिया था। अस्तु॥

असली मज़ा तो तब आता, जब स्कूल जाने के वक्त जोरदार बारिश हो रही हो, सुबह से ही। माताजी, फिर भी नहीं मानती और छाता लेकर स्कूल के अंदर तक खदेड़ आतीं। बदले में हम वापसी में काले रंग के चमड़े के जूतों में मिट्टी लपेसकर लाल कर आते। गीले जूतों से अगले दीन स्कूल जाने की संभावना प्रायः खत्म हो जाती।

लेकिन उसेक बाद घर आते ही जूतों की हालत देखकर माताजी उन्हीं जूतों से हमें दचककर कूटतीं। हमारे कई सीनियर बरसात में प्रेम-ज्वर से पीडि़त हो जाते। बाद में भाभी ने बरसात होते ही चाय और पकौड़े का चलन शुरु किया, जिसे हम आज भी जारी रखने के मूड में हैं। हमारे मन में आज भी बरसात का मतलब जमकर बरसना होता है। दिल्ली में तो महज फुहारें होती है। बाद में जब हमने सिगरेट पीना शुरु किया तो चोरी छिपे बारिश होते हुए और अपने दोस्त की प्रेमिका के घर के सामने से भींगते हुए सिगरेट पीने का मज़ा ही कुछ और होता। हां, मीरा के घर के सामने हम सिगरेट को अपने होंठों में ले लेते। ताकि दोस्त की इमेज पर असर न पड़े।

हम लोग कई बार दूर गांव की तरफ निकल जाते थे। झारखंड का ये इलाका हरियाली के लिए मशहूर है, और उस हरियाली को मैं आज भी अपने अंदर जिंदा महसूस करता हूं। हरियाली तो दिल्ली में भी है लेकिन पता नहीं क्यों झारखंड की हरियाली में जो गंध थी, यहां महसूस नहीं हो पाती। झारखंड में इस वक्त पलाश के जंगल में पत्ते आ जाते हैं। और साल के हरियाली में अलग-अलग शेड्स आ जाते हैं।

Wednesday, July 9, 2008

संस्कृत की परीक्षा और मैं

मेरे जीवन में दो चीज़े बड़ी प्रॉमिनेंट रहीं हैं, मैं थियेटर में आगे और कक्षा में पीछे बैठना ही पसंद करता हूं। लोगों को थोड़ा स्ट्रेंज लग सकता है, लेकिन है ये सच ही। वजह ये कि दोनों ही जगह पर एक्शन होता है। कक्षा में आगे बैठने वाले विद्यार्थी चुपचाप एकटक मास्साब के मुखमंडल को निहारा करते थे। हमारा इन चीज़ों में कोई भरोसा नहीं था। मैं और हमारे तीन साथी साइंस की क्लास के सिवा हर क्लास में पिछली बेंचों पर बैठते थे।

मजा़ आता था। पिछली बेंच पर बैठकर हम आपस में इशारों में बातें करते। संस्कृत की किताब में भर कर इंद्रसभा और दफा ३०२ पढ़ते। दफा ३०२ में वैसे तो अपराध कथाएं होती थीं लेकिन हम खासतौर पर उन एकाध पैराग्राफ पर ध्यान जमाते जो ज़रा अश्लील होती थीँ। लेकिन वह अश्लीलता भी उतनी ही थोड़ी-सी थी, जितनी हमारे संस्कृत माटसा-ब की मूंछे। माटसा-ब की मूछें नाक के पास तो दस-बारह बालों वाली होती थी, लेकिन होठों के कोर तक पहुंचते-पहुंचते उसकी आबादी वैसे ही घट जाती जैसे कि जर्मनी में इंसानों की घट रही है। होठ जहां खत्म होते हैं वहा उनकी मूंछ में महज एक बाल बच पाता था. साइबेरिया निष्कासित सोवियत नागरिक-सा, या फिर किसी शापित एकांतवासी गंधर्व सरीखा। राजकुमार स्टाइल में मूंछें, करीने से तराशी हुई.

लेकिन संस्कृत वाले माट साब पूरे जल्लाद थे। कपड़े के थान के बीच में रहने वाली मोटी गोल लकडी़ की छड़ी या फिर सखुए की संटी लेकर क्लास में आते। ज़ोर-ज़ोर से बुलवाते- सत्यं ब्रूयात, प्रियं ब्रूयात॥ न ब्रूयात सत्यम् अप्रियम्.. जिसने लता शब्द रुप कंठस्थ नहीं किए.. उसकी हथेली में संटी के दाग़ उभर आते।

स्कूल में उर्दू-फारसी पढ़ाने वाले मौलवी साहब का स्वभाव नरम था। प्रायः अपनी क्लास मे मौलवी साहब भूगौल पढाते और हमसे पूछते स्पेन की राज़धानी का नाम बताओ, या फिर जाड़े के मौसम में मानसून अपने देश में किस हिस्से में आता है। पता नहीं क्यो ंहम भूगोल के सवालों के उत्तर जानते होते। और मौलवी साहब हमारी पीठ पर प्यार से धौल जमाते।

बहरहाल, उर्दू पढना नवीं या दसवीं में शुरु करना मुमकिन नहीं था। खासकर तब जब राम की जन्मभूमि को आजाद कराने और मंजिर वहीं बनाने का उन्माद छाया था, यह विचार मन में लाना भी घरवालो और दोस्तो के लिए पागलपन ही था।

दोस्तो के साथ हमने संस्कृत की परीक्षा मे बेहतर करने का नया नुस्खा निकाला। प्रश्नों के उत्र हिंदी में लिख दो, स्याही की कलम से लिखों और कलम की निब में एक प्यारी सी फूंक मार दो॥ जहां-जहां विसर्ग हलंत और बिंदु लगने हैं भगवत्कृपा से स्वयं चस्पां हो जाएँगे। लेकिन दसवीं की बोर्ड परीक्षा के लिए हमने तकरीबन पांच सात सौ अनुवाद रट लिए, पचीस-तीस संस्कृत के पैराग्राफ रट्टा मारे और राम का नाम लेकर परीक्षा में बैठे.. और गज़ब ये कि पास भी हो गए। आप भी आजमाएं, संस्कृत लिखने का नया तरीका कैसा है बताएँ।

Thursday, July 3, 2008

दोस्त की मार्मिक प्रेम कहानी

सबसे पहले डिस्क्लेमर... इस कहानी का मुझसे कोई लेना-देना नहीं है और यह कहानी मेरे दोस्त की आपबीती है। उसके साथ घटी मधुर-तिक्त घटनाओं का मैं राज़दार रहा हूं। हां, सावधानी बरतते हुए मैंने पात्रों के नाम बदल दिए हैं।

ये डिस्केमर देना भी ज़रूरी है, क्योंकि लोगों के सवालात उछलने लगते हैं कि दोस्त का नाम लेकर कहीं खुद की कहानी तो नहीं कह रहे हो? ऐसा करके।

खैर जनाब, उन दिनों जब हम पाजामे का नाड़ा बांधना सीख रहे थे और लड़कियों को महज एक झगड़ने की चीज़ माना करते थे, उन्हीं दिनों हमारे एक दोस्त को एक लड़की भा गई। फिल्मों का असर कह ले या पूर्वजन्म के संबंधों का इस जन्म में फलित होना। बात ये रही कि अमृत को लड़की भा गई। और ऐसी-वैसी नहीं भायी.. दीवानगी की हद तक भा गई।

क्लास में जाता तो होमवर्क करके लाने की बजाय उस लड़की को देखता रहता। अब सुविधा के लिए लड़की का नाम भी कहे देते हैं। नाम था मीरा।

अब जनाब, पूरे स्कूल में ऐसी बात फैलते तो देर लगती नहीं। अमृत शनैः शनैः मीरा का मोहन नाम से मशहूर हो गया। फिर हम लोग तेजी से बढ़ने लगे। दसवीं तक आते-आते लड़की को भी पता हो गया, कि कलाकार-सा दीखने वाला लड़का मुझसे प्यार करता है।

हमारा दोस्त गणित की क़ॉपियों में सुंदर-सुंदर आंखों की तस्वीरें बनाने लग गए। बीजगणित में अंडा पाने वाले छोकरे की हाथ की कलाकारी से हम दांतो तले अंगुलियां दबाते। फिर क्या हुआ कि लड़की ने अपनी बायोलजी की प्रैक्टिकल कॉपी उसे बनाने को दी.. लड़का खुशी से बेतरह नाच उठा। हमें शानदार पार्टी मिली।

अमृत अब उसके घर के नीचे से बहुधा गुजरने लगा। लड़की बालकनी में दिख गई तो स्टेशन रोड पर चाय की दुकान पर एक चाय मुहब्बत के साथ (यानी मलाई मार के) हमारे लिए तय होती थी। और कुछ नहीं, तो अलगनी से सूखते कपड़े ही दिख जाते। अमृत उससे भी खुश हो जाता।

फिर दसवीं के बाद, जब हम साइस पढें या कला या कॉमर्स। या साइंस लें भी तो प्योर साइंस या बायोलजी.. इसकी उधेड़बुन में लगे थे.. अमृत अपने प्यार की गहराईयों में खोया हुआ था। फिर अमृत भी निकल गया.. पढने और मैं भी पटना चला गया। छुट्टियों में हम घर आते तो अमृत अपनी महबूबा को देखने के लिए तरसता हुआ मिलता।

हमारा छोटा सा शहर है, लड़के-लड़कियों के मिलने के लिए बुद्धा गार्डन या नेहरु पार्क नहीं हैं। न मॉल थे, न मल्टीप्लेक्सेज़.. तो पंचमंदिर आया करते थे सब.. मैं जन्म से ही नास्तिक था,लेकिन दोस्त के लिए मंदिर चला जाता। फायदा मुझे ये होता था कि कुछ लड़कियां मैं भी लाईन मार लेता। नारियल का प्रसाद मिलता चने के साथ वह फाव में।


उन्हीं दिनों हमारे पिछड़े क़स्बे में पिज्जा हट की आहट हुई और दोनों वहां मिलने लगे। साथ में मेरा होना ज़रूरी था। ठीक वैसे ही जैसे उन दिनों के हिट हो रहे फिल्मों में अक्षय कुमार या उसी तरह के हीरोज़ के साथ दीपक तिजोरी हुआ करत थे। दोनों पता नहीं क्या-क्या बातें करते, और अपनी ब्राह्मण वृत्ति के अनुरुप ही मैं तब तक खूब पित्सा पेलता और कॉफी डकारता।

लेकिन फिर बारहवी के बाद मैं एग्रीकल्चर पढ़ने चला गया..अमृत भी बीएफए पढ़ने लखनऊ विश्वविद्यालय आ गया। मिलना कम हो गया।

गरमी की एक छुट्टियों में जब हम दोनो अपने क़स्बे में ही थे, उस मीरा की शादी की खबर आई। शादी में हम दोनों पहुंचे.. लेकिन न तो हमारी हिम्मत थी, न अमृत की.. हमने कोई नायकत्व नहीं दिखाया। मैं बस खाना खाकर आ गया, अमृत भूखा ही रहा।

उसी तरह फिर कुछ दिन कमरे में बंद रहके और कुछ दिन शेव करने पर बैन लगाकर अमृत वापस लखनऊ गया और मेरा तो एक मूक दर्शक होने का जो दायित्व था वह हम आज तक पूरा करते आ रहे हैं। सवाल ये कि क़स्बाई प्रेम का क्या यही अंत होता है, जिसमें सफल प्रेम कहानियां उन्हें ही माना जाता है, तो असफल रहती हैं।

अमृत के वाकये ने एक सबक मुझे दिया, जो मैं किसी को नहीं बताने जा रहा क्यों कि अगर बता दूं तो प्रेम का अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा। गुस्ताखी माफ़...

Monday, June 30, 2008

फुरसतिया दिनों की याद

गुस्ताख़ को पिछले फुरसत के दिन याद आ रहे हैं। क्यों याद आ रहे हैं॥इसका जवाब भी है कि शनिवार को दफ्तर में सत्रह घंटे तक लगातार काम करने के बाद आराम के दिन याद आने ही थे।


मेरा जो गृहनगर है॥झारखंड का छोटा-सा क़स्बा.. लाल मिट्टी वाला। सुबह उठने के विषाणु (वायरस) मुझमें कभी नहीं थे। बड़े भाई साहब जूता लेकर दचकने उठते थे, तब ही बिस्तर छोड़ता था। आंखे मलता बाहर निकलता तो देखता कि हर घर के मुखिया हाथों में खुरपी लेकर घास खोद रहे हैं, बागीचे में पानी दे रहे हैं, आंगन में झाड़ू दे रहे हैं या यूं ही फुरसतिए कि तरह क्रोटन के पौधों से सूखी पत्तियां ही नोच रहे हैं। अस्तु.. थोडी़ देर बाद उनकी जब ये काम खत्म होता तो किसी एक के घर के बाहर सब जमा होते... कुरसियां डल जातीं।


घर के स्वामी छोटी बिटिया या मेरे जैसे नाकारा बेटे को चाय का आदेश देते। चाय आ जाती। आकाशवाणी पर समाचार सुने जाते। पहले दिल्ली वाले, पटना वाले फिर रांची से मतलब कम-अज-कम दो बुलेटिन तो सुने ही जाते। फिर बीबीसी वाले समाचारों का चर्वण होता। गांव की राजनीति से फिलीस्तीन मसला सब सुलझा लिया जाता। कुछ भाईबंद खेल के जानकार होते। नए लड़के सचिन के क्रिकेटिय टैलेंट की बात होती। कपिल के इनस्विंगर की॥ रवि शास्त्री के धीमे खेलने की.. ऐसी ही बातें। विधायक जी के चावल चुराने से लेकर स्थानीय एमपी साहब पहले कोयले की मालगाडियो से कोयले चुराया करते थे इसका रहस्योद्घाटन भी।


ऐसी ही बातों में चाय का एक और दौर चलता। बातों के अंतहीन सिलसिले... जो तभी टूटता जब गृहस्वामिनी परदे के पीछे से डांटने की-सी मुद्रा में कहती - क्यों जी स्कूल (या दफ्तर जो भी लागू हो) नहीं जाना। फिर जमात धीरे-धीरे बिखरती । अपने-अपने घर में नहाने खाने के बाद एक हाथ से साइकिल और दूसरे से धोती का छोर पकड़ के लोगबाग दफ्तर को निकल लेते।


दप्तर में काम की कमी या काम करने की इच्छा की कमी के मद्देनज़र पहले शान से कुरसी झड़वाई जाती। स्कूल के केस में मास्टर साहब प्रार्थना के बाद या उसेक दौरान ही पहुंचते। मुझे याद है प्रार्थना के दौरान मास्टर साहब लोग आंखे मूंद कर पता नहीं किसके खयालों में खो जाते थे। संभवतः अपने इष्ट के खयाल में। लेकिन लड़के इस अवसर का फायदा उठाते। कुछ तो घर को फूट लेते ॥ बाकी जो फूट नहीं सकते वे आपस में लड़कर,एक दूसरे को गाली देकर या पादकर ही अपनी भड़ास निकालते।


फिर हर दो पीरियड के बाद चाय के दौर होते। शाम के वक्त॥यानी पांच बजे दफ्तर के लोग दो हिस्सों में निकलते।। एक जो सब्जी बाजार होते हुए घर लौटेंगे। और दूसरे जिनकी बीवियां वित्त मंत्री हुआ करतीं। लौंडे खेल के मनौदान की तरफ... बरसात होती तो फुटबॉल खेला जाता, जाडों में क्रिकेट और गरमियो में बेल तोड़कर खाए जाते। जिसके अंदर का गोंद हमारे मुंह पर लगा जाया करता था। गरमियों में आम तौर पर हम पतंगे उड़ाते, गोली खेलते या फिर गिल्ली डंडा खेलते। अब तो मौसम के हिसाब से खेल का चलन खत्म हो गया है और बरसात हो या गरमी क्रिकेट ही खेली जाती है।


वह मैदान लड़कियों के स्कूल का पिछवाड़ा था। और उस दौरान हम प्यार-मुहब्बत के बारे में ज्यादा नहीं जानते थे। जब जान गए तो अपना एक पीरियड गोल कर पहले ही मैदान पहुंच जाते थे। टापने। कईयों को उस दौरान ट्रू-लव (सच्चा प्यार) भी हुआ। हमारा चैहरा ही इतना चूतियाटिक था, कि लड़कियां घास नहीं डालती थी।(राज की बात ये कि आज भी नहीं डालती) फिर दसवीं के इम्तिहान के बाद लड़के छिटक गए। कोई पटना कोई रांची निकल गया। एक दोस्त की प्रेम कहानी बडी़ मार्मिक है। वह दसवीं के बाद लखनऊ चला गया। उसकी प्रेमकथा इतनी मार्मिक है कि दिल पर पत्थर रखकर लिखना पड़ेगा। बड़ा पत्थर चाहिए होगा, खोज रहा हूं मिलते ही फिर बताऊगा। लेकिन अभी तो वो पल याद आ रहे हैं, जब चिंता नाम की चीज़ नहीं थी। एक ही चिंता हुआ करती थी संस्कृत की परीक्षा में पास होने की।

Tuesday, May 20, 2008

एफटीआईआई के दिन-३


एफटीआईआई में पहले ही दिन से मन रमने लगा था। गरमी तेज़ तो थी लेकिन दोस्तों ने अहाते के ही 'शांताराम पॉन्ड' जैसी जगह से परिचित करवा दिया था। यह तालाबनुमा गड्ढा वी शांताराम के नाम पर है। इसी जगह पर 'संत तुकाराम' की शूंटिंग भी हुई थी। जिन लोगों ने 'संत तुकाराम' देखी है, उन्हें वह सीन ज़रूर याद होगा जिसमें विरोधियों की वजह से संत तुकाराम अपने सारे ग्रंथ नदी में बहा देते हैं। वह नदी इसी तालाबनुमा गढे में पानी भरकर फिल्माया गया था। इस गढे की गहराई बमुश्किल ४-५ फीट होगी। चारों तरफ इमली, बरगद और ऐसे ही दूसरे पेड़। लोगो को गांव का शॉट लेना हो या जंगल का या फिर मंदिर का। इसी जगह की मदद ली जाती है। शांत, सुकुनबख्श जगह।

विनेश और सुनील मेहरू जी ने दारू की दुकान भी खोज निकाली। एफटीआईआई के पास ही में है। लॉ कॉलेज रोड में एफटीआईआई से निकलते ही दाहिनी ओर मुड़ने पर बाजार जैसी जगह है। यहीं पर है तत्वसेवन की जगह।

उधर, एफटीआईआई के अहाते में ही पहाड़ी की तलहटी में एक हनुमान मंदिर है। जिसकी राह में ढेरों झाडि़यां है और जहां और मानव मल की बू से मुठभेड़ करते हुए ही जा पाएंगे। मंदिर वैसे साफ-सुथरा है।

एफटीआईआई में प्रभात स्टूडियों के वक्त की ढेरों निशानियां मौजूद है। वह स्टूडियों भी.. जिसमें काग़ज़ के फूल के गुरुदत्त के सबसे मार्मिक शॉट फिल्माए गए थे।

शाम में हम पांचों लोग डेक्कन जिमख़ाना के पास के मशहर चाय की दुकान 'गुडलक'में भी गए। इसी दुकान में गुरुदत्त साहब देवानंद के साथ आया करते थे। उस वक्त दोनों में से किसी को भी ब्रेक नहीं मिल पाया था। एफटीआईआई से डेक्कन जिमखाना के बीच जंगल हुआ करता था और दोनों महानुभाव साइकिल से गुडलक तक जाया करते थे। (बाद में इस बात की पुष्टि देव साहब ने गोवा में मुलाकात के दौरान भी की।) देव साहब और गुरुदत्त ने एक दूसरे से वायदा किया कि जो भी पहले हिट हो गया दूसरे को मदद करेगा। संभवतया देव साहब को पहले ब्रेक मिल गया और उनकी 'टैक्सी ड्राईवर' हिट हो गई। फिर भी उन्होंने अपना वायदा बिसराया नहीं और गुरुद्त्त के साथ 'बाज़ी' जैसी फिल्म की।

एफटीआईआई में रहते हुए ऐसी कई जानकारियों ने मुझे हैरान किया। कुछ की पुष्टि हुई है कुछ की बाकी है।

to be contd..

Wednesday, May 14, 2008

एफटीआईआई के दिन १


पिछले साल पुणे गया था। एफटीआईआई में। पढ़ने, फिल्म के बारे में सीखने।

दिल्ली से ट्रेन चली तो मन में एक उत्कंठा थी, नए शहर को जानने को लेकर। पुणे पहुंचते-पहुंचते रात हो गई। मैं ने भी सीधे एफटीआईआई का रुख करने की बजाय, डेक्कन ज़िमखाना के पास रुकना पता नहीं क्यों ज़्यादा मुनासिब समझा। वहीं नदी के किनारे पुल के पास मेला सा लगा था। लोगों की भीड़ रात के दस बजे जवान होनी शुरु हुई थी। मेले में ही डिनर से निवृत होकर जमकर सोया।

अगले दिन दस बजे हम जैसे फिल्मी कीड़ों को एफटीटीआई में रिपोर्ट देनी थी। मैंने सामान होटल में ही छोड़ा, और एफटीआईआई पहुंचा। मन में दिल्ली वाली मानसिकता थी कि पता नहीं एफटीआईआई के हॉस्टल की क्या व्यवस्था हो।

लॉ कॉलेज रोड में घुसते ही, एक परंपरा और आधुनिकता का मिलन दिल को छू गया. लगा पेशवाओं का ज़माना मेरी आँखों के सामने जिंदा हो उठा हो।

एफटीआईआई का गेट और पहाड़ी की तलहटी तक सीधी जाती सड़क एक प्रतीक है। एफटीआईआई के अहाते की हर शै में सिनेमा की मिलावट है। यह संस्थान सरकारी तौर पर अस्तित्व में आने से बहुत पहले एक शानदार इतिहास रखता रहा है।

एफटीआईआई की इमारत को पहले प्रभात स्टूडियो कहते थे। बहरहाल, हम बात कर रहे थे प्रतीक की। एफटीआईआई में घुसना बेहद मुश्किल है, लेकिन एक बार आप अंदर दाखिल हो गए, जाहिर है एक छात्र के तौर पर, तो फिर आपको यहां की आबो-हवा से मुहब्बत हो जाएगी। गेट से घुसते ही पहले तो सीधी चढाई है। जो पहा़डी़ की तलहटी तक चली जाती है। लेकिन पढाई पूरी कर और सैद्धांतिक दुनिया से बाहर क़दम रखते ही ढलान का सामना करना पड़ता है। दुनियावी मामले पढाई की बातों से कितने विलग होते है।

बहरहाल, मुझे एफटीआईआई में हॉस्टल में कमरा भी मिल गया और ११ बजे से शुरु होने वाले पहले ऑरियेंटेशन की क्लास के बाद मैं मय सामान एफटीटीआई आ गया।

जारी...

Monday, November 19, 2007

मैं अतीतजीवी हो रहा हूं..

लोग गरियाएंगे.. दूसरों की तरह गुस्ताख़ भी नॉस्टलेजिक होने लग गया है। लेकिन इंसाफ कीजिए गुरुजनों.. पुरानी बातें याद करने पर, उन्हें अश्लीलता के साथ दुहराने पर भारतीय दंड संहिता की किसी धारा के तहत आरोप नहीं तय होते। होने चाहिएं ये हम भी मानते हैं।अस्तु, बात ये है अपनी एक पुरानी सी छेड़छाड़ात्मक कविता कल रात पढ़ रही था। तो याद आ गया पिछला जमाना।

उन दिनों.. जब आत्महत्या न करने की कसमें खाने के दिन थे....दोस्तों के मुंह से भारतीय जनसंचार संस्थान का नाम खूब सुना था। लोगों ने कहा बौद्धिक बनने के लिए( अर्थात् पत्रकारोचित कमीनेपन में संपूर्णता से दीक्षित होने के लिए) आईआईएमसी में दाखिला लेना अनिवार्य है। डरते कदमों से हम जेएनयू का चक्कर काट कर संस्थान के लाल ईँटों वाली इमारत में दाखिल हुए थे। हम.. यानी मैं और मेरा एक और दोस्त.. मेरा दोस्त गया था जेएनयू में संस्कृत में पोस्ट ग्रेजुएशन का फॉर्म लेने। मैंने पूछा था एमबीए के ज़माने में संस्कृत पढ़कर क्या उखाड़ लोगे.. उसने तपाक से जवाब दिया था- प्रोफेसरी। जितने पढ़ने वाले कम होते जाएंगे.. प्रोफेसरी का चांस उसी हिसाब से बढ़ता जाएगा।

खैर...मई के तीसरे हफ्ते में हमारी प्रवेश परीक्षा थी। (पढ़े- इंट्रेस टेस्ट) अस्तु..कई बच्चे (?) जमा थे। सेंटर था, केंद्रीय विद्यालय..जेएनयू के पास वाला। कार में, बड़ी और लंबी कारों में परीक्षार्थी आए थे। हमारा कॉन्फिडेंस खलास हो गया। सुंदर लड़कियों को देखते ही हम वैसे भी हैंग कर जाते हैं। लगा, जितना पढ़ा है आज तक सब बेकार होने जा रहा है। अपने मां-बाप पर ग़ुस्सा आ गया। क्यों गरीब हुए, अमीर नहीं हो सकते थे? परीक्षा दी। पास भी हो गया , पता नहीं कैसे? जिस दिन लिखित रिजल्ट निकला.. खुद गया देखने। संस्थान के परिसर में। कुछ दिन बाद, इंटरव्यू था। और कई बड़े नाम और राघवाचारी...। विकास पत्रकारिता पर सवाल। पर पता लगा बाद में कि इसमें से कुछ भी काम नहीं आने वाला। सारे सिद्धांत घुसड़ जाने वाले हैं। बाद में, इधर एक सोचने-विचारने वाले पत्रकार से एक निजी टेलिविज़न चैनल में इंटरव्यू के दौरान भालू के कुएं में गिरने की ख़बर को लीड बनाने लायक मसाला तैयार करने को कहा गया। श्रीमान तो बिफर गए। लेकिन चिरंतर और शाश्वत सत्य तो यही है न। सर्वे गुणाः काञ्चनमाश्रियान्ति की तर्ज पर सर्वे गुणाः टीआरपीमाश्रियांति....बहरहाल, संस्थान में अंग्रेजीदां लोगों लड़के और लड़कियों का जमावड़ा था। हम भदेस.... जल्दी ही हिंदी पखवाड़ा आया। एक कविता भी लिखी थी। फ्लर्टात्मक। एडवरटाइजिंग की लड़कियों की सुंदरता का बखान करता। कई के नाम भी थे। कभी याद रहा तो छाप भी दूंगा।
जारी...